Monday 28 December 2015

बिहार सामान्य अध्ययन (मेन्स स्पेशल):ट्रेंड एनालाइसिस भारत और बिहार का इतिहास:

"भारत और बिहार का इतिहास" खण्ड से पूछे जाने वाले प्रश्नों के ट्रेंड पर ग़ौर करें, तो हम पाते हैं कि ऐसे प्रश्नों का वर्गीकरण इस तरह से किया जा सकता है:
1. कला एवं संस्कृति:
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इस खंड से सामान्यत: निम्न टाॅपिकों पर प्रश्न पूछे जाते हैं: मौर्य कला एवं स्थापत्य
                पाल स्थापत्य एवं कला
                पटना क़लम चित्रकला
                मधुबनी पेंटिंग्स
इनमें पहले के तीन टाॅपिक से सामान्यत: एक प्रश्न पूछे ही जाते हैं। चूँकि मौर्य कला पर प्रश्न पूछे गए हैं, इसीलिए पाल कला और पटना क़लम से एक प्रश्न पूछे जाने की प्रबल संभावना है। ख़ुद को सुरक्षित करने के लिए मौर्य कला और मधुबनी पेंटिंग्स को भी तैयार कर लें, ताकि अगर ट्रेंड में बदलाव होते हैं, तो भी आप सुरक्षित हों।
2. बिहार: जनजातीय विद्रोह:
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सामान्यत: इस खण्ड से पूछे जाने वाले प्रश्न निम्न टाॅपिक से संबंधित हो सकते हैं:
                    संथाल विद्रोह
                    मुण्डा विद्रोह
इन दोनों टाॅपिकों से संबंधित प्रश्न या तो कारण और स्वरूप से संबंधित होंगे या फिर व्यक्तित्व-आधारित। सामान्यत: इन टाॅपिकों पर छात्र एक ही प्रश्न तैयार करते हैं और कुछ भी पूछा जाए, उसी उत्तर को लिखकर आते हैं। ऐसी िस्थति में अच्छे अंक मिलने मुश्किल हैं। आपके उत्तर का प्रस्तुतिकरण प्रश्न की माँग के अनुरूप होने चाहिए, तभी आप अच्छे अंक हासिल कर पायेंगे।पिछली परीक्षा में मुंडा विद्रोह पर प्रश्न पूछा जा चुका है, अत: संथाल विद्रोह और सिद्धू-कान्हू  पर  प्रश्न पूछे जाने की संभावना प्रबल है। फिर भी, मैं मुंडा विद्रोह और बिरला मुंडा को भी तैयार करने की सलाह दूँगा।

3. आधुनिक भारत और बिहार का इतिहास:
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इस खंड से पूछे जाने वाले प्रश्न मुख्यत: बिहार से संबंधित होते हैं। सामान्यत: इन प्रश्नों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
             औपनिवेशिक शासन के दौरान बिहार
             राष्ट्रीय आंदोलन से संबंधित प्रश्न
             व्यक्तित्व-आधारित प्रश्न
           
>>>>>>>>>>"औपनिवेशिक शासन के दौरान बिहार" उपखण्ड से पूछे जाने वाले प्रश्न सामान्यत: निम्न होने की संभावना है:
             बिहार पर  औपनिवेशिक शासन का
             सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
             बिहार में पश्चिमी एवं तकनीकी व
             वैज्ञानिक शिक्षा  का विकास 
             प्रेस का विकास
ये सारे टाॅपिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यहाँ से पिछले वर्ष प्रश्न नहीं पूछे गए हैं।
>>>>>>>>>>राष्ट्रीय आंदोलन खंड से बिहार के विशेष संदर्भ में निम्न टाॅपिकों को देखा जाना अपेक्षित है: 
            1857 का विद्रोह
            बंगाल-विभाजन और आधुनिक बिहार
            का उदय
            चम्पारण सत्याग्रह 
            असहयोग आंदोलन और बिहार
            सविनय अवज्ञा आंदोलन और बिहार
            व्यक्तिगत सत्याग्रह और बिहार
            भारत छोड़ो आंदोलन और बिहार:
            आज़ाद दस्ता के विशेष संदर्भ में
उपरोक्त टाॅपिकों में  1857 के विद्रोह और >>>>>>>>>>व्यक्तिगत सत्याग्रह पर पिछले वर्ष प्रश्न पूछे जा चुके हैं, अत: शेष टाॅपिक महत्वपूर्ण हैं जिनपर विशेष ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण है।
व्यक्तित्व आधारित प्रश्न कँुअर सिंह,बिरसा मंुडा,सिद्धू-कान्हू, गाँधी,नेहरू, टैगोर और जयप्रकाश से संबंधित हो सकते हैं। इनमें पिछली परीक्षा में कुँअर सिंह और बिरसा आंदोलन पर प्रश्न पूछे जा चुके है।अत: शेष व्यक्तित्व इस बार के लिए महत्वपूर्ण हैं।
स्रोत-सामग्री:
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1.सार्थक बिहार सामान्य अध्ययन
   (मेन्स स्पेशल)
2.अपारंपरिक स्रोत
             
              

Wednesday 16 December 2015

बीपीएससी मेन्स स्पेशल भारतीय राजव्यवस्था

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भारतीय राजव्यवस्था 
बीपीएससी मेन्स स्पेशल
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प्रश्नों की प्रवृत्ति:
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बीपीएससी मुख्य परीक्षा में भारतीय राजव्यवस्था खंड से जो प्रश्न पूछे जाते हैं, वे सामान्यत: इस खंड की व्यापक समझ और अवधारणाओं के साथ-साथ एप्लीकेशन पर आधारित होते हैं। साथ ही, इसके लिए अपडेशन की भी ज़रूरत होती है। इनकी तैयारी करते वक़्त इन पहलुओं के साथ-साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कई बार ऐसे प्रश्नों को बिहार के विशेष संदर्भों से भी जोड़कर पूछा जाता है।
महत्वपूर्ण टाॅपिक:
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सबसे पहले भारतीय संविधान की प्रस्तावना को लिया जाय। यहाँ से सामान्य प्रकृति के यह प्रश्न पूछे जा सकते हैं कि:
"भारतीय संविधान में प्रस्तावना के महत्व को रेखांकित करते हुए इसकी वैधानिक िस्थति को स्पष्ट करें।" 
लेकिन,हाल में प्रस्तावना जिस तरह से चर्चा में रही है, उसके मद्देनज़र इस प्रश्न के पूछे जाने की संभावना प्रबल है कि:
" 'पंथनिरपेक्षता' और 'धर्मनिरपेक्षता' के फ़र्क़ को स्पष्ट करें। साथ ही,बयालीसवें संविधान-संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' शब्द को शामिल करने के औचित्य के प्रश्न पर विचार करते हुए बतलाइए कि क्यों नहीं इन्हें प्रस्तावना से हटा दिया जाए?"
यहाँ से भारतीय राज्य की समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को आधार बनाकर भी प्रश्न पूछे जाने की संभावना बनती है।प्रस्तावना से ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय महत्वपूर्ण टापिक है जो पूरे बिहार चुनाव के दौरान चर्चा में रहा है।
प्रस्तावना के बाद मौलिक अधिकार,नीति निदेशक तत्व तथा मौलिक कर्तव्य दूसरा महत्वपूर्ण टाॅपिक है जहाँ से प्रश्न की संभावना बनती है। यहाँ से सामाजिक न्याय से जुड़े हुए पहलू से प्रश्न पूछे जाने की पूरी सम्भावना है। आरक्षण और इससे सम्बद्ध पहलुओं, विशेषकर आरक्षण की समीक्षा, बिहार में महिला सशक्तीकरण में आरक्षण की भूमिका, अल्पसंख्यकों की िस्थति, बढ़ती हुई असहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार अधिनियम और इसका बिहार में क्रियान्वयन,सोशल मीडिया की भूमिका, बीफ-बैन,धर्मांतरण आदि टाॅपिक हाल-फ़िलहाल चर्चा में रहे हैं जिन्हें विशेष रूप से तैयार करने की ज़रूरत है।
सरकार के विभिन्न अंगों में विधायिका से अध्यादेश,धनविधेयक, संयुक्त विधेयक, विपक्षी दल के नेता, राज्यसभा का औचित्य और प्रासंगिकता, संसदीय गतिरोध, संसदीय-सुधार: विशेष रूप से राज्यसभा-सुधार आदि टाॅपिक महत्वपूर्ण हैं।
जहाँ तक न्यायपालिका का प्रश्न है, न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित विवाद, कालेजियम व्यवस्था, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग और इसको लेकर न्यायपालिका-विधायिका टकराव आदि महत्वपूर्ण हैं।
जहाँ तक बिहार की राजनीति, मतदान-आचरण और चुनाव-सुधार का प्रश्न है, तो चुनावी आचार संहिता, हालिया सम्पन्न बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों का विश्लेषण,राजनीति का अपराधीकरण, भारत-सह-बिहार की राजनीति में धर्म-जाति- लिंग-भाषा, धनबल,सोशल मीडिया और तकनीक की भूमिका तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव को सुनिश्चित करने में चुनाव आयोग एवं ब्यूरोक्रेसी की भूमिका आदि से संबंधित प्रश्न पूछे जाने की संभावना है।
संघ-राज्य संबंध वाले खंड से सहकारी संघवाद, प्रतिस्पर्धी संघवाद, योजना आयोग-नीति आयोग-चौदहवें वित्त आयोग के आलोक में संघ-राज्य संबंध, राज्यपाल की नियुक्ति-स्थानांतरण-बर्खास्तगी से संबंधित विवाद, आपातकालीन प्रावधान आदि महत्वपूर्ण टाॅपिक हैं। इसके अलावा स्थानीय संस्थाएँ एवं राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समावेशन में इसकी भूमिका के साथ-साथ हाल में न्यूनतम शैक्षिक एवं स्वच्छता मानदंड के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय महत्वपूर्ण है।
स्रोत-सामग्री:
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१.समाचार-पत्र
२.मैगजीन: प्रतियोगिता दर्पण 
फ्रंटलाइन
इंडिया टुडे
३. सार्थक बीपीएससी स्पेशल: 
कुमार सर्वेश एवं अन्य

Tuesday 15 December 2015

प्रतिपक्ष


" नहीं, यहाँ कोई नहीं है,

 मूल्य और नैतिकता,

 सिद्धांत और आदर्श

 ईमानदारी का दामन थामकर

 सत्ता के पक्ष में चले गए हैं,

 और प्रतिपक्ष में शेष रह गए हैं

 चोर और बेईमान सारे,

 अनैतिक और मूल्यहीन सब।"


