Sunday 4 September 2016

कश्मीर विवाद: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

                            जम्मू-कश्मीर विवाद 
जम्मू-कश्मीर भारत की दुखती हुई रग है. भारतीय राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मद्देनज़र यह भारतीयों के लिए सर्वाधिक सम्वेदनशील मुद्दे में तब्दील हो चुका है. यह भारत का अभिन्न अंग तो है, पर भारत संघ के अन्य राज्यों से इसकी स्थिति विशिष्ट है. इसकी इस विशिष्टता को अनु. 370 के विशेष परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है. भारतीयों का एक तबका इस अनुच्छेद को राष्ट्रीय एकीकरण के रस्ते में मौजूद महत्वपूर्ण अवरोध के रूप देखता है. इसीलिए समय-समय पर जम्मू-कश्मीर के इस विशेष दर्जे को समाप्त कर भारत संघ के साथ जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक-सह-राष्ट्रीय समेकन (National Integration) की प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुँचाने की बात की जाती है. 
यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि अनु. 370 किस प्रकार जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा प्रदान करता है और क्या इस दर्जे को समाप्त किया जा सकता है? अगर हाँ, तो फिर किस तरह? 
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                          PART  ONE
                    विलय को लेकर विवाद                                        
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विलय की परिस्थितियां:
यद्यपि कश्मीर घाटी में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलाया जा रहा प्रजातान्त्रिक आन्दोलन कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में था. तथापि कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भारत और पाकिस्तान में शामिल होने की बजाय अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना चाहा. उन्होंने भारत और पाकिस्तान, दोनों से यथास्थिति समझौता हेतु आग्रह किया था. पकिस्तान ने तो इस आग्रह को स्वीकारते हुए कश्मीर के साथ यथास्थिति समझौते पर हस्ताक्षर किया, लेकिन भारत ने इंतज़ार करने की रणनीति अपनाई. इसी बीच 22 अक्टूबर,1947 को हजारों की संख्या में कबायली पठानों द्वारा पकिस्तान की सीमा पार करके कश्मीर में प्रवेश ने एक जटिल चुनौती उत्पन्न की. यह परोक्षतः पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर कबायली हमला था जिसने कश्मीर के महाराजा को भारत या पाकिस्तान में किसी एक को चुनने के लिए विवश किया. पकिस्तान तो हमलावर ही था जिससे निपट पाना अकेले इनके वश में नहीं था. इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए इन्हें भारतीय मदद की ज़रुरत थी, पर भारत ने तबतक सैन्य-मदद से इंकार किया जबतक महाराजा कश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं लेते. मजबूरन महाराजा को विलय पर राजी होना पड़ा. अंततः भारत सरकार और महाराजा हरि सिंह के बीच 27 अक्टूबर 1947 को विलय-दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किये गए. स्पष्ट है कि कश्मीर पर पाकिस्तानी कबाइली हमले ने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जिन्होंने कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग को प्रशस्त किया.पर, यह विलय बिना शर्त नहीं हुआ. भारत को महाराजा की कुछ शर्तें स्वीकारनी पडी जिनका उल्लेख विलय-दस्तावेज़ में मिलता है.
शेख अब्दुल्लाह की भूमिका:
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत में कश्मीर के विलय के मार्ग को प्रशस्त करने में नेहरु-शेख अब्दुल्लाह की दोस्ती और शेख अब्दुल्लाह के रूख की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. शेख अब्दुल्ला कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में तो थे, पर उनका जोर शासन के लोकतंत्रीकरण और कश्मीर में लोकप्रिय प्रशासन के गठन पर था ताकि जनप्रतिनिधि कश्मीर के भविष्य का निर्धारण करने में सक्षम हो सके. नेहरु आरम्भ से ही कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में थे. पटेल का रूख कुछ अस्पष्ट था, लेकिन सितम्बर,1947 में पकिस्तान द्वारा हिन्दू-बहुल जूनागढ़ के जबरन विलय के बाद पटेल भी कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में खुलकर सामने आ गए. नेहरु की दिली इच्छा भारत में कश्मीर के विलय की प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुंचाने की थी ताकि भारतीय संघ में कश्मीर की स्थिति भी अन्य भारतीय राज्यों की तरह हो जाय, यद्यपि विलय की शर्तों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता वे लगातार प्रदर्शित करते रहे. इसी पृष्ठभूमि में भारत संघ के हिस्से के रूप में जम्मू-कश्मीर के भावी प्रशासन का भी स्वरुप निर्धारित हुआ. भारत-सरकार के दबाव में 30 अक्टूबर,1947 को महाराजा ने आदेश जारी कर शेख अब्दुल्लाह को आपात-प्रशासन का प्रमुख नियुक्त किया और 5 मार्च,1948 को प्रधानमंत्री के रूप में अंतरिम सरकार का मुखिया.
देशी रियासतों को लेकर भारत की नीति और कश्मीर:
भारत के द्वारा देशी रियासतों के भारत में विलय के लिए आत्मनिर्णय के सिद्धांत (Theory of Self Determination) को आधार बनाया गया. इसके तहत् इन देशी रियासतों की जनता को यह निर्णय लेना था कि वे भारत के साथ रहना चाहते हैं या नहीं. लेकिन, जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में वहां के लोगों को इस बात के निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया. वहां के शासक पर दबाव डालकर उनकी सहमति ली गयी और कश्मीर को भारत में मिला लिया गया. संविधान में जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दर्जे का अस्थायी तौर पर प्रावधान करते हुए यहाँ की संविधान सभा को इस निर्णय के लिए अधिकृत किया गया कि वह अगर इस अस्थायी उपबंध को समाप्त करना चाहती है, तो इसके लिए केंद्र से ऐसा करने की सिफारिश कर सकती है.
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि यहाँ के शासक हिन्दू थे, किन्तु अधिकांश प्रजा मुसलमान. इसीलिए पाकिस्तान द्विराष्ट्र सिद्धांत के आधार पर कश्मीर पर अपना दावा करता था. लेकिन, भारत ने कभी इस दावे को स्वीकार नहीं किया. 
