‘बॉयकॉट चाइना’: मिथक या यथार्थ
(भारत पर कसता चीनी शिकंजा)
प्रमुख बिंदु
1.बायकॉट
चाइना’ से आशय
2.हालिया
सन्दर्भ
3.बायकॉट
चाइना’ की दिशा में हालिया पहल
4.‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान की असलियत
5.अभियान
की आर्थिक व्यवहार्यता
6.तात्कालिक
सन्दर्भों में मुश्किलें
7.तकनीकी अवरोध
8.विशेषज्ञों
की राय
9.दीर्घकालीन
रणनीति की आवश्यकता
10.
राजीव गाँधी के नेतृत्व में भारत की
चीन-नीति में परिवर्तन के बाद सीमा-विवाद को पृष्ठभूमि में रखते हुए आर्थिक-व्यापारिक
धरातल पर भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध बेहतर होते चले गए और इसके परिणामस्वरूप पिछले
साढ़े तीन दशकों के दौरान चीन करीब 96 बिलियन अमेरिकी डॉलर (सन् 2018) के द्विपक्षीय
व्यापार के साथ भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार रूप में उभरकर सामने आया। यह
बतलाता है कि पिछले तीन दशकों के दौरान भारत की चीन पर आर्थिक एवं व्यापारिक
निर्भरता बढ़ती चली गयी है। अगर द्विपक्षीय व्यापार
की प्रकृति पर गौर करें, तो भारत के निर्यात की तुलना में आयात करीब ढ़ाई गुना है,
व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है और भारत जहाँ तैयार माल का आयात कर रहा है, वहीं
कच्चे माल का निर्यात। चीन के साथ बढ़ता
हुआ व्यापार-घाटा और चीन से बढ़ता हुआ निवेश इस बात का प्रमाण है कि भारतीय
अर्थव्यवस्था पर चीनी शिकंजा कसता चला जा रहा है। इससे इस बात का भी संकेत मिलता
है कि इसके कारण आने वाले समय में भारतीय संप्रभुता पर चीनी खतरे बढ़ने की संभावना है।
यह चिंता वाज़िब ही है और भारत को देर-सबेर इस चिंता का समाधान ढूँढना ही होगा,
अन्यथा उसके लिए एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में व्यवहार करना मुश्किल होता चला
जाएगा। इसीलिए भारत में इसके विरोध लगातार आवाजें उठती रहती हैं और जब-जब
भारत-चीन के राजनीतिक संबंधों में तनाव उत्पन्न होते हैं, तब-तब ‘बायकॉट चाइना’ की
माँग तेज़ होती चली जाती है।
बायकॉट
चाइना’ से आशय:
‘बायकॉट चाइना’ से आशय है चीनी उत्पादों
के बहिष्कार से। पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक अंतराल पर ‘बायकॉट चाइना’ की अपील
की जाती है और इसके नाम पर चीनी उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चलाया जाता है। यह
अभियान कुछ तो भारत की आर्थिक ज़रुरत है और कुछ हमारी सरकार की राजनीतिक ज़रुरत। चीन
से बढ़ते हुए आयात और बढ़ता हुआ व्यापार-घाटा इसे आर्थिक औचित्य प्रदान कर रहा है।
इसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रवाद के उभार और सत्तारूढ़ दल की राजनीतिक ज़रूरतों ने ‘बायकॉट
चाइना’ अभियान के राजनीतिकरण को संभव बनाया। व्यावहारिक धरातल पर इसकी अहमियत सिर्फ
इतनी थी कि इसके जरिये चीन पर दबाव बनाकर चीन को भारत से आयात को प्रोत्साहित करते
हुए व्यापार-घाटे को थोड़ा कम करने की कोशिश की जाती, पर इस मसले के राजनीतिकरण ने
इसकी इस अहमियत को भी समाप्त कर दिया। इसके उलट, इसने चीन की प्रतिक्रियात्मक
कार्रवाई की सम्भावना को बल प्रदान किया। मतलब यह कि इसके फायदे हों अथवा नहीं, पर
इसने इसके घाटे की सम्भावना को ज़रूर जन्म दिया।
हालिया
सन्दर्भ:
जून,2020 में पूर्वी लद्दाख के
पेंगोंग झील के भारतीय हिस्से की गलवान घाटी वाले इलाके में चीनी घुसपैठ का दुखद
एवं त्रासद अंत हुआ जिसमें भारतीय सेना के 20 जवान चीनी सैनिकों के हाथों अत्यन्त
बर्बर तरीके से शहीद हो गए। इस घटना ने पूरे भारत को उद्वेलित किया और चीन के
विरुद्ध जनाक्रोश अपने चरम पर पहुँच गया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसने ‘बायकॉट
चाइना’ अभियान को एक बार फिर से हवा दिया है और इसके बहाने चीन के विरुद्ध आर्थिक
मोर्चा खोलते हुए व्यापारिक युद्ध का शंखनाद किया गया। बचा-खुचा काम राजनीति ने कर
दिया। उसने यह धारणा सृजित की, मानो चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से उसकी आर्थिक कमर
टूट जाएगी और वह घुटनों के बल झुककर भारत की शर्तों पर सीमा-विवाद का हल स्वीकार
करेगा। शायद यह अबतक की सबसे तेज़ आवाज़ है जिसकी अनदेखी आसान नहीं होगी। लेकिन, भले ही आबादी का एक हिस्सा समय-समय पर इसके पक्ष में खड़ा होता रहा हो और उसका
यह मानना हो कि भारतीय नागरिकों को चीन का माल खरीदने से बचना चाहिए, पर प्रश्न यह
