Wednesday 30 March 2022

स्थानीय निकायों का सशक्तिकरण एवं सुदृढ़ीकरण: अद्यतन प्रगति, चुनौतियाँ और समाधान

 

स्थानीय संस्थाएँ और स्थानीय निकाय चुनाव: अद्यतन रुझान

चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएँ और सिविल सोसाइटी की भूमिका:

हाल में बिहार पंचायत-चुनाव सफलतापूर्वक और प्रभावी तरीक़े से सम्पन्न हुआ है, और निकट भविष्य में शहरी निकायों के चुनाव अपेक्षित हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि पंचायत-चुनाव के अनुभवों से सीख लेते हुए शहरी निकायों के चुनाव को और भी अधिक प्रभावशाली तरीक़े से सम्पन्न करवाया जाए। इसी आलोक में विगत रविवार: 27 मार्च को पटना स्थित ए. एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म से सम्बद्ध बिहार इलेक्शन वाच (BEW) और एक्शन फ़ॉर अकाउंटेबुल गवर्नेंस (AAG) के संयुक्त तत्वावधान में स्थानीय शहरी निकाय का सशक्तिकरण एवं सुदृढ़ीकरण: मुद्दे एवं चुनौतियाँ विषय पर एकदिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी तीन सत्रों में चली और तीनों सत्रों के स्थाने निकायों से सम्बंधित भिन्न-भिन्न विषय निर्धारित किए गये। पहले सत्र में स्थानीय निकाय चुनावों के हालिया अनुभवों के आलोक में शहरी निकाय चुनाव के प्रश्न पर विचार करना था, दूसरे सत्र में स्थानीय शहरी निकाय चुनावों में सिविल सोसाइटी की भूमिका पर विचार किया गया और तीसरे सत्र में शहरी निकायों के समक्ष मौजूद चुनौतियों के प्रश्न पर विचार किया गया।

इस संगोष्ठी का उद्घाटन बिहार राज्य निर्वाचन आयुक्त श्री दीपक प्रसाद और अन्य विशिष्ट अतिथियों द्वारा किया गया। इस संगोष्ठी के पहले सत्र में बिहार इलेक्शन वाच के राज्य-प्रमुख और एक्शन फ़ॉर अकाउंटेबुल गवर्नेंस (AAG) के संस्थापक-सदस्य राजीव कुमार ने अपने स्वागत-भाषण में विषय-प्रवेश के साथ-साथ इस आयोजन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शहरी स्वशासी संस्थाओं का सशक्तिकरण एवं सुदृढ़ीकरण के रास्ते में मौजूद अवरोधों को पहचानने और उसे दूर करने की आवश्यकता है, ताकि ये संस्थाएँ महज़ संवैधानिक ख़ानापूर्ति बनकर न रह जाएँ। संगोष्ठी के पहले सत्र के अध्यक्ष कुमार सर्वेश ने हाल में सम्पन्न बिहार पंचायत चुनाव,2021-22 के अनुभवों की शहरी निकाय चुनाव के संदर्भ में प्रासंगिकताविषय पर परिचर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और समाजवादी चिन्तक डॉ. रमा मनोहर लोहिया के राजनीतिक-प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का जो सपना देखा, उसे ज़मीनी धरातल पर उतारने के लिए आज भी गम्भीर पहल अपेक्षित है। इस दिशा में हालिया सम्पन्न पंचायत-चुनाव के अनुभवों से सीखने और उन्हें संयोजित करने की ज़रूरत है।

कई मायनों में ऐतिहासिक रहा पंचायत-चुनाव: राज्य चुनाव-आयुक्त दीपक प्रसाद:

स्थानीय स्वशासन के प्रश्न पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विचार करते हुए राज्य चुनाव आयुक्त दीपक प्रसाद ने उन चुनौतियों और उपलब्धियों को रेखांकित किया को राज्य चुनाव आयोग के समक्ष मौजूद थे। उन्होंने राज्य निर्वाचन आयोग की उन पहलों का विस्तार से उल्लेख किया जिन्होंने चुनाव-प्रक्रिया को स्पष्ट, पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाते हुए उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता ही सुनिश्चित नहीं की, वरन् उसे हरसंभव भय-मुक्त एवं दबाव-मुक्त भी बनाया। उनके अनुसार, इस रूप में बिहार पंचायत-चुनाव,2021-22 ने पूरे देश के समक्ष ईवीएम, बायोमेट्रिक पहचान और मानवीय हस्तक्षेप की संभावनाओं को कम करने के लिए डिजिटाइज़्ड चुनाव-प्रक्रिया के ज़रिए स्पष्ट, पारदर्शी और जवाबदेह चुनाव-मॉडल प्रस्तुत किया है। ध्यातव्य है कि बिहार में पहली बार पंचायत-चुनाव में प्रमुख पदों पर निर्वाचन के लिए ईवीएम का इस्तेमाल किया गया और बोगस वोटिंग को रोकने के लिए मतदाताओं की बायोमीट्रिक पहचान को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। साथ ही, काउंटिंग की पूरी प्रक्रिया को भी डिजिटाइज़्ड किया गया। ध्यातव्य है कि हालिया सम्पन्न पंचायत चुनाव में ईवीएम-विवाद के मद्देनज़र राज्य चुनाव आयोग ने स्ट्राँग रूम में ईवीएम के लिए डिजिटल लॉक की व्यवस्था शुरू की जिसके लिंक सभी उम्मीदवारों को भी उपलब्ध करवाए गए। डिजिटल लॉक के कारण ईवीएम के साथ किसी भी प्रकार के छेड़छाड़ संभव नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता है, इससे सम्बंधित सूचना उन सभी लोगों तक पहुँच जाती है जिनके पास डिजिटल लॉक के लिंक उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं, आयोग ने कानून एवं व्यवस्था को बनाए रखते हुए हिंसा एवं दबाव-मुक्त चुनाव को सुनिश्चित करने के लिए ग्राम-पंचायतों को विभिन्न सेक्टरों में बाँटते हुए सेक्टर-आधारित एप्रोच को अपनाया। उन्होंने यह भी बतलाया कि इस बार बूथों पर धाँधलियों और मतगणना के दौरान धाँधलियों की शिकायतों में भी तीव्र गिरावट का रुझान देखने को मिलता है। इस रूप में पंचायत-चुनाव,2021-22 निश्चय ही राज्य चुनाव-आयोग की उपलब्धि है। यही कारण है कि इस बार चुनाव-प्रक्रिया के सम्पन्न होने के बाद से 25 मार्च तक महज़ 117 चुनावी याचिकाएँ दायर की गयीं, जबकि पिछली बार ऐसी याचिकाओं की संख्या 8,000 से ज़्यादा अधिक थी। आयोग की इन पहलों से प्रभावित होकर कई राज्यों ने बिहार पंचायत-चुनाव के प्रायोगिक अनुभवों से सीख लेने के लिए अपने प्रतिनिधियों को बिहार भेजा, ताकि वे इससे लाभान्वित हो सकें।

पंचायत-चुनाव के नवीनतम रुझान:

राज्य चुनाव-आयुक्त ने इस चुनाव के नवीनतम रुझानों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इस बार पंचायतों में खेल, कला, साहित्य, प्रोफेशनल दुनिया आदि से सम्बद्ध विविध पृष्ठभूमि से लगभग 85 प्रतिशत तक नए लोग जन-प्रतिनिधि के रूप में चुनकर आये हैं। इतना ही नहीं, इस बार 35 वर्ष से कम उम्र के लगभग 35 प्रतिशत से अधिक युवा त्रिस्तरीय पंचायती राज-व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर जन-प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित हुए, जो स्थानीय निकायों की ओर युवाओं के बढ़ते आकर्षण और इसमें उनकी बढ़ती भागीदारी की ओर इशारा करता है।
उन्होंने चुनाव-प्रक्रिया से लेकर मतदान-प्रक्रिया तक महिलाओं की सहभागिता को इस चुनाव की उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया। ध्यातव्य है कि पहली बार इस चुनाव में पहली बार आयोग ने मतदान से लेकर काउंटिंग तक की प्रक्रिया में महिलाओं पर भरोसा प्रदर्शित करते हुए उनकी बढ़-चढ़ कर भागीदारी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया। साथ ही, स्थानीय संस्थाओं के स्तर पर महिलाओं के राजनीतिक समावेशन की प्रक्रिया में तेज़ी की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस चुनाव में पंचायत के विभिन्न स्तरों पर निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों में महिलाओं की भागीदारी पहले की तुलना में बढ़ी है। उन्होंने इसे
महिलाओं के समावेशन और सशक्तिकरण से सम्बद्ध करके देखा, तथा इसका श्रेय हिंसा एवं धाँधली-मुक्त चुनाव को दिया जिसके लिए निश्चय ही राज्य चुनाव-आयोग के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, इस बार के चुनाव में अनाऱक्षित पद पर आरक्षित समूह के निर्वाचित लोगों की संख्या में भी वृद्धि का रूझान देखने को मिलता है जो हाशिए पर के समूह के समावेशन एवं सशक्तिकरण की ओर इशारा करता है।

प्रभावी प्रशिक्षण के ज़रिये क्षमता-निर्माण समावेशन एवं सशक्तिकरण की प्राथमिक शर्त:

लेकिन, आयोग के इस दावे से कई सोशल-पोलिटिकल एक्टिविस्ट असहमत दिखे। पटना हाईकोर्ट से सम्बद्ध एडवोकेट मधु श्रीवास्तव ने महिला-सशक्तिकरण एवं महिलाओं के समावेशन पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहा कि इसके लिए अपनी पीठ थपथपाने के बजाए हमें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि क्या वाक़ई महिलाएँ निर्वाचित जन-प्रतिनिधि के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह कर पा रही हैं, या फिर उनके अधिकारों का (दुरू)उपयोग उनके पुरूष सहकर्मियों के द्वारा किया जा रहा है। इसके लिए उन्होंने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि स्थानीय स्वशासन की संकल्पना तब तक ज़मीनी धरातल पर प्रभावी नहीं होगी, जब तक ऐसी टीम का विकास नहीं हो जाता, जिसके पास गवर्नेंस की समझ हो, जो इससे सम्बंधित दायित्वों के निर्वहन में सक्षम हो और जो इन दायित्वों के निर्वाह के लिए सर्वथा प्रस्तुत भी हो।

