कश्मीर फाइल्स का राजनीतिकरण:
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हाल में रिलीज़ मूवी ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ ने भारतीय जनमानस को उद्वेलित कर रखा है। भारतीय समाज, विशेष रूप से हिन्दू समाज काएक बड़ा हिस्सा इसके ज़रिए कश्मीर और कश्मीरी पण्डितों की समस्या को समझ लेने पर आमादा है, जबकि भारतीय समाज का एकहिस्सा, जिसके सोशल एवं पॉलिटिकल मार्जिनलाइजेशन की समस्या पिछले कुछ वर्षों से निरन्तर जारी है और यह प्रक्रिया निरन्तर तेजहोती जा रही है, इसे भारतीय समाज एवं राजनीति के सम्प्रदायीकरण की रणनीति का हिस्सा मान रहा है। इस मूवी के ज़रिए ध्रुवीकरणकी प्रक्रिया तब और भी अधिक तेज हो गयी जब भारतीय प्रधानमंत्री ने इसे देखे जाने की आवश्यकता पर यह कहते हुए बल दिया किनिर्देशक विवेक अग्निहोत्री उस सच को सामने लान केले लिए बधाई के पात्र हैं जिसे पिछले बत्तीस साल से दबाकर रखा गया था। साथही, भाजपा और भाजपा-गठबंधन द्वारा शासित कई राज्य सरकारों ने इस मूवी को देखने के लिए अपने कर्मचारियों को छुट्टी भी प्रदान कीऔर कई राज्य सरकारों ने उसे टैक्स फ़्री भी किया। स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने इस मूवी को देखने के लिएआमलोगों को प्रेरित करने की रणनीति अपनायी, और इसने इस मूवी के राजनीतिकरण की संभावनाओं, जो पहले से ही मूवी में मौजूदथी, को बल प्रदान किया। इस स्थिति ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को महज़ मूवी नहीं रहने दिया, वरन् इसे राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में लाकरप्रतिष्ठित कर दिया।
कला और इतिहास:
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इस मूवी को लेकर सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित तरीक़े से यह हाइप क्रिएट किया गया कि यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी औरउससे जुड़े हुए सच को सामने लाती है, मानो यह मूवी न होकर कश्मीरी पण्डितों के शोषण-उत्पीड़न का आँखों देखा हाल हो। इस तरहकी बातें वे लोग ही करते हैं जिन्हें न तो कला की समझ है और न ही इतिहास की। दरअसल, इतिहास यथार्थपरकता और तथ्यपरकताके आग्रह को लेकर उपस्थित होता है, जबकि साहित्य या कला मनोरंजन के आग्रह को लेकर उपस्थित होता है। भले ही साहित्य याकला का सृजन इतिहास, ऐतिहासिक तथ्य, ऐतिहासिक घटनाक्रम और ऐतिहासिक चरित्र को आधार बनाकर हुआ हो, पर उसकीमनोरंजकता एवं सरसता के प्रति आग्रहशीलता कलाकार और साहित्यकार को ऐतिहासिकता के आग्रह से छुट लेते हुए कल्पना कासहारा लेने के लिए विवश करती है। इसीलिए आपमें से जो भी लोग सच की तलाश में ‘द कश्मीर फाइल्स’ की ओर जाना चाहते हैं, उन्हेंमैं सिर्फ़ दो बातें कहना चाहूँगा: एक तो यह कि कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर केन्द्रित यह न तो पहली मूवी है और न ही अन्तिम; औरदूसरी बात यह कि इस मूवी में आपको विवेक अग्निहोत्री का सच तो मिल सकता है, पर कश्मीरी पण्डितों की मुकम्मल सच नहीं। अगरसच की ही तलाश करनी है, तो किसी एक किताब नहीं, वरन् किताबों की शरण में जाएँ ताकि सच के विविध आयाम खुलकर सामने आसकें।
कला जीवन के लिए या कला कला के लिए:
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इस मूवी की इस आधार पर भी आलोचना की जा रही है कि इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं और उन्हीं राजनीतिक निहितार्थों को ध्यान मेंरखते हुए निर्देशक ने सच को अपने तरीक़े से परोसने की कोशिश की है। यह सच है कि इतिहास, कला और साहित्य-जगत का बड़ाहिस्सा कला एवं साहित्य की सार्थकता को जीवन एवं समाज के संदर्भ में उसकी उपादेयता से सम्बद्ध करके देखता है, लेकिन यह अन्तिमसत्य नहीं है। हर दौर में सत्ता ने कला एवं साहित्य को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं अनुरूप ढ़ालने की कोशिश की है और आज भी यहकोशिश की जा रही है, इसलिए आज अगर सत्तारूढ़ दल कला, साहित्य एवं इतिहास के ज़रिए राजनीतिक एवं सामाजिक परिवेश कोअपने अनुरूप ढ़ालने की कोशिश कर रहा है, तो प्रथमदृष्ट्या इसको लेकर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन, समस्या कहीं अधिक गहनहै। दरअसल इन बातों को लेकर आपत्ति तबतक नहीं होनी चाहिए जबतक राजनीतिक हित और व्यापक सामाजिक हित एक दूसरे सेटकराते न हों। लेकिन, यदि राजनीतिक एवं व्यापक सामाजिक हितों में टकराहट हो, तो व्यापक सामाजिक हितों को प्राथमिकता मिलनीचाहिए। यही वह बिन्दु है जहाँ ‘द कश्मीर फाइल्स’ हमें निराश करती है।
इन बातों को कुछ प्रश्नों के ज़रिए समझा जा सकता है:
- क्या इस मूवी के पहले तक कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी से सम्बंधित सच को छुपाने एवं दबाने की कोशिश की गयी?
