गुजराल-डॉक्ट्रिन,1996
(पंचशील का
विस्तारित रूप)
प्रमुख आयाम
1.
गुजराल डॉक्ट्रिन: पृष्ठभूमि
2.
नेहरुवादी विदेश-नीति: पुनर्परिभाषित
3.
पंचशील-पुनर्परिभाषित
4.
पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की जटिलता
5.
लोकल रणनीति,
ग्लोबल सोच
6.
गुजराल-डॉक्ट्रिन: प्रमुख अवयव
7.
पंचशील से भिन्नता
8.
डॉक्ट्रिन
की सीमाएँ
9.
विश्लेषण
गुजराल
डॉक्ट्रिन: पृष्ठभूमि:
सन् 1990 में सोवियत संघ के
विघटन और साम्यवादी ब्लॉक के बिखराव के साथ भारत के समक्ष यह चुनौती उत्पन्न हुई
कि वह बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित करने की कोशिश करे
और इसके कारण जो नवीन चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, उनसे निबटने की कोशिश करे। साथ
ही, यह वह दौर था जिसमें भारत के प्रति पाकिस्तान की शत्रुता बढ़ती चली गयी और
पाकिस्तान सहित भारत के निकटतम पड़ोसी देशों ने भारत के बढ़ते कद से आशंकित होकर
उसकी बढ़ती शक्ति एवं उसके बढ़ते प्रभाव को प्रति-संतुलित करने के लिए चीन से
नज़दीकियाँ बढ़ानी शुरू की। वैश्विक महाशक्ति बनने की आकांक्षा पाले चीन ने उसे
रेस्पोंड करना शुरू किया और चीन के इस रिस्पांस ने भारत के लिए परेशानियाँ खड़ी
करनी शुरू की। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने अपने राष्ट्रीय सामरिक एवं
सुरक्षा-हितों को संरक्षित करने के लिए अपनी विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता
महसूस की। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि अबतक:
1.
भारत की विदेश-नीति पश्चिम के बड़े देशों की ओर उन्मुख थी,
2.
उसका रुझान यथार्थ की बजाय आदर्शों की ओर कहीं अधिक था, और
3.
उसमें अबतक भारत के पड़ोसी देशों, विशेषकर छोटे पड़ोसी देशों
और विस्तृत पड़ोस को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया था।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें
सन् 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी.
नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए नेहरु-युग
की विदेश-नीति से दूर ले जाने की कोशिश शुरू हुई, ताकि:
1.
इसे यथार्थ पर आधारित बनाया जा सके,
2.
बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित किया
जा सके, और
3.
राष्ट्रीय हितों को बेहतर तरीके से संरक्षित किया जा सके।
नेहरुवादी
विदेश-नीति: पुनर्परिभाषित
इस दिशा में कोशिश की गयी,
लुक ईस्ट पालिसी के जरिये और गुजराल डॉक्ट्रिन के जरिये। सन् 1991 में पहले
तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने लुक ईस्ट पॉलिसी (Look East Policy) की घोषणा
करते हुए भारत के दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों
की अहमियत को स्वीकार किया और फिर, सन् 1996-97 के दौरान देवगौड़ा-सरकार
में विदेश-मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने गुजराल-डॉक्ट्रिन
के जरिये भारत के दक्षिण एशियाई छोटे पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार
करते हुए भारतीय विदेश-नीति को उनकी ओर कहीं ज्यादा अभिमुख किया। यह पर इस बात को
भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि 1990 के दशक में आकर ही भारत ने विदेश-नीति
के निर्धारण में घरेलू चुनौतियों एवं
प्राथमिकताओं को कहीं अधिक अहमियत दिए जाने की आवश्यकता महसूस की और इसकी
पृष्ठभूमि में भारत की बाह्य एवं आतंरिक नीतियों
के बीच कहीं अधिक समन्वय कायम हुआ। उदाहरण के रूप में, लुक ईस्ट पॉलिसी
के निर्धारण में उत्तर-पूर्वी भारत की सुरक्षा एवं विकास-संबंधी चुनौतियों की
महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका रही।
