Monday 14 September 2020

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति : समग्र मूल्यांकन (पंचशील और गुजराल डॉक्ट्रिन का विस्तृत रूप)

 

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति

 (पंचशील और गुजराल डॉक्ट्रिन का विस्तृत रूप)

1.  पड़ोस-नीति: बदलाव की पृष्ठभूमि:

a. चीन का उभार और उसकी बढ़ती सक्रियता

b. सामरिक रूप से दक्षिण एशिया में घिरता भारत

c.  दक्षिण एशिया में अन्तर्निहित विकास संभावनाएँ

d.  भारतीय उपमहाद्वीप: विशिष्ट ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान

e.  भारतीय चिंताओं का समाधान

2.  निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ की नीति:

a.  नए राजनीतिक नेतृत्व की पहल

b.  विदेश-नीति के रुझानों में परिवर्तन

c.  अपेक्षाकृत छोटे पड़ोसी देशों को कहीं अधिक अहमियत

d.  गुजराल डॉक्ट्रिन से भिन्नता

e.  अंतर्सम्पर्कता पर जोर

3.  पुनर्परिभाषित ‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ की नीति:

a. पुनर्परिभाषा की पृष्ठभूमि

b. सार्क के प्रति भारत का दोहरा रवैया

c.  पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति विफल

d. शपथ-ग्रहण समारोह के संकेत

e. विदेशी दौरों के संकेत

f.   विस्तारित पड़ोस: एशिया पर ध्यान

g. निकटस्थ पड़ोस प्रथम 2.0: पूर्व की नीति से भिन्नता

h. बिम्सटेक: सार्क को प्रतिस्थापित करने का औचित्य

4.  ‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’: मौजूद चुनौतियाँ

a. कांस्टेंटिनो ज़ेवियर का विश्लेषण

b. दक्षिण एशिया: डिसकनेक्टिविटी

c.  भारत का वर्चस्वशाली रवैया

d. उग्र हिंदुत्व और पड़ोस प्रथम का आधारभूत विरोधभास

e. पड़ोसी देशों के घरेलू राजनीतिक परिदृश्य की जटिलता

5.  निकटस्थ पड़ोस प्रथम और नेपाल

a. स्वप्निल दौर का आभास

b. अच्छी शुरुआत को जारी न रख पाना: विवाद के प्रमुख बिंदु

c.  नक्शा-विवाद की पृष्ठभूमि में गहराता सीमा-विवाद

d. नक्शा-विवाद पर भारतीय प्रतिक्रिया

e. नेपाली राजनीतिज्ञों की नयी पीढ़ी का आविर्भाव

f.   सामरिक दृष्टि से चीन के करीब आता नेपाल

g. नीतिगत हस्तक्षेप अपेक्षित

6.  निकटस्थ पड़ोस प्रथम: विविध आयाम:

a. निकटस्थ पड़ोस प्रथम और अफगानिस्तान

b. निकटस्थ पड़ोस प्रथम और पाकिस्तान

c.  निकटस्थ पड़ोस प्रथम और भूटान

d. निकटस्थ पड़ोस प्रथम और बांग्लादेश

e. निकटस्थ पड़ोस प्रथम और श्रीलंका

f.   निकटस्थ पड़ोस प्रथम और मालदीव

7.  निकटस्थ पड़ोस नीति: एक विश्लेषण

8.  वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल

9.  भारत-चीन सीमा-विवाद: निकटस्थ पड़ोस प्रथम की असली परीक्षा

 

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति

वर्तमान में भारत की विशाल आबादी, तेज़ी से उभरती अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा पाने में समर्थ सैन्य-ताकत, अपेक्षाकृत बेहतर भू-सामरिक अवस्थिति और वैश्विक स्तर पर भू-आर्थिकी में इसकी बढ़ती हुई अहमियत ने इसे स्वाभाविक रूप से दक्षिण एशिया में एक शक्ति के रूप में उभारा है और अब क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महती भूमिका निभाने की इसकी आकांक्षा इसे क्षेत्रीय एवं वैश्विक जिम्मेवारियों को निभाने में कहीं अधिक समर्थ देश के रूप में सामने लाती है। लेकिन, ऐसा तब तक संभव नहीं है जब तक भारत पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों को बेहतर नहीं करता है और उनके बीच उसकी व्यापक स्वीकार्यता संभव नहीं होती। निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम है जो भारत की पड़ोस-नीति को पुनर्परिभाषित करती हुई पंचशील एवं गुजराल डॉक्ट्रिन का अगला चरण है।

पड़ोस-नीति: बदलाव की पृष्ठभूमि

बदलाव की राजनीतिक पृष्ठभूमि:

मई-2014 भारतीय विदेश-नीति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु बनकर आता है। जिस तरह 1990 के दशक में पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने भारतीय विदेश-नीति को नेहरूवादी मॉडल से दूर ले जाते हुए यथार्थवादिता की ओर उन्मुख किया और उसे पश्चिमोन्मुख (West Ward Orientation) से पूर्वाभिमुख (East Ward Orientation) बनाया, उसी प्रकार मई,2014 में सत्तारूढ़ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन(NDA) की सरकार ने भारतीय विदेश-नीति को राष्ट्रवादी आग्रहों से लैश किया और इसके परिणामस्वरूप भारतीय विदेश-नीति में सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी की जगह हार्ड पॉवर डिप्लोमेसी को जगह मिलने लगी। इस प्रक्रिया को राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के दबाव ने भी उत्प्रेरित किया ध्यातव्य है कि (16-17)वीं लोकसभा-चुनाव के दौरान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रवादी भावनाओं का संचार करते हुए पाकिस्तान के मसले पर कड़ा रूख अपनाया जिसके कारण उनकी हार्डलाइनर राष्ट्रवादी वाली छवि निर्मित हुई इसने जनता में राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को उत्प्रेरित किया इन राष्ट्रवादी आकांक्षाओं ने सरकार एवं नीति-निर्माताओं पर दबाव भी निर्मित किया और सरकार को ताक़त भी दी। यह स्थिति भारतीय प्रधानमन्त्री को अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कहीं अधिक सक्षम बनाती है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारतीय विदेश-नीति अधिकाधिक व्यक्ति-केन्द्रित होती चली गयी। फलतः भारत की पड़ोस-नीति में नेशनलिस्ट असर्टिवनेस (Nationalist Assertiveness) बढ़ा और इसने पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों के साथ-साथ क्षेत्रीय समीकरणों को पुनर्परिभाषित किया। 

वर्तमान सरकार की विदेश-नीति के निर्धारण में अन्य सारी बातों के अलावा उस राजनीतिक ताकत की अहम् भूमिका है जो भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में अपने करिश्माई व्यक्तित्व की बदौलत हासिल कर रहे हैंपिछले ढ़ाई दशकों में वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पहली बार एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जिसमें गठबंधन को नेतृत्व प्रदान करने वाला दल अपने दम पर बहुमत की स्थिति में है इतना ही नहीं, अधिकांश राज्यों में उसकी या उसके सहयोगी दल की सरकारें हैं, और उसके सहयोगी दल अपने सुरक्षित राजनीतिक भविष्य के लिए उसकी कृपा पर निर्भर हैंवे जानते हैं कि सत्तारूढ़ दल से अलग होने का मतलब अपने राजनीतिक भविष्य को खतरे में डालना है इसलिए केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार कठोर निर्णय लेने में सक्षम है क्योंकि वह न तो अपने निर्णय के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर है और न ही उसकी निर्भरता प्रान्तीय सरकारों पर है

चीन का उभार और उसकी बढ़ती सक्रियता:

पिछले तीन दशकों के दौरान चीनी अर्थव्यवस्था के तेजी से उभार ने उसकी कूटनीतिक महत्वाकांक्षा को जन्म दिया, इसकी पृष्ठभूमि में उसने खुद को नौसैनिक शक्ति के रूप में स्थापित करने की दिशा में पहल की और दक्षिण एशिया में अपनी सक्रियता बढ़ाते हुए उसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपनी आकांक्षा को मूर्त रूप देने का प्रयास किया। इस क्रम में उसने पाकिस्तान के साथ सामरिक गठजोड़ कायम करते हुए बंगाल की खाड़ी से हिन्द महासागर होते हुए अरब सागर तक अपनी सक्रियता बढ़ाने की कोशिश की और चाइना-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर के माध्यम से सड़क-मार्ग के जरिये पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान एवं ईरान सहित मध्य-पूर्व के अन्य देशों तक पहुँचना चाहा। इस आलोक में चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत् भारत के पड़ोस में जो विभिन्न अवसंरचना-परियोजनाएँ शुरू की, उसके कारण भारत चारों तरफ से चीन के गठबंधन सहयोगियों से घिरता दिखाई पड़ता है और भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ दक्षिण एशिया में अपने ही पड़ोसी के बीच अलग-थलग होता दिखाई पड़ता है। निश्चय ही दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिम एशिया में निर्मित होते नवीन समीकरणों के कारण भारत के सामरिक हितों एवं चिंताओं की अनदेखी होती है जो उसकी सुरक्षा-चिन्ताओं को बढ़ाने में सहायक है स्पष्ट है कि तेजी से उभरता चीन और उसकी बढ़ती हुई आक्रामकता भारत के निकटस्थ पड़ोसी देशों में चीनी प्रभुत्व का आधार तैयार करती हुई भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। इसके अतिरिक्त चीन द्वारा भारत के पड़ोसियों को बुनियादी ढाँचे के निर्माण के नाम पर ऋण-जाल में फँसाने और भारत विरुद्ध गतिविधियों को संचालित करने हेतु विवश करने की नीति के प्रत्युत्तर में भारत की निकटस्थ पड़ोस प्रथम (Immediate Neighbourhood First) की नीति अहम् है, बशर्ते इसे ज़मीनी धरातल पर उतारने की कोशिश की जाए और इसके प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए इसकी  इसकी निरंतरता सुनिश्चित की जाए। लेकिन, यह आसान नहीं होने जा रहा है।

सामरिक रूप से दक्षिण एशिया में घिरता भारत:

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति दक्षिण एशिया में चीन की बढ़ती हुई सामरिक पहुँच के प्रति भारत की ओर से भू-सामरिक प्रतिक्रिया है। इस क्षेत्र में चीन ने अवसंरचनात्मक निवेश के जरिये ज़बरदस्त तरीके से अपने कूटनीतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभाव का विस्तार किया है। एकमात्र भूटान को अपवादस्वरूप छोड़कर, भारत के अन्य सारे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देश चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव(BRI) में शामिल हो चुके हैं। श्रीलंका ने 1.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बदले चीन के सार्वजनिक उपक्रम को हैमबनटोटा बंदरगाह को अगले 99 वर्षों के लिए लीज पर सौंपने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया है। नेपाल के साथ चीन ने पहला ऑप्टिक फाइबर लिंक का परिचालन शुरू कर दिया है और इस हिमालयी क्षेत्र में चारों तरफ नए रेल एवं रोड लिंक को डेवेलप करने पर काम कर रहा है। इसी क्रम में उसने भूटान के साथ भी प्रत्यक्ष रूप से औपचारिक कूटनीतिक सम्बंधों की स्थापना की दिशा में पहल की है और वह इसके लिए निरंतर प्रयासरत है

दक्षिण एशिया में अन्तर्निहित विकास संभावनाएँ:

वैश्वीकरण और इसकी पृष्ठभूमि में पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के उभार ने दक्षिण एशियाई देशों की सोच को भी प्रभावित किया है। इसके कारण उनकी भौतिक आकांक्षाओं को भी बल मिला है और वहाँ भी विकास की प्रक्रिया तेज हुई है। यही कारण है कि वर्तमान में दक्षिण एशिया दुनिया में सबसे अधिक तीव्र गति से विकसित हो रहा क्षेत्र है, और इसने भारत पर इस बात के लिए दबाव निर्मित किया है कि अगर वह चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को काउन्टर करने और दक्षिण एशियाई देशों के बाज़ार में अपने लिए अन्तर्निहित विकास-संभावनाओं के दोहन को लेकर गंभीर है, तो उसे इस क्षेत्र में अवसंरचनात्मक विकास एवं बेहतर कनेक्टिविटी हेतु अधिक सक्रिय होना होगा और तदनुरूप निवेश के लिए आगे आना होगा। इस प्रकार आर्थिक संवृद्धि की प्रक्रिया के तेज होने के साथ इस क्षेत्र की बाज़ार-संभावनाओं के विस्तार में भारत पर इस बात के लिए दबाव निर्मित किया कि वह इस क्षेत्र के लोगों की विकास-अपेक्षाओं पर खरा उतरे और अवसंरचनात्मक सुविधाओं से लेकर सामाजिक-आर्थिक विकास की दृष्टि से मौजूद अंतरालों को भरने की कोशिश करे। निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति इसी की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है।     

भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान:

एक भौगोलिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पहचान और इस पहचान के केंद्र में भारत की अवस्थिति भी निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति का आधार तैयार कर रही है। दरअसल, भाजपा के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांस्कृतिक एजेंडे से प्रभावित है जो भारत के अतीत के गौरव को पुनर्बहाल करते हुए भारत को विश्व-गुरु के पद पर आसीन देखना चाहता है और भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का विस्तार पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पाता है। उसकी नज़रों में, इसके लिए पड़ोसी देशों के साथ भारत का साझा इतिहास, साझी संस्कृति, उसकी साझी विरासत, साझे खान-पान, रहन-सहन की साझी शैली, साझे मूल्य और जीवन जीने के साझे तरीके साझा मंच प्रदान करते हैं। अगर साझा संस्कृति, साझा इतिहास और धार्मिक विरासत (हिन्दू-बौद्ध–जैन) नेपाल और भारत को जोड़ते हैं, तो बौद्ध धर्म की सांस्कृतिक विरासत एवं साझा इतिहास भारत को श्रीलंका और भूटान से। निकटस्थ पड़ोस की नीति इसी साझी विरासत के हवाले चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को काउन्टर करने की रणनीति तैयार करना चाहती है और इसकी पृष्ठभूमि में आर्थिक समेकन की प्रक्रिया को आगे मजबूती से आगे बढ़ाना चाहती है।

भारतीय चिंताओं का समाधान है निकटस्थ पड़ोस प्रथम:

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें निकटस्थ पड़ोस प्रथम के जरिये भारत यह सन्देश देने की कोशिश में है कि भारत में क्षेत्रीय शांति और आर्थिक समेकन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने की क्षमता है। वह दक्षिण एशिया में अपनी विशिष्ट भू-सामरिक अवस्थिति और इसके कारण स्वाभाविक रूप से मिलने वाली भौगोलिक बढ़त को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय रणनीति विकसित करने की कोशिश में लगा है। उसे इस बात का अन्दाज़ा है कि अगर निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ अपने विवादों का निपटारा उसने समय रहते नहीं किया, तो यह इन देशों में और उनके माध्यम से इस क्षेत्र में चीनी प्रभाव में वृद्धि का अवसर उपलब्ध करवाएगा। ऐसी स्थिति में न केवल दक्षिण एशिया में उसकी मुश्किलें बढेंगी, वरन् चीन से डील कर पाने की उसकी क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा और फिर, अमेरिका के साथ अपनी शर्तों पर डील करने की उसकी क्षमता भी प्रतिकूलतः प्रभावित होगी। लेकिन, यदि उसने समय रहते इस दिशा में प्रभावी पहल की, तो न केवल दक्षिण एशियाई भू-राजनीति में उसकी बृहत्तर सामरिक पहुँच संभव हो सकगी, वरन् आपनी सामरिक चिंताओं का समाधान हासिल करता हुआ वह अमेरिका और चीन से प्रभावी तरीके से डील कर पाने में भी सक्षम होगा। वह इस बात को जनता है कि वैश्विक महाशक्ति के रूप में अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान कायम करते हुए भारत अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को तबतक पूरा नहीं कर सकता है जबतक कि:

1.  वह खुद में अन्तर्निहित विकास-संभावनाओं का दोहन नहीं करता है, और

2.  यह सुनिश्चित नहीं करता है कि भारत के पड़ोसी देश इसमें गतिरोध उत्पन्न न करें।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति इस गतिरोध को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है जिसे आइसोलेशन में रखकर देखे जाने की बजाय पंचशील और गुजराल-डॉक्ट्रिन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, ताकि उनकी गलतियों से सबक लिया जा सके और उसकी विशिष्टताओं को बनाये रखा जा सके।  

‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ की नीति

नए राजनीतिक नेतृत्व की पहल:

मई,2014 में भारत का राजनीतिक नेतृत्व सँभालने के बाद अपने प्रधानमंत्रित्व काल के आरंभिक वर्षों में ही भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के लगभग सारे पड़ोसी देशों की यात्रा की सम्मिट स्टाइल डिप्लोमेसी को अपनाते हुए उन्होंने वहाँ के राष्ट्राध्यक्षों के साथ अपने संबंधों को पर्सनल टच देने की कोशिश की और एक ऐसा आभामंडल सृजित करने का प्रयास किया जिसमें भारत को प्रभुत्वशाली क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया जा सके दूसरे शब्दों में कहें, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति उसकी रणनीतिक ज़रुरत है जिसके जरिये वह अपने सामरिक हितों को भी साधना चाहता है और अपने आर्थिक विकास की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करना भी, अब यह बात अलग है कि वर्तमान नेतृत्व ने उसे भी अपने छवि-निर्माण के राजनीतिक उपकरण में तब्दील कर दिया

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय विदेश-नीति के निर्धारण में विदेश मंत्रालय हाशिए पर है, जबकि प्रधानमंत्रीय कार्यालय की भूमिका कहीं अधिक अहम् है लेकिन, सामरिक चुनौतियों की जटिलता को देखते हुए आवश्यकता इस बात की थी कि विदेश-नीति के निर्धारण में विशेषज्ञता को महत्व देते हुए नीतिगत निर्णयन में न केवल विदेश मंत्रालय की प्रमुखता को बनाये रखा जाए, वरन् निर्णय की प्रक्रिया को कहीं अधिक दक्ष एवं समावेशी बनाया जाए। यह प्रश्न तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि आने वाले समय में दक्षिण एशिया में चीन की बढ़ती हुई सक्रियता के साथ भारत-विरोधी शक्तियों के कहीं अधिक सक्रिय होने और भारत-विरोधी गठजोड़ को मजबूती मिलने की संभावना है जो भारत की विदेश-नीति और सुरक्षा-रणनीति के सन्दर्भ में भारत की चिन्ताओं को गहराने का काम करेंगी।

विदेश-नीति के रुझानों में परिवर्तन:

उपरोक्त परिस्थितियों में जब मई,2014 में नए राजनीतिक नेतृत्व ने भारत की बागडोर सँभाली, तो इस आशंका को बल मिला कि नए राजनीतिक नेतृत्व के अधीन भारत शायद अपनी विदेश-नीति को कहीं अधिक आक्रामक लाइन पर ले जाए। लेकिन, इन आशंकाओं को निरस्त करते हुए नए राजनीतिक नेतृत्व ने अपने शपथ-ग्रहण समारोह में सार्क देशों के अपने समकक्षों को आमंत्रित करते हुए यह सन्देश देने का प्रयास किया कि आने वाले समय में भारत उनके नेतृत्व में दक्षिण एशिया में पहले से कहीं अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की इच्छा रखता है। अपनी इस पहल के ज़रिये भारतीय प्रधानमन्त्री ने न केवल अपनी हार्डलाइनर वाली छवि को दुरुस्त करना चाहा, वरन् राज्य की राजनीति से अचानक केंद्र की राजनीति में पहुँचने के कारण उत्पन्न होने वाली आशंकाओं को निरस्त करते हुए अपने स्टेट्समैन होने के परिपक्व संकेत भी दिए

अपेक्षाकृत छोटे पड़ोसी देशों को कहीं अधिक अहमियत:

यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि भारत की विदेश-नीति पारंपरिक रूप से पश्चिम की ओर कहीं अधिक उन्मुख रही है, जिसे प्रति-संतुलित करने की कोशिश 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में की गयी। इसी आलोक में गुजराल-डॉक्ट्रिन पेश किया गया, फिर भी भारत पर अपने छोटे पड़ोसी देशों को अहमियत न देने और उनकी उपेक्षा के आरोप लगते रहे। कारण यह कि 1990 के दशक में नीतिगत बदलावों की दिशा में पहल तो की गयी, लेकिन उसे ज़मीनी धरातल पर उतारने की कोशिश में गंभीरता का अभाव दिखा जिसके कारण गुजराल डॉक्ट्रिन का प्रबह्वी अत्रीके से क्रियान्वयन संभव नहीं हो सका। नए भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भूटान और फिर नेपाल से अपनी विदेश-यात्रा की शुरुआत करते हुए अपने छोटे पड़ोसी देशों को सकारात्मक सन्देश देने का प्रयास किया और वह यह कि:  

1.  भारत भूटान एवं नेपाल जैसे छोटे-से-छोटे पड़ोसी देशों के साथ आपने सम्बन्ध को भी अहमियत देता है

2.  निकटस्थ पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को प्रति-संतुलित करना भारतीय विदेश-नीति की सर्वोच्च प्राथमिकता है 

शायद यही कारण है कि उन्होंने दक्षिण एशिया से बाहर अपनी विदेश-यात्रा के लिए पहले देश के रूप में जापान को चुना जो चीन का प्रबल प्रतिद्वंद्वी है और जो चीन के विरोध में उस बहुपक्षीय सामरिक पहल भारत का प्रमुख भागीदार है जिसमें भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। यह इस बात का भी संकेत अहि कि भारतीय विदेश-नीति पश्चिमोन्मुख होने के बजाय पूर्वोन्मुख होगी और इसमें भारत के पड़ोस के साथ-साथ विस्तारित पड़ोस की भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक होगी। 

गुजराल डॉक्ट्रिन से भिन्नता:

स्पष्ट है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अपनी पड़ोस-नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए उस गुजराल डॉक्ट्रिन से दूर हटने के संकेत दिए जो पिछले करीब 18 वर्षों से भारत की पड़ोस नीति के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभा रहा थाउन्होंने गुजराल डॉक्ट्रिन से दूर हटते हुए एकतरफा रियायत की नीति को छोड़ा और उसकी जगह पर पड़ोसी देशों के साथ समान भागीदारी पर आधारित द्विपक्षीय सम्बंधों की प्रस्तावना की और इसके ज़रिये आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे एवं हीन-भावना के शिकार पड़ोसी देशों की चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया दूसरे शब्दों में कहें, तो अगर गुजराल-डॉक्ट्रिन पंचशील का विस्तार एवं विकास था, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति गुजराल-डॉक्ट्रिन का विस्तार एवं विकास दरअसल, यह भारत के हाथों समानता के धरातल पर व्यवहृत होने की पड़ोसी देशों की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करता हैयह असमान पड़ोसी देशों के साथ समान व्यवहार का सैद्धांतिक आश्वासन है, और यह इस नीति की शक्ति भी है एवं सीमा भी शक्ति इसलिए कि गुजराल डॉक्ट्रिन की एकतरफा रियायत की नीति भारत के पड़ोसी देशों में जिस आइडेंटिटी क्राइसिस को जन्म देती है और इसके कारण हीन-भावना से ग्रस्त पड़ोसी देशों में जो ‘बिग ब्रदर सिंड्रोम’ गहराता हुआ दिखाई पड़ता है, समान व्यवहार उसके विरुद्ध आश्वासन है; और सीमा इसलिए कि समान व्यवहार सामने वाले से भी ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद करती है और यह उम्मीद प्रतिदान की अपेक्षाओं को जन्म देती है दूसरे शब्दों में कहें, तो यह नीति उन पड़ोसी देशों के साथ भी समान व्यवहार की बात करती है जो इसकी तपिश को सह पाने की स्थिति में नहीं हैं। भारत को इस नीति को व्यावहारिक धरातल पर उतारते हुए इस बात को ध्यान में रखना चाहिए था और इसको लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरती जानी चाहिए थी, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ। भारत ने अपेक्षाओं के अनुरूप अपने व्यवहार को बदलने की कोशिश नहीं की, और बड़े भाई की तरह व्यवहार करना जारी रखा जिसका परिणाम आज इसके सामने है।

अंतर्सम्पर्कता पर जोर:

इस नीति के तहत् सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास, क्षेत्र की बेहतर कनेक्टिविटी एवं सांस्कृतिक विकास तथा लोगों के आपसी संपर्क को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उल्लेखनीय है कि यह सॉफ्ट पॉवर पॉलिसी का ही एक उपकरण है। इस नीति के माध्यम से भारत अपने पड़ोसी देशों तथा हिंद महासागर के द्वीपीय देशों को राजनीतिक एवं कूटनीतिक प्राथमिकता प्रदान करने को इच्छुक है। इसके लिए वह पड़ोसी देशों को संसाधनों, सामग्रियों तथा प्रशिक्षण के रूप में सहायता प्रदान कर समर्थन देना चाहता है। भारत की इस नीति का उद्देश्य:

a.  भारत के नेतृत्व में क्षेत्रवाद के ऐसे मॉडल को प्रोत्साहित करना है जो पड़ोसी देशों के भी अनुकूल हो;

b.  जो वस्तुओं, लोगों, ऊर्जा, पूँजी तथा सूचना के मुक्त-प्रवाह में सुधार हेतु व्यापक कनेक्टिविटी और समेकन की आवश्यकता पर बल देता हो, और

c.  सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से पड़ोसी देशों के साथ संपर्क स्थापित करता हो।

                                                                                         

पुनर्परिभाषित होती ‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ की नीति

 

पुनर्परिभाषा की पृष्ठभूमि:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल(2014-19) के मध्य तक आते-आते पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति में तब्दील होती हुई अपनी असफलता की ओर अग्रसर होती चली गयी सन् 2016 तक आते-आते नेपाल के साथ बिगड़ते सम्बंधों और भारत-पाकिस्तान सम्बंधों में उत्पन्न गतिरोध के कारण निकटस्थ पड़ोस की नीति मोमेंटम लूज करने लगी। इसकी पृष्ठभूमि में दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति को निकटस्थ पड़ोस की नीति में केन्द्रीयता मिली। लेकिन, यह नीति भी परिणाम दे पाने में असफल रही क्योंकि दक्षिण एशिया में ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती चली गयीं जिनमें मालदीव और पाकिस्तान से लेकर श्रीलंका, नेपाल और अफगानिस्तान तक भारत की मुश्किलें बढ़ती चली गयी। नेपाल का पाकिस्तान-चीन सामरिक गठजोड़ में शामिल होना और अफगानिस्तान के बदलते हुए परिदृश्य ने जो सामरिक चुनौती भारत के समक्ष उत्पन्न की, उसको रेस्पोंड करने के लिए निकटस्थ पड़ोस की नीति को पुनर्परिभाषित किए जाने की आवश्यकता पड़ी। यह सन् (2014-19) के दौरान अपनायी गयी निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की विफलता की परोक्ष स्वीकृति भी है। 

सार्क के प्रति भारत का दोहरा रवैया:

पाक-समर्थित सीमा-पार आतंकवाद(CBT) के मसले पर भारत का रवैया विरोधाभासी रहा है और यह आश्वस्त कर पाने में असमर्थ है। जहाँ इसने पाक-समर्थित सीमा-पार आतंकवाद(CBT) को सार्क के विकास में सबसे बड़ी बाधा मानते हुए सन् 2016 में उरी हमले के बाद इस्लामाबाद में प्रस्तावित सार्क बैठक में शामिल होने से इनकार किया, लेकिन उसने ऐसा ही रुख जून,2017 में विश्केक में शंघाई सहयोग संगठन(SCO), जिसमें भारत एवं पाकिस्तान दोनों ही शामिल हैं, की प्रस्तावित बैठक के सन्दर्भ में नहीं अपनाया। यह भारत के दोहरेपन का संकेत देता है जो उन लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक है जो सार्क से सम्बद्ध हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि चीनी निवेश एवं क़र्ज़ को ध्यान में रखते हुए सार्क को एक ऐसे प्लेटफ़ॉर्म के रूप में विकसित किया जा सकता है जो विकास के लिए कहीं अधिक सतत मॉडल का विकल्प उपलब्ध करवा पाने में समर्थ है इसके लिए भारत को सार्क के सन्दर्भ में भी आसियान की तर्ज़ पर ‘सार्क माइनस X’ के फ़ॉर्मूले को स्वीकार करना चाहिए, अर्थात् जो देश सहमत नहीं है, उनके लिए भविष्य में समझौते में शामिल होने के विकल्प को खुला रखते हुए अन्य देशों को साथ लेकर समझौते को लागू करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। उनकी असहमति को प्रगति के रास्ते में अवरोध नहीं बनने देना चाहिए।   