विलय-दस्तावेज़ (Instrument of Accession):
          1948 में हस्ताक्षरित विलय के दस्तावेज़ के मुताबिक जम्मू-कश्मीर ने प्रतिरक्षा, संचार और विदेशी मामले में अपनी संप्रभुता भारत संघ को समर्पित करते हुए भारत का हिस्सा बनना स्वीकार किया, लेकिन अन्य मामलों में उसकी स्वायत्ता बनी रहनी थी. इसके तहत् जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान होगा, उसके राज्यपाल सदर-इ-रियासत कहलायेंगे और मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री. अन्य राज्यों की तर्ज़ पर भारतीय संविधान के अन्य प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए राष्ट्रपति को अधिकृत किया गया, लेकिन इसके लिए राज्य संविधान सभा द्वारा इसका पूर्वानुमोदन अपेक्षित था. विलय की शर्तों को विलय-दस्तावेज़ की निम्न धाराओं के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है:
1. धारा 5 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्य की सहमति हासिल किये बिना विलय-दस्तावेज़ में किसी प्रकार का संशोधन नहीं किया जा सकता है.
2. धारा 7 के अनुसार इस विलय-दस्तावेज़ की कोई भी चीज़ महाराजा को भविष्य में भारत के संविधान की स्वीकृति के लिए किसी भी तरह से प्रतिबद्ध नहीं करेगी.
3. धारा 8 के अनुसार इस दस्तावेज़ की कोई भी बात इस राज्य में और इस राज्य के ऊपर उनकी सम्प्रभुता की निरंतरता को प्रतिकूलतः प्रभावित नहीं करेगी.
विलय को लेकर विवाद:
“भारत जम्मू-कश्मीर के साथ जूनागढ़ और हैदराबाद की तरह व्यवहार न करे जिसे अधिग्रहण के बाद भारत में पूरी तरह से मिला लिया गया. जम्मू-कश्मीर के अधिग्रहण के बाद उसका भारत में विलय नहीं हुआ. अतः विश्वास की पुनर्बहाली के लिए की गई पहलें बहुत मददगार नहीं होंगी. यहाँ पर ज़रुरत है राजनीतिक समाधान की. इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह एक अंतर्राष्ट्रीय मसला है जिसका समाधान भारत, पकिस्तान और जम्मू-कश्मीर की त्रिपक्षीय वार्ता के ज़रिये निकला जाना चाहिए.”
यह कथन न तो जम्मू-कश्मीर के किसी अलगाववादी नेता का है और न ही किसी पाकिस्तान-परस्त का. यह कथन है जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का , जो उन्होंने अक्टूबर,2010 में वहां की विधानसभा को संबोधित करते हुए कहा था. यह कथन स्वयं, भारत में कश्मीर के विलय को लेकर समय-समय पर उठने वाले प्रश्न और इस प्रश्न की गंभीरता की ओर संकेत करता है.
इस कथन की पृष्ठभूमि पर गौर करें, तो इसका सम्बन्ध जुड़ता है विलय-दस्तावेज़ की वैधता को लेकर उठने वाले प्रश्नों से. अक्सर विलय-दस्तावेज़ की वैधता को लेकर प्रश्न उठाते हुए उन घटनाक्रमों का हवाला दिया जाता है जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है और जो विलय की वैधता एवं प्रमाणिकता को लेकर संदेह पैदा करते हैं. इस सन्दर्भ में विलय से सम्बद्ध विभिन्न पक्षों के परस्पर-विरोधी दावों-प्रतिदावों से भी संदेह गहराता हुआ दिखाई पड़ता हैभारत सरकार का दावाहै कि उसकी सेना ने विलय-दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर होने के बाद श्रीनगर एयरपोर्ट पर कदम रखा. लेकिन, इस सन्दर्भ में परस्पर-विरोधी सूचनाएँ मिलती हैं. 
घटनाओं के अस्पष्ट क्रम:
घटनाओं के क्रम को लेकर अस्पष्टता इन संदेहों को बल प्रदान करती है. कहा जाता है कि 24 अक्टूबर,1947 को कश्मीरी जनता ने डोगरा-राज से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए आज़ाद कश्मीर सरकार के नाम से अपनी सरकार का गठन किया. डोगरा राज की तानाशाही के खिलाफ इन विद्रोहियों को उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त के विद्रोहियों के जनजातियों का साथ मिला जिनके हमले ने                                                                                                                                                                                                 महाराजा हरि सिंह के सामने मौजूद संकट को गहराने का काम किया. उन्होंने अपने उप-प्रधानमंत्री आर. एल. बतरा को भारत सरकार से सैन्य-सहायता के लिए दिल्ली भेजा. भारत सरकार ने 25 अगस्त, 1947 को  तत्कालीन राज्य-सचिव वी. पी. मेनन को स्थिति के आकलन के लिए कश्मीर भेजा.
मेनन 26 अक्टूबर को कश्मीर के प्रधानमंत्री महाजन के साथ दिल्ली वापस लौटे. भारतीय सैन्य-सहायता हासिल करने के सिलसिले में महाजन की भारतीय नेतृत्व से मुलाकात हुई, लेकिन  लार्ड माउंटबेटन ने यह स्पष्ट किया कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत भारत जम्मू-कश्मीर में अपनी सेनाएं तभी भेज सकता है जब भारत में कश्मीर का औपचारिक रूप से विलय हो गया होकश्मीरी प्रधानमंत्री ने भारतीय नेतृत्व पर दबाव डाला कि यदि कश्मीर को भारत की ओर से तत्काल सैन्य-सहायता नहीं दी जाती है, तो वे कश्मीर के मसले पर पाकिस्तानी नेतृत्व के साथ बातचीत के लिए लाहौर जा सकते हैं. इसी दिन शेख अब्दुल्लाह की नेहरु से भी मुलाकात हुई और अंततः भारत सैन्य-सहायता देने को राजी हुआ. 27 अक्टूबर को महारजा हरि सिंह को विलय हेतु राजी करने के लिए मेनन महाजन के साथ कश्मीर पहुंचे. उसी दिन महाराजा ने विलय-पत्र पर हस्ताक्षर किया और दिल्ली वापस लौटने के बाद उसी दिन उस विलय-पत्र को लार्ड  माउंटबेटन के पास भेजा गया जिस पर उन्होंने उसी दिन हस्ताक्षर किया. 
