Monday 7 September 2020

मध्य-पूर्व: संयुक्त अरब अमीरात-इजराइल समझौता,अगस्त-2020

 

 

संयुक्त अरब अमीरात-इजराइल समझौता,अगस्त-2020

प्रमुख आयाम

1.  मध्य-पूर्व का जटिल कूटनीतिक परिदृश्य

2.  समझौते की पृष्ठभूमि:

a. फिलस्तीन का मुद्दा: अरब-इजरायल विवाद

b. अमेरिका का रुख

c.  अरब राष्ट्रवाद में फूट

d. इजरायल द्वारा शिया-सुन्नी विभाजन का लाभ उठाना

e. मध्य-पूर्व में ईरान का बढ़ता प्रभाव

f.   ‘पैन-इस्लामिज्म’ का भय

g. सऊदी अरब का बदलता रुख

h.  अनौपचारिक पहल द्वारा निर्मित दबाव

3.  अब्राहम-अकॉर्ड:

a. इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद: अरब देशों का बदलता नज़रिया:

b. संयुक्त अरब अमीरात को लाभ

c.  इजराइल को फायदा

d. फिलिस्तीन-समस्या की बढ़ती जटिलता

e. ईरान की प्रतिक्रिया

f.   फ़िलिस्तीन की प्रतिक्रिया

g. अरब देशों की प्रतिक्रिया

4.  भारत के लिए संभावनाएँ

5.  इजरायल के विरुद्ध रूस का समर्थन मुश्किल 

6.  अबतक का अनुभव

7.  समझौते का ऐतिहासिक महत्व

8.  विश्लेषण

मध्य-पूर्व का जटिल कूटनीतिक परिदृश्य:

अगर मध्य-पूर्व के राजनीतिक-कूटनीतिक परिदृश्य पर गौर किया जाए, तो फिलिस्तीन-समस्या, अरब-इजराइल द्वंद्व और शिया-सुन्नी विभाजन के रूप में अरब राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों ने मध्य-पूर्व की स्थिति को कहीं अधिक जटिल बनाया है। लेकिन, हाल के वर्षों में इसमें बदलाव के लक्षणों को नोटिस में लिया जा सकता है। भू-आर्थिकी की बढ़ती अहमियत की पृष्ठभूमि में गौण पड़ती धार्मिक पहचान और इसकी पृष्ठभूमि में अरब राष्ट्रवाद के अंतर्विरोधों का गहराना, कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान-सऊदी अरब के मतभेदों का उभर कर सामने आना और इस्लामिक देशों के संगठन(OIC) में दरार, अमेरिकी प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में ईरान-चीन की बढ़ती हुई निकटता और एर्दोगन के नेतृत्व में तुर्की द्वारा अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षा के साथ-साथ इस्लामिक विश्व को नेतृत्व प्रदान करने की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने पूरे मध्य पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य के पुनर्परिभाषित होने का मार्ग प्रशस्त किया है।

समझौते की पृष्ठभूमि

फिलस्तीन का मुद्दा: अरब-इजरायल विवाद:

फिलस्तीन का मुद्दा पिछले कई दशकों से पश्चिम एशिया का सबसे संवेदनशील और जटिल मुद्दा बना हुआ है। फिलिस्तीन के दो हिस्से हैं: गाजा-पट्टी, जो हमास के नियंत्रण में है और वेस्ट बैंक, जिस पर फतह का नियंत्रण है और जो फिलिस्तीनी नेशनल अथॉरिटी के नाम से शासन आकर रही है। वेस्ट बैंक इजराइल के पूर्वी हिस्से जॉर्डन की सीमा से लगा हुआ लगभग साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका है जिसमें चौबीस लाख से ज्यादा फिलस्तीनी रहते हैं और करीब चार लाख इजराइली यहूदी। सन् 1948 में अरब-इजराइल संघर्ष के दौरान जॉर्डन ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था, लेकिन सन् 1967 में इजराइल ने हमलावर रुख अपनाते हुए एक बार फिर से  इस इलाके पर अपना नियंत्रण कायम किया। तब से लेकर अबतक निरंतर हिंसा एवं संघर्ष की स्थिति बनी हुई है।

दरअसल, वेस्ट बैंक में बसाई जा रही यहूदी बस्तियाँ न केवल इजराइल एवं फ़िलिस्तीनियों के बीच, वरन् इजराइल एवं अरब राष्ट्रों के बीच विवाद का कारण बनी रही। फ़िलिस्तीनी अपने क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक, पूर्वी यरूशलम और ग़ज़ा पट्टी को मिलाकर अपना एक देश बनाना चाहते हैं; लेकिन इजराइल ने 1970 के दशक में वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियों को बसाने की प्रक्रिया शुरू की और यह प्रक्रिया फ़िलिस्तीनी क्षेत्र का अतिक्रमण करते हुए अगले तीन दशकों तक तेजी से जारी रही। बीते दो दशकों में उनकी जनसंख्या दोगुनी होकर क़रीब 30 लाख के स्तर पर पहुँच चुकी है जिनमें 86 प्रतिशत फ़िलिस्तीनी और 14 फ़ीसदी इजराइली बस्तियों के लोग हैं।

पिछले सात दशकों से फिलस्तीन का मुद्दा अरब राष्ट्रवाद को उद्वेलित करता रहा है, पर अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के समर्थन और अपनी सैन्य-क्षमता एवं कूटनीतिक कौशल की बदौलत इजराइल धीरे-धीरे फिलस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जा करते चला गया और अपने अंतर्विरोधों के कारण अरब राष्ट्र उस पर अंकुश लगा पाने में असफल रहे। इस क्रम में अरब राष्ट्रों की संयुक्त शक्ति को इजराइल के हाथों तीन-तीन बार मुँहकी खानी पड़ी। इस प्रकार 19वीं सदी के मध्य से इजरायल द्वारा निहत्थे फिलिस्तीनी नागरिकों के खिलाफ बर्बर बल-प्रयोग एक ऐसा मुद्दा रहा है, जिसने न केवल दुनिया भर के मुसलमानों को सबसे ज्यादा आंदोलित किया है, वरन् यह दुनिया भर के मानवाधिकारवादियों के लिए भी चिन्ता का विषय बना रहा है; अब यह बात अलग है कि इस मसले पर आज दुनिया कहीं अधिक व्यावहारिक नज़रिया अपना रही है। आज दुनिया, जिसमें भारत भी शामिल है, फिलिस्तीनियों के मूल मसलों और उनकी जान-माल की चिंताओं की तुलना में अपने राष्ट्रीय हितों एवं चिंताओं के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील है और इस संवेदनशीलता के कारण उसने फिलिस्तीन के मसले को ठण्डे बस्ते में डाल दिया है।