ध्यातव्य है कि सार्क और शंघाई सहयोग संगठन(SCO) की मूलभूत संकल्पना में फर्क है। जहाँ सामूहिक सुरक्षा पर आधारित क्षेत्रीय संगठन के रूप में शंघाई सहयोग संगठन की परिकल्पना करते हुए इससे यह अपेक्षा की गयी कि यह क्षेत्र में मौजूद टकराव एवं संघर्ष के समाधान के लिए सदस्य-देशों के साथ मिलकर काम करे, जबकि सार्क से सदस्य-देशों के द्विपक्षीय समस्याओं के समाधान की ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की गयी है सार्क की परिकल्पना एक ऐसे क्षेत्रीय संगठन के रूप में की गयी है जो सदस्य-देशों के बीच सहयोग एवं सामंजस्य को सुनिश्चित करता हुआ क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देगा। इसके बावजूद अगर ऐसा संभव हुआ, तो इसका कारण यह है कि सार्क में भारत सबसे बड़ा देश है और इसलिए उसके दबाव की अनदेखी कर पाना अन्य सदस्य-देशों के लिए संभव नहीं है। इसके विपरीत, शंघाई सहयोग संगठन में रूस एवं चीन की नेतृत्वकारी भूमिका के कारण भारत वैसा दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि रूस एवं चीन, दोनों देशों ने भारत-पाकिस्तान के बीच विद्यमान तनाव को दूर करने के लिए मध्यस्थता एवं सुविधा-प्रदायन की इच्छा रखते हैं। 

पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति विफल:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि अपने पहले कार्यकाल के मध्य तक आते-आते भारत ने अपनी विदेश-नीति में पाकिस्तान को कूटनीतिक धरातल पर अलग-थलग करने की रणनीति पर काम करना शुरू किया, दक्षिण एशिया के भीतर भी और दक्षिण एशिया के बाहर भीएक तो पाकिस्तान सीमा-पार आतंकवाद के मसले पर अपने रवैये को तब्दील करने के लिए तैयार नहीं हुआ, और दूसरे, उसने सार्क के मोर्चे पर होने वाले प्रगति को अवरुद्ध करना शुरू किया। मसला चाहे मोटर व्हीकल एग्रीमेंट(MVA) का हो या ऊर्जा-भागीदारी समझौता का, दक्षिण एशियाई सैटेलाइट का हो या फिर अन्य, पाकिस्तान ने भारत के द्वारा प्रस्तावित कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट में सहयोग देने से इनकार किया। दरअसल पाकिस्तान का नेतृत्व भी सार्क, जिसमें भारत की नेतृत्वकारी भूमिका है, की तुलना में पश्चिम एशिया को कहीं अधिक अहमियत देता है।

फलतः निराश एवं हताश भारत ने इसका समाधान सब-रीजनल ग्रुपिंग में जाकर तलाशने की कोशिश की और इस क्रम में बांग्लादेश-भूटान-इण्डिया-नेपाल(BBIN) समूह और बिम्सटेक की ओर रुख कियाअब यह बात अलग है कि भारत की तमाम कोशिशों के बावजूद भूटान के विरोध के कारण बांग्लादेश-भूटान-इण्डिया-नेपाल(BBIN) समूह मोटर व्हीकल एग्रीमेंट(MVA) को अपनाने एवं लागू कर पाने में असमर्थ रहा इसी प्रकार भारत की नज़रों में, पाकिस्तान ने भारत को ‘अति-पसन्दीदा राष्ट्र(MFN)’ का दर्ज़ा न देकर साफ्टा के सन्दर्भ में होने वाली प्रगति को भी अवरुद्ध किया। ध्यातव्य है कि सन् 1997 में ही ‘अति-पसन्दीदा राष्ट्र(MFN)’ का दर्ज़ा दिया जिसे फरवरी,2019 में पुलवामा हमले के बाद वापस ले लिया गया। लेकिन, इस मसले पर भारत के रवैये को भी स्नातोश्जनक नहीं माना जा सकता है। स्वयं भारत ने वर्षों तक भूटान एवं नेपाल को किसी तीसरे देश (यथा: बांग्लादेश) के साथ सीमा-पार ऊर्जा लेन-देन की अनुमति नहीं दी। और, ताजा उदाहरण क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौते का है जिसमें अवरोध उत्पन्न करते हुए भारत ने खुद को इस समझौते से बाहर कर लिया।

भले ही दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति असफल रही हो, पर इस रणनीति की बदौलत ही भारत मध्य-पूर्व में सऊदी अरब और विशेष रूप से आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इस्लामिक कन्ट्रीज(OIC) में भी पकिस्तान को अलग-थलग करने में सफल रहा और पाकिस्तान के लिए कश्मीर के मसले पर समर्थन जुटा पाना मुश्किल रहा। लेकिन, वहाँ भी पाकिस्तान ने चीन, ईरान और रूस को अपने साथ जोड़ने की कूटनीतिक पहल के जरिये भारत की इस कोशिश को बहुत हद तक अप्रभावी बनाया है। यह इसलिए भी मुश्किल है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी ने अफगानिस्तान में पाकिस्तान की सामरिक उपस्थिति को मज़बूत बना दिया है और ईरान एवं नेपाल को पाकिस्तान के करीब जाने का अवसर प्रदान किया है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कूटनीतिक रूप से पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय रणनीति आंशिक रूप से ही सफल है।

शपथ-ग्रहण समारोह के संकेत:

मई,2014 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के सभी शासनाध्यक्षों को आमंत्रित किया गया, लेकिन मई,2019 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शपथ-ग्रहण समारोह में सार्क देशों की बजाय बिम्सटेक देशों के शासनाध्यक्षों को आमंत्रित किया। इस तरह पिछले शपथ-ग्रहण समारोह में शामिल होने वाले देशों में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मालदीव ऐसे देश थे जिनके शासनाध्यक्षों को मई,2019 में आयोजित दूसरे शपथ-ग्रहण समारोह में नहीं बुलाया गया और इसमें दक्षिण एशियाई देशों में बांग्लादेश, भूटान, नेपाल एवं श्रीलंका को शामिल किया गया अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और मालदीव को उसके भौगोलिक अवस्थिति के कारण इससे बाहर रखा गया है इसके अलावा, शपथ-ग्रहण समारोह में बिम्सटेक के सदस्य होने के नाते थाईलैंड और म्यांमार भी शामिल हुई, जबकि पिछले शपथ-ग्रहण समारोह में इन्हें निमंत्रित नहीं किया गया था। यह इस बात की ओर भी इशारा करता है कि क्षेत्रीय समीकरणों को लेकर भारतीय नजरिया बदल रहा है और अब उसमें बिम्सटेक सार्क को प्रतिस्थापित कर रहा है

विदेशी दौरों के संकेत:

अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने विदेशी दौरे की शुरुआत भूटान और उसके ठीक बाद नेपाल से करते हुए इस बात का संकेत दिया कि निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति में भूटान एवं नेपाल जैसे पड़ोसी देश कहीं अधिक मायने रखते हैं, लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विदेशी दौरे की शुरुआत श्रीलंका और मालदीव से की। सार्क की बजाय बिम्सटेक को मिलने वाली अहमियत और विदेश-यात्रा की श्रीलंका-मालदीव से शुरुआत इस बात की ओर इशारा करता है कि भारत द्वारा अपने ध्यान को दक्षिण एशिया से हिन्द महासागर के तटवर्ती क्षेत्रों की ओर शिफ्ट करना उसकी सामरिक रणनीति में मेरीटाइम सिक्यूरिटी एवं हिन्द महासागर को मिलने वाली अहमियत को दर्शाता है।

विस्तारित पड़ोस: एशिया पर ध्यान

स्पष्ट है कि परवर्ती चरण में निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति को केवल भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोस तक सीमित नहीं रहने दिया गया, वरन् इसके दायरे में भारत के विस्तारित पड़ोस (Extended Neighbourhood) को भी समेटने की कोशिश की गयी और इसके लिए हिन्द महासागरीय क्षेत्र (IOR) पर विशेष रूप से ध्यान देने की कोशिश की गयी है। अपने दूसरे कार्यकाल में राजग सरकार ने हिन्द महासागर में नौसैनिक-सामरिक समीकरणों के मद्देनज़र इसके दायरे में थाईलैंड और म्यांमार को भी लाया गया। इस तरह निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति का नाभि-केंद्र बदला और अब दक्षिण एशिया की जगह हिन्द महासागरीय क्षेत्र और इसके बहाने सार्क के बजाय बिम्सटेक ने इसमें प्रमुखता हासिल की।

इसके संकेत भी पहले ही मिलने लगे थे, जब ऊर्जा, सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मॉरीशस और सेशेल्स के द्वीपीय देशों की यात्रा के दौरान भारत ने हिंद महासागरीय क्षेत्र में सामुद्रिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करते हुए इससे सम्बंधित मैकेनिज्म को प्रभावी बनाने का प्रयास किया। साथ ही, हिंद महासागर रिम एसोसिएशन के साथ संबंध को गहराई प्रदान करते हुए वर्तमान सरकार ने हिन्द महासागरीय क्षेत्र (IOR) में अपनी पैठ को मजबूती प्रदान करने की कोशिश की। इसके लिए जनवरी,2016 में विदेश-मंत्रालय के अंतर्गत पृथक हिन्द महासागरीय क्षेत्र (IOR) डिवीजन का गठन किया गया। हाल में ऑस्ट्रेलिया के साथ सामरिक समझौते इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में रेखांकित किया जा सकता है, अब यह बात अलग है कि सरकार के फोकस में निरंतर बदलाव के कारण ये चीजें उस रूप में आगे नहीं बढ़ पायीं जिस रूप में इसके आगे बढ़ने की उम्मीद की जा रही थी।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम 2.0: पूर्व की नीति से भिन्नता

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ नीति की बदलती हुई दिशा को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

1.  सार्क से बिम्सटेक की ओर: भारत की विदेश-नीति मेंनिकटस्थ पड़ोस प्रथम’ नीति की प्राथमिकता बनी हुई है, बस फर्क यह आया है कि इसकी भौगोलिक व्याख्या बदल चुकी है, इसका दायरा ‘निकटस्थ पड़ोस’ अर्थात्  दक्षिण एशियाई देशों से विस्तृत होकर ‘विस्तारित पड़ोस’ अर्थात् म्यांमार-और थाईलैंड तक विस्तृत हो रहा है, और इसका फोकस सार्क से बिम्सटेक की ओर शिफ्ट कर चुका है

2.  नौसैनिक रणनीति की बढ़ती अहमियत: सार्क को प्रतिस्थापित करता बिम्सटेक इस बात की ओर इशारा करता है कि सार्क की जगह बिम्सटेक भारत के क्षेत्रवाद के लिए प्राथमिक फोरम के रूप में उभर कर सामने आया है और अब उसका ध्यान हिन्द महासागरीय क्षेत्र में सामुद्रिक सुरक्षा और भारत की नौ-सैनिक रणनीति की ओर शिफ्ट कर चुका है जिसका संकेत श्रीलंका एवं मालदीव से विदेश-यात्रा की शुरुआत के ज़रिए मिलता है   स्पष्ट है कि बंगाल की खाड़ी में भारत की बढ़ती रूचि और हिन्द महासागर के द्वीपीय राज्यों पर बढ़ता फोकस भारत की पड़ोस-नीति के उभर रहे मेरीटाइम डायमेंशन की ओर इशारा करता है

बिम्सटेक: सार्क को प्रतिस्थापित करने का औचित्य:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि नयी निकटस्थ पड़ोस-नीति बिम्सटेक के ज़रिये सार्क को प्रतिस्थापित करती है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या सार्क को बिम्सटेक के ज़रिये प्रतिस्थापित किया जा सकता है? इस प्रश्न के आलोक में देखें, तो न तो बिम्सटेक के ज़रिये सार्क को प्रतिस्थापित किया जा सकता है और न ही ऐसा किया जाना चाहिए इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि:

1.  विशिष्ट दक्षिण एशियाई पहचान से सम्बद्ध है सार्क: बिम्सटेक से भिन्न सार्क की सम्बद्धता विशिष्ट दक्षिण एशियाई पहचान से है दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक और खान-पान सम्बंधी जुड़ाव दक्षिण एशियाई पहचान को परिभाषित करता है और साहित्य, कला एवं संस्कृति से लेकर नदियों, जलवायु एवं पर्यावरण का प्रवाह इन्हें बाँधता है यही वह बिंदु है जहाँ सार्क बिम्सटेक से अलग है

2.  बिम्सटेक सदस्य-देशों की विशिष्ट पहचान से सम्बद्ध नहीं: बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल एंड इकोनॉमिक को-ऑपरेशन अर्थात् बिम्सटेक बंगाल की खाड़ी के इर्द-गिर्द अवस्थित देशों का संगठन है जिसकी स्थापना 1997 में हुई थी, लेकिन जो सदस्य-देशों की पहचान से सम्बद्ध नहीं है। नेपाल और भूटान ने तो इसकी सदस्यता सन् 2004 में ली।

3.  सार्क की तुलना में बिम्सटेक अप्रभावी संगठन: यद्यपि सार्क और बिम्सटेक, दोनों ही संस्थाएँ एक संगठन के रूप में अपनी छाप छोड़ने में असफल रही हैं और इसीलिए अप्रभावी रही हैं, पर सार्क की तुलना में बिम्सटेक कहीं अधिक अप्रभावी संगठन है। यद्यपि बिम्सटेक के सन्दर्भ में देखें, तो  तकनीक के क्षेत्र में कुछ प्रगति तो हुई है, पर पिछले 22 वर्षों के दौरान इसके केवल चार सम्मेलन हुए हैं। सन् 2014 तक तो इसका अपना सचिवालय तक नहीं था। इसीलिए आसानी से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एक संगठन के रूप में बिम्सटेक कितना प्रभावी रहा होगा। बिम्सटेक की तुलना में सार्क कहीं अधिक सक्रिय संगठन है जिसकी पिछले 35 वर्षों के दौरान 18 शिखर बैठकें हुई हैं, लेकिन इसकी असफलता राजनीतिक धरातल पर है और विशेष रूप से भारत-पकिस्तान विवाद ने इसकी प्रगति को अवरुद्ध किया है। यही कारण है कि पिछले 6 वर्षों के दौरान इसकी कोई बैठक ही नहीं हुई है।

4.  बिम्सटेक की प्रकृति की भिन्नता: इस रणनीति में समस्या यह है कि बिम्सटेक सार्क का स्थानापन्न नहीं हो सकता है क्योंकि बिम्सटेक के स्थापना-मूल्य इस बात पर जोर देते हैं कि:

a.  बिम्सटेक वैकल्पिक प्लेटफ़ॉर्म नहीं, बल्कि पूरक प्लेटफ़ॉर्म: बिम्सटेक सदस्य देशों के बीच द्विपक्षीय, क्षेत्रीय या बहुपक्षीय सहयोग एवं सामंजस्य के लिए वैकल्पिक प्लेटफ़ॉर्म उपलब्ध करवाने के बजाय इसके लिए अतिरिक्त प्लेटफॉर्म के रूप में काम करेगा 

b.  दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के बीच सेतु के रूप में: इससे यह भी अपेक्षा की गयी है कि यह अन्तःक्षेत्रीय प्लेटफ़ॉर्म के रूप में दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के बीच सेतु के रूप में काम करेगा

