कृषि
बाज़ार-सुधार: अबतक के अनुभव
प्रमुख आयाम
1. कृषि-मण्डियों की व्यवस्था
2. कृषि-सुधारों की प्रक्रिया की तार्किक परिणति
3. हिमांशु का विश्लेषण
4. राज्यों के द्वारा कृषि-बाज़ार सुधार
5. ई-नाम योजना, अप्रैल
2016
6. स्टैंडिंग कमिटी का
सुझाव
7. बिहार का अनुभव:
a. बिहार के किसानों के हालात
b. निवेश और बाज़ार-अवसंरचना
के हालात
c. विश्लेषण
कृषि-बाज़ार-सुधार
कृषि-मण्डियों की व्यवस्था:
एपीएमसी एक्ट के द्वारा सृजित कृषि-मण्डियों पर अक्सर अस्पष्ट
एवं अपारदर्शी क्रियाप्रणाली का आरोप लगाते हुए कृषक हितों के बजाय बिचौलियों और
कारोबारियों के हितों को संरक्षण प्रदान करने का आरोप लगाया जाता है। चूँकि
यह किसानों एवं कारोबारियों के लिए मण्डियों के माध्यम से कृषि-उत्पादों की
खरीद-बिक्री अनिवार्य बनाता है, इसलिए इन मण्डियों के सन्दर्भ में यह
शिकायत की जाती है कि यह कारोबारियों के प्रवेश एवं निषेध को अवरुद्ध करता है। ऐसा
नहीं है कि मण्डी-व्यवस्था के सन्दर्भ में की जाने वाली उपरोक्त सारी शिकायतें
नाजायज हैं। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें कई राज्य सरकारों ने मॉडल एपीएमसी
एक्ट,2003 के आलोक में कृषि-बाज़ार सुधारों की दिशा में पहल की और प्रतिस्पर्धात्मक
कृषि-बाज़ार सृजित करने का प्रयास किया।
कृषि-सुधारों की प्रक्रिया की
तार्किक परिणति:
सन् 1991 में भारत में आर्थिक सुधारों
की प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन ये आर्थिक सुधार उद्योग-केन्द्रित एवं शहर-केन्द्रित
बने रहे और कहीं-न-कहीं इस प्रक्रिया में किसान एवं किसानी की उपेक्षा हुई। पर,
इसका मतलब यह नहीं है कि कृषि-क्षेत्र में सुधार ही नहीं हुए। 1990 के दशक के मध्य
तक आते-आते जब आर्थिक विकास की प्रक्रिया गतिरुद्ध होने लगी, तो कृषि-क्षेत्र की
और ध्यान गया और फिर कृषि-सुधारों पर चर्चा शुरू हुई। उसी चर्चा का परिणाम था मॉडल एपीएमसी एक्ट,2003 जिसके जरिये राज्यों के
समक्ष एक अम्ब्रेला लॉ की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी और उनसे अपेक्षा की गयी कि वे
इसके आलोक में कृषि-मण्डियों में सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए
कृषि-बाज़ार को प्रतिस्पर्धात्मक बनाएँ, ताकि किसानों को उनकी फसल की वाज़िब कीमत मिल
सके। इस प्रक्रिया में इसे सन् 2007 में, सन् 2013 में और सन् 2017 में
पुनः-संशोधित किया गया। सन् 2017-18
के दौरान केंद्र सरकार ने मॉडल एपीएमसी और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग
एक्ट्स को जारी किया था जिसमें कृषि-उत्पादों की मुक्त आवाजाही
के निर्बाध व्यापार, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और मार्केटिंग
चैनलों के विविधिकरण के जरिए प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार के सृजन की अनुमति दी गई
थी। स्पष्ट है कि फार्म बिल कृषि-सुधारों के प्रश्न पर
पिछले दो दशकों से चल रही चर्चा और इस चर्चा के आलोक में शुरू हुई कृषि-सुधारों की
प्रक्रिया की तार्किक परिणति है, पर विडंबना यह है कि इस चर्चा और इसके अनुरूप
