Thursday 22 October 2015

कैसी विरासत?

""एक ओर यूरोपियन माइग्रेंट क्राइसिस की मानवीय त्रासदी का प्रतीक बनकर आया सीरियाई बच्चा, दूसरी ओर हरियाणा के फ़रीदाबाद में दलित-आगज़नी काण्ड के शिकार बच्चे। कैसी विडम्बना है कि प्राकृतिक त्रासदी के शिकार उस बच्चे के प्रति भारत सहित पूरी की पूरी दुनिया ने अपनी पूरी संवेदना उड़ेल दी, लेकिन अपने घर के इस बच्चे के प्रति न तो हमारी संवेदना जग पा रही है है, न हमारे नेतृत्व वर्ग की। रही मीडिया की बात, तो वह टीआरपी की चिंता से आगे बढ़कर सोच पाने में असफल है। उसके ध्यान को आकृष्ट करने के लिए किसी गाय, किसी सुधीन्द्र कुलकर्णी,किसी अख़लाक़ या फिर किसी दामिनी का होना आवश्यक है। किसी जीतेन्द्र, वो भी हरियाणा का (यूपी या बिहार का होता, तो बात कुछ और होती) और वो भी दलित....... क्या आकर्षण हो सकता है इनमें? अच्छा किया जो मीडिया ने इस मसले को हासिए पर धकेल दिया। हमारे नेतृत्व वर्ग के लिए भी उसमें विशेष आकर्षण नहीं था। सही मायने में दलितों की िस्थति कुत्तों वाली ही रही है पारंपरिक भारतीय समाज में। जनरल साहब ने ग़लत थोड़े ही कहा, फ़िज़ूल बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। वो तो भला हो बिहार चुनाव का, देर से ही सही , इस पर चर्चा तो शुरू हुई और सीबीआई की जाँच तो बैठी। हो सकता है कि तीसरे चरण का चुनाव आते-आते यह मसला और गरमाए। पता नहीं, हम भारतीयों का सीबीआई पर कितना अधिक विश्वास है कि इसके द्वारा जाँच की बात सामने आते ही मसला ठंडा होने लगता है, जबकि हम जानते हैं कि कुछ होने वाला नहीं है।
ख़ुशी की बात है कि यह मसला दलित-ग़ैर दलित का नहीं है। मसला पैसे की लेन-देन का है जिसे ज़बरन विरोधी दल दलित का मसला बतलाकर राजनीतिक रूप देने की कोशिश कर रहे हैं।बस बहुत याद आते हैं महाभोज के दा साहब और बिसू भी। खैर, इस मसले पर चर्चा के क्रम में उन्हें याद करने का क्या औचित्य और क्या प्रासंगिकता? मैं भी कितनी बहकी-बहकी बातें करने लगता हूँ?शायद जीतेंद्र ने पुलिस प्रोटेक्शन की माँग भी की थी और उसका पूरा परिवार पुलिस प्रोटेक्शन में था, पर क्या फ़र्क़ पड़ता है? हरियाणा बिहार थोड़े है जो वहाँ जंगलराज के बारे में सोचा जा सके। वहाँ तो संघ के दूत खट्टर साहब का रामराज्य है। वहाँ जंगलराज की बात सोचना भी पाप है। देशद्रोहियों, तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।""
बस इतना ही सोचता हूँ, झारखंड में पाँच महिलाओं को डायन बतलाकर पीट-पीट कर हत्या,दाभोलकर.....मुरूगन......कलबुर्गी.......पत्रकार नरेंद्र.........आईपीएस नरेंद्र.......अख़लाक़........और अब जीतेंद्र...... सरकार किसी की भी हो, परिणाम तो यही होना है। कौन-सी विरासत हम छोड़ने जा रहे हैं अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए? क्या जवाब देंगे हम अपने बच्चों को? 

Friday 2 October 2015

विचित्र दुविधा

विचित्र दुविधा
आज किसे याद करूँ :
"दादरी" तुम्हें या बापू को?
बापू, जो दूसरे नाम हैं
भारतीय संस्कृति की समन्वय और सहिष्णुता के,
हैं उसके आधुनिक संस्करण के मूर्तिमान रूप,
या फिर "दादरी" तुम्हें
जिसने पहले बापू की हत्या की
और अब आमदा हो
उन मूल्यों एवं आदर्शों की हत्या पे,
जिसे बाद में गाँधीवाद कहा गया,
जिसे गाँधी ने भारतीय संस्कृति से ग्रहण किया,
किया जिसे परिष्कृत और परिमार्जित ?
नहीं, "दादरी"
पहले तुम,
तुम इसीलिए कि
गाँधी तो मर चुके हैं,
तुमने तो उन्हें एक बार मारा था,
पर पिछले सड़सठ वर्षों से
हम सब मिलकर रोज़ मार रहे हैं उसे,
विवश कर रहे हैं उसे
घुट-घुटकर मरने के लिए,
तुमने तो हमारे काम को आसान कर दिया था।
पर, अब नहीं,
अब अहसास हो गया है
कि तुम मुझे मारना चाहते हो।
पर, "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो प्रतीक हो विभाजनकारी मानसिकता के,
उस असहिष्णुता की संस्कृति के,
जो पैर पसार रही है पूरी दुनिया में
वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में,
जो ख़ाक करने की सोच रखती है
हमें और हमारी संस्कृति को,
जो लीलने को तत्पर है
गंगा-जमुनी तहज़ीब को।
अब तुम्हीं बतलाओ "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो मानस संतान हो
"हिटलर" की,
ऐसी सन्तान
जो उसके पहले से विद्यमान है,
जो कभी क्रूसेड के रूप में प्रकट होती है,
तो कभी लादेन और आईएसआईएस रूप में,
कभी तुम गोधरा के रूप में प्रकट होती हो,
तो कभी सिख विरोधी दंगे के रूप में।
अरी "दादरी"
तुमने कलंकित किया है हमें
हमारी संस्कृति को,
और सबसे बढ़कर भारतीयता को।
तुमने तो
कलंकित किया है
बापू के देश को,
बापू के वेश को
और बापू की सोच को।
तुमने कलंकित किया है उस कबीर को,
जिन्होंने कहा था:
"माँस-माँस तो एक है
जस बकरी, तस गाय।"
तुम्हारी संस्कृति "भारतीय" नहीं हो सकती,
संभव नहीं इसका भारतीय होना,
तुम भला गाय और बकरी के अभेदत्व को क्या जानो?
तुम्हें तो बक़रीद पर बकरी के मारे जाने से कोफ़्त है,
दशहरे की बलि तुम्हें कहाँ याद रहती?
घर में बैठ कर मटन- चिकन खाने से तुझे परहेज़ न हो, पर
फ़ेसबुक पर अहिंसावाद के प्रति
तुम्हारी प्रतिबद्धता के आगे
गाँधी भी शर्मिंदा होते हैं।
नहीं,अब और नहीं
हमें आगे आना ही होगा,
नफरत को भुलाना ही होगा,
देश को बचाना ही होगा।