उठता है कि चीन कई साथ होने वाले हर विवाद के साथ ‘बायकाट चाइना’ की बात करना कहाँ
तक उचित है? जिस तरह से नई दिल्ली और बीजिंग के बीच कारोबारी रिश्ते मजबूत हैं और
हम पारस्परिक निर्भरता के जिस दौर में जी रहे हैं, उसमें ‘बायकॉट चीन’ को ज़मीनी धरातल पर उतारना क्या सम्भव है? क्या सरकार वाकई इसको लेकर गंभीर है? इस आलेख में इन्हीं प्रश्नों पर विचार
किया जाएगा।
‘बायकॉट
चाइना’ की दिशा में हालिया पहल:
‘बायकॉट चीन’ की मजबूत होती जनभावना के बीच केंद्र सरकार ने दूरसंचार क्षेत्रों में चीनी कम्पनियों पर
पूर्ण पाबन्दी की दिशा में पहल करते हुए बीएसएनएल
और एमटीएनएल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को यह निर्देश जारी
किया कि वे 4जी के लिए चीन की कंपनियों को टेंडर
जारी न करें। टेलीकॉम विभाग का कहना है कि चीन के उपकरणों से नेटवर्क की सुरक्षा ख़तरे में रहेगी। सूत्रों का ये भी कहना है कि भारत के नेटवर्क अपग्रेड योजना में चीन की ज़ेडटीई और ख़्वावे कंपनी के बने उपकरण विवाद की वजह बन सकते हैं। साथ
ही, निजी क्षेत्र की कम्पनियों से भी अपेक्षा की कि वे चीन पर अपनी निर्भरता को कम
करें। इसी प्रकार रेल-मंत्रालय ने भी चीनी
इंजीनियरिंग कम्पनी के साथ करीब 500 करोड़ रुपये के
बड़े करार को रद्द करने का निर्णय लिया। हाल में सरकार ने टायर्स के आयात पर
प्रतिबन्ध भी आरोपित किया है। इससे पहले, हाल ही में में भारतीय
प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम’ के तहत् ‘वोकल फॉर लोकल’ अभियान
चलाये जाने का आह्वान किया। इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार चीन से होने वाले निम्न
गुणवत्ता वाले 370 गैर-ज़रूरी उत्पादों की सूची तैयार कर रही है जिनके आयात पर
अंकुश लगाए जाने की रणनीति बनाई जा रही है और इसके लिए सुरक्षा एवं गुणवत्ता
मानकों को आधार बनाया जाएगा। इसके
अतिरिक्त, केंद्र सरकार उन विदेशी कम्पनियों से भी संपर्क कर रही है जो चीन के
बाहर वैकल्पिक ग्लोबल सप्लाई चैन की स्थापना को इच्छुक हैं। लेकिन,
सरकार की यह कोशिश प्रतीकात्मक कहीं अधिक
प्रतीत होती है, ताकि चीनी सैनिकों के हाथों शहीद हुए भारतीय जवानों की मौत और
इसको लेकर केंद्र सरकार के रवैये से उपजे आक्रोश का सुरक्षित तरीके से प्रबंधन करते
हुए उसके प्रतिकूल राजनीतिक परिणामों की संभावनाओं को निरस्त किया जा सके और इसके
कारण अपने ऊपर सृजित दबावों को कम किया जा सके।
‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान की असलियत:
अगर सरकार इसको लेकर गम्भीर होती, तो पिछले
छः वर्षों के दौरान इसने इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति तैयार करते हुए उन्हें
व्यावहारिक धरातल पर उतारने की गंभीर पहल की होती। लेकिन, वर्तमान सरकार के पिछले छः वर्षों के कार्यकाल में भारतीय आयात में चीन की हिस्सेदारी बढती चली गयी और भारत का व्यापार-घाटा भी बढ़ता चला गया। वित्त-वर्ष (2019-20) में भारतीय आयात में चीन की
हिस्सेदारी 14.5 प्रतिशत के स्तर पर थी
और वित्त-वर्ष (2018-19) में 4.92 लाख करोड़ के साथ 13.7 प्रतिशत के स्तर पर, जबकि वित्त-वर्ष (2013-14) में यह 3.09 लाख करोड़ के साथ 11.3 प्रतिशत के स्तर पर। अगर भारतीय निर्यात में चीन की
हिस्सेदारी की बात करें, तो विवेच्य
अवधि वित्त-वर्ष
(2013-14:2019-20) के दौरान यह 4.8 प्रतिशत से बढ़कर 5.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गयी। वित्त-वर्ष (2018-19)
में 90,809 करोड़ 1.17 लाख करोड़ रुपये (5.1%) का निर्यात चीन को किया गया, जबकि
वित्त-वर्ष (2013-14) में यह 90,809 हज़ार करोड़। मतलब यह कि वित्त-वर्ष (2013-14) और वित्त-वर्ष (2018-18) के दौरान चीन
के साथ भारत का व्यापार-घाटा 2.19
लाख करोड़ से बढ़कर लगभग 3.74 लाख करोड़ हो गया। जहाँ तक
जनता के रुख का प्रश्न है, तो उसे सस्ते उत्पादों से मतलब है। उनके लिए यह बात
मायने नहीं रखती है कि वे घरेलू उत्पाद हैं या फिर विदेशी, और विदेशी में ही वे
चीनी उत्पाद हैं या फिर अन्य देशों के। स्पष्ट है कि भारत का चीन से
बढ़ता हुआ आयात और बढ़ता हुआ व्यापार घाटा ‘बॉयकॉट चाइना’ अभियान को चला रही जनता और
इस अभियान को राजनीतिक रूप से भुनाने के लिए तैयार सरकार की असलियत को सामने लाता
है।
अगर यह आसान और