होने वाले सुधारों की प्रक्रिया में धीरे-धीरे किसान ही गुम होते चले गए क्योंकि
राजनीति और कृषि-मण्डियों में राजनीतिक हस्तक्षेप ने किसानों को ही हाशिये पर
पहुँचाया।
हिमांशु का विश्लेषण:
इसी आलोक में कृषि-मण्डियों की व्यवस्था की शक्तियों और सीमाओं को
स्वीकार करते हुए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हिमांशु ने
अपने आलेख ‘हार्डली द 1991 मोमेंट फॉर एग्रीकल्चर’
में लिखा है, “यद्यपि कृषि-मण्डियों में एक चौथाई से भी कम
कृषि-व्यापार सम्पन्न होता है, पर कृषि-उत्पादों की कीमतों के निर्धारण में इनकी
भूमिका अहम् होती है।” स्थानीय स्तर पर कृषि-व्यापार में कृषि-मण्डियों और
मध्यस्थ आढ़तियों की अहमियत को उद्घाटित करते हुए उन्होंने लिखा है, “कृषि-मण्डियों
और इनमें व्यापारिक सुविधा-प्रदायन करने वाले मध्यस्थ आढ़तियों को लगातार बदनाम
करने की कोशिश कृषि-बाज़ार की फंक्शनिंग की गलत समझ की ओर इशारा करती है। ये
मध्यस्थ कृषि-व्यापार के व्यापक इको-सिस्टम से अभिन्न हैं जिनका किसानों एवं
कारोबारियों से गहरा जुड़ाव होता है।” इसकी मूलभूत विसंगतियों की ओर इशारा करते
हुए उन्होंने लिखा है, “कृषि-मण्डियों के साथ
समस्या न तो उनकी संरचना के कारण है और न ही रेगुलेशन के कारण, वरन् मूल समस्या इन
मण्डियों की फंक्शनिंग में राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण आती है। और, यह
समस्या उन बड़ी मण्डियों में कहीं अधिक है जिन्हें वाणिज्यिक फसलों, सब्जियों एवं
फलों के कारोबार में विशेषज्ञता हासिल है और जिनका उत्पादन क्षेत्र-विशेष में
संकेंद्रित है। लेकिन, इन कमियों के बावजूद ये मण्डियाँ बाज़ार तक किसानों की पहुँच
को सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभा रही हैं।”
राज्यों के द्वारा
कृषि-बाज़ार सुधार:
अब अगर कृषि बाज़ार-सुधारों पर विचार करें, तो पिछले करीब डेढ़ दशकों के
दौरान 17 राज्यों ने मॉडल अधिनियम की अपेक्षाओं के अनुरूप कृषि-सुधारों की
प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए कृषि-मण्डियों को अपेक्षाकृत उदार एवं प्रतिस्पर्धी
बनाने की कोशिश की है, यद्यपि यह भी सच है कि इन मण्डियों के नियमन एवं प्रकार्यण
(Functioning) में राज्य-वार काफी भिन्नताएँ मौजूद हैं और अबतक यह कोशिश आधे-अधूरे
मन से हुई है। इस आधे-अधूरे कोशिश के मूल में वोटबैंक की राजनीति और इस दृष्टि से
स्थानीय स्तर की राजनीति में इन बिचौलियों की प्रभावशीलता, पालिटिकल फण्डिंग में
इनकी भूमिका और इसकी पृष्ठभूमि में इन मध्यस्थ बिचौलियों एवं स्थानीय राजनीतिक
नेतृत्व के बीच नापाक-गठबंधन है जो कहीं-न-कहीं मध्यस्थ बिचौलियों को संरक्षण
प्रदान करता हुआ एपीएमसी सुधारों की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर रहा है।
अब अगर राज्य-वार भिन्नताओं के प्रश्न अपर विचार करें, तो जहाँ केरल में मण्डी-व्यवस्था का अस्तित्व ही नहीं
है, वहीं बिहार ने इसे सन् 2006 में समाप्त कर दिया। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल,
ओडीशा, गुजरात और आंध्र प्रदेश ने सब्जी एवं फल के
