संघवाद और फार्म बिल
प्रमुख
आयाम
1. अध्यादेश
के ज़रिये विधायन
2. राज्यसभा
में विवाद
3. लोकतंत्र की मूल भावनाओं और लोकतान्त्रिक
प्रक्रिया की अनदेखी
4. भारतीय
संविधान में शक्तियों का वितरण
5. संघवाद
के अतिक्रमण का आरोप
6. केंद्र
सरकार का बचाव
7. विश्लेषण
हालिया कृषि-सुधारों और इसके लिए इससे
सम्बंधित विधायी पहलों, जिसके जरिये कई कृषि-उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची
से बाहर करते हुए उनके भण्डारण पर लगी रोक को समाप्त किया गया और कृषि-मण्डियों से
बाहर कृषि-उत्पादों की शुल्क-मुक्त खरीद एवं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की अनुमति दी
गयी। उसके बाद से ऐसा माहौल सृजित किया गया जैसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में
किसान एवं किसानी की सारी समस्याओं का तत्काल हल मिल गया। इसे कृषि-अर्थव्यवस्था
के इतिहास में ‘1947 मोमेंट’ और ‘1991 मोमेंट’ के रूप में देखा गया और इस प्रश्न
को भुला दिया गया कि इस मसले पर केंद्र सरकार के द्वारा विधायन ने राज्यों की
अधिकारिता और बिल की संवैधानिकता को लेकर विवाद की स्थिति उत्पन्न की है। इस क्रम
में इसने लोकतंत्र की मूल भावनाओं और लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी की
समस्या को भी जन्म दिया है।
अध्यादेश के ज़रिये विधायन:
कृषि-सुधार का मसला पिछले दो दशक से राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में
रहा है और इस दिशा में समय-समय पर पहल भी होते रहे। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते
हुए जून, 2020 में केंद्र सरकार ने
तीन अध्यादेशों के ज़रिये विधायन की दिशा में पहल करते हुए कृषि-बाज़ार व्यवस्था की
मूलभूत संरचना में बदलाव की दिशा में पहल की, उन सुधारों की दिशा में, जो अत्यन्त
विवादस्पद थे और जो लम्बे समय से लंबित थे। यह पहल ऐसे समय में की गयी जब पूरा देश
कोरोना-संकट का सामना करने में उलझा हुआ था, संसद सत्र में नहीं था और इस कारण संसद
के भीतर एवं बाहर इस मसले पर स्वस्थ बहस भी सम्भव नहीं था। अब प्रश्न यह उठता है
कि अध्यादेशों के ज़रिए विधायन, सम्बद्ध हित-समूहों की अनदेखी करते हुए विधायन और संसदीय
बहस एवं मत-विभाजन से बचते हुए इससे सम्बंधित विधेयक को पारित करवाने में जल्दबाजी
की रणनीति को कहाँ तक उचित माना जा सकता है? क्या यह उचित नहीं होता कि इस संकट से
बाहर निकलने की प्रतीक्षा की जाती और सभी सम्बद्ध पक्षों के साथ विचार-विमर्श की
प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाता।
राज्यसभा में विवाद:
20 सितम्बर तक आते-आते राजनीतिक समीकरण बदलते दिखाई पड़े जिसके कारण राज्यसभा
में सत्तारूढ़ गठबंधन मुश्किल में फँसता दिखाई पड़ा। न केवल उसके एक महत्वपूर्ण
सहयोगी अकाली दल(बादल) ने इस बिल के विरोध करने का निर्णय लिया और उसके मंत्री हरसिमरत
कौर ने केन्द्रीय कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया, वरन् सामान्यतः सरकार के साथ रहने
वाले अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल ने राज्यसभा में इस मसले पर विरोध करने का