5.  इस मसले पर बिम्सटेक के सदस्य-देशों में मतभेद: बिम्सटेक के सदस्य-देश भी इस मसले पर भिन्न राय रखते हैं। जहाँ भारत बिम्सटेक को सार्क का स्थानापन्न बनाना चाहता है, वहीं नेपाली प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली और तत्कालीन श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने इस सम्भावना को खारिज करते हुए कहा कि बिम्सटेक सार्क को प्रतिस्थापित नहीं करेगा

दरअसल यदि प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा पाने में सार्क की असफलता ने एक संगठन के रूप में बिम्सटेक के आविर्भाव की पृष्ठभूमि तैयार की, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम के सार्क-केन्द्रित नज़रिए की असफलता ने भारत को अपनी निकटस्थ पड़ोस की नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए बिम्सटेक-केन्द्रित नज़रिया अपनाने के लिए विवश किया ताकि अपने लिए बिम्सटेक में अन्तर्निहित संभावनाओं का दोहन किया जा सके। इसलिए यह कहा जाता है कि बिम्सटेक सार्क के फ्रंट पर भारत की असफलता और उसके फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है

निकटस्थ पड़ोस प्रथम: मौजूद चुनौतियाँ

भारत के विदेश-मंत्री एस. जयशंकर ने अपनी पहली विदेश-यात्रा की शुरुआत भूटान से करने के ठीक पहले निकटस्थ पड़ोस प्रथम नीति में निरन्तरता एवं परिवर्तन का संकेत देते हुए कहा कि “भारत की पड़ोस-नीति कहीं अधिक उदार होनी चाहिए। आनेवाले समय में भारत को परियोजना-क्रियान्वयन, पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध के नौकरशाहीकरण और अंतर-मंत्रालयीय समन्वयन की चुनौतियों से सफलतापूर्वक निबटना होगा।” उनके अनुसार:

1.  इस नीति के पहले चरण में भारत ने यह बतलाने का प्रयास किया कि वह दुनिया में क्या करना चाहता है, और

2.  अब उसके द्वारा यह बतलाया जाएगा कि वह इसे किस तरह करना चाहता है।

कांस्टेंटिनो ज़ेवियर का विश्लेषण:

इसी आलोक में इस नीति के लक्ष्यों को हासिल करने और इसकी प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए कांस्टेंटिनो ज़ेवियर ने उन सात चुनौतियों का जिक्र किया है जो भारत के समक्ष मौजूद हैं:

1.  सटीक जानकारियों और आँकड़ों के लिए क्षेत्रीय एवं सीमा-पारीय अध्ययन में निवेश अपेक्षित: भारत को क्षेत्रीय एवं सीमा-पारीय अध्ययन में निवेश करना होगा, ताकि भारतीय कनेक्टिविटी रणनीति को सपोर्ट करने के लिए समुचित, पर्याप्त एवं सटीक आँकड़े और जानकारियाँ उपलब्ध हो सकें इनका मानना है कि निकटस्थ पड़ोस की नीति को यदि अबतक अपेक्षित सफलता नहीं मिली, तो इसका महत्वपूर्ण कारण यह था कि भारत के पास अबतक ऐसे सटीक आँकड़े उपलब्ध नहीं थे जो ज़मीनी धरातल पर प्रभावी क्रियान्वयन हेतु रणनीति के निर्धारण के लिए ज़रूरी थे

2.  प्रभावी क्रियान्वयन हेतु बेहतर समन्वयन अपेक्षित: पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में निर्धारित रणनीतियों के बेहतर क्रियान्वयन के लिए सरकार के विभिन्न स्तरों, उसके विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों, राजनीतिक दलों, निजी क्षेत्रों, सिविल सोसाइटी, नए स्टेकहोल्डर्स और बहुपक्षीय संस्थाओं के बीच बेहतर समन्वय को सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है

3.  प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त वाले क्षेत्रों को प्राथमिकता: इनका मानना है कि भारत की चीन के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हुए उसकी नकल के बजाय उन विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए जिनमें वह स्वाभाविक प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त की स्थिति में है उसे बड़ी अवसंरचनात्मक परियोजनाओं में निवेश करने की बजाय कनेक्टिविटी सहित क्षमता-निर्माण से सम्बंधित परियोजनाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए और क्रियान्वयन के फ्रंट पर ज्यादा गंभीर होना चाहिए क्योंकि यह भारत की सबसे कमजोर कड़ी है 

4.  आर्थिक खुलेपन की दिशा में पहल: भारत को सीमा-पारीय अवसंरचनाओं में निवेश से बाहर निकलकर आर्थिक खुलेपन की दिशा में पहल करनी चाहिए। बंदरगाह, सड़क, रेलवे और एयरपोर्ट को व्यापार सहित सभी प्रकार के आवागमन में बाधक नहीं बनने देना चाहिए।  

5.  तीव्र एवं बेहतर कनेक्टिविटी की निरंतरता: भारतीय रणनीति तीव्र गति से बेहतर कनेक्टिविटी पहलों और उसकी निरंतरता को सुनिश्चित करने की होनी चाहिए, न कि उसे अवरुद्ध करने की इस मोर्चे पर भारत को अतिरिक्त प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिए

6.  पड़ोसी देशों की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता अपेक्षित: भारत को पड़ोसी देशों की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता का ख्याल रखना चाहिए रीजनल कनेक्टिविटी का मुद्दा महत्वपूर्ण है और इस पर सहमति भी बन सकती है, पर इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि भारत को लेकर उसके पड़ोसी देशों की अपनी शंकाएँ हैं और इन शंकाओं के निवारण के लिए वे भारत पर भरोसा करते हुए उसके साथ संपर्क बढ़ाने को इच्छुक न होकर इस क्षेत्र से बाहर के देशों और विशेषकर चीन के साथ जुड़ना चाहती हैं   

7.  सांस्कृतिक समरूपता पर जोर से परहेज़: भारत को इस क्षेत्र में सांस्कृतिक एकता या सांस्कृतिक समरूपता पर अत्यधिक जोर देने से परहेज़ करना चाहिए क्योंकि इसके कारण पड़ोसी देशों में मौजूद ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ को गहराने का अवसर मिलता है अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि भारत के पड़ोसी देश ऐसे प्रस्तावों के अनुमोदन से परहेज़ करते हैं जो अतीत की एकता के पुनर्सृजन का संकेत देता हो    

दक्षिण एशिया: डिसकनेक्टिविटी:

डिसकनेक्टिविटी को क्षेत्रीय समेकन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण अवरोध के रूप में रेखांकित करते हुए भारतीय विदेश-मंत्री एस. जयशंकर ने भी कहा, “अगर क्षेत्रीय समेकन की प्रक्रिया में दक्षिण एशिया पीछे छूटा, तो इसलिए कि अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में व्यापार एवं कनेक्टिविटी सामान्य नहीं है।” इस आलोक में देखें, तो इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी का आलम यह है कि नेपाल और म्यांमार के साथ भारत का रेल-संपर्क नहीं है। 1960 के दशक में भारत-बांग्लादेश के बीच करीब दर्ज़न भर रेल-लिंक थे, लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक के मध्य में केवल एक रेल-लिंक शेष रह गए। 1980 के दशक में भारत ने श्रीलंका की राजधानी कोलम्बो को छोड़कर उसके अन्य हिस्सों तक हर प्रकार के परिवहन-संपर्क से किनारा कर लिया। स्पष्ट है कि 1950 के दशक के बाद इस क्षेत्र में बिखराव की प्रक्रिया तेज हुई जिसकी चर्चा ऊपर ही की जा चुकी है।

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि भारत दुनिया के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले अल्पतम समेकित क्षेत्र (Least Integrated Region) में अवस्थित हैकोई दूसरी क्षेत्रीय महाशक्ति अपने निकटस्थ पड़ोस से उतनी कटी हुई नहीं है जितना भारत अपने निकटस्थ पड़ोस से कटा हुआ है। और, केवल कटा हुआ नहीं है, वरन् उसका निकटस्थ पड़ोस उसके लिए निरंतर परेशानियाँ सृजित कर रहा है। भले ही इस क्षेत्र के लोगों ने कुछ समय पहले तक इस महाद्वीप के बाहर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपनी उपमहाद्वीपीय पहचान को बनाये रखा हो, पर भारतीय उपमहाद्वीप में क्षेत्रीय जुड़ाव की भावना कमजोर रही है। इसका अपवाद कुछ हद तक नेपाल एवं भूटान के साथ भारत के जुडाव को माना जा सकता है, वो भी कुछ समय पहले तक।  

कनेक्टिविटी की यह समस्या दशकों के भू-सामरिक विचलन, राजनीतिक राष्ट्रवाद की विभाजनकारी भूमिका और निरंकुश संरक्षणवादी आर्थिक मॉडल की उपज है। इसमें संप्रभुता एवं नागरिकता की कठोर क्षेत्रीय व्याख्या और गुटनिरपेक्ष विदेश-नीति, जिसने वैश्विक विकास-प्रक्रिया से पड़ोसी देशों के अलगाव को सुनिश्चित किया, के जरिये भारत ने अहम् भूमिका निभायी और इसके कारण भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बिखराव की स्थिति बनी रही। ध्यातव्य है कि इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाएँ एक दूसरे की पूरक न होकर प्रतिस्पर्द्धी हैं और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति भी क्षेत्रीय समेकन की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण अवरोध है। इतना ही नहीं, नृजातीय-भाषायी समूहों के टकराव एवं संघर्ष ने भी समेकन की संभावनाओं को बाधित करते हुए इस अलगाव को बनाये रखने में अहम् भूमिका निभायी है।

भारत का वर्चस्वशाली रवैया:

भारत का रवैया भी पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बंध को प्रतिकूलतः प्रभावित कर रहा है। भारत के पड़ोसी देशों के लिए भारतीय मॉडल की तुलना में चीनी मॉडल कहीं अधिक उपयुक्त है क्योंकि चीनी मॉडल में आर्थिक लेन-देन तो है, पर राजनीतिक दिशा-निर्देशजन्य बाध्यता नहीं। पर, भारत एक तो किये गए वादों को पूरा नहीं करता और दूसरे, उसकी पूरी राजनीतिक कीमत वसूलना चाहता है। अगर भारत से ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं और अपनी ज़रूरतों के मद्देनज़र पड़ोसी देश बाहरी शक्तियों से सम्बंध बनाना चाहें, तो अपने प्रभाव एवं वर्चस्व को खतरे में पड़ता देख भारत अपनी ओर से आपत्तियाँ दर्ज करवाता है और रिएक्ट करना शुरू कर देता है। पूरे शीत-युद्ध काल में भारत की नीति बाहरी प्रभाव से अपने साथ-साथ अपने पड़ोसियों को बचाए रखते हुए इस अलगाव को बनाये रखने की रही और इसके लिए उसने नए गठबन्धन करने की बजाय पुराने गठबंधन को तोड़ने और इसके रास्ते में अवरोध खड़े करने की कोशिश की। मतलब यह कि भारतीय उपमहाद्वीप की वर्चस्वशाली शक्ति के रूप में भारत ने शेष दुनिया से जुड़ने की पड़ोसी देशों की कोशिश, अब वह कोशिश चाहे चीन से जुड़ने की हो या दक्षिण-पूर्व एशिया से, का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप उनका विकास अवरुद्ध हुआ। इसने भी भारत के पड़ोसी देशों को उससे दूर किया। इसलिए जब तक बेहतर कनेक्टिविटी के ज़रिये इस अलगाव को दूर करते हुए क्षेत्रीय समेकन की प्रक्रिया को तेज नहीं किया जाता और अन्य बाहरी शक्तियों से जुड़ने हेतु उनके लिए स्पेस नहीं सृजित किया जाता, तब तक निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति की सफलता में संदेह बना रहेगा।

उग्र हिंदुत्व और पड़ोसी प्रथम का आधारभूत विरोधभास:

दरअसल हिन्दुत्व की विचारधारा और निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति में आधारभूत विरोधाभास है क्योंकि दक्षिण एशिया में 60 करोड़ की आबादी के साथ इस्लाम दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। इतना ही नहीं, 8 दक्षिण एशियाई देशों में चार देश: मालदीव, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक राज्य हैं, जबकि श्रीलंका और नेपाल में यह तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं कि भारत में उग्र हिन्दुत्व के उभार को सत्तारूढ़ दल का संरक्षण पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों को भी प्रतिकूलतः प्रभावित करे।

इस आलोक में देखें, तो जिस तरीके से भारत ने नागरिकता-संशोधन अधिनियम(CAA) बनाम् नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) बनाम्  राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर(NPR) विवाद को हैंडल किया, मुस्लिम-बहुल पड़ोसी देशों पर उसका असर अच्छा नहीं रहा। दक्षिण एशिया में शेख हसीना और हामिद करज़ई ने नागरिकता संशोधन अधिनियम और इससे जुड़े मुद्दों पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है। इन दोनों की आलोचनाएँ इसलिए अहम् है कि दोनों को प्रो-इण्डिया माना जाता है और दोनों राज्य एवं धर्म के मसले पर अपने देश की उदार आवाज़ का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों देशों का बहुसंख्यक नज़रिया इस्लामिक संस्कृति और विरासत में गहरा धँसा हुआ है और ऐसी स्थिति में भारत में मुस्लिम-प्रताड़ना के ख़िलाफ़ इन देशों में उठती आवाज़ों की अनदेखी इनके लिए मुश्किल होगी।

स्पष्ट है कि भारत का हिन्दू राष्ट्रवाद की ओर झुकाव हमारे पड़ोसी मुस्लिम देशों और उसके नेतृत्व को चिंतित कर रहा है और इसके कारण वहाँ भारत-विरोधी भावनाओं को बल मिल सकता है जिससे द्विपक्षीय सम्बन्ध प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। नेपाल इसका क्लासिक उदाहरण है जहाँ भारत ने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की जगह हिन्दू राष्ट्र की संवैधानिक व्यवस्था को सुनिश्चित करने में अपनी पूरी ताक़त लगा दी जिसका प्रतिकूल असर द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ा। यही स्थिति बांग्लादेश में भी देखी जा सकती है जिसके साथ भारत का द्विपक्षीय सम्बन्ध प्रभावित हो रहा है और बांग्लादेश को शनैः-शनैः चीन के पाले की तरफ बढ़ता दिख रहा है। इससे इन देशों में भारत-विरोधी ताकतों: अफगानिस्तान में तालिबान और बांग्लादेश में बेगम खालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी एवं उसके सहयोगी जमायत-ए-उलेमा को बल मिलने की संभावना है। उनके लिए अपने देश में मुस्लिम -भावनाओं को नज़रंदाज़ कर पाना मुश्किल होगा। कुल-मिलाकर भारत के पड़ोसी देशों में भारत को लेकर यह धारणा बन रही है कि भारत में मुस्लिमों को प्रताड़ित किया जा रहा है।

