Monday 28 August 2023

खतरे में चुनाव आयोग: प्रस्तावित चुनाव आयोग (संशोधन) बिल,2023

 

अब सरकार के निशाने पर चुनाव आयोग

खतरे में चुनाव आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता

प्रमुख बिन्दु

1.  भूमिका

2.  वर्तमान नियुक्ति-प्रक्रिया

3.  प्रस्तावित बिल का विवादस्पद होना

4.  नियुक्ति-प्रक्रिया का राजनीतिकरण

5.  कॉलेजियम का अराजनीतिक स्वरुप कहीं अधिक महत्वपूर्ण

6.  चयन समिति द्वारा सर्च पैनल को बाईपास करना

7.  बर्खास्तगी से सम्बंधित प्रावधान पूर्ववत्

8.  चुनाव आयुक्तों की पदावनति (Demotion)

9.  प्रस्तावित विधेयक: न्यायपालिका के निर्णय को पलटना नहीं

10.         आशंकाएँ निराधार नहीं

a.  चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का त्याग-पत्र, अगस्त 2020

b.  चुनाव आयुक्तों को पीएमओ से निर्देश, नवम्बर,2021

c.  अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति से सम्बंधित विवाद

11.         गहराते संस्थागत संकट की अगली कड़ी

12.         न्यायपालिका की शक्ति के सीमित होने की सम्भावना

13.         न्यायिक पुनर्विलोकन संभव

14.         निष्कर्ष

भूमिका:

चुनावी संस्थाओं की साख एवं विश्वसनीयता में कमी एक वैश्विक प्रक्रम है, और इसीलिए चुनाव आयोग की संस्थागत स्वायत्तता को बनाये रखना वर्तमान राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में समय की माँग है लेकिन, वर्तमान केन्द्र सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मसले को अपने संवैधानिक दायित्वों के रूप में स्वीकार करने की बजाय राज्य के कार्यकारी दायित्व (Executive Function) के रूप में देखती है, तभी तो वह नियुक्ति-प्रक्रिया पर अपने वर्चस्व को बनाये रखना चाहती है प्रमाण है न्यायाधीशों की नियुक्ति-प्रक्रिया से सम्बंधित प्रस्तावित संशोधन विधेयक ध्यातव्य है कि 10 अगस्त, 2023 को केन्द्रीय विधि एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राज्य सभा में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा-शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023 पेश कियाप्रस्तावित बिल निर्वाचन आयोग (चुनाव आयुक्तों की सेवा-शर्तें और कारबार का सञ्चालन)) एक्ट, 1991 की जगह लेगा। वर्तमान में यह अधिनियम मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की सेवा-शर्तों एवं क्रिया-प्रणाली का नियमन तो करता है, पर इसमें न तो अर्हताओं की चर्चा है और न ही नियुक्ति-प्रक्रिया, जो नामों की शॉर्टलिस्टिंग से लेकर अन्तिम चयन तक की प्रक्रिया निर्धारित करे, का विस्तृत उल्लेख प्रस्तावित बिल इन सारी कमियों को दूर करता है

वर्तमान नियुक्ति-प्रक्रिया:

अब सवाल उठता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी दोनों चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति अब तक कैसे होते रही? इस सन्दर्भ में भारत का संविधान बस इतना संकेत देता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी दोनों चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जायेगी। स्वाभाविक है कि संसदीय लोकतन्त्र की अपेक्षाओं के मद्देनज़र यह नियुक्ति प्रधानमन्त्री एवं मन्त्रिपरिषद की सिफारिश पर की जाये। हाँ, इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति द्वारा यह नियुक्ति संसद द्वारा बनायी गयी विधि के अधीन रहते हुए की जायेगी। लेकिन, नियुक्ति की प्रक्रिया और इससे सम्बंधित अर्हता-मानदण्ड क्या होंगे, इसको लेकर वह मौन है। इतना ही नहीं, अबतक इस सन्दर्भ में संसद के द्वारा भी कोई कानून नहीं बनाया गया है और इसीलिए वर्तमान में देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो चुनाव आयुक्तों के अर्हता मानदण्डों का निर्धारण करे और उनकी नियुक्ति-प्रक्रिया का नियमन करे। इसलिए वर्तमान में नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया केन्द्र सरकार के जिम्मे है और केन्द्र सरकार इसे संवैधानिक दायित्व की बजाय राज्य के कार्यकारी दायित्व (Executive Function) के रूप में देखती है

