कृषि-सुधार:
आलोचनात्मक मीमांसा
प्रमुख आयाम
1. वैचारिक
पृष्ठभूमि
2. कृषि
का उपनिवेशीकरण
3. भारतीय बाज़ार में व्यापक सम्भावनाएँ
4. वैश्विक
प्रक्रम का हिस्सा: भारतीय कृषि-सुधार
5. कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन की आशंका
6. पश्चिमी देशों का अनुभव
7. सहकारिता का विकल्प
8. कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना में बेहतर
वैचारिक पृष्ठभूमि:
उदारीकरण और
वैश्वीकरण ने कॉर्पोरेट पूँजीवाद को मज़बूत बनाते हुए मल्टी-नेशनल कम्पनीज(MNC’s)
और ट्रान्स-नेशनल कम्पनीज (TNC’s) के ज़रिये ऐसा जाल बुना जिसमें राष्ट्रीय सरकारें
फँसती चली गयीं, और आज आलम यह है कि इनका आकार कई देशों की जीडीपी को भी लाँघ चुका
है और राष्ट्रीय सरकारों पर इनकी गिरफ्त इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि वे खुद को इनके
समक्ष बेबस महसूस कर रही हैं। आलम यह है कि राष्ट्रीय सरकारों की नीतियाँ क्या
होंगी, आज इसका निर्धारण भी प्रत्यक्षतः या परोक्षतः इन्हीं के द्वारा होता है और
सरकारें इन्हीं के एजेंडे के अनुरूप काम करती हैं। और उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि
सरकारों के आने-जाने से इन्हें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता, होता वही है जो ये चाहती
हैं।
पहले इस
कॉर्पोरेट पूँजीवाद ने शहरी मध्य-वर्ग को बेहतर जीवन के सपने दिखाते हुए शहरी
औद्योगिक अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लिया और, और अब किसानों को बेहतर कीमत
का सब्ज़बाग दिखाकर ग्रामीण कृषक अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश
में लगा हुआ है, और खासियत यह है कि यह ज़मीन एवं फसल के मालिकाना हक़ के भ्रम को
बनाये रखते हुए ऐसा करने की कोशिश में है, ताकि भोले-भाले किसानों को आसानी से
बरगलाया जा सके। इसके लिए इसने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और लैंड लीजिंग के जरिए
कॉर्पोरेट फार्मिंग का ढ़ाल की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया है।
इस बात को बड़ी
आसानी से फार्म बिल को लेकर उत्पन्न परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है
जो पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और उसे नेतृत्व प्रदान करने वाले सबसे बड़े राजनीतिक दल
काँग्रेस का भी एजेंडा रहा है और राजग सरकार का भी, जिसे भाजपा नेतृत्व प्रदान कर
रही है। दोनों में अगर कहीं अंतर है, तो उसकी तीव्रता और उसके लिए प्रयुक्त
शब्दावली का। साथ ही, उस स्पेस का, जो इस नयी व्यवस्था में कॉर्पोरेट्स और किसानों
को मिलना है।
कृषि का उपनिवेशीकरण:
इसी आलोक में उपनिवेशवाद के बदलते हुए स्वरुप की ओर इशारा
करते हुए गिरीश मालवीय लिखते हैं, “उपनिवेशवाद
कभी नहीं मरता, बस अपना रूप बदल लेता है। आज यह
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ‘खाद्य उपनिवेशवाद’ के रूप में आकार ग्रहण कर रहा है। दुनिया भर में लैटिन अमेरिका से लेकर एशिया
और अफ्रीका तक में खेतिहर जमीन के बड़े-बड़े सौदे हो रहे है। दाल, खाद्य तेल, चीनी और डेयरी क्षेत्र से जुड़ी
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दुनिया भर में कृषि-भूमि का अधिग्रहण कर रही हैं और एक