Friday 11 December 2015

कविता और मैं

"कविता क्या है?"
विकट प्रश्न है यह
मेरे लिए............
वर्ड्सवर्थ से शेली तक,
पंत से आचार्य शुक्ल तक,
सबने परिभाषा दी इसकी,
अपनी-अपनी तरह से।
तुमने भी कहा इसे
"फ़्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति",
"मेरे फ़्रस्ट्रेशन की अभिव्यक्ति"।
मैं तुमसे असहमत नहीं,
पर इसे सहज तरीक़े से
स्वीकार नहीं पाता;
क्योंकि
रह-रहकर
एक प्रश्न कौंधता है
कि कवि ही फ्रस्ट्रेट क्यों होता है,
क्यों होता है वह विद्रोही, 
कौन बनाता है उसे कुंठित?
आख़िर, शुरू से ही तो
ऐसा नहीं होगा वह।
जवाब मिलता है:
क्योंकि ज़िन्दा है वह, 
ज़िन्दा रहने का अहसास है उसे,
उसकी आत्मा अब भी जीवित है,
अपने ज़मीर को बेचा नहीं है उसने,
उसकी संवेदनायें मरी नहीं हैं अभी।
वह ख़ुद तो तिल-तिलकर मर रहा है,
पर अपनी अनुभूतियों के सहारे
कोशिश कर रहा है वह,
ज़िन्दा रखने की 
अपनी संवेदनाओं को।
और, जितनी ही वह 
करता है कोशिश
अपनी संवेदनाओं को बचाने की,
छिटककर उतनी ही दूर 
पड़ती चली जाती है संवेदना उसकी।
फिर, संवेदनाओं के 
चटकने और छिटकने का अहसास 
हर पल 
गहराता चला जाता है।
कविता 
इन्हीं चटकती और छिटकती
संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है
मेरे लिए।
जानना चाहोगे तुम,
कि कविता क्या है मेरे लिए?
कविता ढाल है;
हाँ,ढाल है मेरे लिए,
अपने को टूटने से बचाने का;
कविता ज़रिया है 
आत्माभिव्यक्ति का,
उस आत्माभिव्यक्ति का
जो मेरा पुनर्सृजन करती है
और जिस पुनर्सृजन के ज़रिए
जनता हूँ मैं ख़ुद को
हर उस क्षण में,
और बचाए रखता हूँ मैं
अपने अहसासों को,
अपनी संवेदनाओं को
और उससे जुड़ी अनुभूतियों को।
तुम्हारे लिए
यह एक कविता भर है,
पर,मेरे लिए 
यह एक उपक्रम है
ज़िन्दा रहने के अहसास को महसूसने का,
यह मेरी ऊर्जा है,
शक्ति है मेरी,
साधना और आराधना भी।
मैं हूँ जबतक,
तबतक मेरी कविता भी रहेगी;
नहीं, जबतक मेरी कविता रहेगी
तबतक मैं भी रहूँगा
और मेरी संवेदनाएँ भी रहेंगीं।
कविता नहीं,
तो मैं भी नहीं,
मेरी संवेदनाएँ भी नहीं
और मेरे जीने का अहसास भी नहीं।
मैं और कविता,
कविता और मैं,
मैं-कविता, या फिर 
कविता-मैं!
27th January,2011

Tuesday 8 December 2015

"विद्रोही" तुम!

"विद्रोही तुम"
विद्रोही चिंता है तुमको
रामायण के धोबन की,
इसीलिए लिखते हो तुम:
" लेकिन, उस धोबन का पता नहीं चलता,
जिसके कारण सारा काण्ड हुआ था।
धोबी ने धोबन को रक्खा कि छोड़ा,
पंचायत ने दण्ड ठोंका, कि माफ़ किया ,
क्या कोई होगा बचा, उसके भी वंश खूँट में!"
पता नहीं , सीता थी भी या नहीं,
धोबन भी थी अथवा नहीं,
संभव है वह कोरी कल्पना हो वाल्मीकि की।
तुम्हें बहुत चिंता है उसकी,
शायद बौद्धिक हो तुम,
और बौद्धिकों की भी अजीब बीमारी है,
कल्पना लोक में विचरण करना
और विचारों की दुनिया में खोये रहना।
मैं न तो बौद्धिक हूँ
और न मेरी संवेदना ही देती है मुझे इजाज़त
उतनी दूर जाने की।
मैं तो एक अदद इन्सान हूँ,
ख़ुद में उलझा हुआ,
ख़ुद में खोया हुआ।
मैं न तो सीता की पीड़ा महसूस कर सकता
और न ही उस धोबन की पीड़ा को;
न तो मुझे सीता की चिन्ता सताती है
और न ही उस धोबन की।
मेरी चिंता तो 
हाड़-माँस के उस जीव की है,
जिसे मैं अपने ही भीतर महसूस करता हूँ,
मेरी महसूसने की क्षमता अत्यंत सीमित है,
ख़ुद की पीड़ा को महसूसने से मुझे फ़ुर्सत कहाँ?
जानते हो विद्रोही,
क्या फ़र्क़ है तुझमें और मुझमें:
तुम ज़िन्दा हो,
और मैं ज़िन्दा होने के अहसास को
जिलाए रखने के लिए संघर्षरत्;
तुम या तो बेफ़िक्र हो
या फिर उबर चुके हो अपनी पीड़ा से,
और मैं अपनी पीड़ा से उबरने को प्रयासरत्।
शायद इसीलिए मुझे 
सीता या धोबन की पीड़ा से 
अधिक प्यारी है 
अपनी पीड़ा,
शायद उस पीड़ा को भी
अपने भीतर समाहित करता जा रहा;
पर तुमने तो
अपनी पीड़ा उड़ेलने की कोशिश की
धोबन की पीड़ा में, 
पर शायद 
धोबन की पीड़ा को 
अपने में घुलाते,
तो बेहतर होता!

Full n Final Papers 11 and 12 of Hindi Literature Optional Mains 2015

हिंदी साहित्य सम्पूर्ण प्रथम प्रश्न पत्र 

 हिंदी साहित्य सम्पूर्ण द्वितीय  प्रश्न पत्र 




Saturday 28 November 2015

Hindi Literature Optional Test Series Paper 9 and Paper 10- Mains 2015

Paper 9 : हिंदी साहित्य (संपूर्ण प्रथम प्रश्न पत्र)




Paper 10 : हिंदी साहित्य (संपूर्ण द्वितीय प्रश्न पत्र)






Hindi Literature Optional Test Series Paper 7 and Paper 8- Mains 2015

Paper 7 : हिंदी साहित्य (निबंध और कहानी)





Paper 8  : हिंदी साहित्य (भाषा खंड)





Hindi Literature Optional Test Series Paper 5 and Paper 6 - Mains 2015

Paper 5 : हिंदी साहित्य (मध्यकालीन काव्यखंड )




Paper 6 : हिंदी साहित्य (आधुनिक कालीन काव्यखंड)






Hindi Literature Optional Test Series Paper 3 and Paper 4- Mains 2015

Paper 3 : हिंदी उपन्यास (व्याख्या सहित)


Paper 4 : हिंदी नाटक (व्याख्या सहित)




Hindi Literature Optional Test Series Paper 1 and Paper 2- Mains 2015

Paper 1:हिंदी साहित्य का इतिहास (छायावाद तक)

Paper 2 : हिंदी साहित्य का इतिहास (छायावाद से आगे )


Tuesday 24 November 2015

हाँ, मैं सुरक्षित हूँ!

हाँ, मैं सुरक्षित हूँ,
पूरी तरह से सुरक्षित;
क्या हुआ
जो इस सुरक्षा के लिए 
मुझे निर्भर रहना पड़ रहा है
तुम्हारी कृपा-दृष्टि पर?
हाँ, मैं आजाद हूँ,
पूरी तरह से आज़ाद ;
क्या हुआ 
जो इस आज़ादी के लिए
मुझे तुमसे इजाज़त लेनी पड़ रही है?
हाँ,भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी है,
पूरी तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी;
क्या हुआ 
जो इसके लिए
अनुपम खेर जैसे 'देश-भक्तों' की 
इजाज़त लेनी पड़ रही है?
हाँ, भारत सहिष्णु है, 
पूरी तरह से सहिष्णु;
क्या हुआ 
जो इस सहिष्णुता की परिभाषा 
तुम्हारे द्वारा तय की जाएगी?
किसी आमिर, किसी शाहरुख़ के कहने से
भारत असहिष्णु नहीं हो जाएगा।
हम नेस्तनाबूद कर देंगे
इन अामीरों और शाहरुख़ों को,
हम भेज देंगे 
उन्हें पाकिस्तान,
हम घोषित करेंगे
उन्हें राष्ट्रद्रोही 
और पाकिस्तानी आईएसआई का एजेंट भी,
हम नहीं देखेंगे
वह मूवी 
जिसमें इन्होंने एक्टिंग की है।
हमने आमिर को आमिर 
और शाहरुख़ को शाहरुख़ बनाया,
इसे साबित कर देंगे हम
इन्हें बर्बाद कर।
हम साबित कर देंगे
कि ये काम कर रहे हैं
चीन और अमेरिका के इशारे पर।
हम सघन 'सहिष्णुता-अभियान'चलायेंगे
फ़ेसबुक पर
और साबित कर देंगे, कि
कितना "सहिष्णु" है भारत,
कितना "आज़ाद-ख़्याल" है भारत,
और कितना "सुरक्षित" है भारत?

Tuesday 3 November 2015

इरफ़ान हबीब और संघ परिवार बढ़ती हुई असहिष्णुता

असहिष्णुता: इरफ़ान हबीब और संघ परिवार

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं आरएसएस और आईएसआईएस की तुलना के पक्ष में नहीं हूँ। साथ ही, मेरा यह मानना है कि इतिहासकार इरफ़ान हबीब को ऐसे सरलीकरण से परहेज़ करना चाहिए था। ऐसे सरलीकरण कहीं-न-कहीं संघ और भाजपा को ख़ुद को जस्टिफाइ करने का मौक़ा देते हैं। पर, अब प्रश्न उठता है कि इरफ़ान हबीब ने क्या कहा? ऐसा कहना कहाँ तक उचित है?

इरफ़ान हबीब की टिप्पणी:
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"अगर मुसलमानों को देखने/समझने के उनके तरीक़े पर विचार किया जाय , तो अक़्ल के लिहाज़ से इस्लामिक स्टेट्स और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बहुत अंतर नहीं है"
इरफ़ान हबीब की इस टिप्पणी के सावधानीपूर्वक विश्लेषण की ज़रूरत है। साथ ही, इसे संदर्भ से अलगाकर नहीं देखा जाय। उनकी टिप्पणी के हर शब्द महत्वपूर्ण हैं:
१.यहाँ संघ और आईएसआईएस की तुलना तो की    जा रही है, पर सीमित संदर्भों में।
२. यह तुलना मुसलमानों के प्रति दोनों के नज़रिए के विशेष संदर्भ में की जा रही है।
३. यहाँ बतलाया जा रहा है कि दोनों अगर एक-दूसरे के क़रीब पहुँचते हैं, तो अक़्ल के संदर्भ में।
४.इस संदर्भ में दोनों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। इसस़़े इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि टिप्पणीकार दोनों के बीच के अंतर को समझ रहा है, पर उसका यह मानना है कि यह अंतर बहुत अधिक नहीं है।
क्या इरफ़ान हबीब ग़लत हैं?
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अगर संघ परिवार और आईएसआईएस की बारीकी से तुलना की जाए, तो ऊपरी स्तर पर इनमें चाहे जितनी भिन्नता हो, पर दोनों के मूल चरित्र में बहुत फ़र्क़ नहीं है। अगर मैं आस कह रहा हूँ, तो इसके पीछे पर्याप्त तर्क है:
१. दोनों ही संस्थाओं की सोच तार्किकता और बौद्धिकता का निषेध करती है तथा दोनों का ज़ोर आस्था और भावुकता पर है।
२.दोनों बहुलतावादी संस्कृति के विरूद्ध हैं और दोनों धर्म पर आधारित ऐसे राज्य के सृजन के पक्ष में हैं जिसमें धर्म आधारित क़ानून सर्वोच्च होगा।
३.हिंसा दोनों संगठनों के मूल चरित्र में है। आईएसआईएस हिंसा की चरम् िस्थति पर पहुँच चुकी है, जबकि संघ परिवार अभी हिंसा की आरंभिक अवस्था में जहाँ शस्त्र-पूजा की संस्कृति है। संघ की यह संस्कृति मालेगाँव ब्लास्ट के साथ अगले चरण में प्रवेश कर चुकी है। साथ ही, जिस तरह से संघ से जुड़े भाजपा के नेता बयानबाज़ी कर रहे हैं, वह इसकी पुष्टि के लिए काफ़ी है।
अब सीधे आपके प्रश्न पर आता हूँ:
१. क्या यह सच नहीं है कि असहिष्णुता दोनों संगठनों के मूल में है? संघ असहिष्णुता के आरंभिक छोर पर है, तो आईएसआईएस अंतिम छोर पर।
२. क्या यह सच नहीं है कि मालेगांव के बाद संघ का चरमपंथ भी हिंसा के रास्ते पर चल पड़ा है?
३. क्या यह सच नहीं कि जिस तरह आईएसआईएस पान इस्लामिज्म की संकल्पना को लेकर चल रहा है और उसके पान-इस्लामिज्म के केंद्र में सुन्नी मौजूद हैं, ठीक उसी प्रकार संघ परिवार जिस हिंदु राष्ट्र की संकल्पना से प्रेरित है , उसके केन्द्र में सवर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों का वर्चस्व होगा । पिछड़ी जाति, दलितों, महिलाओं और अन्य धर्मावलंबियों की िस्थति वहाँ दोयम् दर्जे के नागरिक की होगी।