हाल में चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति को लेकर उपजे विवाद की पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूछे जाने पर केन्द्र सरकार ने उनकी नियुक्ति-प्रक्रिया से सम्बंधित एक नोट प्रस्तुत किया इसके अनुसार, अब तक अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के मुताबिक, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (DOPT) द्वारा सचिव स्तर के मौजूदा या रिटायर हो चुके अधिकारियों की एक सूची तैयार की जाती है जिसमें कई बार 40 नाम तक होते हैं। इसी डेटाबेस पर विचार करते हुए विधि मंत्रालय द्वारा उन 40 लोगों की सूची में 3/4 नामों को शॉर्टलिस्ट कर उसे प्रधानमन्त्री के विचारार्थ भेजा जाता है। पैनल में शामिल अधिकारियों से बात करके प्रधानमन्त्री इन्हीं तीन-चार नामों में से किसी एक नाम को फाइनलाइज करते हैं और उस व्यक्ति की चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति की अनुशंसा राष्ट्रपति से की जाती है। इस अनुशंसा के साथ एक नोट संलग्न होती है जिसमें उस शख्स के चुनाव आयुक्त के रूप में चुने जाने की वजह भी बताई जाती है। आगे चलकर, चुनाव आयोग के वरिष्ठतम सदस्य को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाता है।

प्रस्तावित बिल का विवादस्पद होना:

लेकिन, प्रस्तावित बिल में कई प्रावधान ऐसे हैं, जो न केवल संविधान की मूल भावनाओं और संविधान-निर्माताओं के मंतव्यों एवं अपेक्षाओं के प्रतिकूल हैं, वरन् मार्च,2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों के मूल मंतव्यों की पराजय भी सुनिश्चित करते हैं यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मार्च,2023 में अनूप बर्णवाल मामले में दिए गए निर्णय में संविधान-सभा की बहसों के हवाले से सर्वोच्च अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँची कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का विशिष्ट अधिकार विशेष रूप से कार्यपालिका के हाथों में सौंपना संविधान-निर्माताओं का कभी उद्देश्य नहीं रहा। 

नियुक्ति-प्रक्रिया का राजनीतिकरण

प्रस्तावित बिल की धारा 7(1) में कहा गया कि चयन समिति की ओर से तय किए गए नाम को राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाएगा, और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी।

लेकिन, समस्या यह है कि प्रस्तावित बिल में चयन समिति की संरचना राजनीतिक है और यह चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया पर राजनीतिक कार्यपालिका के वर्चस्व को सुनिश्चित करती है यद्यपि इसमें नेता-प्रतिपक्ष (लोकसभा) को स्थान देकर कुछ हद तक सन्तुलन स्थापित करने की कोशिश की गयी है, तथापि कॉलेजियम में अब भी सरकार बहुमत की स्थिति में है और वह जिसे चुनाव-आयुक्त नियुक्त करना चाहे, उसे विपक्ष के विरोध के बावजूद नियुक्त कर सकती है

कॉलेजियम का अराजनीतिक स्वरुप कहीं अधिक महत्वपूर्ण:

यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि महत्वपूर्ण कॉलेजियम के ज़रिये नियुक्ति नहीं, वरन् नियुक्ति-प्रक्रिया का अराजनीतिक स्वरुप है, ताकि उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके। इसकी पुष्टि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में पी. वी. थॉमस की नियुक्ति से सम्बंधित विवाद-प्रकरण,2011 से भी होती है। ध्यातव्य है कि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त(CVC) के पद पर नियुक्ति भी प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय कॉलेजियम के ज़रिये होती है, जिसमें उनके अलावा गृह-मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता शामिल होते हैं। लेकिन, इसका स्वरुप राजनीतिक है। जब विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने पी. जे. थॉमस, जिनका नाम पामोलिन घोटाले में सामने आया था, के नाम पर आपत्ति जताते हुए इस नियुक्ति के लिए अपनी सहमति देने से इन्कार किया, तब उनकी आपत्ति एवं विरोध को दरकिनार करते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम, जिसमें सरकारी सदस्यों का बहुमत था, ने पी. जे. थॉमस को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त(CVC) नियुक्त किया। यह मसला जब सर्वोच्च अदालत के पास पहुँचा, तब मार्च,2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इस नियुक्ति को अवैध ठहराया।

यहाँ पर इस बात को स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि मार्च,2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रस्तावित कॉलेजियम और प्रस्तावित बिल के कॉलेजियम में फर्क है।  सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रस्तावित कॉलेजियम में प्रधानमन्त्री के अलावा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता को जगह दी गयी। इस तरह से इसके ज़रिये चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त बनाने की भी कोशिश की गयी है। इसका अराजनीतिक स्वरुप एवं इसकी अराजनीतिक क्रिया-प्रणाली उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को लेकर आश्वस्त करती है। लेकिन, प्रस्तावित विधेयक में चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति हेतु जिस कॉलेजियम की प्रस्तावना की गयी है, उसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की जगह प्रधानमन्त्री द्वारा मनोनीत कैबिनेट मन्त्री को शामिल किया गया है प्रस्तावित कॉलेजियम में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के लिए जगह न होना और सरकारी सदस्यों का बहुमत इसके राजनीतिक स्वरुप और इसकी राजनीतिक क्रिया-प्रणाली की संभावनओं को बल प्रदान करता है। यह एक बार फिर से उन्हीं प्रश्नों को लेकर उपस्थित होता है जिन प्रश्नों ने सुप्रीम कोर्ट को इस मसले पर हस्तक्षेप के लिए विवश किया, और इसीलिए भविष्य में न्यायिक हस्तक्षेप की संभावनाओ से इनकार नहीं किया जा सकता है