पंचशील-पुनर्परिभाषित:
तेजे से बदलते हुए
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के बीच गुजराल ने यह ऑब्जर्व किया कि भारत के प्रति पाकिस्तान का
शत्रुता-भाव निरंतर बढ़ता चला जा रहा है और इसके लम्बे समय तक बने रहने की संभावना
है। समस्या यह है कि चीन भी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है और भविष्य में भारत के
विरुद्ध इन दोनों की नजदीकियाँ भी तेजी से बढ़ने की संभावना है। ऐसी स्थिति में
भारत को पाकिस्तान एवं चीन की सम्मिलित चुनौती का सामना करना होगा, लेकिन वह उस
चुनौती का प्रभावी तरीके से सामना तबतक नहीं कर सकता है जबतक कि अन्य छोटे पड़ोसी
देशों के साथ उसके सम्बन्ध बेहतर न हों और उनके बीच उसका गुडविल बेहतर न हो। इसी
सोच ने में सन् 1996-97 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा
के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार में विदेश-मंत्री इंद्र कुमार गुजराल, जो इस
सर्कार के ठीक बाद ग्यारह महीने के लिए देश के प्रधानमंत्री भी बने, ने भारत
के छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ के रूप में पंचशील-सिद्धांत
को पुनर्परिभाषित किया जिसने मई,2014 तक छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी
देशों के सन्दर्भ में भारत की विदेश-नीति को आधार
प्रदान किया और जो बदले हुए रूपों में निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति के रूप
में आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
पड़ोसी देशों
के साथ संबंधों की जटिलता:
भारत के इन छोटे पड़ोसी देशों को उसके विशाल भौगोलिक आकार से, उसकी विशिष्ट आर्थिक पहचान से
और उसके अंतर्राष्ट्रीय कद से खतरा महसूस होता है। इसके अलावा, भारतीय
उपमहाद्वीप की समान ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि
में ये अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई, धार्मिक
और सांस्कृतिक पहचान खोने को लेकर आशंकित हैं। इस कारण अपनी भिन्न एवं
विशिष्ट पहचान बनाए रखने के लिए इन्हें लगातार संघर्ष करना होता है।
इसीलिए ये
भारत को लेकर एक प्रकार के हीनताबोध एवं कुण्ठा के
शिकार हैं। इसकी पृष्ठभूमि में भारत की बड़े भाई वाली भूमिका और समय-समय पर हाथ मरोड़ने वाली नीति इनके
मन में भारत को लेकर मौजूद आशंकाओं को गहराने का काम करती है और इसके परिणामस्वरूप
ये संतुलन कायम करने की रणनीति के तहत्
दूसरी बड़ी शक्तियों और विशेष रूप से चीन के साथ मेलजोल
बढ़ाने लगते हैं,
ताकि भारत पर दबाव निर्मित किया जा सके और उससे विशेष रियायतें हासिल की जा सकें। इसी आलोक में इनकी घरेलू
राजनीति भी भारत-समर्थन एवं भारत-विरोध की तर्ज़ पर दो धाराओं में भी
विभाजित होती दिखाई पड़ती है और इनके राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा भारत-विरोध का इस्तेमाल उग्र-राष्ट्रवाद को उभारने के लिए किया
जाता है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सामान्य कूटनीतिक दबाव भी इन्हें अपनी
संप्रभुता का उल्लंघन प्रतीत होता है और वे उस पर आग बबूला हो जाते हैं। सितंबर,1996 में पड़ोसी देशों
के साथ संबंधों की इन जटिलताओं को समझते हुए तत्कालीन विदेश-मंत्री इंद्र कुमार
गुजराल ने पहली बार एक स्थानीय नीति बनाई थी जिसका उद्देश्य था भारत की छवि को एक
क्षेत्रीय अधिनायक से बदलकर एक उदार देश की छवि बनाना, जो पड़ोसियों से बिना कोई
खास अपेक्षा रखे उन्हें साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो। स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य भारत के प्रति उसके
छोटे पड़ोसी देशों में विश्वास की पुनर्बहाली को