४.क्या यह सच नहीं है कि मोदी जी बहुमत की सरकार बनने के बाद इसका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है? इन्हें लग रहा कि बहुमत का मतलब है कुछ भी करने की आज़ादी का मिल जाना।।
इसलिए यह चिंता केवल इरफ़ान हबीब जी की नहीं है, यह चिंता बौद्धिक समूह और सभ्य समाज की है कि क्या आरएसएस को आईएसआईएस बनने की छूट दी जाए? क्या डाॅ. गोबुल्स के इन अनुयायियों को झूठ की बुनियाद पर नफरत की राजनीति करने की छूट दी जाए? हाँ, हम असहिष्णुता के विरोध में औरसहिष्णुता के पक्ष में हैं; लेकिन "असहिष्णुता के प्रति सहिष्णुता" के पक्ष में नहीं। इन लोगों ने बुद्धिजीवियों की चिंताओं के प्रति सहानुभूति और समाधान का प्रदर्शन करते हुए उन चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने की बजाय इस पूरे-के-पूरे मसले का राजनीतिकरण करके गंध फैला रखा है। 
आप उस इरफ़ान हबीब को हल्के में ले रहे हैं जिनके बिना मध्यकालीन भारतीय इतिहास की वहाँ पर परिकल्पना नहीं की जा सकती है जहाँ वह आज है, जिसने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में रहते हुए हर प्रकार के कट्टरपंथ के विरूद्ध संघर्ष किया,जिसे वहाँ पसंद नहीं किया जाता रहा और जिस पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा कई बार शारीरिक हमले भी किए गए। 

कैसी सहिष्णुता है यह?
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ये किस प्रकार की सहिष्णुता है कि असहमति-प्रदर्शन के लिए के. सुदर्शन राव के नेतृत्व वाले भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने सलाहकार पैनल को भंग कर दिया जिसमें इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर शामिल थी।
क्या यह सच नहीं है कि आज जो भी लोग इनसे असहमत हैं,उनके विरुद्ध संघ,भाजपा,केंद्र सरकार, मोदी जी और भाजपा नेताओं के साथ-साथ उनके समर्थकों ने इनके विरूद्ध चरित्र हनन अभियान चला रखा है। रोमिला थापर ने आपात काल का विरोध किया, १९८४ के सिख-विरोधी दंगे के विरूद्ध सड़कों पर उतरीं, नंदीग्राम में सीपीएम का खुलकर विरोध किया और दो-दो बार यूपीए सरकार द्वारा दिए जाने वाले पद्म सम्मान ठुकराया; फिर भी ये पूछते हैं तब क्यों नहीं किया, उस समय तो ऐसी इंटेंसिटी नहीं थी? कृष्णा सोबती ने २०१० में पद्म सम्मान लेने से इन्कार कर दिया, पर ये इन्हें कांग्रेसी/वामपंथी  नज़र आते हैं और उनके इशारे पर काम करते दिखाई पड़ते हैं।

Thursday 22 October 2015

कैसी विरासत?

""एक ओर यूरोपियन माइग्रेंट क्राइसिस की मानवीय त्रासदी का प्रतीक बनकर आया सीरियाई बच्चा, दूसरी ओर हरियाणा के फ़रीदाबाद में दलित-आगज़नी काण्ड के शिकार बच्चे। कैसी विडम्बना है कि प्राकृतिक त्रासदी के शिकार उस बच्चे के प्रति भारत सहित पूरी की पूरी दुनिया ने अपनी पूरी संवेदना उड़ेल दी, लेकिन अपने घर के इस बच्चे के प्रति न तो हमारी संवेदना जग पा रही है है, न हमारे नेतृत्व वर्ग की। रही मीडिया की बात, तो वह टीआरपी की चिंता से आगे बढ़कर सोच पाने में असफल है। उसके ध्यान को आकृष्ट करने के लिए किसी गाय, किसी सुधीन्द्र कुलकर्णी,किसी अख़लाक़ या फिर किसी दामिनी का होना आवश्यक है। किसी जीतेन्द्र, वो भी हरियाणा का (यूपी या बिहार का होता, तो बात कुछ और होती) और वो भी दलित....... क्या आकर्षण हो सकता है इनमें? अच्छा किया जो मीडिया ने इस मसले को हासिए पर धकेल दिया। हमारे नेतृत्व वर्ग के लिए भी उसमें विशेष आकर्षण नहीं था। सही मायने में दलितों की िस्थति कुत्तों वाली ही रही है पारंपरिक भारतीय समाज में। जनरल साहब ने ग़लत थोड़े ही कहा, फ़िज़ूल बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। वो तो भला हो बिहार चुनाव का, देर से ही सही , इस पर चर्चा तो शुरू हुई और सीबीआई की जाँच तो बैठी। हो सकता है कि तीसरे चरण का चुनाव आते-आते यह मसला और गरमाए। पता नहीं, हम भारतीयों का सीबीआई पर कितना अधिक विश्वास है कि इसके द्वारा जाँच की बात सामने आते ही मसला ठंडा होने लगता है, जबकि हम जानते हैं कि कुछ होने वाला नहीं है।
ख़ुशी की बात है कि यह मसला दलित-ग़ैर दलित का नहीं है। मसला पैसे की लेन-देन का है जिसे ज़बरन विरोधी दल दलित का मसला बतलाकर राजनीतिक रूप देने की कोशिश कर रहे हैं।बस बहुत याद आते हैं महाभोज के दा साहब और बिसू भी। खैर, इस मसले पर चर्चा के क्रम में उन्हें याद करने का क्या औचित्य और क्या प्रासंगिकता? मैं भी कितनी बहकी-बहकी बातें करने लगता हूँ?शायद जीतेंद्र ने पुलिस प्रोटेक्शन की माँग भी की थी और उसका पूरा परिवार पुलिस प्रोटेक्शन में था, पर क्या फ़र्क़ पड़ता है? हरियाणा बिहार थोड़े है जो वहाँ जंगलराज के बारे में सोचा जा सके। वहाँ तो संघ के दूत खट्टर साहब का रामराज्य है। वहाँ जंगलराज की बात सोचना भी पाप है। देशद्रोहियों, तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।""
बस इतना ही सोचता हूँ, झारखंड में पाँच महिलाओं को डायन बतलाकर पीट-पीट कर हत्या,दाभोलकर.....मुरूगन......कलबुर्गी.......पत्रकार नरेंद्र.........आईपीएस नरेंद्र.......अख़लाक़........और अब जीतेंद्र...... सरकार किसी की भी हो, परिणाम तो यही होना है। कौन-सी विरासत हम छोड़ने जा रहे हैं अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए? क्या जवाब देंगे हम अपने बच्चों को? 

Friday 2 October 2015

विचित्र दुविधा

विचित्र दुविधा
आज किसे याद करूँ :
"दादरी" तुम्हें या बापू को?
बापू, जो दूसरे नाम हैं
भारतीय संस्कृति की समन्वय और सहिष्णुता के,
हैं उसके आधुनिक संस्करण के मूर्तिमान रूप,
या फिर "दादरी" तुम्हें
जिसने पहले बापू की हत्या की
और अब आमदा हो
उन मूल्यों एवं आदर्शों की हत्या पे,
जिसे बाद में गाँधीवाद कहा गया,
जिसे गाँधी ने भारतीय संस्कृति से ग्रहण किया,
किया जिसे परिष्कृत और परिमार्जित ?
नहीं, "दादरी"
पहले तुम,
तुम इसीलिए कि
गाँधी तो मर चुके हैं,
तुमने तो उन्हें एक बार मारा था,
पर पिछले सड़सठ वर्षों से
हम सब मिलकर रोज़ मार रहे हैं उसे,
विवश कर रहे हैं उसे
घुट-घुटकर मरने के लिए,
तुमने तो हमारे काम को आसान कर दिया था।
पर, अब नहीं,
अब अहसास हो गया है
कि तुम मुझे मारना चाहते हो।
पर, "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो प्रतीक हो विभाजनकारी मानसिकता के,
उस असहिष्णुता की संस्कृति के,
जो पैर पसार रही है पूरी दुनिया में
वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में,
जो ख़ाक करने की सोच रखती है
हमें और हमारी संस्कृति को,
जो लीलने को तत्पर है
गंगा-जमुनी तहज़ीब को।
अब तुम्हीं बतलाओ "दादरी"
कैसे याद करूँ तुम्हें?
तुम तो मानस संतान हो
"हिटलर" की,
ऐसी सन्तान
जो उसके पहले से विद्यमान है,
जो कभी क्रूसेड के रूप में प्रकट होती है,
तो कभी लादेन और आईएसआईएस रूप में,
कभी तुम गोधरा के रूप में प्रकट होती हो,
तो कभी सिख विरोधी दंगे के रूप में।
अरी "दादरी"
तुमने कलंकित किया है हमें
हमारी संस्कृति को,
और सबसे बढ़कर भारतीयता को।
तुमने तो
कलंकित किया है
बापू के देश को,
बापू के वेश को
और बापू की सोच को।
तुमने कलंकित किया है उस कबीर को,
जिन्होंने कहा था:
"माँस-माँस तो एक है
जस बकरी, तस गाय।"
तुम्हारी संस्कृति "भारतीय" नहीं हो सकती,
संभव नहीं इसका भारतीय होना,
तुम भला गाय और बकरी के अभेदत्व को क्या जानो?
तुम्हें तो बक़रीद पर बकरी के मारे जाने से कोफ़्त है,
दशहरे की बलि तुम्हें कहाँ याद रहती?
घर में बैठ कर मटन- चिकन खाने से तुझे परहेज़ न हो, पर
फ़ेसबुक पर अहिंसावाद के प्रति
तुम्हारी प्रतिबद्धता के आगे
गाँधी भी शर्मिंदा होते हैं।
नहीं,अब और नहीं
हमें आगे आना ही होगा,
नफरत को भुलाना ही होगा,
देश को बचाना ही होगा।

"अख़लाक़ मर नहीं सकता"