कारोबार को डीरेगुलेट कर दिया है और अपने यहाँ निजी बाज़ार को अनुमति देते हुए एकीकृत कारोबारी लाइसेंस एवं
बाज़ार-शुल्क की एकल बिंदु आरोपण व्यवस्था को अपनाया है। तमिलनाडु ने इन
सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बाज़ार-शुल्क की व्यवस्था ख़त्म कर दी है।
झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, हरियाणा और राजस्थान ने भी इनमें से एकाधिक
सुधारों की दिशा में पहल की है। तमिलनाडु ने उझावर संढ़ाई, आंध्र प्रदेश एवं
तेलांगना ने रायतू बाज़ार, कर्नाटक ने रायथा सांठे, ओडीशा ने क्रुषक बाज़ार और पंजाब
ने अपनी मंडी के नाम से सीधी खरीद व्यवस्था
को अपना रखा है।
ई-नाम योजना, अप्रैल 2016:
14 अप्रैल 2016 को ई-नाम योजना अर्थात् इलेक्ट्रॉनिक-नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट (e-NAM)
स्कीम लॉन्च करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे ऐतिहासिक क्षण
बतलाया था जो एक साथ किसानों, व्यापारी, बिचौलियों और उपभोक्ताओं: इन तीनों के
हितों को संरक्षित करेगा:
“ऐसी व्यवस्था है, जिस
व्यवस्था की तरफ जो थोक व्यापारी है, उनकी भी सुविधा बढ़ने
वाली है। इतना ही नहीं, ये ऐसी योजना है, जिससे उपभोक्ता को
भी उतना ही फायदा होने वाला है। यानि ऐसी बाज़ार-व्यवस्था बहुत मुश्किल (Rare) से होती
है कि जिसमें उपभोक्ता को भी फायदा हो, बिचौलिए जो बाजार
व्यापार लेकर के बैठे हैं, माल लेते हैं और बेचते हैं,
उनको भी फायदा हो और किसान को भी फायदा हो।”
इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा था, “ये
इतनी बड़ी संभावना, हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारे किसान को
पहली बार ये तय करने का अवसर मिला है कि मेरे माल कैसे बिकेगा, कहाँ बिकेगा, कब बिकेगा, किस
दाम से बिकेगा, ये फैसला अब हिंदुस्तान में किसान खुद करेगा।”
निश्चय ही, अब, जबकि इस स्कीम के लॉन्च हुए साढ़े
चार साल पूरे होने जा रहे हैं, सरकार को यह बतलाना चाहिए कि इस दरम्यान किसानों,
उपभोक्ताओं, बिचौलियों और कारोबारियों तक ई-नाम का लाभ कहाँ तक और किस रूप में
पहुँचा है और कहाँ तक ई-नाम स्कीम किसानों के जीवन में परिवर्तन ला पाने में समर्थ
रही है। ई-नाम स्कीम को लॉन्च करते हुए जो तर्क दिए गए थे, आज एक बार फिर से वे
सारे तर्क दिए जा रहे हैं; बस फर्क यह आया है कि कल तक जो प्रधानमन्त्री बिचौलियों
को लाभ पहुँचाने का दावा कर रहे थे, आज वही प्रधानमन्त्री हालिया कृषि-सुधारों के
ज़रिए बिचौलियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और कृषि-बाज़ार की संरचना एवं प्रकृति
को समझे बिना बिचौलिया-मुक्त कृषि-बाज़ार का सपना दिखा रहे हैं। 21 सितंबर,2020
को उन्होंने फार्म बिल को जस्टिफाई करते हुए कहा,
“साथियों, हमारे
देश में अब तक उपज और बिक्री की जो व्यवस्था चली आ रही थी, जो
कानून थे, उसने किसानों के हाथ-पाँव बाँधे हुए थे। इन
कानूनों की आड़ में देश में ऐसे ताकतवर गिरोह पैदा हो गए थे, जो किसानों की मजबूरी का फायदा उठा रहे थे। आखिर ये कब तक चलता रहता?
