Monday 28 September 2020

पार्ट 5 कृषि-सुधार: आलोचनात्मक मीमांसा (समाप्त)

 

कृषि-सुधार: आलोचनात्मक मीमांसा

प्रमुख आयाम

1.  वैचारिक पृष्ठभूमि

2.  कृषि का उपनिवेशीकरण

3.  भारतीय बाज़ार में व्यापक सम्भावनाएँ

4.  वैश्विक प्रक्रम का हिस्सा: भारतीय कृषि-सुधार

5.  कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन की आशंका

6.  पश्चिमी देशों का अनुभव

7.  सहकारिता का विकल्प

8.  कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना में बेहतर

 

वैचारिक पृष्ठभूमि:

उदारीकरण और वैश्वीकरण ने कॉर्पोरेट पूँजीवाद को मज़बूत बनाते हुए मल्टी-नेशनल कम्पनीज(MNC’s) और ट्रान्स-नेशनल कम्पनीज (TNC’s) के ज़रिये ऐसा जाल बुना जिसमें राष्ट्रीय सरकारें फँसती चली गयीं, और आज आलम यह है कि इनका आकार कई देशों की जीडीपी को भी लाँघ चुका है और राष्ट्रीय सरकारों पर इनकी गिरफ्त इतनी मज़बूत हो चुकी हैं कि वे खुद को इनके समक्ष बेबस महसूस कर रही हैं। आलम यह है कि राष्ट्रीय सरकारों की नीतियाँ क्या होंगी, आज इसका निर्धारण भी प्रत्यक्षतः या परोक्षतः इन्हीं के द्वारा होता है और सरकारें इन्हीं के एजेंडे के अनुरूप काम करती हैं। और उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि सरकारों के आने-जाने से इन्हें कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता, होता वही है जो ये चाहती हैं।

पहले इस कॉर्पोरेट पूँजीवाद ने शहरी मध्य-वर्ग को बेहतर जीवन के सपने दिखाते हुए शहरी औद्योगिक अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लिया और, और अब किसानों को बेहतर कीमत का सब्ज़बाग दिखाकर ग्रामीण कृषक अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश में लगा हुआ है, और खासियत यह है कि यह ज़मीन एवं फसल के मालिकाना हक़ के भ्रम को बनाये रखते हुए ऐसा करने की कोशिश में है, ताकि भोले-भाले किसानों को आसानी से बरगलाया जा सके। इसके लिए इसने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और लैंड लीजिंग के जरिए कॉर्पोरेट फार्मिंग का ढ़ाल की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया है।

इस बात को बड़ी आसानी से फार्म बिल को लेकर उत्पन्न परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है जो पूर्ववर्ती यूपीए सरकार और उसे नेतृत्व प्रदान करने वाले सबसे बड़े राजनीतिक दल काँग्रेस का भी एजेंडा रहा है और राजग सरकार का भी, जिसे भाजपा नेतृत्व प्रदान कर रही है। दोनों में अगर कहीं अंतर है, तो उसकी तीव्रता और उसके लिए प्रयुक्त शब्दावली का। साथ ही, उस स्पेस का, जो इस नयी व्यवस्था में कॉर्पोरेट्स और किसानों को मिलना है।

कृषि का उपनिवेशीकरण:

इसी आलोक में उपनिवेशवाद के बदलते हुए स्वरुप की ओर इशारा करते हुए गिरीश मालवीय लिखते हैं, “उपनिवेशवाद कभी नहीं मरता, बस अपना रूप बदल लेता है। आज यह दुनिया के विभिन्न हिस्सों में खाद्य उपनिवेशवादके रूप में आकार ग्रहण कर रहा है। दुनिया भर में लैटिन अमेरिका से लेकर एशिया और अफ्रीका तक में खेतिहर जमीन के बड़े-बड़े सौदे हो रहे है। दाल, खाद्य तेल, चीनी और डेयरी क्षेत्र से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दुनिया भर में कृषि-भूमि का अधिग्रहण कर रही हैं और एक आकलन के अनुसार, पिछले डेढ़ दशक में तकरीबन चार करोड़

हेक्टेयर कृषि-भूमि या तो खरीदी या पट्टे पर ली जा चुकी है।”

दरअसल मध्य वर्ग के तीव्र उभार की पृष्ठभूमि में पूँजीवादी उपभोक्तावादी मूल्यों के बढ़ते हुए वर्चस्व ने मनुष्य की जीवन-शैली में जिन बदलावों की प्रस्तावना की, उसने उनके फ़ूड हैबिट में भी बदलाव लाए और इसके साथ प्रसंस्करित खाद्य-उत्पादों की भूमिका उसके जीवन में महत्वपूर्ण होती चली गयी। इसने प्रसंस्करित खाद्य-उत्पादों के लिए विशाल एवं वर्द्धनशील बाज़ार सृजित करते हुए खाद्य-प्रसंस्करण के क्षेत्र में व्यापक संभावना को जन्म दिया जिसे भुनाने के लिए देशी-विदेशी कॉर्पोरेट में होड़-सी चल पड़ी। इसने कृषि के उपनिवेशीकरण के मार्ग को प्रशस्त किया।

भारतीय बाज़ार में व्यापक सम्भावनाएँ:

कृषि-जलवायु की विविधता और बड़ा बाज़ार होने के कारण भारत में खाद्य-प्रसंस्करण उद्योगों के लिए व्यापक सम्भावनाएँ हैं। वर्तमान में  भारतीय खाद्य-बाजार में खाद्य-प्रसंस्करण उद्योगों की भागीदारी 32 प्रतिशत के स्तर पर, कुल भारतीय निर्यात में 13 प्रतिशत और कुल उद्योग में 6 प्रतिशत के स्तर पर है। और, आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे भारतीय मध्यवर्ग का आकार और इसकी आय बढ़ेगी, भारत के घरेलू बाज़ार में खाद्य-प्रसंस्करण के लिए सम्भावनाएँ बढ़ती चली जाएँगी भारतीय खाद्य-बाजार की इन्हीं सम्भावनाओं पर आज भारत के कृषि-व्यवसाय में पहले से ही पैर जमाए नेस्ले, केडबरी, गोदरेज, डाबर  जैसी कम्पनियों की भी नज़र है और रिलायंस, पतंजलि, वालमार्ट, बिग-बास्केट, अदानी, रिलाईंस फ्रेश एवं सफल जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भी नज़र दरअसल, भारतीय रिटेल बाज़ार पर नज़रें गड़ाई ये कम्पनियाँ सीधे किसानों तक पहुँचना चाहती हैं ताकि अपनी लागत को कम कर सके और अपने प्रॉफिट मार्जिन बढ़ा सके। फार्म बिल इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है ताकि कम्पनियों के लिए किसानों तक पहुँचाना और सस्ती कीमतों पर कृषि-उत्पादों को हासिल करना आसान हो सके।  

वैश्विक प्रक्रम के हिस्से के रूप में भारतीय कृषि-सुधार:

आज भारत में कृषि-सुधारों के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह कोई अलहदा प्रक्रिया नहीं है। यह वैश्विक प्रक्रम (Global Phenomenon) का हिस्सा भर है। भारत से लेकर चीन तक की कम्पनियाँ लैटिन अमेरिकी देशों से लेकर एशियाई और अफ़्रीकी देशों तक पहुँच कर ऐसा ही करने की कोशिश कर रही हैं। भारतीय कम्पनियों ने भी तंजानिया जाकर दलहन की खेती की जमीन के सौदे किए हैं, और अब कृषि-सुधारों के नाम पर यही प्रक्रिया भारत में शुरू हो रही है। दरअसल यह कहना गलत होगा कि शुरू हो रही है, यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि शुरू हो चुकी है और अब कृषि-सुधारों एवं कृषि के आधुनिकीकरण-तकनीकी उन्नयन के नाम पर एक एजेंडे के तहत् इसे व्यापकता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है।

22 जुलाई,2020 को भारतीय प्रधानमंत्री ने अमेरिकी कम्पनियों को सम्बोधित करते हुए कृषि-सुधारों से सम्बंधित इस अध्यादेश के बारे में बतलाते हुए वालमार्ट जैसे अमेरिकी कम्पनियों को भारत में आकर निवेश करने के लिए आमंत्रित किया। ध्यातव्य है कि वालमार्ट अमेरिका में फेल कर चुकी है और अब वह भारतीय बाज़ार में भविष्य की सम्भावनाओं को तलाश रहा है। इससे पहले भी पिछले साल मई,2019 में वालमार्ट तब चर्चा में आयी थी जब इसके प्रमुख ने तत्कालीन खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर को उनकी जीत पर बधाइयाँ दी थीं। और, इस क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि लोकसभा द्वारा इस बिल को पारित किये जाने के बाद इस बिल को लेकर उभरने वाले विवाद के पहले तक अकाली दल (बादल) ने इस बिल को अपना समर्थन दिया। अब यह बात अलग है कि पंजाब में गहराते कृषक असंतोष और तेज होते किसान आन्दोलन ने न केवल उन्हें इस्तीफे के लिए विवश किया उन्हें  जून से सितम्बर तक आते-आते हरसिमरत कौर का उनके समर्थन विरोध में बदला, बल्कि उन्हें इस्तीफ़े के लिए और अकाली दल (बादल) को राजग गठबंधन से बाहर निकलने के लिए विवश किया। इतना ही नहीं, रिलायंस ने भी इसके लिए व्यापक स्तर पर तैयारी की है और इसी के मद्देनज़र उसे बिग बाज़ार को ख़रीदा है।

कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन की आशंका:

अब अगर उपरोक्त बिन्दुओं के आलोक में कृषि-सुधार से सम्बंधित हालिया पहलों पर गौर किया जाए, तो हालिया तीनों संशोधनों का उद्देश्य किसानों को लंबी अवधि के बिक्री-अनुबंधों में प्रवेश करने की अनुमति देना, खरीदारों की उपलब्धता को बढ़ाना और खरीदारों को थोक में कृषि-उत्पाद खरीदने की अनुमति देना है। रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों से बाहर किसानों से शुल्क-मुक्त खरीद, अनुबंध खेती और कई खाद्य-पदार्थों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर निकालते हुए उसकी असीमित मात्रा में स्टॉकिंग की अनुमति का सीधा फायदा इन कॉर्पोरेट्स और कम्पनियों को मिलना है। कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा कहते हैं, 86 प्रतिशत छोटे किसान एक ज़िले से दूसरे ज़िले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य तक जाने के सवाल ही छोड़ दें। इसलिए ये बिल बाज़ार के लिए बना है, किसान के लिए नहीं।” इसलिए यह कहा जा रहा है कि इसके कारण भारतीय कृषि में कॉर्पोरेट्स का बढ़ता हुआ हस्तक्षेप उसके कॉर्पोरेटाइजेशन की प्रक्रिया को तेज करेगा और किसानों को बाज़ार से कहीं गहरे स्तर पर जोड़ता हुआ बाज़ार जोखिम की सम्भावनाओं को भी विस्तार प्रदान करेगा, जबकि किसानों को बाज़ार जोखिम से संरक्षण प्रदान करने का मैकेनिज्म अबतक विकसित नहीं हो पाया है।

भले ही सरकार प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार में अपनी उपज की कीमत तय करने और अपनी मर्जी से अपनी उपज बेच सकने की किसानों की आजादी की बात कर इन सुधारों को जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही हो, पर किसानों को इस बात की आशंका है कि इस बहाने केंद्र सरकार भारत में भी पश्चिमी देशों का मॉडल थोपना चाहती है। उनका तर्क है कि:

a.  भारत में भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है, और

b.  भारत में खेती-किसानी यहाँ के लोगों के लिए जीवन-यापन का जरिया है, न कि पश्चिमी देशों की तरह व्यवसाय।

उन्हें लगता है कि नई व्यवस्था में कीमतों के निर्धारण से लेकर खरीद-बिक्री का नियंत्रण व्यवहार में कारपोरेट क्षेत्र और बिचौलियों के हाथों में चली जाएगी। ऐसी स्थिति में फसलों की खरीद से लेकर उनके भंडारण एवं विपणन तक की नई व्यवस्था में संसाधन और सुविधाओं से सम्पन्न कॉर्पोरेट का हस्तक्षेप कॉर्पोरेट बाजार में किसानों से लेकर उपभोक्ताओं तक को हाशिये पर पहुँचा देंगे। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था में संकट-मोचक के रूप में कृषि क्षेत्र की भूमिका को भी प्रतिकूलतः प्रभावित करेगा। शायद आने वाले पीढ़ियाँ कृषि-क्षेत्र की वैसी भूमिका न देख पाएँ, जैसी भूमिका इसने सन् 2008-09 के आर्थिक संकट और कोविड-19 संकट की पृष्ठभूमि में निभायी।

पश्चिमी देशों का अनुभव:

भारत में किसानों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि प्राइवेट सेक्टर ही किसान को सही कीमत दे सकता है और किसान को इसका फायदा मिलेगा, जबकि दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि मार्केट रिफॉर्म्स की वजह से किसानों को फायदा हुआ हो। कृषि-विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने अपने आलेख ‘किसानों के देश की अपनी चिन्ताएँ’ में बतलाया कि अमेरिका में पिछले छह-सात दशकों से खुला बाजार है, फिर भी यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर के चीफ इकोनॉमिस्ट का कहना है कि सन् 1950 में अमेरिका में प्रति डॉलर किसानों का प्रॉफिट मार्जिन 41% के स्तर पर था जो घटता हुआ 15% के स्तर पर रह गया है। अमेरिकी किसानों की लगातार घटती हुई आमदनी धीरे-धीरे कृषि को खत्म करती जा रही है और इसका प्रमाण यह है कि:

1.  अमेरिका में ओपन मार्केट के 6-7 दशक बाद कृषि पर निर्भर आबादी घटकर 1.5 फीसदी रह गई है, और

2.  अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं की दर शहरी क्षेत्रों के मुकाबले 45 फीसदी अधिक हैं।

यह उन बाज़ार-सुधारों की नाकामी को दर्शाता है जो अमेरिका ने कृषि-क्षेत्र में सात दशक पहले किया था, जबकि अमेरिकी किसानों की पहुँच तो घरेलू क्या, विदेशी बाज़ारों तक है। इसके परिणामस्वरुप खुले बाजार एवं बेरोक-टोक भण्डारण से लेकर अनुबंध खेती एवं वायदा बाजार तक व्यवस्था होने के बावजूद अमेरिकी किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ती चली गयी अमेरिका में किसानों को घरेलू समर्थन के रूप में औसतन लगभग 7 हजार डॉलर सालाना सब्सिडी दी जाती है, फिर भी अमेरिकी किसानों की ऋणग्रस्तता चरम पर है और उन पर बैंकों की बकाया राशि लगभग 425 बिलियन डॉलर है।

अमेरिका, यूरोप और कनाडा में सिर्फ कृषि नहीं, बल्कि कृषि-निर्यात भी सब्सिडी पर टिका है सन् 2018 में अमेरिका और यूरोप में 246 बिलियन डॉलर की सब्सिडी किसानों को दी गईअकेले यूरोप ने 100 बिलियन डॉलर की सब्सिडी दी जिसमें तकरीबन आधी डायरेक्ट इनकम सपोर्ट थी। अमेरिका में किसानों को मिल रही औसत सब्सिडी 7,000 डॉलर प्रतिवर्ष है, जबकि भारत में करीब 200 डॉलर। अगर सब्सिडी हटा दी जाए, तो अमेरिका, यूरोप और कनाडा का एक्सपोर्ट 40 फीसदी तक घट जाएगा। इन सबके बावजूद, अमेरिका में वर्ष 1970 से लेकर अभी तक 93 प्रतिशत डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं। यूरोप की हालत भी इससे बहुत अलग नहीं है। इसी पृष्ठभूमि में देविन्दर शर्मा ने यह प्रश्न भी उठाया है कि अगर वालमार्ट और टेस्को जैसे बड़े-बड़े रिटेलरों ने अमेरिकी किसानों को सही कीमत दी होती, अमेरिकी किसान न तो दिवालिया होते और न ही उनके सामने खेती छोड़ने या दिवालिया होने की नौबत आती

ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि अमेरिका और यूरोप में फेल हो चुके मॉडल से भारतीय कृषि एवं किसानों के कायाकल्प की अपेक्षा कहाँ तक उचित है? विशेषकर तब, जब आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन(OECD) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष (2000-16) के बीच उचित दाम नहीं मिलने के कारण भारत के किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, और आर्थिक सर्वेक्षण,2016 के अनुसार, भारतीय किसान-परिवार की औसत सालाना आय 20,000 रुपये है।

सहकारिता का विकल्प:

भारतीय परिस्थितियों और भारतीय परिवेश को ध्यान में रखें, तो सहकारिता एक बेहतर विकल्प हो सकता है। सहकारिता के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर कैलिफोर्निया के ब्लू डायमंड बादाम और नॉर्वे की सामन मछली का सफल सहकारी मॉडल का उदाहरण मौजूद है, जबकि भारत में दुग्ध-उत्पादन के क्षेत्र में अमूल और बिहार में सुधा का मॉडल मौजूद है। इसी तर्ज़ पर भारतीय किसानों को भी संगठित होकर खाद्यान्न, फल और सब्जियों में सहकारी खेती के मॉडल को अपनाना चाहिए। अगर किसान सहकारी संगठन के रूप में खुद को संगठित कर खेती-किसानी का काम करते हैं, तो सहकारी संगठनों पर खुद अपने ही नियंत्रण के कारण उन्हें कम्पनियों और कॉर्पोरेट्स पर उनकी निर्भरता भी नहीं रहेगी। साथ ही, बाज़ार में मोल-भाव करते हुए वे अपने हितों के संरक्षण में समर्थ भी होंगे। इस क्रम में, अगर उन्होंने सहकारी प्रयासों के ज़रिये अपनी उपज को प्रसंस्करित करने की कोशिश की, तो मूल्य-वर्द्धन से वे लाभान्वित भी होंगे और कृषि-प्रसंस्करण एवं खाद्य-प्रसंस्करण के ज़रिए किसानी एवं किसान की स्थिति को परिवर्तित करने में समर्थ भी होंगे

कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना में बेहतर:

इस सन्दर्भ में कृषि मामलों के जानकार देविन्दर शर्मा ने कृषक उत्पादक संगठन(FPO) की तुलना में सहकारी संगठन को बेहतर माना क्योंकि जहाँ सहकारी संगठन में किसान स्वयं मालिक होते हैं, वहीं कृषक उत्पादक संगठन(FPO) के सन्दर्भ में ये शिकायतें आ रही हैं कि  बिचौलिए आढ़तियों से लेकर सरकारी अधिकारियों तक ने ऐसे संगठन बना रखे हैं जो इसके मूल उद्देश्य को ही डायल्यूट करते हैं। मतलब यह कि कई मामलों में कृषक उत्पादक संगठन(FPO) के नाम पर ही एक नया बिचौलिया खड़ा किया जा रहा है

हालिया कृषि-सुधार: एक विश्लेषण: पार्ट 4

 

कृषि-सुधार: एक विश्लेषण

प्रमुख आयाम

1.  कृषि-सुधारों के पक्ष में:

a. अमिताभ कान्त का पक्ष

b.  भारतीय अर्थव्यवस्था का विरोधाभास

c.   कृषि-सुधार के तर्काधार

d.    किसान और किसानी को लाभ

e.     कॉर्पोरेट्स और सरकार को लाभ

2.    कृषि-सुधारों के विपक्ष में:

a. विरोध का आधार

b. योगेन्द्र के. अलघ का नज़रिया

c.  आशंकाओं को जन्म देता सरकार का रवैया

d. कृषि-व्यापार के उदारीकरण: काँग्रेस का रुख

e. किसानों की अनदेखी करता कानून

f.   किसानों के मजदूर में तब्दील होने की आशंका

g. मण्डी-व्यवस्था से बाहर बाज़ार की मौजूदगी

h. रेगुलेटेड मण्डियाँ-एमएसपी: अप्रासंगिक होने का खतरा

i.   खाद्य-सुरक्षा के प्रतिकूलतः प्रभावित होने की आशंका

 

 

कृषि-सुधार: एक विश्लेषण

सितम्बर,2020 में किसानों के विरोध-आंदोलन के बीच मानसून-सत्र में कृषि-सुधारों से सम्बंधित तीन विधेयक, जो लॉकडाउन के दौरान जारी कृषि-क्षेत्र से जुड़े तीन अध्यादेशों को प्रतिस्थापित करेगी, लोकसभा और राज्यसभा में पारित किए गए। राजग गठबंधन की सरकार अपने एक महत्वपूर्ण सहयोगी दल अकाली दल के विरोध के कारण राज्यसभा में मुश्किल में घिर सकती थी, लेकिन विपक्ष के भारी विरोध और शोर-शराबे के बीच राज्यसभा के उप-सभापति ने अत्यन्त विवादस्पद तरीके से ध्वनि-मत से इन विधेयकों के पारित होने की घोषणा की। और, 27 सितम्बर को राष्ट्रपति की अनुमति मिलते ही इन तीनों विधेयकों ने अधिनियम का रूप ले लिया और कानून के रूप में प्रभावी हुए। सरकार का मानना है कि इससे कृषि-सुधारों का मार्ग प्रशस्त होगा और किसानों की स्थिति बेहतर होगी।

कृषि-सुधारों के पक्ष में

अमिताभ कान्त का पक्ष:

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत कृषि-सुधारों की प्रक्रिया को आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया की तार्किक परिणति मानते हुए कहते हैं कि कृषि-व्यापार के उदारीकरण की दिशा में की गयी यह पहल आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के अधूरेपन को पूर्णता प्रदान करती है क्योंकि अबतक भारतीय समाज एवं आर्थिकी के एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद किसानों को आर्थिक सुधारों की इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया था। कृषि-अवसंरचना और खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग में निवेश के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये ने किसानों की उपज और सौदेबाजी की क्षमता को हतोत्साहित किया। परिणामतः खाद्य-प्रसंस्करण महज दस फीसद से भी कम के स्तर पर है और उपज की बर्बादी होने से लगभग नब्बे हजार करोड़ रुपए सालाना नुकसान का अनुमान है।

इसी पृष्ठभूमि में ये सुधार समय की माँग बनकर खाद्य-सुरक्षा के लिए अपनायी गई नीतियों के अनुपूरक के रूप में सामने आते हैं। वे कहते हैं, “समय की माँग यह थी कि ऐसी प्रणाली लागू की जाए जो खाद्य-सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार की गई हमारी नीतियों का अनुपूरक हो। ....... किसानों के लिए मूल्य-प्राप्ति उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान किए गए खुदरा-मूल्य का अंश मात्र था। इसी प्रकार गुणवत्ता-नियंत्रण और प्रमाणन की कमी थी, जिसके परिणामस्वरूप खाद्य-निर्यात बाजारों में भारत का एक छोटा-सा हिस्सा था।” यह स्थिति तब है जब भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक और अनाज, फल-सब्जियों एवं मछली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। फिर भी, महज़ 6% मूल्य-वर्धन के साथ वैश्विक खाद्य निर्यात-बाजारों में भारत की हिस्सेदारी 2.3 फीसद पर है। यह इस ओर इशारा करता है कि आने वाले समय में भारत वैश्विक खाद्य-आपूर्ति श्रृंखलाओं में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उभर सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का विरोधाभास:

दुनिया में पिछले तीन दशकों के दौरान विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व में वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में वैश्विक बाज़ारों के समेकन की प्रक्रिया तेज होती चली गयी, कभी द्विपक्षीय सहयोग समझौते(FTA’s) के माध्यम से, तो कभी क्षेत्रीय सहयोग समझौते(RTA’s) के माध्यम से और कभी अन्तर्क्षेत्रीय सहयोग समझौते(ट्रान्स-पेसिफिक पार्टनरशिप, रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकॉनोमिक पार्टनरशिप आदि) के माध्यम से। इस प्रक्रिया से भारत भी अछूता नहीं रहा। उसने भी अपनी तमाम हिचक के बावजूद मुक्त व्यापार समझौतों और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के माध्यम से शेष विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ खुद को समेकित करते हुए इसका लाभ उठाना चाहा, लेकिन इसकी विडम्बना यह रही कि इसका घरेलू बाज़ार बिखरा हुआ ही रहा और वह उन लाभों से वंचित रहा जो उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था में अन्तर्निहित थे, और विडम्बना यह कि वह पिछले तीन दशकों से वैश्विक अर्थव्यस्था में अपने लिए अन्तर्निहित संभावनाओं के दोहन की कोशिश करता रहा।    

कृषि-सुधार के तर्काधार:

जहाँ तक भारतीय कृषि बाजार का प्रश्न है, तो पिछले दो दशकों की कोशिश के बावजूद आज भी भारतीय कृषि-बाज़ार बिखरा हुआ है। सैद्धांतिक रूप से किसानों को अपनी उपज अपने तरीके से मंडी से बाहर जाकर बेचने की आज़ादी नहीं है। साथ ही, देश के भीतर और राज्यों के भीतर कृषि-उत्पादों की मुक्त आवा-जाही की अनुमति नहीं है। इसका प्रतिकूल असर कृषि बाज़ार की प्रतिस्पर्धात्मकता के साथ-साथ किसानों और उनकी आय पर पड़ रहा है क्योंकि उन्हें उनकी उपज की उचित एवं लाभकारी कीमत नहीं मिल पा रही है। गन्ने और दूध के मामले में किसान को करीब 75 फीसदी मूल्य मिलता है। इसकी तुलना में टमाटर, प्याज और आलू उगाने वाले किसान तथा बागवानी करने वाले किसानों को औसतन खुदरा कीमत का 30 प्रतिशत ही मिलता है। इसके बावजूद इनका संयुक्त उपज भार खाद्यान्न से अधिक होता है। इन तीनों उपज में 30 फीसदी के अलावा बाकी हिस्सा बिचौलियों को चला जाता है। प्रत्यक्ष विपणन की व्यवस्था के ज़रिये किसान की हिस्सेदारी बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो सकती है।

अबतक के परिदृश्य में, चाहे कृषि बाज़ार विपणन समिति(APMC) अधिनियम हो या फिर आवश्यक वस्तु अधिनियम, इसके प्रावधान न केवल समेकित एवं प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार के विकास में बाधक हैं, वरन् इसने निवेश की प्रक्रिया और कृषि अवसंरचना के विकास को भी अवरुद्ध किया है। इसीलिए कृषि-सुधारों की दिशा में हालिया पहल इस अवरोध को दूर करती हुई एक ओर प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार को सुनिश्चित करती है, दूसरी ओर निवेश की संभावनाओं को बल प्रदान करती हुई कृषि-अवसंरचना के विकास का मर्ग भी प्रशस्त करती है।     

