Friday 26 May 2017

आम बजट में रेल बजट का विलय

      आम बजट में रेल बजट का विलय

रेल बजट को सामान्य बजट से अलग पेश करने की पिछले 92 वर्षों से चली आ रही परिपाटी 2017 में समाप्त हो गई, लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि आम बजट में रेल बजट के विलय के बावजूद रेलवे की अलग पहचान और कामकाजी स्वायत्तता बनी रहेगी। इसके संकेत जून,2016 में ही मिलने लगे थे। अगस्त,2016 में बाकायदा इसकी घोषणा कर दी गई थी। ध्यातव्य है कि 2015 में रेलवे के पुनर्गठन के प्रश्न पर विचार के लिए गठित विवेक देबराय पैनल ने भी इस दिशा में पहल का सुझाव दिया था। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आख़िर 1924 में रेल बजट को आम बजट से अलगाया क्यों किया गया था और आज इसे इस बार फिर आम बजट के साथ मिलाया क्यों जा रहा है?
आम बजट से अलगाने का आधार:
एकवर्थ समिति,1920 की सिफ़ारिशों के आलोक में आम बजट से पृथक रेल बजट पेश करने की व्यवस्था 1924 में शुरू की गई थी। सर विलियम एकवर्थ ने रेलवे के लिए एकीकृत प्रबंधन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि रेलवे के आंतरिक संसाधनों एवं वित्त पर वित्त मंत्रालय का नियंत्रण समाप्त हो और रेलवे को अपना बजट ख़ुद पेश करने की अनुमति दी जाय। इसका कारण यह था कि रेलवे के राजस्व ने सामान्य राजस्व को पीछे छोड़ दिया और इसीलिए रेल बजट का आकार आम बजट से कहीं अधिक बड़ा था। ऐसी स्थिति में दोनों का साथ-साथ होना आम बजट की अहमियत को पृष्ठभूमि में धकेल देता। अपने बड़े आकार के कारण रेल बजट आम बजट में किसी भी छोटे, किन्तु महत्वपूर्ण विचलन को ढक लेने में समर्थ था।
आज़ादी के समय भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जब रेल-राजस्व का आकार सामान्य राजस्व से 6% अधिक था। इसीलिए रेलवे कन्वेंशन समिति के प्रमुख सर गोपालस्वामी आय्यंगर ने इस परिपाटी को आज़ादी के बाद भी जारी रखने की अनुशंसा की।
बदला हुआ परिदृश्य:
आज का परिदृश्य बदल चुका है। पहली बात, आज रेलवे परिवहन का सर्वप्रमुख साधन नहीं रह गया है। परिवहन के प्रमुख साधन के रूप में सड़क ने रेलवे को प्रतिस्थापित कर दिया है। साथ ही, आज घरेलू विमानन कारोबार से प्राप्त राजस्व रेल-परिवहन से प्राप्त राजस्व से अधिक है। दूसरा, 1979 के दशक में रेल-राजस्व का आकार आम राजस्व के आकार का महज़ 30% रह गया है। 2016-17 में रेल बजट का आकार आम बजट का 6% रह गया है। इतना ही नहीं, रेलवे बदले हुए समय की बदली हुई चुनौतियों के अनुरूप अपने आपको नहीं ढाल पा रही है और इसीलिए इन चुनौतियों का सामना कर पाने में असमर्थ है। इसका कारण बहुत हद तक रेलवे की क्रिया-प्रणाली है और कुछ हद तक संसाधनों का अभाव।
इस दौरान रेलवे के साथ समस्या यह भी रही कि उसने स्वयं को शहरी-परिवहन(मेट्रो) सहित प्रचालन-संबंधी गतिविधियों पर फ़ोकस करने के बजाय उससे परहेज़ करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं विनिर्माण जैसी अन्य द्वितीयक गतिविधियों को प्राथमिकता दी। शायद यही कारण है कि रेलवे समय रहते सड़क-परिवहन और विमानन क्षेत्र की ओर से मिल रही नवीन चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रही है। रेलवे की क्रॉस-सब्सिडी वाली व्यवस्था, जिसके तहत् माल-भाड़े की क़ीमत पर यात्री-किराए को सब्सिडाइज्ड किया गया जिसने न केवल माल-ढुलाई में किराए एवं डोर-स्टैप डिलीवरी(Doorstep Delivery) के संदर्भ में सड़क परिवहन की ओर से मिल रही चुनौती का सामना करने में रेलवे को असमर्थ बनाया, वरन् संसाधनों की उपलब्धता को प्रभावित करते हुए रेलवे के क्षमता-विस्तार को भी प्रतिकूलत: प्रभावित किया। परिणामत: परिवहन-कारोबार में रेलवे की हिस्सेदारी निरन्तर घटती चली गई। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि माल ढुलाई से प्राप्त होने वाले राजस्व में रेलवे की कुल हिस्सेदारी 1950-51 के 89% से घटकर 2014-15 में 30% रह गई है और इसके सापेक्ष 2011-12 में सड़क-परिवहन की हिस्सेदारी 65% के स्तर पर पहुँच गई है। इतना ही नहीं, रेलवे को कुछ नई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। 1990 के दशक में पेट्रोलियम उत्पादों के परिवहन में रेलवे की हिस्सेदारी 75% के स्तर पर थी, जो पाइपलाइन के ज़रिए सस्ते परिवहन-विकल्पों को अपनाने के कारण 10% के स्तर पर पहुँच चुकी है। रेलवे समय रहते इस चुनौती का भी सामना कर पाने में असफल रही, जबकि रेलवे के लिए यह स्रवाधिक लाभ का कारोबार था। स्पष्ट है कि रेल बजट-आम बजट के संदर्भ में न तो आज वह समस्या नहीं रह गई है जो समस्या आज़ादी के पहले एवं आज़ादी के बाद के कुछ वर्षों के दौरान थी, और न ही आज परिवहन सेक्टर की रेलवे पर वैसी निर्भरता नहीं रह गई है, जैसी उस समय थी।
