Saturday 27 June 2020

निकटस्थ पड़ोस प्रथम और भारत-चीन सीमा-विवाद


निकटस्थ पड़ोस प्रथम और चीन सीमा-विवाद
प्रमुख आयाम
1.  उभरती चीनी चुनौती का जवाब
2.  निकटस्थ पड़ोस प्रथम की असली परीक्षा
3.  पड़ोसी देशों का रुख
4.  चुनौती बनता उद्दंड हिन्दू राष्ट्रवाद
5. वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल

उभरती चीनी चुनौती का जवाब:
वर्तमान सरकार की विदेश-नीति के निर्धारण में अन्य सारी बातों के अलावा उस राजनीतिक ताकत की अहम् भूमिका है जो प्रधानमंत्री मोदी घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में अपने करिश्माई व्यक्तित्व की बदौलत हासिल कर रहे हैं। साथ ही, चीनी अर्थव्यवस्था के तेजी से उभार और एशिया में उसकी बढ़ती सैन्य-क्षमता को लेकर भारत की चिंताएँ भी इसके स्वरुप-निर्धारण में अहम् भूमिका निभा रही है। तेजी से उभरता चीन और उसकी बढ़ती हुई आक्रामकता भारत के निकटस्थ पड़ोसी देशों में चीनी प्रभुत्व का आधार तैयार करती हुई भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें निकटस्थ पड़ोस प्रथम के जरिये भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह सन्देश देने की कोशिश में लगे हैं कि भारत में क्षेत्रीय शांति और आर्थिक समेकन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने की क्षमता है दक्षिण एशिया में बाह्य हस्तक्षेप का राग अलापने की बजाय भारत स्वाभाविक भौगोलिक बढ़त, आर्थिक पूरकता, साझी सांस्कृतिक-विरासत और महत्वपूर्ण सामरिक अवस्थिति को ध्यान में रखते हुए क्षेत्रीय रणनीति विकसित करने की कोशिश में लगा है उसे इस बात का अन्दाज़ है कि अगर निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ अपने विवादों का निपटारा उसने समय रहते नहीं किया, तो यह इन देशों में और उनके माध्यम से इस क्षेत्र में चीन को अपने प्रभाव में वृद्धि का अवसर उपलब्ध करवाएगा साथ ही, यदि भारत दक्षिण एशियाई भू-राजनीति में बृहत्तर सामरिक विश्वास हासिल करता है, तो अमेरिका और चीन से डील कर पाने की भारत की क्षमता में महत्वपूर्ण इजाफा होगा  
इसी आलोक में मई,2014 में प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की दिशाम्में पहल की और इसके माध्यम से दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों को भरोसे में लेने का प्रयास किया। इस क्रम में उनके नेतृत्व में भारत ने भूटान एवं नेपाल जैसे छोटे पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देते हुए अपनी विदेश-यात्रा की शुरुआत की, और अपने प्रधानमंत्रित्व के दो साल पूरा होते-होते उन्होंने भारत के लगभग सारे पड़ोसी देशों की यात्रा की सम्मिट स्टाइल डिप्लोमेसी को अपनाते हुए उन्होंने वहाँ के राष्ट्राध्यक्षों के साथ अपने संबंधों को पर्सनल टच देने की कोशिश की और एक ऐसा आभामंडल सृजित करने का प्रयास किया जिसमें भारत को प्रभुत्वशाली क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया जा सके दूसरे शब्दों में कहें, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति चीनी चुनौती के साथ-साथ वैश्विक चुनौती के मद्देनज़र उसकी रणनीतिक ज़रुरत है जिसके जरिये वह अपने सामरिक हितों को भी साधना चाहता है और अपने आर्थिक विकास की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करना भी, अब यह बात अलग है कि वर्तमान नेतृत्व ने उसे भी अपने छवि-निर्माण के राजनीतिक उपकरण में तब्दील कर दिया
निकटस्थ पड़ोस प्रथम की असली परीक्षा:
स्पष्ट है कि मई,2014 में भारत ने अपने पड़ोस में चीन की बढती सक्रियता और उसमें अन्तर्निहित खतरों के आलोक में ही ‘निकटस्थ पड़ोस प्रथम’ नीति को इंट्रोड्यूस किया था इससे यह अपेक्षा की गयी थी कि यह भारत के पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव पर अंकुश लगाने में सहायक साबित होगा और इससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में क्षेत्रीय नेतृत्व के रूप में भारत के उभार की प्रक्रिया भी तेज होगी साथ ही, इसको लेकर पड़ोसी देशों में भारत की स्वीकार्यता भी बढ़ेगी जिससे भारत अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करता हुआ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका निभाएगा इसीलिए इस नीति की सफलता या असफलता का मूल्यांकन चीन के बढ़ाते हुए प्रभाव पर अंकुश लगा पाने और इस काम में दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के सहयोग को सुनिश्चित कर पाने में इसकी भूमिका  के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए
पड़ोसी देशों का रुख:
अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो हालिया भारत-चीन सीमा-विवाद और इसके कारण उत्पन्न तनाव को कम करने के मसले पर भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों की चुप्पी हतप्रभ नहीं करती है। इसके उलट, नेपाल नए नक़्शे के जरिये भारतीय सीमा पर अपनी ओर से मोर्चा खोलकर चीन की मदद करता दिखाई पड़ रहा है और गलवान घाटी की हिंसक झड़प के ठीक अगले दिन पाकिस्तान में एक लम्बे अंतराल के बाद आईएसआई के मुख्यालय में उच्चस्तरीय बैठक हुई जो इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि वह इसे एक अवसर के रूप में भुनाने की ताक में है वैसे भी, पाकिस्तान-चीन की बढ़ती नजदीकियों और बलूचिस्तान पर भारत के ऑफिसियल स्टैंड में परिवर्तन के बाद उसके द्वारा ऐसा न करने का कोई कारण नहीं दिखता है अफगानिस्तान अभी खुद में ही उलझा हुआ है और एनआरसी एवं सीएए के मसले ने बांग्लादेश के साथ-साथ अफगानिस्तान के सरकार को भी भारत से दूर किया है। भारत में हिन्दुत्ववादी एजेंडे के बढ़ते जोर की पृष्ठभूमि में बांग्लादेशी घुसपैठियों के गरमाते हुए मसले और सीएए-एनआरसी विवाद के कारण बांग्लादेश-भारत सम्बन्ध भी प्रतिकूलतः प्रभावित हुआ है। उस पर भी हाल ही में चीन ने बांग्लादेश सहित अल्प-विकसित देशों के 97 प्रतिशत उत्पादों की शुल्क-मुक्त पहुँच की घोषणा की है। श्रीलंकाई सरकार के चीन-समर्थक रुख के कारण महिन्दा राजपक्षे के भाई गोटाबायो राजपक्षे की सरकार से तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती है

यद्यपि इस नीति को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि इसके कारण बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद के समाधान में सफलता मिली और पहले कार्यकाल के दौरान श्रीलंका और भूटान के साथ सम्बन्ध भी बेहतर हुए, लेकिन यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद पर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में ही समझौता हो चुका था, बस उस पर हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी की जानी थी। रही बात श्रीलंका एवं भूटान की बात, तो वहाँ चुनावों के बाद राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन और नए राजनीतिक नेतृत्व के विज़न के साथ-साथ उसके राजनीतिक हितों ने इस बेहतरी में अहम् भूमिका निभाई। वर्तमान में भूटान में जिस समाजवादियों की सरकार है, चीन को लेकर उनका रुख भी नरम है क्योंकि भूटान नेशनल असेंबली के चुनाव के दौरान चीन ने नेपाल के जरिये इनकी मदद की और इनकी जीत को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इधर, भारत-चीन सीमा-विवाद अपने चरम पर है, उधर जून,2020 के अंत में इस तरह की ख़बरें आईं कि भूटान ने असम(भारत) के बक्सा जिले से लगे सीमावर्ती इलाकों में अवस्थित सिंचाई-चैनल के लिए पानी छोड़ना बंद कर दिया है। लेकिन, भूटान ने इस रिपोर्ट की वैधता का स्पष्ट रूप से खंडन किया है। उसका कहना यह है कि दरअसल वह असम में पानी के सुचारू प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए चैनलों की मरम्मत कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि बक्सा जिले के 26 से ज्यादा गाँवों के करीब 6000 किसान सिंचाई के लिए डोंग परियोजना पर निर्भर हैं और सन् 1953 के बाद से इस क्षेत्र के किसानों के द्वारा धान की सिंचाई के लिए भूटान से आनेवाले पानी का इस्तेमाल किया जा  करते रहे हैं।
कुल-मिलाकर भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों ने इस मसले पर या तो चुप्पी साध ली है, या ‘फिर दोनों पक्ष इसका शांतिपूर्ण समाधान निकल लेंगे’ कहकर प्रतिक्रिया देने की औपचारिकता पूरी की है। अगर दूसरे शब्दों में इसी बात को कहूँ, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के बावजूद भारत के पड़ोसी देशों में चीन की स्थिति भारत की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत प्रतीत हो रही है।    
चुनौती बनता उद्दंड हिन्दू राष्ट्रवाद:
दरअसल उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति वर्तमान सरकार की आग्रहशीलता और उसके उद्दंड एवम आक्रामक राष्ट्रवाद  ने दक्षिण एशिया में भारत के परम्परागत मित्रों एवं सहयोगियों को असहज किया है। अब वे भारत के साथ पहले की तरह सहज नहीं महसूस करते हैं और कहीं-न-कहीं भारत को लेकर आशंकित भी हैं जिसे उनकी इस चुप्पी के जरिये समझा जा सकता है। 
कश्मीर और लद्दाख की संवैधानिक स्थिति को परिवर्तित करने के कुछ ही महीने बाद, जब नवम्बर,2019 में भारत ने नया राजनीतिक नक्शा जारी किया जिसमें भौगोलिक रूप से पश्चिमी तिब्बत और पाक-अधिकृत कश्मीर के बीच अवस्थित एवं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिमालयी लद्दाख क्षेत्र को केंद्र-शासित प्रदेश के रूप में दर्शाया, तो इससे चीन नाराज़ हुआ और नेपाल एवं पाकिस्तान ने इसका खुलकर विरोध किया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सीमा-विवाद के सन्दर्भ में भारत जो आरोप चीन पर लगता है, कुछ वैसा ही आरोप नेपाल भी भारत पर लगता है। हालिया घटनाक्रम यह बतलाते हैं कि विवादित सीमाओं पर बातचीत से परहेज़ समस्याओं को कम करने की बजाय उसे बढ़ा रहा है, अब सन्दर्भ चाहे भारत-चीन का हो, या फिर भारत नेपाल का। इस सन्दर्भ में भारत का नेपाल के प्रति रवैया कुछ वैसा ही है जैसा चीन का भारत के प्रति। ऐसी स्थिति में पड़ोसी देशों से भारत के साथ खड़े होने की अपेक्षा उचित नहीं है, और इस स्थिति के लिए भारत, उसकी नीतियाँ और उसका रवैया स्वयं ही जिम्मेवार है। और, हम निकटवर्ती पड़ोसी देशों की ही बात क्यों करें, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ को छोड़कर शेष दुनिया भारत की चिंताओं से बेखबर है; और यहाँ तक कि इन तीनों की प्रतिक्रियाओं को सामान्य चिंता-प्रदर्शन की औपचारिकता के रूप में लिया जाना चाहिए। अधिक-से-अधिक अमेरिका अपने सामरिक हितों के कारण एक-दो कदम आगे बढ़ सकता है, लेकिन इस बात को समझा जाना चाहिए कि वह विश्वसनीय नहीं है और वह भारत की लडाई नहीं लड़ने जा रहा है।  
वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल:
निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास ही इस ओर इशारा करता है कि धीरे-धीरे भारत अपने निकटस्थ पड़ोस से बाहर निकलकर बहुपक्षीय आर्थिक एवं राजनीतिक गठबंधन की संभावनाओं की तलाश कर रहा है विस्तृत पड़ोस तक पहुँचने की कोशिश इसी ओर इशारा करता है हाल में चीन के साथ सीमा-विवाद ने रणनीतिक प्राथमिकताओं के निर्धारण की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है इसी आलोक में मार्च,2020 से भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले इंडो-पैसिफ़िक राष्ट्रों के समूह (IPGN), जिसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कोरिया एवं वियतनाम शामिल हैं, का हिस्सा बना यह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ लोकतान्त्रिक देशों के समूह (QUAD) का हिस्सा है यह समूह क्षेत्रीय सुरक्षा के मसले पर सामूहिक पहल के लिए संयुक्त मोर्चे के निर्माण और सामुद्रिक सहयोग को बढ़ाये जाने के प्रश्न पर विचार कर रहा है अगर ऐसा होता है, तो हिन्द महासागर और साउथ चाइना सी में प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश में लगे चीन के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी
इसी बीच भारत के लिए राहत भरी खबर ऑस्ट्रेलिया से आयी है।  जून,2020 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच वर्चुअल शिखर बैठक के दौरान हुए समझौते में भारत और ऑस्ट्रेलिया, दोनों ने हिंद महासगर में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एक दूसरे के जंगी जहाजों और फाइटर जेटों को अपने-अपने सैनिक अड्डों के इस्तेमाल की अनुमति दी। इस तरह भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय वर्चुअल बैठक करने वाला पहला देश बना है। भारत अमेरिका के साथ इस तरह का समझौता पहले ही कर चुका है। इस समझौते को रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि यह समझौता भारत को इंडोनेशिया (कोकोज द्वीप समूह) के पास बने ऑस्ट्रेलियाई नौ सैनिक अड्डों के इस्तेमाल का अधिकार प्रदान करता है और ऑस्ट्रेलिया को अंडमान निकोबार द्वीप समूह स्थित नौ सैनिक-अड्डों के उपयोग का अधिकार, जिससे हिंद महासागर में स्थित मलक्का स्ट्रेट और आसपास के इलाके पर कड़ी नजर रखी जा सकेगी।
इन सबके बावजूद चीन वास्तविक नियंत्रण-रेखा(LAC) पर अपने रुख को नरम करने के लिए तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि यह मसला लम्बा खिंचने वाला है

Friday 26 June 2020

निकटस्थ प्रथम और फिर नेपाल : नयनिमा बासु


मोदी ने कहा: निकटस्थ प्रथम, और फिर नेपाल को भारतीय प्राथमिकता में निम्न स्थान
(द प्रिंट में 16 जून को प्रकाशित नयनिमा बासु के आलेख का हिन्दी  भावनुवाद और यथा संशोधित)
प्रमुख आयाम
1. निकटस्थ पड़ोस प्रथम के लिए झटका
2. स्वप्निल दौर का आभास अच्छी शुरुआत को जारी नहीं रख पाना सामरिक दृष्टि से चीन के करीब आता नेपाल:
3. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति के जरिये प्रतिस्थापित:
4. गहराता सीमा-विवाद: विवादित क्षेत्र का विस्तार
5. नए भारतीय राजनीतिक नक्शे का प्रकाशन, नवम्बर,2019:
6. नेपाल द्वारा संयुक्त राष्ट्र के समक्ष नया नक्शा:
7. नीतिगत हस्तक्षेप अपेक्षित:
निकटस्थ पड़ोस प्रथम के लिए झटका
सन 2018 में के. पी. ओली, जिनकी पहचान ऐसे राजनेता के रूप में है जिनकी राजनीति भारत-विरोध की बुनियाद पर टिकी है और जो चीन के करीब हैं, दूसरी बार सत्ता में लौटे। इनका दूसरी बार सत्ता में लौटना भारत की निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति के लिए जोरदार झटका है, कम-से-कम नेपाल के हालिया घटनाक्रम इसी ओर इशारा करते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि लम्बे समय से नेपाल से बातचीत की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर भारत एक ओर चीन के मंसूबे को पूरा कर रहा है, दूसरी ओर नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. ओली को यह अवसर उपलब्ध करवा रहा है कि वे भारत के विरुद्ध अपने राष्ट्रवादी एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाते हुए अपनी राजनीतिक स्थिति मज़बूत कर सकें।
स्वप्निल दौर का आभास:
अगस्त,2014 में बहुपक्षीय बातचीत में भाग लेने के लिए मोदी की नेपाल-यात्रा जून,1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल की नेपाल-यात्रा करीब सत्रह वर्षों बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली नेपाल-यात्रा थी वे नेपाली संविधान सभा-सह-संसद को सम्बोधित करने वाले पहले विदेशी नेता बने और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को द्विपक्षीय सीमा-विवाद के स्थायी समाधान का वादा भी किया इस आलोक में सीमा-स्तंभों के निर्माण,पुनरोद्धार और मरम्मत अधिकार के साथ के लिए बाउंड्री वर्किंग ग्रुप की स्थापना की दिशा में पहल भी की भारतीय पीएम उस यात्रा के दौरान जीत बहादुर से भी मिले जिसकी तलाश उन्हें 1998 से ही थी और जिसे भारत-नेपाल के बीच की जोड़ने वाली कड़ी के रूप में देखा गया दोनों देशों ने अपने विदेश सचिवों को कालापानी और सुस्ता समेत सीमा-विवाद के लम्बित मसलों पर बात के लिए निर्देश भी दिए। भारत ने नेपाल से इस बात के लिए आग्रह किया कि 98 प्रतिशत सीमा, जिनको लेकर किसी प्रकार का विवाद नहीं है और जिन पर सहमति बन चुकी है, से सम्बंधित नक़्शे पर हस्ताक्षर करे
