Tuesday 21 May 2019

‘टाइम’ मैगजीन में छपी मोदी-महिमा पर एक दृष्टिपात: मणिभूषण सिंह (बेगूसराय)


‘टाइम’ मैगजीन में छपी मोदी-महिमा पर एक दृष्टिपात
                       -मणिभूषण सिंह (बेगूसराय)

"टाइम" नाम की ख्यातिप्राप्त अमेरिकी पत्रिका में पाकिस्तानी स्तंभकार "आतिश तसीर" ने भारत के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा संवैधानिक परिदृश्य को जिस सुललित भाषाशैली, परिष्कृत रचनाधर्मिता एवम उत्कृष्ट अर्थगम्भीरता के साथ चित्रित किया है, उसमें केन्द्रीभूत रूप से मोदी, राहुल और योगी प्रधान भूमिकाओं में दिखे हैं क्योंकि यही हैं जिनसे भारत का वर्तमान और भविष्य जुड़ा हुआ है। चित्रण के अपने इस प्रयास में तसीर ने मोदी को भारत का प्रमुख विभाजनकारी पुरुष बताया है। योगी को कट्टर हिंदुत्ववादी सोच का युवा तुर्क कहते हुए तसीर ने उनको नफरत की आग फैलाने वालों का सेनानी बताया है। उनकी चपेट से हालाँकि कांग्रेस पार्टी और राहुल गाँधी भी बमुश्किल बचे। द्रष्टव्य है कि राहुल को धर्मनिरपेक्ष नेहरूवियन समाजवाद और नेहरू वंश का मौजूदा चिराग़ बताने के क्रम में उन्होंने उनके सम्पूर्ण प्रक्रम को एक ‘Unteachable Mediocrity’ भी कहा।

पत्रिका के भीतर इस आमुख कथा का शीर्षक एक प्रश्ननुमा वक्रोक्ति है जिसका शब्दानुवाद होगा, "क्या दुनिया का विशालतम लोकतंत्र मोदी सरकार का एक और पाँच साल झेल सकता है?" मुखपृष्ठ पर मोदी का स्केच है और आवरण के लिए एक भिन्न शीर्षक है जो पूर्ण रूप से निर्णयात्मक है। लिखा है, "INDIA'S DIVIDER IN CHIEF" यानी "भारत का सबसे बड़ा विभाजनकारी"। आमफहम बातचीत की शब्दावली में कहें, तो 'भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह' बोलने वाले 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' का सरदार। टाइम ने वक़्त-वक़्त पर नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव, सोनिया, मनमोहन आदि पर भी कई सारी आमुख कथाएँ की हैं। इससे पहले इसी टाइम ने मोदी में भारत के विकास की उम्मीद देखी थी। इस आशय की एक कवर स्टोरी उसने तब भी की थी। आज उसी की वह उम्मीद टूटती नजर आती है। वह इस बात को भी रखता है। जाहिर है कि ऐसे आलेख बाह्यतः अवलोकन के निष्पक्ष दृष्टिकोण से उत्पन्न होते हैं।

मोदी का आविर्भाव: भारतीय लोकतंत्र का पॉपुलिस्ट हो जाना:
अनुभूत सत्य लिखने की चेष्टा में लेखक आतिश तसीर ने भारत के वाराणसी में सियासी पारे की परख भी की थी। बनारस में एबीवीपी के किसी कार्यकर्ता से विकास और विनाश की चर्चा सुनना और इतिहास में भारत की आजादी के दिन से सत्रहवें लोकसभा चुनाव तक की गति को परिप्रेक्ष्य बनाकर मौजूदा परिस्थितियों के ऊपर बेबाक राय व्यक्त करना पाठ को और अधिक विश्वसनीय बना देता है। तसीर ने सन् 2014 में मोदी के अभ्युदय को 'अपरिहार्यता तथा विपत्ति' (inevitability and calamity) बताते हुए भारतीय लोकतंत्र के पॉपुलिस्ट हो जाने की बात की है। वे भारत की आजादी से शुरू करते हैं। विभाजन के बाद मुस्लिम देश पाकिस्तान के विपरीत भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाकर राज्य तथा धर्म को एक दूसरे से विलग करने में कैंब्रिज-एजुकेटेड नेहरू की भूमिका को अहम मानते हैं। हालाँकि उनके वारिसों पर सामंती वंशवाद का तगमा लगाने से भी वे नहीं चूकते, लेकिन फिर भी अपने तुलनात्मक अध्ययन में उन्होंने काँग्रेस को ही बेहतर विकल्प ठहराया है।
सत्ता पक्ष द्वारा पोषित और संरक्षित होते रहने के न्यस्त स्वार्थ में भारतीय मीडिया का एकपक्षीय अवलोकन राष्ट्रीय प्रक्रियाओं और घटनाक्रमों की जो अतिरंजित तस्वीर सामने ले आता है, उससे सूचना-संग्राही जनता के भीतर किसी निष्पक्ष दृष्टि के बन पाने की कोई संभावना नहीं होती और इसीलिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया के वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण को ही आधार मानकर यथास्थिति का मूल्यांकन कर सकने का विकल्प शेष रह जाता है। पुलवामा वाले मामले में जब भारतीय मीडिया एक ठेठ वाररूम बनकर रह चुकी थी, तब एक आँखें खोल देने वाला आलेख इसी अमेरिका के "हफिंग्टन पोस्ट" ने छापा था। (https://www.huffingtonpost.in/entry/our-captured-wounded-hearts-arundhati-roy-on-balakot-kashmir-and-india_in_5c78a574e4b0de0c3fbf6b50) लेखिका थीं प्रख्यात कलमबाज अरुंधती रॉय। ठीक वैसे ही भारतीय लोकतंत्र के सत्तर साल के इतिहास में मोदी की भूमिका का आकलन हिंदुस्तानी मीडिया की बजाय वर्ल्ड-मीडिया की ओर से ज्यादा यथार्थवादी और वस्तुनिष्ठ माना जायेगा। टाइम के इस आलेख में तसीर ने दो तरह के पॉपुलिस्टों का जिक्र किया...
1.  एक तो टर्की के एरडोगन और ब्राज़ील के बोलसोनारो की तरह के वैसे पॉपुलिस्ट जो उनसे जुड़ाव रखते हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, और
2.  दूसरे वे जो उनकी भावनाओं का शोषण मात्र करते हैं जिनके वे अंग तक नहीं हैं, जैसे शैम्पेन नियो-फ़ासिस्ट, ब्रेक्झिटियर्स, डोनाल्ड ट्रम्प और इमरान खान।
3.  मोदी को उन्होंने पहले वर्ग में रखा।
(यद्यपि इस पर प्रतिक्रिया देते हुए यह आलेख भी लिखा गया: https://www.newslaundry.com/2019/05/11/aatish-taseer-narendra-modi-time-magazine-divider-in-chief?fbclid=IwAR2C7zViDAhrGPEgViDdsVpewReISXLqemf2xzFwEJy1WjsJg7n6pDIfhD4)
सांस्कृतिक दरार पैदा करने की कोशिश:
तसीर लिखते हैं कि सन् 2014 में सांस्कृतिक दरार पैदा की गई थी। भारतीय गणराज्य पर, इसके संस्थापकों पर, अल्पसंख्यकों तथा उनकी संस्थाओं की स्थिति पर, विश्वविद्यालयों और कॉर्पोरेट से लेकर मीडिया तक पर अविश्वास व्याप्त हो चुका था। धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य जैसी स्वतंत्र भारत की स्तुत्य उपलब्धियाँ बहुतों की दृष्टि में एक बड़ी साजिश लगने लगी थीं जिसमें मूलोच्छेदित हिन्दू कुलीन इस्लाम तथा ईसाइयत जैसे एकेश्वरवादी धर्मों के अल्पसंख्यकों के साथ गिरोह बाँधकर हिन्दू बहुसंख्या पर प्रभुत्व कायम किये हुए थे। इसी अविश्वास ने मोदी को जीत दिलाई। मोदी नेहरू और नेहरूवियन मूल्यों की भर्त्सना कर रहे थे। धार्मिक राष्ट्रवाद, जाति-विद्वेष और मुस्लिम-विरोध का पतीला उबल रहा था। कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करते हुए मोदी ने तमाम स्थापित मूल्यों को बुहारकर फेंक दिया। 1984 और 2002 के दंगों की तुलना में उन्होंने यह कहा कि कांग्रेस ने तो भीड़ द्वारा की गई हिंसा से अपना दामन छुड़ा लिया लेकिन गुजरात के दंगे में मोदी की छवि दंगाई भीड़ के मित्र की बनी। दंगा-मित्र मोदी जोर देकर कहते रहे कि मुग़ल, अंग्रेज आदि विदेशी शासकों के सभी उत्तराधिकारी गौरवशाली हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सम्मिलित विरोध करते रहे हैं।