इसलिए, इस व्यवस्था में बदलाव करना आवश्यक था
और ये बदलाव हमारी सरकार ने करके दिखाया है। नए कृषि-सुधारों ने देश के हर किसान
को ये आजादी दे दी है कि वो किसी को भी, कहीं पर भी अपनी फसल,
अपने फल-सब्जियाँ अपनी शर्तों पर बेच सकता है। अब उसे अपने क्षेत्र
की मंडी के अलावा भी कई और विकल्प मिल गए हैं।”
वर्तमान में भारत में 7 हज़ार
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियाँ हैं, और अबतक इनमें से 1,000
मण्डियों को भी नहीं ई-नाम प्लेटफ़ॉर्म से जोड़ना संभव नहीं हो पाया
है। जनवरी,2019 में सरकार राज्यसभा को मार्च,2018 तक 585 मंडियों को ई-नाम से जोड़े जाने की सूचना देती
है और वित्त-वर्ष (2019-20) तक इसके अतिरिक्त 415 मण्डियों को ई-नाम से जोड़ने के लक्ष्य का उल्लेख करती है। अप्रैल,2020
में कृषि-मंत्री एक बार फिर से जल्द ही 415 मण्डियों
को ई-नाम से जोड़ने का संकेत देते हैं ताकि इस प्लेटफ़ॉर्म से जुड़ी मण्डियों की
कुल संख्या 1000 हो जाए। जहाँ तक इस प्लेटफ़ॉर्म से किसानों
के जुड़ने का प्रश्न है, तो जनगणना-2011 के अनुसार, देश में मौजूद 11 करोड़ से अधिक किसानों
में मार्च,2019 तक 1.64 करोड़ किसान और मार्च,2020 तक 1.66 करोड़ किसान ई-नाम
प्लेटफ़ॉर्म से जुड़े। आज भी ज़्यादातर किसान ई-नाम से अनजाने हैं, अपरिचित हैं।
स्टैंडिंग
कमिटी का सुझाव:
सन् 2018-19
में कृषि-सम्बंधी स्टैंडिंग कमिटी ने कहा था कि किसानों को लाभकारी
कीमतें सुनिश्चित करने के लिए एक ऐसे मार्केटिंग प्लेटफ़ॉर्म की आवश्यकता पर बल
दिया गया जो स्पष्ट एवं पारदर्शी हो और जहाँ तक आसानी से पहुँचा जा सके। सरकारी
खरीद केंद्रों और रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों तक किसानों की आसान पहुँच न होने के
मद्देनज़र स्थाई समिति ने यह सुझाव दिया कि पर्याप्त
अवसंरचनात्मक सुविधाओं से लैस ग्रामीण बाजार कृषि-विपणन के लिए व्यावहारिक एवं
बेहतर विकल्प हो सकते हैं। ध्यातव्य है कि इसकी बात काँग्रेस के
घोषणा-पत्र में भी मिलती है। स्टैंडिंग कमिटी ने यह सुझाव भी दिया था कि ग्रामीण
कृषि-विपणन योजना, जिसके तहत् देश के विभिन्न हिस्सों में 22,000 हाटों में इंफ्रास्ट्रक्चर और नागरिक सुविधाओं का विकास किए जाना है, की पूरी तरह से केन्द्र सरकार द्वारा फण्डिंग की
बात की और इस बात की अपेक्षा
की कि देश की हर पंचायत में ग्रामीण हाटों की मौजूदगी सुनिश्चित की जाए।
स्टैंडिंग कमिटी ने एपीएमसी
एक्ट की कमियों और उसे प्रभावी तरीके से लागू करने के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता
की ओर इशारा करते हुए उसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। कमिटी ने सीमित
संख्या में व्यापारी की मौजूदगी के कारण कार्टेलाइजेशन की समस्या, इसकी
अप्रतिस्पर्धात्मकता और अनेक प्रकार की अवैध वसूलियों को ऐसी समस्याओं के रूप में
लक्षित किया और कहा कि यह स्थिति सीधी खरीद-बिक्री और ऑनलाइन लेन-देन की प्रक्रिया
को भी अवरुद्ध करती है। इस आलोक में स्टैंडिंग कमिटी,2018-19 ने केन्द्र सरकार को सभी राज्यों के कृषि-मंत्री को शामिल करते हुए ऐसी
कमिटी बनाने का सुझाव दिया जो आम सहमति से
कृषि-विपणन के लिए लीगल फ्रेमवर्क तैयार करे।
इसी आलोक में जुलाई,2019 में सात मुख्यमंत्रियों की एक हाई पावर्ड कमिटी का गठन किया
गया, ताकि एक निर्धारित समय-सीमा में मॉडल एपीएमसी एक्ट को लागू करने और उसके
अनुरूप सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए राज्यों के बीच आम-सहमति कायम की
जा सके। इसके अतिरिक्त, इस समिति को कृषि-विपणन और अवसंरचना में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए अनिवार्य वस्तु