"अख़लाक़ मर नहीं सकता"
""दादरी में एक मुसलमान को बीफ खाने के आरोप में मारते-मारते मार डाला गया एक भीड़ के द्वारा नहीं, "जुलूस" के द्वारा। यह तो होना ही चाहिए था। बहुत पहले होना चाहिए था। झारखंड में भी हमने कोशिश की थी, पर झारखंडियों के साथ-साथ बिहारियों ने धोखा दे दिया। इन ससुरे मुसलमानों के साथ तो यही होना चाहिए। १९४७ में पाकिस्तान लेने के बाद भी भारत में डटे रहे, हम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों ने उन्हें तुष्ट करना चाहा और आज आलम यह है कि वे भारत को पाकिस्तान बनाने पर आमदा हैं। देखो, अंतिम बार कह रहा हूँ:अगर भारत में रहना है, तो हमारी शर्तों को स्वीकार करना होगा। दोयम् दर्जे की नागरिकता स्वीकार करनी होगी। तुम क्या खाओगे और क्या नहीं खाओगे, इसे मैं निर्धारित करूँगा।""
"क्यों रवीश, इतनी हायतौबा क्यों? कहाँ थे उस समय तुम, जब कश्मीरी पंडितों के साथ ज़्यादती हुई? क्यों नहीं खड़े होते तुम, जब इस्लामी आतंकी बेवजह जान लेते हैं मासूमों की?"
यह तस्वीर है उसी भारत की, जिसका सपना कभी गाँधी और नेहरू ने देखा था और जिसका सपना देख-देख हम और आप बड़े हुए। गोडसे ने तो गाँधी को एक बार मारा था, फिर भी गाँधीवाद जीवित रहा क्योंकि हमें गाँधी नहीं, गाँधीवाद नहीं , भारतीय संस्कृति से प्यार था; पर समय के साथ हमने गाँधी को भुलाया, गाँधीवाद को भुलाया और अब हम आमदा हैं भारतीय संस्कृति को भुलाने पर। लेकिन, ध्यान रखना, इसे बदल पाना , इसकी मनमानी व्याख्या, इसे भुलाना तुम्हारे वश में नहीं।
एक व्यक्ति था अख़लाक़, पर अब वह प्रतीक में तब्दील हो चुका है तुम्हारे वहशीपन का, तुम्हारी दरिंदगी का और तुम्हारे डर का। हाँ, तुम्हें अटपटा लग रहा होगा, पर यह सच है कि वह प्रतीक है तुम्हारे डर का। वह प्रतीक है असहिष्णुता का और इस बात का कि वह भारतीय संस्कृति ख़तरे में है जिसके केन्द्र में है वैष्णव धर्म और वैष्णव संस्कार, सहिष्णुता और समन्वय जिसका प्राण तत्व है। तुमने अख़लाक़ को नहीं मारा, तुमने मारने की कोशिश की भारतीय संस्कृति के मूल्य को । तुमने नकारने की कोशिश की है उस बुनियाद को, जिस पर तुम खड़े होने की कोशिश कर रहे हो। ध्यान रखना कि फ़ेसबुक पर न तो इतिहास लिखे जा सकते हैं और न ही इतिहास को मिटाया जा सकता है। अरे लिखने और मिटाने की बात छोड़ दो, इतिहास समझा भी नहीं जा सकता। और, तुम तो निरे अनाड़ी ठहरे जो फ़ेसबुक पर इतिहास समझते भी हैं, लिखते भी है और मिटाते भी हैं।अरे, तुम भगत सिंह की बात करते हो, पटेल की बात करते हो, सुभाष की बात करते हो; पर ये सब तुम्हारे लिए मोहरे हैं जिनका तुम अपने तरीक़े से इस्तेमाल करना चाहते हो। न इन्हें तुम समझते हो और न ही समझना चाहते हो।बस इतना कहूँगा और इसके ज़रिए खुली चुनौती दूँगा:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजुएँ क़ातिल में है।

Friday 4 September 2015

"गुरुदेव को समर्पित"

गुरुदेव को समर्पित !
श्रद्धांजलि 
उस गुरू को,
जिसने मुझे सिरजा,
जिसने मुझे बनाया,
जिसने मुझे संस्कार दिए,
और 
जिसकी बदौलत संभव हो सका
वहाँ खड़ा होना,
जहाँ पर आज मैं खड़ा हूँ,
जिसके कारण डटा रह सका मैं
जीवन-समर में,
अपनी शर्तों पर
और अपनी शर्तों के साथ।
श्रद्धांजलि
उस गुरू को,
जिसने मेरे गूँगेपन को स्वर दिया,
िजसने मुझ अंधे को दृष्टि दी,
और दी सम्वेदना
और दिए अहसास
ताकि महसूस कर सकूँ
दूसरे की वेदना को,
दी जिसने ऐसी इच्छाशक्ति 
जिसकी बदौलत 
झेल सकूँ उस पीड़ा को,
जो होती है दूसरों के शागिर्द बनने पर।
इस क्रम में
मैं
गिरा भी,
टूटा भी,
बिखरा भी,
पर डटा रहा मैं संघर्ष-पथ पर,
बिना समर्पण किए
अविचल प्रतिपल अनवरत्!
श्रद्धांजलि:
कैसी,कैसे और किस तरह?
श्रद्धांजलि
उन मूल्यों को अपनाकर,
जिसके साथ उसने जीने की कोशिश की;
श्रद्धांजलि
उसको ज़िन्दा रखने के आग्रह के साथ,
श्रद्धांजलि
हर क्षण,हर पल
उसको याद करते हुए!
पुष्पांजलि
उन गुरुओं को, 
उन छात्रों को,
उन मित्रों को,
उन सगे-संबंधियों को,
अपने बच्चों को
और अपनी जीवन-संगिनी को,
जिसने जीवन के किसी-न-किसी मोड़ पर
सँवारा मुझे,
सँभाला मुझे,
सिखाया मुझे।
और इन सबसे परे
शुक्रगुज़ार हूँ
उन आलोचकों का,
जिन्होंने मुझे रूकने न दिया,
झुकने न दिया।

Thursday 27 August 2015

"मैं निराशावादी हूँ"