अमेरिका का रुख:

अरब देश फिलस्तीन के इस हिस्से पर इजराइली कब्जे के खिलाफ रहे हैं, लेकिन अमेरिका शुरू से इजराइल के साथ खड़ा रहा। प्रकट रूप में अमेरिका कभी इस मसले पर इजराइल के साथ खड़ा नज़र आता रहा है और कभी उसके विरोध में बयान देता रहा है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर इजराइली कब्जे को गलत मानते थे, जबकि रोनाल्ड रेगन ने इसे सही ठहराया था। ओबामा इजराइली कब्जे के खिलाफ थे, तो ट्रंप इजराइल के साथ खड़े हैं। लेकिन, वास्तव में इस मसले पर इजराइल को हमेशा अमेरिकी साथ मिलता रहा है और इसका कारण है अमेरिका में यहूदियों की सशक्त लॉबी, जो इस मसले पर इजराइल के साथ खड़ी है और जो अमेरिकी समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से इतनी प्रभावशाली है कि कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति और कोई भी राजनितिक दल इसके नज़रिए की अनदेखी कर पाने, या इसे दरकिनार कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसलिए अमेरिकी दोमुँहेपन के कारण फिलिस्तीन समस्या के न्यायोचित समाधान और इसकी पृष्ठभूमि में पश्चिम एशिया में शांति की पुनर्बहाली में उससे सकारात्मक भूमिका की उम्मीद तो हमें छोड़ ही देनी चाहिए। इसीलिए अमेरिकी कोशिश इजराइल-विरोधी अरब राष्ट्रवाद में फूट डालते हुए उन अरब देशों को अलग-थलग करने की रही है जो इजराइल के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए हैं। इसमें सहायक है अरब राष्ट्रों में शिया-सुन्नी पर आधारित सांप्रदायिक विभाजन एवं उनके राष्ट्रीय हितों की टकराहट।

 

दरअसल अमेरिका इस पहल के ज़रिये वैश्विक कूटनीति में अपने प्रतिद्वंद्वी ईरान पर मनोवैज्ञानिक एवं कूटनीतिक बढ़त को सुनिश्चित करते हुए मध्य-पूर्व में अपने सामरिक हितों को साधना चाहता है। यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब आने वाले समय में अफ़गानिस्तान, इराक़ और सीरिया से अमेरिकी फौज की वापसी होनी है। अमेरिका अपने सैनिकों की वापसी के पहले उस ईरान पर प्रभावी अंकुश को सुनिश्चित करना चाहता है जिसे वह मध्य-पूर्व में आतंकवाद की धुरी के रूप में देखता है और जो मध्य-पूर्व के अमेरिका-विरोधी प्रतिरोध के केंद्र में है, अब वह प्रतिरोध चाहे सीरिया में असद के द्वारा किया जा रहा हो या यमन में हूथी विद्रोहियों के द्वारा, या फिर लेबनान में हिजबुल्लाह के द्वारा।

अरब राष्ट्रवाद में फूट:

इसी रणनीति के तहत् सन् 1978 में कैम्प डेविड पैक्ट के ज़रिये मिस्र को साधा गया और उसके साथ इजराइल ने राजनयिक सम्बन्ध की स्थापना की दिशा में पहल की। एक बार फिर से यही कोशिश अक्टूबर,1994 में जोर्डन-इजराइल समझौता के ज़रिये की गयी और अब यही कोशिश अगस्त,2020 में सम्पन्न इजराइल-यूनाइटेड अरब अमीरात शांति-समझौते के ज़रिए की जा रही है। अमेरिका की कोशिश उन अरब देशों के साथ इजराइल के राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करना है जो कहीं-न-कहीं ईरान के उभार से चिंतित हैं और इसे सुन्नी के प्रभुत्व वाली इस्लामिक व्यवस्था के लिए खतरा समझते हैं। स्पष्ट है कि अमेरिका इस समझौते के माध्यम से अपने सैटेलाइट स्टेट इजराइल की ताकत को बढ़ाते हुए ईरान की प्रभावी तरीके से घेरेबंदी को सुनिश्चित करना चाहता है।

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा, सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जैसे तमाम निकाय इजराइली कब्जे को अनुचित ठहराते रहे हैं और इसे जिनेवा-संधि का भी उल्लंघन माना गया है। इसके बावजूद, इजराइल इस इलाके से यहूदी बस्तियों को नहीं हटाने पर अड़ा रहा। इसलिए यह कहा जाता है कि पश्चिम एशिया में शांति के प्रयास आसानी से फलीभूत भी नहीं हो सकते, क्योंकि यहाँ की राजनीति के केंद्र में एक ओर अमेरिका एवं अमेरिका-समर्थित इजराइल है। एक तरफ मिनी अमेरिका यानी इजराइल है, दूसरी ओर इजराइल को नापसंद करने वाले अरब देशों का समूह है।

इजरायल द्वारा शिया-सुन्नी विभाजन का लाभ उठाना:

यह समझौता अस्तित्व में भले ही अभी आया हो, लेकिन इस्लामिक दुनिया में शिया-सुन्नी के पारंपरिक विभाजन, जिसने मध्य-पूर्व के संकट को गहराने का काम किया है, की पृष्ठभूमि में इसकी संभावनाएँ दशकों पहले बनने लगी थीं। सन् 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति ने इस परिदृश्य को कहीं अधिक जटिल बनाया है क्योंकि ईरान ने इस्लामिक जगत में सऊदी अरब की बादशाहत को लगातार चुनौती दी है और उसे इस कार्य में शिया-हितों के लिए लड़ने वाले देशों का समर्थन हासिल हुआ है। वर्तमान में शिया-सुन्नी टकराव ने पश्चिम एशिया में राजनीतिक अस्थिरता को गहराने का काम किया है। गृह-युद्ध से जूझ रहे यमन में सऊदी अरब के नेतृत्व में एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना हूथी विद्रोहियों, जिन्हें ईरान से समर्थन एवं सहयोग मिल रहा है, से मुकाब़ला कर रही है। सीरियाई गृह-युद्ध में असद-विरोधी शक्तियों को जहाँ पश्चिमी राष्ट्रों और अरब देशों का समर्थन प्राप्त है, वहीं रूस एवं चीन के साथ-साथ ईरान खुल कर राष्ट्रपति बशर अल-असद के साथ है। लेबनान में ईरान-समर्थित शिया-विद्रोही समूह हिजबुल्लाह इजराइल के साथ-साथ सऊदी अरब के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। इतना ही नहीं, यमन, सीरिया और लेबनान में ईरान का सामरिक मित्र रूस है और इस रूप में मध्यपूर्व के टकराव की प्रकृति क्षेत्रीय नहीं रह जाती है, यह वैश्विक में नियंत्रण स्थपित रखने के लिए महाशक्तियाँ के बीच के टकराव में तब्दील होती चली जाती है।