मेनन का दावा है कि इन औपचारिकताओं को 26 अक्टूबर को ही पूरा कर लिया गया था और फिर 27 अक्टूबर की सुबह सेना कश्मीर पहुंची, लेकिन कश्मीर के प्रधानमंत्री महाजन इन तमाम औपचारिकताओं के सन्दर्भ में 27 अक्टूबर का उल्लेख करते हैं. विलय को लेकर उत्पन्न होनेवाले विवादों को यूनाइटेड किंगडम के तत्कालीन उच्चायुक्त एलेग्जेंडर साइमन द्वारा ब्रिटिश सरकार को लिखे गए पत्र से भी बल मिलता है. इस पत्र में उन्होंने यह बतलाया कि 27 अक्टूबर,1947 की सुबह सैनिकों और सैन्य साज-सामानों से लैस होकर दस भारतीय जहाज दिल्ली से कश्मीर के लिए रवाना हुए और उस दिन करीब-करीब चार बजे तक विलय-दस्तावेज़ के साथ मेनन कश्मीर से वापस नहीं लौटे थे. इस समय तक बिना पुष्टि के कश्मीर के विलय की अफवाहें जोरों पर थीं. 
इन दावों-प्रतिदावों में सत्यता चाहे जितनी हो, पर ये अंतर्विरोधी सूचनाएँ कम-से-कम भारत सरकार के इस दावे पर प्रश्नचिन्ह तो लगाती ही हैं कि पहले विलय-पत्र पर हस्ताक्षर हुआ और फिर भारतीय सेना कश्मीर पहुंची. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पटियाला रियासत की सेना पहले से वहाँ मौजूद थी.
विलय का स्वरुप: औपबंधिक या अस्थाई:
विलय-पत्र पर हस्ताक्षर से सम्बंधित इन विवादों से परे हटकर भी देखा जाय, तो महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर की संप्रभुता को बचाए रखने के लिए पर्याप्त सावधानियां बरतीं. विलय की शर्तें इस बात का संकेत देने के लिए काफी हैं कि महाराजा बड़ी मुश्किल से विलय के लिए राजी हुए. वे अंत-अंत तक अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के पक्ष में थे. महाराजा के पत्र के जवाब में लार्ड माउंटबेटन ने भी उन्हें आश्वस्त करते हुए लिखा था कि कबाईली हमलवारों के निकल-बाहर तथा कानून-व्यवस्था की पुनर्बहाली के बाद कश्मीर के भविष्य का निर्णय कश्मीर की जनता के द्वारा UNO के तत्वावधान में होनेवाले जनमत-संग्रह के माध्यम से किया जाएगा. स्पष्ट है कि भारत में कश्मीर का विलय सशर्त और अस्थायी था. कारण यह कि विलय के प्रश्न और इसकी शर्तों पर कश्मीर के लोगों के द्वारा निर्णय लिया जाना था, न कि महाराजा, संविधान सभा या फिर राज्य सरकार के द्वारा. इसीलिए आज भी एक तबका इस विलय को औपबंधिक मानता है
इसी लाइन की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO)  के द्वारा पारित प्रस्ताव से भी होती है. UNO में मार्च,1951 और जनवरी,1957 में पारित प्रस्ताव ये स्पष्ट करते हैं कि:
1. अगर कश्मीर की संविधान-सभा कश्मीर के भविष्य के निर्धारण के लिए कोई भी कदम उठाती है, तो वह कदम कश्मीर के भविष्य के निर्धारण के सन्दर्भ में निर्णायक नहीं होगा. 
2. साथ ही, राज्य संविधान-सभा के लिए होनेवाला चुनाव जनमत-संग्रह का स्थानापन्न/विकल्प नहीं हो सकता है. 
नेहरु और कश्मीर:
इसकी पुष्टि पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा 27 अक्टूबर,1947 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को भेजेगए टेलीग्राम से भी होती हैउन्होंने अपने टेलीग्राम के ज़रिये यह स्पष्ट किया कि भारत द्वाराआपात-स्थिति में जम्मू-कश्मीर को दी गयी सहायता का उद्देश्य कश्मीर को भारत में विलय केलिए प्रेरित करना नहीं हैहमने लगातार यह स्पष्ट किया है कि किसी भी विवादित क्षेत्र के भारतमें विलय के प्रश्न का निपटारा वहां के लोगों की इच्छाओं के अनुरूप होना चाहिए और हम आजभी अपने इस दृष्टिकोण के प्रति प्रतिबद्ध हैं. 31 अक्टूबर, 1947 को भेजे गए अपने दूसरेटेलीग्राम में कश्मीर के भारत में विलय पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि भारत में कश्मीर केविलय का प्रस्ताव  महाराजा हरि सिंह की सरकार और मुख्य रूप से मुस्लिम-बहुल कश्मीरी जनता के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय संगठन के आग्रह पर स्वीकार किया गया. साथ ही, इस प्रस्ताव को इस शर्त पर स्वीकार किया गया कि जैसे ही कानून और व्यवस्था की पुनर्बहाली होगी, कश्मीर के लोगों द्वारा विलय के प्रश्न पर अंतिम फैसला लिया जायेगा. कश्मीर के लोग भारत और पाकिस्तान, दोनों में से किसी एक में विलय के लिए स्वतंत्र होंगे.” 2-3 नवम्बर, 1947 को आल इंडिया रेडियो से प्रसारित राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने इन्हीं बातों को दुहराते हुएकहा कि  हमलोग कश्मीर के लोगों को अपनी इच्छा प्रकट करने और अपनी बातों को कहनेका पूरा-पूरा अवसर दिए बिना संकट की इस घड़ी में किसी भी चीज को अंतिम रूप देने कोलेकर चिंतित नहीं हैइस सन्दर्भ में उन्हें ही अंतिम निर्णय लेना है. विलय के प्रश्न पर उन्होंने यहस्पष्ट किया कि यह कश्मीर की जनता है जिसे इस प्रश्न पर अंतिम निर्णय लेना है और हमनेइससे सम्बंधित उपबंध विलय-दस्तावेज़ में भी शामिल किये हैं. 21 नवम्बर,1947 कोपाकिस्तानी प्रधानमंत्री को लिखे अपने पत्र में उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उनकी आशंकाओं का समाधान करते हुए उन्हें यह आश्वस्त किया कि कश्मीर के प्रश्न का समाधान कश्मीरी जनता के द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के तत्वावधान में करवाए जाने वाले जनमत-संग्रह के ज़रिये किया जाएगा. हम कश्मीरी जनता और दुनिया के लोगों को दिए गया आश्वासन से पीछे नहीं हट सकते हैं.” 25 नवम्बर, 1947 को भारत की संविधान-सभा में उनकावक्तव्य इस रूप में सामने आयाअपनी प्रामाणिकता और सदाशयता की स्थापना के लिएहमने यह सुझाव दिया है कि जब लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय का अवसर दियाजायेगायह किसी UNO जैसी किसी निष्पक्ष ट्रिब्यूनल के पर्यवेक्षण में होना चाहिएकश्मीर मेंप्रश्न यह है कि इसके भविष्य का निर्धारण कौन करेउग्रहिंसक एवं नग्न ताकतें या फिरजनाकांक्षा?” 5 मार्च 1948 को संविधान-सभा में उन्होंने एक बार फिर से जनमत-संग्रह औरकश्मीरी जनाकांक्षाओं के प्रति अपनी इस प्रतिबद्धता को दुहराया
16 जनवरी,1951 को लंदन में एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री नेहरु ने कहा कि “भारत आरम्भ से ही कश्मीर-समस्या के समाधान के सन्दर्भ में कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के सिद्धांत का पक्षधर रहा है और उसका मानना है कि इसके लिए जनमत-संग्रह का आयोजन किया जाना चाहिए. भारत इसके लिए UNO के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार है ताकि जनमत-संग्रह की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके. भारत का यह भी मानना है कि कश्मीर समस्या पर अंतिम फैसला सर्वप्रथम एवं मूल रूप से कश्मीर की जनता के द्वारा किया जाना चाहिए तथा फिर प्रत्यक्षतः भारत एवं पाकिस्तान के बीच किया जाना चाहिए.” उन्होंने “कश्मीर-समस्या का कश्मीरियों द्वारा समाधान” के प्रश्न पर भारत और पकिस्तान के बीच बनी सहमति की ओर इशारा करते हुए कहा कि “अगर हमारे बीच इस प्रश्न पर सहमति नहीं भी कायम होती, तब भी कोई भी देश कश्मीरी जनाकांक्षाओं के विरुद्ध जाकर कश्मीर को अपने साथ जोड़कर नहीं रख सकता है.”