सांस्कृतिक आवेश को आर्थिक प्रत्याशा में परिवर्तित करना:
2014 में मोदी ने सांस्कृतिक आवेश को आर्थिक प्रत्याशा में परिवर्तित कर दिया। विकास और रोजगार के वादे की बात हुई। राम-मंदिर से विकास का एजेंडा अधिक बड़ा लग रहा था। इस चुनाव में हालाँकि स्थिति बदली है। मोदी के आर्थिक चमत्कार फलीभूत नहीं हो पाए। भारत में जहरीले धार्मिक राष्ट्रवाद का वातावरण बना दिया गया है। इस संदर्भ में तसीर ने भाजपा के तेजस्वी सूर्या के मार्च,2019 का बयान सामने रखा, "अगर तुम मोदी के साथ हो, तो तुम भारत के साथ हो। अगर तुम मोदी के साथ नहीं हो तो तुम भारत-विरोधी ताकतों को बल दे रहे हो।" हिंदुस्तान के कुल चौदह प्रतिशत मुसलमान-शासन की मौन सहमति से हिन्दू भीड़ के द्वारा पवित्र गाय के नाम पर निर्मम हिंसा के शिकार होते रहे हैं। 2017 के मोहम्मद नईम के वाकये से सरकार के असली मौन को प्रदर्शित करते हुए स्तंभकार ने चिंता जताई है कि आधारभूत प्रतिमान तथा नागरिक आचार इतने दूषित हो चुके हैं कि मोदी अब इस हिंसा को कोई दिशा नहीं दे सकेंगे। तसीर मानते हैं कि एक बार नफ़रत को मंजूरी मिली नहीं कि फिर उसे लक्ष्य-च्युत करना आसान नहीं रह जाता। भाजपा स्वयं परेशान है कि वही लोग जो मुस्लिम को अपनी हिंसा का टारगेट बनाये हुए थे, वही लोग अब अवर्ण हिंदुओं के साथ वही कर रहे हैं,जबकि भाजपा को तो उनसे भी वोट लेना है। जुलाई,2006 में गौरक्षा के नाम पर गुजरात में चार चमारों को नंगा करके लोहे की छड़ों से पीटे जाने और सड़क पर घुमाये जाने की घटना इस बात का समर्थन करती है।
महिलाओं की स्थिति भी बेहतर नहीं:
महिलाओं के मामले में भी मोदी का हिसाब कुछ बेहतर नहीं। 2014 में औरतों को अपने चुनाव का प्रधान मुद्दा बनाकर भी वे 2018 में भारत को स्त्री-वर्ग के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक स्थल घोषित होने से रोक नहीं पाए। स्वतन्त्रता की पाश्चात्य अवधारणाओं को आत्मसात करने से उत्पन्न सामाजिक विषमताओं को मान भी लिया जाय, तो कहा जायेगा कि मोदी के कार्यकाल में उदारवादी, निम्नतर जाति के लोग, मुसलमान और ईसाई सभी अल्पसंख्यक धाराएँ चोटिल हुई हैं। सबके विकास के वादे से बहुत दूर मोदी ने भारत में सबके बीच के अंतर को ही बढ़ावा दिया है। पिछले चुनाव में जैसे इस अंतर से एक आशा उपजाई गयी थी, इस चुनाव में वह अंतर यूँ ही धरा पड़ा है। तसीर लिखते हैं, "The incumbent may win again–the opposition, led by Rahul Gandhi, an unteachable mediocrity and a descendant of Nehru, is in disarray–but Modi will never again represent the myriad dreams and aspirations of 2014. Then he was a messiah, ushering in a future too bright to behold, one part Hindu renaissance, one part South Korea’s economic program. Now he is merely a politician who has failed to deliver, seeking re-election. Whatever else might be said about the election, hope is off the menu." यानी "सत्ताधारी दुबारा जीत सकता है: एक अपाठनीय औसत-मति और नेहरू के वंशज राहुल गाँधी द्वारा नीत विपक्ष अस्त-व्यस्त है; लेकिन मोदी दुबारा कभी 2014 के असंख्य स्वप्नों और अभिलाषाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। तब वह मसीहा था, आधा हिन्दू पुनर्जागरण और आधा दक्षिण कोरियाई आर्थिक कार्यक्रम को समेटे वह इतने जाज्वल्यमान भविष्य में ले जा रहा था कि जिसे देख कर आँखें चौंधिया जाएँ। अब वह मात्र एक राजनेता है जिससे विकास पैदा नहीं हो पाया है, और अब दुबारा चुनाव में पद खोज रहा है। चाहे चुनाव के बारे में और जो कुछ कहा जाय, आशा सूची से बाहर ही है।"
विशेषाधिकार सम्पन्न लिबरल्स की मौजूदगी राहत की बात:
अपने राजनैतिक पुनरुत्थान के लिए जेरुसलम, रोम या मक्का की तरह के हिन्दू तीर्थ शहर-ए-बनारस से अपना चुनाव लड़ने के लिए मोदी आये हैं और वहीं पहुँचकर तसीर को अनुभव हुआ कि जिस समाज का निर्माण मोदी करना चाहते हैं, उसमें उन जैसे व्यक्ति जिनके पिता पाकिस्तानी मुसलमान और माता भारतीय अंग्रेजी भाषाभाषी संभ्रांत हों, के लिए कोई स्थान नहीं होगा। फिर भी, भारत में सत्ता के स्वरूप के मोदीवादी विश्लेषण के लिए इन्हें सहानुभूति थी कि पश्चिम के असदृश भारत में वामपंथी या उदारवादी समूह विशेषाधिकार सम्पन्न हैं और दक्षिणी छोर पर ऐसा कोई समूह अभी नहीं है। पिछले चुनाव में मोदी द्वारा सांस्कृतिक पृथक्करण के मसले पर नेहरू को याद करते हुए तसीर कहते हैं कि नेहरू मानते थे कि भारत का आधुनिकीकरण विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी से ही सम्भव है और इसके लिए जरूरी है कि पश्चिमी वैज्ञानिक प्रवृत्ति अपनायी जाय। 2014 के मोदी के गणेश जी और प्लास्टिक सर्जरी वाले बयान को लेकर तसीर ने यह तक लिखा, "Modi, inadvertently or deliberately, has created a bewildering mental atmosphere in which India now believes that the road to becoming South Korea runs through the glories of ancient India." यानी "मोदी ने लापरवाही से या जानबूझकर एक विस्मयकारी मानसिक वातावरण तैयार किया है जिसमें भारत अब विश्वास करता है कि दक्षिण कोरिया बनने का मार्ग प्राचीन भारत की महिमाओं से होकर गुजरता है।"

चाहे राजनीति हो, अर्थशास्त्र हो या भारत-विद्या (indology अर्थात भारतीय इतिहास, संस्कृति या भाषा आदि का अकादमिक अध्ययन) हो, मोदी भारत को प्रतिभा-विरोधी राह पर ले जा रहे हैं। प्रो० जगदीश भगवती ने स्वामीनाथन गुरुमूर्ति के बारे में कहा था कि अगर वे अर्थशास्त्री हैं, तो मैं भरतनाट्यम नर्तक हूँ। वही गुरुमूर्ति रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड में मोदी की कृपा से बिठाए गए। उन्होंने ही 2016 में मोदी को काले धन से निपटने की तरकीब बताते हुए कहा था कि 1000 और 500 के बैंकनोट जो कुल करेंसी का 86% थे, उन्हें एकबारगी चलन से बाहर कर दिया जाय। परिणाम यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी तक नोटबन्दी के उस घातक हमले से उबर नहीं पाई है। ऐसे में मोदी के पास सिर्फ राष्ट्रवादी बुखार बचा है और हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच के तनाव से ही कोई चुनावी लाभ लिया जा सकता है। 2017 में यूपी चुनाव जीतने के बाद (जहाँ सबसे सघन मुस्लिम आबादी है) भाजपा ने नफ़रत का ज़हर फैलाने वाले हिन्दू राष्ट्रवादी और भगवाधारी पुजारी आदित्यनाथ योगी को राज्य चलाने दिया। योगी के बारे में तसीर लिखते हैं, "Yogi Adityanath had not been the face of the campaign. If he was known at all, it was for vile rhetoric, here imploring crowds to kill a hundred Muslims for every Hindu killed, there sharing the stage with a man who wanted to dig up the bodies of Muslim women and rape them." यानी "योगी आदित्यनाथ कभी अभियान का चेहरा नहीं रहे। अगर उन्हें जाना जाता था तो सिर्फ उनकी घिनौनी शब्दावली के लिए, यहाँ वध किये गए प्रत्येक हिन्दू के लिए सौ मुसलमानों की हत्या करने की भीड़ से प्रार्थना करना और वहाँ उस आदमी के साथ मंच साझा करना जो मुसलमान औरतों की लाशें खोदना और उनका बलात्कार करना चाहता हो।"
योग्यता एवं प्रतिभा की अनदेखी:
हिंदुस्तान में अकादमिक लोग वामपंथी ही थे। प्रतिभाहीन और अधपढ़ों को तरजीह देकर मोदी ने योग्यता पर भीषण कुठाराघात कियाICHR (ऐतिहासिक शोध का भारतीय परिषद) और JNU (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) जहाँ से राजनेताओं और बुद्धिजीवियों की भीड़ निकला करती थी, वहाँ के प्रशासन और वहाँ की अध्यापन व्यवस्था में फेरबदल कर उन स्थानों को खोखला कर दिया गया। कुमारस्वामी के हवाले से तसीर ने यह स्पष्ट किया कि भारत को प्रगतिशील होने के लिए अंधविश्वास और जादू-टोने के चक्कर से निकलकर विज्ञान की शरण लेनी होगी, लेकिन मोदी हर हाल में भारत को उसके मध्ययुगीन अतीत में पीछे ले जाने की कोशिश करेंगे। यह एक उलझा हुआ विषय है कि भारत के पास क्या अपना है और क्या उसने औरों से लिया। गाँधी के शब्दों में "अपनी धरती के परदेसी" नामक मुहावरा बार-बार दुहराया जाता रहा है, हालाँकि कमोबेश विदेशी संस्कृति और विदेशी मानदंड के प्रति हम कभी खुले न थे। एक एबीवीपी के कार्यकर्ता ने तसीर से बनारस में यह कहा कि हमारे अपने ही गैरों में जा मिले हैं। अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति से जुड़े नहीं हैं। पता नहीं यह सब कौन नियंत्रित कर रहा है, मगर विकास और विनाश में अधिक अंतर नहीं है।यह युवा हिन्दू राष्ट्रवादी उपनिवेशवाद से असंबद्ध जरूर रहा, लेकिन भूमंडलीकरण ने इसे छुआ है। आत्महीनता के शिकार इन लोगों को यह लगता है कि उनकी सभ्यता, उनकी संस्कृति और उनके धर्म को नीचा दिखाया जा रहा है। वे हिन्दूफोबिया के सपने देखते हैं। हिक़ारत से सिकुलर, लिबटर्ड और न्यू यक टाइम्स बोलकर अपने संस्कृतिगत घाटे को बदलकर राजनैतिक विचारधारा बना लेना चाहते हैं। यही वजह है कि उनके मन में मुसलमानों, पिछड़ी जाति वालों तथा भारतीय संवर्ग के प्रति क्रोध-भाव पैदा हो जाता है। अमित शाह आप्रवासी मुस्लिमों की तुलना दीमक से करते हैं। भाजपा का ट्विटर हैंडल लिखता है कि मुसलमानों के अतिरिक्त और सभी धर्म वाले भारत आ सकते हैं। भोपाल, जहाँ की इस्लामी तवारीख रही है, 25% मुस्लिम आबादी है, वहाँ से एक भगवाधारी महिला साध्वी प्रज्ञा ठाकुर भाजपा प्रत्याशी है जो एक मस्जिद के निकट छह लोगों की हत्या के आतंकवादी हमले की मास्टरमाइंड रही है और अभी बेल पर बाहर है। यह राष्ट्रवाद और अपराध की गड्डमड्ड स्थिति है।

अंत में तसीर लिखते हैं कि मोदी के हिंदुस्तान में पुरानी व्यवस्था जरूर नष्ट हो गयी है, मगर कोई नई विश्वसनीय व्यवस्था आ नहीं सकीमोदी जीते हैं, हो न हो फिर जीत जाएं, मगर उससे क्या होगा? मोदी ब्रांड पापुलिज्म ने भारतीय समाज की जो विश्वस्त समीक्षा प्रस्तुत की है, उसका कांग्रेस पार्टी से बेहतर और कोई प्रतीक नहीं। कांग्रेस पार्टी के पास सिवाय वंशवाद के अभी और कुछ देने को नहीं है। भारत की सबसे पुरानी पार्टी के पास भाई राहुल की मदद के लिए बहन प्रियंका को भेजने के अतिरिक्त और कोई राजनैतिक ख्याल नहीं है। तसीर ने यह भी कहा, "Modi is lucky to be blessed with so weak an opposition–a ragtag coalition of parties, led by the Congress, with no agenda other than to defeat him. Even so, doubts assail him, for he must know he has not delivered on the promise of 2014. It is why he has resorted to looking for enemies within." यानी "मोदी भाग्यशाली है कि उसके पास इतना लचर विपक्ष है, कांग्रेस के नेतृत्व में पार्टियों का कुली-कबाड़ी टाइप गठबंधन जिसके पास उसे हराने के अलावे और कोई एजेंडा नहीं है। फिर भी संदेह उस पर बरस पड़ते हैं, क्योंकि उसे बखूबी जानना चाहिए कि 2014 के वादे को वह पूरा नहीं कर पाया है। यही वजह है कि उसने अंदरूनी शत्रु तलाशने शुरू कर दिए हैं।" और अपने लेख को समाप्त करते हुए उन्होंने एक डर जाहिर किया है कि "...a second term, one cannot help but tremble at what he might yet do to punish the world for his own failures." यानी "एक दूसरा कार्यकाल, अपनी असफलताओं के बदले दुनिया को दंडित करने के लिए वह और जो भी करेगा उसे सोचकर सिवाय काँपने के कोई और कुछ नहीं कर सकता।"
© मणिभूषण सिंह

Thursday 16 May 2019

नए भारत में आपका स्वागत है!