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विरोधी दलों पर कृषि-सुधार से सम्बंधित विधेयकों के सन्दर्भ में दुष्प्रचार का आरोप लगाते हुए इसे ‘आज़ादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आज़ादी देने वाला विधेयक’ बतलाया और कहा कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) का फ़ायदा नहीं मिलने की बात ग़लत है। उनका कहना है कि इससे किसानों के पास मंडी में जाकर लाइसेंसी व्यापारियों को ही अपनी उपज बेचने की विवशता से मुक्ति मिलेगी और अब किसान अपनी मर्जी का मालिक होगा। वह यह निर्णय ले सकेगा कि उसे किस दर पर किसके हाथों अपनी उपज बेचनी है या नहीं बेचनी है। उपरोक्त सुधार बिचौलियों पर किसानों की निर्भरता, जिसके कारण कृषि-आय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह बिचौलिया वर्ग किसानों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खा जाता है, को समाप्त करते हुए बाज़ार तक उनकी आसान पहुँच को सुनिश्चित करेंगे जिससे उन्हें उनके उत्पादों की उचित एवं प्रतिस्पर्धात्मक कीमत मिल सकेगी। सरकार का यह तर्क है कि करार-विधेयक से किसानों की स्थिति मज़बूत होगी और वे समान स्तर पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं बड़े व्यापारियों के साथ करार कर सकने में सक्षम हो सकेंगे। सरकार ने किसानों के हितों के संरक्षण का आश्वासन देते हुए कहा कि निश्चित समयावधि में विवाद का निपटारा एवं किसान को भुगतान सुनिश्चित किया जाएगा।

किसान और किसानी को लाभ:

कृषि-सुधार से सम्बंधित इन तीनों विधेयकों को भारतीय कृषि-अर्थव्यवस्था के इतिहास में ‘1991-मोमेंट’ के रूप में देखा जा रहा है और इसे इस रूप में प्रस्तुत किया जाना ही इसमें अन्तर्निहित सम्भावनाओं और खतरों की ओर इशारा करता है कृषि-बाज़ार सुधार से सम्बंधित इन सुधारों का उद्देश्य आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को कृषि-क्षेत्र तक विस्तार देते हुए प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार का सृजन करना है ताकि किसानों को वैकल्पिक बाज़ार उपलब्ध करवाए जा सकें जिनमें उन्हें उनके उत्पादों की बेहतर कीमत मिल सके इसी के मद्देनज़र किसानों को न केवल मंडी से बाहर अपनी फसल बेचने की इजाजत दी गयी, वरन् कई कृषि-उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर करते हुए उनके उत्पादन, सप्लाई, खरीद एवं स्टॉकिंग और वितरण को नियंत्रण-मुक्त किया गया। अब यह बात अलग है कि इसका फायदा किसानों को बजाय बड़े कारोबारियों को कहीं अधिक मिलेगा जिनके पास संसाधन हैं और उन संसाधनों से बेहतर अवसंरचना का विकास करते हुए उसकी बदौलत कमाई के बेहतर अवसर भी उपलब्ध हैं।

लेकिन, इन सुधारों का फायदा किसानों को मिले या न मिले, पर कृषि को अवश्य मिलेगा क्योंकि यह कृषि-क्षेत्र को बाज़ार से जोड़ता हुआ उसके व्यवसायीकरण की प्रक्रिया को तेज करेगा। ध्यातव्य है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को वैधानिक स्वरुप देना वाला विधेयक अनुबन्धकर्ता कम्पनी या कारोबारी पर इस बात की जिम्मेवारी डालता है कि वह अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण-सुविधा और फ़सल-बीमा की सुविधा उपलब्ध कराए। इसी प्रकार न केवल अनुबन्ध कृषि के अंतर्गत होने वाली खरीद-बिक्री को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है, वरन् आलू, प्याज, अनाज, दलहन, तिलहन और खाद्य-तेल को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने की दिशा में पहल करते हुए उसके भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है। इससे कृषि-उत्पादों की खरीद-बिक्री के प्रति आग्रहशील कारोबारी एवं कॉर्पोरेट्स समुचित एवं पर्याप्त भण्डारण क्षमता के विकास की दिशा में पहल करेंगे ताकि स्टॉक की उपलब्धता भविष्य में कारोबार के साथ-साथ कृषि एवं खाद्य-प्रसंस्करण के मद्देनज़र समुचित एवं पर्याप्त मात्रा में बेहतर गुणवत्ता वाले कृषि-उत्पादों के स्टॉक की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके। दरअसल यह कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, खाद्य-प्रसंस्करण और निवेश की कमी के कारण कृषि-उत्पादों की बेहतर कीमत न मिल पाने की समस्या का समाधान है।

किसान एवं किसानी की समस्या को रेखांकित करते हुए भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी ने कृषक जीवन की विडंबना को रेखांकित करते हुए कहा, “हमारी अर्थव्यवस्था में किसान एकमात्र आदमी है जो अपने ज़रुरत के सारे सामानों को खुदरा कीमतों पर खरीदता है, अपने उत्पादों को थोक कीमतों पर बेचता है और इस तरह दोनों तरफ से माल-भाड़े का भुगतान करता है।” इस आलोक में देखें, तो यह कानून परिवहन लागत को कम करता हुआ, या उसके भार को खरीददार कारोबारियों पर डालता हुआ और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की स्थिति में एग्रीकल्चरल इनपुट की उपलब्धता सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी अनुबन्धकर्ता कारोबारियों पर डालता हुआ इस दबाव को कम करता है, यद्यपि इसकी कीमत बड़ी है

 

इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि उपरोक्त पहल से कृषि-क्षेत्र में निवेश की प्रक्रिया तेज होगी जो एक ओर कृषि-क्षेत्र में नवीनतम तकनीक एवं प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करते हुए इसके आधुनिकीकरण एवं तकनीकी उन्नयन को संभव बनायेगी, दूसरी ओर इससे कृषि-अवसंरचना के विस्तार एवं विकास की प्रक्रिया भी तेज होगी जो कृषि-उत्पादों की बर्बादी को कम करने में सहायक होगी और उनकी बेहतर गुणवत्ता को भी सुनिश्चित करेगी। ध्यातव्य है कि वर्तमान में खाद्यान्न फसलों के सन्दर्भ में बर्बादी (5-7)% के स्तर पर है और सब्ज़ी और फल जैसे कृषि-उत्पादों के सन्दर्भ में (25-30) तक के स्तर पर, जिसके कारण न केवल इन उत्पादों की उपलब्धता, वरन् इनकी गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। इसका प्रतिकूल असर माँग-आपूर्ति के संतुलन पर पड़ता है जो उत्पादन-लागत को बढ़ाता हुआ मुद्रास्फीतिक दबाव सृजित करता है।     

कॉर्पोरेट्स और सरकार को लाभ:

इन सुधारों का मकसद रिटेल कारोबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही बड़ी कम्पनियों को सीधे किसानों से डील करने एवं कृषि-उत्पाद खरीदने के विकल्प उपलब्ध करवाना है। इससे बड़े कॉर्पोरेट्स को फायदा यह होगा कि उनके लिए कम-से-कम कीमत पर कृषि-उत्पादों की उपलब्धता संभव हो सकेगी। इससे उनका प्रॉफिट-मार्जिन भी बढेगा और वे उपभोक्ताओं को अपेक्षाकृत कम कीमत पर अपने उत्पाद उपलब्ध करवा सकेंगे जिससे उन्हें असंगठित क्षेत्र के खुदरा व्यापारियों की तुलना में प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त मिलेगी जो उनकी कारोबारी-सम्भावनाओं को विस्तार देगा। उधर, उपभोक्ताओं के लिए भी कम कीमत पर अपेक्षाकृत बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों की उपलब्धता सम्भव हो सकेगी। लेकिन, ऐसा तभी तक होगा जबतक बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा है। दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाने वाले असंगठित क्षेत्र के खुदरा व्यापारी बाज़ार से बाहर हो जाएँगे और फिर, बड़ी कम्पनियाँ बाज़ार पर अपना एकाधिकार कायम करती हुई उपभोक्ताओं का भी शोषण शुरू करेंगी, जैसा कि अब टेलिकॉम सेक्टर में देखने को मिलना शुरू हो चुका है।

जहाँ तक सरकार की बात है, तो सरकार का यह कदम बाज़ार को औपचारिक स्वरुप प्रदान करेगा और इसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे औपचारिक अर्थव्यवस्था का विस्तार होगा। औपचारिक अर्थव्यवस्था का यह विस्तार टैक्स-बेस और टैक्स-नेटवर्क को फैलाने का काम करेगा और यह सरकार के कर-राजस्व की संभावनाओं को बल प्रदान करेगा। ऐसी स्थिति में सरकार टैक्स-रिफॉर्म की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगी जिसका लाभ एक बार फिर से कॉर्पोरेट सेक्टर और बड़े कॉर्पोरेट्स को मिलेगा।

 

कृषि-सुधारों के विपक्ष में

विरोध का आधार:

कृषि-सुधारों की दिशा में इस पहल ने व्यापक स्तर पर विरोध-प्रदर्शनों के सिलसिले को जन्म दिया है और विरोध के केंद्र के रूप में मुख्य रूप से हरित-क्रांति से प्रभावित क्षेत्र: पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश उभरकर सामने आये हैं, यद्यपि ये विरोध-प्रदर्शन यहीं तक सीमित नहीं हैं वरन् धीरे-धीरे पूरे देश में फैलते जा रहे हैं। राष्ट्रीय किसान महासंघ ने कहा कि ये अध्यादेश वास्तव में किसान-विरोधी हैं, इसीलिए इन्हें वापस लिया जाए। किसानों का कहना है कि:

इससे बनने वाली नई व्यवस्था में किसान पूरी तरह लाचार होकर रह जाएँगे। किसानों की नज़रों में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने वाला प्रावधान भी चिन्तित करने वाला है क्योंकि इस कानून के बनने की स्थिति में किसान अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं।”

इस विरोध ने राजनीतिक असर भी दिखाना शुरू किया। अबतक विरोध विरोधी दलों तक सीमित था, लेकिन राज्यसभा तक पहुँचते-पहुँचते अकाली दल, अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल भी इस बिल के विरोध में मुखर होने लगे। बाद में, तो जनता दल (यूनाइटेड) ने भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की शर्त जोड़े जाने की माँग की।

अगर कृषि-सुधारों से सम्बंधित उपरोक्त अधिनियमों पर गौर किया जाए, तो इसका विरोध निम्न कारणों से किया जा रहा है:

1.  किसानों की आशंका: किसान-संगठनों इस बात को लेकर आशंकित हैं कि नए क़ानून के लागू होते ही कृषि-क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा जिससे किसानों को नुक़सान होगा क्योंकि कॉर्पोरेट्स संगठित हैं, जबकि किसान असंगठित और बिखरे हुए। यह आशंका इसलिए भी प्रबल है कि सरकार अक्सर कॉर्पोरेट्स के पक्ष में खड़ी दिखाई पड़ती है। उन्हें इस बात की भी आशंका है कि सरकार धीरे-धीरे रेगुलेटेड मण्डियों और एमएसपी से किनारा कर लेगी।  

2.  बिचौलियों का डर: उन्हें डर है कि एफ़सीआई अब राज्य की मंडियों से ख़रीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को क़रीब 2.5% के कमीशन का घाटा होगा।

3.  राज्यों को राजस्व-घाटा: राज्य भी एजेंसी की ख़रीद पर लगाया जाने वाला छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जिससे बाज़ार-अवसंरचना का विकास बाधित होगा। ध्यातव्य है कि इस राशि का इस्तेमाल राज्यों के द्वारा बाज़ार-अवसंरचना के विकास के लिए किया जाता है।

4.  बेरोजगारी का ख़तरा: यह मुख्य तौर पर करीब तीस हज़ार शहरी कमीशन एजेंटों, क़रीब तीन लाख मण्डी-मज़दूरों और क़रीब 30 लाख भूमिहीन खेत-मज़दूरों के लिए भी बड़ा झटका साबित होगा।

5.  जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी को वैधता एवं प्रोत्साहन: आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन जमाख़ोरी एवं कालाबाज़ारी को बढ़ावा दे सकता है और आने वाले समय में इस पर अंकुश लगा पाना मुश्किल हो जाएगा।

योगेन्द्र के. अलघ का नज़रिया:

भारतीय कृषि-बाजार और सरकार द्वारा चलायी जा रही न्यूनतम मूल्य समर्थन नीति की सीमाओं की दिशा में संकेत करते हुए कृषि मामलों के विशेषज्ञ योगेन्द्र के. अलघ ने कहा कि “संसद से पारित इन विधेयकों का दीर्घकालिक लक्ष्य तो अच्छा है, लेकिन लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता फिलहाल स्पष्ट नहीं है।” किसानों की मूल समस्या की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं कि भारत में मंडी से इतर कृषि-उपज की खरीद-फरोख्त के कई बाजार हैं, लेकिन किसानों के पास खाद्य-प्रसंस्करण, प्रथम चरण के बुनियादी ढाँचे और इससे संबंधित सुविधाएँ नहीं हैं। उनका कहना है कि कोविड-19 संकट ने यह साबित कर दिया कि व्यापारिक कारोबार और परिवहन ढाँचे को एक दूसरे से अलगा कर नहीं देखा जा सकता है। उनका मानना है कि इसके मद्देनजर छोटे, मध्यम और बड़े गाँवों को आर्थिक अवसंरचना (सड़क, बाजार, बिजली आदि) के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर शहरों से जोड़ने की रणनीति बनाई जानी चाहिए। इसी आलोक में उन्होंने  कहा, “जब तक छोटे एवं सीमान्त किसानों और भूमिहीन मजदूरों की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं होता, तब तक नीतियाँ बनाने और योजनायें चलाने का विशेष फायदा नहीं मिलने जा रहा है।” इसी आलोक में उन्होंने इन सभी चुनौतियों पर गंभीर बहस की जरूरत पर बल दिया। आशंकाओं को जन्म देता सरकार का रवैया:

यहाँ सवाल सिर्फ इन कृषि-सुधारों की दिशा में की जाने वाली इस पहल के औचित्य का ही नहीं है, वरन् सवाल लोकतान्त्रिक मूल्यों और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का भी है। सवाल यह भी है कि सरकार ने इस पहल, जिससे भारत की विशाल आबादी और उसकी रोजी-रोटी प्रभावित होने वाली है, से पहले सम्बद्ध हित-समूहों: चाहे वे किसान हों या आढ़तिए या फिर राज्य सरकारें, से बात करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी और क्यों नहीं समय रहते इन सुधारों को लेकर उठने वाली उनकी आशंकाओं का निवारण ही किया?

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का कृषि-बाज़ार एक दुविधाजनक मोड़ पर खड़ा है जहाँ राष्ट्रीय समेकित कृषि-बाज़ार के निर्माण के मद्देनज़र इन अवरोधों को दूर किये जाने की आवश्यकता भी है और इसके लिए अपेक्षित कृषि-सुधार कृषि पर बाज़ार एवं कॉर्पोरेट्स के शिकंजे को मज़बूत करते हुए किसानों की सुभेद्यता(Vulnerability) को बढ़ाने में सहायक भी साबित हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में बिना समुचित एवं पर्याप्त संरक्षण मैकेनिज्म को विकसित किए इस दिशा में की गयी कोई भी पहल काउन्टर-प्रोडक्टिव साबित हो सकती है। इस आलोक में सरकार की विश्वसनीयता, अबतक का उसका रवैया और अबतक के अनुभव बहुत आशा नहीं जगाते हैं, और यह स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है।

केंद्र सरकार ने जिस तरीके से इस विधेयक का बचाव किया है और इसके विरोध में राजग-गठबन्धन के सहयोगी दल अकाली दल (बादल)से सम्बद्ध अपनी ही सरकार की कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफ़े को स्वीकार किया, वह इस बात का संकेत देता है कि उसने इस विधेयक को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है और इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है कि वह इस मामले में पीछे नहीं हटेगी। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार उन लोगों के साथ संवाद कायम करे और उनकी आशंकाओं का निवारण करे जो आज इन सुधारों के विरोध में खड़े हैं। साथ ही, बेहतर होता कि सरकार कृषि-सुधार की वैकल्पिक संभावनाओं की पड़ताल करते हुए विद्यमान व्यवस्था को ही दुरुस्त करने का प्रयास करती। इसके उलट, स्वयं प्रधानमंत्री ने इसकी तरफदारी करते हुए कहा कि जो किसानों से कमाई का बड़ा हिस्सा खुद ले लेते हैं, उनसे किसानों को बचाने के लिए इन विधेयकों को लाना बहुत जरूरी था। इससे स्पष्ट है कि सरकार ने टकराव का रास्ता चुना है और अब इस पार या उस पार के मूड में है।  

कृषि-व्यापार के उदारीकरण: काँग्रेस का रुख:

यह सच है कि काँग्रेस के घोषणा-पत्र में कृषि-उत्पादों के व्यापार के उदारीकरण के मद्देनज़र वर्तमान ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए एपीएमसी एक्ट और आवश्यक वस्तु अधिनियम,1955 में संशोधन की बात की गयी है, ताकि कृषि-उत्पादों के अंतरा-राज्यीय एवं अंतर्राज्यीय व्यापार के साथ-साथ इसके निर्यात पर आरोपित प्रतिबंधों को समाप्त करते हुए इसको सुगम बनाया जा सके और कृषि-उत्पादों की निर्बाध आवा-जाही संभव हो सके। लेकिन, काँग्रेस का घोषणा-पत्र यहीं पर नहीं समाप्त होता है, अब यह बात अलग है और अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि अगर काँग्रेस सत्ता में होती, तो उनमें से कितनी बातों पर अमल कर पाती।

काँग्रेस के घोषणा-पत्र में इसके अलावा निम्न तथ्यों का भी उल्लेख है जिनकी अनदेखी कर इस सन्दर्भ में काँग्रेस के मुकम्मल नज़रिए को नहीं समझा जा सकता है:

1.  कृषि-व्यापार के उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए विशेष रूप से कृषि-उत्पादों के आयात और निर्यात के लिए पूरी तरह से समर्पित नीति बनाने की बात भी की गयी है।