व्यावहारिक रास्ता होता, तो अमेरिका के खिलाफ चीन भी इस विकल्प को आजमाता। दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन ने
इसकी ओर इशारा करते हुए अमेरिकी-चीन द्विपक्षीय संबंधों का हवाला दिया, “अगर
ऐसा होता, तो चीन में भी ‘बायकॉट अमेरिकन’ अभियान चलाया जाता और इसके बहाने
अमेरिकी वस्तुओं का बहिष्कार करते हुए अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी जाती
जिससे खुद को वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका के समानांतर स्थापित करने का
चीनी सपना साकार हो सकता था। चीन को इसके लिए इससे बेहतर मौका नहीं मिलता, क्योंकि
वर्तमान में अमेरिका कोरोना की चुनौती का सामना करने में बुरी तरह से उलझा हुआ है
और ‘तथाकथित ‘वुहान वायरस’ की प्रतिक्रिया में अमेरिकी शहरों में चीनी नागरिकों पर
लगातार हमले हुए हैं। लेकिन, चीन में इसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई पड़ती
है। बहुराष्ट्रवाद की डोर थामे चीन में अमेरिकी कम्पनियाँ सुरक्षित कारोबार कर रही
हैं। अप्रैल,2020 तक पूरे चीन में
विश्व-प्रसिद्ध अमेरिकी कंपनी वालमार्ट वालमार्ट के 402 सुपर
सेंटर, और 436 रिटेल
यूनिट बिना किसी बाधा के कारोबार कर रहे थे। इतना ही नहीं, (1979-2019) के दौरान चीन
में निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियों की संख्या सौ से बढ़कर साढ़े तीन लाख से अधिक हो
चुकी थीं।”
अभियान
की आर्थिक व्यवहार्यता:
निश्चय ही, ‘बायकॉट चाइना’ चीनी
अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचा पाने में समर्थ है और इसके कारण चीन की मुश्किलें
ऐसे समय में बढेंगी, जब चीनी अर्थव्यवथा मुश्किल दौर से गुजर रही है। इसकी पुष्टि चीन के राष्ट्रीय
सांख्यिकी ब्यूरो के द्वारा जारी आँकड़ों से भी होती है। इसके मुताबिक़, वैश्विक महामारी कोविड-19 के
बीच सन् 2020 की पहली तिमाही में चीनी जीडीपी में 6.8% की
गिरावट आई है जो सन् 1976 की सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद से
चीनी जीडीपी में सर्वाधिक गिरावट है। लेकिन, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना
चाहिए कि ऐसे किसी भी कदम के चीन के सन्दर्भ में प्रभाव सीमित होंगे, जबकि भारत
के सन्दर्भ में इसके प्रभाव व्यापक एवं बहुस्तरीय होंगे। इसे निम्न
सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1. जहाँ चीनी निर्यात में भारत की भागीदारी महज 3 प्रतिशत के स्तर पर
है, वहीं भारतीय निर्यात में चीन की भागीदारी करीब 5.5 प्रतिशत से अधिक के स्तर पर। सन्
2019 में 74.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ भारत की भागीदारी चीन के कुल निर्यात
में 3 प्रतिशत रही और यह सातवें स्थान पर था। इसीलिए अगर चीन भारत के ‘बायकॉट चाइना’ की प्रतिक्रिया में अपने
नागरिकों और कॉर्पोरेट्स से ‘बायकॉट इण्डिया’ की अपील करता है, तो भारत मुश्किलों
में पड़ सकता है, यद्यपि इसकी संभावना कम है क्योंकि चीन इस बात को जानता है कि ऐसे
भावनात्मक अपीलों की बहुत अहमियत नहीं है। साथ ही, उसका कारोबारी नजरिया यथार्थपरक
है। वह इस बात से वाकिफ है कि अगर इस दिशा में पहल की भी जाती है, तो चीनी सामान
रास्ता बदलकर भारत तक पहुँचेगा, और वह इस रणनीति पर पहले से काम कर रहा है।
2. चीन
और चीन के साथ कारोबारी संबंधों की अहमियत उससे कहीं अधिक है जो आँकड़े प्रदर्शित
करते हैं क्योंकि चीन से आयात में कमी सीधे-सीधे भारतीय विनिर्माण उद्योंगों के
ग्रोथ और उसकी निर्यात संभावनाओं को परोक्षतः ही सही, पर प्रतिकूलतः प्रभावित
करेंगी।
स्पष्ट है कि चीन पर भारत की आर्थिक निर्भरता के कारण ‘बायकॉट
चाइना’ अभियान की आर्थिक व्यवहार्यता के सन्दर्भ में स्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स
से लेकर फ़र्टिलाइजर्स तक भारत चीन पर निर्भर है और इन
क्षेत्रों में ‘मेड इन चाइना’ ‘मेक इन इण्डिया’ का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। सेलफोन, टेलिकॉम, पॉवर, प्लास्टिक के खिलौने एवं औषधि सामग्री
के क्षेत्र में चीन प्रमुख आपूर्तिकर्ता है। चूँकि भारत चीन
से पूँजीगत वस्तुओं एवं मध्यवर्ती वस्तुओं का भी आयात करता है, इसीलिए
ऐसा कोई भी प्रयास घरेलू-विनिर्माण उद्योगों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को