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 नए भारत में आपका स्वागत है!
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नहीं, नहीं, नहीं!
गाँधी तो मर चुके,
नहीं, नहीं, गाँधी मरे नहीं हैं;
गाँधी को तो मारा है
हमारे प्यारे गोडसे ने,
हाँ, नए भारत:
हिन्दू-राष्ट्र भारत के राष्ट्रपिता
हमारे गोडसे ने।
और, मारता क्यों नहीं,
हिन्दू-द्रोह का अपराध जो किया था उन्होंने,
और मुसलमान-परस्त तो वो शुरू से ही थे,
आजादी के बाद पाकिस्तान-परस्ती भी तो स्वीकार कर ली उन्होंने।
गाँधी मर चुका है, और
गाँधीवाद वेंटिलेटर पर है,
गाँधीवाद को मत मारो!
उसे अपनी मौत मरने दो,
हाँ, उस ‘चतुर बनिए’ के दर्शन को
अपनी मौत मरने दो
उसके ही विरासत के हकदारों के हाथों। 
वर्तमान पीढ़ी को न तो गाँधी की ज़रूरत है
और न ही गाँधीवाद की,
और शर्तिया
आने वाले पीढ़ी को भी
न तो गाँधी की ज़रुरत होगी,
और न ही गाँधीवाद की!
यह नया भारत है,
21वीं सदी का नया भारत,
काँग्रेस-मुक्त, विपक्ष-मुक्त,
पर संघ-युक्त हिन्दू राष्ट्र भारत,
न राम के लिए जगह है यहाँ, और
न ही कृष्ण के लिए;
न ईसा के लिए जगह है, और
न ही मूसा के लिए;
न रहीम एक लिए जगह है यहाँ, और
न ही करीम के लिए।  
हाँ, यह वह धरती है जहाँ
गोडसे को पूजा जाता है,
विद्यासागर को लूटा जाता है।
हाँ, यह वही धरती है जहाँ
सिसकियाँ दबकर रह जाती हैं,
और रावण का खल-खल अट्टहास
गूँजता है
खुले आसमान के तले,
और हम जैसों की तालियों से गुँजायमान हो उठता है आकाश,
बेबसों के बेबस कराहों को दबाते हुए।
हाँ, यह नया भारत है,
नया भारत, मज़बूत भारत,
जो बदला लेने में विश्वास करता है
जहाँ माफ़ी की कोई गुंजाइश नहीं,
जहाँ असहमति एवं मतभेद के लिए जगह नहीं;
गोडसे राष्ट्रपिता होंगे जिसके,
और साध्वी प्रज्ञा राष्ट्र-माता,
जहाँ बात-बेबात बलात्कार की धमकियाँ दी जाती हैं,
असहमत होने पर पाकिस्तान भेजा जाता है,
चरित्र-हनन जिसका प्रथम चरण है।  
हाँ, आइये, नए भारत में आपका स्वागत है,
हेडगेवार से लेकर गोलवलकर, और  
दीन दयाल उपाध्याय के सपनों के भारत में;
जो पाकिस्तान बनने के रास्ते पर तेजी से अग्रसर है,
और है आतुर,   
पूरे विश्वास के साथ चीन को पीछे छोड़ने को।
गाँधी ने तो इसे भारत बनाना चाहा,
पर गुजरात के नए गाँधी, और
गुजरात के नए पटेल
आमदा हैं इसे पाकिस्तान और चीन बनाने को।
हाँ, हमें चीन बनना है;
हाँ, हमें पाकिस्तान बनना है;
भारत नहीं!
हाँ, भारत नहीं!
अलविदा गाँधी!
अलविदा गाँधीवाद!
अलविदा छब्बीस जनवरी, और
अलविदा पंद्रह अगस्त!
दो अक्टूबर भी मत आना,
हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं!
स्वागत है तुम्हारा
तीस जनवरी,
हाँ, तीस जनवरी, अर्थात् मुक्ति-दिवस!
स्वागत है तुम्हारा 28 मई,2014
नव-मुक्ति दिवस के रूप में,
जब भारत की मौत हुई,
और नए भारत के उदय का मार्ग प्रशस्त!
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आर्थिक आधार पर आरक्षण: औचित्य एवं प्रासंगिकता

आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण

आरक्षण की बदलती धारणा:
आरक्षण सामाजिक विसंगतियों को दूर करने का उपकरण है, न कि आर्थिक विसंगतियों को दूर करने का उपकरण; लेकिन पिछले तीन-चार दशकों से वोटबैंक की राजनीति इसके स्वरुप को परिवर्तित करने की हरसंभव कोशिश कर रही है। अभी तक देश में दलितों और पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण मिलता रहा है, उसमें सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन को पैमाना बनाया गया, न कि आर्थिक पिछड़ेपन को। पारंपरिक रूप से आरक्षण के बारे में यह धारणा रही है कि यह दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ी जातियों के समावेशन एवं सशक्तीकरण का एक महत्वपूर्ण उपकरण है और इसके जरिये उनके लिए सामाजिक प्रतिष्ठा सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है। इसीलिए अबतक आरक्षण को एक ऐसे सामाजिक उपकरण के रूप में देखा गया जो ऐतिहासिक अन्याय का निवारण करता हुआ दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों जैसे हाशिये पर की ज़िंदगी जीने वाले सामाजिक समूहों के समावेशन एवं सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त करता हुआ सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करता है। लेकिन, अब इसे आर्थिक पिछड़ापन दूर करने और रोजगार प्रदान करने वाले उपकरण के रूप में देखने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, अब आर्थिक पिछड़ापन को दूर करने और रोजगार प्रदान करने के लिए आरक्षण की रणनीति के इस्तेमाल की कोशिश हो रही है जो इसे आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित करने वाले उपकरण में तब्दील कर देता है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण की दिशा में पहल:
सबसे पहले सन् 1978 में बिहार में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने किसी तबके की कमजोर आर्थिक स्थिति को आरक्षण से जोड़ा और पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसदी आरक्षण की दिशा में पहल की, लेकिन बाद में लेकिन पटना हाईकोर्ट ने उनके इस फैसले को ख़ारिज कर दिया। बाद में, 1990 के दशक में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के साथ आरक्षण की राजनीति जोर पकड़ी। इसी के साथ आरक्षण को लेकर नज़रिए में भी बदलाव के संकेत मिले और इसे सरकारी नौकरियों से जोड़कर सीमित सन्दर्भों में देखा जाने लगा। इसी क्रम में आरक्षण को आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने वाले साधन के रूप में देखा गया और सन् 1991 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के ठीक बाद पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण की दिशा में पहल की, जिसे सन् 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। उसके बाद कई राज्य सरकारों ने भी इस दिशा में पहल की, पर उसका भी यही हश्र हुआ और यह अदालत के सामने टिक नहीं पाया। सितंबर,2015 में राजस्थान सरकार ने अनारक्षित वर्ग के आर्थिक पिछड़ों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में 14 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की, लेकिन दिसंबर,2016 में राजस्थान हाईकोर्ट ने इस आरक्षण बिल को रद्द कर दिया। अप्रैल,2016 में गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की, लेकिन अगस्त,2016 में हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी और असंवैधानिक बताया। सरकार के इस फैसले के अनुसार 6 लाख रुपये से कम वार्षिक आय वाले परिवारों को इस आरक्षण के अधीन लाने की बात कही गई थी। यही स्थिति हरियाणा सरकार के द्वारा जाटों को आरक्षण दिए जाने के निर्णय के सन्दर्भ में देखने को मिली, जिसे पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। सभी मामलों में उच्च न्यायालय ने मंडल वाद,1993 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णय को दोहराया।  
आर्थिक आधार पर आरक्षण और सुप्रीम कोर्ट:
सन् 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किये जाने के साथ पूरा देश आरक्षण-विरोधी एवं आरक्षण-समर्थक खेमों में बँट गया और इन दोनों के टकराव ने देश को आरक्षण की राजनीति की आग में झोंक दिया। ऐसी स्थिति में सन् 1991 में पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने उन सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की जो आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार थे। यह मसला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान-पीठ ने उसे दो आधारों पर खारिज कर दिया:
1.  यह 50 प्रतिशत की आरक्षण-सीमा का अतिक्रमण करता है, और
2.  भारत का संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता है।
इंदिरा साहनी बनाम् भारत संघ वाद,1992 के नाम से चर्चित इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार को आरक्षण का कारण मानने से इन्कार करते हुए कहा था कि:
1.  गरीब हो जाने से यह साबित नहीं होता कि सामाजिक बहिष्कार का अपमान झेलना पड़ा हो।
2.  आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना संविधान में वर्णित समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है।
3.  संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक गैर-बराबरी दूर करने के मकसद से रखा गया है, लिहाजा इसका इस्तेमाल गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं किया जा सकता है।
अपने फैसले में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान की विस्तृत व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में आरक्षण का प्रावधान समुदाय के लिए है, न कि व्यक्ति के लिए। आरक्षण का आधार आय और संपत्ति को नहीं माना जा सकता।" सुप्रीम कोर्ट ने संविधान-सभा की बहस का हवाला देते हुए में दिए गए डॉ. अम्बेडकर को उद्धृत किया और सामाजिक बराबरी एवं अवसरों की समानता को सर्वोपरि बतलाया। बाद में, विभिन्न उच्च न्यायालयों ने  सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के आलोक में राजस्थान, गुजरात एवं  हरियाणा सरकार के फैसलों को भी खारिज कर दिया।
आर्थिक आधार पर आरक्षण की दिशा में हालिया पहल:
लम्बे समय से आरक्षण के लाभों की सामाजिक समीक्षा की बात की जा रही है, लेकिन ईसाइयों और मुसलमानों के साथ-साथ सामान्य वर्ग के अंतर्गत आनेवाले अनारक्षित समूह के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके के लिए 10 फीसदी आरक्षण की बात किसी ने नहीं सोची थी। लेकिन, जनवरी,2019 में केंद्र सरकार के द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए अनारक्षित समूह के लोगों के लिए शिक्षण-संस्थानों एवं लोक-नियोजन में 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गयी और अबतक के अनुभव से प्रेरणा लेते हुए कुछ हद तक यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया कि इस पहल का हश्र पूर्ववर्ती पहलों वाला न हो। कैबिनेट नोट यूपीए के वक्त बने सिन्हा कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया। यह पहली बार है, जब किसी तबके की कमजोर आर्थिक स्थिति को आरक्षण से भी जोड़ा गया है और इसके लिए संविधान-संशोधन की दिशा में पहल भी की गयी है, ताकि इसके रास्ते में मौजूद तकनीकी अवरोधों को दूर किया जा सके। अभी तक देश में दलितों और पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण मिलता रहा है, उसमें यह पैमाना नहीं था।
आर्थिक आधार पर आरक्षण की पृष्ठभूमि:
आर्थिक आधार पर आरक्षण की यह कोशिश भाजपा की बेचैनी को दर्शाती है जो एक ओर तो नोटबन्दी एवं जीएसटी की मार से बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था, गहराते एनपीए संकट और बढ़ती बेरोजगारी से उत्पन्न राजनीतिक चुनौती से जूझने की कोशिश में लगी है, दूसरी ओर दक्षिणपन्थी हिंदुत्व की अपेक्षाएँ और संघ के विभिन्न घटकों की ओर से राम-मंदिर के निर्माण को लेकर बढ़ते दबाव से भी परेशान है। समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है। शहरी मतदाताओं, विशेषकर शहरी सवर्ण मतदाताओं के बीच भाजपा की परम्परागत रूप से पैठ रही है, पर उसकी इस पैठ को एक ओर नोटबन्दी एवं जीएसटी ने झटका दिया, तो दूसरी ओर SC/ST अधिनियम में संशोधन ने। इनमें भी दूसरे का प्रभाव कहीं अधिक स्पष्ट और महसूस किया जाने वाला रहा। इसीलिए उसके परम्परागत वोटर्स उससे छिटकते दिखे। ध्यातव्य है कि एससी/एसटी एक्ट से सम्बंधित मामलों में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सरकार की आरंभिक चुप्पी ने यदि सत्तारूढ़ दल के प्रति भाजपा की नाराज़गी को जन्म दिया, तो विपक्ष द्वारा निर्मित दबाव की पृष्ठभूमि में संसदीय विधायन के जरिये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने की कोशिश ने सवर्णों, जो भाजपा के परम्परागत वोटर्स रहे हैं, को नाराज़ किया। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा-चुनावों की पराजय ने न केवल विपक्ष को मनोवैज्ञानिक बढ़त दे दी है, वरन् इसने भाजपा के सीमित होते जनाधार का भी संकेत दिया है और इसकी पृष्ठभूमि में भाजपा के सामने अपने परम्परागत वोटर्स को जोड़े रखने की चुनौती उभर कर सामने आयी। 
ऐसा माना जा रहा है कि इसने नवम्बर-दिसम्बर,2018 में संपन्न विधानसभा-चुनावों में मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा की हार सुनिश्चित की। इससे पिछले कुछ समय से राजनीतिक मुश्किलों का सामना कर रही भाजपा को यह सन्देश दिया कि अनुसूचित जाति के मतदाता तो उससे खिसक ही रहे हैं, अगर समय रहते उसने कदम नहीं उठाया, तो उसके परम्परागत सवर्ण वोटर्स भी उससे खिसक सकते हैं। इतना ही नहीं, पिछले कुछ समय से राजनीतिक एजेंडे के निर्धारण में विपक्ष की सफलता और पिछले विधानसभा-चुनावों के परिणामों से मिलने वाली मनोवैज्ञानिक बढ़त के कारण सन् 2019 में प्रस्तावित लोकसभा-चुनाव में भाजपा की चुनावी संभावनाएँ प्रभावित होती दिख रही थी।
इसके अतिरिक्त किसान एवं किसानी की बढ़ती बदहाली की पृष्ठभूमि में  पिछले कुछ वर्षों के दौरान कभी जाट, तो कभी गुर्जर; कभी पटेल, तो कभी मराठों के द्वारा अपने लिए आरक्षण हेतु आन्दोलन किये जा रहे हैं और समय-समय पर इस आन्दोलन ने हिंसक एवं उग्र रूप भी धारण किया है। इन आंदोलनों ने भी भाजपा की परेशानियाँ बढ़ायी हैं क्योंकि एक तो ये मध्यवर्ती जातियाँ भाजपा के परम्परागत वोटर्स हैं और दूसरे, अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, जिसके कारण विपक्षी दल इन आंदोलनों को प्रत्यक्षतः या परोक्षतः समर्थन प्रदान कर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं और इन चुनौतियों से मुकाबला करना भाजपा के लिए मुश्किल हो रहा है।   
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें केंद्र में सत्तारूढ़ दल का वर्तमान नेतृत्व उसी तरह आरक्षण का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहा है जिस तरह सन् 1990 में वी. पी. सिंह ने चौधरी देवी लाल की किसान-रैली और लाल कृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा की काट में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करते हुए अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को सुनिश्चित किया। भाजपा ने अपनी इस पहल के जरिये छिटक रहे सवर्ण मतदाताओं के साथ-साथ भारतीय मतदाताओं के बड़े हिस्से को साधने की कोशिश की है और इससे नाराज सवर्ण भाजपा की ओर लौट सकते हैं, लेकिन इस कोशिश के अपने खतरे भी हैं और वह यह कि इसके कारण दलित, आदिवासी एवं अन्य पिछड़ी जातियों के मतदाताओं के भाजपा से छिटकने की संभावना भी उत्पन्न हो सकती है। 
124वाँ संविधान-संशोधन विधेयक,2019:
जनवरी,2019 में केंद्र सरकार ने कैबिनेट के निर्णय को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए 124वाँ संविधान-संशोधन विधेयक संसद के पटल पर रखा। 8 जनवरी को लोकसभा ने तीन के मुकाबले 323 वोट से इस विधेयक को पारित किया, जबकि 9 जनवरी को राज्यसभा ने सात के मुकाबले 165 वोट से। राष्ट्रपति की अनुमति मिलते ही इसने 103वें संविधान-संशोधन अधिनियम,2019 का रूप लिया। सरकार को संविधान-संशोधन विधेयक पेश करने की ज़रुरत पड़ी, क्योंकि:
1.  संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं करता है। वह केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन को आरक्षण का आधार मानता है।
2.  नंवबर,1992 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की थी, जिसके कारण बिना संविधान में संशोधन किये 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता।
3.  इसी फैसले के आलोक में सन् 1992 में नरसिम्हा राव सरकार के द्वारा आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का निर्णय खारिज किया गया और बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायलय और गुजरात उच्च न्यायालय ने भी ऐसे फैसले खारिज किये।
इस विधेयक में सरकार ने उच्चतर शिक्षण-संस्थानों और सार्वजानिक रोजगार में आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए समूह के बहिष्करण का हवाला दिया जो अपनी वित्तीय अक्षमता आर्थिक दृष्टि से सक्षम लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं विधेयक के साथ संलग्न उद्देश्यों और कारणों में कहा गया है-नागरिकों का आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का एक बड़ा हिस्सा पैसे के अभाव में उच्च शिक्षण संस्थानों और सरकारी रोजगार से वंचित है और इसलिए वह उन लोगों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाता जो आर्थिक रूप से ज्यादा सक्षम हैं।इसीलिए इस संशोधन का उद्देश्य अनु. 46 की अपेक्षाओं के अनुरूप आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए विशेष उपबंध करते हुए उच्चतर शिक्षण-संस्थानों और सार्वजानिक रोजगार में उनके लिए समुचित अवसर उपलब्ध करवाना है, ताकि उनकी समुचित एवं पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित की जा सके 