स्पष्ट है कि उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति वर्तमान सरकार की आग्रहशीलता और उसके उद्दंड एवम आक्रामक राष्ट्रवाद ने दक्षिण एशिया में भारत के परम्परागत मित्रों एवं सहयोगियों को असहज किया है। अब वे भारत के साथ पहले की तरह सहज नहीं महसूस करते हैं और कहीं-न-कहीं भारत को लेकर आशंकित भी हैं जिसे उनकी इस चुप्पी के जरिये समझा जा सकता है।

पड़ोसी देशों के घरेलू राजनीतिक परिदृश्य की जटिलता:

भारत की निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती भारत के पड़ोसी देशों के घरेलू राजनीतिक परिदृश्य की जटिलता है। बांग्लादेश हो या मालदीव, नेपाल हो या श्रीलंका, और यहाँ तक कि निकट भविष्य में अफगानिस्तान भी उसी दिशा में बढ़ता दिखाई पर रहा है: भारत के इन तमाम पड़ोसी देशों में प्रमुख राजनीतिक दल प्रो-इण्डिया और एन्टी-इण्डिया के लाइन पर विभजित दिखाई पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में भारत के साथ उस देश का सम्बन्ध कैसा रहेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वर्तमान में राजनीतिक नेतृत्व पर कौन-सा राजनीतिक दल काबिज़ है और भारत को लेकर उसकी सोच क्या है। अगर नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल, बांग्लादेश में बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी, श्रीलंका में महिन्दा राजपक्षे की श्रीलंका फ्रीडम पार्टी और मालदीव में नशीद के मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी के विरोधी दल की सरकारें हैं, तो भारत के सामने मुश्किल हालात बने रहेंगे। लेकिन, अगर नेपाल में नेपाली काँग्रेस, बांग्लादेश में शेख हसीना की आवामी लीग, श्रीलंका में महिन्दा राजपक्षे के विरोधियों और मालदीव में नशीद के मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकारें हैं, तो भारत को थोड़ी राहत मिलने की उम्मीद की जा सकती है। इस राजनीतिक परिदृश्य में भारत निश्चिन्त नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त, एक समस्या यह भी है कि एक बार यदि चीन-समर्थक सरकारें बन गयीं, तो फिर चीन इतने आक्रामक तरीके से अपने क़र्ज़ एवं निवेश के लिए स्पेस सृजित करता हुआ अपने आर्थिक हितों को उस देश के आर्थिक हितों के साथ समेकित करता है कि बाद में राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन भी अधिक-से-अधिक उसके बढ़ते प्रभाव की गति को मंद कर सकता है, और फिर चीनी शिकंजे में फँसने के अलावा उस देश के पास कोई विकल्प नहीं रहा जाता है। आज के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान ही नहीं, श्रीलंका एवं मालदीव भी पूरी तरह से चीन की गिरफ्त में जा चुका है, और आनेवाले समय में नेपाल भी तेजी से उस दिशा में अग्रसर है। बांग्लादेश के सन्दर्भ में यह स्थिति शनैः-शनैः दिखाई पड़ती है। आने वाले समय में पड़ोसी देशों में इस चुनौती से निबटना भारत के नीति-निर्माताओं के लिए आसान नहीं होने जा रहा है।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और नेपाल

भारत के पड़ोस की चर्चा हो और नेपाल की चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। दरअसल नेपाल हिमालय की पहाड़ियों में अवस्थित होने के कारण भारत के लिए सामरिक दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत और चीन के बीच  बफर स्टेट का काम करता है। इसके बावजूद, अगस्त,2014 में भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल-यात्रा सत्रह वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली नेपाल-यात्रा थी। इससे पहले, जून,1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने नेपाल-यात्रा की थी। शायद इसका महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि इस दौरान गृह-युद्ध में उलझा नेपाल संक्रमण की अवस्था से बाहर निकलने की कोशिश करता रहा। इसी दौरान उसने राजशाही से संवैधानिक राजतन्त्र और संवैधानिक राजतन्त्र से संवैधानिक लोकतंत्र की यात्रा तय की।  

स्वप्निल दौर का आभास:

अगस्त,2014 में सम्पन्न अपनी इस नेपाल-यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमन्त्री ने नेपाली संविधान सभा-सह-संसद को सम्बोधित किया और वे ऐसा करने वाले पहले विदेशी नेता बने। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को द्विपक्षीय सीमा-विवाद के स्थायी समाधान का वादा भी किया। इस आलोक में सीमा-स्तंभों के निर्माण, पुनरोद्धार और मरम्मत अधिकार के साथ के लिए बाउंड्री वर्किंग ग्रुप की स्थापना की दिशा में पहल भी की। भारतीय प्रधानमन्त्री उस यात्रा के दौरान जीत बहादुर से भी मिले जिसकी तलाश उन्हें 1998 से ही थी और जिसे भारत-नेपाल के बीच की जोड़ने वाली कड़ी के रूप में देखा गया। दोनों देशों ने अपने विदेश सचिवों को कालापानी और सुस्ता समेत सीमा-विवाद के लम्बित मसलों पर बात के लिए निर्देश भी दिए। भारत ने नेपाल से इस बात के लिए आग्रह किया कि चूँकि भारत और नेपाल के बीच की 98 प्रतिशत सीमा पर सहमती बन चुकी है और अब उन पर किसी प्रकार का विवाद नहीं है, इसीलिए इनसे सम्बंधित नक़्शे पर हस्ताक्षर की जानी चाहिए। आगे चलकर, मई,2018 को नेपाल के जनकपुर से अयोध्या और अयोध्या से जनकपुर तक बस-सेवा की शुरुआत की गई है। मतलब यह कि वर्ष 2014 भारत-नेपाल द्विपक्षीय सम्बन्ध की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा और इस दौरान ऐसा महसूस हुआ कि यह अपने स्वर्णिम दिनों में प्रवेश कर चुका है। इस प्रकार भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध के फ्रंट पर अच्छी शुरुआत की और यह संकेत दिया कि भारत की विदेश नीति उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है और वे उसे जड़ता की अवस्था से बाहर निकलकर गतिमान करेंगे

अच्छी शुरुआत को जारी नहीं रख पाना: विवाद के प्रमुख बिंदु

लेकिन, सन् 2015 के मध्य तक आते-आते भारत इस शुरुआत को जारी नहीं रख पाया। भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों की जटिलताएँ सामने आने लगीं और इसे उभरने में सहायक बना आक्रामक स्वरुप ग्रहण करता भारतीय राष्ट्रवाद, जिसने नेपाल को लेकर आम भारतीयों की सोच से नेपाल को रूबरू करवाया इससे यह संकेत मिला कि भारतीय जन-मानस और भारत-सरकार एक स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र के रूप में नेपाल के अस्तित्व को स्वीकार करने के बजाय उसे भारत के सैटेलाइट स्टेट के रूप में देखता है और उससे अपेक्षा करता है कि वह उसके निर्देशों के अनुरूप काम करे। इसने नेपाली राष्ट्रवादियों को आहत किया और फिर जो हुआ, वह सबके सामने है। इसके बाद के घटना-क्रमों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:     

1.  भूकम्प बचाव एवं राहत-सहायता कार्यक्रम से सम्बंधित विवाद,2015: सबसे पहले, सन् 2015 में नेपाल में आये भूकम्प के ठीक बाद भारत ने राहत-बचाव एवं सहायता हेतु एक टीम भेजी, लेकिन राहत-वितरण के दौरान उभरे विवाद के कारण नेपाल में भारतीय स्वयंसेवकों का व्यापक स्तर पर विरोध शुरू हुआ और इसके परिणामस्वरूप नेपाली जन-मानस के साथ-साथ नेपाल-सरकार की कड़ी प्रतिक्रिया ने भारतीय स्वयंसेवकों को राहत एवं बचाव कार्यक्रम बीच में छोड़कर वापस लौटने के लिए विवश किया। दरअसल हुआ यह कि इधर भारत ने राहत एवं बचाव-सहायता पहुँचाना शुरू किया, और उधर पूरी दुनिया में इसकी मुनादी करनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, इसी समय सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एक मीम वायरल हुआ जिसमें भारत-माता को नेपाल को एक शिशु के रूप में गोद में लिए हुए और उसे खेलाते हुए दिखाया गया। इसकी नेपाली जनमानस में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और फिर जो हुआ, वह इतिहास है। उसके बाद से लेकर अबतक भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों के इतिहास में बहुत चीजों को पहली बार घटित होते देखा जा सकता है, और उम्मीद की जाए कि यह आखिरी बार भी हो। 

2.  जनकपुर में पब्लिक रैली और साइकिल-वितरण को लेकर विवाद: इससे पहले भी, नवम्बर,2014 में जनकपुर में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजानिक रैली के आयोजन और इस दौरान साइकिल-वितरण को लेकर तब विवाद उत्पन्न हुआ, जब नेपाल सरकार ने विपक्ष के भारी विरोध के बीच इस कार्यक्रम को अनुमति देने से इनकार किया। दरअसल यह भारत के फ्रंट पर कूटनीतिक दूरदर्शिता के अभाव को दर्शाता है क्योंकि कोई भी देश अपने पड़ोसी देश के प्रमुख को अपने देश में पब्लिक रैली की इजाजत नहीं दे सकता है; तब तो और भी नहीं, जब वह आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहा हो। इसके प्रति भारत में भी व्यापक प्रतिक्रया हुई और नेपाल में भी, और इसने द्विपक्षीय संबंधों में कड़वाहट उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसकी प्रतिक्रिया में मधेशियों ने नेपाल की सडकों पर सरकार-विरोधी प्रदर्शन किये और भारत के पक्ष में नारे लगाए। किसी भी स्वतंत्र एवं सम्प्रभु देश की सरकार के लिए यह अस्वीकार्य है।  

3.  नए संविधान के प्रश्न पर विवाद: इसके ठीक बाद, नेपाल में नए संविधान के प्रश्न पर उभरे विवाद में हस्तक्षेप करते हुए भारत ने एक ओर मधेशियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की कोशिश की, दूसरी ओर यह सुनिश्चित करना चाहा कि नया नेपाल हिन्दू राष्ट्र हो, न कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र। हिन्दू राष्ट्र नेपाल के लिए तो संघ परिवार ने बजाब्ता सघन अभियान चलाया और इसके लिए नेपाल-सरकार पर दबाव निर्मित करने की कोशिश की। इस सन्दर्भ में नेपाल सरकार पर दबाव निर्मित करते हुए भारत ने कथित रूप से नेपाली संविधान में संशोधन से सम्बंधित मेमोरेंडम देते हुए नेपाल सरकार को अल्टीमेटम दिया। स्पष्ट है कि सितम्बर,2015 तक आते-आते के. पी. ओली के प्रधानमंत्रित्व काल में नए संविधान, उसमें मधेशी आकांक्षाओं की अनदेखी और उसके अन्य उपबंधों को लेकर द्विपक्षीय संबंधों में तनाव के बिंदु उभरने लगे और भारत इस सन्दर्भ में सकारात्मक पहल के लिए नेपाल पर दबाव बनाने लगा जिससे सम्बन्ध बेपटरी होने लगी।

4.  आर्थिक नाकाबन्दी,2015: इस पृष्ठभूमि में वर्ष 2015 में मधेशियों द्वारा आरोपित आर्थिक नाकाबंदी, जिसे नेपाली नेतृत्व भारत द्वारा आरोपित मानता है, के बाद भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बढ़ता हुआ अपने चरम पर पहुँच गया। इसने सन् 1989 के उस आर्थिक नाकेबन्दी की याद दिला दी जिसे राजीव गाँधी की सरकार के द्वारा 21 बॉर्डर प्वाइंट्स में से 19 बॉर्डर प्वाइंट्स को ब्लॉक करके राजशाही के नेतृत्व वाले नेपाल पर आरोपित किया गया था। इस नाकेबन्दी ने भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों को निम्नतम बिंदु पर पहुँचा दिया और तब से लेकर आजतक द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बढ़ते ही चले गए। इस नाकेबंदी के द्विपक्षीय संबंधों पर प्रभाव का आकलन नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है कि नेपाल ने 1989 की आर्थिक नाकेबन्दी के लिए भारत को कभी माफ़ नहीं किया क्योंकि:

a.  इसने नेपाली पंचायत-व्यवस्था को ध्वस्त किया,

b.  इसने नेपाली राजशाही के पतन का मार्ग प्रशस्त करते हुए नेपाल में लोकतंत्र की पुनर्बहाली सुनिचित की, और

c.  इसने नेपाल में भारत के गुडविल को इतना डैमेज किये जिसे पुनर्बहाल होने में दशकों लग जायेंगे।

हालात यहाँ तक पहुँच गए कि नेपाल-सरकार ने मई,2016 में राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के प्रस्तावित भारत-दौरे को रद्द करते हुए नयी दिल्ली से अपने राजदूत को वापस बुला लिया।

5.  नोटबन्दी के कारण एन्टी-इण्डिया सेंटीमेंट जोर पकड़ना: फिर, नवम्बर,2016 में भारत द्वारा नोटबन्दी की दिशा में की गयी पहल से नेपाली लोग बुरी तरह प्रभावित हुए। ध्यातव्य है कि नेपाल में नेपाली करेंसी का भी प्रचालनहै और भारतीय करेंसी का भी। नेपाल की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत ने मधेशियों के बहाने इस मसले के समाधान की दिशा में पहल करने से परहेज़ किया और इसने करेंसी-डेडलॉक की स्थिति पैदा की। पुरानी भारतीय करेंसी के बदले नई भारतीय करेंसी जारी करने की प्रक्रिया अवरुद्ध होने के कारण नेपालियों को काफी परेशानियाँ हुईं और इसने नेपाली लोगों के साथ-साथ मधेशियों के बीच भारत के गुडविल को ऐसा झटका दिया जैसा झटका उसे अबतक नहीं लगा था, यहाँ तक कि आर्थिक नाकेबन्दी के कारण भी नहीं; और आलम यह कि इसके कारण नेपाल में भारत के पारंपरिक समर्थक माने जाने वाले मधेशियों में भी नाराज़गी बढ़ी और इसके परिणामस्वरूप भारत से दूरी भी। भारत-विरोधी इस भावना को तूल देते हुए लाभ सन् 2018 के चुनाव में तत्कालीन प्रधानमन्त्री के. पी. शर्मा ओली ने अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित की।

6.    नेपाल में कोरोना वायरस के प्रसार के लिए भारत जिम्मेवार: मई,2020 में नेपाली प्रधानमंत्री ओली ने नेपाल में कोरोना वायरस के प्रसार के लिए भारत को जिम्मेवार ठहराया