"मैं निराशावादी हूँ"
(स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री 
के राष्ट्र के नाम संदेश पर एक प्रतिक्रिया)
दोस्तों,आप सबको स्वतंत्रता दिवस की,देर से ही सही, ढेर सारी शुभकामनाएँ। कल लालक़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौक़ा मिला। इस संबोधन ने सुकून भी दिया और दुविधापूर्ण मन:स्िथति में पहुँचा दिया।फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं भी निराशावादियों में ही हूँ। 
खैर,सबसे पहले मैं प्रधानमंत्री को बधाई देना चाहूँगा। पहली बार उनके लंबे स्पीच को धैर्यपूर्वक सुनने की हिम्मत जुटा सका। अच्छ लगा यह देखकर कि अब हमारे प्रधानमंत्री हवा-हवाई घोषणाओं से परहेज़ की अहमियत को धीरे-धीरे ही सही समझ रहे हैं।वे यथार्थवाद के कहीं ज्यादा क़रीब दिखे। अपने स्पीच में प्रधानमंत्री जब देश को नई कार्य-संस्कृति देने की बात कर रहे हैं, जब देश को निराशा और हताशा की मनोदशा से बाहर निकालकर आशा और विश्वास के संचार की बात कर रहे हैं,जब जातिवाद के ज़हर एवं संप्रदायवाद के ज़ुनून के लिए जगह न होने की बात करते हुए देश की सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी को संरक्षित करने की बात कर रहे हैं, जब लोकतंत्र में जनभागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क-संवाद स्थापित करने की आवश्यकता पर बल एवं इस संदर्भ में स्वयं अपने द्वारा की जाने वाली पहल की बात कर रहे हैं,वित्तीय समावेशन की दिशा में पहल करते हुए जन-धन, अटल पेंशन,सुरक्षा बीमा एवं जीवन ज्योति बीमा का अपनी उपलब्धि के रूप में उल्लेख कर रहे हैं, तो निश्चय ही वे प्रभावी भी हैं और उनसे असहमति की सीमित गुंजाइश ही बनती है।इसी प्रकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए विशेष पहचान संख्या का प्रावधान उनके लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के लाभ को भी सुनिश्चित करेगा और उनकी बचतों की उनके लिए उपलब्धता को भी। अपने भाषण में उन्होंने उचित ही क़ानूनों की बहुलता और जटिलताएँ की ओर इशारा करते हुए चार आचार संहिताओं के ज़रिए उनके सहजीकरण-सरलीकरण की बात की।लेकिन, यहीं पर अन्य निराशावादियों की तरह मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उठते हैं। 
A.जनधन का संदर्भ 
यह सच है कि महज़ साल भर से भी कम समय में सत्रह करोड़ खाते का खुलना और इसके ज़रिए बीस हज़ार करोड़ के आस-पास की राशि का मिलना उपलब्धि है, पर इस संदर्भ में कुछ प्रश्न :
१. क्या नये खाताधारक में बड़ी संख्या में वे लोग भी शामिल हैं जो पहले से वित्तीय ढाँचे की पहुँच में हैं और उन्होंने इस स्कीम का लाभ उठाने के लिए जनधन खाते खुलवाए।
२. क्या लगभग छियालीस प्रतिशत से अधिक खाते निष्क्रिय और शून्य बैलेंस की िस्थति में नहीं हैं? लेकिन , मैं भी प्रधानमंत्री की तरह भविष्य में इनकी भूमिका को महत्वपूर्ण और निर्णायक मानता हूँ।
३.क्या जनधन खातों के समर्थन के सिए हमारे पास पर्याप्त वित्तीय ढाँचा मौजूद है?
४. क्या महज़ खाता खोलने से वित्तीय समावेशन का उद्देश्य पूरा होगा? क्या बैंकिंग साख तक इनकी पहुँच को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई?
B.सामाजिक सुरक्षा संजाल:
तीनों सामाजिक सुरक्षा योजनायें, जिन्हें मोदी जी अपनी उपलब्धि बतला रहे हैं, क्या वाक़ई उपलब्धि हैं?-इस प्रश्न पर विचार अपेक्षित है।इनकी सार्वभौमिक प्रकृति इनकी उपलब्धि है। साथ ही, पूर्ववर्ती योजनाओं की तुलना में बीमा कवर राशि का अधिक होना और मिशन मोड अप्रोच में इन्हें चलाया जाना इन्हें विशिष्ट बनाता है, लेकिन इनमें सर्वाधिक प्रगतिशील प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना है जो महज़ बारह रूपए में दो लाख रूपए तक का बीमा कवर प्रदान करता है। पर, अटल पेंशन योजना अनाकर्षक है। जीवन ज्योति बीमा योजना कुछ मामलों में अपनी पूर्ववर्ती की तुलना में प्रगतिशील है और कुछ मामलों में प्रतिगामी। स्पष्ट है कि इन तीनों योजनाओं में दुर्घटना बीमा योजना ही मोदी सरकार के लिए यूएसपी बन सकती है।
C.स्वच्छता: 
मोदी भले ही इसे अपना यूएसपी बनाने की कोशिश में लगे हों, पर इस दिशा में अब तक जो भी प्रयत्न हुए हैं,वे प्रचारात्मकता तक सीमित रहे हैं। अब तक इन्हें ज़मीनी धरातल पर उतारने की कोशिश नहीं हुई है और न ही इसके लिए अवसंरचनात्मक संस्थागत ढाँचे को विकसित किया गया है। साथ ही,बिना मनोवृत्ति और सोच के स्तर पर बदलाव के सफलता के मुक़ाम तक पहुँचा पाना मुश्किल है।इस संदर्भ में मोदी जी ने सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए टाॅयलेट के संदर्भ में जिस उपलब्धि की बात की गई , उसमें संदेह है।
अब प्रश्न उठता है कि स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग ४.१९ लाख टाॅयलेट- निर्माण के लक्ष्य का, तो प्रधानमंत्री का यह दावा कि ४अगस्त २०१५ तक ३.६४ लाख टाॅयलेट का निर्माण किया जा चुका है, संदेह से परे नहीं है क्योंकि मई २०१५ तक महज़ १.२१ लाख शौचालयों का निर्माण ही संभव हो पाया था।इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न इनके रखरखाव और इनके चालू होने का है।
सर, अगर स्वच्छता अभियान को निष्कर्ष तक पहुँचाना है, तो स्थानीय संस्थाओं को ज़िम्मेवारी सौंपनी होगी,उन्हें फ़ंड उपलब्ध करवाने होंगे और क्षमता-निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। लेकिन, दुर्भाग्य से आपकी सरकार ने राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को बंद करने का निर्णय लिया जिससे पंचायतों के क्षमता-निर्माण का काम बुरी तरह से प्रभावित होगा।
D.महँगाई को कम करना:
निश्चित तौर पर थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति माइनस चार प्रतिशत और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर चार से पाँच प्रतिशत के बीच है जो यूपीए-२ के अधिकांश हिस्से में दहाई अंकों के आसपास रही।लेकिन, इस प्रश्न पर दो कोणों से विचार किया जाना चाहिए:
१. क्या सरकार उन पाँच क़दमों के बारे में बतला सकती है जो उसने महँगाई कम करने के लिए उठाए हैं और जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि महँगाई आगे नियंत्रित ही रहेगी?
२. महँगाई में कमी का एक महत्वपूर्ण कारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड आॅयल की क़ीमतों में ज़बरदस्त गिरावट है जिसपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। इसी कारण चालू खाता घाटे में भी गिरावट की िस्थति भी दिखाई पड़ती है, नहीं तो निर्यात के मोर्चे पर हमारा प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा है और उसमें निरंतर गिरावट जारी है।
साथ ही, चीज़ों का सस्ता होना और महँगाई वृद्धि दर में गिरावट दो चीज़ें हैं। क्या वह गिरावट रोज़मर्रा की वस्तुओं में हो रही है जिन्हें ख़रीदने के लिए हमें अक्सर बाज़ार जाना होता है या फिर मुख्य रूप से उन विनिर्मित उत्पादों की क़ीमतों में, जिन्हें ख़रीदने हम कभी-कभी बाज़ार जाते हैं?
E."जातिवाद का ज़हर और 
संप्रदायवाद का जुनून"
प्रधानमंत्री जी ने यह सही ही कहा कि "बंधुत्व, भाईचारा और सद्भाव सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी है" जिसकी हर क़ीमत पर रक्षा होनी चाहिए क्योंकि इसके बिना राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा कर पाना मुमकिन नहीं होगा। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि इसे ख़तरा किससे है? इसी के साथ यह प्रश्न उठता है कि भाजपा और प्रधानमंत्री सही मायने में नई प्रकार की राजनीति करते हुए जातिवाद और सम्प्रदायवाद के लिए "नो स्पेस" के अपने रूख पर अटल है? अगर हाँ, तो गिरिराज सिंह और साध्वी निरंजन ज्योति जैसों के लिए मंत्रिमंडल में स्पेस कैसे? कैसे जनवरी- मई २०१४ की तुलना में जनवरी-मई २०१५ के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में चौबीस प्रतिशत का उछाल अाया और मरने वालों की संख्या छब्बीस से बढ़कर तैंतालीस हो गई? सर, "घर वापसी", "लव जेहाद" धर्मांतरण आदि के मसले पर आपकी चुप्पी ने आहत किया है। यह चुप्पी पवन दीक्षित की इन पंक्तियों की याद दिलाती है:
बुरे लोगों से दुनिया को ख़तरा नहीं,
शरीफ़ों की चुप्पी ख़तरनाक है ।
प्रधानमंत्री जी, आपको अति पिछड़ा वर्गके नेता के रूप में प्रचारित किया जाना, आपको तेली समुदाय का बतलाया जाना, नवनियुक्त राज्यपाल की नियुक्ति का नीतीश जी के द्वारा संघवाद के आधार पर विरोध को महादलित की नियुक्ति के विरोध के रूप में प्रचारित कर इसका राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास, राष्ट्रकवि दिनकर को भूमिहार के रूप में प्रचारित करना, एक दौर में माँझी के लिए जेल की माँग करने वाले तथा माँझी के राज को जंगलराज बताने वालों का आज अचानक माँझी के साथ गलबाँहियाँ डाले घूमना, पप्पू यादव के प्रति प्रेम, जो रामविलास और रामकृपाल कल तक पानी पी-पीकर आपको कोसते थे, आज आपके मंचों पर शोभायमान होते: ये बातें "नो स्पेस" वाली सोच के साथ हज़म नहीं होतीं। ऐसा नहीं कि आपके विरोधी दूध के धुले हों:अब बात चाहे नीतीश और लालू की हो या फिर काँग्रेस की; पर प्रश्न आप से विशेष रूप से इसलिए है कि आपने नई प्रकार की राजनीति का आश्वासन दिया था और आप देश के प्रधानमंत्री हैं, यद्यपि मैंने् आपको वोट नहीं दिया और न ही दूँगा, पर महज़ इस बात से मेरे आप पर अधिकार कम नहीं हो जाते हैं क्योंकि आप उनहत्तर प्रतिशत उन मतदाताओं की तरह मेरे भी प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने आपको वोट नहीं दिया, पर जिनकी अपने प्रधानमंत्री से अपेक्षाएँ हैं।
F. कालाधन और भ्रष्टाचार:
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपने कालेधन के संदर्भ में यह दावा किया कि देश में कालेधन का सृजन रूक चुका है। आपके इस दावे में कितनी सच्चाई है, इस बात को मुझसे बेहतर आप समझते हैं। जहाँ तक काले धन पर विशेष जाँच दल के गठन की बात है, तो निश्चय ही आपने इस मसले पर तत्परता दिखाई, जिसके लिए आप तारीफ़ के हक़दार हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या आप सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों से बँधे हुए नहीं थे? G-20 में इस मसले को उठाने की बात को निरंतरता में देखा जाना चाहिए।ऐसा नहीं कि आपने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार पहल नहीं की। इसके पहले भी पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में प्रयास जारी हैं। यह कहना कि अब कोई भी देश से बाहर कालाधन भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, यह अतिरंजना है। आपने पैंसठ सौ करोड़ के कालाधन घोषित किए जाने का हवाला दिया, जो ऊँट के मुँह में ज़ीरा के समान है।जहाँ तक काले धन पर नए क़ानून की बात है, तो यह अचानक नहीं हुआ । इस पर पहले से प्रयास चल रहे थे। इसे इसी निरंतरता में देखा जाना चाहिए।
जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, तो प्रधानमंत्री जी सिर्फ़ यह कह देने मात्र से कि पिछले पन्द्रह महीने के दौरान मेरी सरकार पर एक भी पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है,आपकी बातें स्वीकार्य नहीं हो जातीं। ललित गेट मसले पर सुषमा स्वराज का अनुचित और अनैतिक आचरण पर आपको अपनी िस्थति स्पष्ट करनी चाहिए। मध्यप्रदेश में व्यापम, वसुंधरा राजे सिंधिया की ललित मोदी के साथ साँठगाँठ , छत्तीसगढ़ में पीडीएस घोटाला : इन तमाम मसलों पर चुप्पी और सहिष्णुता क्यों? क्या आपको नहीं लगता कि भ्रष्टाचार जो भाजपा का यूएसपी था और भाजपा ने इस मसले पर बढ़त बनायी भी थी,आज उस बढत को भाजपा लूज़ कर चुकी है।कैग की रिपोर्ट कहती है कि मध्य प्रदेश में व्यापम से भी कई गुना बड़े घोटाले का मसला प्रकाश में आया है। इस स्कैम के बारे में सीबीआई का कहना है कि उसके पास इतने मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं कि वह इस मामले की जाँच को आगे बढ़ा सके।अभी-अभी गोवा के मुख्यमंत्री के साले को रंगे हाथ घूस लेते देखें जाने का मामला प्रकाश में आया है।ऐसी िस्थति में भ्रष्टाचार के संदर्भ में आपके उपरोक्त निष्कर्ष को स्वीकारना मेरे लिए कम-से- कम मुश्किल है।
G. किसानों का संदर्भ : 
सर, आपने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया जो निश्चय ही स्वागतयोग्य क़दम है। जहाँ तक मेरा ख़्याल है, इसकी अनुशंसा काफ़ी पहले एम एस स्वामीनाथन आयोग ने की थी। आपकी इस बात के लिए भी प्रशंसा करनी होगी कि प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में फ़सल-मुआवज़ा हेतु न्यूनतम मानदंड को आपने पचास प्रतिशत से घटाकर तैंतीस प्रतिशत कर दिया, अब यह बात अलग है कि इसका लाभ ज़रूरतमंदों तक पहुँचा या नहीं और यदि पहुँचा, तो किस हद तक। इसके लिए आपको ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए तत्संबंधित राज्य सरकारें ज़िम्मेवार हैं, चाहे वे कांग्रेस की हों, भाजपा की या फिर स्थानीय दलों की। पर, सर , आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य में पचास प्रतिशत की वृद्धि का वादा किया था, उस वादे का क्या हुआ? कहीं अगले पाँच सालों में पचास प्रतिशत वृद्धि की बात तो नहीं की गई थी? कई बार जब आपके समर्थक तर्क देते हैं और कहते हैं कि पैंसठ साल का हिसाब नहीं माँगा और हमसे पैंसठ दिन या तीन सौ पैंसठ दिन का हिसाब माँगते हो( ये वही लोग हैं जो अरविन्द केजरीवाल से उनकी जीत के बाद और सत्ता सँभालने के ठीक पहले से हिसाब माँग रहे हैं), तो लगता है कि ये पैंसठ साल तक हिसाब नहीं माँगने देंगे( यह बात अलग है कि इन पैंसठ वर्षों के दौरान (१९७७-७९),(१९८९-९०) और (१९९६-२००४) तीन बार में दो बार कुल दो बार भाजपा कुल आठ वर्षों तक प्रत्यक्षत: सत्ता में भागीदार रही। तो सर, पहले हम न तो हिसाब माँगना जानते थे और न हिसाब करना जानते थे, कांग्रेस के राजतंत्र में जीने वाली निरीह प्रजा थे हम; पर सर, आपने और केजरीवाल जी ने ही हिसाब माँगना और करना सिखाया। सर, अब हम हिसाब माँगेंगे भी और लेंगे भी, आपके तरीक़े से नहीं,अपने तरीक़े से और मानक कांग्रेस नहीं, मानक होंगे आपके द्वारा किए गए वादे और हमारी अपेक्षाएँ ।
लोकतंत्र और जनभागीदारी :
प्रधानमंत्री जी ने लालक़िले की प्राचीर से भागीदारी लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करने की बात की, लेकिन लोकसभा के चुनाव प्रचार अभियान से लेकर अगर अब तक की उनकी गतिविधियों पर ग़ौर किया जाय, तो हम पाते हैं कि :
१. लोकतंत्र की प्रधानमंत्री की अपनी परिभाषा है, तभी तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लंबे समय के बाद संसदीय चुनाव की बजाय राष्ट्रपतीय व्यवस्था के चुनाव पर लड़ा जा रहा है।
२.तब से लेकर अब तक लगभग सारे विधानसभा चुनाव व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर लड़े गए। कल तक कांग्रेस इसी तरह चुनाव लड़ती थी।
३. आपकी और केजरीवाल जी, दोनों की राजनीति की सीमा यह है कि दोनों की राजनीति मुद्दों से शुरू होती है और व्यक्तित्व के मंडन पर समाप्त होती है।
आपने "मन की बात" के ज़रिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क संवाद स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन इसकी सीमा यह रही कि यह एकतरफ़ा सम्पर्क संवाद का माध्यम बनकर रह गया।दूसरी बात यह कि आपके दौर में श्री मती गाँधी के समय प्रचलित राजनीतिक मुहावरे एक बार फिर से लोकप्रिय होने लगे।प्रधानमंत्री कार्यालय इतना हावी है कि कैबिनेट सचिवालय अप्रासंगिक प्रतीत होने लगा।इतना ही नहीं, एक ओर आप भागीदारी लोकतंत्र की बात करते हैं, दूसरी ओर पंचायतों के क्षमता-निर्माण के लिए चलाए जा रहे राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को रोक देते हैं।
प्रधानमंत्री जी, आपकी कुछ चीज़ें भारत का ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे काफ़ी परेशान करती है:
१. विपक्ष के प्रति सम्मान का अभाव
२.अपने आलोचकों के प्रति असहिष्णुता और अपनी आलोचना सुनने को तैयार न होना, जैसा कि आपने लालक़िले की प्राचीर से अपने आलोचकों पर "निराशावादी" कहकर निशाना साधा।
३.आत्ममुग्धता की मनोदशा में अबतक की सरकारों की उपलब्धियों को नकारना
प्रधानमंत्री महोदय,बस इतनी अपेक्षा है आपसे कि बीच-बीच में आत्ममूल्यांकन का अवसर निकालें। निश्चित तौर पर गवर्नेंस आपका यूएसपी हो सकता है, पर तभी जब आप गिरिराजों, नरेन्द्र तोमरों, साक्षी महाराजों और साध्वी निरंजन ज्योतियों पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाएँ तथा भ्रष्टाचार को लेकर अपने स्टैंड में कनसिस्टेंसी को मेनटेन करें।रही बात निराशावादी होने की, तो मैं निदा फाजली की इस शायरी से इस आलेख का अंत करना चाहूँगा: 
हम ग़मज़दा हैं गाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत,
देंगे वही जो इस दुनिया से पायेंगे हम।