प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा और अंततः इसका असर भारतीय निर्यात की
प्रतिस्पर्धात्मकता पर पड़ेगा जिसके परिणामस्वरूप निर्यात-बाज़ार से भारतीय उत्पादों
के पैर उखड़ सकते हैं। इसीलिए ‘बायकॉट चाइना’
को व्यावहारिक रूप देने के लिए चाहे टैरिफ बैरियर का इस्तेमाल किया जाए या नन-टैरिफ
बैरियर (NTB) का, लेकिन इसकी कीमत भारतीय
उपभोक्ताओं को भी चुकानी होगी और ‘मेक इन इण्डिया’ को भी।
इन पहलुओं पर थोड़े विस्तार में जाने
की ज़रुरत है। दूरसंचार-क्षेत्र में 51% बाज़ारों पर चीन का कब्जा है, तो
भारतीय घरों में चीनी इलेक्ट्रिकल एवं इलेक्ट्रॉनिक्स
उपकरणों की भरमार है। वर्तमान में पूरा भारतीय बाज़ार चीनी खिलौनों से पटा है क्योंकि भले ही उनका जीवन-काल भारतीय खिलौनों की तुलना में कम हों और लेड
की मौजूदगी के कारण वे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खतरनाक हों, पर अपेक्षाकृत काफी सस्ते
होने के कारण इनकी माँगें बहुत अधिक हैं। चीन पर भारतीय आर्थिक निर्भरता का
अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस औषधि-क्षेत्र
की भारतीय निर्यात में अहम् भूमिका है और जिस औषधि-क्षेत्र ने विकसित देशों के औषधि-उत्पादों
से प्रतिस्पर्धा करते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान कायम की है, वह अपने
70 प्रतिशत रॉ मैटेरियल, जिनका आयातित मूल्य करीब ढ़ाई अरब डॉलर है, के लिए चीन पर
निर्भर है। भारतीय औषधि
उद्योग के सन्दर्भ में इस आयात की अहमियत की ओर इशारा करते हुए पुष्प रंजन ने लिखा
है, “चीनी रॉ मैटेरियल से दवा बनाकर ही भारतीय
कंपनियाँ 24 प्रतिशत अमेरिका और 26
फीसद यूरोपीय संघ के देशों में सप्लाई करती हैं।” इसी प्रकार ऊर्जा-क्षेत्र में भारत की हालिया प्रगति में भी चीनी उत्पादों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
वर्तमान में भारत के विभिन्न हिस्सों में चलायी जा रही कई बिजली
परियोजनाएँ चीनी उपकरणों के भरोसे हैं। साथ
ही, वर्तमान में जिन इलेक्ट्रॉनिक मीटरों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वे सब चीन
से आयातित हैं। इतना ही नहीं, भारतीय दूरसंचार-क्षेत्र के विकास में भी चीनी
उपकरणों की अहम् भूमिका है। अबतक इस
क्षेत्र टेक्नोलॉजिकल अपग्रेडेशन में भी चीनी उपकरणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
इसी तरह वैश्विक स्तर पर मोबाइल फ़ोन
बनाने वाली पाँच शीर्ष कम्पनियों में चार कम्पनियाँ चीन से सम्बद्ध हैं। इनके सस्ते उत्पादों ने भारत में मोबाइल रिवोल्यूशन और इसके जरिये
सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति में अहम् भूमिका निभाई है। चीन से आयातित हार्डवेयर की बदौलत ही भारत दुनिया में कंप्यूटर हार्डवेयर
असेम्बलिंग के बड़े सेंटर के रूप में उभरकर सामने आया है।
‘बायकॉट चाइना’ की आर्थिक व्यवहार्यता के
प्रश्न पर विचार के क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि चीन केवल वैश्विक विनिर्माण केंद्र नहीं है, वरन् दुनिया का
सबसे बड़ा बाज़ार भी है जिससे भारत भी लाभान्वित होता है। वित्त-वर्ष
(2018-19) में भारत ने भी तो करीब 16.75 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात (भारत के
कुल निर्यात का 5.1 प्रतिशत) चीन को किया। ऐसी स्थिति में ‘बायकॉट चाइना’ के प्रति
चीनी प्रतिक्रिया ट्रेड वॉर की जिस स्थिति को जन्म देगी, उसका प्रत्यक्ष असर तो
भारत के चीनी निर्यात पर भी पड़ेगा। इसलिए इस अभियान के कारण भारत का सप्लाई चैन
बाधित हो सकता है और इससे भारत के हाथों से विदेशी बाज़ारों के निकलने का खतरा भी
बढ़ जाएगा।
समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, समस्या चीनी निवेश भी है। पिछले दो दशकों के
दौरान भारत क्रमिक रूप से चीनी पूँजी एवं निवेश के लिए एक गंतव्य के रूप में
महत्वपूर्ण होता चला गया। इसी आलोक में मुंबई में पहले चेंबर ऑफ चाइनीज़
इंटरप्राइजेज़ इन इंडिया (CCEI) और फिर इंडो-चाइनीज़ चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज
(ICCCI) की स्थापना हुई जिनका काम भारत में कम कर रही चीनी कम्पनियों के हितों का
संरक्षण एवं संवर्द्धन और इसके लिए लॉबीइंग करना था। सन् 2000 के उत्तरार्द्ध में
भारत में चीन की 32 बड़ी कंपनियाँ पैर जमा चुकी थीं और
वर्ष (2014-2019) के दौरान भारत में चीनी एफडीआई पाँच गुणा बढ़कर 8 बिलियन अमेरिकी