आर्थिक पिछड़ेपन के निर्धारित मानक:
ऐसे लोगों में हर धर्म के सामान्य वर्ग के लोग शामिल हैं और सामान्य वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरी और शिक्षण-संस्थानों में प्रवेश में 10 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलेगा, बशर्ते वे निर्धारित मानकों को पूरा करते हैं। इसके लिए निम्न मानक निर्धारित किये गए हैं:
1.  जिस परिवार की सालाना आय 8 लाख रुपए से कम होगी, या
2.  जिनके पास 5 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य ज़मीन होगी, या
3.  जिनके पास 1000 वर्ग फुट से कम का मकान होगा, या
4.  जिनके पास नगरपालिका में शामिल 100 गज़ से कम ज़मीन होगी, या
5.  नगरपालिका में ना शामिल 200 गज़ से कम ज़मीन होगी।
स्पष्ट है कि प्रस्तावित बिल में आर्थिक आधार पर आरक्षण के लाभों को प्राप्त करने के लिए आर्थिक पिछड़ेपन के जो मानक तय किए गए हैं, उसका आधार इतना विस्तृत है कि उसमें सामान्य वर्ग के अंतर्गत आनेवाले अनारक्षित समूह  का एक बड़ा तबक़ा समाहित हो जाएगा।
संविधान के विभिन्न उपबंधों में संशोधन:
124वें संविधान-संशोधन विधेयक के द्वारा अनु. 15 में संशोधन करते हुए अनु. 15(6) जोड़ते हुए यह प्रावधान किया जा रहा है कि:
1.      इस अनुच्छेद, या अनु. 19(1g), या फिर अनु. 29(2) की कोई भी बात राज्य को अनु. 15(4-5) में उल्लिखित वर्गों से इतर नागरिकों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए विशेष उपबंध करने और अनु. 30(1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शिक्षण-संस्थानों को छोड़कर निजी शिक्षण-संस्थान सहित सभी शिक्षण-संस्थानों, चाहे वे राज्य के द्वारा सहायता प्राप्त हों अथवा नहीं, में नामांकन में विद्यमान आरक्षण के अलावा 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने से निवारित नहीं करेगी
2.      इस अनुच्छेद और अनु. 16 के सन्दर्भ में ‘आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग’ के अंतर्गत उन्हें शामिल किया जाएगा जिन्हें पारिवारिक आय और आर्थिक पिछड़ेपन के अन्य मानकों के आधार पर राज्य के द्वारा अधिसूचित किया जाएगा
3.      अनु. 16 में संशोधन करते हुए अनु. 16(6) जोड़ते हुए यह प्रावधान किया जा रहा है कि इस अनुच्छेद, की कोई भी बात राज्य को अनु. 16(4) में उल्लिखित वर्गों से इतर नागरिकों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के लिए विशेष उपबंध करने और विभिन्न पदों या नियुक्तियों में विद्यमान आरक्षण के अलावा 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने से निवारित नहीं करेगी
यदि इन संशोधनों पर गौर किया जाए, तो अनुच्छेद 15 की प्रस्तावित धाराएँ 6 (a-b) इसी अनुच्छेद की मौजूदा धाराओं (4-5) की नकल प्रतीत होती हैं। बदलाव सिर्फ इतना है कि अनुच्छेद 15 (5) के तहत् विशेष प्रावधान के कानून द्वारा जरूरी बताया गया है, नई धारा में शब्द कानून द्वाराहटा दिया गया है और इससे सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में सरकारी आदेशों के जरिए ही सरकार को आरक्षण देने का अधिकार मिल जाएगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 16 की प्रस्तावित धारा (6) भी कमोबेश इसी अनुच्छेद की धारा (4) की नकल है। अनुच्छेद 16(4) में सिर्फ पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की अनुमति दी गई है जिनका ‘सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं’ है, लेकिन अनु. 16(6) में इसके उल्लेख से परहेज़ किया गया है। स्पष्ट है कि इन संशोधनों के जरिये आर्थिक आधार पर आरक्षण के रास्ते में मौजूद संवैधानिक अवरोधों को दूर करने की कोशिश की गयी है और मंडल वाद में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिए गए निर्णय को अप्रभावी बनाए की कोशिश की गयी है।
सत्तारूढ़ दल का बदलता नज़रिया:
अबतक भाजपा का यह कहना था कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण दिया ही नहीं जा सकता है और दबी जुबान से यहाँ तक कहा जाता था कि आरक्षण के कारण योग्यता एवं प्रतिभा की अनदेखी होती है, लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान की हार ने भाजपा को आरक्षण से सम्बंधित अपने नज़रिए में बदलाव के लिए विवश किया। अब उसका यह कहना है कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक हो सकती है। यहाँ पर यह भी महत्वपूर्ण है कि भाजपा ने अबतक उत्तर प्रदेश में अति-पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण के सब-कोटे के निर्धारण का वादा करने के बावजूद अपने इस वादे को पूरा करने की दिशा में पहल नहीं की है, किया गया, जबकि इसके लिए गठित विशेषज्ञ समिति ने दिसंबर,2018 में अपनी रिपोर्ट भी प्रस्तुत कर दी।
अबतक के प्रयासों से भिन्नता:
सन् 1978 में बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार और सन् 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार से लेकर 2009 में राजस्थान, सन् 2014 में हरियाणा एवं सन् 2015 में गुजरात की राज्य सरकारों तक ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की दिशा में जो पहल की, उसे ज़मीनी धरातल पर उतारने के लिए उन सबों के द्वारा कार्यकारी आदेश का सहारा लिया गयाइन कदमों को अदालत ने खारिज कर दिया, पर अबतक संविधान-संशोधन के द्वारा उच्च न्यायालय के इस निर्णय को पलटने की कोई कोशिश नहीं हुई। इस सन्दर्भ में वर्तमान सरकार की पहल इस मायने में अबतक की पहलों से भिन्न है कि वर्तमान सरकार ने इसके लिए संविधान-संशोधन का सहारा लिया है, ताकि इस पहल को ठोस वैधानिक आधार प्रदान किया जा सके। इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इस संविधान-संशोधन विधेयक को तैयार करते हुए सरकार ने वही सावधानियाँ बरती हैं जो सावधानी उसने सीबीआई के निदेशक को छुट्टी पर भेजते हुए और नागरिकता संशोधन अधिनियम को अंतिम रूप देते हुए बरती थीं। इस प्रकरण में उसने सीबीआई के निदेशक को उनके पद से हटाने की बजाय जबरन छुट्टी पर भेजा था और इसकी आड़ में तकनीकी औपचारिकताओं से बच निकलने की कोशिश की। इसी प्रकार देखें, तो नागरिकता-संशोधन अधिनियम विधेयक के जरिये मुख्य रूप से अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश से आनेवाले हिन्दुओं की नागरिकता के मार्ग को प्रशस्त करने की कोशिश की जा रही है और इसके लिए वहाँ से आनेवाले गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की आड़ ली जा रही है। सरकार को यह पता है कि समानता एवं धर्मनिरपेक्षता की संकल्पना के प्रतिकूल होने के कारण इसके न्यायालय से ख़ारिज होने की प्रबल संभावना है, पर ऐसा होने के पहले सरकार लक्षित मतदाताओं तक अपने सन्देश पहुँचा पाने में सफल रहेगी। यही सन्देश पहुँचा पाने की कोशिश आरक्षण के इस कदम के जरिये की जा रही है और संविधान-संशोधन के जरिये वह इस निर्णय के प्रति अपनी गंभीरता प्रदर्शित करना चाहती है, उसे इस बात से मतलब नहीं है कि कल उसके इस कदम का भविष्य क्या होगा। यह तो निश्चित है कि उसके इस कदम को न्यायपालिका में चुनौती दी जाए और न्यायपालिका के द्वारा इसकी समीक्षा की जाए, लेकिन जबतक ऐसा होगा, तबतक सरकार की मंशा पूरी हो चुकी होगी। सरकार के इस निर्णय को इस स्थिति से न तो संविधान-संशोधन बचा सकता है और न ही इसे नौंवी अनुसूची में डालना
आर्थिक आधार पर आरक्षण और सिन्हो कमीशन:
केंद्र सरकार ने राज्यसभा में सिन्हो आयोग,2010 की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बतलाया कि सन् 2010 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की अनुशंसा कीलेकिन, सरकार के दावों के विपरीत सिन्हो कमीशन ने आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के विरोध में सुझाव दिया, और यह स्पष्ट किया कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए सुझाये गए आर्थिक मानकों का इस्तेमाल केवल कल्याणकारी उपायों तक उनकी पहुँच सुनिश्चित किये जाने के लिए किया जाना चाहिए, न कि आरक्षण के लिए आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान हेतु इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि मार्च,2015 में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग हेतु आरक्षण से सम्बंधित पूनम बेन मदाम के सवालों के जवाब में सरकार ने स्वयं इस आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बतलाया था कि इस आयोग ने आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों को आरक्षण न देने की सिफारिश की है। इस जवाब में सरकार ने इंद्रा साहनी वाद में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि केवल आर्थिक पिछड़ापन को आरक्षण का आधार नहीं बनाया जा सकता है
सरकार ने सदन को यह भी सूचित किया कि इस आयोग के तीनों सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि उन्होंने पूरे देश का दौरा करते हुए अधिकांश राज्य सरकारों से संपर्क साधते हुए उनका इनपुट लिया है और उसी के आलोक में अपने सुझाव दिए हैं। इसके विपरीत आयोग ने राज्य सरकारों के रुख की ओर इशारा करते हुए कहा है कि आयोग ने आरक्षण की मात्रा के सन्दर्भ में राज्य सरकारों के रुख जानने की कोशिश की और राजस्थान को अपवादस्वरुप छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश राज्यों ने इस मसले पर कोई स्पष्ट जवाब देने से परहेज़ किया रिपोर्ट में यह कहा गया कि जहाँ इस प्रकार के आरक्षण के मसले पर सभी राज्यों ने प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने से परहेज़ किया, वहीं अधिकांश राज्य सरकारों ने सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए कल्याणकारी उपायों के विस्तार पर बल दिया
इसी प्रकार केंद्र सरकार ने सिन्हो कमीशन की अनुशंसाओं के विरुद्ध जा कर क्रीमी लेयर के लिए निर्धारित आय-सीमा को ही आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित आय-सीमा के रूप में स्वीकार किया है, जिसका व्यापक स्तर पर विरोध किया गया है और जिसे सामाजिक न्याय की संकल्पना के प्रतिकूल माना गया है। ध्यातव्य है कि सिन्हो कमीशन ने स्पष्ट शब्दों में क्रीमी लेयर के लिए निर्धारित आय-सीमा को आर्थिक पिछड़ेपन के लिए निर्धारित आय-सीमा के रूप में स्वीकार करने से इन्कार करते हुए कहा था कि अन्य पिछड़े वर्ग के लिए क्रीमी लेयर हेतु आय-सीमा का निर्धारण करते वक़्त उनके आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ उनके सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन को भी ध्यान में रखा गया है और इस प्रकार उनके आर्थिक पिछड़ेपन को उनके सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन से सम्बद्ध करके देखा गया है; लेकिन यही बातें आर्थिक रूप से पिछड़ों के सन्दर्भ में नहीं कही जा सकती हैं
इस सन्दर्भ में अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग और अनुसूचित जाति के लिए राष्ट्रीय आयोग के रुख का हवाला देते हुए आयोग ने कहा कि आर्थिक स्थिति में उतार-चढाव आते रहते हैं और इसीलिए आरक्षण, जिसे ऐतिहासिक अन्याय के निवारण के लिए लाया गया था, इसका समाधान नहीं है। दोनों आयोगों का यह मानना था कि इसके लिए आवश्यकता गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित किये जाने की है।
आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान की जटिलता:
संविधान-निर्माताओं के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि आरक्षण कोई ग़रीबी-उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। लिहाज़ा इसका आधार आर्थिक पिछड़ापन नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन होगा।” इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो जाति के आधार पर आरक्षण का तो औचित्य समझ में आता है क्योंकि रोटी और बेटी के सम्बंध पर आधारित जाति का का फ़ौलादी ढ़ाँचा सामाजिक गतिशीलता की तमाम संभावनाओं को निरस्त करता है। इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद जाति नहीं बदली जा सकती है, और इसीलिए जाति पर आधारित सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन की पहचान आसान हो जाती है। लेकिन, सवाल यह उठता कि आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान करने वाला मैकेनिज्म क्या होगा और कितना प्रभावी होगा, क्योंकि एक तो आर्थिक स्थिति स्थिर न होकर लोचशील होती है एवं इसमें बदलाव की प्रवृत्ति कहीं अधिक तेज होती है, और दूसरे, जिस तरीके से आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान हेतु मानकों का निर्धारण किया गया है, वह संदेह पैदा करता है। इसीलिए केंद्र सरकार के इस निर्णय की इस आधार पर भी आलोचना हो रही है कि आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान हेतु उच्च आय-सीमा का निर्धारण इसलिए किया गया है, ताकि इसका लाभ आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न मध्य-वर्गीय सवर्णों तक पहुँचाया जा सके इसके कारण अनारक्षित समूह के 95% से अधिक लोग और 86% से अधिक किसान आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के दायरे में आ जायेंगे इस तरह देश की लगभग 98% आबादी अब आरक्षण के दायरे में आ जायेगी, जो एक तरह से आरक्षण को ही अप्रासंगिक बनाने का काम करेगा इतना ही नहीं, यह भी संभव है कि एक ही परिवार में एक व्यक्ति आर्थिक रूप से पिछड़ों की श्रेणी में आता हो और दूसरा सम्पन्न की श्रेणी में।