आकलन के अनुसार, पिछले डेढ़ दशक में तकरीबन चार करोड़
हेक्टेयर कृषि-भूमि
या तो खरीदी या पट्टे पर ली जा चुकी है।”
दरअसल मध्य वर्ग
के तीव्र उभार की पृष्ठभूमि में पूँजीवादी उपभोक्तावादी मूल्यों के बढ़ते हुए
वर्चस्व ने मनुष्य की जीवन-शैली में जिन बदलावों की प्रस्तावना की, उसने उनके फ़ूड
हैबिट में भी बदलाव लाए और इसके साथ प्रसंस्करित खाद्य-उत्पादों की भूमिका उसके
जीवन में महत्वपूर्ण होती चली गयी। इसने प्रसंस्करित खाद्य-उत्पादों के लिए विशाल
एवं वर्द्धनशील बाज़ार सृजित करते हुए खाद्य-प्रसंस्करण के क्षेत्र में व्यापक
संभावना को जन्म दिया जिसे भुनाने के लिए देशी-विदेशी कॉर्पोरेट में होड़-सी चल पड़ी।
इसने कृषि के उपनिवेशीकरण के मार्ग को प्रशस्त किया।
भारतीय बाज़ार में व्यापक सम्भावनाएँ:
कृषि-जलवायु
की विविधता और बड़ा बाज़ार होने के कारण भारत में खाद्य-प्रसंस्करण उद्योगों के लिए
व्यापक सम्भावनाएँ हैं। वर्तमान में भारतीय खाद्य-बाजार में खाद्य-प्रसंस्करण उद्योगों
की भागीदारी 32 प्रतिशत के स्तर पर, कुल भारतीय निर्यात
में 13 प्रतिशत और कुल उद्योग में 6 प्रतिशत
के स्तर पर है। और, आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे भारतीय
मध्यवर्ग का आकार और इसकी आय बढ़ेगी, भारत के घरेलू बाज़ार में खाद्य-प्रसंस्करण के
लिए सम्भावनाएँ बढ़ती चली जाएँगी। भारतीय खाद्य-बाजार की इन्हीं सम्भावनाओं पर आज भारत के कृषि-व्यवसाय में पहले से ही पैर जमाए नेस्ले,
केडबरी, गोदरेज, डाबर
जैसी कम्पनियों की भी नज़र है और रिलायंस, पतंजलि,
वालमार्ट, बिग-बास्केट, अदानी,
रिलाईंस फ्रेश एवं सफल जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भी नज़र। दरअसल, भारतीय रिटेल बाज़ार पर नज़रें गड़ाई ये कम्पनियाँ
सीधे किसानों तक पहुँचना चाहती हैं ताकि अपनी लागत को कम कर सके और अपने प्रॉफिट
मार्जिन बढ़ा सके। फार्म बिल इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है ताकि
कम्पनियों के लिए किसानों तक पहुँचाना और सस्ती कीमतों पर कृषि-उत्पादों को हासिल
करना आसान हो सके।
वैश्विक
प्रक्रम के हिस्से के रूप में भारतीय कृषि-सुधार:
आज भारत में
कृषि-सुधारों के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह कोई अलहदा प्रक्रिया नहीं है। यह
वैश्विक प्रक्रम (Global Phenomenon) का हिस्सा भर है। भारत से लेकर चीन तक की कम्पनियाँ
लैटिन अमेरिकी देशों से लेकर एशियाई और अफ़्रीकी देशों तक पहुँच कर ऐसा ही करने की
कोशिश कर रही हैं। भारतीय कम्पनियों ने भी तंजानिया जाकर दलहन की खेती की जमीन के
सौदे किए हैं, और अब कृषि-सुधारों के नाम पर यही प्रक्रिया भारत में शुरू हो रही
है। दरअसल यह कहना गलत होगा कि शुरू हो रही है, यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि
शुरू हो चुकी है और अब कृषि-सुधारों एवं कृषि के आधुनिकीकरण-तकनीकी उन्नयन के नाम
पर एक एजेंडे के तहत् इसे व्यापकता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है।
22 जुलाई,2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ने अमेरिकी कम्पनियों