"अख़लाक़ मर नहीं सकता"

"अख़लाक़ मर नहीं सकता"
""दादरी में एक मुसलमान को बीफ खाने के आरोप में मारते-मारते मार डाला गया एक भीड़ के द्वारा नहीं, "जुलूस" के द्वारा। यह तो होना ही चाहिए था। बहुत पहले होना चाहिए था। झारखंड में भी हमने कोशिश की थी, पर झारखंडियों के साथ-साथ बिहारियों ने धोखा दे दिया। इन ससुरे मुसलमानों के साथ तो यही होना चाहिए। १९४७ में पाकिस्तान लेने के बाद भी भारत में डटे रहे, हम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों ने उन्हें तुष्ट करना चाहा और आज आलम यह है कि वे भारत को पाकिस्तान बनाने पर आमदा हैं। देखो, अंतिम बार कह रहा हूँ:अगर भारत में रहना है, तो हमारी शर्तों को स्वीकार करना होगा। दोयम् दर्जे की नागरिकता स्वीकार करनी होगी। तुम क्या खाओगे और क्या नहीं खाओगे, इसे मैं निर्धारित करूँगा।""
"क्यों रवीश, इतनी हायतौबा क्यों? कहाँ थे उस समय तुम, जब कश्मीरी पंडितों के साथ ज़्यादती हुई? क्यों नहीं खड़े होते तुम, जब इस्लामी आतंकी बेवजह जान लेते हैं मासूमों की?"
यह तस्वीर है उसी भारत की, जिसका सपना कभी गाँधी और नेहरू ने देखा था और जिसका सपना देख-देख हम और आप बड़े हुए। गोडसे ने तो गाँधी को एक बार मारा था, फिर भी गाँधीवाद जीवित रहा क्योंकि हमें गाँधी नहीं, गाँधीवाद नहीं , भारतीय संस्कृति से प्यार था; पर समय के साथ हमने गाँधी को भुलाया, गाँधीवाद को भुलाया और अब हम आमदा हैं भारतीय संस्कृति को भुलाने पर। लेकिन, ध्यान रखना, इसे बदल पाना , इसकी मनमानी व्याख्या, इसे भुलाना तुम्हारे वश में नहीं।
एक व्यक्ति था अख़लाक़, पर अब वह प्रतीक में तब्दील हो चुका है तुम्हारे वहशीपन का, तुम्हारी दरिंदगी का और तुम्हारे डर का। हाँ, तुम्हें अटपटा लग रहा होगा, पर यह सच है कि वह प्रतीक है तुम्हारे डर का। वह प्रतीक है असहिष्णुता का और इस बात का कि वह भारतीय संस्कृति ख़तरे में है जिसके केन्द्र में है वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कार, सहिष्णुता और समन्वय जिसका प्राण तत्व है। तुमने अख़लाक़ को नहीं मारा, तुमने मारने की कोशिश की भारतीय संस्कृति के मूल्य को । तुमने नकारने की कोशिश की है उस बुनियाद को, जिस पर तुम खड़े होने की कोशिश कर रहे हो। ध्यान रखना कि फ़ेसबुक पर न तो इतिहास लिखे जा सकते हैं और न ही इतिहास को मिटाया जा सकता है। अरे लिखने और मिटाने की बात छोड़ दो, इतिहास समझा भी नहीं जा सकता। और, तुम तो निरे अनाड़ी ठहरे जो फ़ेसबुक पर इतिहास समझते भी हैं, लिखते भी है और मिटाते भी हैं।अरे, तुम भगत सिंह की बात करते हो, पटेल की बात करते हो, सुभाष की बात करते हो; पर ये सब तुम्हारे लिए मोहरे हैं जिनका तुम अपने तरीक़े से इस्तेमाल करना चाहते हो। न इन्हें तुम समझते हो और न ही समझना चाहते हो।बस इतना कहूँगा और इसके ज़रिए खुली चुनौती दूँगा:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजुएँ क़ातिल में है।