Saturday 15 August 2015

सत्तारूढ़ दल के धरना-प्रदर्शन के मायने

सत्तारूढ़ दल के धरना-प्रदर्शन के मायने
भारतीय राष्ट्रीय राजनीति १९८९ ई. में गठबंधन के युग में प्रवेश करती है और तब से अब तक सरकार में कोई रहा हो और विपक्ष में कोई भी हो, दो प्रवृत्तियों को विकसित होते देखा जा सकता है:
१. सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा विपक्ष की भूमिका को हस्तगत किया जाना और विपक्ष का अप्रासंगिक होते चला जाना।
२.विपक्ष की नकारात्मक भूमिका का बढ़ते चला जाना।
केजरीवाल जी ने दिल्ली का मुख्यमंत्री रहते हुए एक नया ट्रेंड जोड़ा: सत्तारूढ़ दल और मुख्यमंत्री द्वारा धरना-प्रदर्शन का, यद्यपि यह धरना केंद्र सरकार के विरूद्ध था। वैसे यह उतना नया भी नहीं है क्योंकि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री भी धरने पर बैठ चुके हैं। साथ ही, कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हो चुका है। पर, मैंने केजरीवाल जी को ट्रेंड- सेटर इसलिए कहा कि उन्होंने कई ऐसे प्रयोग किए हैं जिनका अनुकरण करते राष्ट्रीय स्तर के दोनों राजनीतिक दलों को देखा जा सकता है।वैसे, ऐसे कई ट्रेंड को सेट करने का श्रेय हमारे माननीय प्रधानमंत्री को भी जाता है।
इसका ताज़ा उदाहरण है कल एनडीए गठबंधन का "लाँग मार्च", जो उतना लाँग भी नहीं था।अगर मेरी यादाश्त कमज़ोर नहीं है , तो पहली बार सत्तारूढ़ गठबंधन के सबसे बड़े घटक दल के नेतृत्व में सारे मंत्रियों को विपक्ष द्वारा आपात काल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न किए जाने की कोशिशों के विरूद्ध सड़कों पर उतरना पड़ा, जो अपने आप में दिलचस्प है।
आख़िर मार्च की ज़रूरत क्यों ?
इस प्रश्न पर विचार करने के पहले दो चीज़ों को स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है:
१. लोकतंत्र और संविधान किसी भी व्यक्ति, संस्था या संगठन को धरना-प्रदर्शन करने या अपनी बातों को जनता तक पहुँचाने की अनुमति देता है। इसलिए ऐसे मार्च में कुछ भी ग़लत नहीं है।
२. अब तक सामान्यत: ऐसे मार्च का आयोजन विपक्षी दलों के द्वारा विरोध-प्रदर्शन के लिए किया जाता रहा है। पिछले कुछ समय से कई बार गठबंधन के सहयोगी दलों के द्वारा भी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत् ऐसे मार्च का आयोजन किया जाता है।
दरअसल भाजपा "कांग्रेस-मुक्त भारत" के सपने को लेकर चल रही है जो प्रकारांतर से "विपक्ष-मुक्त भारत" का सपना है। उसे चुनाव के बाद ऐसा महसूस हुआ कि वह अपने मक़सद में कामयाब होने जा रही है। कांग्रेस लगातार बैकफ़ुट पर ही नहीं रही, वरन् पूरी तरह से डिमोरलाइज्ड भी नज़र आई। इस दौरान भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं ने उसे और ज़्यादा डिमोरलाइज्ड करने की कोशिश की। इसी रणनीति के तहत् कांग्रेस को संसदीय अभिसमय की आड़ में औपचारिक रूप से विपक्ष का और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा देने से बचने की कोशिश की।खैर,ख़ुद कांग्रेस ने भी १९७८ के विपक्षी दल के नेता का वेतन व भत्ता अधिनियम की अनदेखी करते हुए १९८० और १९८४ में किसी भी दल को औपचारिक रूप से विपक्षी दल तथा उसके नेता को विपक्षी दल के नेता का दर्जा देने से परहेज़ किया। इसीलिए कहा गया है:" जैसी करनी, वैसी भरनी"। लेकिन, एक बात समझ में नहीं आई कि किस मुँह से भाजपा ने दिल्ली विधानसभा में पाँच प्रतिशत से भी कम प्रतिनिधित्व के बावजूद विपक्षी दल और उसके नेता ने विपक्षी दल के नेता का औपचारिक दर्जा स्वीकार किया।
साल भर तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, पर उसके बाद भाजपा उसी तरह घिरती नज़र आ रही है जिस तरह सितंबर २०१० के बाद कांग्रेस ।व्यापम, ललितगेट, पीडीएस घोटाला और अब कैग ने व्यापम से भी बड़े जिस घोटाले की चर्चा की है, उसके कारण तेज़ी से चीज़ें बदलने लगी और इसने भाजपा को बैकफ़ुट पर ला दिया। इसने मृतप्राय कांग्रेस में नई जान फूँक दी और उसने एक अवसर की तरह इसे लोक लिया।भाजपा को "कांग्रेस मुक्त भारत"का सपना दूर छिटकता नज़र आया और इसी के साथ भाजपा का फ़्रस्ट्रेशन भी बढ़ता चला गया।
जब संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ, तो कांग्रेस ने भाजपा वाली रणनीति अपनाई और तब तक संसद नहीं चलने देने का निर्णय लिया जब तक सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया इस्तीफ़ा नहीं दे देती। कांग्रेस का यह स्टैंड ग़लत था। उसे संसदीय कार्यवाही चलने देनी चाहिए थी और संसद के बाहर विरोध-प्रदर्शन का सिलसिला जारी रखना चाहिए था। साथ ही, संसद के भीतर अन्य विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर बहस भी करनी चाहिए थी और सरकार पर लगातार दबाव भी बढाना चाहिए था। पर, ग़लत रणनीति के कारण कांग्रेस पर चौतरफ़ा दबाव बढ़ता गया । इसी बीच राहुल गाँधी ने मर्यादा लाँघते हुए सुषमा पर "below the belt" अटैक किया। अंततः कांग्रेस को लोकप्रिय दबाव के आगे झुकना पड़ा और संसद का गतिरोध टूटा। संसदीय कार्यवाही शुरू हुई और ललित गेट पर बहस भी शुरू हुआ। लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि न तो प्रधानमंत्री की ओर से और न ही भाजपा के किसी बड़े नेता की ओर से इस गतिरोध को समाप्त करने की दिशा में कोई गंभीर पहल की गई। इसके उलट सत्तारूढ़ दल की ओर से लगातार ऐसे बयान दिए गए जिसकी चौतरफ़ा आलोचना हुई और पक्ष -विपक्ष के मतभेद को कम करने की बजाय बढ़ाने का काम किया।
पर, असली नाटक तो अभी होना था। पक्ष-विपक्ष दोनों ने अपनी मर्यादायें लाँघी , पर सुषमा जी ने तो हर सीमा तोड़ दी। उनके जैसे वरिष्ठ, अनुभवी और सम्मानित नेता से इसकी अपेक्षा नहीं थी। जिस तरीक़े से उन्होंने मोर्चा सँभाला, वह एक साथ कई संकेत छोड़ जाता है:
१. उनका फ़्रस्ट्रेशन साफ़ उनके चेहरे पर झलक रहा था। दरअसल वो भाजपा में भी अलग-थलग पड़ती जा रही हैं। इस प्रकरण में वे भाजपा की अंदरूनी राजनीति की शिकार हुई। यह संसदीय बहस के दौरान भी दिखाई पड़ा जब जेटली जी ने उनके बयान को निजी बयान कहकर दूरी बनाई।
२.सुषमा के अपराधबोध को सहज ही उनके चेहरे पर देखा जा सकता है।
३.सुषमा के भाषण से ऐसा लगता है कि वे संसद को संबोधित नहीं कर रही थीं, वरन् संसद के बाहर अपने आॅडियेंस को संबंधित कर रही थीं। जिस तरीक़े से उन्होंने गाँधी परिवार को लक्ष्य कर प्रहार किया और लोकसभाध्यक्षा ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी, वह निंदनीय था। कारण यह कि बोफ़ोर्स मसले पर राजीव गाँधी को न्यायपालिका की क्लीन चिट मिल चुकी है और एंडरसन मसले पर विधि मंत्री के रूप में अरुण जेटली २००४ में फ़ाइल बंद करने की सलाह कोर्ट को दे चुके हैं और राजीव आज अपना पक्ष रखने के लिए जीवित नहीं हैं , जबकि लोकसभाध्यक्षा ने वसुंधरा की अनुपस्थिति को आधार बनाकर राहुल गाँधी को उनका नाम लेने से रोका। बड़ी चालाकी से सुषमा उन प्रश्नों का जबाव देने से बच निकलीं। अगर गाँधी परिवार या उससे जुड़ा कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त है , तो इससे किसी सुषमा स्वराज , शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया या रमन सिंह को भ्रष्ट आचरण का लाइसेंस कहाँ मिल जाता है या इससे उनके भ्रष्ट आचरण को जस्टीफाइ कैसे किया जा सकता है और उनके भ्रष्ट आचरण की आलोचना का हमारा अधिकार समाप्त कहाँ हो जाता है?
४. सुषमा का यह रवैया सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दूरी को आने वाले समय में और बढ़ाएगा । इसका असर संसदीय कार्यवाही से लेकर विधायन की प्रक्रिया तक दिखेगा।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भाजपा को छीजती लोकप्रियता और कम होती विश्वसनीयता को संभालने के लिए प्रचार और फ़ोकस की ज़रूरत महसूस हुई अन्यथा उसे पता है कि बिहार के चुनाव में इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। इसीलिए अब विपक्ष के दबाव का सामना करने का सबसे आसान तरीक़ा है विपक्ष को दुष्प्रचार के ज़रिए हाशिए पर धकेला जाए । दोस्तों, देश की चिन्ता न सत्ता पक्ष को है और न ही विपक्ष को। कांग्रेस के लिए यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली िस्थति है:वापसी के साथ-साथ २०१०-१४ के दौरान भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए जो कुछ किया, उसे सूद समेत वापस लौटाने का अवसर, तो भाजपा के लिए देश का ध्यान पिछले सवा साल के प्रदर्शन से ध्यान हटाते हुए कांग्रेस के कुशासन पर ध्यान केंद्रित करवाने का अवसर, ताकि चुनावी लाभ उठाया जा सके। हम या आप जिसके भी पक्ष में खड़े हों, अंततःबेवकूफ तो हमें ही बनना है। लोकतंत्र का तक़ाज़ा है कि विपक्ष को मज़बूती प्रदान की जाए ताकि सत्तारूढ़ दल को निरंकुश होने से रोका जा सके।हमें विपक्ष को अप्रासंगिक होने से रोकना होगा;हाँ, अगर विपक्ष अप्रासंगिक होना चाहे तब भी।