अमरीका में सैन डिएगो स्टेट यूनिवर्सिटी में पश्चिमी एशिया के विशेषज्ञ डॉक्टर अहमत कुरु कहते हैं कि हाल के वर्षों में इस्लामिक देशों के अंतर्विरोध कहीं अधिक मुखर हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप उनमें बिखराव को बल मिला है उन्होंने कहा, "इजराइल के लिए पश्चिमी एशिया में तीन मुस्लिम पावर-ब्लॉकों के बीच विभाजन का लाभ उठाने के लिए अब एक अच्छा समय है: पहला तुर्की एवं क़तर, दूसरा ईरान एवं इराक़ और तीसरा यूएई, सऊदी अरब और मिस्र विशेष रूप से मध्य पूर्व में न केवल राजनीति को, बल्कि धर्म को भी आकार देने के मामले में क़तर और यूएई के बीच एक मुक़ाबला-सा है" लेकिन, उनका यह भी कहना है कि इसराइल की अरब देशों से हाथ मिलाने की कोशिशें तभी कामयाब होगी, जब सऊदी अरब और मिस्र इस पर अपनी रज़ामंदी ज़ाहिर करें

मध्य-पूर्व में ईरान का बढ़ता प्रभाव:

खाड़ी के देश उस इलाक़े के नक़्शे को देखते रहते हैं और पाते हैं कि कारण यह कि सद्दाम हुसैन के अंत के साथ इराक़ के अपने हाथ से निकलने के बाद अमेरिकी सहित पश्चिमी देशों और संयुक्त राष्ट्र के द्वारा आरोपित प्रतिबंधों के बावजूद पूरे मध्य-पूर्व में ईरान की रणनीतिक मौजूदगी बढ़ी है। इराक़, सीरिया, लेबनान और यमन: सर्वत्र ईरान के समर्थक हथियारबंद गुटों की मौजूदगी को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, शिया-सुन्नी टकराव की पृष्ठभूमि में ईरानी परमाणु-कार्यक्रम ‘शिया बम’ की संभावनाओं को बल प्रदान करता हुआ इनके भय एवं आशंकाओं को और अधिक बढ़ाने का काम करते हैं। यही कारण है कि बहरीन हो, या संयुक्त अरब अमीरात, या फिर सऊदी अरब, ईरान का बढ़ता हुआ प्रभाव इनकी सामरिक चिंताओं के केंद्र में रहा है और अक्सर यह उन्हें भयभीत करता रहा है।

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में वेस्ट एशिया सेंटर के प्रोफ़ेसर आफ़ताब कमाल पाशा के मुताबिक, “ईरान की बढ़ती शक्ति इजराइल और अरब देशों के बीच बढ़ती नज़दीकियों के एक महत्वपूर्ण कारण तो हैं, पर एकमात्र कारण नहीं। अन्य कारणों में तेल के घटते दाम, खाड़ी के देशों में शासन के ख़िलाफ़ जन-विद्रोह की आशंका और अमरीकी समर्थन को खोने के डर महत्वपूर्ण हैं।” 

     

‘पैन-इस्लामिज्म’ का भय:

कई अरब देश की सरकारें ‘पैन-इस्लामिज्म’ की अवधारणा से भी भयभीत हैं क्योंकि इसके कारण उन्हें अपने अस्तित्व को खतरा महसूस होता है। उसे यह भी लगता है कि तुर्की की इस्लामी हुकूमत भी उसके हितों के साथ टकराती है। यही कारण है कि संयुक्त अरब अमीरात ने लीबिया तक में पैन-इस्लामिज्म की अवधारणा को बढ़ावा देने वाले मुस्लिम ब्रदरहुड के विरोधी गुटों को अपना समर्थन दिया है। शायद यही कारण है कि मध्य-पूर्व की रूढ़िवादी शासन-तंत्र ने अनौपचारिक गुटों के निर्माण के ज़रिये अपनी सामरिक स्थिति को मज़बूत करने की कोशिश की है और इस क्रम में अंडरस्टैंडिंग डेवेलप करते हुए इजराइल के साथ अनौपचारिक सहयोग एवं सामंजस्य को विकसित करने की कोशिश की है।

सऊदी अरब का बदलता रुख:

स्पष्ट है कि पश्चिमी एशिया में इजराइल और सऊदी अरब के रूप में दो परंपरागत शत्रुओं की मौजूदगी के कारण इस इलाके को दुनिया की शान्ति के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता है, लेकिन दोनों को ईरानी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि ईरानी चुनौती और अमेरिकी मध्यस्थता ने दोनों देशों को पारंपरिक शत्रुता भाव को भुलाते हुए एक प्लेटफ़ॉर्म पर इकट्ठा होने के लिए विवश किया है।

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इजराइल और सऊदी अरब के बीच की कड़वाहट पिघलती हुई प्रतीत होती है और इसके आलोक में निर्मित होते नए राजनीतिक-सामरिक समीकरण दोनों को ईरानी चुनौती से मुकाबले में कहीं अधिक सक्षम बनाते दिखाई पड़ते हैं। सन् 2018 में ईरान के गोपनीय परमाणु हथियार कार्यक्रम प्रोजेक्ट अमाद की हकीकत को दुनिया के सामने लाते हुए इजराइल ने अमेरिका सहित पश्चिमी देशों  के साथ सम्पन्न ईरानी न्यूक्लियर डील को निर्णायक झटका दिया जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ हुए परमाणु-समझौते से अमेरिका को अलग करने और ईरान पर अमेरिकी प्रतिबन्धों को आरोपित करने की घोषणा की थी। ईरान के प्रति इजराइल का शत्रुतापूर्ण रवैया संयुक्त अरब अमीरात(UAE) के लिए मुफीद रहा है, जो ईरान को अपने लिए एक बड़े प्रतिद्वंदी के तौर पर देखता रहा है। यही बातें सऊदी अरब के सन्दर्भ में भी कही जा सकती हैं।

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि हाल के वर्षों में, शेल तेल एवं गैस और तेल की गिरती कीमतों के कारण न केवल सऊदी अरब की आर्थिक मुश्किलें बढ़ायी हैं, वरन् इस्लामिक जगत में सऊदी अरब की बादशाहत को ईरान के साथ-साथ तुर्की की ओर से भी लगातार चुनौती मिल रही है और इस कार्य में इन्हें उसके पारंपरिक दोस्त पाकिस्तान का भी सहयोग मिलाता दिख रहा है।

अनौपचारिक पहल द्वारा निर्मित दबाव:

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का यह मानना रहा है कि फ़िलिस्तीनी समस्या के समाधान को परे रख कर भी अरब देशों के साथ शांति-समझौते किए जा सकते हैं इसके लिए उन्होंने अरबों के साथ संबंध सुधारने की दिशा में पहल करते हुए डिज़िटल आउटरीच की मुहिम के ज़रिये अरबों तक अनौपचारिक पहुँच सुनिश्चित करने की कोशिश की और इसके परिणामस्वरूप इजराइल को लेकर अरब के लोगों के रुख में पहले की तुलना में नरमी देखी जा सकती हैलेकिन, इजराइली राजनीति की विशेषज्ञ सोनी अवनि के अनुसार, “इजराइल में इस समय 13 ऐसी संस्थाएँ हैं, जिनमें इजराइली और फ़िलिस्तीनी एक साथ मिलकर अरब देशों से दूरियों को ख़त्म करने, इजराइल की सरकार से टक्कर लेने और इलाक़े में शांति स्थापित करने में व्यस्त हैं।”

 

 

अब्राहम-अकॉर्ड:

संयुक्त अरब अमीरात-इजराइल समझौता

अगस्त,2020 में संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच जो ऐतिहासिक समझौता: अब्राहम अकॉर्ड सम्पन्न हुआ, उसे पश्चिम एशिया में शांति की पुनर्बहाली की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इस समझौते ने लगभग पाँच दशकों के बाद फिर से संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच अवरुद्ध राजनयिक संबंध की पुनर्बहाली के मार्ग को प्रशस्त किया। लेकिन, इसके लिए इजराइल को अपनी हठधर्मिता छोड़नी पड़ी और वेस्ट बैंक में नयी बस्तियाँ बसाने से सम्बंधित अपनी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए राजी होना पड़ा, जिसे इस समझौते की बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में दोनों देश निवेश, पर्यटन, उड़ानों, सुरक्षा, दूरसंचार, टेक्नोलॉजी, ऊर्जा, हेल्थ, कल्चर, पर्यावरण और दूतावासों की स्थापना को लेकर द्विपक्षीय समझौतों की दिशा में पहल करेंगे, ताकि इस समझौते को व्यावहारिक धरातल पर उतारा जा सके।

इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद: अरब देशों का बदलता नज़रिया:

यह समझौता फ़िलिस्तीन-विवाद और इसके मूल में मौजूद इज़राइल के प्रति अरब देशों के बदलते नज़रिए का संकेत देता है, और इस बात का संकेत भी कि इजराइल के विरुद्ध अरब राष्ट्रों की एकता अब छिन्न-भिन्न होने के कगार पर पहुँच चुकी है। यह संभव नहीं है कि सुन्नी-प्रभुत्व वाली इस्लामिक दुनिया को नेतृत्व प्रदान करने वाले सऊदी अरब को विश्वास में लिए बिना यह समझौता सम्पन्न हुआ होगा, विशेषकर तब जब अमेरिका के साथ सऊदी अरब के बेहतर सम्बन्ध हैं और ईरानी उभार से उपजे भय एवं आशंका के कारण सऊदी अरब ने इजराइल-फिलिस्तीन के मसले पर चुप्पी साध रखी है।

संयुक्त अरब अमीरात को लाभ:

जहाँ तक इस समझौते के सन्दर्भ में स्वयं संयुक्त अरब अमीरात की सोच का प्रश्न है, तो उसके लिए यह समझौता सोच-समझकर उठाया गया जोखिम है जिसमें खोने की सम्भावना कम और पाने की कहीं अधिक है। तकनीकी रूप से इजराइल मध्य-पूर्व का सबसे विकसित देश है। ऐसी स्थिति में यह समझौता उसके लिए नवीनतम तकनीकों की उपलब्धता के मार्ग को प्रशस्त करेगा और बायोटेक, स्वास्थ्य-सेवा, रक्षा एवं साइबर-सर्वेलेंस के क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग उसकी आर्थिक समृद्धि को बल प्रदान करेगा। इजराइल के कृषि-मंत्री एलन शूस्टर ने कहा कि “इजराइल उन संभावित संयुक्त-परियोजनाओं पर काम कर रहा है जो 'तेल के मामले में समृद्ध' संयुक्त अरब अमीरात की खाद्य-सुरक्षा को बेहतर बनाए। रेगिस्तान में खेती करने और खारे पानी को पीने लायक बनाने की तकनीक इजराइल को बढ़त प्रदान करती है और आने वाले समय में इसका लाभ संयुक्त अरब अमीरात को मिलेगा।”

इतना ही नहीं, आने वाले समय में दोनों देश निवेश, रक्षा एवं सुरक्षा; चिकित्सा, स्वास्थ्य, संस्कृति, पर्यटन एवं उड्डयन; ऊर्जा, जल एवं पर्यावरण-संरक्षण; सूचना, तकनीक एवं संचार-प्रौद्योगिकी और पारस्परिक दूतावासों की स्थापना को लेकर द्विपक्षीय पहल करेंगे इससे बड़े तेल-भंडार और क़रीब 40 हज़ार डॉलर प्रति व्यक्ति आय वाले संयुक्त अरब अमीरात के लिए अपनी क्षेत्रीय एवं वैश्विक महत्वकांक्षाओं को पूरा करना संभव हो सकेगा। ध्यातव्य है कि हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात चंद्रमा पर अपना मिशन भेजने वाला पहला अरब देश बना।

शायद यही कारण है कि वहाँ के युवराज क्राउन प्रिंस शेख़ मोहम्मद बिन ज़ायेद इस समझौते को एक जुए के रूप में देख रहे हैं जिसमें उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन इस समझौते के कारण कहीं-न-कहीं उन्हें भी अरब देशों के बीच संयुक्त अरब अमीरात के शीर्ष नेतृत्व के अलोकप्रिय होने की आशंका है। दरअसल इस समझौते के ज़रिये संयुक्त अरब अमीरात यमन-युद्ध में भागीदारी के कारण अमेरिका में अपनी धूमिल छवि को सुधारने की कोशिश में है, ताकि अपने लिए तकनीक की उपलब्धता को सुनिश्चित कर सके और मध्य-पूर्व में ईरान के मुकाबले उसे रणनीतिक बढ़त हासिल हो सके। अमरीका में संयुक्त अरब अमीरात के राजदूत यूसेफ़ अल-ओतैबा ने कहा कि “इजराइल के साथ समझौता एक कूटनीतिक जीत है। इससे अरब और इजराइल के संबंध निश्चित रूप से आगे बढ़ पाएँगे जिससे तनाव कम होगा और परिवर्तन की नई सकारात्मक ऊर्जा बनेगी।” पर, इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यदि वेस्ट बैंक के इलाके में इजराइल का अतिक्रमण जारी रहेगा, तो अमीरात की मुश्किलें बढेंगी। लेकिन, अभी की परिस्थितियों में अमेरिका खुद ऐसा नहीं चाहेगा, विशेषकर तब जब जॉर्डन के साथ इजराइल का समझौता खतरे में पड़ चुका है। 