2 जनवरी,1952 को संयुक्त-राष्ट्र प्रतिनिधि को लिखे अपने पत्र में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में होने वाले जनमत-संग्रह के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए उन्होंने जल्द-से-जल्द स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से ऐसे जनमत-संग्रह के आयोजन संभव न हो पाने को लेकर अपनी चिंता प्रकट की. इसी दिन भारतीय संसद में पाक-अधिकृत कश्मीर के भविष्य को लेकर पूछे गए प्रश्न का जवाब देते हुए पंडित नेहरु ने कहा कि “पाक-अधिकृत कश्मीर, जो इस क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा है, भारत या पकिस्तान की संपत्ति नहीं है. यह कश्मीरियों का है. भारत में कश्मीर के विलय के वक़्त हमने कश्मीरी नेताओं को यह आश्वस्त किया था कि कश्मीरी जनता का जो भी निर्णय होगा, वह हमें स्वीकार्य होगा. अगर वे हमें वहां से वापस जाने को कहेंगे, तो  हमें कश्मीर छोड़ने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी.”
अगस्त 1952 को भारतीय संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने कश्मीरियों के आत्मनिर्णय केसिद्धांत का खुलकर समर्थन किया और कहा कि इस सन्दर्भ में इस संसद की सद्भावना और खुशीकोई मायने नहीं रखती, इसलिए नहीं कि संसद के पास कश्मीर के सन्दर्भ में निर्णय लेने की क्षमता नहीं है, वरन इसलिए कि ऐसी कोई भी कोशिश उस सिद्धांत के खिलाफ होगी जो यह संसद धारण करता हैउन्होंने जोर डालते हुए कहा कि अगर कश्मीर की जनता हमारे साथ नहीं रहना चाहती हैतो हमउनकी मर्जी के विरुद्ध उन्हें अपने साथ नहीं रखेंगेचाहे यह निर्णय हमारे लिए कितना हीपीड़ादायक क्यों  हो?
24 जनवरी,1957 को संयुक्त-राष्ट्र की सुरक्षा-परिषद् में कश्मीर मसले पर होनेवाली बहस में भाग लेते हुए भारतीय प्रतिनिधि कृष्णमेनन ने कहा: “हमने अबतक अपने कथनों एक भी ऐसे शब्द का उल्लेख नहीं किया है जिससे ऐसा लगता हो कि भारत अपने अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का पालन नहीं करेगा.” 
बाद के घटनाक्रमों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि विशेष राज्य के दर्जे और जनमत-संग्रह के प्रति प्रतिबद्धताओं के प्रदर्शन के ज़रिये भारत ने कश्मीरी जनता को इस बात के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश की कि वे खुद को भारत के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकारें.
कश्मीर के प्रश्न का अंतर्राष्ट्रीयकरण:
जनवरी,1948 में लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर नेहरु इस मसले को संयुक्त राष्ट्र  सुरक्षा परिषद् तक ले गए. लेकिन, पकिस्तान ने इस कबायली हमले को तत्कालीन भारत में होनेवाले सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका की प्रतिक्रिया के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की और इस सन्दर्भ में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को विश्वास में लेने में वे बहुत हद तक सफल रहे. फलतः कश्मीर का प्रश्न भारत-पकिस्तान के प्रश्न में तब्दील होकर रह गया. सुरक्षा-परिषद् ने प्रस्ताव पारित करते हुए पकिस्तान से अपनी सेना और अपने नागरिकों को वापस जम्मू-कश्मीर क्षेत्र से वापस बुलाने का आग्रह किया. साथ ही, भारत भी अपनी अधिकांश सेना जम्मू-कश्मीर से वापस बुलाते हुए वहां उतनी ही सेना छोड़े, जितनी कानून-व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है. इसके मद्देनज़र भारत और पाकिस्तान के लिए विशेष संयुक्त राष्ट्र आयोग(UNCIP) का गठन किया गया जिससे अपेक्षा की गयी कि वह संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के अनुरूप वापसी-व्यवस्था के सन्दर्भ में बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाये. अगस्त,1948 में इसने तीन चरणों में वापसी-प्रक्रिया से सम्बंधित प्रस्ताव पारित किया जिसके तहत् प्रथम चरण के दौरान युद्धविराम, दूसरे चरण के दौरान युद्धविराम के साथ सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया का शुरू होना, और तीसरे चरण के दौरान जनमत-संग्रह  होना था.  इस प्रस्ताव को भारत ने तो स्वीकार किया, पर पकिस्तान ने ठुकरा दिया. भारत का जोर इस बात पर था कि पकिस्तान पहले खुद को पीछे ले जाए और पकिस्तान का कहना था कि उसकी वापसी के बाद भारत वापस हो ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है. फलतः विसैन्यीकरण की प्रक्रिया को लेकर भारत और पकिस्तान के बीच कोई सहमति नहीं बन सकी. फलतः कश्मीर दो हिस्सों में विभाजित होकर रह गया: इसका बड़ा हिस्सा भारत के साथ रहा और एक छोटा हिस्सा पकिस्तान के साथ, जिसे भारत ‘पाक-अधिकृत कश्मीर’ और पकिस्तान ‘आज़ाद कश्मीर’ कहता है.