7.    लिपुलेख-लिम्पियाधुरा मार्ग का उद्घाटन: जब भारत ने लिपुलेख होते हुए कैलाश-मानसरोवर यात्रा के अधूरे मार्ग को खोलने का निर्णय लिया और इसका उद्घाटन भारतीय रक्षा-मंत्री के द्वारा किया गया, तो इसके प्रति नेपाल ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और इसे नेपाल के हिमालयी क्षेत्र में हस्तक्षेप बतलाया उसने कहा कि यह दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों का नया निम्नतम बिंदु है क्योंकि नेपाल की निरंतर आपत्तियों के बावजूद इस मार्ग का निर्माण किया गया है

8.  भारतीय महिलाओं को नेपाली नागरिकता का प्रश्न: अब नेपाली पुरुषों के साथ विवाह करने वाली विदेशी महिलाओं, जिनमें भारतीय भी शामिल हैं, को शादी के सात साल बाद नेपाली नागरिकता के लिए विधायन का निर्णय लिया गया। इसका मतलब यह है कि इन सात वर्षों तक उन्हें सभी प्रकार के राजनीतिक अधिकारों से वंचित रहना होगा। इसके कारण भारतीयों एवं नेपालियों के बीच रोटी-बेटी का सम्बन्ध टूटने के कगार पर पहुँच जाएगा। सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी(CPN) का इस निर्णय के पीछे तर्क यह है कि भारत में भी नेपाली लड़कियों के साथ यही होता है, हालाँकि ये बात सच नहीं है क्योंकि इंडिया टुडे में आई रिपोर्ट के मुताबिक ये नियम दूसरे देशों से आई महिलाओं पर लागू होता है।

नक्शा-विवाद की पृष्ठभूमि में गहराता सीमा-विवाद:

लम्बे समय से नेपाल विवादित सीमावर्ती क्षेत्रों से सम्बंधित मसलों के समाधान हेतु बातचीत के लिए भारत पर निरंतर दबाव बना रहा है, पर इस मसले पर भारत ने उदासीन रूख अपनया है। मई,2014 में जब भारत और चीन ने व्यापारिक मार्ग के रूप में लिपुलेख के इस्तेमाल का निर्णय लिया, तो नेपाल ने उसके इस निर्णय का विरोध करते हुए भारत सरकार से आग्रह किया कि सीमा-विवाद के समाधान के लिए विदेश-सचिव स्तर की वार्ता शुरू की जाए, लेकिन नेपाल की इस माँग पर भारत ने चुप्पी साधे रखी।

फिर, कश्मीर और लद्दाख की संवैधानिक स्थिति को परिवर्तित करने के कुछ ही महीने बाद, जब नवम्बर,2019 में भारत ने नया राजनीतिक नक्शा जारी किया जिसमें भौगोलिक रूप से पश्चिमी तिब्बत और पाक-अधिकृत कश्मीर के बीच अवस्थित एवं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिमालयी लद्दाख क्षेत्र को केंद्र-शासित प्रदेश के रूप में दर्शाया, तो इसकी नेपाल में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और उसने इसका खुलकर विरोध कियानेपाल ने कूटनीतिक चैनल से सीमा-विवाद के समाधान के लिए भारत से चार बार औपचारिक रूप से आग्रह किया है, लेकिन भारत ने उसके आग्रह को तवज्जो नहीं दिया

इसकी प्रतिक्रिया में एक लम्बी प्रतीक्षा एवं भारत द्वारा टाल-मटोल के बाद अंततः जून,2020 में नेपाल ने भी अपना नया नक्शा जारी करते हुए भारत के लिए सामरिक दृष्टि से अहम् लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा पर अपना दावा पेश किया भारत ने इस बात का संकेत दिया कि उसने नए नक़्शे से सम्बन्धित संविधान-संशोधन विधेयक पेश करने के पहले अनौपचारिक रूप से वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के जरिये विदेश-सचिव स्तर की वार्ता का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन नेपाल ने उस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया भारत के इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए, तो तबतक बहुत देर हो चुकी थी और नेपाल उस दिशा में काफी आगे बढ़ चुका था 

अगर भारत ने सीमा-विवाद को समय रहते निपटाया होता, तो सीमा-विवाद का समाधान अधिकतम 35 वर्ग किलोमीटर के लेन-देन के सम्भव हो पाता, लेकिन नए नक़्शे को लेकर जारी विवाद के पश्चात् सीमा-विवाद का विस्तार करीब 335 वर्ग किलोमीटर तक हो चुका है जो पूर्व में विवादित क्षेत्र का दस गुना है

नक्शा-विवाद पर भारतीय प्रतिक्रिया:

जब नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र के समक्ष अपना नया नक्शा पेश किया, तो भारत ने ‘भू-क्षेत्र में कृत्रिम वृद्धि’ की संज्ञा देते हुए नेपाल के इस नए नक़्शे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस तरह से हिमालयी क्षेत्र में टकराव का नया मोर्चा खुला जो आनेवाले समय में भारत के लिए परेशानियाँ उत्पन्न करता रहेगा। अब, उपरोक्त विवादों के आलोक में भारत के लिए लिपुलेख होते हुए कैलाश-मानसरोवर यात्रा का सञ्चालन मुश्किल होगा क्योंकि आनेवाले समय में चीन भारत पर नेपाल के साथ सीमा-विवाद के द्विपक्षीय समाधान के लिए दबाव डालेगा जो आसान नहीं होने जा रहा है। कहा जाता है कि 1950 के दशक में चीन के साथ सीमा-विवाद के सन्दर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने जो गलती की, जिसकी बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी और आज भी पड़ रही है, उसी गलती को नेपाल के सन्दर्भ में वर्तमान सरकार और उसका नेतृत्व दोहरा रहा है   

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सीमा-विवाद के सन्दर्भ में भारत जो आरोप चीन पर लगता है, कुछ वैसा ही आरोप नेपाल के सन्दर्भ में भारत पर भी लगता है। चीन की तरह भारत भी इसके प्रति टाल-मटोल भरा रावैया अपनाता है। हालिया घटनाक्रम यह बतलाते हैं कि विवादित सीमाओं पर बातचीत से परहेज़ समस्याओं को कम करने की बजाय उसे बढ़ा रहा है, अब सन्दर्भ चाहे भारत-चीन का हो, या फिर भारत नेपाल का। इस सन्दर्भ में भारत का नेपाल के प्रति रवैया कुछ वैसा ही है जैसा चीन का भारत के प्रति। ऐसी स्थिति में पड़ोसी देशों से भारत के साथ खड़े होने की अपेक्षा उचित नहीं है, और इस स्थिति के लिए भारत, उसकी नीतियाँ और उसका रवैया स्वयं ही जिम्मेवार है। ऐसा माना जा रहा है कि लम्बे समय से नेपाल से बातचीत की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर भारत एक ओर चीन के मंसूबे को पूरा कर रहा है, दूसरी ओर नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. ओली को यह अवसर उपलब्ध करवा रहा है कि वे भारत के विरुद्ध अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाते हुए अपनी राजनीतिक स्थिति मज़बूत कर सकें।

नेपाली राजनीतिज्ञों की नयी पीढ़ी का आविर्भाव:

दरअसल नेपाल में राजनीतिज्ञों और नीति-नियंताओं की नयी पीढ़ी का आविर्भाव हो चुका है जिसके कारण भारत की नेपाल की आतंरिक राजनीति तक पहुँच और उसे प्रभावित करने की उसकी क्षमता सीमित हुई है। विशेष रूप से के. पी. शर्मा ओली के नेतृत्व में नेपाली वामपंथ ने राजनीतिक कारणों से एन्टी-इण्डिया सेंटिमेंट उभारते हुए अपनी स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश की, और भारत ने अपनी गलतियों के ज़रिये उसे अपनी ओर से पर्याप्त अवसर भी उपलब्ध करवाया।

दरअसल, भारत की नेपाल-नीति में नीतिगत-निरंतरता का अभाव दिखाई पड़ता है, और इसके मूल में मौजूद हैं भारत की अंतर्विरोधी प्राथमिकताएँ। यह स्थिति भारत के वर्तमान नेतृत्व, जिसने भारतीय राष्ट्रवाद को आक्रामक स्वरुप प्रदान करते हुए उसे हिंदुत्व की ओर उन्मुख किया है, के कारण और अधिक जटिल हुई है।

सन 2018 में के. पी. ओली, जिनकी पहचान ऐसे राजनेता के रूप में है जिनकी राजनीति भारत-विरोध की बुनियाद पर टिकी है और जो चीन के करीब हैं, दूसरी बार सत्ता में लौटे। इनका दूसरी बार सत्ता में लौटना भारत की निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति के लिए जोरदार झटका है, कम-से-कम नेपाल के हालिया घटनाक्रम इसी ओर इशारा करते हैं।

सामरिक दृष्टि से चीन के करीब आता नेपाल:

जब ओली ने दूसरी बार नेपाल का नेतृत्व संभाला, तो उन्होंने नेपाल-चीन सम्बन्ध को प्राथमिकता देते हुए उसे मजबूती प्रदान करने की कोशिश की और इसकी पृष्ठभूमि में भारत-नेपाल सम्बन्ध हाशिये पर पहुँचता चला गया। इससे पहले कि निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति परवान चढ़ती, निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति में सार्क-केन्द्रित नज़रिया पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति के जरिये प्रतिस्थापित होने लगी। लेकिन, इससे पहले कि भारत इस दिशा में कदम बढ़ाता, नेपाल उसके हाथों से फिसलता दिखाई पड़ा। वामपंथ की पृष्ठभूमि से आने वाले नेपाली प्रधानमन्त्री के. पी. शर्मा ओली भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काते हुए अपने नेशनलिस्ट एजेंडे को लागू करवाने में लगे रहे। भारत की बेरुखी कुछ इस कदर रही कि उसने भारत-नेपाल सम्बन्ध पर विशेषज्ञ लोगों के समूह की रिपोर्ट को भी गंभीरता से लेने की बात तो छोड़ ही दें, उसे नोटिस तक नहीं लिया।

भारत-नेपाल संबंधों में आने वाले तनावों और नेपाल-सरकार की चीनोन्मुखता का लाभ उठाते हुए चीन ने नेपाल में अपने सामरिक हितों को साधने की कोशिश कीअक्टूबर,2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत से लौटते हुए नेपाल भी गए और उनके उस दौरे के क्रम में चीन ने नेपाल को अपना सामरिक भागीदार बनाया। उन्होंने इसके लिए अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’(BRI) में शामिल होने के लिए नेपाल को राजी किया और सन् 2013 में आरम्भ ट्रांस-हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क को इस परियोजना के अंतर्गत शामिल किया गया। तब से भारत की नेपाल पर पकड़ कमजोर होती चली गयी और नेपाल भारत के हाथों से फिसलकर चीन के हाथों में जा रहा है।

नीतिगत हस्तक्षेप अपेक्षित:

इस आलोक में देखें, तो आवश्यकता इस बात की है कि श्रीलंका,  नेपाल एवं पाकिस्तान के मोर्चे पर उभर रही नवीन चुनौतियों और चीन के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण दक्षिण एशिया में तेजी से बदलते क्षेत्रीय समीकरणों के मद्देनज़र भारत निकटस्थ पड़ोस प्रथम की अपनी नीति को भारत पुनर्परिभाषित करे और निकटस्थ पड़ोस प्रथम 2.0 के जरिये इन चुनौतियों का प्रभावी तरीके से सामना करने की रणनीति तैयार करे। और, यह तबतक संभव नहीं है जबतक कि तमाम मतभेदों को दरकिनार करते हुए संवाद कायम करने की कोशिश नहीं की जाती और उन संवादों के माध्यम से समस्या के समाधान तक पहुँचने का सकारात्मक नज़रिया नहीं अपनाया जाता।   

निकटस्थ पड़ोस प्रथम नीति: विविध आयाम

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और अफगानिस्तान:

आरम्भ में ऐसा लगा कि अफगानिस्तान के सन्दर्भ में निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति वास्तव में सफल रही सितम्बर,2014 में अशरफ ग़नी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए और अप्रैल,2015 में अपने पहले आधिकारिक दौरे पर भारत पहुँचे, और उसके बाद पहले दिसम्बर,2015 में और फिर जून,2016 में भारतीय प्रधानमंत्री का अफगानिस्तान दौरा सम्पन्न हुआ अपने दूसरे दौरे के दौरान उन्होंने हेरात में सलमा डैम का उद्घाटन किया और 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता के साथ भारत क्षेत्रीय शक्तियों में सबसे अधिक वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाने वाला देश बना

दरअसल, राष्ट्रपति अशरफ ग़नी भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के ज़रिये व्यापार के मामलों में लैंडलॉक्ड अफगानिस्तान की पाकिस्तान पर निर्भरता को कम करते हुए अफगान मामलों में उसके अवांछित दबाव को कम करना चाहते थे इसी आलोक में दोनों पक्षों ने ईरान के चाबाहार बंदरगाह की सामरिक अवस्थिति का फायदा उठाकर एक दूसरे के साथ ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी के ज़रिये कारोबारी संबंधों को मजबूती देने की रणनीति अपनायी और अफगानिस्तान के रास्ते भारत ने मध्य एशियाई रेल एवं रोड नेटवर्क से जुड़ने की दिशा में पहल की जिससे आने वाले समय में उसे पकिस्तान एवं चीन के बढ़ते प्रभाव को प्रति-संतुलित करने का अवसर मिल सकता है इस क्रम में पाकिस्तान भारत के साथ व्यापार के लिए अफगानिस्तान को बाघा-अटारी बॉर्डर के जरिये ट्रांजिट सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए तैयार नहीं हुआ, तो अफगानिस्तान ने अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान की मध्य एशिया तक पहुँच को अवरुद्ध तक करने की धमकी दी जून,2018 में भारत और अफगानिस्तान ने एयर फ्रेट कॉरिडोर लाँच किया जिसके सन्दर्भ में दिसम्बर,2016 में निर्णय लिया गया था इससे न केवल द्विपक्षीय कारोबारी सम्बंधों को गति मिलेगी, वरन् एजुकेशनल एवं मेडिकल टूरिज्म को भी बढ़ावा मिलेगा  