सुनिश्चित करना था और उनकी आशंकाओं का
निवारण करना था।
लोकल
रणनीति, ग्लोबल सोच:
कोलम्बो
में गुजराल डॉक्ट्रिन पर दिए गए स्पीच पर पंडित जवाहर लाल नेहरु के विज़न, जिसका गुजराल
ने अपने स्पीच में बारम्बार उल्लेख किया है, का सीधा-सीधा असर दिखता है।
उन्होंने नेहरु को उद्धृत करते हुए उस एशियाई
अस्मिताबोध की ओर इशारा करते हुए कहा, “हमलोग एशिया हैं और एशिया के
लोग दूसरों की तुलना में हमारे कहीं अधिक निकट हैं। भारत की अवस्थिति इस प्रकार की
है कि वह पश्चिमी, दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्व एशिया की धुरी है।” इसी
आलोक में गुजराल अपने इस विज़न के साथ उपस्थित
होते हैं, “एशिया-पेसिफ़िक क्षेत्र के भीतर खाड़ी क्षेत्र और मध्य एशिया से
निकटता दक्षिण एशिया में भारत की विशिष्ट भौगोलिक अवस्थिति हिन्द महासागरीय
क्षेत्र में इसकी उपस्थिति को महत्वपूर्ण बना देती है।”
इसी आलोक में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत के लिए अन्तर्निहित
संभावनाओं के दोहन के लिए गुजराल डॉक्ट्रिन के माध्यम से स्थानीय स्तर पर पहल की
और इसके जरिये दक्षिण एशियाई क्षेत्र में ऐसे परिवेश के सृजन का सपना देखा जिसमें
भारत उन संभावनाओं का दोहन करता हुआ अपना अंतर्राष्ट्रीय कद बढ़ा सकता है।
गुजराल-डॉक्ट्रिन: प्रमुख अवयव:
जनवरी,1997 में तत्कालीन विदेश-मंत्री इंद्र
कुमार गुजराल ने भंडारनायके सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज, कोलम्बो में ‘भारत की
विदेश नीति के आयाम’ विषय पर बोलते हुए ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ की रूपरेखा प्रस्तुत की,
जो आतंरिक मामलों में अहस्तक्षेप, अनाक्रमण, एक दूसरे की एकता, अखंडता एवं
संप्रभुता के प्रति सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संकल्पना पर आधारित है। उन्होंने इस डॉक्ट्रिन के पाँच मूल तत्वों को रेखांकित
किया:
1. भारत भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और श्रीलंका जैसे छोटे पड़ोसी देशों से भारत प्रतिफल की आशा नहीं
रखेगा,
पर सद्भाव एवं विश्वास की पुनर्बहाली और उसे मजबूती प्रदान करने के लिए अपनी तरफ
से जो भी संभव हो, करने को तत्पर रहेगा। कँवल सिब्बल
के अनुसार, भूटान को इस सूची से बाहर
रखा गया क्योंकि यह
भावना द्विपक्षीय संबंधों में अंतर्निहित थी। इसकी विशिष्टता इस बात में है कि
यह पारंपरिक
राजनयिक सोच से इतर विचार था। ‘गुजराल डॉक्ट्रिन’ इस
मायने में पंचशील से भिन्न है।
2. कोई दक्षिण एशियाई देश अपने भू-क्षेत्र का इस्तेमाल इस
क्षेत्र के दूसरे देशों के हितों के खिलाफ नहीं
होने देगा।
3. इस क्षेत्र का कोई भी देश अपने पड़ोसी देशों के आंतरिक मामलों में दखल नहीं
देगा। भारत पर बड़े भाई वाली भूमिका निभाने के आरोप के मद्देनज़र यह प्रावधान
महत्वपूर्ण था।
4. सभी दक्षिण एशियाई देश एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता के सम्मान
करेंगे।
5. सभी दक्षिण एशियाई देश शान्तिपूर्ण बातचीत के जरिये आपसी विवादों का द्विपक्षीय
समाधान निकालेंगे।
उन्होंने यह अपेक्षा ज़ाहिर की कि समय के साथ नेपाल, भूटान,
बांग्लादेश और भारत सहित इस महाद्वीप का समूचा पूर्वी-क्षेत्र परिवहन, ऊर्जा,
जल-प्रबंधन आदि के क्षेत्र में सहयोग के जरिये विकास का उभार देखेगा। उन्होंने ‘21वीं सदी: एशियाई सदी’ की और परोक्षतः इशारा
करते हुए कहा, “यदि इस क्षेत्र के सभी सात देशों के द्वारा इसका क्रियान्वयन
किया जाता है, तो इसकी परिणति दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय संबंधों की पुनर्संरचना के