डॉलर के स्तर पर पहुँच गया। आनेवाले समय में ज़ोमैटो, पेटीएम, बायजू, ओला कैब और
अन्य भारतीय स्टार्ट अप में अलीबाबा और टेंसेंट जैसी चीनी कम्पनियों में निवेश से सम्बन्धित
मसले को सुलझाना आसान नहीं होगा। उच्च तकनीक, इंटरकॉम, कंप्यूटर, धातु विज्ञान, स्टील
आदि जैसे क्षेत्रों से सम्बद्ध हुआवेई, जेड टी ई, लेनोवो, श्याओमी, सीएसआईटीईसी, सीएमआईईसी, हायर, टीसीएल, जिआंगसु ओवरसीज ग्रुप कम्पनियाँ
और फाइबरहोम टेक्नोलॉजीज जैसी कम्पनियाँ चीनी
सरकार और उसकी आक्रामक कूटनीति के सहारे भारत में जड़ें जमा चुकी हैं। स्पष्ट है कि ‘बायकॉट चाइना’ का असर चीनी निवेश पर भी पड़ेगा और यह चीनी पूँजी
एवं निवेश की उपलब्धता को भी प्रतिकूलतः प्रभावित करता हुआ भारतीय आर्थिक विकास की
प्रक्रिया को अवरुद्ध कर सकता है।
इसीलिए यह कहा जा रहा है कि बायकॉट
चाइना की बात करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है इसे अमल में लाना। यह जितना चीन को डैमेज करेगा, उससे कहीं अधिक भारत को,
क्योंकि इस विकल्प के अपने खतरे भी हैं। चीन ही नहीं, भारत
की अर्थव्यवस्था भी मुश्किल दौर से गुजर रही है। चीन की तुलना में इसकी
मुश्किलें कहीं अधिक बड़ी है जिसके मूल में है आर्थिक कुप्रबंधन। ऐसे समय में अगर
चीन भी प्रतिक्रिया देता हुआ भारतीय उत्पादों के आयात पर अंकुश लगाने की कोशिश
करता है और भारत में निवेश से भी परहेज़ करता है, तो भारत का यह कदम
काउन्टर-प्रोडक्टिव साबित हो सकता है। इसी आलोक में आशंका यह भी जाहिर की जा रही
है कि तात्कालिक परिप्रेक्ष्य में भी यह कदम आत्मघाती साबित हो सकता है। और, इसीलिए
इसके मद्देनज़र सरकार को कुछ भी करने के पहले इससे सम्बद्ध तमाम पहलुओं और इसके परिणामों
पर लागत-लाभ आकलन (Cost-Benefit Analysis) के
आलोक में विचार करना चाहिये। साथ ही, इसके लिए भारत को दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य
में इसके लिए रणनीति बनानी होगी और उसे अमल में लाना होगा, अन्यथा ‘बायकॉट चाइना’
थोथी नारेबाजी में तब्दील होकर रह जाएगा।
तात्कालिक सन्दर्भों
में मुश्किलें:
अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि दीर्घकालिक
योजना बनाए बिना भारत चीन का मुकाबला नहीं कर सकता। मगर, तात्कालिक सन्दर्भों में
भी चीन को नुकसान तभी पहुँचाया जा सकता है, जब आम जनता इसके लिए एकजुट हो। पर,
तात्कालिक सन्दर्भों में भी इसकी अपनी सीमाएँ हैं। ये मुश्किलें तब और भी बढ़ जाती
है जब कोरोना-संकट एवं प्रवासी मजदूरों के पलायन
की पृष्ठभूमि में भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र श्रमिकों के संकट से जूझता हुआ
दिखाई पड़ता है। और, जिस तरह से भारत में कोरोना के मामलों में तेजी की स्थिति दिख
रही है, आनेवाले समय में समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में श्रमिकों की आपूर्ति
पुनर्बहाल हो पायेगी, इसमें सन्देह है। इसके विपरीत, चीन ने श्रमिकों का बेहतर
प्रबंधन किया है और इसीलिए वह इस तरह की चुनौतियों से मुक्त है। कोरोना काल में भारत
और चीन की फैक्टरियों के प्रबंधन की तुलना करते हुए दक्षिण एशियाई मामलों के
विशेषज्ञ पुष्परंजन अपने आलेख में लिखते
हैं, “दुनिया के दिग्गज मज़दूर संगठनों में से एक ऑल
चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन (ACFTU) के सवा तीस करोड़ सदस्य, चीनी फैक्टरियों की
सप्लाई-चेन को टूटने नहीं देते हैं। एसीएफटीयू के नेता वहाँ की मल्टीनेशनल
कंपनियों को ख़ूब सुहाते हैं। लेबर उन्हें इसलिए कोसते हैं, क्योंकि भयानक शोषण और श्रम-क़ानून के उल्लंघन से उनका सरोकार नहीं होता।”
इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि मेडिकल सप्लाई कंपनियों
की गड़बड़ियों के बावजूद चीनी मास्क और रैपिड
टेस्टिंग किट ने करोना के खिलाफ लड़ाई में भारत एवं भारतीयों की खूब मदद
की और आज भी चीन के इस सहयोग के बिना भारत इस लड़ाई को लड़ने की कल्पना नहीं कर सकता
है।
तकनीकी अवरोध:
‘बायकॉट चाइना’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के रास्ते में सिर्फ व्यावहारिक कठिनाइयाँ
ही नहीं हैं, वरन् तकनीकी कठिनाइयाँ भी हैं। यह अभियान वैश्वीकरण की उस संकल्पना
के प्रतिकूल है जिसके रास्ते पर भारत पिछले तीन दशकों से चलता रहा और जिसकी