विलय के प्रश्न पर विचार शुरू:
ऐसा माना जा रहा है कि रेलवे की वित्तीय हालत ने इस विलय की पृष्ठभूमि तैयार की है। वर्तमान में रेलवे के कुल ख़र्च का 50% वेतन एवं पेंशन मद में जाता है, रेलवे की कुल आय का महज़ 25% यात्री किराया के ज़रिए प्राप्त होता है और परिचालन लागत उच्च स्तर पर है। ऐसी स्थिति में रेलवे के लिए तकनीकी उन्नयन एवं आधुनिकीकरण या नई परिसम्पत्तियों एवं रेल-सुरक्षा मद के मद में निवेश कर पाना मुंश्किल है। रेलवे-सुधारों के प्रश्न गठित समितियों ने पृथक रेल बजट के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए आम बजट में इसके विलय पर ज़ोर दिया। 2015 में विवेक देबरॉय समिति ने विलय के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि ऐसा करने से रेल-बजट का बेजा राजनीतिक इस्तेमाल तो बंद होगा ही, रेल-सुधार के कदम उठाने में भी सहूलियत होगी। समिति का मानना था कि अलग से रेल बजट पेश करना केवल रस्मी है क्योंकि आम बजट के मुकाबले इसका आकार बहुत छोटा है। समिति ने सुझाव दिया था कि रेल-बजट सरकार के बजट के राजकोषीय अनुशासन और विकासात्मक रुख का हिस्सा होना चाहिए। इससे पहले कि समिति के सुझावों के अनुरूप विलय की दिशा में पहल की जाती, बदलाव के संकेत मिलने लगे। 2016-17 में बजटीय प्रस्तावों से इतर हटकर कोयला-ढुलाई के भाड़े में बदलाव या फिर प्रीमियम पैसेंजर ट्रेन में हवाई जहाज़ की तर्ज़ पर टिकटों की परिवर्तनीय किराये (Flexible Pricing) की दिशा में की गई पहल से इसी बात के संकेत मिलते हैं।
विलय के तर्काधार:
1. गठबंधन सरकारों के दौर में पृथक रेल बजट रेल-मंत्री के लिए अपने क्षेत्र और गठबंधन सहयोगियों को उपकृत करने के राजनीतिक साधन में तब्दील हो गया, संदर्भ चाहे नये मार्गों पर रेल-लाइन बिछाने का हो, या नयी ट्रेनों के परिचालन की घोषणा का, या फिर रेलवे के द्वारा नयी फैक्ट्रियाँ लगाने का; सर्वत्र रेल-मंत्री ने रेलवे की ज़रूरत, इसकी वित्तीय स्थिति और इसके स्वास्थ्य की धड़ल्ले से उपेक्षा करते हुए अपनी राजनीति चमकाने के लिए अपने गृह-राज्य, अपने संसदीय क्षेत्र और अपने गठबंधन सहयोगियों का विशेष ख़्याल रखा। परिणामत: रेलवे की स्थिति बिगड़ती चली गई। दूसरी तरफ, अन्य क्षेत्रों और अन्य परियोनाओं के लिए संसाधनों की उपलब्धता प्रभावित हुई जिसका प्रतिकूल असर रेलवे के क्षमता-विस्तार और इसकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर पड़ा। विलय रेलवे के राजनीतिकरण की संभावनाओं को सीमित करेगा, ऐसी सम्भावना है।
2. जब कृषि और उद्योग जैसे अर्थव्यवस्था के अन्य बड़े क्षेत्रों के लिए अलग से बजट नहीं आता, और जब रक्षा बजट, रेल बजट से बड़ा होते हुए भी आम बजट के हिस्से के तौर पर आता है, तो रेल बजट को अलग से लाने की परिपाटी बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं था।
3. जिस समय आम बजट से पृथक रेलवे बजट की कल्पना की गई थी,  उस समय परिवहन-तंत्र प्रमुखत: रेलवे पर निर्भर था और रेल बजट का आकार आम बजट से ज्यादा बड़ा था। इसीलिए रेलवे के विकास के लिए विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत थी। आज का परिवहन-तंत्र कहीं अधिक विविधीकृत है और यदि इसे भविष्य की चुनौतियों से निबटना है, तो इसके लिए समेकित परिवहन-रणनीति की ज़रूरत है जिसका निर्धारण रेल, सड़क, वायु एवं जल-परिवहन; इन चारों को ध्यान में रखते हुए अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। यह तभी संभव है जब रेलवे भी आम बजट का हिस्सा बने।
4. इस विलय से अब रेलवे को हर साल वार्षिक लाभांश के रूप में वह राशि नहीं देनी पड़ेगी जो सरकार से प्रति वर्ष मिलने वाले बजटीय समर्थन के बदले देना पड़ता है। इससे रेलवे को 10,000 करोड़. रूपए की सालाना बचत होगी।
5. यह रेलवे-सुधारों के मार्ग को प्रशस्त करेगा और इसके परिणामस्वरूप रेलवे के लिए अपनी प्राथमिक गतिविधियों पर फ़ोकस कर पाना संभव हो सकेगा।