2.  बुनियादी ढाँचे से सम्पन्न किसान-बाजार का विकास: इसमें गाँवों एवं कस्बों में पर्याप्त बुनियादी ढाँचे से सम्पन्न ऐसे किसान-बाजार के विकास की भी बात की गयी है जहाँ पर वे अपनी उपज सुगमता से बेच सकें। इसके अतिरिक्त, इसमें काँग्रेस ने प्रत्येक ब्लॉक में आधुनिक गोदामकोल्ड-स्टोर तथा खाद्य-प्रसंस्करण सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिए नीतियों के निर्माण की बात की।

3.  कृषि-लागत और मूल्य आयोग की जगह कृषि-विकास और योजना आयोग की स्थापना और इसकी सिफ़ारिशों को बाध्यकारी बनाना: इतना ही नहीं, किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत मिले, इसे सुनिश्चित करने के लिए कृषि-लागत और मूल्य आयोग को भंग करते हुए उसकी जगह कृषि-विकास और योजना आयोग की स्थापना का वादा किया है। इस आयोग में किसानों को भी शामिल करने की बात है और न्यूनतम समर्थन मूल्य के सन्दर्भ में इसकी सिफ़ारिशों को बाध्यकारी बनाया गया है।

4.  किसान उत्पादक-कम्पनियों और किसान-संगठनों के निर्माण को प्रोत्साहन देने की रणनीति: इसमें बाज़ार के सापेक्ष किसानों कई मोल-भाव की क्षमता को विकसित करने के लिए किसान उत्पादक-कम्पनियों और किसान-संगठनों के निर्माण को प्रोत्साहन देने की रणनीति को भी अमल में लाने की बात की गयी है।

निश्चय ही, उपरोक्त पहलुओं की अनदेखी करते हुए घोषणा-पत्र के एक-दो बिन्दुओं को अपनी सुविधा के हिसाब से उद्धृत करना और उसके आधार पर विश्लेषण उचित नहीं है। लेकिन, यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारतीय राजनीति में घोषणा-पत्र की वास्तविक भूमिका चुनाव तक सीमित होती है, और वह भी औपचारिक रूप से। इसे न तो मतदाता बहुत अहमियत देती है और न ही राजनीतिक दल, और विशेष रूप से सरकार बनाने के बाद तो राजनीतिक दलों को इसकी सुध भी नहीं रहती है। इस क्रम में इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि यही काँग्रेस सरकार में रहते हुए लगभग सात वर्षों तक एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसानों के राष्ट्रीय आयोग की सिफारिशों पर कुण्डली मारे बैठी रही। यह कह पाना मुश्किल है कि स्वयं सरकार में रहने पर काँग्रेस इनमें से कितनी बातों को ध्यान में रख पाती। 

जहाँ तक इस बिल का सन्दर्भ है, तो राज्यसभा में नेता-प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने फार्म बिल के मसले पर काँग्रेस के रुख को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि जब तक उसकी तीन माँगें नहीं मानी जाती हैं, तबतक आन्दोलन और सदन की कार्यवाही का बहिष्कार जारी रहेगा:

1.  एमएसपी को आधार कीमत के रूप में अपनाना: विधायी पहलों के ज़रिये यह सुनिश्चित किया  जाए कि रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर कृषि-उपजों की खरीद-बिक्री के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) आधार कीमत (Base Price) का काम करे, अर्थात् कोई भी लेन-देन एमएसपी के नीचे न हो। 

2.  एमएसपी-निर्धारण के लिए स्वामीनाथन फार्मूले को अपनाना: न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) का निर्धारण स्वामीनाथन फार्मूला के तहत् हो अर्थात् C-2 लागत और उसके 50 प्रतिशत के योग के बराबर हो। ध्यातव्य है कि सोलहवीं लोकसभा-चुनाव के समय जारी घोषणा-पत्र में भाजपा ने इसको शामिल किया था और मई,2014 में इसी वादे के साथ भाजपा सत्ता में आयी।  

3.    सरकारों की जिम्मेवारी: भारत सरकार, राज्य सरकार या फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया यह सुनिश्चित करें कि कारोबारियों एवं कॉर्पोरेट्स के द्वारा किसानों से निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) के आधार पर ही खरीद की जाए।

यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अगर उपरोक्त सुधारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से सम्बद्ध करते हुए यह सुनिश्चित किया जाता है कि कृषि-मण्डियों से बाहर होने वाली लेन-देन कम-से-कम न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करे, तो कुछ हद तक किसानों की आशंकाओं का निवारण किया जा सकता है; यद्यपि इतने भर से इन सुधारों को लेकर की जाने वाली आपत्तियों खारिज नहीं हो जाती। अनुबंध कृषि को लेकर आपत्तियाँ अपनी जगह पर बनी रहेंगी। 

किसानों की अनदेखी करता कानून:

इन कानूनों के साथ समस्या यह भी है कि इनमें उस विज़न का अभाव है जो कॉर्पोरेट्स और किसानों के फर्क को महसूस कर सके और इसी कारण इन दोनों को तटस्थ भाव से समकक्ष के रूप में देखा गया है   यह अधिनियम इस बात की भी अनदेखी करता है कि जहाँ किसान बिखरे हुए हैं, वे संसाधनों की किल्लत का सामना कर रहे हैं और उनमें जागरूकता का अभाव है, वहीं बड़े कारोबारी एवं कॉर्पोरेट्स संगठित हैं और साधन-सम्पन्न भी इसलिए इस कानून को बनाते वक़्त दोनों की मोल-भाव की क्षमता की अनदेखी की गयी है और इस बात की अनदेखी भी कि भारतीय किसान इतने सजग, जागरूक और सक्षम नहीं हैं कि वे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से सम्बंधित कानून के सुरक्षोपायों का लाभ उठा सकें और विवाद की स्थिति में उपचार हासिल करते हुए अपने हितों को संरक्षित कर सकें, संगठित एवं प्रभावशाली होने के कारण बड़े कारोबारी और कॉर्पोरेट्स उन अधिकारियों के निर्णयों को कहीं अधिक प्रभावित करने की स्थिति में हैं। प्रश्न यह उठता कि भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और छोटे एवं सीमान्त किसानों से ताकतवर बड़े कारोबारियों एवं कॉर्पोरेट्स के दबाव का सामना करने और उनके साथ अपनी शर्तों पर अनुबंध करने की अपेक्षा कहाँ तक उचित है? इतना ही नहीं, यह बिल स्वयं करार के दोनों पक्षों के बीच विभेद करता है। विवाद की स्थिति में अपील करने के लिए किसानों को 30 दिन की मोहलत दी गयी है, जबकि निजी खरीददारों को 60 दिन।

यहाँ उन किसानों की बात नहीं की जा रही है जो बड़े किसान हैं, जो धनी एवं समृद्ध हैं और इतने जागरूक एवं सक्षम भी कि वे अपने हितों को संरक्षित कर सकें। यहाँ खेतिहर मजदूरों के साथ-साथ उन 86 प्रतिशत किसानों की बात हो रही है जो छोटे एवं सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं, जिनके लिए कृषि उनकी जीविका का आधार है और जो दिन-रात इसी जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं कि कैसे अपने भोजन एवं अन्य बुनियादी ज़रूरतों का प्रबंध किया जाए। इनके पास न तो इतनी जागरूकता है, न ये इतने सक्षम हैं और न ही इनके पास इतना समय और इतनी ऊर्जा है कि ये अपने हितों के संरक्षण के लिए अनुमंडल मुख्यालय से लेकर जिला मुख्यालय का चक्कर लगा सकें; और इसकी कोई गारंटी नहीं है कि ऐसा करने की स्थिति में इन्हें न्याय मिल ही जाए और इनके हितों को संरक्षित ही किया जाए। इसलिए यह कहा जा रहा है कि ये कानून किसानों के हितों के बजाय पूरी तरह से कॉरपोरेट हितों से सम्बद्ध हैं। इन बिलों में सारे प्रावधान कृषि का व्यापार करने वालों बड़े कॉरपोरेट के हितों की रक्षा के लिए है।

किसानों के मजदूर में तब्दील होने की आशंका:

यह सच है कि अनुबंध कृषि से सम्बंधित उपबंधों के कारण पाँच एकड़ से कम ज़मीन वाले किसानों को अनुबन्धकर्ता से फ़ायदा मिलेगा, लेकिन ये प्रावधान किसानों पर बाज़ार के शिकंजे को मज़बूत करेंगे और इसके कारण धीरे-धीरे किसान अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर में तब्दील होता चला जाएगा। धनी, समृद्ध एवं साधन-सम्पन्न बड़े किसान के पास तो इस शिकंजे से बच निकलने का विकल्प होगा, पर छोटे एवं सीमान्त किसानों के लिए बाज़ार एवं कॉर्पोरेट्स के शिकंजे से बच पाना आसान नहीं होगा।