लेकिन, अमेरिका के द्वारा बिना भारत से विचार-विमर्श किए अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी की घोषणा और तालिबान से समझौता ने इस सफलता पर ग्रहण लगा दिया है अब, यह तो आने वाला समय ही बतलाएगा कि भारत इन चुनौतियों से किस प्रकार निबटता है समस्या यह है कि अब तक भारत तालिबान के साथ जुड़ने से इनकार करता रहा है और लगभग पिछले दो दशकों से उसका तालिबान के साथ किसी भी प्रकार का संपर्क नहीं रहा है, लेकिन भारत की अफगान-नीति के साथ समस्या यह रही कि इसने जिस अमेरिका को ध्यान में रखते हुए इसे डिज़ाइन किया, उस अमेरिका ने ही इसे किनारे करते हुए अफगान-समस्या के समाधान की दिशा में पहल की। फलतः भारत को खुद के रुख पर पुनर्विचार करना पड़ा और व्यावहारिक नजरिया अपनाते हुए नवंबर,2018 में मास्को सम्मेलन के दौरान तालिबान के प्रतिनिधि मौजूदगी के बावजूद भारत ने अपने प्रतिनिधि भेजे, यद्यपि यह प्रतिनिधित्व अनौपचारिक था। फरवरी,2020 में दोहा में सम्पन्न अमेरिका-तालिबान समझौता के दौरान तो अनौपचारिकता के इस दायरे को लाँघते हुए क़तर में भारत के राजदूत पी. कुमारन औपचारिक रूप से मौजूद रहे। अबतक भारत अफगानिस्तान के बाहर किसी भी बैठक को 'अफगान-स्वामित्व और अफगान-नेतृत्व वाले समाधान' पर रेडलाइन को पार करने वाला मानता था। ध्यातव्य है कि भारत-यात्रा के दौरान अफगानी राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने तालिबान के साथ वार्ता का समर्थन करने के लिये एक मज़बूत आधार बनाया था। दोनों देशों की संयुक्त वार्ता के दौरान राष्ट्रपति घनी ने जोर देकर कहा था कि अफगानिस्तान में इस्लामी राज्य और 'विदेशी आतंकवाद' जैसी समस्याएँ मौजूद थीं और इसलिये अफगान के तालिबान इसके विरोध में है।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और पाकिस्तान:

जिस समय निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की घोषणा की गयी, उस समय पाकिस्तान को सबसे कमजोर कड़ी के रूप में देखा गया। और, विडंबना यह रही कि मई,2014 में सत्तारूढ़ होने के बाद राजग-शासन के आरंभिक वर्षों के दौरान तो यह पता ही नहीं चला कि इस सरकार की पाकिस्तान-नीति क्या है, लेकिन धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता चला गया कि आरंभिक वर्षों की दुविधा से निकलकर यह सरकार पाकिस्तान के सन्दर्भ में एक ओर ‘जैसे को तैसा’ की रणनीति पर काम कर रही है, दूसरी ओर उसे दक्षिण एशिया के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने की रणनीति पर काम कर रही है। पठानकोट आतंकी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय सम्बंध में ऐसा गतिरोध उत्पन्न हुआ और औपचारिक संवाद का तार कुछ ऐसा टूटा, जिसे दूर करते हुए पुनर्बहाल कर पाना अबतक संभव नहीं हो पाया हैसितम्बर,2016 में उरी हमले के बाद से अबतक किसी भारतीय मंत्री ने पाकिस्तान का दौरा नहीं किया है और इसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र में विदेश-मंत्री के स्तर की वार्ता भी रद्द करने के बाद यह माना गया कि भारत इस्लामाबाद की नई सरकार के साथ किसी भी समझौते का प्रस्ताव नहीं करेगा। सन् 2016 में स्वतंत्रता-दिवस के भाषण में बलूचिस्तान का उल्लेख, और फरवरी,2019 में पुलवामा आतंकी हमले की पृष्ठभूमि में बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक उस निम्नतम बिन्दु की ओर इशारा करते हैं जहाँ पर भारत-पकिस्तान समबन्ध पहुँच चुका है इसमें पाकिस्तान के द्वारा नियंत्रण-रेखा पर संघर्ष-विराम के निरंतर उल्लंघन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसी प्रकार जिस तरह से कुलभूषण जाधव विवाद से निपटने की कोशिश की गयी, उसने भी द्विपक्षीय संबंधों को प्रतिकूलतः प्रभावित हो। आज भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय सम्बंध मुम्बई आतंकी हमले,2008 के बाद सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। यद्यपि इसी दौर में इमीडियेट नेबरहुड फर्स्ट की पॉलिसी का उत्कर्ष भी देखने को मिलता है जब सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी को आगे बढ़ाते हुए करतारपुर कॉरिडोर के ज़रिये करतारपुर साहिब, पाकिस्तान तक भारतीय सिख तीर्थयात्रियों और ननकाना साहिब, भारत तक पाकिस्तानी तीर्थयात्रियों की आसान पहुँच सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। इस सन्दर्भ में भारत अपने हिस्से के करीब छह किलोमीटर लंबे गलियारे और पाकिस्तान अपने क्षेत्र में 4 किलोमीटर लंबा गलियारा बनाने पर राज़ी हुआ।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और भूटान:

चीन भूटान के साथ भी प्रत्यक्ष कूटनीतिक समबन्धों की स्थापना की दिशा में प्रयत्नशील है और वह भारत को दरकिनार करते हुए द्विपक्षीय बातचीत के जरिये भूटान के साथ सीमा-विवाद का समाधान करना चाहता है क्योंकि ऐसी स्थिति में भूटान पर दबाव निर्मित कर पाना और उससे अपनी बातें मनवा पाना आसान होगा। वह चीन-भूटान विवाद में किसी तीसरे देश, जिसे भारत पढ़ा जाए, के हस्तक्षेप के विरुद्ध है। इसके लिए उसने नेपाल के जरिए भूटान की राजनीति को भी प्रभावित करने की कोशिश भी की है। अक्टूबर,2018 में सम्पन्न नेशनल असेंबली चुनाव में सेंट्रिस्ट लेफ्ट डीएनटी की जीत में समाजवादी चीन की परोक्ष भूमिका रही और इस प्रकार भूटान में ऐसी सरकार का गठन हुआ जो चीन को लेकर सॉफ्ट है। फरवरी,2020 में भूटान की सरकार ने मालदीव और बांग्लादेश के साथ-साथ भारत से आने वाले पर्यटकों के लिए मुफ्त पर्यटन की व्यवस्था समाप्त कर दी। अब, वहाँ जाने वाल एपर्यतकों को प्रति दिन 1,200 रुपये की दर से चार्ज देना होगा।

इन सबके बीच, जून,2020 के अंत में इस तरह की ख़बरें आईं कि भूटान ने असम(भारत) के बक्सा जिले से लगे सीमावर्ती इलाकों में अवस्थित सिंचाई-चैनल के लिए पानी छोड़ना बंद कर दिया है। लेकिन, भूटान ने इस रिपोर्ट की वैधता का स्पष्ट रूप से खंडन किया है। उसका कहना यह है कि दरअसल वह असम में पानी के सुचारू प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए चैनलों की मरम्मत कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि बक्सा जिले के 26 से ज्यादा गाँवों के करीब 6000 किसान सिंचाई के लिए डोंग परियोजना पर निर्भर हैं और सन् 1953 के बाद से इस क्षेत्र के किसानों के द्वारा धान की सिंचाई के लिए भूटान से आनेवाले पानी का इस्तेमाल किया जा  करते रहे हैं।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और बांग्लादेश:

ऐसा माना जाता है कि निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति बांग्लादेश के संदर्भ में कहीं अधिक प्रभावी रही और इसने बांग्लादेश ने के लिए रणनीतिक अवसर उपलब्ध करवाते हुए दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को बदलने की कोशिश की  जुलाई,2014 में समुद्री कानून पर अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के फैसले को स्वीकार करते हुए दोनों देशों ने लम्बे समय से चले आ रहे सामुद्रिक विवादों का हल निकाला जून,2015 में दोनों देशों ने भू-सीमा समझौते का अनुमोदन किया और अप्रैल,2018 में बंगलादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत-यात्रा के दौरान भारत ने बांग्लादेश के डिफेंस हार्डवेयर पर्चेज के लिए उपलब्ध करवाए गए 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के अलावा 4.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का क्रेडिट लाइन उपलब्ध करवाया और, यह सब पाकिस्तान-समर्थक रेडिकल समूह और पकिस्तान की खुफिया संस्था द्वारा द्विपक्षीय संबंधों को बेपटरी करने की तमाम कोशिशों के बावजूद हुआ

बांग्लादेश के साथ संबंध के सन्दर्भ में राजग सरकार ने शेख हसीना और सत्तारूढ़ अवामी लीग पर ही अधिक निर्भरता दिखाई है, जिसके तात्कालिक परिणाम भले ही सकारात्मक दिख रहे हों, पर विपक्षी दलों एवं उसके नेतृत्व से उसकी दूरी उस समय भारत के लिए परेशानियों का सबब बन सकती है जब राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन होगा। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दोनों देशों के राजी होने के बावजूद तीस्ता नदी विवाद का अबतक समाधान संभव नहीं हो सका है, तो इसलिए कि पश्चिम बंगाल सरकार अबतक इस पर सहमत नहीं है और वह इसका विरोध कर रही है इसी प्रकार बांग्लादेश बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग से सम्बंधित भारत की सब-रीजनल पहलों: अब वह चाहे बिम्सटेक हो या फिर बांग्लादेश-भूटान-इण्डिया-नेपाल(BBIN) पहल, के केंद्र में है, और इस रूप में, विदेश-मंत्री एस. जयशंकर की नज़रों में, यह भारत के निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की सफलता की महत्वपूर्ण कसौटी है लेकिन, इस सन्दर्भ में बांग्लादेश की उदासीनता भारत की ‘सार्क माइनस पाकिस्तान’ रणनीति के लिए ज़बरदस्त झटका है। इतना ही नहीं, हाल के दिनों में बांग्लादेश-चीन की बढ़ती हुई नज़दीकियाँ भी भविष्य में भारत के लिए परेशानियाँ उत्पन्न करने वाली साबित हो सकती हैं।

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और श्रीलंका:

भारत के भू-राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में अवस्थित श्रीलंका के लिए चीन मानवाधिकार-उल्लंघन को लेकर बढ़ते पश्चिमी दबाव के विरुद्ध भी ढ़ाल बना और तमिल-युद्ध के अंतिम, किन्तु निर्णायक चरण में तमिल-समस्या के राजनीतिक समाधान हेतु भारत की ओर से निर्मित हो रहे दबाव के विरुद्ध भी इसके अतिरिक्त, चीन से उसे ऋण एवं निवेश की उपलब्धता भी संभव हो सकी जो अवसंरचनात्मक चुनौती का सामना करने में सहायक हो सकती थी, यद्यपि उसकी आर्थिक व्यवहार्यता को लेकर सन्देह बना रहा इसीलिए उनका स्वाभाविक रुझान चीन की ओर था वैसे भी, महिन्दा राजपक्षे और नरेन्द्र मोदी दोनों ही हार्डलाइनर हैं, दोनों अपने-अपने देश में उग्र-राष्ट्रवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं और तमिलों के मसले पर दोनों के पॉलिटिकल लाइन एक दूसरे से टकराते हैं

ऐसे स्थिति में फरवरी,2015 भारत की निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के लिए एक अवसर बनकर आया क्योंकि श्रीलंका के संसदीय चुनाव में महिंदा राजपक्षे की हार हुई और मैत्रीपाला सिरीसेना श्रीलंका के नए राष्ट्रपति बने उस समय राजपक्षे के समर्थकों ने महिन्दा राजपक्षे की हार के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। लेकिन, श्रीलंका में राजनीतिक नेतृत्व में इस परिवर्तन ने भारत के लिए अवसर सृजित किए, जिसे भुनाने के लिए ही फरवरी,2015 में श्रीलंकाई राष्ट्रपति का भारत-आगमन और मार्च,2015 में भारतीय प्रधानमंत्री का श्रीलंका दौरा हुआ पिछले 28 वर्षों में यह भारतीय प्रधानमंत्री का पहला श्रीलंकाई दौरा था जिस दौरान भारतीय प्रधानमंत्री ने श्रीलंकाई संसद को भी सम्बोधित किया और तमिल-बहुल उत्तरी प्रान्त के जाफना का भी दौरा किया मई,2017 में मोदी एक बार फिर से श्रीलंका के दौरे पर गए इसके ठीक बाद सम्पन्न बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) सम्मिट में श्रीलंका ने चीनी सब-मरीन जहाजों को अपने यहाँ रुकने की अनुमति देने से इनकार किया, लेकिन इस सम्मलेन में श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे शामिल भी हुए और चीन ने उनके समक्ष 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त ऋण उपलब्ध करवाने का ऑफर दिया दिसम्बर,2017 में श्रीलंका ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैमबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्षों के लिए लीज पर चीन को उपलब्ध करवाया अब समस्या यह है कि श्रीलंका बकाया चीनी ऋण के भुगतान में खुद को असमर्थ पा रहा है और अब चीन श्रीलंका की इस मजबूरी का फायदा उठाकर अपने सामरिक हितों को साधने की कोशिश में लगा हुआ है हाँ, भारतीय चिंताओं के मद्देनज़र श्रीलंकाई सरकार ने इस बंदरगाह चीन की भूमिका को वाणिज्यिक प्रचालनों तक सीमित रखने की इच्छा प्रकट की और सुरक्षा ऑपरेशन की निगरानी का अधिकार अपने पास रखा रणनीतिक दृष्टि से भारत हैमबनटोटा जिले में ही मत्ताला एयरपोर्ट में निवेश को इच्छुक है

जून,2019 में भारतीय प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान श्रीलंका और मालदीव, दोनों देशों ने इस बात को दोहराया कि पड़ोस प्रथम की नीति नयी सरकारों का मूल सिद्धांत है। इसने दोनों देशों के द्वारा हिन्द महासागर में भारतीय दावों की स्वीकृति का सन्देश दिया। यह इन दोनों देशों में भारतीय कूटनीति की एक तरह से वापसी थी जो दोनों देशों में राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन का परिणाम है। जहाँ पहले की दोनों सरकारें एन्टी-इण्डिया सेंटीमेंट रखती थीं, वहीं नईं सरकारों का दृष्टिकोण कहीं अधिक संतुलित है और भारत को लेकर उनका रुख एनिमिकल नहीं है; यद्यपि श्रीलंका में एक बार फिर से गोटाबयो राजपक्षे के नेतृत्व में नयी सरकार बन चुकी है जिसका रुख चीन की ओर उन्मुख है। नवम्बर,2019 में एक बार फिर से श्रीलंका का राजनीतिक समीकरण भारत के विपरीत जाता दिख रहा है। हालिया सम्पन्न राष्ट्रपति-चुनाव में महिन्दा राजपक्षे के छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे की जीत हुई और स्वयं महिन्दा राजपक्षे भी तीसरी बार प्रधानमन्त्री बनने में सफल रहे। गौरतलब है कि राजपक्षे परिवार चीन से उनके बेहतर संबंधों के लिये जाना जाता है। अगस्त,2020 में घोषित चुनाव-परिणाम में राजपक्षे परिवार की राजनीतिक स्थिति एक बार फिर से मज़बूत होती दिखाई पड़ी जब महिंदा राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पीपल्स पार्टी(SLPP) ने 225 सदस्यीय संसद में 59.9 प्रतिशत वोटों के साथ अकेले 145 सीटें और सहयोगियों दलों के साथ दो-तिहाई बहुमत (कुल 150 सीट) हासिल किया। यह आनेवाले समय में भारत की मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है।   