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में कोई ऐसा संवैधानिक लोकतन्त्र नहीं है जो स्वस्थ लोकतन्त्र के अस्तित्व के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं के अधिकारियों की नियुक्ति को पूरी तरह से राजनीतिक कार्यपालिका के हवाले करता है, या फिर उनके जिम्मे छोड़ता है। नियुक्ति-प्रक्रिया पर कार्यपालिका का नियंत्रण और इस संदर्भ में कार्यपालिका के पास पूर्ण एवं निरपेक्ष शक्ति न केवल समस्याजनक है, वरन् यह विधि के शासन की संकल्पना के लिए भी खतरनाक है। ध्यातव्य है कि विनीत नारायण वाद,1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने विधि के शासन को सुनिश्चित करने के लिए यह फैसला दिया कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय कॉलेजियम के ज़रिये की जायेगी जिसमें प्रधानमन्त्री के अलावा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होंगे। मार्च,2023 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में दो पहलुओं पर जोर दिया:

1.  संवैधानिक संस्था के रूप में चुनाव आयोग की अहमियत, और

2.  उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता।

इसी आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया सीबीआई निदेशक के तर्ज़ पर होना चाहिए क्योंकि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के मद्देनज़र चुनाव आयोग काफी महत्वपूर्ण है। इसीलिए नियुक्ति-प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और न्यायपालिका के साथ-साथ स्वतंत्र विशेषज्ञों को इस प्रकार शामिल किया जाना चाहिए कि इस पर न तो किसी एक का प्रभुत्व या नियन्त्रण रह जाए और न ही किसी के पास नियुक्ति को रोकने के लिए वीटो का अधिकार हो। इस सन्दर्भ में कॉलेजियम, चाहे उसकी संरचना कुछ भी क्यों न हो, के द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने यह सुझाव दिया कि चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित कॉलेजियम कहीं अधिक प्रभावशाली होगा, अगर उसके द्वारा आम सहमति से निर्णय के प्रावधान किये जाएँ और निर्णय के दायरे को शॉर्टलिस्टेड नामों तक सीमित रखा जाये नियुक्ति-प्रक्रिया और चुनाव-आयुक्तों के साथ-साथ चुनाव आयोग की साख-एवं विश्वसनीयता की दृष्टि से बेहतर होता कि प्रस्तावित बिल कॉलेजियम में प्रधानमन्त्री द्वारा मनोनीत केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री की जगह लोकसभा-स्पीकर या उपराष्ट्रपति को शामिल किया जाता, तो शायद प्रस्तावित विधेयक को लेकर वैसी बहस नहीं होती, जैसी वर्तमान में चल रही है।

चयन समिति द्वारा सर्च पैनल को बाईपास करना:

प्रस्तावित बिल खोज-बीन समिति (Search Panel) की अवधारणा प्रस्तुत करता है प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता वाली चयन-समिति के द्वारा सामान्यतः जिन पाँच नामों पर विचार किया जायेगा, उसकी शॉर्टलिस्टिंग इसी सर्च पैनल के द्वारा किया जायेगा। तीन सदस्यीय सर्च पैनल की अध्यक्षता कैबिनेट सचिव के द्वारा की जायेगी। कैबिनेट सचिव के अलावा, पैनल में दो अन्य सदस्य होंगे, जो सचिव स्तर या उससे समकक्ष स्तर के अधिकारी होंगे। इस तरह सर्च पैनल के ज़रिये नामों की शॉर्टलिस्टिंग की प्रक्रिया को प्रोफेशनलाइज करने की कोशिश सराहनीय है

लेकिन, प्रस्तावित बिल की धारा 8 (2) के अनुसार, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली चयन-समिति के द्वारा नियुक्ति हेतु उस व्यक्ति के नाम पर भी विचार के लिए अधिकृत करता है, जिसका नाम सर्च पैनल द्वारा शॉर्टलिस्टेड सूची में शामिल नहीं है, या फिर जिनके नाम की अनुशंसा सर्च पैनल के द्वारा नहीं की गयी है। मतलब यह कि सरकार उस सर्च पैनल पर भी पूरी तरह से भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है जिसके मुखिया कैबिनेट सचिव होंगे और जो प्रधानमन्त्री के अधीन होते हैं, तभी तो सरकार उस सर्च पैनल के द्वारा तैयार सूची को भी बाईपास करने के स्कोप को बनाये रखना चाहती है। सरकार उस स्थिति में भी अपनी पसंद को चुनाव आयोग पर थोपने के स्कोप को बनाये रखना चाहती है जब कैबिनेट सचिव उसके इशारे पर काम करने की बजाय स्वतन्त्र रूप से अपने वैधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हैं। अगर ऐसा है, तो फिर सर्च पैनल से सम्बंधित प्रावधान का औचित्य क्या है? 