Saturday 1 August 2015

याकूब की फाँसी के बहाने

"याकूब को फाँसी" के बहाने
A. गहरे अंतर्द्वन्द्व का शिकार में:
पिछले कुछ दिनों से उधेड़-बुन की िस्थति में था। क़लम कह रही थी कि याकूब की फाँसी के प्रश्न पर मुझे कुछ कहने दो और मैं उसे यह समझाने की कोशिश में लगा था कि मैंने राजनीतिक विषयों पर न लिखने का निर्णय लिया है। क़लम जिरह पर उतर आई । उसका कहना था कि यह राजनीतिक मसला नहीं है, पर मेरा प्रतिबद्ध मन यह मानने को तैयार नहीं था। लेकिन, सच कहूँ, तो क़लम की जिरह के आगे मेरी प्रतिबद्धता डिगने लगी थी। हाँ, राष्ट्रवादी भाइयों के "प्यार" ने मुझे डिगने नहीं दिया। पर, कहीं- न- कहीं मौक़े की तलाश मुझे भी थी।तीस जुलाई की सुबह "याकूब को फाँसी"ने मेरे काम को आसान कर दिया और अब मेरी क़लम आपके सामने है।
B. "फाँसी" के राजनीतिक निहितार्थ : 
सबसे पहले मैं आपके सामने यह स्पष्ट कर दूँ कि याकूब को फाँसी हो या नहीं, यह प्रश्न मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। न तो याकूब को फाँसी मिलने से मेरे राष्ट्रवादी अहम् को तुष्टि मिलती और न ही फाँसी न मिलने से मेरा राष्ट्रवादी अहम् असंतुष्ट ही रह जाता। याकूब गुनाहगार था और हर गुनाहगार को उसके किए की सज़ा मिले, ऐसी मेरी भी इच्छा रही है( चाहे वह गुनाहगार मैं स्वयं ही क्यों न हूँ)। शायद यह दुविधा भी थी जिसके कारण मैं लिख नहीं पा रहा था। पर, जिस तरह " याकूब को फाँसी " मसले का राजनीतिकरण करते हुए इसे राष्ट्रीय मसले में तब्दील कर दिया, उससे मैं वितृष्णा से भर उठा और फिर कई सारे प्रश्न कौंधते चले गए: अब व्यापम्, ललितगेट और छत्तीसगढ़ स्कैम का क्या होगा,काँग्रेस की जो नकारात्मक राजनीति मानसून सत्र में चरम् पर पहुँच रही है,उसका क्या होगा? दिल्ली में मीनाक्षी प्रकरण ने जो ज्वलंत प्रश्न उठाए,अखिलेश के कुशासन और उत्तर प्रदेश में विधि-व्यवस्था की बिगड़ती िस्थति : ये सारे- के - सारे प्रश्न हमारे दृष्टिपट से ओझल हो गए और एक ही प्रश्न बार- बार कौंधने लगा कि याकूब को फाँसी होनी चाहिए या नहीं? ख़ैर इन प्रश्नों पर चर्चा और विश्लेषण हमारा उद्देश्य नहीं।
C. फाँसी के विरोधी कौन? 
अब प्रश्न उठता है कि "याकूब को फाँसी" का विरोध करने वाले लोग कौन हैं? क्या वाक़ई वे देशद्रोही हैं? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता है जब तक कि फाँसी का विरोध करने वाले समूहों और उनके विरोध के कारण की पहचान नहीं की जाए।ये समूह हैं:
१.एक समूह ओवैसी जैसे लोगों का है जो मुसलमानों के रहनुमा होने का दम्भ भरते हैं और जिन्हें यह लगता है कि अगर वे न रहे, तो भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों को संरक्षित कर पाना मुश्किल होगा।
२. एक दूसरा समूह उन लोगों का है जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं और इस बहाने अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी लाभ सुनिश्चित करने में इनकी रूचि है। 
३. तीसरा समूह उन लोगों का है जो सोशल एक्टिविस्ट हैं। ये लोग मृत्युदंड का उन्मूलन चाहते हैं। याकूब की फाँसी के प्रति इनका विरोध सैद्धांतिक है।मैं इनके प्रति सम्मान रखता हूँ और इनके एजेंडे के प्रति मेरी सहानुभूति है।
४. चौथा समूह मेरे जैसे लोगों का है जिनका मानना है कि याकूब के साथ न्याय होना चाहिए।उसे अंत-अंत तक ख़ुद को डिफ़ेंड करने का मौक़ा मिलना चाहिए। और वह मिला भी, ऐसा प्रतीत होता है।
D. न्यायपालिका की भूमिका:
न्यायपालिका साक्ष्यों के आधार पर काम करती है और उसके पास जो भी साक्ष्य उपलब्ध थे, उसे उसी आलोक में निर्णय देना होता है और उसने दिया भी। अत: न्यायपालिका से शिकायत की गुंजाईश नहीं है।ऐसा पहली बार हुआ जब सुप्रीमकोर्ट ने न्याय की संभावनाओं की तलाश के लिए रात भर संभावनाओं की पड़ताल की। लेकिन, इन तमाम प्रयासों के बावजूद न्यायपालिका कहीं-न-कहीं ख़ुद अपने ही मानकों पर खड़ी उतरने में असफल रही।२००९ में शंकर किशन राव खाडे बनाम् महाराष्ट्र राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "किसी अपराधी को मृत्युदंड सिर्फ़ उसी िस्थति में दिया जाएगा जब "शून्य मिटिगेटिंग फ़ैक्टर" (zero mitigating factor) मौजूद हो।"इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपवादिक परिसि्थतियों में( rarest of rare) ही मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। याकूब के मामले में अपनी इन कसौटियों पर खड़ा उतरने में असफल रही। अफ़ज़ल गुरू के मामले में फाँसी के फ़ैसले पर अंतिम रूप से मुहर लगाते हुए कहा था कि "राष्ट्र की सामूहिक चेतना को संतुष्ट" करने के लिए न्यायालय को मृत्युदंड देना पड़ता है। ऐसा इसलिए नहीं होना चाहिए कि न्यायाधीश की इच्छा है, वरन् इसलिए कि समाज की ऐसी इच्छा है। और समाज की इस इच्छा पर याकूब को भी फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया। सवाल यह उठता है कि यदि जनभावनाएँ ही न्याय का आधार हैं, तो फिर न्यायालय और न्यायाधीश की ज़रूरत क्या है?
E. चूक किससे और कहाँ पर?
याकूब के वक़ील सही ढंग से याकूब का पक्ष नहीं रख पाए और जब तक वरिष्ठतम वकीलों का समूह सक्रिय हुआ, तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। साथ ही, टाडा कोर्ट में ही मसला हाथ से निकल चुका था। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी।
प्रश्न यह उठता है कि :
१.यदि याकूब का भारत आना इंटेलिजेंस एजेंसी और याकूब के बीच डील का परिणाम था, तो इस मसले को कोर्ट की नोटिस में क्यों नहीं लाया गया।
२.सह-आरोपी के बयान मृत्युदंड के एकमात्र आधार के रूप में सामने आते हैं । पुलिस के समक्ष दिए गए बयान को साक्ष्य माना गया। इस असंगति के बावजूद कैसे मृत्युदंड की सज़ा मिली?
३.राॅ के पाकिस्तान डेस्क से जुड़े अधिकारी बी. रमन,जिन्होंने याकूब को गिरफ़्तार किया था, उनके आर्टिकल को साक्ष्य के रूप में कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं लाया गया?
४.याकूब के सहयोग के बिना पाकिस्तान की संलिप्तता की बात को साबित कर पाना संभव नहीं होता। यह अजमल कसाब-पूर्व दौर में एक महत्वपूर्ण साक्ष्य साबित हुआ। यह किसी भी दूसरे साक्ष्य की तुलना में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। इस महत्वपूर्ण मिटिगेटिंग फ़ैक्टर की उपेक्षा कैसे संभव हुई? यहाँ पर अभियोजन पक्ष के वक़ील की भूमिका पर भी प्रश्न उठता है।क्या उनकी यह ज़िम्मेवारी नहीं बनती थी कि वह याकूब से सम्बद्ध हर मसले को कोर्ट के संज्ञान में लाए ताकि निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित किया जा सके? ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने याकूब मसले में आरंभ में ही याकूब के पक्ष को कमज़ोर कर उसे उसी प्रकार बलि का बकरा बनाते हुए बहुसंख्यक हिन्दुओं की जनभावनाओं को संतुष्ट करने की कोशिश की जिस प्रकार १९८६ में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाकर।
F. राजनीतिक दलों का रूख:
याकूब के संदर्भ में सीमित विकल्प थे, विशेषकर उस िस्थति में जब कांग्रेस हिंदू दक्षिणपंथ के निरंतर दबाव में चल रही थी और मुस्लिम तुष्टीकरण के बैकग्राउंड के कारण दक्षिणपंथी हिन्दुओं को ख़ुश करने के लिए उसे अफ़ज़ल गुरू को अफ़रातफ़री में फाँसी पर चढ़ाकर अपनी राष्ट्रभक्ति भी साबित करनी पड़ी हो। ऐसे में उससे इसकी अपेक्षा की भी नहीं जा सकती थी। आजकल मोदी जी और आक्रामक भाजपा के कारण सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को हिंदू राष्ट्रवादियों को विश्वास में लेने की ज़रूरत महसूस होती रहती है क्योंकि दक्षिणपंथी हिन्दुअों के वोटों की ज़रूरत चुनाव जीतने के लिए उन्हें भी है। दक्षिण में तमिल राजनीतिक दलों की चिंता संतन, मुरूगन और नलिनी तक है क्योंकि उन्हें तमिलों का वोट चाहिए। इसी प्रकार अकाली दल की चिंता राजाओना तक सीमित है, उसे सिख वोट बैंक पर अपनी पकड़ जो बनाए रखनी है।
रही बात भाजपा की, तो वह गदगद है। उसे बैठे -बैठाए एक मुद्दा मिल गया। इस मुद्दे के ज़रिए न केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे से ध्यान बँटाया जा सकता था, वरन् बिहार चुनाव में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के ज़रिए अपनी िस्थति भी मज़बूत की जा सकती थी और आतंकवाद के प्रश्न पर अपनी प्रतिबद्धता भी साबित साबित की जा सकती थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था क्योंकि यह सब न्यायपालिका के भरोसे किया जा सकता था। इसीलिए उसने एक ओर मीडिया में अपने प्रवक्ताओं को छोड़कर िस्थति को भुनाना शुरू कर दिया, दूसरी ओर सोशल मीडिया में अपने रणबाँकुरों के ज़रिए उन लोगों के ख़िलाफ़ मिशन मोड में दुष्प्रचार अभियान छेड़दिया। इससे विरोधियों को बदनाम भी किया जा सकता था और ध्रुवीकरण का एजेंडा भी सफलतापूर्वक चलाया जा सकता था।
G. विकल्प क्या था? 
ऐसी िस्थति में सबकी नज़रें राष्ट्रपति महोदय पर टिकीं थीं। पर, वो भी बेबस थे। दया याचिका को ठुकरा दिया केन्द्र सरकार की सलाह पर। अगर वो चाहते, तो दया याचिका को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते थे। पर, उनका राजनीतिक अनुभव, विशेषज्ञों की सलाह और राष्ट्रपति पद की मर्यादा ने उन्हें टस-से-मस नहीं होने दिया अगर वे ऐसा करते, तो न केवल सरकार से टकराव की परिसि्थति निर्मित होती, वरन् राष्ट्रद्रोह का आरोप उन पर भी लगता।
H. फाँसी का विरोध करने वालों के बचाव में:
फाँसी का विरोध राष्ट्रद्रोह नहीं है। अगर ऐसा होता , तो भाजपा कभी अकाली दल (बादल) के साथ मिलकर केन्द्र और पंजाब में सरकार नहीं चला रही होती। ध्यातव्य है कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का हत्यारा राजाओना भुल्लर भी एकआतंकवादी था, उसे भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई और अकाली दल ने उसका बचाव किया था। फाँसी का विरोध करने वालों पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाने वालों का यह भी कहना है कि याकूब मेनन का ही बचाव क्यों? इसके पहले के किसी मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?
मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि जब जघन्य बलात्कार के आरोप में धनंज़य चटर्जी को मृत्युदंड सुनाया गया था, उस समय भी कुछ उसी तरह बवाल मचा था जैसा आज। अफ़ज़ल गुरू को फाँसी इतने गुपचुप तरीक़े से दिया गया कि विरोध का मौक़ा ही नहीं मिला, लेकिन चर्चा उस समय भी हुई थी। हाँ, यह ज़रूर है कि याकूब के मामले में समय मिल जाने के कारण यह मसला ख़ूब गरमाया। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी। लेकिन यहाँ पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि ये केवल अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब और याकूब मेनन को फाँसी के ही विरोध में नहीं हैं, वरन् साध्वी प्रज्ञा(मालेगांव ब्लास्ट में आरोपी, माया कोंडनानी(जिन पर गुजरात दंगे के दौरान नब्बे मर्डर के आरोप हैं),देविन्दर पाल सिंह भुल्लर(पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह समेत तेरह लोगों की हत्या के आरोपी), नलिनी, संतन एवं मुरूगन (तीनों राजीव गाँधी की हत्या के आरोपी) को फाँसी के भी विरूद्ध हैं। यहाँ इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि फाँसी के विरोध का मतलब अपराध की सज़ा का विरोध नहीं है, वरन् दण्ड के अमानवीय स्वरूप का विरोध है।इनके प्रयासों और सक्रियता का ही परिणाम था कि आँध्र प्रदेश के दो बच्चों को फाँसी की नियत तिथि के ठीक एक दिन पहले फाँसी की सज़ा से मुक्ति मिली।
I. मृत्युदंड के विरोध का तार्किक औचित्य:
जो लोग भी आतंकवाद की चुनौती के मद्देनज़र याकूब को फाँसी और मृत्युदंड की सज़ा को बनाए रखने के पक्ष में हैं,उनसे मेरे कुछ प्रश्न हैं:
१. अगर आतंकवाद की चुनौती से मुक़ाबले के लिए फाँसी उतनी ही ज़रूरी है, तो फिर दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक पीड़ित देश इज़रायल ने १९६२ से अब तक किसी को फाँसी क्यों नहीं दिया? फाँसी के बिना वह आतंकवाद से किस प्रकार मुक़ाबला कर पा रहा है?
२. पिछले तीन साल के दौरान हमने अफ़ज़ल,कसाब और अब याकूब: तीन-तीन लोगों को फाँसी पर चढ़ाया, तो क्या आतंकी घटनायें रूक गई या कम हो गई?
३. जिस तरह याकूब की फाँसी को लेकर उन्माद पैदा किया जा रहा था/है, वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक भेद की खाई को और चौड़ा करेगा।पहली बार किसी की मौत पर सेलिब्रेशन का ऐसा अंदाज देखा गया, वह भी समुदाय विशेष के द्वारा, जो निंदनीय ही नहीं,अमानवीय भी है। आनेवाले समय में ये चुनौतियाँ और गंभीर होने जा रही हैं, यदि समय रहते हमने सँभलने की कोशिश नहीं की।
४. दुनिया का एक भी सर्वे यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि मृत्युदंड की सज़ा प्रभावी प्रतिरोधक का काम करती है।
५. अपराध के लिए दंड का प्रावधान क्यों किया जाता है:अपराधी को सुधारने के लिए या फिर अपराधी के अस्तित्व को मिटाने के लिए? क्या अपराधी के अस्तित्व को मिटाकर अपराध को समाप्त कर पाना संभव है? क्या बी. मेनन का ख़ुलासा और क़ैदी के रूप में याकूब का व्यवहार इस बात का संकेत नहीं देता है कि वह सुधरना चाहता था, लेकिन देश ने सुधरने का मौक़ा याकूब से छीन लिया। कल कोई याकूब कैसे किसी वक़ील या अपने भाई की सलाह की अनदेखी कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनेगा? कैसे वह किसी ख़ुफ़िया अधिकारी पर विश्वास कर उसके साथ सहयोग करेगा? यह िस्थति ख़ुफ़िया संस्थाओं के साथ -साथ देश की विश्वसनीयता को संकट में डाल रही है। यह सुधार की इच्छा रखने वालों अपराधियों और ख़ुफ़िया संस्थाओं के बीच "ट्रस्ट डेफिसिट" की िस्थति सृजित करेगा जो दो समुदायों के बीच अविश्वास और नफरत की खाई को चौड़ी करेगी जिसकी आग में पूरे देश को झुलसना पड़ सकता है।
J. अभिव्यक्ति की स्वतंंत्रता और लोकतंत्र: दोनों ही ख़तरे में
कैसी विडम्बना है कि जिस समय राष्ट्रनायक एपीजे अब्दुल कलाम को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, ठीक उसी समय याकूब की फाँसी की पटकथा के बहाने कलाम के मूल्यों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही थी और फाँसी का विरोध करने वाले के ख़िलाफ़ अपशब्दों के प्रयोग से लेकर देशद्रोह का आरोप लगाया जा रहा था तथा याकूब की मौत को अल्पसंख्यक समुदाय को चिढ़ाने वाले अंदाज में सोशल मीडिया में सेलिब्रेट किया जा रहा था उन्हीं लोगों के द्वारा, जो अब्दुल कलाम के चरित्र और व्यक्तित्व को महिमामंडित करते हुए, उसे रोमांटिसाइज करते हुए उसके दैवीकरण की कोशिश में लगे हुए थे(कलाम के ख़ुद के मूल्य भी इसे अनुमति नहीं देते)। दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को अभिव्यक्ति देती कवि हरिओम पवार की ये पंक्तियाँ उस समूह की सोच और भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं:
जो भी अफ़ज़ल की फाँसी रुकवाने में शामिल हैं/ वे सब फाँसी के फंदे पर टँग जाने के क़ाबिल हैं।
सवाल यह उठता है कि इस सोच के साथ भारतीय लोकतंत्र को आप किधर ले जाने की सोच रहे हैं? क्या भारत हम्बूरावी की दंड संहिता(प्राचीन) की ओर वापस लौट रहा है जो आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत की तर्ज़ पर ख़ून के बदले ख़ून की माँग करेगा? क्या यही है कलाम के सपनों का भारत? अगर हाँ , तो कलाम की आत्मा आपको कभी माफ़ नहीं करेगी और न कभी माफ़ करेगा आपको यह राष्ट्र। कृपया राष्ट्र की एकता और अखंडता को ख़तरे में मत डालें। इन्सानियत से बड़ा धर्म नहीं हो सकता। हाँ, राष्ट्र भी नहीं। ऐसे सौ राष्ट्र इस पर क़ुर्बान क्योंकि ........... क्योंकि इन्सानियत के बिना हम राष्ट्र को भी नहीं बचा पायेंगे। 
इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलिए मत। यह लोकतंत्र की बुनियाद है। असहमति और विरोध की गुंजाईश के बिना लोकतंत्र प्राणवान् और जीवंत नहीं हो सकता है। अत: असहमति और विरोध के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करना हमें सीखना होगा अन्यथा लोकतंत्र को बचा पाना पाना मुश्किल होगा।
              जय हिंद। जय भारत!

