Thursday 25 January 2024

धर्मनिरपेक्षता: फ़्रांस और भारत एक दूसरे के अनुभवों से क्या सीख सकते हैं ?

 

फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता और भारत

बहुसंख्यकों को केन्द्र में रखकर विकसित फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता मॉडल:

दुनिया में धर्मनिरपेक्षता के क्लासिकल मॉडल की चर्चा होती है, तो फ्रांस का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। एक धर्मनिरपेक्ष देश होने के नाते फ्रांस में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का कठोरता से अनुपालन किया जाता है। अब समस्या यह है कि फ्रांस ऐसा देश है जो खुद के धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता ईसाईयत की पृष्ठभूमि में आकार ग्रहण करती है और इसके स्वरुप का निर्धारण बहुसंख्यक ईसाइयों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए हुआ है। यह मॉडल तबतक प्रभावी तरीके से काम करता रहा जब तक कि फ्रांसीसी समाज मुख्य रूप से ईसाई समाज बना रहा। लेकिन, जैसे ही आप्रवासियों, विशेष रूप से मुस्लिम आप्रवासियों की बढ़ती हुई संख्या के कारण फ्रांसीसी समाज की जनांकिकीय संरचना बदलने लगी और फ़्रांसीसी समाज बहुलतावादी समाज में रूपान्तरित होने लगा, वैसे ही अल्पसंख्यक समुदाय अपनी धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर सजग हुआ और अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को लेकर इसने आग्रहशीलता प्रदर्शित करनी शुरू की। परिणाम यह हुआ कि सिख छात्रों ने पगड़ी पहनने की आजादी की माँग की, तो मुस्लिम छात्रों ने हिजाब पहनने की आज़ादी। फ्रांसीसी सरकार के द्वारा उनकी इस माँग को लगातार नकारा गया, लेकिन इसको लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है। और अब, इसने तो फ्रांसीसी समाज में टकराव एवं संघर्ष का रूप लेना शुरू किया है।

फ़्रांस की समावेशी राष्ट्रीयता:

इसी प्रकार फ्रांस का यह दावा है कि उसकी राष्ट्रीयता समावेशी है, इसलिए कि नागरिकता को लेकर फ्रांसीसी नीति उदार होने के कारण समावेशी है। वह यूरोपीय मूल के आप्रवासियों को ही नहीं, वरन् उत्तरी अफ्रीका से आये आप्रवासियों को भी उदारतापूर्वक अपनी नागरिकता उपलब्ध करवाता है। बस इसकी शर्त सिर्फ यह है कि वे अपने सार्वजानिक जीवन में फ्रांस की राष्ट्रीय संस्कृति और राष्ट्रीय भाषा को आत्मसात कर लें क्योंकि संस्कृति एवं भाषा फ्रांसीसी राष्ट्रीय पहचान के दो अनिवार्य पहलू हैं। वहाँ धार्मिक आस्था और विश्वास को निजी मामला मानते हुए लोगों को अपने निजी जीवन में अपनी व्यक्तिगत आस्थाओं एवं रिवाजों को बनाये रखने की अनुमति प्रदान की गयी है। यही कारण है कि फ्रांसीसी शिक्षण संस्थानों में सिख छात्रों को पगड़ी पहनने और मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनने की अनुमति नहीं है क्योंकि यह एक तरह से सार्वजानिक जीवन में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल है जिसकी इजाज़त फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता नहीं देती है।

मुस्लिम आप्रवासियों की बढ़ती संख्या:

दरअसल फ़्रांस यूरोप का सबसे बड़ा बहुलवादी देश है। यह मोरक्को, अल्जीरिया और ट्यूनीशिया जैसे देशों से घिरा हुआ है। पिछले तीन दशकों के दौरान फ्रांस से पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों में चलने वाले आतंक के विरुद्ध युद्ध में बढ़-ढ़कर हिस्सेदारी ली। इसके परिणामस्वरूप युद्ध से प्रभावित देशों से यूरोपीय देशों की ओर मुसलमानों के माइग्रेशन की प्रक्रिया तेज हुई। हाल के दशकों में आप्रवासियों के बढ़ते प्रवाह के कारण फ्रांसीसी समाज की सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता बढ़ी है। इस माइग्रेशन ने वहाँ की जनांकिकी संरचना को प्रभावित करना शुरू किया। इसके कारण फ्रांस पश्चिमी यूरोपीय देशों में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश के रूप में सामने आया है। फ्रांस की कुल आबादी में मुस्लिमों की भागीदारी 10 प्रतिशत के स्तर पर है, लेकिन यह समुदाय फ्रांसीसी समाज का सबसे पिछड़ा एवं अशिक्षित समूह है।    इसके फलस्वरूप फ्रांसीसी समाज में आर्थिक हितों को लेकर टकराव भी तेज हुआ और इसने सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष को भी उत्प्रेरित किया। इस क्रम में पिछले तीन दशकों के दौरान इस्लामिक समाज के रेडिकलाइजेशन की प्रक्रिया ने नई दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मौजूद मुस्लिम आबादी को भी कट्टरपंथ की ओर धकेला। फ्रांस इसका अपवाद नहीं है।