बर्खास्तगी से सम्बंधित प्रावधान पूर्ववत्:

प्रस्तावित बिल की धारा 11(2) के अनुसार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों को क्रमशः अनु. 324(5) के पहले एवं दूसरे परंतुकों में अंतर्विष्ट उपबंधों के अनुसार के सिवाय नहीं हटाया जायेगा। मतलब यह कि नयी व्यवस्था के अंतर्गत भी जहाँ मुख्य चुनाव-आयुक्त को केवल सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान तरीके से ही उनके पद से हटाया जा सकता है, वहीं अन्य चुनाव-आयुक्तों को केवल मुख्य चुनाव-आयुक्त की सिफारिश पर ही पद से हटाया जा सकता है। इस संदर्भ में लम्बे समय से सुधार अपेक्षित था, लेकिन प्रस्तावित बिल में इसकी अनदेखी की गयी है, जबकि मार्च,2023 में दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को ‘समानों में प्रथम’ (First Among The Equals) मानते हुए अन्य चुनाव-आयुक्तों की बर्खास्तगी-प्रक्रिया भी मुख्य निर्वाचन-आयुक्त की बर्खास्तगी प्रक्रिया के समान करने की दिशा में पहल की अपेक्षा की थी।

चुनाव आयुक्तों की पदावनति (Demotion):

चुनाव आयोग अधिनियम,1991 के अनुसार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों के वेतन-भत्ते, सेवा-शर्तें एवं अन्य सुविधाएँ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान होंगी। लेकिन, प्रस्तावित बिल में इन सन्दर्भों में चुनाव-आयुक्तों के दर्जे को घटाकर उन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी के समकक्ष रखने का प्रावधान करता है। यह एक प्रकार से चुनाव आयुक्तों की पदावनति (Demotion) के ज़रिये उन्हें वरीयता क्रम में उनके कनिष्ठ अधिकारी ‘कैबिनेट सचिव’ के समकक्ष रखना है। ध्यातव्य है कि वर्तमान में मुख्य चुनाव आयुक्त को वरीयता-क्रम में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक(CAG) के साथ 9A स्थान पर रखा गया है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को 9वें स्थान पर। मतलब यह कि वरीयता-क्रम में चुनाव-आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष रखा गया है और उनके ठीक बाद स्थान दिया गया है। इसके विपरीत, कैबिनेट सचिव वरीयता क्रम में 11वें स्थान पर हैं। यही कारण है कि जहाँ पहले मुख्य चुनाव आयुक्त कैबिनेट सेक्रेटरी को तलब कर सकता था, वहीं अब वह ऐसा कर पायेगा, इसमें संदेह है।

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि चुनाव-आयुक्त और कैबिनेट सचिव की वैधानिक स्थिति में फर्क है जहाँ चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और चुनाव-आयुक्त का पद संवैधानिक पद, वहीं कैबिनेट सचिव का न तो संविधान में उलेख मिलता है और न ही उनका पद संवैधानिक पद है। कैबिनेट सचिव प्रत्यक्षतः प्रधानमन्त्री के अधीन होते हैं और उनके कारबार का नियमन भारत सरकार (कारबार आवंटन) नियम, 1961 के तहत् किया जाता है। अब सवाल यह उठता है कि किसी संवैधानिक संस्था और संवैधानिक पद को कैसे किसी ऐसी संस्था और ऐसे पद के समक्ष रखा जा सकता है जिसका कोई संवैधानिक अस्तित्व नहीं है, या जिसे विधायिका या कार्यपालिका के आदेश के ज़रिये सृजित किया गया है?