उपलब्धियों की बदौलत आज भारत चीन को चुनौती देने की सोच ही नहीं रहा है, वरन् उसे
चुनौती देने में कुछ हद तक सक्षम भी है। अब, समस्या यह है कि विश्व व्यापार संगठन(WTO) के द्वारा निर्देशित एवं नियमित
वैश्विक व्यापार-व्यवस्था में यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है कि पूरे दुनिया
के लिए खुली भारतीय अर्थव्यवस्था को चीन के लिए बन्द कर दिया जाए। हाँ, यह ज़रूर है
कि डब्ल्यूटीओ द्वारा रेगुलेटेड वैश्विक व्यापारिक व्यवस्था में अपनी
अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के दायरे में रहते हुए भारत इस दिशा में पहल कर सकता
है। साथ ही, वह उसकी
कमियों (LoopHoles) का लाभ भी उठा सकता है। इसे
निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1.विश्व व्यापार
संगठन से सम्बद्ध अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के मद्देनज़र भारत को औसतन 48.5 प्रतिशत से अधिक आयात कर नहीं आरोपित करना है। इस
दृष्टि से भारत औसतन 13.8 प्रतिशत आयात कर के वर्तमान स्तर
में वृद्धि के जरिये चीनी आयात को हतोत्साहित करने की दिशा में पहल कर सकता है।
2.इसे व्यावहारिक
रूप प्रदान करने का एक तरीका नन-टैरिफ
बैरियर को आरोपित करना है। भारत
जिन विकल्पों पर विचार कर रहा है, उनमें नन-टैरिफ बैरियर शीर्ष पर है। सरकार के
द्वारा ऐसे 370 मदों की पहचान की जा रही है जिनका आयात गैर-ज़रूरी है और जिनके आयात
को सुरक्षा एवं गुणवत्ता मानकों के आधार पर हतोत्साहित किया जाएगा।
3.समस्या यह है कि ऐसी कोई भी कोशिश वैश्विक व्यापार-व्यवस्था में असंतुलन पैदा करेगी, और उस स्थिति में विश्व व्यापार संगठन मूकदर्शक नहीं बना रह
सकता है। साथ ही, यह स्थिति चीन को प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के लिए उकसायेगी, और
फिर ट्रेड वॉर की ओर ले जायेगी, और ऐसी स्थिति में भारत को यह डब्ल्यूटीओ के प्लेटफ़ॉर्म पर चीन के साथ व्यापारिक
विवादों में उलझा सकती है।
लेकिन, यह
स्थिति एक साथ कई समस्याओं को जन्म देगी। अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के कारण सरकार के स्तर पर ‘बायकॉट चीन’ की अपनी सीमाएँ हैं। वह प्रतीकात्मक तो हो
सकती है, पर इतनी असरकारी नहीं कि वह चीन की सरकार को दबाव में ला
सके। इसी कारण भारत
न तो सीमा-शुल्कों में अचानक एवं एक सीमा से अधिक वृद्धि कर सकता है और न ही अकारण
चीन से होने वाले आयातों पर मात्रात्मक प्रतिबन्ध ही आरोपित कर सकता है। इसलिए भी
कि आयात का मसला विदेशी निवेश के मामले से सम्बद्ध है जिनके जरिये पूँजी के साथ-साथ तकनीक की उपलब्धता संभव हो पाती है। ऐसी
स्थिति में आयात को हतोत्साहित करने की कोशिश का असर पूँजी-निवेश एवं तकनीक की
उपलब्धता पर भी पड़ेगा। साथ ही, अगर वह
डब्ल्यूटीओ से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय बाध्यताओं के दायरे में रहते हुए भी कोई
कदम उठता है, तो उसकी अपनी कीमत होगी जिसको चुकाना भारत के लिए आसान
नहीं होगा।
इसके अतिरिक्त, इस
बात की भी सम्भावना होगी कि वही चीनी सामान
रास्ता बदलकर किसी अन्य देश के माध्यम से भारत पहुँचे और उसके लिए भारतीय उपभोक्ताओं को कहीं अधिक कीमत चुकानी पड़े, जैसा
भारतीय माल के साथ पाकिस्तान में होता है जो रास्ता बदलकर खाड़ी देशों से होते हुए
पाकिस्तान पहुँचता है और जिसके लिए पाकिस्तानियों को कहीं अधिक कीमत चुकानी पड़ती
है।
इसमें एक समस्या
यह भी है कि सस्ते चीनी उत्पादों की उपलब्धता के प्रभावित होने की स्थिति में मध्यम वर्ग पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा और इससे उपजे राजनीतिक
असंतोष की एक कीमत होगी जिसे कोई भी राजनीतिक
दल या कोई भी सरकार चुकाने के लिए तैयार नहीं होगी। इसलिए कोई भी सरकार चीनी आयात
को प्रत्यक्षतः या परोक्षतः प्रभावित कर मध्य वर्ग की नाराज़गी, जिसकी बड़ी राजनीतिक
कीमत है, नहीं मोल लेना चाहेगी।
स्पष्ट है कि चीनी आयात पर प्रतिबन्ध
लगाने या उसे हतोत्साहित करने हेतु पहल करने में भारत के हाथ बहुत हद तक बंधे हुए
हैं। वह या तो नन-टैरिफ बैरियर जैसे तरीकों का सहारा लेकर इसे प्रभावित करने की
कोशिश कर सकती है, या फिर जनता को जागरूक करते हुए
उन्हें चीनी उत्पादों के प्रयोग को कम करने के लिए प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः
प्रोत्साहित भी कर सकती है। लेकिन, कई कारणों से इस रणनीति के कारगर