को सम्बोधित करते हुए कृषि-सुधारों से सम्बंधित इस अध्यादेश के बारे में बतलाते
हुए वालमार्ट जैसे अमेरिकी कम्पनियों को भारत में आकर निवेश करने के लिए आमंत्रित
किया। ध्यातव्य है कि वालमार्ट अमेरिका में फेल कर चुकी है और अब वह भारतीय बाज़ार
में भविष्य की सम्भावनाओं को तलाश रहा है। इससे पहले भी पिछले साल मई,2019 में
वालमार्ट तब चर्चा में आयी थी जब इसके प्रमुख ने तत्कालीन खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग
मंत्री हरसिमरत
कौर को उनकी जीत पर बधाइयाँ दी थीं। और, इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखे
जाने की ज़रुरत है कि लोकसभा द्वारा इस बिल को पारित किये जाने के बाद इस बिल को
लेकर उभरने वाले विवाद के पहले तक अकाली दल (बादल) ने इस बिल को अपना समर्थन दिया।
अब यह बात अलग है कि पंजाब में गहराते कृषक असंतोष और तेज होते किसान आन्दोलन ने न
केवल उन्हें इस्तीफे के लिए विवश किया उन्हें
जून से सितम्बर तक आते-आते हरसिमरत कौर का उनके समर्थन विरोध में बदला,
बल्कि उन्हें इस्तीफ़े के लिए और अकाली दल (बादल) को राजग गठबंधन से बाहर निकलने
के लिए विवश किया। इतना ही नहीं, रिलायंस ने भी इसके लिए व्यापक स्तर पर तैयारी की
है और इसी के मद्देनज़र उसे बिग बाज़ार को ख़रीदा है।
कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन की आशंका:
अब अगर उपरोक्त बिन्दुओं के आलोक में कृषि-सुधार
से सम्बंधित हालिया पहलों पर गौर किया जाए, तो हालिया तीनों
संशोधनों का उद्देश्य किसानों को लंबी अवधि के बिक्री-अनुबंधों में प्रवेश करने की
अनुमति देना, खरीदारों की उपलब्धता को बढ़ाना और
खरीदारों को थोक में कृषि-उत्पाद खरीदने की अनुमति देना है। रेगुलेटेड
कृषि-मण्डियों से बाहर किसानों से शुल्क-मुक्त खरीद, अनुबंध खेती और कई
खाद्य-पदार्थों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर निकालते हुए उसकी असीमित मात्रा
में स्टॉकिंग की अनुमति का सीधा फायदा इन कॉर्पोरेट्स और कम्पनियों को मिलना है। कृषि
मामलों के विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा कहते
हैं, “86 प्रतिशत छोटे किसान एक
ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य तक
जाने के सवाल ही छोड़ दें। इसलिए ये बिल बाज़ार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं।” इसलिए यह कहा जा रहा है कि
इसके कारण भारतीय कृषि में कॉर्पोरेट्स का बढ़ता हुआ हस्तक्षेप उसके
कॉर्पोरेटाइजेशन की प्रक्रिया को तेज करेगा और किसानों को बाज़ार से कहीं गहरे स्तर
पर जोड़ता हुआ बाज़ार जोखिम की सम्भावनाओं को भी विस्तार प्रदान करेगा, जबकि किसानों
को बाज़ार जोखिम से संरक्षण प्रदान करने का मैकेनिज्म अबतक विकसित नहीं हो पाया है।
भले ही सरकार प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार में अपनी उपज की कीमत तय करने और
अपनी मर्जी से अपनी उपज बेच सकने की किसानों की आजादी की बात कर इन सुधारों को
जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही हो, पर किसानों को इस बात की आशंका है कि इस बहाने केंद्र
सरकार भारत में भी पश्चिमी देशों का मॉडल
थोपना चाहती है। उनका तर्क है कि:
a. भारत में भूमि-जनसंख्या
अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है, और
b. भारत में खेती-किसानी यहाँ के
लोगों के लिए जीवन-यापन का जरिया है, न
कि पश्चिमी देशों की तरह व्यवसाय।
उन्हें लगता है कि नई व्यवस्था में कीमतों के निर्धारण से लेकर खरीद-बिक्री
का नियंत्रण व्यवहार में कारपोरेट क्षेत्र और बिचौलियों के हाथों में चली जाएगी। ऐसी
स्थिति में फसलों की खरीद से लेकर उनके भंडारण एवं विपणन तक की नई व्यवस्था में संसाधन
और सुविधाओं से सम्पन्न कॉर्पोरेट का हस्तक्षेप कॉर्पोरेट बाजार में किसानों से
लेकर उपभोक्ताओं तक को हाशिये पर पहुँचा देंगे। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में
रखा जाना चाहिए कि कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था में
संकट-मोचक के रूप में कृषि क्षेत्र की भूमिका को भी प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा।
शायद आने वाले पीढ़ियाँ कृषि-क्षेत्र की वैसी भूमिका न देख पाएँ, जैसी भूमिका इसने
सन् 2008-09 के आर्थिक संकट और कोविड-19 संकट की पृष्ठभूमि में निभायी।
पश्चिमी देशों का अनुभव:
भारत में किसानों को यह समझाने की कोशिश की जा रही
है कि प्राइवेट सेक्टर ही किसान को सही कीमत दे सकता है और किसान को इसका फायदा
मिलेगा, जबकि दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि
मार्केट रिफॉर्म्स की वजह से किसानों को फायदा हुआ हो। कृषि-विशेषज्ञ
देविंदर शर्मा ने अपने आलेख ‘किसानों के देश की अपनी चिन्ताएँ’ में बतलाया
कि अमेरिका में पिछले छह-सात दशकों से खुला बाजार है, फिर भी यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के चीफ इकोनॉमिस्ट का कहना है कि सन्
1950
में अमेरिका में प्रति डॉलर किसानों का प्रॉफिट मार्जिन 41% के स्तर पर था जो घटता हुआ 15% के स्तर पर रह गया
है। अमेरिकी किसानों की लगातार घटती हुई आमदनी
धीरे-धीरे कृषि को खत्म करती जा रही है और इसका प्रमाण यह है कि:
1. अमेरिका में ओपन मार्केट के 6-7 दशक
बाद कृषि पर निर्भर आबादी घटकर 1.5 फीसदी रह गई है, और
2. अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं की दर शहरी
क्षेत्रों के मुकाबले 45 फीसदी अधिक हैं।
यह उन
बाज़ार-सुधारों की नाकामी को दर्शाता है जो अमेरिका ने कृषि-क्षेत्र में सात दशक
पहले किया था, जबकि अमेरिकी
किसानों की पहुँच तो घरेलू क्या, विदेशी बाज़ारों तक है। इसके परिणामस्वरुप
खुले बाजार एवं बेरोक-टोक भण्डारण से लेकर अनुबंध खेती एवं वायदा बाजार तक
व्यवस्था होने के बावजूद अमेरिकी किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ती चली गयी। अमेरिका में किसानों को घरेलू समर्थन के रूप में औसतन
लगभग 7 हजार डॉलर सालाना सब्सिडी दी जाती है, फिर भी अमेरिकी किसानों की
ऋणग्रस्तता चरम पर है और उन पर बैंकों की बकाया राशि लगभग 425 बिलियन डॉलर है।
अमेरिका, यूरोप
और कनाडा में सिर्फ कृषि नहीं, बल्कि कृषि-निर्यात भी
सब्सिडी पर टिका है। सन् 2018 में अमेरिका और यूरोप में 246
बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दी गई। अकेले यूरोप ने 100 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी जिसमें