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                      PART  TWO
               विशेष दर्ज़ा को लेकर विवाद                                         
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जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट स्थिति और अनु. 370:
स्पष्ट है कि विलय की शर्तों के अनुरूप भारतीय संविधान में अस्थायी उपबंध के तौर पर अनु. 370 को शामिल किया गया. यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट स्थिति को स्वीकारते हुए भारतीय संविधान के केवल दो अनुच्छेदों को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाता है::
1. अनु. 1, जो यह बतलाता है कि भारत राज्यों का संघ होगा और 
2. अनु. 370, जो जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को संवैधानिक मान्यता प्रदान करता है. 
3. अनु. 370(1d) में कहा गया है कि राष्ट्रपतीय आदेशों के ज़रिये इस संविधान के अन्य उपबंधों को भी जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में प्रभावी बनाया जा सकता है, यदि ऐसा मसला संघ सूची एवं समवर्ती सूची के विषयों से सम्बंधित है और इसका उल्लेख विलय-दस्तावेज़ में हुआ है, तो उन्हें राज्य सरकार से परामर्श के पश्चात् ही प्रभावी बनाया जाएगा. 
इस सन्दर्भ में ए. जी. नूरानी का मानना है कि अनु. 370 जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को छह सन्दर्भों में रेखांकित करता है:
1. यह भारतीय संविधान के अनुरूप राज्य के शासन से जम्मू-कश्मीर को छूट प्रदान करता है और इसके लिए जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए पृथक संविधान का प्रावधान करता है.
2. जम्मू-कश्मीर राज्य के सन्दर्भ में संसद की विधायी अधिकारिता प्रतिरक्षा, संचार और विदेशी मामले तक सीमित है. 
3. विलय-दस्तावेज से सम्बद्ध मामलों में संवैधानिक फ्रेमवर्क उपलब्ध करने के लिए राष्ट्रपति राज्य सरकार के परामर्श से संविधान के अन्य प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर तक विस्तार दे सकता है. लेकिन, अन्य संवैधानिक उपबंधों को जम्मू-कश्मीर तक विस्तार देने के लिए राज्य संविधान सभा की पूर्व-सहमति अपेक्षित है.
4. अनु. 370(2) से इस बात का संकेत मिलता है कि राज्य सरकार की सहमति का यह प्रावधान औपबंधिक है. यदि राज्य सरकार के द्वारा ऐसी सहमति राज्य संविधान-सभा के गठन के पूर्व दी गयी है, तो इसका राज्य संविधान-सभा से अनुमोदन अपेक्षित है.
5. अनुमति देने की यह अधिकारिता राज्य सरकार के पास राज्य संविधान-सभा के गठन तक बनी रहेगी. यह अंतरिम प्रावधान है. साथ ही, कार्यपालक आदेशों के ज़रिये भारतीय संविधान को जम्मू-कश्मीर तक विस्तार देने की राष्ट्रपति की अधिकारिता अनिश्चित काल तक के लिए नहीं हो सकती है. एक बार राज्य संविधान के अस्तित्व में आने और लागू होने के बाद भारतीय संविधान के विभिन्न उपबंधों को जम्मू-कश्मीर तक विस्तार नहीं दिया जा सकता है. राष्ट्रपति की यह शक्ति राज्य संविधान के लागू होने के साथ ही समाप्त हो जाती है.
6. अनु. 370(3) राष्ट्रपति को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वे इसमें संशोधन के लिए या इसके निषेध के लिए आदेश जारी कर सकें, लेकिन इसके लिए भी राज्य संविधान-सभा की सहमति अपेक्षित है. 
अनु. 370 की नूरानी द्वारा की गयी व्याख्या से भले ही पूर्ण सहमति की स्थिति नहीं हो, पर इससे जम्मू-कश्मीर की विशिष्ट स्थिति का पता तो चलता ही है  और यह भी कि यह विशिष्ट स्थिति विवादों से परे नहीं है. खैर, जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि विशेष राज्य का दर्ज़ा एक ओर द्विराष्ट्र सिद्धांत को ख़ारिज करता हुआ भारतीय राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को पुष्ट करता है, दूसरी ओर साम्प्रदायिकता और विभाजन की त्रासदी की पृष्ठभूमि में राज्य की स्वायत्ता को सुनिश्चित करता हुआ कश्मीरियत और कश्मीरियों के लिए सुरक्षा का आश्वासन बनकर आता है.
दिल्ली समझौता,1952:
कश्मीर के भारत में विलय की प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए नेहरू जुलाई,1952 में कश्मीर सरकार और भारत सरकार के प्रतिनिधि एक सहमति पर पहुंचे, जिसे ‘दिल्ली समझौते’ के नाम से जाना गया. शेख अब्दुल्ला के साथ संपन्न इस समझौते के ज़रिये भारत संघ के साथ जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध को पुनर्परिभाषित करने के साथ-साथ लोकप्रिय शासन को सुनिश्चित करने की कोशिश की गयी, यद्यपि इसकी कोई वैधानिकता नहीं थी.
प्रमुख उपबंध:
1. इस समझौते में विलय-दस्तावेज़ (Instrument of Accession) में उल्लिखित इस बात को दुहराया गया कि प्रतिरक्षा, संचार और विदेशी मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में संप्रभुता जम्मू-कश्मीर राज्य में निहित रहेगी
2. भारत सरकार इस बात पर भी सहमत हुई कि अन्य राज्यों के विपरीत जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में अवशिष्ट शक्तियों पर विधायन का अधिकार यहाँ की विधानसभा में निहित होंगी. ध्यातव्य है कि अन्य राज्यों के सन्दर्भ में अवशिष्ट शक्तियां केंद्र में निहित होंगी. साथ ही, संसद जम्मू-कश्मीर  के सन्दर्भ में राज्य-सूची के विषयों पर क़ानून नहीं बना सकती है.