यह अधिनियम किसानों को बहुत कुछ मुग़ल काल की दादनी प्रथा के अंतर्गत काम करने वाले कारीगरों में तब्दील कर देगा जिनका जमकर शोषण ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा किया गया और अन्ततः इस प्रथा ने पारंपरिक भारतीय शिल्पकारों की दुर्दशा की पटकथा लिखी। ध्यातव्य है कि मुगलकाल में ‘दादनी-प्रथा अग्रिम भुगतान की ऐसी व्यवस्था थी जिसके अन्तर्गत शिल्पियों को इस अग्रिम भुगतान के एवज में एक निश्चित अवधि तक एक निश्चित मात्रा में एक निश्चित दर पर व्यापारियों को माल तैयार कर देना होता था।

मण्डी-व्यवस्था से बाहर बाज़ार की मौजूदगी:

उपरोक्त सुधारों का औचित्य साबित करने के लिए सरकार भले ही मण्डी-व्यवस्था का हवाला दे रही हो, लेकिन सच यह है कि:

1.  भारतीय कृषि बाज़ार बन्द नहीं: वर्तमान में ऋणग्रस्तता और महाजनों के चँगुल में फँसे होने के कारण के कारण स्थानीय स्तर पर सेठ, साहूकार, महाजन, सूदखोरों और ऐसे ही अन्य लोगों के साथ किसानों का अलिखित समझौता मण्डी से बाहर कृषि-उत्पादों के कारोबार का आधार तैयार करता है और किसान इस दुष्चक्र में कुछ इस तरह उलझे होते हैं कि उनका उससे बाहर निकल पाना संभव नहीं रह जाता है। स्पष्ट है कि मण्डी-व्यवस्था निजी मुनाफ़ाख़ोरों, उनके साथ किसानों के गठबंधन और कृषि-मण्डी से बाहर होने वाले लेन-देन पर अंकुश लगा पाने में असमर्थ रही, इसीलिए यह कहना उचित नहीं है कि भारतीय कृषि बाज़ार वर्तमान में बन्द है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि भारत में पहली बार किसानों से सीधी खरीद की अनुमति नहीं दी जा रही है।

2.  कृषि-उत्पादों का अधिकांश कारोबार मंडी के बाहर: वर्तमान में भी कृषि-उत्पादों का अधिकांश कारोबार मंडी के बाहर होता है। इसकी पुष्टि शान्ता कुमार पैनल की रिपोर्ट से होती है जिसमें कहा गया है कि भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य-व्यवस्था की पहुँच केवल 6 प्रतिशत किसानों तक है। इसका मतलब यह है कि आज भी 94 प्रतिशत किसान आपनी उपज को खुले बाज़ार में बेचते हैं, या यह कह लें कि बेचने के लिए विवश होते हैं।

3.  रेगुलेटेड कृषि-मंडियों के बाहर ख़रीद-बिक्री: यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अभी भी किसान रेगुलेटेड कृषि-मंडियों के बाहर ख़रीद-बिक्री कर रहे हैं, पर वर्तमान में कृषकों को कृषि-मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य मनोवैज्ञानिक सम्बल मिला हुआ है और इसने कमोबेश खुले बाज़ारों पर भी दबाव निर्मित कर रखा है जिसके कारण उनके हित सुरक्षित हैं और उनके भीतर सुरक्षा अहसास है।

रेगुलेटेड मण्डियाँ-एमएसपी: अप्रासंगिक होने का खतरा

आज ‘एक देश, एक बाज़ार’ की बात करते हुए इन कृषि-सुधारों के औचित्य को साबित करने का प्रयास किया जा रहा है और फार्म-बिल को लेकर उपजे विवाद के बीच सरकार लगातार यह आश्वस्त कर रही है कि न तो मण्डी व्यवस्था को बन्द किया जा रहा है और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को समाप्त किया जा रहा है, फिर भी कृषि-मण्डियों की व्यवस्था को लेकर किसानों की अपनी आशंकाएँ भी हैं। कृषि-मामलों के विशेषज्ञ देवेन्दर शर्मा कहते हैं कि इसका सबसे बड़ा नुक़सान आने वाले समय में ये होगा कि धीरे-धीरे मण्डियाँ ख़त्म होने लगेंगी। ये आशंकाएँ निम्न कारणों से निराधार नहीं हैं:

1.  ‘वन नेशन, टू मार्केट’ का विरोधाभास: भले ही ‘वन नेशन, वन मार्केट’ की बात की जा रही हो और इसके जरिये ऐसे प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार के विकास को सुनिश्चित करने का दावा किया जा रहा हो, पर व्यवहार में यह ‘वन नेशन, टू मार्केट’ सृजित करेगा:

a.  एक, रेगुलेटेड कृषि-मण्डियाँ और

b.  दूसरे, अन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार।

2.  अन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार को स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक बढ़त: इस दोहरी बाज़ार-व्यवस्था में खुले निजी कृषि-बाज़ार की व्यवस्था को स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल होगी क्योंकि इसके अंतर्गत होने वाली लेन-देन:

a. मण्डी-शुल्क से भी मुक्त होगी, और

b. न्यूनतम समर्थन मूल्य की बाध्यताओं से भी मुक्त।

ऐसी स्थिति में सरकारी कृषि-मण्डियों में होने वाली लेन-देन की लागत अपेक्षाकृत अधिक होगी और इसीलिए कारोबारी निजी बाज़ारों की ओर रुख करेंगे। हो सकता है कि आरंभिक दौर में निजी बाज़ारों में होने-वाली यह लेन-देन सरकारी मण्डियों की तुलना किसानों के लिए लाभदायक हो, पर यह धीरे-धीरे सरकारी मण्डियों को अप्रासंगिक बनती हुई निजी क्षेत्र के एकाधिकार की स्थिति उत्पन्न करेगी और फिर किसान बैकफुट पर होंगे, संगठित निजी कारोबारियों एवं कम्पनियों के समक्ष विवश और उनकी शर्तों को स्वीकारते हुए।

3.  मॉडल एपीएमसी एक्ट के अबतक के अनुभव: इसकी पुष्टि मॉडल एपीएमसी एक्ट के अबतक के अनुभवों से होती है। ध्यातव्य है कि मॉडल एपीएमसी एक्ट ने कृषि-मण्डियों में सुधार की रूपरेखा तैयार करते हुए प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार को विकसित करना चाहा। लेकिन, इसने सरकारी कृषि-मण्डियों के समानान्तर निजी क्षेत्र की कृषि-मण्डियों की जो रूपरेखा तैयार की, वह कामयाब होती नहीं दिखी। कारण यह कि राज्यों ने भी निजी क्षेत्रों से मंडी-शुल्क की अपेक्षा की और उन्हें ऑपरेशनल कॉस्ट के साथ-साथ अपने निवेश पर रिटर्न की भी व्यवस्था करनी थी जो सरकारी मण्डियों की तुलना में निजी मण्डियों में होने-वाली लेन-देन को मँहगा और इसीलिए अप्रतिस्पर्धात्मक बना देती है। अन्य कारणों के अलावा यह महत्वपूर्ण कारण है जिसने एपीएमसी सुधारों को प्रभावी नहीं होने दिया। उपरोक्त प्रयासों की विफलता की पृष्ठभूमि में यह बिल कुछ वैसी ही अप्रतिस्पर्धात्मक स्थिति सरकारी मण्डियों के लिए सृजित करेगा।

4.  खाद्य-सुरक्षा के प्रावधानों को डायल्यूट किये जाने की आशंका: यह आशंका इसलिए भी जन्म लेती है कि आर्थिक-समीक्षा,2019-20 में राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम के कवरेज को 70 प्रतिशत कवरेज से घटाकर 20 प्रतिशत के स्तर पर लाने का सुझाव दिया गया है और इसके पीछे संसाधनों के अभाव और फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया को कारण बतलाया जा रहा है। ध्यातव्य है कि शान्ता कुमार पैनल ने भी क्लोज इंडेड एमएसपी व्यवस्था का सुझाव दिया था और खाद्य-सुरक्षा के दायरे को दो-तिहाई आबादी से देश की 40 प्रतिशत आबादी के स्तर पर लाए जाने की अनुशंसा की गयी।     

5.  टेलिकॉम क्षेत्र में जियो के अनुभव: इस आशंका की पुष्टि टेलिकॉम क्षेत्र में जियो के अनुभवों से भी होती है जिसने शुरू में सस्ती मोबाइल फ़ोन सेवा उपलब्ध करवाते हुए अनुचित प्रतिस्पर्धा की स्थिति उत्पन्न की जिसमें उसके एक-एक करके सारे प्रतिद्वंद्वी मैदान छोड़ने के लिए विवश हुई और जब टेलिकॉम मार्केट उसके अलावा एयरटेल एवं वोडाफोन तक सिमट कर रह गया, तो फिर बाज़ार पर वर्चस्व कायम करते हुए अपने प्रतिस्पर्धियों के साथ अंडरस्टैंडिंग के तहत् काम करना शुरू किया और फिर टेलीकॉम सेवाओं के मँहगे होने की प्रक्रिया शुरू हुई। आने वाले समय में यही स्थिति हवाई यात्रा और रेल-यात्रा के क्षेत्र में भी देखने को मिलेंगी। और, अगर यही स्थिति कृषि मण्डियों के सन्दर्भ में भी देखने को मिले, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