Wednesday 29 July 2015

कैसी श्रद्धांजलि???????

               कलाम को श्रद्धांजलि
काफ़ी भीड़ थी वहाँ,अपने कलाम साहब गुज़र जो गए थे। हर कोई संजीदा था। कोई कलाम को भगवान कह रहा था, तो कोई फ़रिश्ता। हर किसी की बातों से लग रहा था कि देश ने कोई बहुत बड़ी चीज़ खोई है। तभी मेरी नज़र कलाम साहब की आत्मा पर पड़ी। मैंने उनकी आत्मा को गहरे अंतर्द्वंद्व की िस्थति में पाया। चिंता की लकीरें उसके माथे पर साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रही थीं। हाँ, बीच-बीच में हल्की-सी िस्मत आती-जाती रहती थी, बस कुछ पल के लिए। मुझे लगा कि वे अपने लिए लोगों के प्यार को देखकर अभिभूत हो उठे हों और उनकी चिंता इस बात को लेकर बढ़ गई हो कि उनके बाद इस देश का और इन शुभचिंतकों का क्या होगा? दूसरी ओर इतने लोगों द्वारा "R.I.P." की कामना ने उन्हें आश्वस्त कर दिया हो मुक्ति को लेकर।
अचानक उस आत्मा की नज़र मेरी एहसानफरामोसी पर पड़ी । वह चौंक-सी पड़ी। मुझे क़रीब आते उसने मुझे देखा और मेरे अंदर चल रहे प्रश्नों को भी।अब चिंता की लकीरें गहराती जा रहीं थीं। मैंने क़रीब पहुँचकर उनकी आत्मा से पूछा: क्यों चिंतित हैं आप और क्या है आपकी हल्की-सी िस्मत का राज?मुझे ख़ुशी इस बात की है कि मेरा देश मुझे इतना प्यार और सम्मान देता है , तहे दिल से मेरा इस्तक़बाल करता है; कौन ऐसा होगा जो इस स्नेह से अभिभूत न हो! और चिंतित इस बात को लेकर हूँ कि अगर ऐसा पाँच प्रतिशत स्नेह और सम्मान भी अगर उन मूल्यों,सिद्धांतों, आदर्शों और सपनों के प्रति प्रदर्शित करे तथा उन्हें जीते हुए व्यवहार के धरातल पर उतारने की कोशिश करे, तो मेरे सपनों का भारत सपना नहीं रह जाएगा, हक़ीक़त में तब्दील हो जाएगा। अचानक उनके माथे की सिलबटें ग़ायब हो गयीं और वही चिर-परिचित मुस्कान उनके होंठों पर छा गई। उन्होंने "कुटिल- सी मुस्कान" के साथ प्रश्न भरी निगाहों से मुझसे पूछा:" कहो, क्या तुम दोगे मुझे श्रद्धांजलि?........ या फिर, औरों की तरह तुम भी मरे बहाने मेरे मूल्यों को श्रद्धांजलि देने आए हो?" मैं हतप्रभ, चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था। मेरे माथे पर सिलबटें गहराती जा रहीं थीं। पल भर में मैं पसीने से तर-बतर हो गया। साँसें तेज़ी से चलने लगीं और लगा कि किसी ने मेरी कमज़ोर नसें दबा दी हो। आँखों के आगे धुँधला-सा छा गया। जब तक सँभलता तब तक आत्मा दृष्टिपट से ओझल हो चुकी थी और शेष रह गया था उसका अट्टहास, जो शूल की भाँति मेरे हृदय को वेध रहे थे। फिर भी, हाँ कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था..................

Monday 6 July 2015

अपराध

                अपराधी


अपराधी है वह,

अपराध किया है उसने,

ये मत पूछो-

"किसके प्रति"?

पूछो उससे-

किस-किस के प्रति नहीं,

किस-किस को नहीं छला है उसने?

क्या निभाई उसने अपनी ज़िम्मेवारियाँ 

अपने माँ-बाप के प्रति?

क्या निभाया है उसने

अपना पुत्र-धर्म?

क्या खड़ा उतरा वह

अपनी पत्नी की अपेक्षाओं पर?

और तो और,

बच्चे की उससे जुड़ी अपेक्षाएँ भी

रह गई अधूरी?

लोक भी है संतप्त

उससे जुड़ी अपनी अपेक्षाओं से।

अब तुम्हीं बतलाओ-

कैसे माफ़ करूँ उसको?

उसका अपराध महज़ इतना नहीं,

दोहरा अपराध है उसका।

और धृष्टता देखो उसकी-

ऐसा नहीं कि उसे इसका अहसास नहीं,

पर वह इन अहसासों को भी नकारता।

अक्षम्य है उसका अपराध, 

उसे तो सज़ा मिलनी ही चाहिए, 

उसे सज़ा मिलकर रहेगी,

माफ़ नहीं करूँगा 

उसे मैं, 

सज़ा दिलवाकर ही रहूँगा,

सज़ा दिलवाकर ही रहूँगा ।