3. इस समझौते के तहत् भारतीय संविधान के अनु. 5 के तहत् जम्मू-कश्मीर के निवासियों को भारतीय नागरिक माना जायेगालेकिन राज्य-विधानसभा के के पास इस बात की अधिकारिता होगी कि वह राज्य-विधानसभा राज्य-विषय अधिसूचना,1927/1932 को ध्यान में रखते हुए राज्य-सूची के विषयों पर विशेष अधिकार एवं विशेषाधिकार प्रदान करने के लिए कानून बना सकता है.
4. जम्मू-कश्मीर में भारत के राष्ट्रपति का वही स्थान और सम्मान होगा जो भारत के विभिन्न राज्यों में. इसीलिए इनसे सम्बंधित अनु. 52-62 एवं अनु. 72 जम्मू-कश्मीर पर भी लागू होंगे.
5. राज्य में होनेवाले स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ाव के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार इस बात पर राजी हुई कि संघ के झंडे के अतिरिक्त राज्य का अपना झंडा होगा. राज्य सरकार भी इस बात पर सहमत हुई कि राज्य का झंडा राष्ट्रीय ध्वज का प्रतिस्पर्धी (Rival) होगा तथा जम्मू-कश्मीर में संघ के झंडे का वही दर्ज़ा और वही सम्मान होगा जो शेष भारत में. 
6. जहाँ तक सदर-इ-रियासत(Governor) का प्रश्न है, तो उसकी नियुक्ति राज्य विधानसभा की अनुशंसा पर राष्ट्रपति के द्वारा की जायेगी. अन्य सन्दर्भों में, विशेषकर शक्तियों और प्रकार्यण(Functioning) के सन्दर्भ में दोनों पक्ष संवैधानिक उपबंधों पर सहमत हुए.  
7. मूलाधिकारों के सन्दर्भ में दोनों पक्षों के बीच इस बात पर सैद्धांतिक सहमति बनी कि राज्य के लोगों के मूलाधिकार हैं, पर राज्य की विशिष्ट स्थिति के मद्देनज़र भारतीय संविधान के भाग तीन को पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं किया जा सकता है. 
8. सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार के सन्दर्भ में यह स्वीकार किया गया कि तत्काल  राज्य में न्यायिक सलाहकार बोर्ड, जो राज्य में सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है, के मद्देनज़र राज्य में सुप्रीम कोर्ट की केवल अपीली अधिकारिता होगी.
9. जहाँ तक आपातकालीन प्रावधान का प्रश्न है, तो इस सन्दर्भ में जहाँ केंद्र राष्ट्रपति को आपातकालीन अधिकारिता प्रदान करने के पक्ष में थे, लेकिन राज्य आतंरिक अशांति की स्थिति में राष्ट्रपति को आपात की उदघोषणा का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे. अंततः केंद्र और राज्य के बीच इस प्रश्न पर सहमति बनी कि युद्ध या बाह्य आक्रमण की स्थिति में तो आपात की उद्घोषणा कर सकते हैं, पर आतंरिक अशांति की स्थिति में ऐसा करने के पहले उन्हें राज्य सरकार को विश्वास में लेना होगा. 
10. दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि न तो राज्य में अनु. 360 के तहत वित्तीय आपातकी उद्घोषणा की जायेगी और राज्य-मशीनरी की विफलता की स्थिति में अनु. 356 के प्रावधान जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जायेगा.
बाद में भारत में कश्मीर के सम्पूर्ण विलय की भारतीय मंशा को भांपते हुए शेख अब्दुल्लाह के रूख में परिवर्तन आया. शेख अब्दुल्लाह ने अनु. 370 में संशोधन करते हुए ‘राज्य सरकार’ को पुनर्परिभाषित करते हुए ‘अपने मंत्रीपरिषद की सलाह पर काम करनेवाला निर्वाचित सदर-इ-रियासत’इस पदबंध को इस अनुच्छेद में जोड़ने की मांग कीलेकिन नेहरु  तैयार नहीं हुएइसने उन्हें बृहत्तर स्वायत्ता की मांग की ओर उन्मुख किया. परिणामतः भारत सरकार के साथ उनके मतभेद बढ़ते चले गए और 1953 में शेख अब्दुल्लाह को गिरफ्तार कर लिया गया.
कमजोर पड़ती स्वायत्ता:
भारत और जम्मू-कश्मीर सम्बन्ध में दिल्ली समझौता,1952 एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु है क्योंकि इसने विलय-दस्तावेज़ में उल्लिखित शर्तों को कमजोर करते हुए भारतीय संविधान के अधिकांश हिस्सों को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाने का मार्ग प्रशस्त किया. धीरे-धीरे एवं चरणबद्ध तरीके से राष्ट्रपतीय आदेशों के ज़रिये भारतीय संविधान के विविध पहलुओं को जम्मू-कश्मीर पर लागू किया गया. 1954-1994 के दौरान केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा सैंतालीस आदेश जारी करते हुए अनुच्छेद 370 को बहुत हद तक अप्रभावी बना दिया गया. परिणामतः आज भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर भी लागू होते हैं.
अनु. 370 द्वारा प्रदत्त स्वायत्ता को वापस लेने की प्रक्रिया भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही शुरू होती है. सबसे पहले 26 जनवरी,1950 को राष्ट्रपति ने अनु. 370 के अंतर्गत जारी अपने आदेश के ज़रिये भारतीय संविधान के कुछ निर्दिष्ट प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर पर लागू किया. 
सितम्बर,1952 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपतीय आदेशों के ज़रिये भारतीय संविधान के विविध प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाने की रणनीति को लेकर अपनी आपत्ति प्रकट करते हुए कहा कि 
जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ, भारत को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो कार्यपालिका सरकार को संविधान में संशोधन के लिए अधिकृत करता है.” उन्होंने ऐसे प्रावधानों को बेतुका बताते हुए अनु. 370 द्वारा राष्ट्रपति को प्रदत्त शक्ति के बार-बार उपयोग को प्रश्नांकित किया. उनकी दृष्टि में राष्ट्रपति की यह शक्ति आपवादिक परिस्थितियों के लिए है. यह बात अलग है कि नेहरु के दबाव के आगे ये आपत्तियां अप्रासंगिक हो गयीं और उन्हें नेहरु की इच्छानुसार आदेश जारी करने पड़े. अगस्त,1953 में शेख अब्दुल्लाह की गिरफ्तारी के बाद अनु. 370 द्वारा प्रदत्त शक्ति का इस्तेमाल करते हुए दिल्ली एग्रीमेंट के क्रियान्वयन के लिए राष्ट्रपति के द्वारा विस्तृत आदेश जारी किये गए. यह आदेश कई सन्दर्भों में दिल्ली समझौते से भी आगे बढ़ता है. 