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और मालदीव:

सन् 2011 में चीन ने मालदीव के साथ औपचारिक राजनयिक संपर्क स्थापित किया और इसके लिए मालदीव में चीनी दूतावास की स्थापना की गयी। इसके पहले तक मालदीव से जुड़े मसले कोलम्बो स्थित चीनी दूतावास के जिम्मे थे और उसी के द्वारा निबटाए जाते थे। दिसम्बर,2018 में मालदीव ने चीन के साथ मुक्त-व्यापार समझौते(FTA) पर हस्ताक्षर किया, जो किसी देश के साथ मालदीव का पहला मुक्त-व्यापार समझौता है और यह इण्डिया फर्स्ट की पारंपरिक पॉलिसी को खारिज करता है। यहाँ तक कि मालदीव पाकिस्तान के बाद चीन के साथ मुक्त-व्यापार समझौता करने वाला दूसरा दक्षिण एशियाई देश बना। इतना ही नहीं, मालदीव के राष्ट्रपति के रूप में अब्दुल्ला यामीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव(BRI) के हिस्से के रूप में मेरीटाइम सिल्क रोड के प्रस्ताव को खुलकर समर्थन दिया।

यद्यपि मालदीव के सन्दर्भ में भारत ने काफी संयम बरता, तब भी जब अब्दुल्ला यामीन के पिछले शासन के दौरान मालदीव में आपातकाल घोषित किया गया, मालदीव के भूतपूर्व राष्ट्रपति कर्नल नशीद को गिरफ्तार किया गया, रोजगार को इच्छुक भारतीयों के साथ-साथ नौसेना तथा सैन्यकर्मियों को वीज़ा देने से इनकार कर दिया गया, मालदीव के द्वारा चीन के इशारे पर जल-संकट से निपटने के लिए भेजी गयी भारतीय पेयजल सहायता को बैरंग वापस लौटा दिया गया और भारत को अपने हेलीकॉप्टर वापस बुलाने के लिए बाध्य किया गया। लेकिन, तना-तनी का आलम यह रहा कि मार्च,2015 में अंतिम समय में भारतीय प्रधानमंत्री ने प्रस्तावित मालदीव दौरा रद्द कर दिया। साथ ही,  सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सदस्यता हेतु मालदीव की दावेदारी को ख़ारिज करवाने और उसे हरवाने में भारत की अहम् भूमिका रही।

स्पष्ट है कि मालदीव निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की विफलता का प्रमाण है जहाँ कुछ समय पहले तक चीन के प्रति नरम अब्दुल्ला यमीन सरकार धीरे-धीरे चीन की आर्थिक सहायता पर निर्भर होती जा रही थी और तदनुरूप भारत के लिए रणनीतिक स्पेस सीमित होता जा रहा था। लेकिन, सितम्बर,2018 में मालदीव के राष्ट्रपति-चुनाव में विपक्ष के साझा उम्मीदवार मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी के इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को मिली जीत भारत के लिए राहत भरी रही क्योंकि सामरिक रूप से महत्वपूर्ण यह देश पिछले पाँच वर्षों के दौरान भारत के हाथ से फिसलता चला जा रहा था और अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व में मालदीव तेजी से चीन के प्रभाव में जा रहा था।

जून,2019 में भारतीय प्रधानमंत्री के मालदीव दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच मेरीटाइम सेक्यूरिटी सहयोग को मजबूती प्रदान करने के प्रश्न पर सहमति बनी, ताकि हिन्द महासागर में शान्ति एवं स्थिरता को सुनिश्चित किया जा सके और इनके भू-क्षेत्र का इस्तेमाल एक दूसरे के खिलाफ शत्रुता फ़ैलाने के लिए नहीं किया जा सके। निश्चय ही यहाँ इशारा चीन की तरफ है। माले-विजिट के दौरान भारत और मालदीव आतंकवाद एवं हिंसक उग्रवाद पर अंकुश लगाने और डीरेडिकलाइजेशन के लिए संयुक्त कार्य समूह (JWG) की स्थापना के मसले पर भी सहमत हुए। लेकिन, इससे स्थिति बहुत बदल पाएगी, इसमें सन्देह है क्योंकि मालदीव में चीन का स्ट्रेटेजिक डेप्थ इतना बढ़ चुका है कि उसके लिए चीनी शिकंजे से बाहर निकल पाना असंभव नहीं, तो बहुत ही मुश्किल अवश्य होने जा रहा है।

 

निकटस्थ पड़ोस नीति: एक विश्लेषण

वर्तमान सरकार द्वारा अपने छह वर्षों के शासन के दौरान निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को प्राथमिकता दी गयी और उसे मज़बूती प्रदान करने पर बल दिया गया है, लेकिन आज पड़ोसी देशों के साथ भारत का सम्बन्ध बुरे दौर में पहुँच चुका है। राजनीतिक विश्लेषक कॉनस्टेंटिनो ज़ेवियर का कहना है, “शीतयुद्ध के दौर में अधिकांश समय तक भारत ने पड़ोसी देशों से सामरिक अलगाव एवं उपेक्षा की नीति अपनायी, और 1990 के दशक में उसने अगर पड़ोसी देशों की ओर रुख किया भी, तो अनमने भाव से, जिसके कारण ऐसा लगा कि वह इसके लिए बहुत इच्छुक एवं प्रस्तुत नहीं है। लेकिन, भारत के आर्थिक एवं सुरक्षा-हितों के परिप्रेक्ष्य में इस अलगाव को चुनौती के रूप में लेते हुए वर्तमान सरकार के द्वारा की गयी पहलों के परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई क्षेत्र के प्रति भारत की नीति अपरिवर्तनीय ढंग से सीमा-पार संबंधों के सुदृढीकरण एवं मजबूती की ओर शिफ्ट कर चुकी है।” लेकिन, उनके इस विश्लेषण से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। इस विश्लेषण की दो समस्याएँ हैं:

1.       एक तो, यह अबतक भारत के द्वारा पड़ोसी देशों के प्रति अपनायी गयी अबतक की नीति: पंचशील से लेकर गुजराल डॉक्ट्रिन तक, की अहमियत को कम करके आँकती है, और

2.       दूसरे, निकटस्थ पड़ोस प्रथम की वर्तमान सरकार की नीति को ज़रुरत से ज्यादा तवज्जो देती है; जबकि वास्तविकता यह है कि क्रियान्वयन के स्तर पर समस्या पहले भी थी और आज भी है। इसने पड़ोस के प्रति भारतीय नीति को वांछित परिणामों तक पहुँचने से रोका।

आवश्यकता इस बात की है कि इसे पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(UPA) सरकार के द्वारा अपनायी गयी पड़ोस नीति की निरंतरता के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। सन् 2007 में भारत ने भूटान के साथ 1949 की मैत्री सन्धि की समीक्षा करते हुए उसे समानता के धरातल पर लाने की कोशिश की। दक्षिण एशियाई मामलों की विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर सबिता पांडे के शब्दों में कहें, तो “सन् 1949 में भारत और चीन के बीच जो फ्रेंडशिप समझौता हुआ था, उसमें 2007 में संशोधन किया गया था संशोधन से पहले तक भूटान को सभी तरह के विदेशी संबंधों के मामले में भारत को पूर्व-सूचना देनी होती थी, लेकिन संशोधन के बाद इसमें जोड़ा गया कि जिन विदेशी मामलों में भारत सीधे तौर पर जुड़ा होगा उन्हीं में उसे सूचित किया जाएगा।” अब अगर देखें, तो नेपाल भारत के साथ सन् 1950 की मैत्री सन्धि की कुछ इसी तरह की समीक्षा के लिए लम्बे समय से दबाव बना रहा है, लेकिन निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के छह साल बीत जाने के बावजूद भी अबतक ऐसा संभव नहीं हुआ है। इसके उलट, नेपाली संविधान के प्रश्न पर गहराते मतभेदों के बीच भारत द्वारा की गयी आर्थिक नाकेबन्दी इस नीति की असलियत को सामने लाता है।      

यद्यपि इस नीति को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि इसके कारण बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद के समाधान में सफलता मिली और पहले कार्यकाल के दौरान श्रीलंका और भूटान के साथ सम्बन्ध भी बेहतर हुए, लेकिन यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद पर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में ही समझौता हो चुका था, बस उस पर हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी की जानी थी। रही बात श्रीलंका की, तो वहाँ चुनावों के बाद राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन और नए राजनीतिक नेतृत्व के विज़न के साथ-साथ उसके राजनीतिक हितों ने इस बेहतरी में अहम् भूमिका निभाई। राजग सरकार ने भारत-श्रीलंका संबंधों को सफलतापूर्वक तमिल राजनीति से बाहर निकाल कर उन्हें सांस्कृतिक एकता के दायरे में तो लाया, लेकिन, सन् 2015 से भारत-समर्थक मैत्रीपाला सिरीसेना सरकार के सत्ता में होते हुए भी, द्वीप पर भारत चीन की रणनीतिक जगह को कम करने में बहुत सफल नहीं रहा है। मालदीव में अब्दुल्ला यामीन सरकार की चीनी सहायता पर बढ़ती हुई निर्भरता के कारण भारत के लिए रणनीतिक स्पेस सीमित होता जा रहा है, यद्यपि हाल में राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन ने थोड़ी राहत दी है।  

भारत-चीन सीमा-विवाद: निकटस्थ पड़ोस प्रथम की असली परीक्षा:

मई,2014 में भारत ने अपने पड़ोस में चीन की बढती सक्रियता और उसमें अन्तर्निहित खतरों के आलोक में ही ‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ नीति को इंट्रोड्यूस किया था इससे यह अपेक्षा की गयी थी कि यह भारत के पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव पर अंकुश लगाने में सहायक साबित होगा और इससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में क्षेत्रीय नेतृत्व के रूप में भारत के उभार की प्रक्रिया भी तेज होगी साथ ही, इसको लेकर पड़ोसी देशों में भारत की स्वीकार्यता भी बढ़ेगी जिससे भारत अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करता हुआ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका निभाएगा इसीलिए इस नीति की सफलता या असफलता का मूल्यांकन चीन के बढ़ाते हुए प्रभाव पर अंकुश लगा पाने और इस काम में दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के सहयोग को सुनिश्चित कर पाने में इसकी भूमिका  के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए

अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो हालिया भारत-चीन सीमा-विवाद और इसके कारण उत्पन्न तनाव को कम करने के मसले पर भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों की चुप्पी हतप्रभ नहीं करती है। इसके उलट, नेपाल नए नक़्शे के जरिये भारतीय सीमा पर अपनी ओर से मोर्चा खोलकर चीन की मदद करता दिखाई पड़ रहा है और गलवान घाटी की हिंसक झड़प के ठीक अगले दिन पाकिस्तान में एक लम्बे अंतराल के बाद आईएसआई के मुख्यालय में उच्चस्तरीय बैठक हुई जो इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि वह इसे एक अवसर के रूप में भुनाने की ताक में है वैसे भी, पाकिस्तान-चीन की बढ़ती नजदीकियों और बलूचिस्तान पर भारत के ऑफिसियल स्टैंड में परिवर्तन के बाद उसके द्वारा ऐसा न करने का कोई कारण नहीं दिखता है अफगानिस्तान अभी खुद में ही उलझा हुआ है और एनआरसी एवं सीएए के मसले ने बांग्लादेश के साथ-साथ अफगानिस्तान के सरकार को भी भारत से दूर किया है। श्रीलंका में चीन-समर्थक रुख के कारण महिन्दा राजपक्षे के भाई गोटाबायो राजपक्षे की सरकार से तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। कुल-मिलाकर, नेपाल एवं बांग्लादेश जैसे भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों ने इस मसले पर या तो चुप्पी साध ली है, या ‘फिर दोनों पक्ष इसका शांतिपूर्ण समाधान निकल लेंगे’ कहकर प्रतिक्रिया देने की औपचारिकता पूरी की है। यह चुप्पी निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति पर प्रश्न खड़ा करती है अगर दूसरे शब्दों में इसी बात को कहूँ, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के बावजूद भारत के पड़ोसी देशों में चीन की स्थिति भारत की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत प्रतीत हो रहा है।

वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल:

निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास ही इस ओर इशारा करता है कि धीरे-धीरे भारत अपने निकटस्थ पड़ोस से बाहर निकलकर बहुपक्षीय आर्थिक एवं राजनीतिक गठबंधन की संभावनाओं की तलाश कर रहा है। विस्तृत पड़ोस तक पहुँचने की कोशिश इसी ओर इशारा करता है। हाल में चीन के साथ सीमा-विवाद ने रणनीतिक प्राथमिकताओं के निर्धारण की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इसी आलोक में मार्च,2020 से भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले इंडो-पैसिफ़िक राष्ट्रों के समूह (IPGN), जिसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कोरिया एवं वियतनाम शामिल हैं, का हिस्सा बना। यह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ लोकतान्त्रिक देशों के समूह (QUAD) का हिस्सा है। यह समूह क्षेत्रीय सुरक्षा के मसले पर सामूहिक पहल के लिए संयुक्त मोर्चे के निर्माण और सामुद्रिक सहयोग को बढ़ाये जाने के प्रश्न पर विचार कर रहा है। अगर ऐसा होता है, तो हिन्द महासागर और साउथ चाइना सी में प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश में लगे चीन के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी। लेकिन, इन सबके बावजूद चीन वास्तविक नियंत्रण-रेखा(LAC) पर अपने रुख को नरम करने के लिए तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि यह मसला लम्बा खिंचने वाला है।

Reference Materials:

1.  The immediate neighbourhood: Suhasini Haidar JUNE 05, 2019

2.  Grading India’s Neighborhood Diplomacy: Vinay Kaura January 01, 2018

3.  India cannot afford to think of permanent friends anymore in its neighbourhood’: Constantino Xavier, 22nd August,2020

4.  https://www.brookings.edu/blog/up-front/2020/06/09/interview-on-indias-neighbourhood-regional-institutions-and-delhis-policy-space/

5.  https://theprint.in/opinion/modis-neighbourhood-first-push-is-being-pulled-down-by-decades-of-policy-stagnation/365895/

6.  https://www.hindustantimes.com/analysis/neighbourhood-first-capacity-needs-to-match-the-commitment/story-R0jKdljegs8gBmWoU8VNqM.html

7.  https://www.hindustantimes.com/analysis/the-quest-for-regional-connectivity-opinion/story-DZU7JLrCXBebOmZHkwUbBL.html

 

No comments:

Post a Comment