अच्छी शुरुआत को जारी नहीं रख पाना:
प्रधानमंत्री मोदी ने पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध के फ्रंट पर अच्छी शुरुआत की और यह संकेत दिया कि भारत की विदेश नीति उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है और वे उसे जड़ता की अवस्था से बाहर निकलकर गतिमान करेंगे, लेकिन वे उस शुरुआत को जारी नहीं रख पाए। सितम्बर,2015 तक आते-आते के. पी. ओली के प्रधानमंत्रित्व काल में नए संविधान, उसमें मधेशी आकांक्षाओं की अनदेखी और उसके अन्य उपबंधों को लेकर द्विपक्षीय संबंधों में तनाव के बिंदु उभरने लगे और भारत इस सन्दर्भ में सकारात्मक पहल के लिए नेपाल पर दबाव बनाने लगा जिससे सम्बन्ध बेपटरी होने लगी। इस पृष्ठभूमि में भारत के अनुसार मधेशियों ने और नेपाल के अनुसार भारत ने नेपाल की आर्थिक नाकेबन्दी कर दी। इसने सन् 1989 के उस आर्थिक नाकेबन्दी की याद दिला दी जिसे राजीव गाँधी की सरकार के द्वारा 21 बॉर्डर प्वाइंट्स में से 19 बॉर्डर प्वाइंट्स को ब्लॉक करके राजशाही के नेतृत्व वाले नेपाल पर आरोपित किया गया था। इस नाकेबन्दी ने भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंधों को निम्नतम बिंदु पर पहुँचा दिया और तब से लेकर आजतक द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बढ़ाते ही चले गए। इस नाकेबंदी के द्विपक्षीय संबंधों पर प्रभाव का आकलन नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है कि नेपाल ने 1989 की आर्थिक नाकेबन्दी के लिए भारत को कभी माफ़ नहीं किया क्योंकि इसने न केवल नेपाली पंचायत-व्यवस्था को ध्वस्त किया, वरन् नेपाली राजशाही के पतन का मार्ग प्रशस्त करते हुए नेपाल में लोकतंत्र की पुनर्बहाली सुनिचित की इसने नेपाल में भारत के गुडविल को इतना डैमेज किये जिसे पुनर्बहाल होने में दशकों लग जायेंगे
उस समय से नेपाल विवादित सीमावर्ती क्षेत्रों से सम्बंधित मसलों के समाधान हेतु बातचीत के लिए भारत पर निरंतर दबाव बना रहा है, पर इस मसले पर भारत उदासीन रहा है मई,2014 में जब भारत और चीन ने व्यापारिक मार्ग के रूप में लिपुलेख के इस्तेमाल का निर्णय लिया, तो नेपाल ने उसके इस निर्णय का विरोध करते हुए भारत सरकार से आग्रह किया कि सीमा-विवाद के समाधान के लिए विदेश-सचिव स्तर की वार्ता शुरू की जाए, लेकिन नेपाल की इस माँग पर भारत ने चुप्पी साधे रखी 
फिर, नवम्बर,2016 में भारत द्वारा नोटबन्दी की दिशा में की गयी पहल से नेपाली लोग बुरी तरह प्रभावित हुए और नेपाल की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत ने मधेशियों के बहाने इस मसले के समाधान की दिशा में पहल करने से परहेज़ किया और इसने करेंसी-डेडलॉक की स्थिति पैदा की पुरानी भारतीय करेंसी के बदले नई भारतीय करेंसी जारी करने की प्रक्रिया अवरुद्ध होने के कारण नेपालियों को काफी परेशानियाँ हुईं और इसने नेपाली लोगों के साथ-साथ मधेशियों के बीच भारत के गुडविल को ऐसा झटका दिया जैसा झटका उसे अबतक नहीं लगा था, यहाँ तक कि आर्थिक नाकेबन्दी के कारण भी नहीं; और आलम यह कि इसके कारण नेपाल में भारत के पारंपरिक समर्थक माने जाने वाले मधेशियों में भी नाराज़गी बढ़ी और इसके परिणामस्वरूप भारत से दूरी भी।  
सामरिक दृष्टि से चीन के करीब आता नेपाल:
इस स्थिति का फायदा उठाते हुए चीन ने नेपाल को अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’(BRI) के लिए राजी किया और इस परियोजना के अंतर्गत सन् 2013 में आरम्भ ट्रांस-हिमालयन मल्टी-डायमेंशनल कनेक्टिविटी नेटवर्क को इसके अंतर्गत शामिल किया जब ओली ने दूसरी बार नेपाल का नेतृत्व संभाला, तो उन्होंने नेपाल-चीन सम्बन्ध को प्राथमिकता देते हुए उसे मजबूती प्रदान करने की कोशिश की और इसकी पृष्ठभूमि में भारत-नेपाल सम्बन्ध हाशिये पर पहुँचता चला गया  
पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति के जरिये प्रतिस्थापित:
पहले कार्यकाल के मध्य तक आते-आते निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति के जरिये प्रतिस्थापित होने लगी और इस बीच ओली भारत-विरोधी भावनाओं को भड़काते हुए अपने नेशनलिस्ट एजेंडे को लागू करवाने में लगे रहे। भारत की बेरुखी कुछ इस कदर रही कि उसने भारत-नेपाल सम्बन्ध पर विशेषज्ञ लोगों के समूह की रिपोर्ट को भी गंभीरता से लेने की बात तो छोड़ ही दें, उसे नोटिस तक नहीं लिया। फिर, अक्टूबर,2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत से लौटते हुए नेपाल भी गए और उनके उस दौरे के क्रम में चीन ने नेपाल को अपना सामरिक भागीदार बनाया। तब से भारत की नेपाल पर पकड़ कमजोर होती चली गयी और नेपाल भारत के हाथों से फिसलकर चीन के हाथों में जा रहा है।
गहराता सीमा-विवाद: विवादित क्षेत्र का विस्तार
अगर भारत ने सीमा-विवाद को समय रहते निपटाया होता, तो सीमा-विवाद का समाधान अधिकतम 35 वर्ग किलोमीटर के लेन-देन के सम्भव हो पाता, लेकिन नए नक़्शे को लेकर जारी विवाद के पश्चात् सीमा-विवाद का विस्तार करीब 335 वर्ग किलोमीटर तक हो चुका है जो पूर्व में विवादित क्षेत्र का दस गुना है कहा जाता है कि 1950 के दशक में चीन के साथ सीमा-विवाद के सन्दर्भ में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु ने जो गलती की, जिसकी बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी और आज भी पड़ रही है, उसी गलती को नेपाल के सन्दर्भ में वर्तमान सरकार और उसका नेतृत्व दोहरा रहा है   