रूप में हो सकती है और यह एशियाई पुनरोद्भव के नेतृत्वकर्ता के रूप में इस क्षेत्र
के उभर को संभव बनाएगा। और, यह सब संभव
होगा, द्विपक्षीय अंतःक्रिया और सार्क के रीजनल फ्रेमवर्क के जरिये।”
गुजराल-डॉक्ट्रिन:
पंचशील से भिन्नता
स्पष्ट
है कि गुजराल-डॉक्ट्रिन क्षेत्रीय
परिप्रेक्ष्य में पंचशील का ही विकसित एवं विस्तारित रूप है
जिसे एकतरफा रियायतें पंचशील से अलगाती हैं। इसका उद्देश्य पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध सुधारना और
पारस्परिक विश्वास की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करना है। पंचशील से इसकी भिन्नता को निम्न सन्दर्भों में रेखांकित
किया जा सकता है:
1. प्रतिपादन की दृष्टि से: जहाँ पंचशील के सिद्धांत का प्रतिपादन भारत और चीन ने
मिलकर किया था, वहीं गुजराल-डॉक्ट्रिन विशुद्ध
रूप से भारतीय कूटनीति की उपज है।
2. उद्देश्य की दृष्टि से: पंचशील का लक्ष्य भारत एवं चीन की सुरक्षा चिंताओं का
समाधान करते हुए उन्हें एक-दूसरे को लेकर आश्वस्त करना था, ताकि वे घरेलू
चुनौतियों से निबटने और विकास-प्राथमिकताओं पर विशेष ध्यान दे सकें। इसके विपरीत गुजराल-डॉक्ट्रिन का
उद्देश्य भारत को लेकर उसके छोटे पड़ोसी देशों की
आशंकाओं का निवारण करते हुए उनके साथ संबंधों में सुधार को सुनिश्चित करना था।
3. अलग-अलग दायरा: पंचशील
का सिद्धांत मूलतः द्विपक्षीय संबंधों को लक्षित करता है, यद्यपि क्षेत्रीय एवं
अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके महत्व से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। इससे भिन्न गुजराल-डॉक्ट्रिन
का प्रतिपादन क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में किया गया था। इसके जरिये पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्याँमार को छोड़कर
भारत के अन्य सभी छोटे दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों को शामिल किया गया था।
4. एकतरफा रियायत की संकल्पना: गुजराल-डॉक्ट्रिन
में पंचशील का मूल भाव तो मौजूद है, पर यह इन छोटे पड़ोसी देशों के साथ बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा के एकतरफा रियायत
(Unilateral Concession) की बात करता
है जो पंचशील में नहीं था।
5. सुरक्षा चिंताओं का समाधान: गुजराल-डॉक्ट्रिन में एक-दूसरे की सुरक्षा चिन्ताओं का भी
समाधान प्रस्तुत किया गया है इसमें कहा गया है कि भारत और उसके पड़ोसी देश एक-दूसरे के खिलाफ़ अपने भू-क्षेत्र या अपनी ज़मीन का
इस्तेमाल नहीं होने देंगे। साथ ही, इसमें पड़ोसी
देशों के साथ विवादों के द्विपक्षीय समाधान पर बल
देते हुए कहा गया है कि दोनों पक्षों के द्वारा एक-दूसरे के साथ विवादों का
निपटारा शांतिपूर्ण बातचीत के जरिये किया जाएगा।
डॉक्ट्रिन की सीमाएँ:
जहाँ तक गुजराल-डॉक्ट्रिन की सीमाओं का प्रश्न अहि, तो इसकी महत्वपूर्ण
सीमा पाकिस्तान को लेकर इसके नज़रिए और दक्षिण
एशियाई देशों के नेतृत्व में पाकिस्तान के बिना एशियाई पुनरोत्थान की परिकल्पना
के सन्दर्भ में है। पाकिस्तान
को इसके दायरे से बहार रखा गया, जबकि दक्षिण एशिया में भारत-पकिस्तान द्विपक्षीय
सम्बन्ध अहम् समस्या थी और इसमें सुधार को सुनिश्चित किये बिना दक्षिण एशियाई
परिदृश्य में बदलाव आता और पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्धों में सुधार संभव
हो पाता, इसकी उम्मीद बेमानी थी। लेकिन, इस नज़रिए से देखें, तो पंडित जवाहर लाल
नेहरु और उनके पंचशील की तुलना में गुजराल और गुजराल डॉक्ट्रिन की सोच यथार्थवाद
के कहीं अधिक करीब थी। कारण यह कि 1990 के दशक में
जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद चरम पर होने के कारण यह उम्मीद