आगे चलकर नवम्बर,1964 में राज्य विधानमंडल द्वारा निर्वाचित राज्य-प्रमुख सदर-ए-रियासत को केंद्र द्वारा मनोनीत गवर्नर ने प्रतिस्थापित किया, साथ ही, राज्य-संविधान की धारा 92 द्वारा राज्यपाल-शासन के प्रावधान के बावजूद राष्ट्रपति-शासन से सम्बंधित अनु. 356 को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाया गया. जुलाई,1975 में राष्ट्रपतीय आदेश के ज़रिये राज्य विधानमंडल को राज्यपाल, चुनाव आयोग एवं विधान-परिषद् की संरचना से सम्बंधित जम्मू-कश्मीर के संविधान के प्रावधानों में किसी भी प्रकार के संशोधन से रोका गया.  
अबतक भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में 260 अनुच्छेदों को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाया जा चुका हैसंघ-सूची में शामिल 97 मदों में से 94 मदों को तथा समवर्ती सूची में शामिल 47 मदों में 26 मदों को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में प्रभावी बनाया गया, जिसके परिणामस्वरूप अब इन मदों के सन्दर्भ में केंद्र के द्वारा विधायन संभव है. इसी प्रकार बारह अनुसूचियों में सात को जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में भी लागू किया गया. इस तरह से 1952 के दिल्ली समझौते ने शेष भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रीय समेकन की प्रक्रिया तेज़ की. 
इससे पूर्व 1950 में राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिये भी भारतीय संविधान के कुछ प्रावधान को जम्मू-कश्मीर में लागू किया गया. आगे चलकर 26 जनवरी,1957 को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा निर्मित पृथक संविधान लागू हुआ. 1954 में संविधान सभा ने सुप्रीम कोर्ट, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और निर्वाचन आयोग के तहत् जम्मू-कश्मीर को लाने पर सहमति बनी. केवल जम्मू-कश्मीर के निवासी ही वहाँ के विधानसभा चुनावों में भाग ले सकते हैं और वहां की स्थाई संपत्ति की खरीद-बिक्री कर सकते हैं. साथ ही, बिना राज्य विधानसभा की सहमति के निवारक निरोध कानून का विस्तार नहीं किया जा सकता है. 
अब अगर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्ज़े और भारतीय संघ में इसकी विशिष्ट स्थिति पर विचार करें, तो दो बातें कही जा सकती हैं:
1. ‘जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा’ की संकल्पना स्थिर न होकर विकसनशील रही है. इसीलिए कुछेक सन्दर्भों को छोड़ दिया जाय, तो कमोबेस जम्मू-कश्मीर की स्थिति भी भारत के अन्य राज्यों की तरह है. 
2. जम्मू-कश्मीर भारत का एक मात्र राज्य नहीं है जिसकी स्थिति भारतीय राज्यों में विशिष्ट है. अनु. 371 और अनु. 371 A-J के ज़रिये महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैंड, असम, मणिपुर, आँध्रप्रदेश, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल, गोवा और कर्नाटक के लिए विशेष प्रावधान किये गए हैं.
और, अगर ऐसा है, तो फिर सिर्फ जम्मू कश्मीर का ही विरोध क्यों?
अन्य राज्यों से भिन्नता:
1. वर्तमान में जम्मू कश्मीर की अन्य भारतीय राज्यों से भिन्नता राज्य के स्थाई निवासी और उनके अधिकारों को लेकर है. 
2. बाहर के लोग जम्मू-कश्मीर में जाकर बस नहीं सकते हैं और ज़मीन नहीं खरीद सकते हैं. सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राज्य सरकार की सहमति के बिना वहाँ आपात काल लागू नहीं किया जा सकता है.
3. बिना राज्य विधायिका की सहमति के जम्मू-कश्मीर के नाम और उसकी सीमा में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है.
संविधान सभा की बहस: विशेष दर्जे का औचित्य 
संविधान सभा में अनु. 370 के तहत् जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा प्रदान करने के विचार पर हसरत मोहानी ने आपत्ति दर्ज की. उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब गोपालस्वामी आयंगार ने दिया जिन्होंने अनु. 370 के प्रारूप को तैयार किया था और जो कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के दीवान थे. उन्होंने इस प्रावधान का औचित्य साबित करते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की परिस्थितियां उपयुक्त नहीं थीं. यह विलय जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायली हमले की पृष्ठभूमि में संपन्न हुआ. यद्यपि युद्ध-विराम हो चुका है, तथापि जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से पर दुश्मनों का नियंत्रण जारी है. इसीलिए अभी भी ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिनमें जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे का औचित्य बना है.” उन्होंने यह भी तर्क दिया कि पाकिस्तान आज भी कश्मीर पर द्विराष्ट्र सिद्धांत के तहत् दावा करता है. साथ ही, कश्मीर-मसले का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है और अब संयुक्त राष्ट्र संघ हस्तक्षेप की स्थिति में है. इसलिए इस विशिष्ट स्थिति के मद्देनज़र जम्मू- कश्मीर का विशेष दर्ज़ा उचित है.
अनु. 370 और सुप्रीम कोर्ट:
प्रेमनाथ कौल बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य वाद,1959 में सुप्रीम कोर्ट ने अनु. 370(2) का उल्लेख करते हुए कहा कि संविधान-निर्माताओं  ने संविधान सभा के अंतिम निर्णय को विशेष महत्व दिया और अनु. 370(1) के प्रावधानों को अस्थाई और सशर्त बतलाया. इस अनुच्छेद की धारा 3 से भी इसकी पुष्टि होती है.अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि संविधान-निर्माता इस बात को लेकर चिंतित थे और उनका मानना था कि भारत संघ के साथ जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध का निर्धारण अंतिम रूप से जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के द्वारा की जानी चाहिए, यद्यपि बाद में संपत प्रकाश बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य वाद,1968 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य संविधान सभा के अस्तित्व में न रहने के बावजूद अनु. 370 का इस्तेमाल राष्ट्रपतीय आदेश को जारी करने के लिए किया जा सकता है. . मो. मकबूल दमनू बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य वाद,1972 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित सदर-इ-रियासत और मनोनीत गवर्नर के बीच फर्क करने से इंकार करते हुए कहा कि इससे सरकार का स्वरुप लोकतान्त्रिक से अलोकतांत्रिक नहीं हो जाता है. कोर्ट का कहना था कि ‘राज्य सरकार की सहमति’ की शर्त अनु. 370 की अनिवार्य विशेषता है, न कि संविधान-सभा की सहमति.