अधिनियम,1955 में बदलाव के प्रश्न पर विचार करना था।
बिहार का
अनुभव
इस सन्दर्भ में बिहार के अनुभव को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। सन् 2006 में
बिहार ने बिहार राज्य कृषि विपणन परिषद् को भंग कर दिया और उससे सम्बद्ध कर्मचारियों
का समंजन कृषि-विभाग में किया। इसके लिए बाजार-समितियों में आढ़तियों एवं कारोबारियों के बीच कार्टेलाइजेशन और इनके
द्वारा गलत तरीके से वसूली करते हुए किसानों के दोहन का हवाला दिया गया।
उस समय यह कहा गया कि:
1. इससे निजी निवेश
बढ़ेगा।
2. इससे निजी मण्डियों
का विकास होगा जो सरकारी हस्तक्षेप एवं सरकारी नियंत्रण से मुक्त होंगी।
3. इससे किसानों को
खरीददारों के विकल्प मिलेंगे जो प्रतिस्पर्धात्मक कृषि बाज़ार के विकास को सम्भव
बनाता हुआ उनके फसलों ई वाज़िब एवं लाभकारी कीमत को सुनिश्चित करेगा।
4. इससे बेहतर
कृषि-अवसंरचना और बेहतर मण्डी-अवसंरचनाओं का भी विकास होगा।
5. बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना की उपलब्धता फसलों की उस बर्बादी पर अंकुश लगाएगी जो इसके अभाव में
होती है। साथ ही, यह उच्च स्तर की बर्बादी पर अंकुश लगा पाने, उसकी बेहतर गुणवत्ता
को सुनिश्चित कर पाने, उसकी उत्पादन-लागत को कम कर पाने और उसकी उपलब्धता एवं
आपूर्ति को बढ़ा पाने में समर्थ होगा।
6. इससे किसानों को उनकी
फसल की अच्छी कीमत भी मिलेगी और उनका प्रॉफिट-मार्जिन भी बढेगा।
कमोबेश देखा जाए, तो ये सारे तर्क आज भी फार्म बिल के पक्ष में दिए जा
रहे हैं, लेकिन आज बिहार में कृषि-विपणन किस मोड़ पर खड़ा है, उसे देखा जा सकता है। सवाल यह उठता है कि पिछले तेरह साल से बिहार में
तो मण्डी-व्यवस्था काम नहीं कर रही है, तब भी बिहार के किसानों को उनकी फसलों की वाजिब कीमत क्यों नहीं मिल पा
रही है? यह प्रश्न तो सन् 2017 में तत्कालीन केंद्रीय कृषि-मंत्री राधामोहन
सिंह ने भी उठाया था और राज्य-सरकार पर यह आरोप लगाया था कि बाजार-समिति भंग होने
के बाद किसानों को फसल की उचित कीमत नहीं मिल पा रही है।
बिहार के किसानों के हालात:
अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि कृषि-मण्डियों को भंग किये जाने के बाद
बिहार में किसानों को उनकी उपज का जो औसत मूल्य मिला है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य
से कम है। यही कारण है कि सन् 2020 के सीजन में खरीददार औए कीमत न मिलने के कारण बिहार
के किसानों को अपना मक्का (900-1000) रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ा, जबकि मक्के का न्यूनतम एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल था। और, यह अपवाद नहीं है। पिछले कई वर्षों से देखा
जाए, तो बिहार सरकार और बिहार प्रशासन न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर खरीद से
परहेज़ करती है और इस क्रम में जान-बूझकर सार्वजनिक खरीद की प्रक्रिया को विलंबित
करती है। मजबूरन किसानों को अपनी फसल खुले बाज़ार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से
(2-3) रुपये प्रति किलो कम की दर पर बेचनी पड़ती है। हालात यहाँ तक पहुँच चुके हैं
कि बिहार के जो किसान सक्षम हैं, वे अपनी उपज लेकर
पंजाब और हरियाणा की मण्डियों तक पहुँच रहे हैं।
और, यह बात केवल बिहार के सन्दर्भ में ही लागू नहीं होती है, वरन् उन
सारे राज्यों एवं क्षेत्रों के सन्दर्भ में लागू होती है जहाँ कृषि मण्डी-व्यवस्था
के प्रभावी तरीके से काम न करने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था
अप्रभावी है। यह बतलाता है कि अगर गैर-सरकारी