होने की संभावना अपेक्षाकृत कम है। यह रणनीति तभी कारगर होगी जब राष्ट्रवाद की
भावना उनके भीतर इतनी मजबूती से पैठ जाए कि वे उसके लिए हर प्रकार की तकलीफ उठाने
के लिए भी तैयार रहें और वैकल्पिक उत्पादों की अधिक कीमत चुकाने के लिए भी तैयार
रहें।
विशेषज्ञों की राय:
शायद यही कारण है कि इसको
लेकर आर्थिक एवं अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक के विशेषज्ञों
की राय बँटी हुई दिख रही है, लेकिन अगर गहराई से विचार करें, तो उनकी
रायों में मूलभूत समानताएँ हैं। जो ‘बायकॉट चाइना’ अभियान के पक्ष में भी हैं, वे
भी कुल-मिलकर भारतीय विनिर्माण की सीमाओं से बखूबी परिचित हैं और वे इस अभियान को
रेस्पोंड कर पाने की भारतीय विनिर्माण की क्षमता को लेकर आशंकित हैं। इन्हीं
आशंकाओं के कारण वे सीमित एवं प्रतीकात्मक स्तर पर
‘बायकॉट चाइना’ की बात कर रहे हैं
और इसके द्वारा निर्मित दबाव का फायदा उठाकर भारत के सामरिक-कूटनीतिक हितों के
संरक्षण एवं संवर्द्धन की बात कर रहे हैं। दक्षिण
एशियाई मामलों के विशेषज्ञ पुष्परंजन तो ऐसे अभियानों को ही अव्यावहारिक करार देते,
लेकिन आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अरुण कुमार और भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्ध से
सम्बंधित मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी सीमित सन्दर्भों में
इसकी उपादेयता को स्वीकार करते हैं।
आर्थिक मामलों के
विशेषज्ञ अरुण कुमार का कहना है, “चीन के साथ हमारा कारोबार कई रूपों में होता है
जिनमें ज़रूरी एवं गैर-ज़रूरी, दोनों प्रकार के उत्पाद शामिल हैं। गैर-जरूरी
उत्पादों के विकल्प हमारे पास मौजूद हैं, लेकिन जरूरी वस्तुओं के आयात तब तक नहीं
रोके जा सकते, जब तक उसके वैकल्पिक स्रोतों, चाहे वे घरेलू हों या विदेशी, की तलाश
न कर ली जाए।” उनके मुताबिक, ऐसी स्थिति में भारत के पास दो ही विकल्प हैं:
1.नॉन-टैरिफ
बैरियर के जरिये चीनी उत्पादों के प्रवाह को बाधित करने का प्रयास, और
2.गैर-जरूरी
उत्पादों के आयात से परहेज।
इन दोनों पहलों के
जरिये चीन को चार-पाँच बिलियन अमेरिकी डॉलर तक का आर्थिक नुकसान पहुँचाया जा सकता
है। उनके अनुसार, “इसके माध्यम से चीन को यह सख्त सन्देश दिया जा सकता है कि यदि
वह सीमा पर आक्रामक रुख अपनाता है, तो उसे आर्थिक तौर पर इसका नुकसान उठाना पड़
सकता है और ऐसी स्थिति में भारत जैसे बड़े बाज़ारों में उसकी पहुँच प्रभावित हो सकती
है।”
यद्यपि भारत-चीन
द्विपक्षीय संबंधों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ‘बायकॉट चाइना’ के पक्ष में नहीं हैं, पर ये इस बात को लेकर चिन्तित अवश्य हैं कि पिछले छः
वर्षों के दौरान चीन का ट्रेड सरप्लस दोगुना होता हुआ 60
बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच चुका है जो
भारत के रक्षा-खर्च के बराबर है और जिसका इस्तेमाल भारत के
विरुद्ध करते हुए चीन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में
लगा है। इनका मानना है कि चीन से होने वाले भारतीय आयात की प्रकृति पर अगर गौर
करें, तो इन्हें दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: ज़रूरी आयात और
गैर-ज़रूरी आयात। आर्थिक रूप से जरूरी आयात के विकल्प या तो नहीं है या बहुत मँहगे हैं और इसीलिए बहिष्कार की
रणनीति को यहाँ पर अपनाया जाना संभव नहीं है, लेकिन चीन से होनी वाले 60 प्रतिशत भारतीय आयात गैर-जरूरी उत्पादों से सम्बंधित हैं, जिन्हें चेक किया जा सकता है और जिन्हें चेक किया जाना
चाहिए क्योंकि ये भारत के विनिर्माण-क्षेत्र की संभावनाओं को आहत
कर रहे हैं। इसीलिए इनका मानना है कि अगर हम
कूटनीतिक रूप से सक्षम नहीं हैं, तो लक्षित आर्थिक प्रतिबन्धों आरोपित करते हुए
गैर-ज़रूरी आयात को हतोत्साहित कर चीन को स्पष्ट मैसेज दिया जाना चाहिए कि अगर वह सीमावर्ती इलाकों में भारत के लिए अनावश्यक
परेशानियाँ उत्पन्न करेगा, तो इसकी एक आर्थिक कीमत होगी जो उसे चुकानी होगी। यह
बात चीन को भी मालूम है, तभी तो चीनी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ अपने सम्पादकीय में लिखता है: “भारत चीन से
अधिक-से-अधिक सामान आयात कर रहा है जिसके कारण चीन के साथ व्यापार-घाटे में
प्रतिवर्ष करीब दस बिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसा इसलिए कि न तो भारत