नए भारतीय राजनीतिक नक्शे का प्रकाशन, नवम्बर,2019:
नवम्बर,2019 में भारत ने अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, और तबसे लेकर अबतक नेपाल ने कूटनीतिक चैनल से सीमा-विवाद के समाधान के लिए भारत से चार बार औपचारिक रूप से आग्रह किया है, लेकिन भारत ने उसके आग्रह को तवज्जो नहीं दिया हाँ, भारत ने इस बात का संकेत दिया कि उसने नए नक़्शे से सम्बन्धित संविधान-संशोधन विधेयक पेश करने के पहले अनौपचारिक रूप से वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के जरिये विदेश-सचिव स्तर की वार्ता का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन नेपाल ने उस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया भारत के इस दावे को स्वीकार भी कर लिया जाए, तो तबतक बहुत देर हो चुकी थी और नेपाल उस दिशा में काफी आगे बढ़ चुका था 
नेपाल द्वारा संयुक्त राष्ट्र के समक्ष नया नक्शा:
जब नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र के समक्ष अपना नया नक्शा पेश किया, तो भारत ने ‘भू-क्षेत्र में कृत्रिम वृद्धि’ की संज्ञा देते हुए नेपाल के इस नए नक़्शे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस तरह से हिमालयी क्षेत्र में टकराव का नया मोर्चा खुला जो आनेवाले समय में भारत के लिए परेशानियाँ उत्पन्न करता रहेगा अब, उपरोक्त विवादों के आलोक में भारत के लिए लिपुलेख होते हुए कैलाश-मानसरोवर यात्रा का सञ्चालन मुश्किल होगा क्योंकि आनेवाले समय में चीन भारत पर नेपाल के साथ सीमा-विवाद के द्विपक्षीय समाधान के लिए दबाव डालेगा जो आसान नहीं होने जा रहा है 
नीतिगत हस्तक्षेप अपेक्षित:
इस आलोक में देखें, तो आवश्यकता इस बात की है कि श्रीलंका,  नेपाल एवं पाकिस्तान के मोर्चे पर उभर रही नवीन चुनौतियों और चीन के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण दक्षिण एशिया में तेजी से बदलते क्षेत्रीय समीकरणों के मद्देनज़र भारत निकटस्थ पड़ोस प्रथम की अपनी नीति को भारत पुनर्परिभाषित करे और निकटस्थ पड़ोस प्रथम 2.0 के जरिये इन चुनौतियों का प्रभावी तरीके से सामना करने की रणनीति तैयार करे। और, यह तबतक संभव नहीं है जबतक कि तमाम मतभेदों को दरकिनार करते हुए संवाद कायम करने की कोशिश नहीं की जाती और उन संवादों के माध्यम से समस्या के समाधान तक पहुँचने का सकारात्मक नज़रिया नहीं अपनाया जाता।    
[द प्रिंट से साभार, इस शानदार आलेख के लिए नयनिमा बासु को धन्यवाद]
Modi said Neighbourhood First and then ranked Nepal low in India’s priority list, The Print: Nayanima Basu, 16 June, 2020
Link: https://theprint.in/opinion/modi-said-neighbourhood-first-and-then-ranked-nepal-low-in-indias-priority-list/442657/

Thursday 25 June 2020

गुजराल-डॉक्ट्रिन,1996


गुजराल-डॉक्ट्रिन,1996
(पंचशील का विस्तारित रूप)
प्रमुख आयाम
1.  गुजराल डॉक्ट्रिन: पृष्ठभूमि
2.  नेहरुवादी विदेश-नीति: पुनर्परिभाषित
3.  पंचशील-पुनर्परिभाषित
4.  पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की जटिलता
5.  लोकल रणनीति, ग्लोबल सोच
6.  गुजराल-डॉक्ट्रिन: प्रमुख अवयव
7.  पंचशील से भिन्नता
8.  डॉक्ट्रिन की सीमाएँ
9.  विश्लेषण
गुजराल डॉक्ट्रिन: पृष्ठभूमि:
सन् 1990 में सोवियत संघ के विघटन और साम्यवादी ब्लॉक के बिखराव के साथ भारत के समक्ष यह चुनौती उत्पन्न हुई कि वह बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित करने की कोशिश करे और इसके कारण जो नवीन चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, उनसे निबटने की कोशिश करे। साथ ही, यह वह दौर था जिसमें भारत के प्रति पाकिस्तान की शत्रुता बढ़ती चली गयी और पाकिस्तान सहित भारत के निकटतम पड़ोसी देशों ने भारत के बढ़ते कद से आशंकित होकर उसकी बढ़ती शक्ति एवं उसके बढ़ते प्रभाव को प्रति-संतुलित करने के लिए चीन से नज़दीकियाँ बढ़ानी शुरू की। वैश्विक महाशक्ति बनने की आकांक्षा पाले चीन ने उसे रेस्पोंड करना शुरू किया और चीन के इस रिस्पांस ने भारत के लिए परेशानियाँ खड़ी करनी शुरू की। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने अपने राष्ट्रीय सामरिक एवं सुरक्षा-हितों को संरक्षित करने के लिए अपनी विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस की। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि अबतक:
1.  भारत की विदेश-नीति पश्चिम के बड़े देशों की ओर उन्मुख थी,
2.  उसका रुझान यथार्थ की बजाय आदर्शों की ओर कहीं अधिक था, और
3.  उसमें अबतक भारत के पड़ोसी देशों, विशेषकर छोटे पड़ोसी देशों और विस्तृत पड़ोस को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया था।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए नेहरु-युग की विदेश-नीति से दूर ले जाने की कोशिश शुरू हुई, ताकि:
1.  इसे यथार्थ पर आधारित बनाया जा सके,
2.  बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित किया जा सके, और
3.  राष्ट्रीय हितों को बेहतर तरीके से संरक्षित किया जा सके।
नेहरुवादी विदेश-नीति: पुनर्परिभाषित