धनबल की भूमिका पर अंकुश लगा पाने में आयोग विफल:

वरिष्ठ पत्रकार मणिकान्त ठाकुर ने राज्य चुनाव-आयुक्त का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि चूँकि इन चुनावों में भी धनबल की अहम् भूमिका रही है और जातिगत समीकरणों ने चुनाव-परिणामों को प्रभावित किया है, इसलिए आवश्यकता चुनाव-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए धनबल की बढ़ती भूमिका पर अंकुश लगाने की है। पटना हाईकोर्ट से सम्बद्ध एडवोकेट मधु श्रीवास्तव ने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की जवाबदेही के निर्धारण की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि धन-बल की भूमिका पर प्रभावी अंकुश लगा पाना तब तक संभव नहीं है जब तक कि सांसदों एवं विधायकों/ विधान-पार्षदों की तरह स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के लिए भी सम्मानजनक वेतन एवं भत्ते निर्धारित नहीं किए जाते।  

जीरो बज़ट चुनाव पर जोर:

पटना साइंस कॉलेज के प्रोफ़ेसर डॉ. अखिलेश कुमार ने पॉलिटिकल कॉलेजियमकी व्यवस्था को तोड़े जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि स्थानीय संस्थाओं से लेकर विधानसभा एवं लोकसभा तक की राजनीतिक पर कुछेक घरानों के वर्चस्व को देखा जा सकता है जिसने राजनीति में आमलोगों के प्रवेश को अत्यन्त मुश्किल बना दिया है। अन्य वक्ताओं की तरह उन्होंने भी चुनाव-सुधारों की प्रक्रिया पर बल देते हुए ज़ीरो बजट चुनावसे सम्बंधित अपने अनुभवों एवं विचारों को साझा किया और इसके ज़रिये चुनावों में धनबल की भूमिका पर अंकुश लगाने की बात की। इस बहस को आगे बढ़ाते हुए सोशल-पॉलिटिकल एक्टिविस्ट देव कुमार सिंह ने अपने निजी अनुभवों के हवाले से कहा कि यदि नेतृत्व जनता के प्रति समर्पित हो, तो फिर चुनाव उम्मीदवार नहीं, जनता लड़ती है और ऐसी स्थिति में संसाधनों की अहमियत खुद-ब-खुद कम हो जाती है। मतलब यह कि अगर जन-प्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह हों और जनता सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से जागरूक हो, तो धनबल की भूमिका पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सकता है।

नए जनप्रतिनिधियों का सच और धनबल:

सोशल एक्टिविस्ट और मेंटर कुमार सर्वेश ने नयी लोगों की बढ़ती भागीदारी के सामान्यीकरण के बजाए इस मसले पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता प्रदर्शित करते हुए कहा कि कहीं ये लोग पिछले डेढ़ दशकों के दौरान स्थानीय संस्थाओं के मद में वित्त-आयोग द्वारा फण्ड-आवंटन में तीव्र वृद्धि (13वें वित्त-आयोग के द्वारा करीब 80,000 करोड़ से बढ़कर 15वें वित्त-आयोग द्वारा करीब 4.35 लाख करोड़) की पृष्ठभूमि में त्वरित लाभ की कामना में तो नहीं आये हैं। अगर ऐसा है, तो यह चिन्ता का विषय है क्योंकि यह स्थानीय स्तर की राजनीति में नए स्टेकहोल्डर्स के आविर्भाव के ज़रिए भ्रष्टाचार के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को और अधिक तेज करेगा। इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या और अधिक गहन होगी। उनके अनुसार, बाहुबल की भूमिका पर अंकुश लगाने के चुनाव आयोग के दावों के बावजूद वास्तविकता यह है कि जब तक धनबल की भूमिका पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश नहीं लगाया जाता है, तब तक बाहुबल की भूमिका पर अंकुश लगाने का दावा महज़ छलावा है। लोकसभा से लेकर विधानसभा और स्थानीय संस्थाओं तक में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जन-प्रतिनिधियों की बढ़ती भागीदारी इसी बात की ओर इशारा करते हैं। ध्यातव्य है कि भारत के मुख्य चुनाव-आयुक्त(CEC) ने भी एकाधिक अवसरों पर चुनाव में धनबल की भूमिका पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग की असफलता को स्वीकार किया है। लेकिन, यह इसका एक पक्ष है, एकमात्र पक्ष नहीं। यह भी सच है कि इस चुनाव में कई ऐसे प्रतिनिधि चुनकर आये हैं जिनके लिए पैसा कमाने के कई विकल्प मौजूद थे, पर उन विकल्पों को ठुकराते हुए उन्होंने सेवा-भाव और बदलाव की आकांक्षा से प्रेरित होकर स्थानीय निकायों में अपनी भागीदारी को प्राथमिकता दी। इसके अलावा, मतदाताओं ने उन पुराने जन-प्रतिनिधियों को हराने का काम किया जिन्होंने स्थानीय स्तर की राजनीति में पॉलिटिकल कॉलेजियम निर्मित करते हुए शौचालय-निर्माण से लेकर प्रधानमंत्री आवास तक से सम्बंधित योजनाओं तक में कमीशनखोरी को प्राथमिकता दी और विभिन्न परियोजनाओं में अपने समर्थकों को भागीदार बनाने के बजाय उसके लाभ को खुद तक और अपने निकटतम शागिर्दों तक सीमित रखा। इस रूप में यह बदलाव पर बल देता हुआ निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने में सहायक होगा। दोनों ही रूपों में इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी।   