6. यह विलय रेलवे को संसाधनों को जुटा पाने में सक्षम बनाएगा क्योंकि राजनीतिक के बजाय व्यावसायिक आधार पर रेलवे का संचालन इसकी लाभप्रदता की संभावनाओं को बल प्रदान करेगा और यह रेलवे में निवेश के लिए निवेशकों को प्रोत्साहित करेगा। फलत: रेलवे के लिए पूँजीगत ख़र्चों को बढ़ा पाना संभव हो सकेगा जो अंतत: रेलवे के क्षमता-विस्तार में सहायक साबित होगा। इससे कनेक्टिविटी के स्तर में सुधार होगा और देश की आर्थिक संवृद्धि को गति मिलेगी।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि पृथक रेल बजट की समाप्ति और सामान्य बजट में इसका विलय रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाएगा। रेल मंत्रालय की स्थिति भी दूसरे मंत्रालयों जैसी होगी और शायद रेलमंत्री का भी राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं होगा। अब रेलवे से जुड़े प्रस्ताव आम बजट के हिस्से होंगे और रेलवे के आय-व्यय के ब्योरे को संसद में वित्त मंत्रालय पेश करेगा। सरकार सुनिश्चित करेगी कि रेलवे खर्च पर हर साल अलग से चर्चा हो, ताकि विस्तृत संसदीय समीक्षा और जवाबदेही बनी रहे। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि इससे रेलवे की प्रक्रियात्मक स्वायत्ता (Functional Autonomy) पर किसी असर की संभावना नहीं है। इतना ही नहीं, अब यात्री-किराया और माल-भाड़ा बढ़ाने के लिए सरकार को रेल बजट का इंतजार करने और संसद की सहमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी। देबरॉय समिति ने अपनी सिफारिश में स्पष्टत: कहा है कि रेलवे अधिनियम, 1989 के तहत इस तरह के फैसले प्रशासनिक कार्रवाई की तरह भी किए जा सकते हैं।
जब रेलवे बजट का आम बजट में विलय किया जा रहा था, उस समय कहा गया था कि अब रेलवे को पहले की तरह हर साल लाभांश देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार रेलवे से मिलने वाले लाभांश पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। सरकार की नज़र रेलवे के उन 14 सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त होने वाले राजस्व पर है जो अबतक रेलवे के माध्यम से वित्त मंत्रालय को प्राप्त होता रहा है। आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने कहा कि चूँकि रेलवे वेतन एवं पेंशन समेत अपना व्यय अपनी आय से पूरा करता है, इसीलिए बजट को आम बजट में मिलाने से कोई बदलाव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि रेलवे का राजस्व अब भारत की संचित निधि में आएगा और व्यय को इस कोष से पूरा किया जाएगा। इसलिए यह आम बजट के वित्त को प्रभावित नहीं करेगा। चूँकि रेलवे का कर्ज सरकार का कर्ज है, इसलिए विलय से सरकार का कर्ज भी नहीं बढ़ेगा। इतना ही नहीं, संसाधनों के लिए रेलवे की भारतीय रेलवे वित्त निगम(IRFC) पर निर्भरता समाप्त होगी और यह बाहरी स्रोतों के साथ-साथ आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को जुटा पाने में कहीं अधिक समर्थ होगा क्योंकि समय के साथ बेहतर रिटर्न की संभावना वाली परियोजनायें निवेश को आकर्षित करने में समर्थ होंगी।
लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि विलय रेलवे-सुधारों का एक पहलू है, एकमात्र पहलू नहीं और सर्वप्रमुख पहलू नहीं। साथ ही इसकी अपनी जटिलतायें हैं। इसलिए महत्वपूर्ण विलय नहीं, महत्वपूर्ण है रेलवे-सुधारों की दिशा। अगर यह विलय दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में रेलवे में संरचनात्मक बदलावों का मार्ग प्रशस्त करता है, कारोबारी संस्थाओं की तर्ज़ पर कॉमर्शियल एकाउंटिंग की पारदर्शी लेखांकन व्यवस्था को रेलवे के द्वारा अपनाया जाता है और रेलवे परियोजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के ज़रिये बेहतर उत्पादकता, उच्चतर राजस्व एवं आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को सुनिश्चित कर पाने में सफल रहता है, तभी इसकी सार्थकता है, अन्यथा नहीं। और, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि रेलवे को कहाँ तक ऑपरेशनल स्वायत्तता मिल पाती है, कहाँ तक इसका परिचालन राजनीति के बजाय वाणिज्यिक आधार पर संभव हो पाता है और सरकार इस सन्दर्भ में कहाँ तक राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित कर पाती है। इसीलिए अब केन्द्र को गम्भीरतापूर्वक स्वतंत्र रेलवे टैरिफ़ नियामक प्राधिकरण के गठन की दिशा में अविलम्ब पहल करनी चाहिए ताकि रेल-भाड़ों के निर्धारण की प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखा जा सके। रेलवे को यह सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए कि नई रेल-लाइनों और नई ट्रेनों के प्रश्न पर विचार राजनीति के बजाय आर्थिक वहनीयता के आलोक में किया जाय। साथ ही, रेलवे की आय बढ़ाने के लिए माँग-प्रेरित क्लोन ट्रेन सुविधा शुरू की जाय। सरकार से यह भी अपेक्षा है कि रियायती टिकट सहित सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के कारण रेलवे पर 37,000 करोड़ का जो अतिरिक्त वित्तीय दायित्व सृजित होता है, उसकी भरपाई सरकार अपने राजस्व से करे।
 