इस दिशा में कोशिश की गयी, लुक ईस्ट पालिसी के जरिये और गुजराल डॉक्ट्रिन के जरिये। सन् 1991 में पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने लुक ईस्ट पॉलिसी (Look East Policy) की घोषणा करते हुए भारत के दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार किया और फिर, सन् 1996-97 के दौरान देवगौड़ा-सरकार में विदेश-मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने गुजराल-डॉक्ट्रिन के जरिये भारत के दक्षिण एशियाई छोटे पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार करते हुए भारतीय विदेश-नीति को उनकी ओर कहीं ज्यादा अभिमुख किया। यह पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि 1990 के दशक में आकर ही भारत ने विदेश-नीति के निर्धारण में घरेलू  चुनौतियों एवं प्राथमिकताओं को कहीं अधिक अहमियत दिए जाने की आवश्यकता महसूस की और इसकी पृष्ठभूमि में भारत की बाह्य एवं आतंरिक नीतियों के बीच कहीं अधिक समन्वय कायम हुआ। उदाहरण के रूप में, लुक ईस्ट पॉलिसी के निर्धारण में उत्तर-पूर्वी भारत की सुरक्षा एवं विकास-संबंधी चुनौतियों की महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका रही।   
पंचशील-पुनर्परिभाषित:
तेजे से बदलते हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के बीच गुजराल ने यह ऑब्जर्व किया कि भारत के प्रति पाकिस्तान का शत्रुता-भाव निरंतर बढ़ता चला जा रहा है और इसके लम्बे समय तक बने रहने की संभावना है। समस्या यह है कि चीन भी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है और भविष्य में भारत के विरुद्ध इन दोनों की नजदीकियाँ भी तेजी से बढ़ने की संभावना है। ऐसी स्थिति में भारत को पाकिस्तान एवं चीन की सम्मिलित चुनौती का सामना करना होगा, लेकिन वह उस चुनौती का प्रभावी तरीके से सामना तबतक नहीं कर सकता है जबतक कि अन्य छोटे पड़ोसी देशों के साथ उसके सम्बन्ध बेहतर न हों और उनके बीच उसका गुडविल बेहतर न हो। इसी सोच ने में सन् 1996-97 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में विदेश-मंत्री इंद्र कुमार गुजराल, जो इस सर्कार के ठीक बाद ग्यारह महीने के लिए देश के प्रधानमंत्री भी बने, ने भारत के छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ के रूप में पंचशील-सिद्धांत को पुनर्परिभाषित किया जिसने मई,2014 तक छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में भारत की विदेश-नीति को आधार प्रदान किया और जो बदले हुए रूपों में निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति के रूप में आज भी प्रासंगिक बना हुआ है
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की जटिलता:
भारत के इन छोटे पड़ोसी देशों को उसके विशाल भौगोलिक आकार से, उसकी विशिष्ट आर्थिक पहचान से और उसके अंतर्राष्ट्रीय कद से खतरा महसूस होता है इसके अलावा, भारतीय उपमहाद्वीप की समान ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि में ये अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान खोने को लेकर आशंकित हैं। इस कारण अपनी भिन्न एवं विशिष्ट पहचान बनाए रखने के लिए इन्हें लगातार संघर्ष करना होता है
इसीलिए ये भारत को लेकर एक प्रकार के हीनताबोध एवं कुण्ठा के शिकार हैं इसकी पृष्ठभूमि में भारत की बड़े भाई वाली भूमिका और समय-समय पर हाथ मरोड़ने वाली नीति इनके मन में भारत को लेकर मौजूद आशंकाओं को गहराने का काम करती है और इसके परिणामस्वरूप ये संतुलन कायम करने की रणनीति के तहत् दूसरी बड़ी शक्तियों और विशेष रूप से चीन के साथ मेलजोल बढ़ाने लगते हैं, ताकि भारत पर दबाव निर्मित किया जा सके और उससे विशेष रियायतें हासिल की जा सकें। इसी आलोक में इनकी घरेलू राजनीति भी भारत-समर्थन एवं भारत-विरोध की तर्ज़ पर दो धाराओं में भी विभाजित होती दिखाई पड़ती है और इनके राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा भारत-विरोध का इस्तेमाल उग्र-राष्ट्रवाद को उभारने के लिए किया जाता है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सामान्य कूटनीतिक दबाव भी इन्हें अपनी संप्रभुता का उल्लंघन प्रतीत होता है और वे उस पर आग बबूला हो जाते हैं सितंबर,1996 में पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की इन जटिलताओं को समझते हुए तत्कालीन विदेश-मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने पहली बार एक स्थानीय नीति बनाई थी जिसका उद्देश्य था भारत की छवि को एक क्षेत्रीय अधिनायक से बदलकर एक उदार देश की छवि बनाना, जो पड़ोसियों से बिना कोई खास अपेक्षा रखे उन्हें साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो। स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य भारत के प्रति उसके छोटे पड़ोसी देशों में विश्वास की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करना था और उनकी आशंकाओं का निवारण करना था
लोकल रणनीति, ग्लोबल सोच:
कोलम्बो में गुजराल डॉक्ट्रिन पर दिए गए स्पीच पर पंडित जवाहर लाल नेहरु के विज़न, जिसका गुजराल ने अपने स्पीच में बारम्बार उल्लेख किया है, का सीधा-सीधा असर दिखता है। उन्होंने नेहरु को उद्धृत करते हुए उस एशियाई अस्मिताबोध की ओर इशारा करते हुए कहा, “हमलोग एशिया हैं और एशिया के लोग दूसरों की तुलना में हमारे कहीं अधिक निकट हैं। भारत की अवस्थिति इस प्रकार की है कि वह पश्चिमी, दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्व एशिया की धुरी है।” इसी आलोक में गुजराल अपने इस विज़न के साथ उपस्थित होते हैं, “एशिया-पेसिफ़िक क्षेत्र के भीतर खाड़ी क्षेत्र और मध्य एशिया से निकटता दक्षिण एशिया में भारत की विशिष्ट भौगोलिक अवस्थिति हिन्द महासागरीय क्षेत्र में इसकी उपस्थिति को महत्वपूर्ण बना देती है” इसी आलोक में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत के लिए अन्तर्निहित संभावनाओं के दोहन के लिए गुजराल डॉक्ट्रिन के माध्यम से स्थानीय स्तर पर पहल की और इसके जरिये दक्षिण एशियाई क्षेत्र में ऐसे परिवेश के सृजन का सपना देखा जिसमें भारत उन संभावनाओं का दोहन करता हुआ अपना अंतर्राष्ट्रीय कद बढ़ा सकता है।   

गुजराल-डॉक्ट्रिन: प्रमुख अवयव:

जनवरी,1997 में तत्कालीन विदेश-मंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने भंडारनायके सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज, कोलम्बो में ‘भारत की विदेश नीति के आयाम’ विषय पर बोलते हुए ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ की रूपरेखा प्रस्तुत की, जो आतंरिक मामलों में अहस्तक्षेप, अनाक्रमण, एक दूसरे की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता के प्रति सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संकल्पना पर आधारित है उन्होंने इस डॉक्ट्रिन के पाँच मूल तत्वों को रेखांकित किया:
1.  भारत भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका जैसे छोटे पड़ोसी देशों से भारत प्रतिफल की आशा नहीं रखेगा, पर सद्भाव एवं विश्वास की पुनर्बहाली और उसे मजबूती प्रदान करने के लिए अपनी तरफ से जो भी संभव हो, करने को तत्पर रहेगा। कँवल सिब्बल के अनुसार, भूटान को इस सूची से बाहर रखा गया क्योंकि यह भावना द्विपक्षीय संबंधों में अंतर्निहित थी। इसकी विशिष्टता इस बात में है कि यह पारंपरिक राजनयिक सोच से इतर विचार था। ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ इस मायने में पंचशील से भिन्न है 
2.  कोई दक्षिण एशियाई देश अपने भू-क्षेत्र का इस्तेमाल इस क्षेत्र के दूसरे देशों के हितों के खिलाफ नहीं होने देगा।
3.  इस क्षेत्र का कोई भी देश अपने पड़ोसी देशों के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देगा। भारत पर बड़े भाई वाली भूमिका निभाने के आरोप के मद्देनज़र यह प्रावधान महत्वपूर्ण था।
4.  सभी दक्षिण एशियाई देश एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता के सम्मान करेंगे।
5.  सभी दक्षिण एशियाई देश शान्तिपूर्ण बातचीत के जरिये आपसी विवादों का द्विपक्षीय समाधान निकालेंगे।  
उन्होंने यह अपेक्षा ज़ाहिर की कि समय के साथ नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और भारत सहित इस महाद्वीप का समूचा पूर्वी-क्षेत्र परिवहन, ऊर्जा, जल-प्रबंधन आदि के क्षेत्र में सहयोग के जरिये विकास का उभार देखेगा उन्होंने ‘21वीं सदी: एशियाई सदी’ की और परोक्षतः इशारा करते हुए कहा, “यदि इस क्षेत्र के सभी सात देशों के द्वारा इसका क्रियान्वयन किया जाता है, तो इसकी परिणति दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय संबंधों की पुनर्संरचना के रूप में हो सकती है और यह एशियाई पुनरोद्भव के नेतृत्वकर्ता के रूप में इस क्षेत्र के उभर को संभव बनाएगा और, यह सब संभव होगा, द्विपक्षीय अंतःक्रिया और सार्क के रीजनल फ्रेमवर्क के जरिये।”    
गुजराल-डॉक्ट्रिन: पंचशील से भिन्नता
स्पष्ट है कि गुजराल-डॉक्ट्रिन क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में पंचशील का ही विकसित एवं विस्तारित रूप है जिसे एकतरफा रियायतें पंचशील से अलगाती हैं। इसका उद्देश्य पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध सुधारना और पारस्परिक विश्वास की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करना है। पंचशील से इसकी भिन्नता को निम्न सन्दर्भों में रेखांकित किया जा सकता है:
1.  प्रतिपादन की दृष्टि से: जहाँ पंचशील के सिद्धांत का प्रतिपादन भारत और चीन ने मिलकर किया था, वहीं गुजराल-डॉक्ट्रिन विशुद्ध रूप से भारतीय कूटनीति की उपज है
2.  उद्देश्य की दृष्टि से: पंचशील का लक्ष्य भारत एवं चीन की सुरक्षा चिंताओं का समाधान करते हुए उन्हें एक-दूसरे को लेकर आश्वस्त करना था, ताकि वे घरेलू चुनौतियों से निबटने और विकास-प्राथमिकताओं पर विशेष ध्यान दे सकें इसके विपरीत गुजराल-डॉक्ट्रिन का उद्देश्य भारत को लेकर उसके छोटे पड़ोसी देशों की आशंकाओं का निवारण करते हुए उनके साथ संबंधों में सुधार को सुनिश्चित करना था 
3.  अलग-अलग दायरा: पंचशील का सिद्धांत मूलतः द्विपक्षीय संबंधों को लक्षित करता है, यद्यपि क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके महत्व से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है इससे भिन्न गुजराल-डॉक्ट्रिन का प्रतिपादन क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में किया गया था। इसके जरिये पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्याँमार को छोड़कर भारत के अन्य सभी छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों को शामिल किया गया था।