कई चीनी उत्पादों का उत्पादन कर सकता है और न ही इसी कीमत पर वह इसे पश्चिम से
खरीद सकता है।”
दीर्घकालीन
रणनीति की आवश्यकता:
स्पष्ट
है कि तमाम मतभेदों के बावजूद विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि ‘बायकॉट चाइना’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए दीर्घकालीन
रणनीति की आवश्यकता है। इनका यह मानना है कि
ऐसी किसी भी पहल से पहले विनिर्माण-क्षेत्र
में घरेलू क्षमता-निर्माण को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता है। यह तबतक संभव नहीं है जबतक कि इसके लिए चिर-प्रतीक्षित
विधायी सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए उन संरचनात्मक अवरोधों को दूर नहीं किया जाता है जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को जकड़ रखा है और जो घरेलू उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रतिकूलतः
प्रभावित कर रहे हैं।
साथ ही, दीर्घकालिक रणनीति का निर्धारण करते
वक़्त इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तकनीक
और प्रौद्योगिकी की तरफ खासा ध्यान के कारण ही चीन भारत की तुलना में कहीं अधिक विकसित
है। कोठारी आयोग ने अरसे पहले
सार्वजनिक शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के छह प्रतिशत खर्च की सिफारिश की थी,
लेकिन कहीं-न-कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण न तो आज तक सार्वजनिक शिक्षा पर खर्च को जीडीपी के चार
प्रतिशत से अधिक के स्तर पर ले जाना संभव हो पाया है और न ही अनुसंधान एवं विकास को प्राथमिकता दे पाना संभव
हो पाया है। बिना शिक्षा एवं विशेष रूप से अनुसन्धान एवं विकास को प्राथमिकता दिए
भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र के रूपांतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण बहुत
ही मुश्किल है और इसे भी उपयुक्त नीतिगत पहलों के जरिये समर्थन दिए जाने की ज़रुरत
होगी। इससे घरेलू विनिर्माण-उद्योग की
प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाई जा सकेगी, भारतीय विनिर्माण-क्षेत्र को चीनी
उत्पादों को प्रतिस्थापित कर पाने में सक्षम बनाया जा सकेगा और वैश्विक व्यापार में उसकी भागीदारी भी बढ़ाई जा सकेगी।
निष्कर्ष:
यदि वाकई भारत
की सरकार और भारतीय जनता ‘बॉयकॉट चाइना’ को लेकर गम्भीर है और उसे व्यावहारिक
धरातल पर उतरना चाहती है, तो उसे चीनी उत्पादों के घरेलू विकल्पों की उपलब्धता
सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा तबतक संभव नहीं होगा, जबतक कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र
का पूरी तरह से कायापलट नहीं होता है, लेकिन न तो इसको लेकर सरकार गंभीर है और न
ही जनता। सरकार को पता है कि जनता थोथे नारों से खुश हो जायेगी और इसीलिए कभी वह
‘मेड इन इण्डिया’ की बात करती है, तो कभी ‘मेक इन इण्डिया’ की और कभी ‘आत्मनिर्भर
भारत’ की; और इन सबके परिणाम वही ‘ढ़ाक के तीन पात’। आज भी, भारत की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान लगभग
16 प्रतिशत के उसी स्तर पर विद्यमान है
जहाँ पर यह सन् 2011 में राष्ट्रीय विनिर्माण-नीति की शुरुआत के समय था। रही बात जनता की, तो उसे सस्ते उत्पादों से मतलब है।
अब वे उत्पाद भारत के हों अथवा चीन के या फिर इंग्लैंड के, इससे उसे बहुत मतलब
नहीं है। उनकी देशभक्ति, उनका राष्ट्रवाद महज फेसबुक, व्हाट्स एप्प, ट्विटर आदि
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर थोथी नारेबाजी के ज़रिये टाइमपास तक सीमित है; और उसके
लिए भी उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के आईटी सेल की उत्प्रेरणा की ज़रुरत होती है।
स्रोत-सामग्री:
1. चीनी उत्पाद बहिष्कार के किंतु-परंतु: पुष्प
रंजन (दैनिक
ट्रिब्यून, 16 जून)
2. भारतीय अर्थव्यवस्था के रिसते जख्म: भरत
झुनझुनवाला (दैनिक ट्रिब्यून, 16 जून)
3. आत्मनिर्भर
भारत ही असली जवाब: विवेक काटजू (दैनिक हिन्दुस्तान, 17 जून)
4. आर्थिक
मोर्चे पर मुकाबला संभव: अरुण कुमार (दैनिक हिन्दुस्तान, 18 जून)
5. Easier Said: Indian Express Editorial
6. Indian nationalists should stop using ‘boycott Chinese products’
to please themselves: Global Times Editorial
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