Sunday 7 May 2017

भारतीय वित्त-वर्ष में बदलाव

                    भारतीय वित्त-वर्ष में बदलाव
भारतीय वित्त-वर्ष की परम्परा:
भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जहाँ के वित्त वर्ष और सामान्य वर्ष का कैलेंडर अलग-अलग होता है। भारत में तो और भी भयावह स्थिति है जहाँ नए वर्ष की शुरूआत जनवरी से, वित्त-वर्ष की शुरूआत अप्रैल से, कृषि-वर्ष की शुरूआत जून से और रिज़र्व बैंक के वित्त-वर्ष के साथ-साथ शैक्षणिक सत्र की शुरूआत जुलाई से होती है। यद्यपि इसका बहुत बड़ा आर्थिक असर नहीं है, तथापि इसके कारण व्यावहारिक समस्यायें तो आती ही हैं। हाँ, यह जरूर है कि पिछले डेढ़ सौ साल के दोरान हम इसके अभ्यस्त हो चुके हैं। जुलाई में जबतक शैक्षिक-सत्र की शुरूआत होती है, तबतक सामान्य कैलेंडर में आधा वर्ष और वित्त वर्ष का एक-चौथाई हिस्सा निकल चुका होता है। इसीलिए सरकार के द्वारा शिक्षण-संस्थानों को मिलने वाले सालाना अनुदान का एक ही शिक्षा-सत्र में इस्तेमाल संभव नहीं हो पाता है। इतना ही नहीं, भारतीय समाज एवं संस्कृति की विविधता का असर वित्त-वर्ष की प्रचलित संकल्पना पर भी दिखाई पड़ता है। गुजरात में पारंपरिक रूप से अक्टूबर-नवंबर के समय दीवाली से नए साल की शुरुआत मानी जाती है, तो बंगाल में (13-15) अप्रैल के बीच पोइला बैसाख से महाराष्ट्र में मार्च-अप्रैल में गुड़ी पड़वा से नए साल की शुरूआत मानी जाती है, तो पंजाब में 13 अप्रैल को बैसाखी से और, इसी दौरान लोग नए बही-खाते की शुरूआत करते हैं मतलब यह कि सरकारी वित्त-वर्ष का पालन करते हुए भी भारतीय व्यापारियों ने कभी भारतीय परंपरा को नहीं छोड़ा और अपने बही-खातों की शुरूआत पारंपरिक रूप से करते रहे आधिकारिक रूप में भारत में शक कैलेंडर को मान्यता दी गई है और इसके अनुसार शक संवत् 1939 चल रहा है, पर यह प्रचालन में नहीं आ पाया हाल के दिनों में विक्रम संवत, जो मार्च-अप्रैल में पड़ने वाली चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से शुरू होता है, को लोकप्रिय बनाते हुए एक अप्रैल को नव संवत्सर मनाने की परंपरा तेज़ हुई है; यद्यपि इसकी शुरूआत की तिथि निर्धारित नहीं है, जैसा कि इस साल यह तिथि 28 मार्च को पड़ी थी
वित्त-वर्ष में बदलाव की पहल:
वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग कोई नई नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था की कृषि पर निर्भरता, कृषि की मानसून पर निर्भरता और मानसून की अनिश्चितता की पृष्ठभूमि में देश में जब-जब सूखा पड़ा है, वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग जोर पकड़ने लगी है। गाँधीवादियों और समाजवादियों के द्वारा तो इसकी माँग आजादी के बाद से ही की जाती रही है। अगर समाजवादियों ने वित्त वर्ष को कृषि वर्ष से जोड़ने की माँग की, तो अन्य ने वित्त-वर्ष को दीपावली से जोड़ने की, जब देश के कारोबारियों का नया साल शुरू होता है। उस समय तक खरीफ की फसल भी तैयार हो चुकी होती है और मानसून का भी पूरा-पूरा आकलन संभव हो पाता है। इसी आलोक में 1955 में मेघनाद साहा के नेतृत्व में CSIR कैलेंडर रिफार्म समिति का गठन किया गया। इस समिति ने भारत के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित तीस से अधिक कैलेंडरों का परीक्षण करते हुए शक संवत् को नेशनल कैलेंडर के रूप में अपनाए जाने की अनुशंसा की, ताकि कैलेंडर वर्ष को मानकीकृत किया जा सके। इसी आलोक में 1957 में शक संवत् को नेशनल कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया गया, यह बात अलग है कि यह प्रयास बहत सफल होता नहीं दिखा। 

एल. के. झा समिति की सिफारिशें:

आगे चलकर जब 1979-80 एवं 1982-83 में भयंकर सूखा पड़ा, तो वित्त-वर्ष में बदलाव की माँग एक बार फिर से जोर पकड़ी। इसी आलोक में बढ़ते हुए दबाव के मद्देनजर इस प्रश्न पर विचार के लिए 1984 में एल. के. झा की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया, जिसने अप्रैल,1985 में प्रस्तुत अपनी सिफारिश में वित्त-वर्ष को कैलेंडर-वर्ष में तब्दील करने के प्रश्न पर सहमति जताई
समिति ने इस प्रश्न पर विचार करते हुये कहा कि अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष में नीति-निर्माताओं और सरकार के लिए बजट-निर्माण की प्रक्रिया में मानसून-आकलन का समायोजन संभव नहीं रह जाता है, जबकि बजट सामाजिक-आर्थिक चिंताओं के निराकरण का एक महत्वपूर्ण उपकरण है और देश के सामाजिक-आर्थिक आयामों के निर्धारण में कृषि-क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि भारत में बोआई और खेती की दृष्टि दो प्रमुख फसल-सीजन हैं: खरीफ और रबी। खरीफ की निर्भरता दक्षिण-पश्चिम मानसून पर होती है, जबकि रबी की निर्भरता त्तर-पश्चिम मानसून पर। इनमें भी जल-सघन खरीफ की मानसून पर निर्भरता कहीं अधिक है और इसीलिए रबी की तुलना में खरीफ के उत्पादन में अस्थिरता कहीं ज्यादा है, जबकि खरीफ फसलों में चावल और दलहन खाद्य एवं पोषण-सुरक्षा में और विशेष रूप से चावल कृषि-निर्यात में अहम् भूमिका निभाता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए एल. के. झा समिति इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वित्त-वर्ष कोई भी हो, वह दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। फिर भी, उसने अपनी रिपोर्ट में वित्त-वर्ष में बदलाव की सिफारिश करते हए कहा कि बजट अक्टूबर में तैयार किया जाना चाहिए जब दक्षिणी-पश्चिमी मानसून समाप्त हो चुका होता है, खरीफ-उत्पादन की जानकारी उपलब्ध होती है और अपेक्षाकृत अधिक निश्चितता के साथ रबी का भी अनुमान लगाया जा सकता है। निश्चय ही समिति नए वित्त-वर्ष के रूप में जनवरी-दिसम्बर के पक्ष में थी, ताकि मानसून के प्रभावों का भी बेहतर समायोजन संभव हो सके। इससे वित्त-वर्ष और कैलेंडर-वर्ष के अलग-अलग होने के कारण जो अनावश्यक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, उससे भी बचा जा सकेगा
बदलाव के पक्ष में तर्क देते हुए झा समिति ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि “राष्ट्रीय सांख्यिकी से सम्बंधित आँकड़ें केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन(CSO) के द्वारा राष्ट्रीय खातों की संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की सिफारिशों और दिशा-निर्देशों के अनुरूप संग्रहित किये जाते हैं और इनके द्वारा संग्रहित ये आँकड़े संयुक्त राष्ट्र के समक्ष भी प्रस्तुत किये जाते हैं। ध्यातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा कैलेन्डर वर्ष के आधार पर आँकड़े जारी किये जाने के कारण कैलेन्डर वर्ष को ही प्राथमिकता दी जाती है। इसलिए अगर कैलेंडर वर्ष को वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किये जाने की स्थिति में राष्ट्रीय लेखा को अंतरराष्ट्रीय व्यवहारों के अनुरूप बनाया जा सकेगा, और अंतर्राष्ट्रीय आधार पर ये आँकड़े तुलनीय हो सकेंगे। समिति ने केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन(CSO) का हवाला देते हुए यह भी स्पष्ट किया कि  वित्त-वर्ष में परिवर्तन के कारण कोई महत्वपूर्ण व्यवधान उत्पन्न नहीं होगा। इसके उलट यह विभिन्न सांख्यिकीय श्रृंखलाओं की अवधि में एकरूपता के जरिए अपेक्षाकृत अधिक साफ़-सुथरी व्यवस्था को जन्म देगा।
स्पष्ट है कि समिति की दृष्टि से वित्त-वर्ष में बदलाव दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के प्रभाव से बजट को बचाने का काम करेगी लेकिन, मानसून-पूर्वानुमान में व्याप्त अनिश्चितताओं और इस अनिश्चितता से मुकाबले के लिए समुचित एवं पर्याप्त तैयारी में विफलता के मसले पर सहमति न बनने के कारण यह बदलाव संभव नहीं हो सका। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने तीन आधारों पर इसे स्वीकार नहीं किया:
1.     बदलाव के लाभ अत्यंत कम हैं
2.     वित्त-वर्ष में बदलाव बाजार से आँकड़ों के संग्रहण को प्रभावित करेगा और सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली में लम्बा समय लगेगा
3.     बदलाव के कारण कर-कानूनों एवं कर-व्यवस्था के साथ-साथ व्यय से सम्बंधित वित्तीय प्रक्रिया में व्यापक बदलाव की जरूरत होगी

