Friday, 4 September 2020

नमन उन गुरुओं को, जिन्होंने मुझे सिरजा! (शिक्षक-दिवस)

 

नमन उन गुरुओं को, जिन्होंने मुझे सिरजा!

‘रिफ्यूजी’ मूवी का एक डायलॉग याद आ रहा है: “उस पार जाने की जिद है, या फिर मरने की जिद है?” जवाब आता है, “न उस पार जाने की जिद है, न मरने की जिद है। सिर्फ और सिर्फ जीने की जिद है।” यह डायलॉग मेरे दिल के बहुत ही करीब है। अगर ठीक-ठीक याद करूँ, तो 2003 का वर्ष रहा होगा और जुलाई महीने का तीसरा दिन, जब मैंने कोचिंग की इस दुनिया में कदम रखा था, एक छोटी-सी शर्त के साथ। अपनी ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की चाह के साथ। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो महसूस होता है कि कहीं खुदा को तो नहीं माँग लिया; पर सुकून है कि अबतक अपने मक़सद में कुछ हद तक कामयाब रहा हूँ।  आज मैं यह कह सकता हूँ:

“Teaching Is Not My Profession, It Is My Religion.”

लेकिन, अगर यहीं पर रुक जाऊँ, तो बात अधूरी रह जायेगी। दरअसल,: Being a Teacher Is A Privilege For Me, But Beings A Student Is A Blessing.”

इसे सौभाग्य मानूँ या दुर्भाग्य, नहीं कह सकता: पर मैं उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूँ जिसने बड़े करीब से, आम-फहम शब्दों में कहें, तो शिक्षक-छात्र सम्बन्ध को बदलते हुए देखा है मैंने अपने बचपन के दिनों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध भी देखे हैं, फिर उसे शिक्षक-छात्र सम्बन्ध में बदलते भी देखा है, और अब शिक्षक को सर्विस-प्रोवाइडर में और छात्र को कस्टमर में बदलते हुए भी देख रहा हूँ; और मेरी विडम्बना यह है कि मैं स्वयं भी इस प्रक्रिया का हिस्सा बनकर रह गया हूँ। पर, मेरा सौभाग्य यह रहा है कि गुरुओं के मामले में मैं बचपन से ही धनी रहा हूँ, और सच्चे गुरु का सानिध्य मुझे बचपन से ही मिलता रहा है। उन्होंने मुझे बड़े करीने से सिरजा है, और उसी का परिणाम है कि आज उनके दिए गए मूल्यों एवं संस्कारों को बचाने के लिए मैं न केवल संघर्षरत हूँ, वरन् इस संघर्ष में अबतक टिका हुआ हूँ।

यूँ तो हमारी संस्कृति हमें रोज ही अपने माता-पिता एवं शिक्षकों का सम्मान करना, उन्हें याद करना सिखलाती है, पर शिक्षक-दिवस पर मैं उन्हें विशेष रूप से याद करता हूँ, इसलिए कि उनके द्वारा दिए गए मूल्यों एवं संस्कारों को भूल न जाऊँ और यह याद रहे कि उनके प्रति भी मेरा कोई नैतिक दायित्व है। और, इस नैतिक दायित्व का निर्वाह संभव हो पायेगा उनके द्वारा दिए गए मूल्यों एवं संस्कारों के निर्वाह के ज़रिये, क्योंकि ये उन्हें जिलाए रखने में सहायक हैं, ये उन्हें जिलाए रखते हैं। यही मेरी ओर से श्रद्धा-सुमन है उनके प्रति, जिन्होंने मुझे सिरजा है, अब वो चाहे बुढ़वा मरसैब हों या पापा, महेश बाबु हों या रमेश बाबू, बड़का पंडी जी हों या छोटका पंडी जी, सुलोचना दी हों या शशिकला दी, मुक्ति नाथ झा जी हों या फिर प्रेम मोहन मिश्रा जी, आशिक सर हों या फिर राजीव भैया। पर, इन सबके बीच पापा आप, पूजा मै’म आप, बलराम तिवारी सर आप और मणिकान्त सर आप: आपके बिना तो मैं कुछ भी नहीं। मैं जो कुछ भी हूँ, अच्छा या बुरा, अपनी तमाम शक्ति एवं सीमाओं के साथ आपका ही सार हूँ, समेकित रूप हूँ। आप ही का तो सार-रूप है वक़्त और जीवन, जो सब कुछ सिखा जाता है जो कुछ आप नहीं सिखा पाए, वो वक़्त ने सिखा दिया, आपकी सीख को पूर्णता प्रदान करते हुए। बस, अरुण कमल जी के शब्दों में इतना कहूँगा:

अपना क्या है इस जीवन में,

सब कुछ लिया उधार;

सारा लोहा उन लोगों का,

अपनी केवल धार।

इसके आगे कुछ कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।  

 

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