क्या अनु. 370 को हटाया जाना चाहिए?
जम्मू-कश्मीर की वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए अनु. 370 को हटाये जाने का प्रश्न बहुत व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता है. आज अनुच्छेद 370 राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और सामान नागरिक संहिता के साथ प्रतीकात्मक महत्व ग्रहण कर चुका है. बैरोमीटर की तरह इससे इस बात का संकेत मिलता है कि आज़ाद भारत में आज मुसलमान और उनके हित कितने सुरक्षित हैं. दूसरी बात यह कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जम्मू और घाटी, दोनों ही क्षेत्रों में जिस तरह से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, जिस तरह वर्तमान केंद्र सरकार का दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी रुझान आक्रामक हिंदुत्व के प्रबल आग्रह के साथ प्रकट होता है, देश सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जिस दौर से गुज़र रहा है और जिस तरह से कश्मीर घाटी में एक बार फिर से अलगाववादी प्रतिक्रियावादी शक्तियां सर उठा रही हैं, वैसी स्थिति में ऐसा कोई भी कदम भारत के प्रति कश्मीरी जनता के विश्वास को डगमगा सकता है और अलगाववादियों को अपने प्रभाव के विस्तार का एक और अवसर प्रदान कर सकता है. आज भी अनु. 370 उन लोगों के लिए एक आश्वासन की तरह है जो अपनी पहचान एवं अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं और जिनके भीतर असुरक्षा का गहरा अहसास है. यह उन लोगों के लिए भी आश्वासन है जो कश्मीरियत को लेकर संवेदनशील हैं और इसे बचाए रखना चाहते हैं. साथ ही, वर्तमान दौर विकेंद्रीकरण, शक्तियों के हस्तांतरण और स्वायत्ता का है. आज बात राज्यों पर संघ के नियंत्रण को कम करने की हो रही है ताकि राज्यों को अधिक-से-अधिक स्वायत्ता प्रदान की जा सके. ऐसी स्थिति में अनु. 370 को समाप्त किया जाना एक प्रतिगामी कदम होगा क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर पर संघीय नियंत्रण को बढ़ने वाला साबित होगा. और सबसे महत्वपूर्ण, चूँकि अनु. 370 विलय-दस्तावेज़ में उल्लिखित विलय की शर्तों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है, इसीलिए इसे हटाया जाना विलय की शर्तों का उल्लंघन होगा, उन शर्तों से भारत का पीछे हटना होगा जिन शर्तों पर कश्मीर का भारत में विलय हुआ. यह एक प्रकार से वादाखिलाफी होगी. इसीलिए इसे तबतक बनाये रखा जाना चाहिए जबतक कश्मीर की जनता इसके लिए राज़ी न हो जाय.
क्या अनु. 370 को हटाया जा सकता है?
अनु. 370(3) के तहत् जम्मू-कश्मीर को प्रदत्त विशेष दर्ज़ा राष्ट्रपतीय-आदेश के ज़रिये कभी भी समाप्त किया जा सकता है, लेकिन यह अपेक्षा करता है कि ऐसे किसी भी कदम के लिए जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी. मतलब यह कि इस अनुच्छेद को हटाया जा सकता है, इसमें संदेह की कोई गुन्जाइश नहीं होनी चाहिए. इसके लिए राष्ट्रपति को इससे सम्बंधित अधिसूचना जारी करनी होगी. यहाँ से दो बातें उभरकर सामने आती हैं:
1. पहली, इस दिशा में पहल जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की ओर से अपेक्षित है. 
2. दूसरी, यद्यपि यह पहल केंद्र की ओर से भी संभव है, लेकिन यह अधिसूचना जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश के बिना नहीं जारी की जा सकती है. इस प्रावधान को समाप्त करने की प्रक्रिया में प्रमुखता जम्मू-कश्मीर के लोगों और वहां के जनमत को दी गयी है. इसीलिये इनकी राय अहम् होगी. 
यहाँ पर एक तकनीकी समस्या भी उभरकर सामने आती है और वह यह कि वर्तमान में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का अस्तित्व नहीं है. ऐसी स्थिति में या तो ऐसे संशोधन के विचार छोड़ने होंगे या फिर व्यावहारिक नजरिया अपनाते हुए यहाँ की विधानसभा को ही संविधान सभा के समकक्ष मानना होगा और फिर विधानसभा की सहमति से इस उपबंध को समाप्त किया जा सकेगा. एक तीसरा विकल्प नए सिरे से जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के गठन का सामने आता है जो इस प्रश्न पर विचार करे. 
इस विहित प्रक्रिया से इतर हटकर यह भी कहा जाता है कि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान के किसी भी अंश में संशोधन के लिए अधिकृत करता है, इसीलिए इस अनुच्छेद द्वारा निर्दिष्ट प्रक्रिया से अनु. 370 को हटाया जा सकता है. लेकिन, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि अनु. 370 को हटाने की प्रक्रिया अलग से संविधान में दी गयी है. अगर थोड़ी देर के लिए यह स्वीकार भी कर लिया जाय कि संविधान-संशोधन के ज़रिये इसे हटाया जा सकता है, तो प्रश्न यह उठता है कि संविधान में ऐसे किसी भी संशोधन के लिए विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्यों के समर्थन की ज़रुरत होती है जिससे संघीय ढांचा और संघ-राज्य सम्बन्ध प्रभावित होता हो. अगर इस प्रश्न पर आधे राज्यों का समर्थन भी जुटा लिया गया, तो ऐसे संशोधन को न्यायिक पुनर्विलोकन की प्रक्रिया से गुजरना होगा. इस क्रम में यह सुनिश्चित करना होगा कि इस संशोधन से मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं होता है. ऐसा कर पाना मुश्किल होगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने एकाधिक मामलों में संघीय ढांचे और संघ-राज्य संतुलन को मूल ढाँचे का हिस्सा बतलाया है. इसीलिए इस बात की सम्भावना ज्यादा है कि न्यायालय ऐसे संशोधनों को ख़ारिज कर दे.  
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