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि केन्द्रीय सूचना आयुक्त और अन्य सूचना आयुक्तों से सम्बंधित प्रावधानों में संशोधन करते हुए उसे चुनाव आयुक्तों से यह कहते हुए डीलिंक किया गया कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और चुनाव-आयुक्त का पद एक संवैधानिक पद, जबकि न तो केन्द्रीय सूचना आयोग एक संवैधानिक संस्था है और न ही केन्द्रीय सूचना आयुक्त एवं अन्य सूचना आयुक्त का पद संवैधानिक पद। ऐसी स्थिति में दोनों को एक दूसरे से लिंक करना और केन्द्रीय सूचना आयुक्त को चुनाव आयुक्त के समक्ष बतलाने वाला प्रावधान युक्तियुक्त(Reasonable) नहीं है। इसी तर्क के आधार पर केन्द्रीय सूचना आयुक्त और अन्य सूचना आयुक्तों के वेतन, सेवा-शर्तों और अन्य सुविधाओं को चुनाव आयुक्त को मिलने वाले वेतन, सेवा-शर्तों और अन्य सुविधाओं से डीलिंक किया गया। लेकिन, प्रस्तावित बिल में केन्द्र सरकार ने अपने इस तर्क को खुद भुला दिया, या फिर यह कह लें कि खारिज कर दिया। इससे इस बात संकेत मिलता है कि सरकार की योजना में नए भारत में चुनाव आयोग की क्या स्थिति होगी, या फिर यह कह लें, कि सरकार चुनाव आयोग को ही नहीं, वरन् सभी संस्थाओं को अपनी अधीनस्थ संस्था के रूप में देखना चाहती है।

प्रस्तावित विधेयक: न्यायपालिका के निर्णय को पलटना नहीं:

जब इस विधेयक को राज्यसभा में प्रस्तावित किया गया, तो इसकी तुलना करते हुए कहा गया कि जिस तरह 1986 में राजीव गाँधी की सरकार ने संसदीय विधायन के ज़रिये शाहबानो प्रकरण में और 2023 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार ने दिल्ली प्रशासन में ट्रान्सफर एवं पोस्टिंग के मामले में सर्वोच्च अदालत दवारा दिए गए निर्णय को पलट दिया, उसी प्रकार की कोशिश प्रस्तावित विधेयक के ज़रिये की जा रही है। लेकिन, चुनाव-आयुक्तों से सम्बंधित निर्णय और इस सन्दर्भ में संसद द्वारा विधायन की पहल की तुलना उपर्युक्त दोनों मामलों से नहीं की जा सकती है। मार्च,2023 में दिए गए अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति के सन्दर्भ में संसद के विधायन के अधिकार को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि उसके द्वारा सुझायी गयी नियुक्ति-प्रक्रिया अस्थायी है। उसकी प्रभावशीलता तभी तक के लिए है जबतक कि संसद इस दिशा में विधायन नहीं करती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह ज़रूर कहा कि चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति के सन्दर्भ में अपनायी गयी चयन-प्रक्रिया केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) के निदेशक की चयन-प्रक्रिया की तर्ज पर होनी चाहिए।

लेकिन, इस मसले पर आदेश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी सीमा का अहसास था और इसीलिए उसने यह सुनिश्चित करने की हरसंभव कोशिश की कि उसका आदेश विधायिका के कार्यक्षेत्र में दखल का रूप न ले, या फिर न्यायिक अतिक्रम (Judicial Overreach) न प्रतीत हो। ऐसा नहीं लगना चाहिए कि न्यायपालिका विधायिका के अधिकारों को हस्तगत करना चाहती है। इसीलिए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि उसका निर्णय उस रिक्त स्थान को अस्थायी रूप से भरने की कोशिश भर है जो चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति के सन्दर्भ में मौजूद है और जिसे संसदीय विधायन के ज़रिये भरा जाना चाहिए था, पर जिसे अबतक भरा नहीं गया है। उसने अपने फैसले में यह नहीं कहा कि संसद को उसके द्वारा सुझायी गयी चयन समिति को ही स्वीकारना चाहिए, या फिर उस प्रक्रिया से संसद बँधी हुई है। इसलिए प्रस्तावित कानून का मसौदा तय करना या चयन समिति की संरचना का निर्धारण संसद का विशेषाधिकार है। यह न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार से बाहर है। मार्च,2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले की अहमियत इस बात में है कि इसने चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया के संदर्भ में संसदीय विधायन के मार्ग को प्रशस्त कर दिया।   

आशंकाएँ निराधार नहीं:

प्रस्तावित बिल के विवादास्पद प्रावधानों के सन्दर्भ में व्यक्त की गयी यह आशंका निराधार नहीं है कि केन्द्र सरकार चुनाव आयोग को अपनी मातहत संस्था में तब्दील करना चाहती है इसकी पुष्टि हाल के कई घटना-क्रमों से भी होती है: 

1.  चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का त्याग-पत्र, अगस्त 2020: 23 जनवरी, 2018 को अशोक लवासा को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया था, और चुनाव आयोग में उनका दो साल से अधिक का कार्यकाल अभी भी बचा हुआ था। इतना ही नहीं, अक्टूबर,2022 में उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के पद से सेवानिवृत्त होना था। लेकिन, इससे पहले ही अगस्त, 2020 में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को अपना इस्तीफा सौंपते हुए 31 अगस्त को कार्यमुक्त करने का अनुरोध किया है। उन्हें 15 जुलाई को फिलीपींस स्थित एशियाई विकास बैंक (ADB) का उपाध्यक्ष नियुक्त करने की घोषणा की गयी। ध्यातव्य है कि सन् 1973 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त नागेंद्र सिंह ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) का न्यायाधीश बनने के लिए चुनाव आयोग में अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले इस्तीफा दे दिया था।