स्पष्ट है कि तत्कालीन केंद्र सरकार को इसके बदलावों से लाभ कम और परेशानियाँ ज्यादा होती हुई दिखाई पडीं, इसलिए उसने वित्त-वर्ष में बदलाव का विचार त्याग दिया

शंकर आचार्य पैनल:
आगे चलकर 2014 और 2015 में लगातार दो वर्षों तक भारत की कृषि-अर्थव्यवस्था को कम बारिश और सूखे की चुनौती का सामना करना पड़ा, जिससे निपटने के लिए अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत महसूस हुई इसीलिये इस चुनौती से निपटने के लिए वित्त-वर्ष के दरम्यान ही कृषि से सम्बंधित वित्तीय योजनाओं को पुनर्गठित करने की जरूरत पड़ी। इसी पृष्ठभूमि में एक लम्बे अंतराल के बाद एक बार फिर से वित्त-वर्ष में बदलाव का प्रश्न राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आता दिखा। जुलाई,2016 में वर्तमान वित्त-वर्ष में बदलाव, इन बदलावों के औचित्य, और इन बदलावों के आर्थिक प्रभावों, विशेषकर कृषि-अर्थव्यवस्था एवं किसानों पर उसके प्रभावों के प्रश्न पर विचार के लिए वित्त-मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर एन. आचार्य की अध्यक्षता में चार सदस्यीय समिति का गठन किया गया। समिति में पूर्व कैबिनेट सचिव के. एम. चंद्रशेखर, राजीव कमार ओंर पी. वी. राजरामना भी शामिल थे। यद्यपि दिसम्बर,2016 में प्रस्तुत समिति की रिपोर्ट को अबतक सार्वजानिक नहीं किया गया है, तथापि ऐसा माना जा रहा है कि समिति ने बदलाव के पक्ष में तर्क देते हुए विभिन्न कृषि-फसलों, कारोबार, करारोपण व्यवस्था एवं प्रक्रिया, सांख्यिकी और आँकड़ा-संग्रहण पर इसके प्रभाव का उल्लेख किया है। कमेटी ने वित्त वर्ष को कैलेंडर वर्ष एक जनवरी से ही करने की सिफारिश की है, लेकिन अबतक इस रिपोर्ट को सार्वजानिक नहीं किया गया है। चूँकि इस कदम में केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों के हित बहुत कुछ जुड़े हुए हैं, ऐसे में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।