कृषि-बाज़ारों का नियमन नहीं किया गया, तो आने वाले समय में इसकी बड़ी
कीमत किसानों को उसी तरह चुकानी होगी, जिस तरह आज एमएसपी पाने के दर-दर भटक रहे बिहार
के किसान चुका रहे हैं। यह बतलाता है कि सरकार किसानों के हितों को दाँव पर लगा
रही है, या तो जान-बूझकर या फिर अनजाने ही। यही कारण है कि तमाम कमियों के बावजूद
किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को बनाये
रखने के लिए एपीएमसी मण्डियों को अनिवार्य मानते हैं। न्यूनतम समर्थन
मूल्य पर आधारित सार्वजनिक खरीद व्यवस्था तभी तक प्रभावी तरीके से काम कर पायेगी,
जब कृषि-उत्पादों के बाज़ार को रेगुलेट करते हुए उसकी प्रभावशीलता सुनिश्चित की जाए।
निवेश और बाज़ार-अवसंरचना के हालात:
बिहार सरकार के द्वारा इन बाज़ार-समितियों को भंग करने के बाद आरम्भ में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मोड पर इन बाजार-समितियों
को विकसित करने की योजना बनाई गयी और इसके लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB)
से करीब 500 करोड़ रुपये के वित्तीयन का प्रस्ताव लाया गया। इसके
लिए तीन साल तक प्रोजेक्ट-रिपोर्ट तैयार किया गया और इस पर कृषि-विभाग ने करीब 6
करोड़ रुपये की राशि भी खर्च की। आरंभ में पीपीपी मोड पर बाजार-समिति
की सरकारी जमीन पर निजी एजेंसियों के माध्यम से भवन-निर्माण किया जाना था। साथ ही,
सरकार के द्वारा निजी जमीन पर इसके विकास के लिए प्रोत्साहन देना था, ताकि बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना के विकास को सुनिश्चित किया जा सके।
फिर, इसे ख़ारिज करते हुए सरकार ने खुद
1575 एकड़ से ज्यादा जमीन पर सभी 54
बाजार-समितियों को विकसित करने की बात की। सरकार का कहना
है कि पहले चरण में मुजफ्फरपुर, गुलाबबाग (पूर्णिया) और दरभंगा बाजार समिति को विकसित
किया जाएगा, और फिर चरणबद्ध तरीके से सभी बाजार समितियों को विकसित किया जाएगा। इन
बाज़ार-समितियों में कोल्ड स्टोरेज एवं क्वालिटी टेस्ट लैब सहित आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध
करवाई जाएँगी।
विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जाय, तो बिहार के अबतक के अनुभव यह
बतलाते हैं कि बिहार में न तो निवेश आया और न ही निजी कृषि मण्डियों का विकास संभव
हुआ, न तो बेहतर बाज़ार अवसंरचना का विकास संभव हो सका और न ही प्रतिस्पर्धात्मक
कृषि-बाज़ार का विकास संभव हुआ। इतना ही
नहीं, कृषि-मण्डियों के भंग होने के कारण बिहार को उस मण्डी-शुल्क, जिनका इस्तेमाल
मण्डियों में बाज़ार-अवसंरचना के विकास के साथ-साथ ग्रामीण अवसंरचना के विकास के
लिए किया जाता रहा है ताकि किसानों की बाज़ार तक आसान पहुँच को सुनिश्चित किया जा
सके, से भी वंचित रह जाना पड़ा, और धीरे-धीरे उन मण्डियों की बाज़ार-अवसंरचनाओं के
क्षरण की प्रक्रिया भी जारी है जो उस समय विद्यमान थी।
इतना ही नहीं, इसने निजी अन-रेगुलेटेड फार्मिंग मार्केट के तेजी
से विस्तार को संभव बनाया जो किसानों और कारोबारियों, दोनों से विभिन्न प्रकार के
शुल्क वसूलते हैं और वह भी बिना किसी अवसंरचनात्मक सुविधा के। अन्य राज्यों में
भी, जहाँ डीरेगुलेशन के ज़रिये निजी कारोबारियों को अनुमति दी गयी है, न तो निवेश
की स्थिति दिखाई पड़ती है और न ही मण्डियों के बाहर किसानों को बेहतर कीमत मिलती
दिखाई पड़ती है।
बहुत ही सार्थक विश्लेषण सर जी आने वाले परीक्षा में किसानों की समस्याओं एवं वर्तमान विधेयक को पूर्णता के साथ
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
DeleteVery nice artical
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