निर्णय लिया। अगर अन्नाद्रमुक के एस. आर. बालासुब्रमण्यम ने ‘कृषि में विनिवेश’ की
संज्ञा दी, तो बीजद के अमर पटनायक ने क्रियान्वयन से सम्बंधित समस्याओं की अनदेखी
के लिए सरकार की आलोचना की और बिल को सेलेक्ट समिति के पास भेजने की कोशिश की।
बिल पर बहस के क्रम में बहस के लिए निर्धारित दोपहर 1 बजे तक का समय
बीतने के पश्चात् विपक्ष उस दिन की कार्यवाही को आगे बढ़ने पर सहमत नहीं हुआ और
उसने बहस के जवाब के लिए सम्बद्ध कृषि-मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को अगले दिन का
समय दिए जाने की माँग की। विपक्ष चाहता था कि उसे अगली रणनीति तैयार करने और अपना
संशोधन-प्रस्ताव पेश करने के लिए अधिक समय मिले। लेकिन, उप-सभापति हरिवंश निर्धारित
अवधि का विस्तार करते हुए मंत्री को जवाब देने का अवसर देना चाह रहे थे, जबकि सामान्यतः
यह संसदीय परिपाटी रही है कि सदन के सत्र का विस्तार सत्ता-पक्ष एवं विपक्ष
आम-सहमति से लेते हैं, न कि संख्या-बल के आधार पर। अभी इस मसले पर बहस चल ही रही
थी कि उप-सभापति ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद के. के. रागेश के
संशोधन-प्रस्ताव को ख़ारिज करने वाले संकल्प आगे बढ़ाने की घोषणा की और मत-विभाजन की
उनकी माँग को खारिज कर दिया। इस सन्दर्भ में संसद की नियामावली कहती है कि अगर एक
भी सदस्य मत-विभाजन की माँग करते हैं, तो मत-विभाजन करवाना सभापति की जिम्मेवारी
बनती है। सदन में इस अफरा-तफरी, जब विपक्षी सदस्यों ने हर मर्यादा को लाँघने का
काम किया, के बीच ही उप-सभापति ने बिना मत-विभाजन कराए कृषि-सुधार से सम्बंधित
दोनों बिलों को पारित किये जाने की घोषणा की, वो भी उस समय में जब सदन में इस बिल
को बहुमत के समर्थन को लेकर सन्देह था। उप-सभापति द्वारा किये गए इस पक्षपात के
विरोध में 12 प्रमुख विपक्षी दलों ने संसदीय प्रक्रिया की अनदेखी का आरोप लगते हुए
उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भेजा है।
लोकतंत्र की मूल भावनाओं और
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की अनदेखी:
यह कहा जा रहा है कि कृषि-सुधार के मसले पर बिल के निर्माण से लेकर विधायन
की प्रक्रिया तक लोकतंत्र की मूल भावनाओं और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की अनदेखी की
गयी। फार्म-बिल को अंतिम रूप देते हुए किसी भी स्टेकहोल्डर्स: चाहे वे किसान हों या
आढ़तिए या फिर राज्य सरकारें, केंद्र सरकार ने इनमें से किसी के साथ विचार-विमर्श
की आवश्यकता नहीं समझी, जबकि ये प्राथमिक रूप से इन सुधारों से प्रभावित होते हैं।
इतना ही नहीं, न तो राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श किया गया और न ही संसद में इस
मसले पर समुचित एवं पर्याप्त चर्चा हुई। सरकार की रूचि इस विषय पर चर्चा से कहीं
अधिक इस बिल को पारित करवाने में रही और इस क्रम में सरकार कहीं-न-कहीं चर्चा से
बचती दिखी।
यह ताज्जुब की बात है कि जिन बिलों से देश की आधी आबादी का वर्तमान और
वर्तमान से भी कहीं अधिक भविष्य प्रभावित होने जा रहा है, उस पर चर्चा के लिए
सरकार महज 4 घंटे का समय आवंटित किया गया। इतना ही नहीं, सरकार ने इसे न तो विचार-विमर्श