यद्यपि इजराइल के संयुक्त अरब अमीरात के साथ अनौपचारिक आदान प्रदान कुछ साल से जारी हैं, तथापि मध्य-पूर्व में ईरान की बढ़ती शक्ति से उपजे भय की पृष्ठभूमि में इस समझौते ने द्विपक्षीय संबंधों को औपचारिक स्वरुप प्रदान किया है। इस समझौते की अपेक्षाओं के अनुरूप संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने 'इजराइल-बहिष्कार क़ानून (संघीय कानून नम्बर 15),1972' को समाप्त करने का आदेश जारी किया। इस आदेश के बाद संयुक्त अरब अमीरात में अब हर प्रकार के इजराइली सामान और उत्पादों को लाने एवं बेचने की अनुमति होगी। चूँकि पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच अनौपचारिक व्यापारिक संबंधों में तेजी दिखाई पड़ती है, इसीलिए उपरोक्त पहल का व्यावहारिक की तुलना में ‘औपचारिक और प्रतीकात्मक महत्व’ कहीं अधिक है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि पिछले दो दशकों में कम-से-कम 500 इजराइली कम्पनियों ने संयुक्त अरब अमीरात में व्यापारिक सौदे किए हैं। ध्यातव्य है कि इसी कानून के तहत् इजराइल के साथ संयुक्त अरब अमीरात के वित्तीय एवं वाणिज्यिक संबंध प्रतिबंधित किया गया था। इतना ही नहीं, 31 अगस्त से इजराइल से संयुक्त अरब अमीरात के लिए पहली आधिकारिक उड़ान के साथ दोनों देशों के बीच औपचारिक रूप से उड्डयन संबंधों की भी पुनर्स्थापना हुई है जो शांति-समझौते के परिप्रेक्ष्य में आपसी संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में पहला औपचारिक क़दम है।

इजराइल को फायदा:

इस समझौते से अरब देशों के बीच एक राष्ट्र के रूप में इजराइल को न केवल मान्यता मिलेगी, वरन् उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी यह समझौता दूसरे अरब देशों को भी इजराइल से हाथ मिलाने के लिए उत्प्रेरित करेगा। इस समझौते के बाद इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि “वेस्ट बैंक के क्षेत्र: 'यहूदिया और समारिया में अमरीकी सहयोग से इजराइली संप्रभुता को लागू करने की उनकी योजना में कोई बदलाव नहीं आया है।” लेकिन, यह महज औपचारिकता के निर्वाह के लिए की जाने टिप्पणी है, या फिर भविष्य की संभावनाओं का संकेत, यह तो आने वाला समय ही बतलाएगा।  

इसके अतिरिक्त, ईरानी ख़तरे के मद्देनज़र इजराइल संयुक्त अरब अमीरात को आधुनिक हथियारों और सुरक्षा-उपकरणों के एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है। इस समझौते के कारण इजराइली उपभोक्ताओं के लिए संयुक्त अरब अमीरात के फ्री ज़ोन में बनने वाला सस्ता सामान भी उपलब्ध हो सकेगा। ध्यातव्य है कि फ्री ज़ोन वे इलाके हैं जहाँ विदेशी कंपनियाँ आसान नियमों के साथ काम कर सकती हैं और जहाँ विदेशी निवेशक किसी कम्पनी का मालिकाना हक़ पूरी तरह से अपने पास धारण कर सकती हैं। साथ ही, इससे इजराइली उड्डयन उद्योग और इसराइली अर्थव्यवस्था को बदलकर रख देगा क्योंकि दोनों देशों के बीच पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा और दोनों देशों में निवेश को भी गति मिलेगी ऐसा माना जा रहा है कि संयुक्त अरब अमीरात इजराइल के तकनीक क्षेत्र में भारी निवेश करना चाहता है, जिससे इजराइली अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। स्पष्ट है कि यह इजराइली पर्यटन-उद्योग, इजराइली उड्डयन-उद्योग और इनके जरिये इजराइली अर्थव्यवस्था के रूपांतरण में अहम् भूमिका निभायेगा। उम्मीद की जा रही है कि शुरूआती दौर में द्विपक्षीय व्यापार प्रति वर्ष 4 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो सकता है, लेकिन जल्द ही यह तीन-चार गुने के स्तर पर होगा।

इसके अलावा, वर्तमान में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू राजनीतिक संकट का सामना कर रहे हैं और रिश्वत, धोखाधड़ी और भरोसा तोड़ने के साथ-साथ कोरोना महामारी को ठीक से हैंडल नहीं कर पाने के आरोप की पृष्ठभूमि में इजराइल में इस वक़्त चौतरफा उनके इस्तीफ़े की माँग हो रही है। ऐसे में उनकी रणनीति अरब देशों के अंतर्विरोधों का फायदा उठाते हुए उनमें फूट डालते हुए फ़िलिस्तीनियों को अलग-थलग करने की है, ताकि अपने लिए सकारात्मक माहौल तैयार किया जा सके और अपनी राजनीतिक स्थिति मज़बूत की जा सके।

 

फिलिस्तीन-समस्या की बढ़ती जटिलता:

अबतक अरब देशों के बीच इस बात पर सहमति थी कि जब तक इजराइल स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में फिलिस्तीन को मान्यता नहीं देता है, तब तक उनके साथ किसी भी प्रकार का शांति-समझौता संभव नहीं है मिस्र और जॉर्डन के साथ इजराइल के शांति-समझौतों के बावजूद फ़िलिस्तीनी मसले और स्वतंत्र फ़िलिस्तीन के हिस्से के रूप में मुसलमानों के लिए पवित्र शहर पूर्वी यरूशलम को लेकर अरबों के बीच उपरोक्त शर्तों पर सहमति बनी रही, लेकिन अगस्त,2020 में सम्पन्न इस समझौते के साथ यह सहमति टूटती दिखाई देती है ऐसी स्थिति में यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि फ़िलिस्तीन-समस्या का समाधान और भी अधिक मुश्किल हो जाएगा। उधर सूडान भी इजराइल के साथ बातचीत कर रहा है, पर अभी इसमें समय लगने की सम्भावना है   

ईरान की प्रतिक्रिया:

ऐसा माना जा रहा है कि इस समझौते का मक़सद क्षेत्रीय शक्तिशाली देश ईरान के ख़िलाफ़ गठजोड़ को मज़बूत करना है। ट्रम्प-प्रशासन और इजराइल ने भी इस समझौते को ईरान को किनारे करने की कोशिश के तौर पर दिखाया है, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात ने इसे खारिज करते हुए कहा कि इजराइल के साथ उसके समझौते का मक़सद ईरान को जवाब देना नहीं है। संयुक्त अरब अमीरात के विदेश-मंत्री अनवर गरगाश ने इसे खारिज करते हुए कहा, “यह समझौता ईरान के बारे में नहीं है। यह संयुक्त अरब अमीरात, इजराइल और अमरीका के बारे में हैं। इसका मक़सद किसी भी तरह से ईरान के ख़िलाफ़ कोई समूह बनाना नहीं है।” उनके अनुसार, “ईरान के साथ हमारा रिश्ता बहुत जटिल है। हमारी कुछ चिंताएं ज़रूर हैं, लेकिन हमें लगता है कि इन मुद्दों को तनाव कम करके और कूटनीतिक तरीक़ों से ही सुलझाया जा सकता है।”

जहाँ तक ईरानी प्रतिक्रिया का प्रश्न है, तो ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी के अनुसार, इस समझौते का मक़सद नवंबर,2020 में प्रस्तावित अमरीकी चुनावों में वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उम्मीदवारी को मज़बूत करना है, इसीलिए इस समझौते की घोषणा वॉशिंगटन से की गई है। उनके अनुसार, संयुक्त अरब अमीरात ने इजराइल के साथ समझौता कर भारी ग़लती की है। उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात को चेतावनी देते हुए कहा है कि मध्य-पूर्व में इजराइल के पैर मज़बूत करने के गंभीर परिणाम होंगे।

फ़िलिस्तीन की प्रतिक्रिया:

इस समझौते ने फिलस्तीन को हतप्रभ कर दिया। फ़िलिस्तीनियों ने तो इसे 'पीठ में छुरा घोंपना' क़रार दिया है क्योंकि न तो फ़िलिस्तीनी क्षेत्र को इजराइली क़ब्ज़े से मुक्त करवा पाने में सफल हुए हैं और न ही स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राष्ट्र की संभावना ही दूर-दूर तक नज़र आ रही है उसे इस बात का अहसास है कि धीरे-धीरे वह हाशिए पर पहुँचता जा रहा है और दुनिया के विभिन्न देश उससे कन्नी काटते दिखाई पड़ रहे हैं। इसलिए इस समझौते के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फिलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अरब लीग की बैठक बुलाने का प्रस्ताव रखा है। उनके प्रवक्ता ने कहा कि यह सौदा 'राजद्रोह' से कम नहीं है और संयुक्त अरब अमीरात में मौजूद फ़लस्तीनी राजदूत को वापस बुलाया गया है। वह इस बात को लेकर आशंकित है कि इस समझौते के बाद खाड़ी क्षेत्र के दूसरे अरब देश भी संयुक्त अरब अमीरात का अनुकरण कर सकते हैं और इजराइल के साथ राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली की दिशा में पहल कर सकते हैं जो फिलस्तीन के अस्तित्व पर विद्यमान संकट को गहराने का काम करेंगे। मिस्र और जॉर्डन जैसे देश तो पहले ही फिलिस्तीन मसले को दरकिनार करते हुए इजराइल के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुके हैं।

अरब देशों की प्रतिक्रिया:

जहाँ तक सऊदी अरब के रुख का प्रश्न है, तो अरब देशों में सबसे शक्तिशाली सऊदी अरब के इजराइल के प्रति रुख में सन् 2002 से ही नरमी दिखाई पड़ती है, यद्यपि उसकी अपनी कुछ शर्तें हैं। उसने इजराइल-यूएई समझौते का विरोध करने से न केवल परहेज़ किया है, वरन् इजराइल के विमानों को सऊदी एयर स्पेस से गुज़रने की अनुमति देकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया। पर, इस दिशा में कोई भी पहल करने के पूर्व सऊदी अरब यह सुनिश्चित करना चाहता है कि इजराइल फ़िलिस्तीनियों को उनका अधिकार प्रदान करे और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में फ़िलिस्तीन के अस्तित्व को स्वीकार करे।

देर-सबेर, सऊदी अरब भी संयुक्त अरब अमीरात के रास्ते पर चलेंगे, पर उसके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि वह सुन्नी-प्रभुत्व वाली इस्लामी दुनिया को नेतृत्व कर रहा है। ऐसी स्थिति में  फिलिस्तीन के मसले पर अरब-इजराइल संघर्ष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में सऊदी अरब के लिए खुले तौर पर यहूदियों के प्रभुत्व वाले इजराइल के साथ आना मुश्किल होगा, लेकिन दोनों के बीच अनौपचारिक सम्पर्क की शुरुआत हो चुकी है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि बिना सऊदी सहमति के इजराइल एवं संयुक्त अरब अमीरात के बीच यह समझौता संभव नहीं हो पाता। इसलिए ऐसा भी कहा जा रहा है कि क्षेत्रीय शक्ति के रूप में ईरान के उभार और सऊदी-ईरानी प्रतिस्पर्द्धा के मद्देनज़र यह उतना भी मुश्किल नहीं है जितना प्रतीत हो रहा है।

जहाँ तक अन्य इस्लामिक देशों का प्रश्न है, तो यद्यपि तुर्की ने पहले से ही इजराइल से कूटनीतिक एवं व्यापारिक रिश्ते कायम कर रखे हैं, तथापि वहाँ के राष्ट्रपति रिसेप तैय्यप एर्दोगन, जो तुर्की की खिलाफ़त को पुनर्बहाल करते हुए अतीत के गौरव को पुनर्जीवित करना चाहते हैं और इस बहाने इस्लामिक दुनिया को एक बार फिर से तुर्की का अध्यात्मिक नेतृत्व प्रदान करना चाहते हैं, ने इस मुद्दे पर सबसे कठोर प्रतिक्रिया देते हुए संयुक्त अरब अमीरात के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ने के संकेत दिए। उन्होंने इस समझौते पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “इजराइल के साथ संयुक्त अरब अमीरात के इस समझौते से फ़लस्तीनी लोगों के अधिकारों को झटका लगा है। संयुक्त अरब अमीरात को इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा।” उनके अनुसार, “फ़िलिस्तीनी लोग और प्रशासन इस समझौते के ख़िलाफ़ एक सख़्त प्रतिक्रिया देने को लेकर सही थे। यह बेहद चिंताजनक है। संयुक्त अरब अमीरात को अरब लीग द्वारा विकसित ‘अरब शांति-योजना’ के साथ चलना चाहिए था।” उन्होंने इस बात के संकेत दिए कि तुर्की संयुक्त अरब अमीरात से अपने राजदूत को वापस बुला सकता है। लेकिन, संयुक्त अरब अमीरात के विदेश-मंत्री ने तुर्की के इस रुख़ को ख़ारिज करते हुए कहा, “तुर्की के इजराइल के साथ व्यापारिक रिश्ते हैं। सालाना पाँच लाख इजराइली पर्यटक तुर्की आते हैं। दोनों देशों के बीच दो अरब डॉलर का कारोबार है और तुर्की का इजराइल में अपना दूतावास भी है।” ऐसे में तुर्की के विरोध का नैतिक पक्ष कमजोर पड़ता है। संयुक्त अरब अमीरात का कहना है, “इस समझौते के माध्यम से कम-से-कम वार्ता के लिए स्पेस सृजित होगा।”