इस्लामिक उभार को लेकर फ़्रांस के बहुसंख्यक ईसाई समाज की आशंकाएँ:

अब समस्या यह है कि इस्लामी उभार को फ्रांस का बहुसंख्यक ईसाई समाज सन्देह की दृष्टि से देखने लगे हैं। उन्हें यह लगता है कि इस्लामी धर्मवाद फ्रांसीसी राष्ट्रवाद पर लगातार हावी हो रहा है जिसके कारण न केवल फ़्रांस की विशिष्ट राष्ट्रीय सांस्कृतिक एवं भाषायी पहचान खतरे में है, वरन् एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में फ्रांस का अस्तित्व भी संकट में पड़ सकता है। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति जैक शिराक का मानना है कि देश के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि धार्मिक चिन्हों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई जाए, ताकि राजनीति और धर्म को अलग-अलग रखा जा सके।

दरअसल फ्रांसीसी समाज में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही है, और अगर समय रहते फ्रांस ने इस संकट का समाधान निकलते हुए अविश्वास की इस खाई को पाटने की कोशिश नहीं की, तो देर-सबेर फ्रांसीसी समाज को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

धर्मनिरपेक्षता के प्रति फ्रांसीसी आग्रहशीलता का गलत सन्देश:

यह धर्मनिरपेक्षता के प्रति फ्रांसीसी आग्रहशीलता ही है जिसके कारण सन् 2004 में फ्रांस के द्वारा ऐसे कानून बनाए गए जो किसी भी व्यक्ति को अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करने से रोकते हैं। इसी प्रावधान के तहत् पहले सिखों को पगड़ी पहनने से रोका गया है और फिर मुस्लिम महिलाओं को बुर्का पहनने से, इस अपेक्षा के साथ कि ये पहलें फ्रांसीसी समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को तेज करेंगी। लेकिन, फ्रांसीसी शासन द्वारा धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक-सामाजिक व्यवहारों को प्रतिबंधित करने की कोशिश का अल्पसंख्यक समुदायों के बीच गलत संदेश गया। उन्होंने फ्रांसीसी शासन के ऐसे निर्देशों को अपने साथ ज्यादती के रूप में देखना शुरु किया और इन निर्देशों को अपनी धार्मिक सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरे के रूप में देखा। हाल के वर्षों में शार्ली एब्दो और चर्च पर हमला इस सामाजिक सांस्कृतिक कड़वाहट का प्रतीक माना और इसकी पृष्ठभूमि में फ्रांस की राजनीति में बहुसंख्यक के प्रति आग्रहशीलता के साथ टॉमस पेन के नेतृत्व में दक्षिणपंथी नेशनलिस्ट पार्टी के उभार ने इस संकट को और गहराने का काम किया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें धर्मनिरपेक्षता को लेकर कट्टरता तक की फ्रांसीसी आग्रहशीलता को फ्रांस के सांस्कृतिक संघर्ष का कारण माना जाने लगा।

धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल संकट का समाधान:

दरअसल फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता का मॉडल संकट में है। आवश्यकता इस बात की है कि नयी चुनौतियों के आलोक में बहुलतावादी समाज एवं संस्कृति की ज़रूरतों के अनुरूप यह खुद को पुनर्परिभाषित करे। इस क्रम में अगर वह चाहे, तो धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल, जो बहुलवादी समाज एवं संस्कृति की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर डिजाईन किया गया है, से सीख ले सकता है। इस सन्दर्भ में भारतीय अनुभव आसन्न संकट के समाधान में उसके लिए उपयोगी साबित हो सकते हैं।