हेतु संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की आवश्यकता महसूस की और न ही विपक्षी
सदस्यों के संशोधनों एवं मत-विभाजन की माँग की अनदेखी में हिचक महसूस की। अन्ततः भारी
हंगामे के बीच राज्यसभा के उप-सभापति के द्वारा इसे ध्वनि-मत से पारित घोषित किया गया
जिसने विवाद को जन्म दिया है।
भारतीय संविधान में
शक्तियों का वितरण:
संघ सूची के एन्ट्री 41
जहाँ विदेश व्यापार एवं वाणिज्य का उल्लेख करता है, वहीं एन्ट्री 42 अन्तर्राज्यीय
व्यापार एवं वाणिज्य का उल्लेख करता है। राज्य सूची के एन्ट्री 14 में कृषि का उल्लेख है, तो
एन्ट्री 28 में बाज़ार का उल्लेख। इसके अलावा, राज्य सूची के एन्ट्री 26 में अन्तरा-राज्यीय व्यापार एवं वाणिज्य का
उल्लेख है, लेकिन उसे समवर्ती सूची के एन्ट्री 33 के प्रावधानों के आलोक में
परिभाषित किए गया है। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य अन्तरा-राज्यीय व्यापार (Intra-State
Trade) के नियमन हेतु विधायन के लिए स्वतंत्र होगा, पर राज्य को इस बात को ध्यान
में रखना होगा कि ऐसा विधायन कृषि-उत्पादों एवं खाद्य-सामग्री(Food Stuffs) के
उत्पादन, आपूर्ति एवं वितरण और इससे सम्बंधित व्यापार-वाणिज्य को सुनिश्चित करने
के लिए केंद्र द्वारा बनाये गए कानून को अवरुद्ध न करे।
संघवाद के अतिक्रमण का आरोप:
अब समस्या यह है कि कृषि-सुधार के लिए प्रस्तावित इन तीनों
बिलों के ऑब्जेक्ट और रीज़न में इस बात का उल्लेख नहीं है कि भारतीय संविधान के किस
प्रावधान के तहत् यह बिल संसद में पास करवाया जायेगा। विवाद की शुरुआत यहीं से होती है। इस बिल का विरोध कर रहे विपक्ष और
विभिन्न राज्य सरकारों का कहना है कि:
1.
इस अधिनियम के कारण राज्य
सरकारों के करारोपण का अधिकार प्रभावित होता है।
आखिर क्यों नहीं राज्य सरकारें रेगुलेटेड मण्डियों में होने वाले लेन-देन
पर तो कर लगा सकती है, पर रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर होने वाले लेन-देन पर शुल्क
नहीं लगा सकती हैं? शुल्क न लगने का फायदा किसको होगा? अबतक इस मद में राज्यों को मण्डियों से भी शुल्क की प्राप्ति होती थी,
लेकिन समय के साथ उन्हें इस राशि से वंचित हो जाना पड़ेगा।
2. कृषि और बाज़ार क्रमशः राज्य-सूची के एन्ट्री 14
एवं एन्ट्री 28 में दर्ज किये गए हैं, इसीलिए इस मसले पर विधायन का अधिकार केवल
राज्यों को है।
3. जबतक राज्य सरकार की सहमति न हो और उन्हें
विश्वास में न लिया जाए, तबतक ऐसा करना संविधान और संघवाद की मूल भावनाओं की
अनदेखी है।
4. संवैधानिक उपबंधों के अधीन इस मसले पर विधायन
हेतु संसद को अधिकृत करने का अधिकार केवल राज्य-सभा को है।
उनका कहना है कि केंद्र सरकार का इस विषय पर विधायन की दिशा में पहल राज्य
की अधिकारिता में केन्द्र का हस्तक्षेप है और इसीलिए सहकारी संघवाद का अतिक्रमण भी,
जो उचित नहीं है।
केंद्र सरकार का बचाव:
केन्द्र सरकार ने राज्य की अधिकारिता
में हस्तक्षेप और संघीय भावनाओं की अनदेखी के इस आरोप को खारिज करते हुए इसकी
संवैधानिकता के पक्ष में यह तर्क दिया कि समवर्ती
सूची के एन्ट्री 33 में तिलहन एवं खाद्य-तेल सहित खाद्य-सामग्री(Food Stuffs),