बेमानी था कि वह गुजराल डॉक्ट्रिन के मूल तत्वों का सम्मान करेगा। कारगिल
युद्ध,1999 सहित आगे के घटनाक्रमों से ये बातें पुष्ट हुईं।
इसकी दूसरी महत्वपूर्ण सीमा यह थी कि इसने भारत के छोटे पड़ोसी देशों के लिए भारत की ओर से जिस एकतरफा रियायत का
आश्वासन इस अपेक्षा के साथ दिया कि इससे उनकी आशंकाओं का निवारण होगा
और उनके बीच भारत का गुडविल विकसित होगा; लेकिन व्यवहार के धरातल पर ऐसा सम्भव
नहीं हो पाया। इसके उलट, इसने भारत की बड़े भाई वाली छवि को सुदृढ़ करने का काम किया।
इसकी तीसरी महत्वपूर्ण सीमा यह थी कि इस डॉक्ट्रिन में इस समझ का अभाव दिखता है कि कूटनीतिक संबंधों में
व्यावहारिक धरातल पर सदाशयता के लिए बहुत स्पेस नहीं होता है। इसकी
तुलना में कूटनीतिक सम्बन्ध पारस्परिक हितों से कहीं अधिक निर्देशित होते हैं।
गुजराल-डॉक्ट्रिन: मूल्यांकन
स्पष्ट
है कि गुजराल-डॉक्ट्रिन के पीछे उनकी यह सोच थी, “यदि
किसी देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबदबा कायम करना है, तो सबसे पहले उसे अपने
पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते सही करने होंगे।”
इसी सोच के अनुरूप उन्होंने गुजराल-डॉक्ट्रिन के जरिये भारत की विदेश-नीति को दिशा
देने की कोशिश की और सन् 1996 में अमेरिकी दबावों के बावजूद उनके नेतृत्व में भारत
ने सीटीबीटी पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। पूर्व विदेश-सचिव कँवल सिब्बल के अनुसार, “सन् 1996 में पड़ोसी देशों
के परिप्रेक्ष्य में भारत ने जिस गुजराल-डॉक्ट्रिन की प्रस्तावना की, उसका
उद्देश्य भारत की ‘क्षेत्रीय अधिनायक’ वाली छवि को परिवर्तित करते हुए एक उदार देश
के रूप में उसकी छवि निर्मित करना था, जो बिना किसी अपेक्षा के अपने पड़ोसियों को
साथ लेकर चलने की इच्छा रखता हो।” इस डॉक्ट्रिन की सफलता दो बातों पर
निर्भर करती थी:
1. भारत
कितनी गंभीरता से इसे अपने आचरण में उतारने की कोशिश करता है क्योंकि यही कोशिश
व्यावहारिक धरातल पर इस नीति की प्रभावशीलता को सुनिश्चित करती?
2. व्यावहारिक
धरातल पर इस नीति की प्रभावशीलता इस बात
पर भी निर्भर करती जिन पड़ोसी देशों के लिए इसे प्रस्तावित किया गया है, वे भारत पर
भरोसा करते हुए कितनी अनुक्रियाशीलता प्रदर्शित करते हैं और वे स्वयं ही इन
सिद्धांतों का कितना अनुपालन करते हैं?
स्वयं, गुजराल
ने दिसंबर,1996 में भारत-बांग्लादेश गंगा-जल संधि गुजराल डॉक्ट्रिन
की एक बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन,
इस डॉक्ट्रिन की विडंबना यह रही कि आवश्यकता इस बात की है कि अगर गुजराल ज्यादा
दिनों तक इसे व्यावहारिक रूप देने के लिए मौजूद नहीं रहे क्योंके विदेश-मंत्री एवं
प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल बहुत ही छोटा रहा। साथ ही, उनके बाद
जो सरकारें आयीं, यह डॉक्ट्रिन उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा और इसका आधे-अधूरे मन
से क्रियान्वयन हुआ जिसके कारण यह अपेक्षित परिणाम दे पाने में असमर्थ रहा। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि यह
अप्रासंगिक था या आज इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अगर वर्तमान सरकार निकटतम पड़ोस प्रथम की नीति को
लेकर वाकई गंभीर है, तो इसे ‘गुजराल-डॉक्ट्रिन’ के द्विपक्षीय बातचीत, अहस्तक्षेप
और क्षेत्रीय अखंडता जैसे तत्वों को अपनाते हुए उसे अंतर्राज्यीय सहयोग का आधार
बनाना चाहिए, तभी शायद निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति प्रासंगिक भी बनी रह पायेगी और
अपने लक्ष्यों को भी प्राप्त कर सकेगी।
No comments:
Post a Comment