4.  एकतरफा रियायत की संकल्पना: गुजराल-डॉक्ट्रिन में पंचशील का मूल भाव तो मौजूद है, पर यह इन छोटे पड़ोसी देशों के साथ बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के एकतरफा रियायत (Unilateral Concession) की बात करता है जो पंचशील में नहीं था
5.  सुरक्षा चिंताओं का समाधान: गुजराल-डॉक्ट्रिन में एक-दूसरे की सुरक्षा चिन्ताओं का भी समाधान प्रस्तुत किया गया है इसमें कहा गया है कि भारत और उसके पड़ोसी देश एक-दूसरे के खिलाफ़ अपने भू-क्षेत्र या अपनी ज़मीन का इस्तेमाल नहीं होने देंगे। साथ ही, इसमें पड़ोसी देशों के साथ विवादों के द्विपक्षीय समाधान पर बल देते हुए कहा गया है कि दोनों पक्षों के द्वारा एक-दूसरे के साथ विवादों का निपटारा शांतिपूर्ण बातचीत के जरिये किया जाएगा।   
डॉक्ट्रिन की सीमाएँ:
जहाँ तक गुजराल-डॉक्ट्रिन की सीमाओं का प्रश्न अहि, तो इसकी महत्वपूर्ण सीमा पाकिस्तान को लेकर इसके नज़रिए और दक्षिण एशियाई देशों के नेतृत्व में पाकिस्तान के बिना एशियाई पुनरोत्थान की परिकल्पना के सन्दर्भ में है पाकिस्तान को इसके दायरे से बहार रखा गया, जबकि दक्षिण एशिया में भारत-पकिस्तान द्विपक्षीय सम्बन्ध अहम् समस्या थी और इसमें सुधार को सुनिश्चित किये बिना दक्षिण एशियाई परिदृश्य में बदलाव आता और पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्धों में सुधार संभव हो पाता, इसकी उम्मीद बेमानी थी। लेकिन, इस नज़रिए से देखें, तो पंडित जवाहर लाल नेहरु और उनके पंचशील की तुलना में गुजराल और गुजराल डॉक्ट्रिन की सोच यथार्थवाद के कहीं अधिक करीब थी। कारण यह कि 1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद चरम पर होने के कारण यह उम्मीद बेमानी था कि वह गुजराल डॉक्ट्रिन के मूल तत्वों का सम्मान करेगा। कारगिल युद्ध,1999 सहित आगे के घटनाक्रमों से ये बातें पुष्ट हुईं।
इसकी दूसरी महत्वपूर्ण सीमा यह थी कि इसने भारत के छोटे पड़ोसी देशों के लिए भारत की ओर से जिस एकतरफा रियायत का आश्वासन इस अपेक्षा के साथ दिया कि इससे उनकी आशंकाओं का निवारण होगा और उनके बीच भारत का गुडविल विकसित होगा; लेकिन व्यवहार के धरातल पर ऐसा सम्भव नहीं हो पाया। इसके उलट, इसने भारत की बड़े भाई वाली छवि को सुदृढ़ करने का काम किया।
इसकी तीसरी महत्वपूर्ण सीमा यह थी कि इस डॉक्ट्रिन में इस समझ का अभाव दिखता है कि कूटनीतिक संबंधों में व्यावहारिक धरातल पर सदाशयता के लिए बहुत स्पेस नहीं होता है। इसकी तुलना में कूटनीतिक सम्बन्ध पारस्परिक हितों से कहीं अधिक निर्देशित होते हैं।
गुजराल-डॉक्ट्रिन: मूल्यांकन
स्पष्ट है कि गुजराल-डॉक्ट्रिन के पीछे उनकी यह सोच थी, “यदि किसी देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा कायम करना है, तो सबसे पहले उसे अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते सही करने होंगे।” इसी सोच के अनुरूप उन्होंने गुजराल-डॉक्ट्रिन के जरिये भारत की विदेश-नीति को दिशा देने की कोशिश की और सन् 1996 में अमेरिकी दबावों के बावजूद उनके नेतृत्व में भारत ने सीटीबीटी पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया पूर्व विदेश-सचिव कँवल सिब्बल के अनुसार, “सन् 1996 में पड़ोसी देशों के परिप्रेक्ष्य में भारत ने जिस गुजराल-डॉक्ट्रिन की प्रस्तावना की, उसका उद्देश्य भारत की ‘क्षेत्रीय अधिनायक’ वाली छवि को परिवर्तित करते हुए एक उदार देश के रूप में उसकी छवि निर्मित करना था, जो बिना किसी अपेक्षा के अपने पड़ोसियों को साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो।‌‌‌” इस डॉक्ट्रिन की सफलता दो बातों पर निर्भर करती थी:
1.  भारत कितनी गंभीरता से इसे अपने आचरण में उतारने की कोशिश करता है क्योंकि यही कोशिश व्यावहारिक धरातल पर इस नीति की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करती?
2.  व्यावहारिक धरातल पर इस नीति की प्रभावशीलता  इस बात पर भी निर्भर करती जिन पड़ोसी देशों के लिए इसे प्रस्तावित किया गया है, वे भारत पर भरोसा करते हुए कितनी अनुक्रियाशीलता प्रदर्शित करते हैं और वे स्वयं ही इन सिद्धांतों का कितना अनुपालन करते हैं?
स्वयं, गुजराल ने दिसंबर,1996 में भारत-बांग्लादेश गंगा-जल संधि गुजराल डॉक्ट्रिन की एक बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन, इस डॉक्ट्रिन की विडंबना यह रही कि आवश्यकता इस बात की है कि अगर गुजराल ज्यादा दिनों तक इसे व्यावहारिक रूप देने के लिए मौजूद नहीं रहे क्योंके विदेश-मंत्री एवं प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल बहुत ही छोटा रहा। साथ ही, उनके बाद जो सरकारें आयीं, यह डॉक्ट्रिन उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा और इसका आधे-अधूरे मन से क्रियान्वयन हुआ जिसके कारण यह अपेक्षित परिणाम दे पाने में असमर्थ रहा। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि यह अप्रासंगिक था या आज इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर वर्तमान सरकार निकटतम पड़ोस प्रथम की नीति को लेकर वाकई गंभीर है, तो इसे ‘गुजराल-डॉक्ट्रिन’ के द्विपक्षीय बातचीत, अहस्तक्षेप और क्षेत्रीय अखंडता जैसे तत्वों को अपनाते हुए उसे अंतर्राज्यीय सहयोग का आधार बनाना चाहिए, तभी शायद निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति प्रासंगिक भी बनी रह पायेगी और अपने लक्ष्यों को भी प्राप्त कर सकेगी