कपास एवं जूट के उत्पादन, आपूर्ति एवं वितरण और इनमें व्यापार एवं वाणिज्य का
उल्लेख हुआ है। इसलिए खाद्य-मदों में
व्यापार एवं वाणिज्य के सन्दर्भ में विधायन का अधिकार राज्यों को भी है और केंद्र
को भी। ऐसी स्थिति में अगर वह चाहे, तो इन विषयों पर विधायन कर सकता है, और अगर
राज्य-विधि उसके द्वारा निर्मित विधि से टकराएगी, तो केंद्र के द्वारा निर्मित
विधि प्रभावी होगी। यह समवर्ती सूची के मदों में राज्यों की तुलना में केन्द्र को
वरीयता प्रदान करता है।
विश्लेषण:
अगर उपरोक्त तथ्यों के आलोक में इस बिल की संवैधानिकता के
प्रश्न पर विचार किया जाए, तो थोड़ी देर
के लिए अगर केन्द्र सरकार के इस तर्क को स्वीकार भी कर लें, तो भी केन्द्र सरकार
का यह रुख सरकारिया आयोग,1987 एवं पूँछी कमीशन,2010 की अनुशंसाओं और मूल भावनाओं
के प्रतिकूल है क्योंकि दोनों की अनुशंसा यह है कि सामान्य स्थिति में केन्द्र
समवर्ती सूची के विषयों पर कानून नहीं बनाएगा और अगर इस दिशा में पहल की जायेगी,
तो राज्यों को विश्वास में लिया जाएगा। दूसरी बात यह कि अगर समवर्ती सूची के
अंतर्गत उल्लिखित खाद्य-सामग्री(Food Stuffs) की
व्याख्या सामान्य कृषि-उत्पादों के परिप्रेक्ष्य में करते हुए इन्हें उसके
अन्तर्गत समाहित माना जाए, तो फिर राज्य-सूची में उल्लिखित शक्तियाँ अप्रासंगिक हो
जायेंगी। यही कारण है कि कृषि को मुख्य रूप से
राज्य की अधिकारिता में मानते हुए संविधान-विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफा का कहना
है कि चूँकि इस विषय पर विधायन की अधिकारिता केंद्र को
नहीं है, फिर भी केन्द्र के द्वारा विधायन किया गया है, इसलिए इसे कलरेबल लेजिस्लेशन
(Colourable legislation) का उदाहरण माना जाना चाहिए। उनकी दृष्टि में, यह ऐसा विधायन है जिसमें विधायी शक्ति का इस्तेमाल बदनीयती
से की गयी है क्योंकि इसका सातवीं अनुसूची के पिथ एंड सबस्टेंसेज से मेल नहीं
है। इसका मतलब यह हुआ कि जब अदालत इस बिल की वैधानिकता के
प्रश्न पर विचार करेगी, तो वह केवल इस बात को ध्यान में नहीं रखेगी कि इस मसले पर विधायन की शक्ति सातवीं अनुसूची के किस मद से आई है,
वरन् वह ऐसा करते वक़्त इस कानून के नाम, शब्दों या बाहरी रूप से परे हटकर उसके असली
प्रभाव और मूल सार को ध्यान में रखेगी। इस
सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जो काम सरकारें सीधे नहीं कर सकती हैं,
वो काम परोक्षतः भी नहीं किया जा सकता है।
इसलिए यह अधिनियम लोकतंत्र, संघवाद और संविधान की मूल भावना के लिए बुनियादी चिन्ता के विषय है
क्योंकि यह उसकी अनदेखी करता है। इसलिए पंजाब सरकार ने इस बात के संकेत दिए कि जैसे
ही कृषि-सुधार से सम्बंधित इन तीनों बिलों को राष्ट्रपति की अनुमति मिलती है और ये
क़ानून का रूप धारण करते हैं, वैसे ही पंजाब सरकार ने फार्म बिल को राज्य के
अधिकारों का अतिक्रमण माना और राज्य के अधिकारों के अतिक्रमण के आधार पर अदालत में
इसकी संवैधानिकता को चुनौती देने का संकेत दिया। उसका मानना है कि यह अलोकतांत्रिक
है और संघवाद की मूल भावना के प्रतिकूल भी।
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