6.  एमएसपी के अप्रासंगिक होने का खतरा: रही बात न्यूनतम समर्थन मूल्य की, तो उसे तो सरकार ने खुद अप्रासंगिक बना दिया है और जो थोड़ी-बहुत प्रासंगिकता है, वह आनेवाले समय में समाप्त होने की आशंका प्रबल हो गयी है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की रिपोर्ट भी इस ओर इशारा करती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर धान एवं गेहूँ की होने वाली लगभग 95 प्रतिशत खरीद गेहूँ एवं धान-उत्पादक पाँच सबसे बड़े राज्यों से होती है। मतलब यह कि अन्य राज्यों के किसान अपनी उपज खुले बाज़ार में बेचने के लिए विवश हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, सन् (2000-16) के दौरान उचित कीमत नहीं मिलने के कारण भारत के किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। आर्थिक-सर्वेक्षण,2016 के अनुसार, देश में किसान-परिवार की सालाना औसत आय 20,000 रुपये है। ऐसी स्थिति में किसानों को खुले बाज़ार के भरोसे छोड़ना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा।  

7.  बिहार के अनुभव: इसकी पुष्टि बिहार के भी अनुभवों से होती है जहाँ इन्हीं तर्कों का सहारा लेकर सन् 2006 में कृषि-मण्डियों को भंग कर दिया गया। सवाल यह उठता है कि पिछले तेरह साल से बिहार में तो मण्डी-व्यवस्था काम नहीं कर रही है, तब भी बिहार के किसानों को उनकी फसलों की वाजिब कीमत क्यों नहीं मिल पा रही है? अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि कृषि-मण्डियों को भंग किये जाने के बाद बिहार में किसानों को उनकी उपज का जो औसत मूल्य मिला है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है। यही कारण है कि सन् 2020 के सीजन में खरीददार औए कीमत न मिलने के कारण बिहार के किसानों को अपना मक्का (900-1000) रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ा, जबकि मक्के का न्यूनतम एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल था।

8.  अन्य राज्यों के अनुभव, जहाँ रेगुलेटेड कृषि-मण्डियाँ और एमएसपी व्यवस्था प्रभावी तरीके से काम नहीं कर रहे: और, यह बात केवल बिहार के सन्दर्भ में ही लागू नहीं होती है, वरन् उन सारे राज्यों एवं क्षेत्रों के सन्दर्भ में लागू होती है जहाँ कृषि मण्डी-व्यवस्था के प्रभावी तरीके से काम न करने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था अप्रभावी है।

यह बतलाता है कि अगर गैर-सरकारी कृषि बाज़ारों का नियमन नहीं किया गया, तो आने वाले समय में इसकी बड़ी कीमत किसानों को उसी तरह चुकानी होगी, जिस तरह आज बिहार के किसान चुका रहे हैं और एमएसपी पाने के दर-दर भटक रहे हैं। हालात यहाँ तक पहुँच चुके हैं कि बिहार के जो किसान सक्षम हैं, वे अपनी उपज लेकर पंजाब और हरियाणा की मण्डियों तक पहुँच रहे हैं। यह बतलाता है कि सरकार किसानों के हितों को दाँव पर लगा रही है, या तो जान-बूझकर या फिर अनजाने ही।

यही कारण है कि तमाम कमियों के बावजूद किसान एपीएमसी मण्डियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अनिवार्य मानते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित सार्वजनिक खरीद व्यवस्था तभी तक प्रभावी तरीके से काम कर पायेगी जब कृषि-उत्पादों के बाज़ार को रेगुलेट करते हुए उसकी प्रभावशीलता को सुनिश्चित किया जाए।

किसानों की समस्या यह है कि उनकी उत्पादन-लागत बढ़ती जा रही है, पर बाज़ार उन्हें उनकी उपज का लाभकारी मूल्य उपलब्ध नहीं करवा पा रहा है। जहाँ खुदरा कीमतें उच्च स्तर पर बनी हुई हैं, वहीं थोक मूल्य सूचकांक यह बतलाता है कि अधिकांश कृषि-उत्पादों की कीमतों में गिरावट का रुझान मिलता है। यह गिरावट उन फसलों और उन क्षेत्रों में कहीं अधिक तीव्र है जहाँ न्यूनतम समर्थन मूल्य और इस पर आधारित सार्वजनिक खरीद व्यवस्था प्रभावी तरीके से काम नहीं कर रही है।

आज आवश्यकता कृषि-मण्डियों की व्यवस्था को दरकिनार करने की नहीं है, वरन् उन्हें चुस्त-दुरुस्त और प्रभावी बनाने की है। वर्तमान में 434.48 वर्ग किलोमीटर पर एक बाज़ार-समिति है, जबकि स्वामीनाथन आयोग के अनुसार, 5 किलोमीटर की परिधि में, अर्थात् प्रति 80 वर्ग किलोमीटर एक रेगुलेटेड मार्केट अनिवार्यतः होना चाहिए। इस हिसाब से पूरे देश में करीब 42,000 मंडियों की ज़रुरत है, वर्तमान में पूरे देश में करीब 7,000 से अधिक रेगुलेटेड मंडियाँ हैं। इसके अलावा, करीब 20,000 ग्रामीण बाज़ार हैं। इनमें भी जो मण्डियाँ वर्तमान में विद्यमान हैं, उनमें बाज़ार-अवसंरचना के अपग्रेडेशन के लिए अविलम्ब निवेश की ज़रुरत है। जेएनयू में असिस्टेंट प्रोफेसर हिमांशु का आरोप है कि सरकार कृषि-मण्डियों और बिचौलियों को बदनाम कर इन मण्डियों में बाज़ार-अवसंरचना के विकास से सम्बंधित अपनी जिम्मेवारियों से बचना चाहती है।

 

खाद्य-सुरक्षा के प्रतिकूलतः प्रभावित होने की आशंका:

यह कहा जा रहा है कि उपरोक्त सुधार अर्थात् निजी क्षेत्र को किसानों से सीधी खरीद की अनुमति देना और खाद्यान्नों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर करना भविष्य में खाद्य-सुरक्षा को प्रतिकूलतः प्रभावित कर सकता है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जब सन् 2005 में एपीएमसी एक्ट में संशोधन के ज़रिये रिटेल कारोबार में संगठित क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों को किसानों से शुल्क-मुक्त सीधी खरीद की अनुमति दी, तब निजी कारोबारियों और बड़ी कम्पनियों ने किसानों से गेहूँ की ज़बरदस्त खरीद की। उधर, सरकार ने बफर स्टॉक और पीडीएस सम्बंधी अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए की जाने वाली खरीद में कोताही बरती। इसके परिणामस्वरुप सरकार को पीडीएस के तहत् राशन देने की दिक्कत हो गई और ऊधर निजी क्षेत्र द्वारा खरीदे गए खाद्यान्नों की स्टॉकिंग के कारण बाज़ार में खाद्यान्नों की आपूर्ति अवरुद्ध हुई जिसने तीव्र खाद्यान्न मुद्रास्फीति की स्थिति को जन्म दिया। इस पृष्ठभूमि में इस चुनौती से निबटने और अपनी पीडीएस ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जब सरकार ने निजी क्षेत्रों के स्टॉक का आईडिया लेना चाहा, तो उन्होंने जानकारी देने से इनकार कर दिया। और फिर भारत सरकार को किसानों को दी जाने वाली कीमत से लगभग दोगुनी कीमत पर 5 मिलियन टन गेहूँ का आयात करना पड़ा। जो कि हरित क्रांति के बाद का सबसे बड़ा आयात था। इस अनुभव से सबक लेते हुए सरकार ने अगले वर्ष ज़बरदस्त खरीद की जिसके कारण निजी क्षेत्र एवं खुले बाज़ारों में खाद्यान्नों की उपलब्धता प्रभावित हुई और इसने एक बार फिर से खाद्यान्न मुद्रास्फीति की स्थिति को जन्म दिया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि उस समय राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम(NFSA) भी लागू नहीं हुआ था। इस प्रकार की समस्या तो भविष्य में भी उठ सकती है। ऐसी स्थिति में क्या भारत इस स्थिति में है कि वह आयात करके अपनी दो-तिहाई आबादी के लिए खाद्य-सुरक्षा को सुनिश्चित कर सके।

 

 

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वर्तमान में 434.48 वर्ग किलोमीटर पर एक बाज़ार-समिति है, जबकि किसानों के लिए राष्ट्रीय आयोग के अनुसार, प्रति 80 वर्ग किलोमीटर पर एक बाज़ार-समिति हो

स्रोत-सामग्री: स्रोत,GETTY IMAGES

1.  कृषि-सुधार का ऐतिहासिक क्षण: अमिताभ कान्त, सितम्बर 22 2020

2.  असली चिंता छोटे किसानों की: वाई के अलघ, सितम्बर 22, 2020

3.  कृषि-बिल: पीआरएस

4.  Market failure: On Agriculture Sector Reforms: Editorial, The Hindu, September 19, 2020

5.  It’s a no green signal from the farm world: Himanshu, Associate Professor, Centre for Economic Studies and Planning, JNU

6.  Hardly The 1991 Moment For Agriculture: Himanshu, Associate Professor, Centre for Economic Studies and Planning, JNU, May 25, 2020