तकरीबन आधी डायरेक्ट इनकम सपोर्ट थी। अमेरिका में किसानों
को मिल रही औसत सब्सिडी 7,000 डॉलर प्रतिवर्ष है, जबकि
भारत में करीब 200 डॉलर। अगर सब्सिडी हटा दी जाए, तो अमेरिका, यूरोप और कनाडा का एक्सपोर्ट 40
फीसदी तक घट जाएगा। इन सबके बावजूद, अमेरिका में वर्ष 1970 से
लेकर अभी तक 93 प्रतिशत डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं। यूरोप
की हालत भी इससे बहुत अलग नहीं है। इसी पृष्ठभूमि में देविन्दर शर्मा ने यह प्रश्न भी उठाया है कि अगर
वालमार्ट और टेस्को
जैसे बड़े-बड़े रिटेलरों ने अमेरिकी किसानों को सही कीमत दी होती, अमेरिकी किसान न
तो दिवालिया होते और न ही उनके सामने खेती छोड़ने या दिवालिया होने की नौबत आती।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि अमेरिका
और यूरोप में फेल हो चुके मॉडल से भारतीय कृषि एवं किसानों के कायाकल्प की अपेक्षा
कहाँ तक उचित है? विशेषकर तब, जब आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन(OECD) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष (2000-16) के बीच उचित दाम नहीं मिलने के कारण भारत के किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, और आर्थिक
सर्वेक्षण,2016 के अनुसार, भारतीय किसान-परिवार
की औसत सालाना आय 20,000 रुपये है।
सहकारिता
का विकल्प:
भारतीय परिस्थितियों और भारतीय परिवेश
को ध्यान में रखें, तो सहकारिता एक बेहतर विकल्प हो सकता है। सहकारिता के क्षेत्र
में वैश्विक स्तर पर कैलिफोर्निया के ब्लू डायमंड
बादाम और नॉर्वे की सामन मछली का सफल
सहकारी मॉडल का उदाहरण मौजूद है, जबकि भारत में दुग्ध-उत्पादन के
क्षेत्र में अमूल और बिहार में सुधा का मॉडल मौजूद है। इसी तर्ज़ पर भारतीय किसानों
को भी संगठित होकर खाद्यान्न,
फल और सब्जियों में सहकारी खेती के मॉडल को अपनाना चाहिए।
अगर किसान सहकारी संगठन के रूप में खुद को
संगठित कर खेती-किसानी का काम करते हैं, तो सहकारी संगठनों पर खुद अपने ही
नियंत्रण के कारण उन्हें कम्पनियों और कॉर्पोरेट्स पर उनकी निर्भरता भी नहीं रहेगी।
साथ ही, बाज़ार में मोल-भाव करते हुए वे अपने हितों के संरक्षण में समर्थ भी होंगे।
इस क्रम में, अगर उन्होंने सहकारी प्रयासों के ज़रिये अपनी उपज को प्रसंस्करित करने
की कोशिश की, तो मूल्य-वर्द्धन से वे लाभान्वित भी होंगे और
कृषि-प्रसंस्करण एवं खाद्य-प्रसंस्करण के ज़रिए किसानी एवं किसान की स्थिति को
परिवर्तित करने में समर्थ भी होंगे।
कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना
में बेहतर:
इस सन्दर्भ में कृषि मामलों के जानकार देविन्दर
शर्मा ने कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना में सहकारी संगठन को बेहतर
माना क्योंकि जहाँ सहकारी संगठन में किसान स्वयं मालिक होते हैं, वहीं कृषक
उत्पादक संगठन(FPO) के सन्दर्भ में ये शिकायतें आ रही हैं कि बिचौलिए आढ़तियों
से लेकर सरकारी अधिकारियों तक ने ऐसे संगठन बना रखे हैं जो इसके मूल उद्देश्य को
ही डायल्यूट करते हैं। मतलब यह कि कई मामलों में कृषक उत्पादक संगठन(FPO)
के नाम पर ही एक नया बिचौलिया खड़ा किया जा रहा है।
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