Sunday 6 September 2020

पुरूषसत्तावादी समाज का डर: रिया से कंगना तक

 

पुरूषसत्तावादी समाज का डर

अपने पैरों पर खड़ी एक निडर स्त्री से

(रिया से कंगना तक)

पुरूषसत्तावादी समाज को डर है

अपने पैरों पर खड़ी 

एक निडर स्त्री से,

अब वह रिया हो या कंगना, स्वरा हो या दीपिका।

इसी डर को मिटाने के लिए

वह आक्रामक होता है, और

अपनी आक्रामकता के सहारे

डराने की कोशिश करता है

एक निडर स्त्री को,

हर ‘रिया’ को और ‘कंगना’ को भी।

इसी डर की खेती करते हैं,

‘इधर वाले’ भी और ‘उधर वाले’ भी,

विचारधाराओं और वैचारिकी के फर्क को मिटाते हुए

उससे परे हटकर।  

मैं नहीं कहता,

कहता है मनोविज्ञान हमारा,

डरा-सहमा ही डराने की कोशिश करता है,

दूसरों को,

अब चाहे वह रिया हो या कंगना,

अपने भय और डर से बाहर निकलने के लिए; और

‘कामायनी’ में तो प्रसाद ने भी कहा:

“भयभीत सभी को भय देता।

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा।”

डराने की यह प्रक्रिया

अचानक नहीं शुरू होती, और

न ही पुरुष इसे अकेले करता है,

इसके लिए

अक्सर वह सहारा लेता है

उन स्त्रियों का,

जो लैंगिक दृष्टि से भले स्त्री हों, पर

जिनकी सोच ‘मर्दवादी’ है,

जिन्हें ‘मर्दानगी’ प्रभावित करती है, और

जो ‘मर्दानगी’ से अभिभूत होती हैं;

तभी तो

‘रिया’ की रिरियाहट को

वो भी सेलिब्रेट कर रही हैं

पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर, और

कंगना की गर्ज़ना को भी,

जो उनकी नज़रों में

उसी ‘मर्दवाद’ और ‘मर्दानगी’ की निशानी है।

अब उन्हें परहेज़ रियामात्र से होने लगा,

वह रियानाम की स्त्री हो, या फिर रियाप्रत्यय,

चाहे वह सुन्दरिया हो या बंदरिया,

उससे उन्हें परहेज़ मलेरिया और फाइलेरिया की तरह ही होने लगा है,

और ‘लवेरिया’ से परहेज़ तो स्वाभाविक है।  

और, इस क्रम में ध्यान रहे,

बन्दरियाका इस्तेमाल

‘स्त्री’ और ‘स्त्रीत्व’ का मज़ाक़ उड़ाने के लिए

सदियों से होता आया है

इस पुरूषसत्तावादी समाज में।

डराने की यह प्रक्रिया

शुरू होती है

‘रिया’ के जन्म लेने के पहले, तब

जब वह भ्रूण रूप में आकार ग्रहण कर रही होती,

और जारी रहती है

उसकी मृत्यु के बाद तक;

और इस क्रम में छह माह से लेकर

86 साल की स्त्री तक का

शिकार होती हैं उसके आखेट की।

इस पूरी यात्रा के क्रम में

वह कभी डायन होती है,

तो कभी कुलटा,

कभी चरित्रहीन होती हैं,

तो कभी वेश्या।

वह डायन हो या कुलटा,

वह चरित्रवान हो या वेश्या,

सच तो यह है कि वह बिंधती रहती है,

हमारी तीक्ष्ण नज़रोंसे; और

हमारी तीक्ष्ण नज़रेंबेधती रहती हैं

उसे,

उसके अंगों को,

उन अंगों को,

जो उसकी नज़रों में कामोत्तेजना और काम-तुष्टि में सहायक हैं।

उसका अस्तित्व क्या,

उसका अनस्तित्व भी

बिंधता रहता है

निरन्तर,

लगातार,

अनवरत्, और

सेलिब्रेट करता रहता है

पुरुषसत्तावादी समाज, इसे!

बिंधना ही उसकी नियति है,

हाँ, बिंधना ही उसकी नियति है,

एक स्त्री के रूप में,

अब चाहे वह ‘तुम्हारी’ माँ हो या ‘तुम्हारी’ बहन,

‘तुम्हारी’ बेटी हो या ‘तुम्हारी’ पत्नी,

या फिर, इस तुम्हारीकी जगह मेरीलिख दो,

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता;

अगर फ़र्क़ पड़ता, तो शायद

तो शायद,

बेटियाँ और बहनें

घर के भीतर तो सुरक्षित होतीं।

अब देखो न, रिया को,

वह भी तो बेटी है,

उसी भारतमाता की बेटी,

जिस भारतमाता का बेटा अपना सुशान्तथा,

उसे क्या-क्या नहीं कहा हमने,

डायन, कुलटा, हत्यारिन, वेश्या;

उसे कभी सुलाया महेश भट्ट के साथ, तो

कभी लिटाया किसी और के साथ,

कभी धकियाया, कभी पन्द्रह करोड़ थमाया,

फिर भी चैन नहीं।

क़ानून के साथ सहयोग करती ‘रिया’,

रोज-रोज़ एक और मौत देखती है,

रोज़-रोज़ एक मौत मरती है,

रोज-रोज ‘सुशान्त’ को फिर-फिर खोती है,

उसकी हत्या में संलिप्तता के आरोप को झेलती हुई

खुद को अनावृत्त होती पाती है

कभी मीडिया के हाथों, तो

कभी सोशल मीडिया के हाथों,

कभी राजनीति के हाथों, तो

कभी पत्रकारिता के हाथों।

उसे सजा देने के लिए क़ानून नहीं,

मीडिया के दल्ले ही काफ़ी हैं,

उसे सजा देने के लिए

महाभोजके किरदार ही काफ़ी हैं,

जिन्होंने ‘सुशान्त’ को तब्दील कर दिया है ‘बिसू’ में,

‘उसकी मौत’ को ‘बिसू की मौत’ में,

‘उसकी लाश’ को ‘बिसू की लाश’ में; और

‘दा साहब’ की भूमिका में हमारे ‘सुशासन बाबू’,

‘बिन्दा’ की भूमिका में तब्दील होती ‘रिया’,

‘डीजीपी सिन्हा’ की भूमिका में गुप्तेश्वर बाबू, और

मास्क, टोपी पोस्टर एवं बैनर के ज़रिये

‘सुशान्त की मौत’ को

राजनीतिक रूप से भुनाने की कोशिश करते

सत्तारूढ़ दल के ‘दल्ले’,

पर दूर-दूर तक

नहीं दिखता कोई एस. पी. सक्सेना।

अगर ‘रिया’ दोषी हुई, तो

उसे सज़ा तो मिल ही जाएगी, और

मिलनी भी चाहिए;

लेकिन क्या कभी सोचा,

कि अगर ‘रिया’ दोषी नहीं हुई,

निर्दोष साबित हुई

‘रेयान स्कूल हत्या-काण्ड के आरोपियों की तरह,

तो क्या भरपायी कर सकेगी

यह व्यवस्था,

‘रिया’ की पीड़ा-वेदना की,

उस ज़िल्लत की,

जो इन दिनों वह झेल रही है।  

और, ‘रिया’ ही क्यों,

‘दीपिका’ के साथ इसने क्या नहीं किया,

महज़ जेएनयू जाने के लिए,

ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार

‘इस पार वाले’ कर रहे हैं कंगना के साथ।

 

 

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