सिविल सोसाइटी की भूमिका:

इस संगोष्ठी के दूसरे सत्र की अध्यक्षता बिहार टाइम्सके सम्पादक अजय कुमार के द्वारा किया गया। उन्होंने इस सत्र के विषय आगामी शहरी निकाय चुनाव में सिविल सोसाइटी की भूमिकाके सन्दर्भ में अपनी आरम्भिक टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा कि किसी भी समाज के विकास की दिशा एवं दशा को प्रभावित करने में उस समाज के प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका अहम् होती है। विशेष रूप से स्थानीय स्तर के चुनावों में सिविल सोसाइटी ज़मीनी धरातल से जुड़ाव और ज़मीनी धरातल पर अपनी विश्वसनीय मौजूदगी के सहारे बड़ा फ़र्क़ पैदा करने की स्थिति में है। इसके मद्देनज़र कई वक्ताओं ने सिविल सोसाइटी से यह अपेक्षा की कि वह आगे बढ़कर अपनी ज़िम्मेवारी को स्वीकार करे, ताकि शहरी निकायों के चुनाव जाति-धर्म जैसे भावात्मक मुद्दों के बजाए शहरी शासन और शहरी प्रबंधन से सम्बद्ध वास्तविक मुद्दों के आधार पर लड़े जा सकें। साथ ही, चुनावों और मतदाताओं पर धनबल की गिरफ़्त को कमजोर किया जा सके। लेकिन, यह तभी सम्भव है जब सिविल सोसाइटी और इससे जुड़े लोग व्यक्तिगत स्तर पर और सांगठनिक स्तर पर इसके लिए सतत अभियान चलते हुए मतदाताओं को जागरूक करने की कोशिश करें।

जागरूक समाज का निर्माण है इसका समाधान:

श्रोताओं की ओर से हस्तक्षेप करते हुए साहित्यकार और सोशल एक्टिविस्ट रवीन्द्र राय जी ने स्कैंडिनेवियन देशों का हवाला देते हुए कहा कि अगर सरकार स्थानीय संस्था में सुधारों और इसके सशक्तिकरण को लेकर वाक़ई गम्भीर है, तो उसे आर्थिक असमानता समाप्त करने की दिशा में प्रभावी पहल करनी चाहिए और लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक पाँच किलो मुफ्त अनाज, साड़ी, मुफ्त भोजन, दारू  या फिर चन्द नकदी के सहारे वोटों की खरीद-बिक्री चलती रहेगी। इस पर अंकुश लगा पाना सम्भव नहीं होगा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आवश्यकता समतामूलक समाज के निर्माण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के ज़रिये सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से जागरूक समाज के निर्माण की है जिसमें व्यक्ति इन बुराइयों की कीमत को समझ सके और इनसे दूर रह सके। यह स्थिति चुनावी राजनीति की अधिकांश बुराइयों को दूर करने में सहायक है, अब वे बुराइयाँ चाहे धनबल-बहुबल की हों, या फिर जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय जैसी पहचान पर आधारित राजनीति की। इतना ही नहीं, ऐसी स्थिति में निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को भी जनता एवं समाज के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता है। साथ ही, एक जागरूक समाज स्थानीय स्वशासन के सपनों को ज़मीनी धरातल पर उतारने में भी सहायक साबित होगा।

शहरी निकाय चुनावों की पंचायत चुनावों से भिन्नता:

सोशल एक्टिविस्ट और तलाशके संस्थापक डॉ. विश्वेन्द्र कुमार सिन्हा ने कहा कि जैसा समाज होगा, वैसी ही राजनीति होगी और वैसे ही जन-प्रतिनिधि मिलेंगे। इसलिए अगर राजनीति बदलनी है, तो समाज एवं उसकी सोच बदलनी होगी। उन्होंने शहरी और ग्रामीण निकायों हेतु चुनावों में फ़र्क़ की ओर इशारा करते हुए कहा कि जहाँ गाँव में भाई-भतीजावाद और जातिवाद जैसे कारक कहीं अधिक प्रभावी भूमिका निभाते हैं, वहीं शहरी निकाय के चुनाव में इसकी संभावना अपेक्षाकृत कम होती है। लेकिन, उनकी इस मान्यता की सीमा यह है कि उनकी बातें बड़े शहरी निकायों के संदर्भ में कहीं अधिक प्रभावी हैं, न कि नगर-पंचायत और नगर-परिषद जैसे छोटे शहरी निकायों के सन्दर्भ में। लेकिन, यह सच है कि ग्रामीण मतदाताओं की तुलना में शहरी मतदाता कहीं अधिक प्रबुद्ध एवं जागरूक होते हैं। इसीलिए अगर सिविल सोसाइटी चाहे और सक्रियता प्रदर्शित करे, तो शहरी निकाय के चुनावों में उनकी भूमिका कहीं अधिक प्रभावी हो सकती है। लेकिन, यहाँ पर समस्या यह भी है कि ग्रामीण मतदाताओं और शहरी स्लम इलाकों के मतदाताओं की तुलना में ऐसे मतदाता मतदान-प्रक्रिया के प्रति उदासीन होते हैं।