प्रभाव का विश्लेषण

 सामाजिक एवं सांप्रदायिक सौहार्द्र की पुनर्बहाली संभव:

सरकार के इस कदम के पश्चात् उम्मीद की जा रही है कि भारत की लगभग 95% आबादी आरक्षण के दायरे में आ जायेगी। वर्तमान में भारत में 87 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है और इन किसानों में अधिकांश सवर्ण किसान हैं। सरकारी नौकरी और शिक्षण-संस्थानों में उन्हें आरक्षण देकर उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश की गई है। इंडियन रूरल डेवलपमेंट रिपोर्ट,2013-14 के अनुसार, देश के जाति-आधारित गाँवों की जमीन के बँटवारे में ओबीसी  के पास 44.2 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के पास 20.9 प्रतिशत, और अनुसूचित जनजाति के पास 11.2 प्रतिशत जमीन हैं।  शेष 23.7 प्रतिशत ज़मीन विभिन्न सम्प्रदायो एवं धर्मो के सामान्य श्रेणी के लोगों के पास है। धार्मिक आधार पर देश की 85% जमीन हिंदुओं, 11% जमीन मुस्लिमों और शेष 4% जमीन अन्य धर्मावलंबियों के पास है। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के आँकड़ों के अनुसार, सन् 2017 में देश में महज 0.91% ऐसे लोग थे जिनकी आमदनी 10 लाख़ वार्षिक से ज्यादा थी। ऐसी स्थिति में बमुश्किल बमुश्किल 2% के आसपास लोग ऐसे होंगे जो 8 लाख की निर्धारित आय-सीमा से बाहर होंगे।
यह एक प्रकार से ‘नयी सोशल इंजीनिर्यंरगकी शुरुआत है जिसकी पृष्ठभूमि तो ढ़ाई दशक पहले ही तैयार होने लगी थी, लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति और सुप्रीम कोर्ट के दबाव के कारण या तो किसी ने साहस नहीं दिखाया, और अगर साहस दिखाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। चूँकि आरक्षण की सीमा 49.5 फ़ीसदी से बढ़ाकर 59.5 फीसदी करने से किसी से कुछ छीना नहीं जा रहा, इसलिए दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में अगड़ों को मिलने वाले आरक्षण से कोई नाराज़गी नहीं होगी। साथ ही, सवर्णों में आर्थिक रूप से कमज़ोर तबक़े की शिकायत भी दूर होगी जिन्हें लगता था कि केवल जाति के कारण उसकी ग़रीबी को ग़रीबी नहीं माना जाता। इसका लाभ सभी मजहब के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए उपलब्ध होगा, वे चाहे हिन्दू हों अथवा मुसलमान या ईसाई या अन्य समुदायों के लोग। इसके दायरे में 26% सवर्ण हिंदुओं के अलावा, 60% मुसलमान, 33% ईसाई, 46% सिखों, 94% जैन, 2% बौद्ध, और 70% यहूदियों के वंचित समाज के लोग आयेंगे जिन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ मिलेगा इस आरक्षण का लाभ बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म के उन दलितों को भी मिलेगा जिन्हें अनुसूचित जाति आदेश,1950 के तहत् दलितों की श्रेणी से बाहर रखा गया है और इस कारण अबतक जो दलितों को दी जाने वाली आरक्षण की सुविधाओं से वंचित हैं इन लोगों ने अतीत में हिन्दू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म अपना लिया था और इसीलिए इन्हें अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल जातियों के रूप में अधिसूचित नहीं किया गया था और अधिसूचित अनुसूचित जातियों की श्रेणी से बाहर रखा गया था ध्यातव्य है कि अनुसूचित जाति आदेश,1950 के प्रावधान हिन्दू, बौद्ध और सिख के अलावा अन्य धर्म के अनुयायियों को दलित वर्ग के लोगों को दिए गए आरक्षण का लाभ नहीं मिलता हैइसी प्रकार बौद्ध और ईसाई धर्म के अंतर्गत तो पिछड़ा जैसा भी कोई वर्ग नहीं है। अबतक करीब 17 लाख धर्मांतरित दलित मुसलमानों, 75 लाख धर्मांतरित बौद्धों और 1.9 करोड़ धर्मांतरित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता था।
जातीय आंदोलनों का शमन
कहा यह भी जा रहा है कि इस फैसले से भारत के विभिन्न हिस्सों में जातीय आंदोलनों: गुजरात में पाटीदार आंदोलन, महाराष्ट्र में मराठा आन्दोलन, आँध्रप्रदेश में कापू आन्दोलन और हरियाणा में जाट आंदोलन के उभार के शमन में मदद मिलेगी; यद्यपि हाल में राजस्थान में गुर्जर आन्दोलन का एक बार फिर से उभार इस सोच की सीमाओं की ओर भी इशारा करता है। फिर भी, यह उम्मीद की जा सकती है कि यह सामान्य श्रेणी के अंतर्गत आने वाले अनारक्षित समूह के लोगों में आरक्षित समूहों के प्रति आक्रोश और असंतोष को कम करने में भी सहायक होगा और इससे इन समुदायों के कमजोर तबकों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी। इससे सामाजिक समरसता और सामाजिक सौहार्द्र की पुनर्बहाली संभव हो सकेगी।
वास्तविक लाभ शैक्षिक दृष्टि से बेहतर अनारक्षितों को:
अब अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी आरक्षण के दायरे से बाहर प्रभुत्वशाली कृषक समुदायों, जिनके बच्चे गाँवों में रहते हैं, को भी आर्थिक दृष्टि से कमजोर सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए निर्धारित 10 प्रतिशत के कोटे के अंतर्गत आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। जस्टिस पी. बी. सावन्त ने भी यह स्वीकार किया कि सैद्धांतिक रूप से इसका लाभ सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों के लिए उपलब्ध होगा, पर व्यवहार में सामाजिक दृष्टि से अगड़े वर्ग के लोग अन्य समूहों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करेंगे और वे बढ़त की स्थिति में रहेंगेकारण यह कि व्यवहार में शहर में रहने वाले और बेहतर शिक्षा की सुविधाओं से लाभान्वित होने वाले समूह, जिनकी अंग्रेजी अच्छी है और जो बाहरी दुनिया से कहीं अधिक परिचित है, इस कोटे का लाभ उठा पाने की दृष्टि से बेहतर स्थिति में रहेंगे। इसीलिए इस बात की संभावना कहीं अधिक है कि इस कोटे का लाभ मुख्य रूप से शहरी सवर्णों को मिले। इसकी पुष्टि 8 लाख की उच्च आय-सीमा के निर्धारण से भी होती है जिसके दायरे में गैर-कृषक शहरी सवर्ण कहीं अधिक आते हैं। इसी आशंका के कारण लम्बी बहस के बावजूद संविधान-सभा ने आर्थिक आधार पर आरक्षण से परहेज़ किया। इसी प्रकार यह कहा जा रहा है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों में आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक बदहाल मुस्लिम समुदाय इससे सर्वाधिक लाभान्वित होगा, लेकिन मुस्लिम समुदाय में शिक्षा की स्थिति को देखते हुए ऐसा संभव होना मुश्किल है
आरक्षण के प्रश्न का एक बार फिर से प्रासंगिक होना:
आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण के प्रावधान ने आरक्षण पर होने वाले विमर्श को एक बार फिर से प्रासंगिक बनाया है और उसे नयी दिशा दी है। राजद, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सहित कई राजनीतिक दल, जो सामाजिक न्याय की राजनीति कर रहे हैं, ने ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के नारे के साथ सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना(SECC),2011 के आँकड़ों को सार्वजनिक करते हुए पिछड़ी जातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी हेतु आरक्षण की माँग की है। इस सन्दर्भ में सरकार अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से सम्बंधित आँकड़ों को पहले ही सार्वजनिक कर चुकी है और इसके अनुसार भारत की कुल आबादी में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति क्रमशः 16.6 प्रतिशत और 8.6 प्रतिशत के स्तर पर है, लेकिन अब तक अन्य पिछड़े वर्ग से सम्बंधित आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये गए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य पिछड़े वर्ग के अंतर्गत  अति पिछड़ी जातियों के लिए सब-कोटे के निर्धारण की माँग भी की गयी। इसके कारण एक बार फिर भारत की राष्ट्रीय राजनीति जाति एवं सामाजिक न्याय की राजनीति की ओर वापस मुड़ती दिखाई पड़ रही है। इतना ही नहीं, सार्वजानिक एवं निजी क्षेत्र में कम होते रोजगार-अवसरों के बीच लोकसभा में बिल पर चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री और दलित नेता रामविलास पासवान ने एक बार फिर से निजी क्षेत्र में आरक्षण के प्रश्न को प्रासंगिक बनाया और इस पर चर्चा शुरू हो गयी है।
   
संवैधानिकता को लेकर विवाद

सुप्रीम कोर्ट में याचिका:

उसने कहा है कि:
a.  एकमात्र आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, और
b.  इस विधेयक से संविधान के बुनियादी ढ़ाँचे का उल्लंघन होता है क्योंकि सिर्फ सामान्य वर्ग तक ही आर्थिक आधार पर आरक्षण सीमित नहीं किया जा सकता है और 50 फीसद आरक्षण की सीमा लाँघी नहीं जा सकती।
आर्थिक आधार पर दस फीसद आरक्षण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए गैर-सरकारी संगठन यूथ फॉर इक्वलिटीने इस विधेयक की संवैधानिकता को चुनौती दी। ध्यातव्य है कि गैर-सरकारी संगठन ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ की स्थापना जातिगत आरक्षण के विरोध की बुनियाद पर की गयी थी। इस संगठन की ओर से कौशल कांत मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए 124वें संविधान-संशोधन विधेयक को निरस्त करने का अनुरोध करते हुए कहा गया है कि:
a.  विधयेक संविधान के आरक्षण देने के मूल सिद्धांत के खिलाफ है क्योंकि आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक नहीं हो सकता।
b.  आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिये आरक्षण का यह प्रावधान अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गो को मिलने वाले 49.5 प्रतिशत आरक्षण से अलग है और इसीलिये यह आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा का उल्लंघन करता है।
c.  इस विधेयक से संविधान के बुनियादी ढ़ाँचे का उल्लंघन होता है क्योंकि सिर्फ सामान्य वर्ग तक ही आर्थिक आधार पर आरक्षण सीमित नहीं किया जा सकता है और 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा लाँघी नहीं जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के क्रियान्वयन पर तत्काल रोक लगाने से तो इनकार किया, पर इस फैसले की संवैधानिकता के प्रश्न पर विचार की याचिकाकर्ता की माँग स्वीकार की
न्यायपालिका के संकट का गहराना:
आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिकता के प्रश्न ने न्यायपालिका को दुविधा की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है और यह आशंका जताई जा रही है कि आनेवाले समय में इसके कारण न्यायपालिका का संकट गहराएगा अगर न्यायपालिका 103वें संविधान संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता को स्वीकार करता है, तो यह उस संवैधानिक व्यवस्था को नकारना होगा जिसे लम्बे संघर्ष के बाद बहाल किया गया था, जिसे बहाल करने में खुद उसकी भी भूमिका थी और जिसे व्यापक स्तर पर स्वीकृति प्राप्त थी। अगर न्यायपालिका इस अधिनियम की संवैधानिकता को नहीं स्वीकार करती है, तो उसे सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधक के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा  
जरनैल सिंह वाद,2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि “जो व्यक्ति समान स्थिति में हैं, उनके साथ समान रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए, और जो असमान रूप से स्थित व्यक्तियों के साथ विशिष्ट रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए।” इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में भी क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करने की बात करते हुए कहा कि जो लोग बेहतर स्थिति में हैं, उन्हें आरक्षण के लाभ नहीं मिलने चाहिए। 
संवैधानिकता को लेकर उठते प्रश्न:
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(NDA) सरकार के इस निर्णय ने आरक्षण को लेकर विवाद को एक बार फिर से तूल दिया है। इसने एक साथ कई प्रश्नों को जन्म दिया है जिनमें कुछ प्रश्न संवैधानिक हैं, तो कुछ व्यावहारिक। इन प्रश्नों को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1.  आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं: संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का प्रावधान नहीं है क्योंकि अनु. 15-16 में केवल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन की बात है, न कि आर्थिक पिछड़ेपन की।
2.  आरक्षण की अधिकतम सीमा का अतिक्रमण: सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय कर रखी है, लेकिन सरकार के इस निर्णय के कारण आरक्षण बढ़कर 60 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गया है।
3.  संविधान की मूल भावना, समानता और आरक्षण की बुनियादी अवधारणा के प्रतिकूल: वर्तमान सरकार का यह फैसला संविधान की मूल भावना और आरक्षण की बुनियादी अवधारणा के प्रतिकूल है। यह अनु. (14-16) और अनु. 340 की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है। यह अनु. 14 के द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा होने के बावजूद इसका लाभ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को नहीं मिल पायेगा।
4.  आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए आयोग नहीं: भारतीय संविधान में अनु. 338 के तहत् अनुसूचित जातियों, अनु. 338A के तहत् अनुसूचित जनजातियों और अनु. 339 के तहत् सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया है, लेकिन आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए न तो मूल संविधान में आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है और न ही 124वें संविधान संशोधन के द्वारा ही यह प्रावधान किया गया है
5.  अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का सन्दर्भ: 124वाँ संविधान-संशोधन विधेयक अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले पहलू की अनदेखी करता है जो एम. नागराज वाद,2006 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रतिकूल है यह अनु. 340 की अपेक्षाओं पर भी खरा नहीं उतरता है जो पिछड़ेपन की पहचान के लिए आयोग के गठन की अपेक्षा करता है। इस वाद में सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के सन्दर्भ में तीन शर्तें निर्धारित की थीं:
a.  पिछड़ेपन के सन्दर्भ में मात्रात्मक आँकड़ों की उपलब्धता,
b.  अल्प-प्रतिनिधित्व से सम्बंधित आँकड़ों की उपलब्धता, और
c.  प्रशासनिक सक्षमता पर असर का आकलन  
सुप्रीम कोर्ट ने जरनैल सिंह वाद,2018 में पिछड़ेपन के सन्दर्भ में मात्रात्मक आँकड़ों के संग्रहण की शर्तों में छूट दी, न कि अपर्याप्त प्रतिनिधित्व से सम्बंधित आँकड़ों और प्रशासनिक सक्षमता की शर्तों में छूट
इसी आलोक में सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और मंडल-वाद,1993 में निर्णय देने वाले नौ सदस्यीय संवैधानिक बेंच के सदस्य जस्टिस ए. एम. अहमदी ने सरकार के इस कदम सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के खिलाफ बताते हुए कहा है कि सामान्य श्रेणी के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण का उद्देश्य सिर्फ चुनाव है। जस्टिस अहमदी ने कहा कि:
1.  मण्डल-वाद के निर्णयों के प्रतिकूल: यह संशोधन मंडल वाद अर्थात् इन्द्रा साहनी केस,1992 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णय के भी प्रतिकूल है इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि आर्थिक आधार को आरक्षण का एकमात्र आधार नहीं बनाया जा सकता हैइसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का तर्क यह था कि:
a.  गरीब हो जाने से यह साबित नहीं होता कि सामाजिक बहिष्कार का अपमान झेलना पड़ा हो, इसीलिए आर्थिक मानक अनु. 16 के अंतर्गत नागरिकों को पिछड़ा करार दिए जाने का एकमात्र आधार नहीं हो सकते हैं।
b.  आर्थिक पिछड़ापन राज्य को आरक्षण के लिए अधिकृत कर सकता है, बशर्ते कि वह ऐसे वर्ग के अल्प एवं अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का पता लगाने के लिए मैकेनिज्म को विकसित कर पाने में समर्थ हो। लेकिन, ऐसा समूह अनुच्छेद 16(1) के अंतर्गत नहीं आता है।”
2.  अधिकतम आरक्षण-सीमा के जरिये आरक्षण के प्रश्न के राजनीतिकरण पर अंकुश लगना: सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 50 प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण-सीमा इसलिए सुनिश्चित की गई, ताकि कोई भी पार्टी महज चुनाव जीतने के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला न ले सके। इस मामले में 50 प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण-सीमा निर्धारित करते हुए संविधान-पीठ के बहुमत ने कहा: “यद्यपि संविधान विशेष रूप से कोई सीमा-रेखा नहीं निर्धारित करता है, तथापि आनुपातिक समानता के खिलाफ होने के कारण समानता को संतुलित करने वाला संवैधानिक दर्शन यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी तरीके से आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो।” 
3.  आधिकतम आरक्षण-सीमा से छूट आर्थिक आधार पर आरक्षण के सन्दर्भ में लागू नहीं: संविधान-पीठ ने अनु. 16(4) के सन्दर्भ में 50 प्रतिशत के इस नियम को प्रस्तावित करते हुए भारत और यहाँ के लोगों की विविधता के मद्देनज़र असाधारण परिस्थितियों में आपवादिक रूप से इससे छूट की प्रस्तावना करते हुए कहा, ऐसा हो सकता है कि दूर-दराज के सीमान्त इलाकों में रहने वाली आबादी, जो राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से बाहर हो, और इनकी स्थिति एवं इनकी विशेषताओं के मद्देनज़र उनके साथ अलग तरीके से व्यवहार किये जाने की ज़रुरत हो; ऐसी स्थिति में 50 प्रतिशत की निर्धारित सीमा को सख्ती से लागू करने की बजाय इसमें छूट अपेक्षित होगी। लेकिन, ऐसा करते हुए अतिरिक्त सतर्कता अपेक्षित है और ऐसा विशेष मामले में ही हो।”  
यही वजह है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी ने इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करार दिया है। मण्डल-वाद में याचिकाकर्ता इन्द्रा साहनी ने भी इस अधिनियम की विसंगतियों की ओर इशारा करते हुए इस संशोधन को मंडल-वाद में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों के प्रतिकूल बतलाया। उनका कहना है कि:
1.  मूल ढाँचे का अतिक्रमण: 124वाँ संविधान-संशोधन अधिनियम  मूल ढाँचे का हिस्सा माने जाने वाले अनु. 14-15 की मूल भावनाओं का अतिक्रमण करता है यह आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान करता हुआ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अन्य पिछड़े वर्ग से सम्बद्ध नागरिकों को आर्थिक आधार पर दिए जानेवाले आरक्षण के लाभों से वंचित करता है अबतक उन्हें जिस आरक्षण का लाभ मिल रहा है, वह सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया है इसी आधार पर उन्होंने 124वें संविधान-संशोधन को मूल ढाँचे का उल्लंघन और तदनुरूप असंवैधानिक माना है
2.  ‘आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग’ अपरिभाषित: इस संशोधन के साथ समस्या यह भी है कि इसमें ‘आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग’ को परिभाषित नहीं किया गया है। इसे परिभाषित करने का काम राज्यों पर छोड़ा गया है, इसीलिए इस बात कि पूरी संभावना है कि सभी राज्य इसे अपने-अपने तरीके से परिभाषित करें जो कई प्रकार की समस्याओं को जन्म देगी।   
3.  नागराज-वाद,2006 के निर्णयों के प्रतिकूल: आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के इन दावों के समर्थन के लिए सरकार के पास न तो अपेक्षित आँकड़े हैं और न ही यह सन् 2006 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुरूप है। ध्यातव्य है कि सन् 2006 के नागराज मामले में पदोन्नति में आरक्षण के सन्दर्भ में निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “सरकार उपलब्ध आँकड़ों के आलोक में ही आरक्षण दे सकती है।” लेकिन, आरक्षण की दिशा में इस पहल के पहले सरकार के द्वारा आँकड़ा इकठ्ठा करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।   
सरकार का तर्क:
103वें संविधान-संशोधन अधिनियम की संवैधानिकता को लेकर उठते प्रश्नों के आलोक में केंद्र सरकार ने अपने निर्णय का यह कहते हुए बचाव किया कि 50 प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण-सीमा अनु. 16(4) अर्थात् सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के सन्दर्भ में लागू होता है,  न कि इससे भिन्न आधारों पर आरक्षण के सन्दर्भ में।