दरअसल, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहाँ भी फ्रांस की तरह ही सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता है। लेकिन, जहाँ धर्मनिरपेक्षता का फ्रांसीसी मॉडल पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना के करीब है, वहीं भारत ने अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखते हुए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप धर्मनिरपेक्षता के अपने मॉडल को विकसित किया जो सभी धर्म के अनुयायियों को अपने अंतःकरण के अनुरूप धर्म एवं उपासना का अधिकार प्रदान करता है और उन्हें अपने धर्म को प्रचारित-प्रसारित करने की अनुमति प्रदान करता है। सामान्य स्थिति में यह धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप से परहेज करता है और अल्पसंख्यकों को इस बात की छूट प्रदान करता है कि वे अपनी भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण की दिशा में पहल कर सकें और धार्मिक शिक्षा देने के लिए अपनी रुचि के शिक्षण-संस्थान भी स्थापित एवं संचालित कर सकें। मतलब यह कि भारत ने संवैधानिक रूप से धार्मिक स्पेस सृजित करते हुए और अल्पसंख्यकों की भाषा एवं संस्कृति को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करते हुए अल्पसंख्यक समुदाय की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को मान्यता प्रदान की। इसके ज़रिये विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय की चिन्ताओं का समाधान प्रस्तुत किया गया और उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की। यह संविधानिक आश्वस्ति ही राष्ट्रीय एकीकरण एवं समेकन की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करने में समर्थ सिद्ध हुआ। दरअसल यह बतलाता है कि भारतीय संविधान-निर्माता कितने विज़नरी थे और उनके पास दूर-दृष्टि थी जिसके सहारे उन्होंने एक साथ वर्तमान और भविष्य, दोनों को साधा। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें यह कहा जाता है कि फ्रांस को धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल से सीख लेते हुए अल्पसंख्यक समुदायों के लिए धार्मिक स्पेस सृजित करना चाहिए और उनकी विशिष्ट धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण का आश्वासन देते हुए अल्पसंख्यकों के मन में बैठी हुई आशंकाओं को दूर करना चाहिए, अन्यथा इस सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष पर अंकुश लगा पाना मुश्किल होगा। फ्रांस को यह समझना होगा कि यही वह तरीका है जिसे अपनाकर वह अपनी अल्पसंख्यक आबादी को देश की मुख्यधारा से जोड़ते हुए राष्ट्रीय समेकन की प्रक्रिया को आगे बाधा सकता है और इसके रास्ते में उभरने वाले अवरोधों को दूर कर सकता है।

फ्रांसीसी अनुभव भारत के लिए सीख:

जहाँ तक फ्रांस के इन घटनाक्रमों से भारत के लिए सीख लेने का प्रश्न है, तो दक्षिणपंथी हिंदुत्व के उभार और इसके कारण भारतीय समाज के तेजी से होते रेडिकलाइजेशन ने अल्पसंख्यकों के मन में भय एवं आशंका को बढ़ाने का काम किया है। केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के दक्षिणपंथी हिंदुत्व की ओर रुझान, उसके द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंदुत्ववादी एजेंडे पर जोर और चुन-चुन कर लगातार धार्मिक रूप से संवेदनशील मसलों को उठाना: इन सबने मिलकर भारतीय समाज को विस्फोटक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। शेष काम मीडिया के द्वारा किया जा रहा है जिसके एजेंडे में लगातार हिन्दू-मुसलमान और भारत-पाकिस्तान बने हुए हैं। 

इतना ही नहीं, भारत के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और मालदीव: ये चार देश इस्लामिक देशों की श्रेणी में आते हैं और यहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं। इसके अलावा, श्रीलंका और नेपाल में इस्लाम तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, जहाँ बौद्ध-बहुल श्रीलंका में 9.7 प्रतिशत मुसलमान हैं, तो हिन्दू-बहुल नेपाल में 4.2 प्रतिशत मुसलमान। मतलब यह कि कहीं-न-कहीं इस मसले से पड़ोसी देशों के साथ सम्बंध भी प्रभावित होंगे, जैसा नागरिक संशोधन अधिनियम (CAA)-नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) विवाद के सन्दर्भ में देखने को मिला और विशेष रूप से अफगानिस्तान एवं बांग्लादेश ने इस मसले पर सख्त प्रतिक्रिया दी। इसके अतिरिक्त, इसका प्रतिकूल असर पश्चिम एशिया और खाड़ी देशों के साथ आर्थिक-सामरिक सम्बंधों पर भी पड़ सकता है जिनका भारत के लिए ऊर्जा-सुरक्षा एवं आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, वरन् रणनीतिक-सामरिक महत्व है।

ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता में धार्मिकता के लिए और अल्पसंख्यकों की चिन्ताओं के निराकरणके लिए जो संवैधानिक स्पेस सृजित किया गया है, उसे सुरक्षित रखा जाए। इससे उस भय एवं आशंका को दूर करने में मदद मिलेगी जो अल्पसंख्यकों के मन में गहरा रही है। अगर समय रहते इस दिशा में प्रभावी पहल नहीं की गयी, तो भारतीय समाज भी फ्रांस की तरह सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष के रास्ते पर बढ़ता चला जाएगा और भविष्य में इसकी बड़ी कीमत भारत के साथ-साथ भारतीयों को भी चुकानी पड़ेगी। लेकिन, इसके लिए यह भी आवश्यक है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियाँ इस बात को समझें कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं है।

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