नौकरशाही की गिरफ्त में स्थानीय स्वशासन:

एनजीओ निदानके कार्यकारी निदेशक अरविन्द कुमार ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए अप्रभावी शहरी प्रबन्धन और अप्रभावी शहरी गवर्नेंस जैसी कमियों को रेखांकित किया। उन्होंने शहरी गवर्नेंस की ख़ामियों की ओर इशारा करते हुए महापौर और नगर आयुक्त के बीच टकराव की ओर ध्यान आकृष्ट किया। उनका कहना था कि शहरी गवर्नेंस पर नौकरशाही हावी है और वास्तविक अर्थों में जनभागीदारी के तत्व कमजोर हैं। इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि शहरी स्वशासन से सम्बंधित विधानों में परिवर्तन करते हुए शहरी गवर्नेंस में समुचित एवं पर्याप्त जन-भागीदारी को भी सुनिश्चित किया जाए और संसाधनों के हस्तांतरण के ज़रिए शहरी संस्थाओं के सशक्तिकरण को भी सुनिश्चित किया जाए। उन्होंने नीति-निर्माण से सम्बंधित प्रभावी ढ़ाँचे के अभाव की ओर इशारा करते हुए कहा कि (73-74)वें संविधान संशोधन की अपेक्षाओं अनुरूप नौकरशाही के माइंडसेट में बदलाव लाए बग़ैर नीति-निर्माण के ढ़ाँचे का विकास मुश्किल है। और, जब तक ऐसा नहीं हो जाता, तब तक राजनीतिक एवं प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का सपना साकार हो पायेगा, इसमें सन्देह है।

शहरी निकायों के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ:

इस संगोष्ठी के अंतिम सत्र की अध्यक्षता करते हुए एडवोकेट बी. के. सिन्हा ने बिहार में शहरी स्थानीय निकायों के समक्ष मौजूद चुनौतियाँविषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक ओर स्थानीय निकायों से हमारी अपेक्षा विकेन्द्रीकृत आयोजन की है, दूसरी ओर पटना जैसे शहर में पिछले पचास वर्षों से कोई टाउन प्लानर नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ़ पटना की है, अन्य शहरों की भी स्थिति इससे बहुत अलग नहीं है। उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि सरकार स्वयं ही शहरी नियोजन को लेकर गम्भीर नहीं है, और अगर ऐसा है, तो फिर इतना बड़ा ढ़ाँचा खड़ा करने का क्या औचित्य है। इस बहस को आगे बढ़ाते हुए सोशल-पॉलिटिकल एक्टिविस्ट देव कुमार सिंह ने स्थानीय संस्थाओं के एजेंडे थोपने की प्रवृत्ति पर चिन्ता प्रदर्शित करते हुए कहा कि निर्वाचित जन-प्रतिनिधि केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा थोपे गए एजेंडे को मानने लिए विवश होते हैं जिसके कारण राजनीतिक-प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण का सपना सपना ही रह जाता है, कभी मूर्त रूप नहीं ले पाता है। आज आलम यह है कि पूरे शहरी गवर्नेंस पर नगर आयुक्त हावी हैं और स्थानीय जन-प्रतिनिधियों को स्वतंत्र रूप से योजनाओं के चयन तक की अनुमति नहीं है।

पटना नगर निगम की वार्ड-पार्षद पिंकी देवी ने लक्षित विकेन्द्रीकृत आयोजन से नो प्लानिंगतक की यात्रा अपनी चिन्ता प्रदर्शित करते हुए कहा कि स्थानीय संस्थाओं को केन्द्र एवं राज्य सरकार की योजनाओं के क्रियान्वित करने वाली एजेंसी में तब्दील भर कर दिया गया है। फलत: ऐसी परिस्थितियाँ सृजित की गईं जिसमें इस पर नौकरशाही हावी होती चली गयी। इस आलोक में कुमार सर्वेश ने हालिया बदलावों की विसंगतियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक ओर (73-74)वें संविधान-संशोधन के ज़रिये राजनीतिक-प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ विकेन्द्रीकृत आयोजन का आधार तैयार करने का प्रयास किया और सन् 2015 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन करते हुए बॉटम अप एप्रोच के ज़रिये उसे समर्थन देने की कोशिश की गयी, दूसरी ओर बारहवीं पंचवर्षीय योजना(2012-17) के बाद पंचवर्षीय योजनाओं के मॉडल को ही ड्राप कर दिया गया। जब आयोजन की संकल्पना ही नहीं है, तो फिर जिला योजना समिति(DPC) और ग्रामीण एवं शहरी स्वशासी संस्थाओं द्वारा योजना-निर्माण का औचित्य एवं प्रासंगिकता क्या रह जाती है? आज भी जिला योजना समितियाँ मृतप्राय स्थिति में हैं, फलतः स्थानीय निकाय क्रियान्वयन एजेंसियों में तब्दील होकर रह गए हैं।

हालिया संशोधन का शहरी संस्थाओं की स्वायत्ता पर प्रतिकूल असर:

पटना नगर निगम के जन-प्रतिनिधि आशीष कुमार ने शहरी स्थानीय निकाय से सम्बंधित नियमावली में हालिया संशोधन की विसंगतियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि एक ओर मेयर और डिप्टी मेयर के लिए प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था अपनायी जा रही है, दूसरी ओर नगरपालिका नियमावली में संशोधन करते हुए धारा 36-38 और धारा 41 को समाप्त करते हुए शहरी स्वशासी निकायों की शक्तियों को कम करने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने शहरी निकायों में सुधार के नाम पर सरकार के द्वारा इसकी शक्तियों में कटौती की तीखे शब्दों में निंदा की। उन्होंने महापौर और महापौर के कैबिनेट के सशक्तिकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि केरल भारत का एकमात्र राज्य है जहाँ के मेयर को नगर आयुक्त का चरित्र रिपोर्ट (CR) लिखने का अधिकार है। इसी आलोक में उन्होंने माँग की कि नगरपालिका नियमावली के अनुरूप नगर आयुक्त की नियुक्ति में स्थानीय संस्थाओं के जनप्रतिनिधियों की राय को अहमियत दी जाए और अगर वे नगर-आयुक्त के निष्पादन से संतुष्ट नहीं हैं, तो उन्हें उनकी सेवा-वापसी का भी अधिकार हो।

सोशल एक्टिविस्ट योगेश रौशन ने यह बतलाया कि यह शहरी निकाय का चुनाव सिविल सोसाइटी का हस्तक्षेप एवं इसकी पृष्ठभूमि में उच्च न्यायलय का आदेश के है जिसके कारण बिहार में शहरी निकाय अस्तित्व में आए और उनका थोड़ा-बहुत सशक्तिकरण भी संभव हो सका, अन्यथा क्या हालात होते, इसके बारे में अनुमान लगा पाना भी मुश्किल है। उन्होंने सन् 2009 में पटना उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए उस आदेश का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया कि सड़कों के निर्माण के क्रम में सड़कों के लेवल को मेंटेन किया जाए ताकि बने हुए घरों का लेवल सड़कों से नीचे नहीं चला जाए। लेकिन, चिन्ता की बात यह है कि आम लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है और इसके कारण उन्हें परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं।

स्थानीय संस्थाओं की विसंगतियों के लिए आम जनता जिम्मेवार नहीं:

सबरी के प्रबंध निदेशक संजीव कुमार ने अपने सम्बोधन में सरकार और प्रशासन पर यह आरोप लगाया कि इनके द्वारा प्रभावी स्थानीय स्वशासन के सन्दर्भ में अपनी विफलता छुपाने के लिए नागरिक को जिम्मेवार ठहराने हेतु संस्थागत तरीक़े से अभियान चल रही है, ताकि लोगों को यह लगने लगे कि इस स्थिति के लिए सरकार एवं प्रशासन नहीं, आम जनता ज़िम्मेवार है। उन्होंने महाराष्ट्र के हिबड़े बाज़ार मॉडल का उल्लेख करते हुए कहा कि आज आवश्यकता स्थानीय स्वशासन के इस मॉडल को पूरे देश में अपनाने की है, तभी स्थानीय संस्थाएँ उन लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेंगी जिनके लिए इनका गठन किया गया है।

समाधान की दिशा:

संगोष्ठी के अन्त में सम्पादक अजय कुमार ने उभरने वाले निष्कर्षों को रेखांकित करते हुए कहा कि यदि प्रभावी स्थानीय स्वशासन के ज़रिए राजनीतिक-प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण के स्वप्न को साकार करना है, तो सिविल सोसाइटी और निर्वाचित स्थानीय जन-प्रतिनिधियों को आपस में मिलकर शक्तियों के हस्तांतरण के ज़रिए स्थानीय संस्थाओं के सशक्तिकरण हेतु सरकार पर दबाव निर्मित करना होगा ताकि सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सके। लेकिन, यह तब तक संभव नहीं है जब तक सिविल सोसाइटी और स्थानीय जन-प्रतिनिधियों के बीच संवाद हेतु प्लेटफ़ॉर्म विकसित न हो और स्थानीय जन-प्रतिनिधि अपनी जवाबदेही के ज़रिए सिविल सोसाइटी में अपने प्रति भरोसा उत्पन्न न करें। इसके अलावा, इस संगोष्ठी में शामिल सारे वक्ताओं के बीच इस बात पर सहमति थी कि अगर स्थानीय स्वशासन के समक्ष मौजूद चुनौतियों से प्रभावी तरीक़े से निबटना है, तो सिविल सोसाइटी को आगे आकर अपनी ज़िम्मेवारी स्वीकार करनी होगी, ताकि आम मतदाताओं में राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता क़ायम की जा सके, स्थानीय निकायों के चुनावों में धनबल एवं बाहुबल, जाति एवं धर्म जैसी विसंगतियों को दूर किया जा सके और निर्वाचित स्थानीय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा अपनी नागरिक ज़िम्मेवारी को स्वीकार करते हुए सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक के प्लेटफ़ार्मों का प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया जाए। अन्त में उन्होंने राज्य सरकार से
यह अपील की कि वह स्थानीय संस्थाओं की प्रभावशीलता और सशक्तिकरण के प्रति संवेदनशील हो, तथा प्रशासन अपने माइंड सेट में बदलाव के ज़रिए इसके प्रति अनुक्रियाशील (Responsive) हो।