- क्या यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की समस्या के समाधान की ओर इशारा करती है?
- इस मूवी का कश्मीर घाटी में रह रहे कश्मीरी पण्डितों की सुरक्षा उनके भविष्य पर क्या असर पड़ेगा?
- क्या यह मूवी कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर किसी गम्भीर विमर्श की प्रस्तावना करती है, या फिर उस विमर्श में कुछ सार्थकजोड़ती है?
- यह मूवी क्या संदेश देती है?
पिछले एक सप्ताह के दौरान मैंने कश्मीर-समस्या पर केन्द्रित कई मूवी देखी है: शिकारा, हैदर, हामिद, मुद्दा 370 और जेके (तथ्यात्मकग़लतियों के साथ) आदि। इन सारे फ़िल्मों में कश्मीर समस्या को विभिन्न कोणों से उठाते हुए इसका जीवन्त चित्रण किया गया है, परघृणा के बजाय प्रेम के मैसेज के साथ, जिसका सीधा-सीधा सम्बंध बेहतर भविष्य हेतु बदलाव के मैसेज से जुड़ता है।
द कश्मीर फाइल्स और अभिव्यक्ति की आज़ादी:
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पश्चिम चिन्तक वाल्तेयर का कहना है कि यद्यपि मैं तुमसे असहमत हूँ, पर तुम्हारी अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए मैं अन्तिमदम तक संघर्ष करूँगा। अभिव्यक्ति की यह आज़ादी केवल भारतीय समाज के लिबरल, प्रोग्रेसिव एवं सेक्यूलर तबके के लिए ही नहीं है, वरन् इसका दायरा उन लोगों तक भी विस्तृत है जो इनसे सहमत नहीं है और इनके विरोध में खड़े हैं। इसीलिए अभिव्यक्ति की आज़ादी‘द कश्मीर फाइल्स’ और इसके निर्देशकों के संदर्भ में भी मायने रखते हैं। वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में निकट भविष्य मेंऐसी और भी फ़िल्में आयेंगी जो भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बाने के समक्ष जटिल चुनौतियाँ उत्पन्न करेंगी, और चूँकि ऐसे समूहोंको सत्ता का संरक्षण प्राप्त है और मीडिया के समर्थन के साथ-साथ राजनीतिक- सामाजिक परिवेश भी इनके लिए कहीं अधिक अनुकूलहै, इसीलिए इस चुनौती से मुक़ाबले के लिए भिन्न रणनीति अपनानी होगी।
आज केवल आलोचना एवं प्रत्यालोचना से काम नहीं चलने वाला है। ऐसी आलोचनाएँ एवं प्रत्यालोचनाएँ भारतीय समाज के बड़े हिस्सेके लिए मायने नहीं रखती हैं क्योंकि जिस समूह के द्वारा ऐसा किया जा रहा है या फिर किया जाएगा, उस समूह को मीडिया के सहयोगसे सत्ता-प्रतिष्ठान के द्वारा कम्युनिस्ट, अर्बन नक्सल, एंटी-नेशनल, प्रो-मुस्लिम, सिकूलर, खाँग्रेसी आदि घोषित कर उसकीविश्वसनीयता पर पहले ही प्रश्नचिह्व लगाया जा चुका है। आलम यह है कि आज देश का मतलब सरकार, एक पार्टी और एक व्यक्ति होचुका है और उसके विरोध का मतलब देश-विरोध हो चुका है। ऐसी स्थिति में कला और साहित्य के ज़रिए आमलोगों तक पहुँचने कीकोशिश करनी होगी और नेशनल डिस्कवरियों में प्रभावी हस्तक्षेप करना होगा। इसके लिए ज़रूरत है संगठित एवं व्यवस्थित तरीक़े से प्रयास की। कश्मीर फाइल्स का जवाब कश्मीर फाइल्स ही हो सकता है, कुछ और नहीं। लेकिन, समस्या यह है कि मुख्यधारा केविपक्षी दलों को न तो इसकी चिन्ता है और न ही वे इस चुनौती को लेकर बहुत गंभीर ही दिखाई पड़ते। अगर थोड़ी-बहुत संभावना कहींनज़र आती है, तो वामपंथियों में, लेकिन वे कमज़ोर हो चुके हैं, उनके पास संसाधनों का अभाव है और उनमें व्यावहारिक लोचशीलता काअभाव है जिसके कारण ऐसा होने की उम्मीद नहीं के बराबर है। रही बात लिबरल्स की, तो उनका बिखराव उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है जिनसे पार पाना नामुमकिन नहीं, तो बहुत ही मुश्किल अवश्य है। और सबसे बड़ी बात, वर्तमान में जनमानस उन्हें सुनने और समझने केलिए तैयार भी नहीं है।
शानदार आलेख। आपने बड़ी सफाई के साथ नारंगी के छिलके अलग किये। इसे पढ़कर मुझे बड़ा आनंद हुआ। निश्चय, आप प्रशंसा योग्य हैं।
ReplyDeleteसर आपने बहुत सुंदर तरीके से हर एक पहलू को रखा है। वाकई यदि कश्मीर के इतिहास व उससे जुड़ी घटनाओँ को जानना है तो प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्यों व कई किताबों का अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिये लेकिन सबसे बड़ी समस्या लोगों के पास समय की है जो वो सोशल मीडिया पर तो दे सकता है परंतु किताबों में नहीं।
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ReplyDeletevery good inforamation about kashmir File movies Competative Exam related post hindi, english and marathi
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