नीति आयोग के नोट:
इससे पहले कि इस पैनल की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाता और इस पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू होती, नीति आयोग के माध्यम से सरकार ने अपनी मंशा जाहिर कर दी कि वह वित्त-वर्ष में बदलाव के पक्ष में है। नीति आयोग ने इस बदलाव के पक्ष में मानसून एवं कृषि-आय से सम्बंधित आँकड़ों के संग्रहण में आने वाली कठिनाइयों का हवाला दिया और कहा कि यह बदलाव सरकार के लिए समय पर महत्वपूर्ण सांख्यिकीय आँकड़ों की उपलब्धता को सुनिश्चित करेगा जिससे सरकार बजट-आकलन प्रक्रिया का अधिक प्रभावी तरीके से निष्पादन कर सकेगी। इसी आलोक में नीति आयोग के नोट में दीपावली को वित्त-वर्ष की शुरूआत के लिए उपयुक्त समय माना गया है जो रबी की तुलना में खरीफ के अपेक्षाकृत अधिक महत्व और जीडीपी में योगदान की बजाय रोजगार की दृष्टि से कृषि के महत्व पर आधारित है; यद्यपि इस नोट में नीति आयोग ने यह भी स्वीकार किया कि जैसे-जैसे मानसून-पूर्वानुमान में सटीकता आयेगी और सिंचाई-सुविधा के विस्तार के साथ कृषि की मानसून पर निर्भरता घटेगी, और जीडीपी में कृषि के योगदान में कमी आयेगी, वित्त-वर्ष में बदलाव का प्रश्न बहुत प्रासंगिक नहीं रह जायेगा। इस नोट में नीति आयोग ने यह संभावना व्यक्त की है कि इसके दीर्घकालिक लाभ इसकी तात्कालिक लागत और इसके क्रियान्वयन में आने वाले अवरोधों पर भारी पड़ेंगे संसदीय पैनल ने भी इस मसले को आगे ले जाने का सुझाव दिया
नीति आयोग की बैठक:
अप्रैल,2017 में दिल्ली में नीति आयोग की गर्वनिंग काउंसिल की तीसरी बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए नया वित्त-वर्ष अपनाने पर ज़ोर दिया और मुख्यमंत्रियों से वित्त-वर्ष  में बदलाव के सुझाव पर गौर करने एवं इसे लागू करने के लिए उपयुक्त सुझाव देने की अपील की। उन्होंने कहा कि वित्त-वर्ष में बदलाव से सरकार को कृषि की दशा का आकलन करने में आसानी होगी और किसानों की बेहतरी के लिए बजट में बेहतर प्रावधान किए जा सकेंगे। उन्होंने बदलाव के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि खराब समय-प्रबंधन के कारण  कई अच्छी पहलें और योजनायें अपेक्षित परिणाम दे पाने में विफल रही हैं इसीलिए एक ऐसी मजबूत व्यवस्था विकसित करने की आवश्यकता है जो विविधताओं के बीच भी प्रभावी तरीके से कार्य कर सके। इसके मद्देनजर उन्होंने सरकार के तीनों स्तर पर और संसद एवं राज्य विधानसभाओं में व्यापक बहस चलाए जाने की अपील की।
मध्यप्रदेश के द्वारा पहल:
इससे पहले कि इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श की प्रक्रिया शुरू होती, मई,2017 में मध्यप्रदेश के कैबिनेट ने जनवरी-दिसम्बर को नए वित्त-वर्ष के रूप में अपनाते हुए अगला बजट इस वर्ष दिसम्बर माह में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया, जो इस दिशा में संकेत करता है कि किस प्रकार आज की राजनीति गंभीर-से-गंभीर मसलों पर भी विमर्श से परहेज करती दिख रही है। साथ ही, इस तरह के कदम संघीय भावना के भी खिलाफ हैं क्योंकि ऐसे कदम अनावश्यक रूप से राज्यों पर केंद्र के दबाव को बढ़ाते हैं। मध्यप्रदेश के द्वारा की गई इस पहल के बाद आंध्रप्रदेश ने भी नए वित्त-वर्ष को अपनाने की दिशा में सकारात्मक संकेत देते हुए कहा कि अगर केंद्र सरकार के द्वारा वित्त-वर्ष में बदलाव को लेकर कोई निर्णय लिया जाता है, तो आन्ध्रप्रदेश इस निर्णय को स्वीकार करेगा
संविधान-संशोधन अपेक्षित:
अगर इस दिशा में पहल करते हुए प्रस्तावित बदलाव को व्यावहारिक रूप दिया जाता है, तो सामान्य इस्तेमाल में लाये जाने वाले कैलेंडर और वित्त-वर्ष के कैलेंडर में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। इससे उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और निवेशकों को भी भारत में कारोबार करने में आसानी होगी जिनके द्वारा जनवरी-दिसंबर के चक्र को वित्त-वर्ष के रूप में अपनाया गया है। किन्तु, इसके लिए कई विधियों और कराधान कानूनों में संशोधन की आवश्यकता होगी।
भारतीय संविधान सरकारी लेखा-जोखा पर स्वतंत्र रूप से नज़र रखने के लिए नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का प्रावधान लेकर उपस्थित होता है अनुच्छेद 150 के अनुसार संघ और राज्यों के लेखाओं को ऐसे प्रारूप में रखा जाएगा जो राष्ट्रपति भारत के नियंत्रक महालेखा-परीक्षक की सलाह के अनुरूप होवर्तमान वित्त-वर्ष को जनरल क्लॉजेज ऐक्ट,1867 के तहत् अप्रैल-मार्च के रूप में परिभाषित किया गया गया है और अनुच्छेद 367(1) के तहत् वित्त-वर्ष की इस परिभाषा को तबतक के लिए स्वीकार किया गया है जब तक भारतीय संसद के द्वारा इसमें परिवर्तन नहीं कर दिया जाता। अतः वित्त-वर्ष में किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए संविधान में संशोधन की दिशा में पहल करनी होगी।