Friday 18 March 2022

‘द कश्मीर फाइल्स’: विरोध का औचित्य

 कश्मीर फाइल्स का राजनीतिकरण:

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हाल में रिलीज़ मूवी ‘ कश्मीर फ़ाइल्स’ ने भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर रखा है। भारतीय समाजविशेष रूप से हिन्दू समाज काएक बड़ा हिस्सा इसके ज़रिए कश्मीर और कश्मीरी पण्डितों की समस्या को समझ लेने पर आमादा हैजबकि भारतीय समाज का एकहिस्साजिसके सोशल एवं पॉलिटिकल मार्जिनलाइजेशन की समस्या पिछले कुछ वर्षों से निरन्तर जारी है और यह प्रक्रिया निरन्तर तेजहोती जा रही हैइसे भारतीय समाज एवं राजनीति के सम्प्रदायीकरण की रणनीति का हिस्सा मान रहा है। इस मूवी के ज़रिए ध्रुवीकरणकी प्रक्रिया तब और भी अधिक तेज हो गयी जब भारतीय प्रधानमंत्री ने इसे देखे जाने की आवश्यकता पर यह कहते हुए बल दिया किनिर्देशक विवेक अग्निहोत्री उस सच को सामने लान केले लिए बधाई के पात्र हैं जिसे पिछले बत्तीस साल से दबाकर रखा गया था। साथहीभाजपा और भाजपा-गठबंधन द्वारा शासित कई राज्य सरकारों ने इस मूवी को देखने के लिए अपने कर्मचारियों को छुट्टी भी प्रदान कीऔर कई राज्य सरकारों ने उसे टैक्स फ़्री भी किया। स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने इस मूवी को देखने के लिएआमलोगों को प्रेरित करने की रणनीति अपनायीऔर इसने इस मूवी के राजनीतिकरण की संभावनाओंजो पहले से ही मूवी में मौजूदथीको बल प्रदान किया। इस स्थिति ने ‘ कश्मीर फाइल्स’ को महज़ मूवी नहीं रहने दियावरन् इसे राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में लाकरप्रतिष्ठित कर दिया। 

कला और इतिहास:

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इस मूवी को लेकर सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित तरीक़े से यह हाइप क्रिएट किया गया कि यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी औरउससे जुड़े हुए सच को सामने लाती हैमानो यह मूवी  होकर कश्मीरी पण्डितों के शोषण-उत्पीड़न का आँखों देखा हाल हो। इस तरहकी बातें वे लोग ही करते हैं जिन्हें  तो कला की समझ है और  ही इतिहास की। दरअसलइतिहास यथार्थपरकता और तथ्यपरकताके आग्रह को लेकर उपस्थित होता हैजबकि साहित्य या कला मनोरंजन के आग्रह को लेकर उपस्थित होता है। भले ही साहित्य याकला का सृजन इतिहासऐतिहासिक तथ्यऐतिहासिक घटनाक्रम और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर हुआ होपर उसकीमनोरंजकता एवं सरसता के प्रति आग्रहशीलता कलाकार और साहित्यकार को ऐतिहासिकता के आग्रह से छुट लेते हुए कल्पना कासहारा लेने के लिए विवश करती है। इसीलिए आपमें से जो भी लोग सच की तलाश में ‘ कश्मीर फाइल्स’ की ओर जाना चाहते हैंउन्हेंमैं सिर्फ़ दो बातें कहना चाहूँगाएक तो यह कि कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर केन्द्रित यह  तो पहली मूवी है और  ही अन्तिमऔरदूसरी बात यह कि इस मूवी में आपको विवेक अग्निहोत्री का सच तो मिल सकता हैपर कश्मीरी पण्डितों की मुकम्मल सच नहीं। अगरसच की ही तलाश करनी हैतो किसी एक किताब नहींवरन् किताबों की शरण में जाएँ ताकि सच के विविध आयाम खुलकर सामने सकें।

कला जीवन के लिए या कला कला के लिए:

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इस मूवी की इस आधार पर भी आलोचना की जा रही है कि इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं और उन्हीं राजनीतिक निहितार्थों को ध्यान मेंरखते हुए निर्देशक ने सच को अपने तरीक़े से परोसने की कोशिश की है। यह सच है कि इतिहासकला और साहित्य-जगत का बड़ाहिस्सा कला एवं साहित्य की सार्थकता को जीवन एवं समाज के संदर्भ में उसकी उपादेयता से सम्बद्ध करके देखता हैलेकिन यह अन्तिमसत्य नहीं है। हर दौर में सत्ता ने कला एवं साहित्य को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं अनुरूप ढ़ालने की कोशिश की है और आज भी यहकोशिश की जा रही हैइसलिए आज अगर सत्तारूढ़ दल कलासाहित्य एवं इतिहास के ज़रिए राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश कोअपने अनुरूप ढ़ालने की कोशिश कर रहा हैतो प्रथमदृष्ट्या इसको लेकर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिनसमस्या कहीं अधिक गहनहै। दरअसल इन बातों को लेकर आपत्ति तबतक नहीं होनी चाहिए जबतक राजनीतिक हित और व्यापक सामाजिक हित एक दूसरे सेटकराते  हों। लेकिनयदि राजनीतिक एवं व्यापक सामाजिक हितों में टकराहट होतो व्यापक सामाजिक हितों को प्राथमिकता मिलनीचाहिए। यही वह बिन्दु है जहाँ ‘ कश्मीर फाइल्स’ हमें निराश करती है। 