उधर, यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन हों, या मिस्र के राष्ट्रपति, दोनों ने इस डील का स्वागत किया है। जॉर्डन के विदेश-मंत्री अयमान सफ़ादी ने कहा है कि इस समझौते से रुके हुए शांति समझौतों को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। ओमान के साथ इजराइल के रिश्ते पहले से ही अच्छे हैं और अब बहरीन भी उसके प्रति अपने रुख को नरम करने के लिए तैयार है। इस समझौते को अपना समर्थन देते हुए ओमान ने यह आशा जताई कि यह क़दम इजराइल और फ़िलिस्तीन क्षेत्र के बीच दीर्घकालिक शांति स्थापित करने में मदद करेगा

भारत के लिए संभावनाएँ:

अब सवाल यह उठता है कि मध्य-पूर्व के राजनीतिक-कूटनीतिक समीकरणों को गहरे स्तर पर प्रभावित करने वाले इस समझौते के भारत के सन्दर्भ में क्या निहितार्थ हैं, विशेषकर तब जब भारत के आर्थिक-सामरिक हित इस क्षेत्र से विशेष रूप से सम्बद्ध हैं? इस सन्दर्भ में देखें, तो मध्य-पूर्व में क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर इजराइल और भारत की सोच मिलती-जुलती है, तथा संयुक्त अरब अमीरात इस क्षेत्र में उभरती हुई ताक़त है, इसलिए अगर इजराइल-संयुक्त अरब अमीरात एक दूसरे के करीब आना कहीं-न-कहीं भारत के हित में हैं। यह भारत के लिए तब और भी कहीं महत्वपूर्ण हो जाता है जब अफगानिस्तान के हालिया घटनाक्रमों के आलोक में पाकिस्तान को तालिबान एवं चीन के करीब जाते देखते हैं और ईरान को इस गुट के करीब आते देखा जा सकता है जिसके कारण इस क्षेत्र में भारत की रणनीतिक मुश्किलें बढ़ रही हैं। ऐसी स्थिति में एक समय में पाकिस्तान के करीब माना जाने वाले सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात का इजराइल के करीब आना और इसके साथ अशांत मध्य-पूर्व में शान्ति की संभावनाओं को बल मिलना निश्चित तौर पर उस भारत के लिए सुकून का पल उपलब्ध करवा रहा है जिसके आर्थिक-सामरिक हित और सुरक्षा-चिन्ताएँ इस क्षेत्र से सम्बद्ध हैं।

इन सबके बीच भारत के लिए अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के संबंधों का चतुष्कोण नई संभावनाओं वाला है, यद्यपि इसमें सजग रहने की भी जरूरत है क्योंकि ईरान मध्य-पूर्व में भारत के सामरिक हितों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। संयुक्त अरब अमीरात के मित्र एवं सहयोगी सऊदी अरब की नीतियों में भी इजराइल के प्रति नरम रवैया देखा गया, यहाँ तक कि उसने भारत और इजराइल के बीच की विमान सेवा शुरू करने के लिए अपने एयर स्पेस के इस्तेमाल की इजाजत भारत को देने में बिल्कुल संकोच नहीं दिखाया। इसी तरह सन् 2019 में संयुक्त अरब अमीरात ने भारत के प्रधानमंत्री को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित करते हुए इस्लामिक देशों के साथ भारत के सम्बन्धों को नई दिशा प्रदान की। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अबतक भारत के लिए इस्लामिक दुनिया के साथ अपने रिश्तों में संतुलन लाना आसान नहीं रहा, लेकिन अब यह स्थिति बदलती हुई दिखाई पड़ रही है। अब इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के संबंधों की मजबूती एशिया में अमेरिका की सामरिक उपस्थिति को कहीं अधिक प्रभावी बनाएगी और इनके प्रमुख सहयोगी के रूप में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण होने की संभावना है। भारत की बढ़ती हुई अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज सऊदी अरब भारत के साथ सामरिक हितों को साधने के लिए पाकिस्तान तक के साथ अपने संबंधों को दाँव पर लगाने के लिए तैयार है गौरतलब है कि सन् 1969 में पाकिस्तानी विरोध के मद्देनज़र इस्लामिक देशों के संगठन(OIC) के मोरक्को शिखर सम्मेलन में आमंत्रित होने के बावजूद भारत को शामिल होने की अनुमति नहीं दी गई थी।

लेकिन, इस क्रम में न तो इस बात को भुलाना चाहिए कि अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद नाभिकीय शक्ति से सम्पन्न होने के कारण पाकिस्तान की स्थिति इस्लामिक देशों में विशिष्ट है और भारत के लिए ईरान का भू-सामरिक महत्व उसे ईरान एवं उसके सामरिक हितों की अनदेखी की इज़ाज़त नहीं देता है।  

इजरायल के विरुद्ध रूस का समर्थन मुश्किल: 

मध्य-पूर्व के सन्दर्भ में इस समझौते के निहितार्थों पर चर्चा के क्रम में रूस की भूमिका को भी समझने की ज़रुरत है क्योंकि सामरिक दृष्टि से क्षेत्रीय समीकरण रूस को ईरान और चीन के साथ खड़ा कर देते हैं। लेकिन, ऐसा कहना स्थिति का सरलीकरण होगा क्योंकि इजराइल के विरुद्ध और ईरान के साथ खड़े होने में रूस की अपनी सीमायें हैं।  सोवियत संघ के विघटन के बाद तकरीबन दस लाख यहूदी वहाँ से जाकर इजराइल में बस गए थे। इस समय इजराइल में आबादी का तकरीबन बीस फीसद हिस्सा विघटित सोवियत संघ से आए रूसी मूल के लोगों का है जिनका प्रभाव इजराइल और रूस दोनों में है। इसलिए पुतिन इजराइल के खिलाफ किसी सैन्य-गठबंधन का समर्थन करें, यह मुश्किल होगा।

अबतक का अनुभव:

यह समझौता इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र में सियासी समीकरण नए सिरे से गढ़े जा रहे हैं। लेकिन, पश्चिम एशिया में शांति ला पाने में इस समझौते की भूमिका को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखे जाने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि सबसे ताज़ा उदाहरण जॉर्डन-इजराइल समझौता,1994 का है जिसे सन् 2019 में डम्प किये जाने का निर्णय जॉर्डन की सरकार के द्वारा लिया गया। इजराइल एवं मिस्र के बीच सम्पन्न कैम्प डेविड समझौते की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है। इसी तरह 1990 के दशक में इजराइल के द्वारा ओमान और क़तर के साथ राजनयिक संबंधों की स्थापना की दिशा में पहल की गयी थी और वहाँ इजराइल के व्यापारिक दफ़्तर भी खोले गए थे, लेकिन तत्कालीन इसराइली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक रॉबिन की हत्या और बेंजामिन नेतन्याहू के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद व्यापारिक संबंध ख़त्म हो गया। फिर, सन् 2002 में सऊदी अरब ने ही बेरूत अरब सम्मिट में क्राउन प्रिंस अब्दुल्लाह शान्ति-योजना की दिशा में पहल की जिसके तहत् सन् 1967 से पहले वाली स्थिति में लौटने की शर्त पर एक राष्ट्र के रूप में इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता, लेकिन हमास के रवैये ने इसे बेपटरी कर दिया। उसी समय से सऊदी अरब द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के तहत् इजराइल-फलस्तीन विवाद के समाधान का समर्थन करता रहा है। हाल ही में अमेरिकी पत्रिका 'अटलांटिक' के साथ दिए गए साक्षात्कार में सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने कहा कि “फ़िलिस्तीनियों और इजराइलियों को अपनी-अपनी मातृभूमि का अधिकार है।” सऊदी अरब के इस रुख ने भी इजराइल के साथ उसकी दूरी कम कर दी है लेकिन, ये तमाम समझौते अबतक पश्चिम एशिया में शांति की पुनर्बहाली सुनिश्चित कर पाने में असमर्थ रहे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह समझौते की अहमियत नहीं है। दरअसल में, इस समझौते से बहुत अपेक्षा किये बगैर इसके परिणामों की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। ये परिणाम इस बात पर भी निर्भर करते हैं कि अमेरिका और इजराइल इसके क्रियान्वयन को लेकर कितने गंभीर हैं, क्योंकि बिना अमेरिकी दबाव के इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू इतनी आसानी से वेस्ट बैंक में गतिविधियों को बंद करने की बात मान सकते थे, इसमें सन्देह है। पिछले कई दशकों के अनुभव इसके प्रमाण हैं।

समझौते का ऐतिहासिक महत्व:

इस समझौते की अहमियत इस बात में है कि अबतक अरब देशों में मिस्र और जॉर्डन के साथ इजराइल के राजनयिक संबंध तो रहे हैं, पर खाड़ी के अरब देशों के साथ इजराइल के राजनयिक संबंध नहीं रहा है। यह 1948 ई. में इजराइल की आजादी के बाद तीसरा इजरायल-अरब शांति समझौता है। इससे पूर्व, इजराइल के साथ मिस्र ने सन् 1979 में कैम्प डेविड समझौते पर और जॉर्डन ने अक्तूबर,1994 में समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन, खाड़ी के छह अरब देशों में से संयुक्त अरब अमीरात(UAE) पहला देश है, जिसने इसराइल के साथ समझौता किया है। इस प्रकार अगस्त 2020 में संयुक्त अरब अमीरात के साथ सम्पन्न इस समझौते के साथ खाड़ी देशों के साथ इजराइल के राजनयिक संबंधों के नए युग का सूत्रपात हुआ है। हालाँकि, इस इलाके में ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव का विस्तार दोनों के लिए चिन्ता का विषय रहा है और इस कारण दोनों देशों के बीच अनौपचारिक संपर्क पहले से ही बने रहे हैं, पर औपचारिक सम्पर्क की स्थापना अब कहीं जाकर संभव हो पाई है। इस समझौते के बाद अमेरिका और इजराइल, दोनों को ही इस बात की उम्मीद है कि ज्यादा-से-ज्यादा अरब देश संयुक्त अरब अमीरात की राह पर चलेंगे और यह इस्लामिक देशों के बीच इजराइल की स्वीकार्यता को सुनिश्चित करेगा। ऐसा माना जा रहा है कि ओमान, बहरीन और शायद मोरक्को भी जल्द ही इजराइल से समझौता कर लेंगे। साझा बयान के अनुसार, दोनों देश मध्य पूर्व के लिए रणनीतिक एजेंडा शुरू करने में भी अमेरिका के साथ जुड़ेंगे।

विश्लेषण:

यद्यपि इस समझौते में सम्बद्ध पक्षों के तात्कालिक हित सधते दिख रहे हैं, तथापि यह समझौता फ़िलिस्तीनियों के सवाल को हल करने की व्यापक शांति-योजना से दूर है जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने लंबे समय तक बढ़ावा दिया है। जिस तरीके से अमेरिका ने  व्हाइट हाउस से इस समझौते की घोषणा की है, वह इस समझौते की अहमियत को कम कर रहा है और इसीलिए इस समझौते को अमेरिका और विशेष रूप से वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की कूटनीतिक जीत के रूप में देखा जा रहा है, जिसका प्रमुख उद्देश्य उन्हें मध्य-पूर्व में शांति-दूत के रूप में पेश करते हुए आगामी राष्ट्रपति-चुनाव में उनकी निर्णायक बढ़त को सुनिश्चित करना है। इतना ही नहीं, यह समझौता मध्य-पूर्व से सैन्य-वापसी की तैयारी कर रहे अमेरिका के लिए थोड़ी देर के लिए ही सही, आश्वस्त करने वाला है। उधर, संयुक्त अरब अमीरात के लिए यह समझौता महत्वपूर्ण आर्थिक, सुरक्षा और वैज्ञानिक लाभों को सुनिश्चित करने का माध्यम बन सकता है, जबकि इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को उनके प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में राजनीतिक बढ़त उपलब्ध करवा पाने में सक्षम है। जहाँ तक अरब राष्ट्रों और अरब राष्ट्रवाद का प्रश्न है, तो कई अरब देशों के लिए यह समझौता आगे की राह दिखाता है, कई के लिए यह हताश करने वाला। अरब राष्ट्रवाद के संदर्भ में तो यह समझौता उनकी मृत्यु का घोषणा-पत्र है। रही बात फ़िलिस्तीनियों की, तो उनके लिए यह समझौता निराश एवं हताश करने वाला है।

 

No comments:

Post a Comment