बदलाव के पक्ष में:
1.     दुनिया के विभिन्न देशों में वित्त-वर्ष का निर्धारण वहाँ की स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार किया जाता है, जबकि भारत आजादी के सत्तर साल बाद भी ब्रिटिश पंरपरा का अनुसरण कर रहे हैं। इसीलिए अप्रैल-मार्च वाले वित्त-वर्ष को औपनिवेशिक विरासत के रूप में बतलाते हुए यह तर्क दिया जाता है कि ऐसा सिर्फ ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से भारतीय अर्थव्यवस्था को समेकित करने के लिए किया गया था और इस क्रम में स्थानीय एवं राष्ट्रीय कारकों को अहमियत नहीं की गई इसलिए इसकी जगह नए वित्त-वर्ष को अपनाकर औपनिवेशिक विरासत से मुक्त होना समय की माँग है।     
2.     भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में, जहाँ कृषि-आय अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ औद्योगिक क्षेत्र एवं सेवा क्षेत्र का विकास भी बहुत कुछ कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन पर निर्भर करता है  और जहाँ की आधी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है, वहाँ बजट को कृषि-संबंधी आय प्राप्त होने के तत्काल बाद तैयार किया जाना चाहिए।  इससे वित्त-वर्ष को स्थानीय जरूरतों, और यहाँ की सामाजिक हकीकत से जुड़ने का अवसर मिलेगा।
3.     भारतीय कृषि और मानसून के अंतर्संबंधों और भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता के आलोक में नीति आयोग की वेबसाइट पर मौजूद नोट में वित्त-वर्ष में बदलाव की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है कि जब तक सरकारी अधिकारियों को नया आवंटन मिलता है, तब तक पिछले दक्षिण-पश्चिम मॉनसून का असर पुराना पड़ चुका होता है और नए आवंटन के जमीनी स्तर तक पहुँचने तक अगला मॉनसून करीब होता है जिसके कारण समायोजन की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। इसीलिए बजट ऐसे समय में तैयार किया जाना चाहिए जब बजट में मॉनसून के प्रभाव का समायोजन संभव हो सके, ताकि संसाधनों के इष्टतम दोहन को सनिश्चित किया जा सके और अपेक्षित परिणाम पाया जा सके। इससे बजट-लक्ष्यों को प्राप्त करना भी संभव हो सकेगा। इसीलिए यह सरकार को बजट-निर्माण प्रक्रिया को प्रभावी ढंग से नई दिशा देने में सक्षम बनाएगा।
4.    जनवरी में बजट पेश करने पर किसानों का खयाल रखने के साथ-साथ मुद्रास्फीति का आकलन, कारोबारियों के कारोबार का अंदाजा आदि लगाना आसान होगा। साथ ही, देश की बेहतरी के लिए बजट में बेहतर प्रबंधन किए जा सकेंगे।
अन्य देशों से तुलना:
यह कहना कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़ों के तुलनात्मक आकलन को आसान बनाने के लिए वित्त-वर्ष में बदलाव की जरूरत है, भी उचित नहीं है क्योंकि इस संबंध में वैश्विक स्तर पर एकरूपता का अभाव दिखता है। अमेरिकी खुफिया संस्था सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के वर्ल्ड फैक्टबुक के अनुसार दुनिया के 256 देशों में 156 देशों के द्वारा जनवरी-दिसम्बर अर्थात् कैलेंडर वर्ष को ही वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किया गया है, जबकि तैंतीस देशों के द्वारा अप्रैल-मार्च, बीस देशों के द्वारा जुलाई-जून और बारह देशों के द्वारा अक्टूबर-सितम्बर को 1974 में अमेरिका ने कांग्रेसनल बजट ऐंड इंपाउंडमेंट कंट्रोल एक्ट के जरिये संघीय सरकार के लिए जुलाई-जून की जगह अक्तूबर-सितंबर को नए वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किया था, जबकि अमेरिकी राज्यों के वित्त-वर्ष अलग-अलग तारीख़ों से शुरू होते हैं लेकिन, अमेरिकी आंतरिक राजस्व सेवा के द्वारा कर-वर्ष के रूप में लेखा-जोखा और आय-व्यय की रिपोर्टिंग के लिए कैलेंडर वर्ष का इस्तेमाल किया जाता है। अधिकांश अमेरिकी एवं यूरोपीय कंपनियों के द्वारा कारोबार के लिए कैलेंडर वर्ष का ही इस्तेमाल किया जाता है। रूस, चीन, ब्राज़ील, फ्रांस एवं ग्रीस का वित्त-वर्ष एक जनवरी से शुरू होता है, तो मिस्र, बांग्लादेश, ऑस्ट्रेलिया एवं पाकिस्तान का वित्त-वर्ष एक जुलाई से और दक्षिण अफ्रीका, हांगकांग, ब्रिटेन और कनाडा का वित्त-वर्ष एक अप्रैल से स्पष्ट है कि पूरी दुनिया में एक जनवरी से वित्त-वर्ष शुरू होने का कोई सर्वमान्य पैटर्न नहीं है इस बदलाव से भारत में निवेश बढऩे की भी कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि वित्त-वर्ष में भिन्नता निवेश में गतिरोध की वजह भी नहीं है।