इन बातों को कुछ प्रश्नों के ज़रिए समझा जा सकता है:

  1. क्या इस मूवी के पहले तक कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी से सम्बंधित सच को छुपाने एवं दबाने की कोशिश की गयी?
  2. क्या यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की समस्या के समाधान की ओर इशारा करती है?
  3. इस मूवी का कश्मीर घाटी में रह रहे कश्मीरी पण्डितों की सुरक्षा उनके भविष्य पर क्या असर पड़ेगा?
  4. क्या यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर किसी गम्भीर विमर्श की प्रस्तावना करती हैया फिर उस विमर्श में कुछ सार्थकजोड़ती है?
  5. यह मूवी क्या संदेश देती है

पिछले एक सप्ताह के दौरान मैंने कश्मीर-समस्या पर केन्द्रित कई मूवी देखी हैशिकाराहैदरहामिदमुद्दा 370 और जेके (तथ्यात्मकग़लतियों के साथआदि। इन सारे फ़िल्मों में कश्मीर समस्या को विभिन्न कोणों से उठाते हुए इसका जीवन्त चित्रण किया गया हैपरघृणा के बजाय प्रेम के मैसेज के साथजिसका सीधा-सीधा सम्बंध बेहतर भविष्य हेतु बदलाव के मैसेज से जुड़ता है।


 कश्मीर फाइल्स और अभिव्यक्ति की आज़ादी:

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पश्चिम चिन्तक वाल्तेयर का कहना है कि यद्यपि मैं तुमसे असहमत हूँपर तुम्हारी अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए मैं अन्तिमदम तक संघर्ष करूँगा। अभिव्यक्ति की यह आज़ादी केवल भारतीय समाज के लिबरलप्रोग्रेसिव एवं सेक्यूलर तबके के लिए ही नहीं हैवरन् इसका दायरा उन लोगों तक भी विस्तृत है जो इनसे सहमत नहीं है और इनके विरोध में खड़े हैं। इसीलिए अभिव्यक्ति की आज़ादी कश्मीर फाइल्स’ और इसके निर्देशकों के संदर्भ में भी मायने रखते हैं। वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में निकट भविष्य मेंऐसी और भी फ़िल्में आयेंगी जो भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बाने के समक्ष जटिल चुनौतियाँ उत्पन्न करेंगीऔर चूँकि ऐसे समूहोंको सत्ता का संरक्षण प्राप्त है और मीडिया के समर्थन के साथ-साथ राजनीतिकसामाजिक परिवेश भी इनके लिए कहीं अधिक अनुकूलहैइसीलिए इस चुनौती से मुक़ाबले के लिए भिन्न रणनीति अपनानी होगी। 

आज केवल आलोचना एवं प्रत्यालोचना से काम नहीं चलने वाला है। ऐसी आलोचनाएँ एवं प्रत्यालोचनाएँ भारतीय समाज के बड़े हिस्सेके लिए मायने नहीं रखती हैं क्योंकि जिस समूह के द्वारा ऐसा किया जा रहा है या फिर किया जाएगाउस समूह को मीडिया के सहयोगसे सत्ता-प्रतिष्ठान के द्वारा कम्युनिस्टअर्बन नक्सलएंटी-नेशनलप्रो-मुस्लिमसिकूलरखाँग्रेसी आदि घोषित कर उसकीविश्वसनीयता पर पहले ही प्रश्नचिह्व लगाया जा चुका है। आलम यह है कि आज देश का मतलब सरकारएक पार्टी और एक व्यक्ति होचुका है और उसके विरोध का मतलब देश-विरोध हो चुका है। ऐसी स्थिति में कला और साहित्य के ज़रिए आमलोगों तक पहुँचने कीकोशिश करनी होगी और नेशनल डिस्कवरियों में प्रभावी हस्तक्षेप करना होगा। इसके लिए ज़रूरत है संगठित एवं व्यवस्थित तरीक़े से प्रयास की। कश्मीर फाइल्स का जवाब कश्मीर फाइल्स ही हो सकता हैकुछ और नहीं। लेकिनसमस्या यह है कि मुख्यधारा केविपक्षी दलों को  तो इसकी चिन्ता है और   ही वे इस चुनौती को लेकर बहुत गंभीर ही दिखाई पड़ते। अगर थोड़ी-बहुत संभावना कहींनज़र आती हैतो वामपंथियों मेंलेकिन वे कमज़ोर हो चुके हैंउनके पास संसाधनों का अभाव है और उनमें व्यावहारिक लोचशीलता काअभाव है जिसके कारण ऐसा होने की उम्मीद नहीं के बराबर है। रही बात लिबरल्स कीतो उनका बिखराव उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है जिनसे पार पाना नामुमकिन नहींतो बहुत ही मुश्किल अवश्य है। और सबसे बड़ी बातवर्तमान में जनमानस उन्हें सुनने और समझने केलिए तैयार भी नहीं है।