ऐसा माना जा रहा है कि अशोक लवासा के त्याग-पत्र का सम्बंध लोकसभा-चुनाव,2019 के बाद के घटना-क्रमों से है। ध्यातव्य है कि लोकसभा-चुनाव,2019 के दौरान अशोक लवासा ने आदर्श आचार-संहिता(MCC) के उल्लंघन के आरोप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को क्लीन चिट दिए जाने का विरोध किया था चुनाव के तुरन्त बाद, अशोक लवासा की पत्नी सहित उनके परिवार के तीन सदस्यों के खिलाफ आय की घोषणा न करने और आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में आयकर विभाग ने नोटिस भेजते हुए जाँच शुरू की। उनके बेटे अबीर लवासा की कंपनी नॉरिश ऑर्गेनिक और उनकी बहन डॉ. शकुंतला लवासा को भी आयकर नोटिस भेजा गया था। यह प्रकरण चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्तों के लिए एक सन्देश है, और वह यह कि अगर उन्होंने प्रधानमन्त्री और कद्दावर मन्त्रियों के विरुद्ध कदम उठाया, तो उनकी मुश्किलें बढेंगी और केन्द्र सरकार उनसे अपने तरीके से निबटेगी। 

2.  चुनाव आयुक्तों को पीएमओ से निर्देश, नवम्बर,2021: आमतौर पर चुनाव आयोग अपनी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए सामान्यतः राजनीतिक कार्यपालिका/ केन्द्र सरकार से दूरी बनाए रखती है इसीलिए चुनावी मसलों पर उसका सरकार से सम्पर्क सिर्फ इसके प्रशासनिक मंत्रालय कानून मंत्रालय तक सीमित रहता है। लेकिन, 12 नवम्बर,2021 को चुनाव आयोग को क़ानून-मंत्रालय (चुनाव आयोग का प्रशासनिक मंत्रालय) की ओर से एक अधिकारी का पत्र मिला था, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के हवाले यह कहा गया कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पी. के. मिश्रा की अध्यक्षता में सभी स्तरों के चुनाव में समान/ एक ही मतदाता सूची के इस्तेमाल को लेकर बैठक होने जा रही है, और इस बैठक में मुख्य चुनाव आयुक्तकी मौजूदगी अपेक्षित हैध्यातव्य है कि अगस्त-सितम्बर में इसी विषय पर हुई बैठकों में चुनाव आयोग के अधिकारियों ने हिस्सा लिया था, न कि चुनाव आयुक्तों ने

यद्यपि इसका उद्देश्य चुनाव-सुधार के मसले पर निर्वाचन आयोग एवं कानून मंत्रालय के बीच परस्पर समझ को विकसित करना था, तथापि प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के साथ चुनाव-आयुक्तों की इस अनौपचारिक बैठक असामान्य माना गया यह न तो चुनाव-आयोग की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के मद्देनज़र उसकी स्वायत्ता के प्रति सम्मान की अपेक्षाओं के अनुरूप था और न ही प्रोटोकॉल के अनुरूप अनुरूप यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि चुनाव आयोग पीएमओ के अधीनस्थ नहीं है, तो फिर सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी चुनाव आयुक्तों को बैठक में भाग लेने का निर्देश कैसे दे सकते हैं?” इतना ही नहीं, वरीयता-क्रम में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समकक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त उस बैठक में कैसे भाग ले सकते हैं जिसकी अध्यक्षता उनसे कनिष्ठ अधिकारी (प्रधानमन्त्री कार्यालय के प्रधान सचिव) के द्वारा की जानी है।

यही कारण है कि इस घटना-क्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूर्व मुख्य निवार्चन आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने कहा, “यह बिल्कुल ही स्तब्ध कर देने वाला है।” कई अन्य पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने भी इस तरह के पत्र को अस्वीकार्यबतलाया उन्होंने आशंका जताते हुए कहा कि तीनों चुनाव आयुक्तों द्वारा पीएमओ के साथ अनौपचारिक बातचीत करने से चुनाव आयोग की स्वतंत्र छवि को नुकसान पहुँचा सकता है उनके अनुसार, सरकार के पास यह विकल्प था कि वह प्रस्तावित सुधारों के मसले पर चुनाव आयोग के समक्ष अपना पक्ष लिखित रूप में रख सकती थी और चुनाव आयोग इन मसलों पर सर्वदलीय बैठक बुला सकता था इससे पहले भी चुनाव आयुक्तों को बुलाने की माँग करने वाली संसदीय स्थायी समिति का हवाला देते हुए कहा गया कि स्थायी समिति भी उन्हें नहीं बुला सकती