बदलाव के विरोध में तर्क:
अर्थशास्त्री और नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय और किशोर देसाई के नीति आयोग के वेबसाइट पर प्रकाशित नोट में यह बताया गया है कि वर्तमान वित्त-वर्ष न तो मानसून से जुड़ता है, न कृषि से और न भारतीय संस्कृति से। इसका जोर इस बात पर है कि अमेरिका और चीन सहित दुनिया के ज्यादातर देशों के वित्त-वर्ष के साथ हमारे वित्त-वर्ष का मेल नहीं है क्योंकि अमेरिका का केंद्रीय वित्त-वर्ष अक्टूबर से शुरू होता है, जबकि चीन का वित्त-वर्ष एक जनवरी से। इसीलिए इसका मानना है कि वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने के लिए अप्रैल-मार्च की जगह जनवरी-दिसंबर के चक्र को नए वित्त-वर्ष के रूप में अपनाया जाय। लेकिन, इस नोट में इस बात की उपेक्षा की गई कि अमेरिका और चीन में नए वित्त वर्ष की शुरूआत अलग-अलग समय पर होती है। साथ ही, अगर इसी तर्क के आधार पर भारत में वित्त-वर्ष चक्र को बदलना उचित है, तो सबसे पहले इस तरह के बदलाव की दिशा में पहल अमेरिका को करनी चाहिए जहाँ संघ एवं राज्यों के वित्त-वर्ष अलग-अलग होते हैं। इतना ही नहीं, इस नोट में अप्रैल-मार्च वाले वर्तमान वित्त-वर्ष को औपनिवेशिक विरासत बतलाया गया है, इस तथ्य की उपेक्षा करते हुए कि भारतीय वित्त-वर्ष वही नहीं है जो ब्रिटिश वित्त-वर्ष है। ब्रिटिश वित्त-वर्ष की शुरूआत छह अप्रैल से होती है, लेकिन भारतीय वित्त-वर्ष की एक अप्रैल से।
इसी प्रकार यह सच है कि 1867 में ब्रिटेन की तर्ज़ पर भारत ने मई-अप्रैल की जगह अप्रैल-मार्च को नए वित्त-वर्ष के रूप में स्वीकार किया ताकि भारतीय वित्त-वर्ष को ब्रिटिश वित्त-वर्ष से सम्बद्ध किया जा सके, लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि यह भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के साथ-साथ स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप नहीं है। वास्तव में प्रस्तावित जनवरी-दिसम्बर की तुलना में वर्तमान अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष कृषि-मौसम से कहीं बेहतर सम्बद्ध है। मार्च के अंत तक रबी की फसलें (गेहूँ, सरसों, चना आदि) कटने के लिए तैयार होती हैं, और फसलों की वृद्धि के मामले में कृषि-कार्य कमोबेश पूरा होने के करीब होता है, केवल कटाई और विपणन का कार्य शेष रह जाता है। जनवरी-दिसम्बर वाले प्रस्तावित वित्त-वर्ष में तो खरीफ फसल भले ही तैयार हो गया हो, पर रबी की बोआई अभी चल ही रही होती है और यह प्रक्रिया जनवरी के मध्य तक जारी रहती है। ऐसी स्थिति में, जबकि फसल-वृद्धि की प्रक्रिया अभी आधी दूरी भी नहीं चल पाती, रबी-फसल का आकलन मुश्किल होगा। इसीलिए कृषि की दृष्टि से तो जुलाई-जून का वर्ष ही उचित है क्योंकि एक ओर रबी-फसलों की कटाई एवं विपणन का काम पूरा हो चुका होता है, दूसरी ओर मानसून के एक माह पहले आने के कारण खरीफ फसलों की बोआई का काम लगभग पूरा हो चुका होता है। इसीलिए अप्रैल-मार्च वाला वित्त-वर्ष परफेक्ट भले न हो, पर जनवरी-दिसम्बर की तुलना में कृषि-अर्थव्यवस्था के अनुरूप समायोजन में कहीं कहीं अधिक समर्थ है। साथ ही, यह उस चैत्र महीने से भी बहुत दूर नहीं है जब सांस्कृतिक रूप से भारत के एक बड़े हिस्से का नया वर्ष शुरू होता है। शायद इसीलिए यह कहा जाता है कि वित्त-वर्ष को कृषि से जोड़ने का तर्क मूल रूप से राजनैतिक ही रहा है। इसे विशेषज्ञों, यहाँ तक कि कृषि अर्थशास्त्रियों का भी कभी इसका समर्थन नहीं मिला। दरअसल यह अंतर्राष्ट्रीय कारोबारियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों(MNC’s) का बढ़ता हुआ दबाव है जिन्हें वित्त-वर्ष और कैलेन्डर वर्ष की भिन्नता के कारण कहीं-न-कहीं परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं।
जहाँ तक मॉनसून के खेती पर पडऩे वाले असर की बात है, तो कृषि-क्षेत्र, जो मॉनसून से प्रत्यक्षतः प्रभावित होता है, का जीडीपी में योगदान बमुश्किल 11 फीसदी है। इसीलिए जीडीपी में कृषि-क्षेत्र के अपेक्षाकृत सीमित योगदान और मानसून-पूर्वानुमान में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता के मद्देनजर वित्त-वर्ष में बदलाव के पक्ष में सरकार के द्वारा दिए जा रहे तर्कों बहुत औचित्य नहीं है। दूसरी बात, वित्त-वर्ष जनवरी में शुरू हो, या फिर अप्रैल में; दोनों ही स्थितियों में मानसून के आलोक में जो भी निर्णय लिए जायेंगे, वे चालू वित्त-वर्ष के सन्दर्भ में तो प्रासंगिक हो सकते हैं, आगामी वित्त-वर्ष के सन्दर्भ में नहीं। आगामी वित्त-वर्ष के सन्दर्भ में मानसून की अनिश्चितता और इस पर सरकार की निर्भरता आगे भी बनी रहेगी। अतः अप्रैल से वित्त-वर्ष की शुरूआत की स्थिति में बजट जनवरी/फरवरी में पेश किया जाएगा और ऐसी स्थिति में रबी फसल के पैदावार का आकलन आसान होगा। साथ ही, खरीफ का अनुमान लगाने में भी परेशानी नहीं होगी। अगर बजट में रबी और खरीफ फसल की स्थिति को ध्यान में रख कर प्रावधान किए जायेंगे, तो किसानों को ज्यादा फायदे होंगे। ऐसी स्थिति में जनवरी में बजट पेश करने पर किसानों का खयाल रखने के साथ-साथ मुद्रास्फीति का आकलन, कारोबारियों के कारोबार का अंदाजा आदि लगाना आसान होगा। साथ ही, बेहतर बेहतर बजट-प्रबंधन भी संभव हो सकेगा।
यह केवल एक बजट का मामला नहीं है और इस बदलाव के लिए पूरी अर्थव्यवस्था में ऐसे संस्थागत बदलाव लाने होंगे जिनकी लागत बहुत ज्यादा होगी। लगभग सभी प्रमुख आर्थिक संस्थानों को भी अपना अंकेक्षण बदलना होगा। इस कदम से ऐसे वक्त में व्यापक उठा-पटक पैदा होगी, जबकि देश का वित्तीय तंत्र नोटबंदी के प्रभाव से उभरने की कोशिश कर रहा है और आनेवाले समय में वस्तु एवं सेवा कर(GST) व्यवस्था लागू होने की संभावना के कारण इसे स्थिरता की जरूरत है। इतना ही नहीं, इस कदम की बदौलत देश के आर्थिक आँकड़ों को लेकर विद्यमान अस्पष्टता और बढ़ेगी। इतना ही नहीं, इस बदलाव से कारोबार जगत को भी नुकसान होने की बात कही जा रही है, क्योंकि इससे लेखा-जोखा की प्रक्रिया- कर प्रक्रिया, नए वित्तवर्ष के साथ समायोजन बनाने, बही-खातों के रख-रखाव, पाठ्यपुस्तकों में परिवर्तन, पुराने वित्तवर्ष से जुड़े सॉफ्टवेयर में बदलाव आदि करने पड़ सकते हैं। स्पष्ट है कि इस तरह के बदलाव के लिए भारी-भरकम पूँजी की जरूरत होगी।
निष्कर्ष:
संक्षेप में कहें, तो वित्त-वर्ष में बदलाव के किसी भी प्रश्न पर विचार करने के क्रम में इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मनमाने तरीके से किसी भी वित्त-वर्ष को स्वीकार करने की बजाय वित्त-वर्ष में बदलाव के प्रश्न पर भारतीय परिस्थितियों और भारतीय जरूरतों के हिसाब से विचार किया जाना चाहिए। ऐसा कोई भी निर्णय जल्दबाजी में न लिया जाय और किसी भी निर्णय से पूर्व सभी सम्बद्ध पक्षों के साथ व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। साथ ही, इस क्रम में लागत-लाभ आकलन को भी ध्यान में रखा जाय।




Reference:
1.  Change the fiscal year: By: Bibek Debroy
2.  Notes On Change In Financial Year:NITI Aayog
3.  On switching FY cycle, some questions:BShaji Vikraman
4.  Don’t Change the Financial Year,Change the Calendar: By Sandeep Singh

5.  वित्त-वर्ष में बदलाव और विकास: द्वारा सतीश सिंह