यह इस बात का संकेत है कि सरकार निर्वाचन आयोग के साथ अपने मातहत के तौर पर व्यवहार कर रही है यद्यपि मुख्य चुनाव आयुक्त ने विधायी विभाग के सचिव से बात कर इस पत्र पर नाराजगी व्यक्त की, लेकिन निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और दो अन्य चुनाव आयुक्तों: राजीव कुमार और अनूप चंद्र पांडेय को आपत्तियाँ जताने के बावजूद बीते 16 नवंबर को प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) द्वारा आयोजित एक असामान्य ऑनलाइन बातचीत में शामिल होना पड़ा राजनीतिक विश्लेषक एस. एन. साहू लिखते हैं, “16 नवम्बर को कानून मंत्रालय के एक पत्र के आधार पर प्रधानमन्त्री के प्रधान सचिव पी. के. मिश्रा की अध्यक्षता में उपरोक्त बैठक में भाग लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त (तत्कालीन) सुशील चंद्र तथा दो अन्य चुनाव आयुक्तों: राजीव कुमार और अनुप चंद्र पांडे ने सरकार की मंशा (Government Intent) को बरकरार रखा है और संविधान सभा की विधायी मंशा (Legislative Intent) को खारिज कर दिया है।”

3.  अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति से सम्बंधित विवाद: केन्द्र सरकार ने चुनाव आयुक्त अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति से सम्बंधित जो नोट सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा, उससे इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी नियुक्ति-प्रक्रिया असामान्य गति से आगे बढ़ी18 नवंबर को पंजाब कैडर के आईएएस अधिकारी अरुण कुमार गोयल ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए अपना अनुरोध पंजाब के मुख्य सचिव को भेजा, और उसी दिन पंजाब सरकार ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के उनके अनुरोध को स्वीकृति प्रदान की। इस क्रम में तीन महीने के अनिवार्य नोटिस की आवश्यकता को भी नज़रअंदाज़ किया गया। 19 नवम्बर को चुनाव आयुक्त के पद पर उनकी नियुक्ति से सम्बंधित फाइल को विचार के लिए प्रधानमन्त्री के पास भेजा गया। ध्यातव्य है कि विधि-मंत्रालय ने 40 नामों में से चार नामों के शॉर्टलिस्टिंग की प्रक्रिया भी आनन-फानन में पूरी की। उसी दिन न केवल प्रधानमन्त्री ने उनकी नियुक्ति की अनुशंसा से सम्बंधित फाइल राष्ट्रपति को भेजी, वरन् उनकी नियुक्ति को राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गयी और इस सम्बंध में भारत सरकार के गजट में नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया गया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि विधि मन्त्रालय के द्वारा जिन 4 नामों की सिफारिश की गई थी, उनमें अरुण कुमार गोयल से सबसे कनिष्ठ थे। इस नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रश्न उठाये और वह यह कि आखिर ऐसी कौन-सी परिस्थिति थी जिसमें चुनाव आयोग में 15 मई से चली आ रही रिक्ति महज 24 घंटे के भीतर भरनी पड़ी और चुनाव आयुक्त के रूप में अरुण कुमार गोयल को नियुक्त करना पड़ा। नियुक्ति में की गयी यह हड़बड़ी आशंका पैदा करती है।

गहराते संस्थागत संकट की अगली कड़ी है प्रस्तावित विधेयक:

संवैधानिक एवं सांविधिक संस्थाओं को नियंत्रित करने और उसे अपने तरीके से चलाने की सरकार की कोशिशों को व्यापक सन्दर्भों में रखकर देखे जाने की ज़रुरत है सदर्भ चाहे सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्ते, कार्यकाल एवं सेवा-शर्तों के निर्धारण का हो, या फिर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग(NJAC) और मेमोरेंडडा ऑफ़ प्रोसीजर (Memoranda of Procedure) को अपने तरीके से निर्धारित करते हुए उसके अंतर्गत इस तरह के स्पेस को बनाये रखने का, या फिर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया के निर्धारण का। नवम्बर,2018 में प्रधानमन्त्री का सुप्रीम कोर्ट पहुँचकर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और अन्य न्यायाधीशों से मिलना भी इसी ओर इशारा करता है। यह पहला वाकया है जब स्वतन्त्र भारत के इतिहास में भारतीय प्रधानमन्त्री सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों से मिलने के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँचे हों, और वह भी ऐसे समय में, जब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अयोध्या और राफेल डील सहित कई महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मामले लम्बित है जिसमें केन्द्र सरकार और सत्तारूढ़ दल भी एक महत्वपूर्ण पक्षकार है। ऐसी स्थिति चुनाव आयोग के संदर्भ में भी देखने को मिलती है।

न्यायपालिका की शक्ति के सीमित होने की सम्भावना:

प्रस्तावित बिल के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति महज इस आधार पर खारिज नहीं की जायेगी कि चयन समिति में कोई रिक्ति है, या फिर उसकी संरचना दोषपूर्ण है। इस प्रावधान का औचित्य समाझ में नहीं आता है। संभव हो कि सरकार इस प्रावधान के माध्यम से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया से न्यायपालिका को दूर रखना चाहती हो और परोक्षतः न्यायिक हस्तक्षेप की तमाम संभावनाओं को निरस्त करना चाहती हो। इस रूप में यह प्रावधान प्रकारान्तर से न्यायपालिका की शक्ति को सीमित करता है, और इसीलिए यह संभव है कि अधिनियम का रूप लेते ही यह मसला एक बार फिर से न्यायपालिका के पास जाये।

न्यायिक पुनर्विलोकन संभव:

जैसे ही प्रस्तावित विधेयक कानून का रूप लेगा, वह न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में आ जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उसकी संवैधानिकता की जाँच की जा सकती है। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च अदालत के द्वारा प्रस्तावित चयन समिति की संरचना, चुनाव आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता पर इसके असर और इससे सम्बद्ध तमाम पहलुओं की पड़ताल की जा सकती है। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि नवम्बर, 1975 में इन्दिरा नेहरु गाँधी बनाम् राजनारायण एवं अन्य वाद, जिसे निर्वाचन वाद के नाम से भी जाना जाता है, में दिए गए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस एच. आर. खन्ना और जस्टिस वाई. वी. चन्द्रचूड़ ने स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव को संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा बतलाया ऐसी स्थिति में यदि सर्वोच्च अदालत को ऐसा लगता है कि इससे चुनाव आयोग के उस ढाँचे पर असर पड़ रहा है, जिसकी परिकल्पना संविधान में की गई है, तो वह उसे असंवैधानिक करार दे सकती है

निष्कर्ष:

स्पष्ट है कि चाहे चुनाव तारीखों का ऐलान हो, या फिर चुनाव में अधिकारियों की तैनाती का मुद्दा हो, या स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव की जिम्मेदारी हो, निर्वाचन आयोग की इसमें एकमात्र अथॉरिटी है ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है जो बहुत हद तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया में स्पष्टता, पारदर्शिता और तटस्थता से सम्बद्ध है लेकिन, प्रस्तावित बिल और उसके उपबंध इस तथ्य की अनदेखी करते हैं और ऐसे प्रावधानों को लेकर उपस्थित होते हैं जो चुनाव-आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया का राजनीतिकरण करते हुए कार्यपालिका के वर्चस्व की पुनर्स्थापना के ज़रिये इसको प्रतिकूलतः प्रभावित करते हैं इसलिए प्रस्तावित संशोधनों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए

यह मसला तब और भी महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील हो जाता है जब भारत में बहुलतावादी लोकतन्त्र पर मँडराते आशंका के बादलों को देखते हैं। मार्च,2022 में वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी(VDam) नामक स्वीडिश संस्थान द्वारा जारी रिपोर्ट ‘डेमोक्रेसी रिपोर्ट 2022: ऑटोक्रेटाइजेशन चेंजिंग नेचर’ भारत को विश्व के उन शीर्ष दस देशों में रखता है जहाँ निरंकुश राज्यसत्ता का शासन है इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारत में लोकतंत्र के स्तर में निरन्तर गिरावट आई है वर्ष 2021 में इस संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट में भारत को 'चुनावी तानाशाही' वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया गया था इसके अनुसार, तानाशाही के मामले में शीर्ष देशों में से भारत सहित कम-से-कम छह देशों में बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल शासन चला रहे हैं। इसी आलोक में इस रिपोर्ट ने भारत में लोकतन्त्र के भविष्य को लेकर चिन्ता प्रदर्शित करते हुए कहा कि आगे देश में लोकतंत्र की स्थिति और बिगड़ेगी

इसी आलोक में मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता वाली नागरिक समिति ने चुनाव-सुधार से सम्बंधित अपनी रिपोर्ट (2021) में यह कहा कि स्वतंत्र मैकेनिज्म के अभाव की पृष्ठभूमि में राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा चुनाव-आयुक्त की नियुक्ति के कारण चुनाव आयोग अनु. 324 द्वारा प्रदत्त अधिकारों एवं शक्तियों का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। इसी आलोक में उन्होंने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को लेकर संदेह व्यक्त करते हुए कहा कि जब बात सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनावी आचार संहिता, मीडिया कोड और दिशानिर्देशों के गंभीर उल्लंघनों की उल्लंघन की आती है, तो चुनाव आयोग का रवैया टालमटोल वाला रहता है और वह निष्क्रियता प्रदर्शित करता है। इस तरह चुनाव आयोग चुनावी आचार संहिता को लागू करने में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता हुआ दिखता है।