सरकार के इस तर्क से जस्टिस पी. बी. सावन्त भी सहमत हैं उनका भी यह मानना है कि यह अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से नहीं टकराता है। ध्यातव्य है कि जस्टिस अहमदी की तरह जस्टिस सावन्त भी सन् 1992 के ऐतिहासिक निर्णय देने वाली पीठ के सदस्य रहे हैं और उस ऐतिहासिक निर्णय में बहुमत के पक्ष से सहमत रहे हैं  जस्टिस सावन्त ने उन तकनीकी पहलुओं का हवाला देते हुए कहा कि:
1.  न तो समानता की मूल भावना के प्रतिकूल और न ही मूल ढाँचे का उल्लंघन: चूँकि आर्थिक आधार पर आरक्षण का लाभ सभी जातियों, सभी वर्गों और सभी मजहबों से आनेवाले लोगों के लिए उपलब्ध होगा, इसीलिए यह न तो समानता की मूल भावना के प्रतिकूल है और न ही मूल ढ़ाँचे का उल्लंघन नहीं करता है।
2. संविधान-संशोधन के जरिये तकनीकी अपेक्षाओं को पूरा करना शर्तों: यह सच है कि संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता है, लेकिन अब 124वें संविधान-संवोधन अधिनियम के जरिये:
a.  संविधान में अनु. 16(6) जोड़ते हुए आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करते हुए इस तकनीकी बाधा को दूर कर दिया गया है, और  
b. मंडल-वाद में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण-सीमा को अप्रभावी बनाते हुए इससे अधिक आरक्षण का मार्ग भी प्रशस्त किया गया है
3.  अधिकतम आरक्षण-सीमा सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए, न कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए: जस्टिस सावन्त सरकार के इस तर्क से सहमत हैं कि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस सीमा का निर्धारण सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों के सन्दर्भ में था, न कि आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के आरक्षण के सन्दर्भ में, क्योंकि उस समय संविधान में आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी
लेकिन, उन्होंने भी संशोधित प्रावधानों के दुरूपयोग की आशंका जताते हुए यह कहा कि कार्यपालिका तकनीकी पहलुओं का सहारा लेकर यह साबित करने की कोशिश कर सकती है कि अब आरक्षण की कोई ऊपरी सीमा नहीं है और ऐसी स्थिति में आरक्षण की सीमा को 60 प्रतिशत से अधिक बढ़ाये जाने के स्कोप बने रहेंगे।
निजी शिक्षण-संस्थानों में आरक्षण की वैधानिकता का प्रश्न:
यह अधिनियम अनु. 19(1g) द्वारा सुनिश्चित व्यवसाय एवं कारोबार की स्वतंत्रता का उल्लंघन है क्योंकि इसके अंतर्गत 10 प्रतिशत के आरक्षण का विस्तार निजी शिक्षण-संस्थानों तक किया गया है और इसीलिए इस आरक्षण को निजी शिक्षण-संस्थानों में भी लागू किया जाना है। प्रोफेशनल एवं डिग्री एजुकेशन के लिए मौलिक अधिकारों को सीमित करना उचित नहीं है। सन् 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय शिक्षा संस्थाएँ (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम,2006 की वैधानिकता को चुनौती से सम्बंधित अशोक कुमार ठाकुर बनाम् भारत संघ वाद,2008 में सरकारी धन से सम्पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा से सम्बंधित सरकार की पहल की वैधानिकता को पुष्ट किया था, लेकिन पूर्णतः निजी पूँजी द्वारा पोषित निजी शिक्षण-संस्थानों में आरक्षण के मसले पर यह कहते हुए बचने की कोशिश की कि निजी संस्थानों में आरक्षण से सम्बंधित कानून बनने पर ही उसके द्वारा इस मसले पर विचार किया जाएगा। अब जबकि 10 प्रतिशत आरक्षण को निजी शिक्षण-संस्थानों पर भी लागू किया जाना है, एक बार फिर से इस कदम की संवैधानिकता का प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उपस्थित होगा और इस बार सर्वोच्च न्यायालय के पास बचकर निकलने के विकल्प नहीं हैं।
संवैधानिकता का विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों एवं आपत्तियों के आलोक में यदि इस अधिनियम की संवैधानिकता का विश्लेषण करें, तो हम पाते हैं कि इसकी अपनी विसंगतियाँ हैं जिन्हें निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:
1.  जिस समय सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया, उस समय सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था थी, बस इसके लिए शर्त यह थी कि वह खास वर्ग खुद को अन्य वर्गों के मुकाबले सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ साबित करे। स्वाभाविक था कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भी उसी आलोक में आये। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आरक्षण के सन्दर्भ में है, न कि शैक्षिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़ों के आरक्षण में। अतः इस तकनीकी पहलू को आधार बनाकर पचास प्रतिशत की सीमा को आर्थिक आधार पर आरक्षण के सन्दर्भ में अप्रासंगिक एवं अप्रभावी बतलाना उचित नहीं है।
2.  सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला समग्रतः आरक्षण के सन्दर्भ में आया, न कि जाति-आधारित आरक्षण के सन्दर्भ में। यहाँ तक कि मंडल वाद,1993 में सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने यह स्पष्ट किया था कि जाति अपने आप में आरक्षण का आधार नहीं बन सकती। उसमें दिखाई देना चाहिए कि पूरी जाति शैक्षणिक-सामाजिक रूप से बाकियों से पिछड़ी हुई है।
3.  अपने इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि आमतौर पर पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि सामाजिक न्याय और योग्यता एवं प्रतिभा के बीच संतुलन को बनाये रखा जाना चाहिए; यद्यपि यह भी सच है कि किसी विशेष कारणवश तमिलनाडु में अड़सठ फीसद तक आरक्षण दिया जा रहा है। उसी को आधार बना कर पिछले दिनों राजस्थान में भी आरक्षण की सीमा को बढ़ा कर अड़सठ फीसद कर दिया गया।
इसे संविधान-निर्माताओं की अपेक्षाओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों तक के आलोक में देखा जा सकता है संविधान-सभा की बहस के दौरान डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने विशेष रूप से कहा था कि “अवसर की समानता के लिए यह आवश्यक होगा कि आरक्षण सीटों की अल्पसंख्या के लिए केवल उन पिछड़े वर्गों के पक्ष में होना चाहिए जिनका राज्य में अब तक समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।” सितम्बर,1962 में एम. आर. बालाजी बनाम् स्टेट ऑफ मैसूर वाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि “किसी भी स्थिति में रिजर्वेशन 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।” इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान-पीठ ने इंद्रा साहनी वाद,1993 में भी बरकरार रखा। सन् 1993 में संविधान-पीठ में शामिल जस्टिस थोम्मेन ने कहा था कि “आरक्षण के प्रतिपूरक पहलू (Compensatory Aspect) पर अतिशय जोर देने और आरक्षण के दायरे का विस्तार करते हुए बहुलांश(Majority) में पदों को इसके दायरे में लाया जाना एक प्रकार से अत्यधिक एवं प्रतिक्रियात्मक/रिवर्स भेदभाव होगा जो कटुता बढ़ाने वाला साबित होगा।”
औचित्य एवं विश्लेषण
जनवरी,2019 में केंद्र सरकार ने 124वें संविधान-संशोधन विधेयक के जरिये आरक्षण को नए परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित करते हुए उन समुदायों को साधने की कोशिश की है जो देश के विभिन्न हिस्सों में आरक्षण की माँग के जरिये अपनी चिंताओं का समाधान चाह रहे हैं लेकिन, उसका यह प्रयास उसके लिए भारी मुसीबत का सबब बन सकता है, क्योंकि इस क्रम में सरकार ने इस बात को भुला दिया कि उच्च जातियाँ न तो सामाजिक अन्याय का शिकार रही हैं और न ही इन्हें किसी प्रकार के शोषण का सामना करना पड़ा है। इतना ही नहीं, यह संशोधन सरकार में बैठे लोगों की सामंती पुरुष-प्रभुत्ववादी मानसिकता की ओर भी इशारा करता है जहाँ आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रश्न पर सारी औपचारिकतायें 72 घंटे में पूरी कर ली गईं, वहीं महिला-आरक्षण के मसले पर पिछले 22 वर्षों से विचार किया जा रहा है और पिछले आठ वर्षों से यह राज्यसभा से पारित होने के बावजूद लोकसभा से पारित होने की बाट जोह रहा है, पर हमारे रहनुमाओं की नज़र उधर जा ही नहीं पा रही है 
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जिन लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है, उनके सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन के लिए वह सामाजिक व्यवस्था जिम्मेवार है जिसके बीज ऋग्वेद के दशम मंडल के पुरुष-सूक्त में मिलते हैं और जिसके भेदभावकारी स्वरुप को मनु-स्मृति ने संस्थागत रूप प्रदान किया। इसी भेदभावकारी व्यवस्था ने समाज के एक हिस्से को, जिन्हें शूद्र कहा गया और बाद में जिनके बीच से अछूतों का उदय हुआ, शिक्षा एवं शास्त्र से वंचित रखते हुए उन पर तमाम निर्योग्यतायें थोपीं और उन्हें राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुँचाते हुए बुनियादी अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित रखा। लेकिन, यही बातें आर्थिक रूप से पिछड़े हुए एवं कमजोर लोगों के लिए नहीं कही जा सकती हैं। उन्हें आरक्षण की नहीं, आर्थिक सुविधाओं एवं प्रोत्साहन की ज़रुरत है, ताकि आर्थिक संसाधनों के अभाव में उनकी योग्यताओं एवं प्रतिभाओं की अनदेखी न हो, या इसके कारण वे अलक्षित न रह जाएँ। पर, इनकी इस चिंता से यह पूरा-का-पूरा तंत्र बेखबर है। उसकी पूरी-की-पूरी कोशिश सार्वजनिक शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के तंत्र को ध्वस्त करने की है, ताकि शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश को लाभदायक बनाते हुए उसे कमाई के जरिये में तब्दील किया जा सके। इसीलिए आर्थिक आधार पर कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण के प्रश्न पर किसी भी चर्चा के लिए यह समझना आवश्यक है कि आरक्षण आर्थिक बीमारी और आर्थिक बदहाली का इलाज नहीं है। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में प्रतिनिधित्व का आधार समाज की जातियाँ हैं, न कि आर्थिक पिछड़ापन। इसलिए प्रतिनिधित्व और आर्थिक पिछड़ेपन के बीच के फर्क को समझना होगा। समस्या अगर आर्थिक है, तो उसका समाधान भी आर्थिक नीतियों में ढूँढा जाना चाहिए, न कि सामाजिक नीतियों में; अन्यथा यह कई नयी समस्याओं को जन्म देगा। आर्थिक आधार पर आरक्षण उन सामाजिक अंतरालों को कम करने की बजाय बनाये रखने में सहायक होगा जिनको पाटने के लिए सामाजिक उपकरण के रूप में आरक्षण की संकल्पना सामने लाई गयी।
मूल समस्या को समझने की ज़रुरत: आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की पृष्ठभूमि में नए सामाजिक विभाजन का गहराना:
मूल प्रश्न यह है कि भारत में ग्रामीण-शहरी विभाजन के रूप में एक नया सामाजिक विभाजन आकार ग्रहण कर रहा है और आर्थिक उदारीकरण के पिछले ढ़ाई दशक के दौरान ग्रामीण क्षेत्र, कृषि-क्षेत्र एवं किसानी की उपेक्षा की पृष्ठभूमि में यह विभाजन गहराता चला गया है। कृषि अलाभकारी पेशे में तब्दील हो चुका है जिसके कारण किसान अपने बच्चों के लिए बेहतर बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवा पाने में असमर्थ हैं और सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर आर्थिक एवं सामाजिक अवसंरचना की उपलब्धता को लेकर बहुत गंभीर नहीं दिखाई पड़ती है। इस सामाजिक विभाजन को ठोस आधार देते हुए सार्वजानिक शिक्षा एवं सार्वजानिक स्वास्थ्य की ध्वस्त होती व्यवस्था ने   ग्रामीण भारत एवं उसमें रहने वाले लोगों को अलाभकारी स्थिति में पहुँचाया है और समय के साथ उन पर शहरों में रहने वाले लोगों की बढ़त भारी पड़ती जा रही है इसलिए यह कहा जा सकता है कि ग्रामीण भारत में रहने वाली आबादी शहरी भारत में रहने वाली आबादी की तुलना में लगातार पिछड़ती चली जा रही है और उनके सापेक्ष इन्हें सामाजिक रूप से अलाभकारी स्थिति में रहना पड़ रहा है
इसके परिणामस्वरूप शिक्षा से लेकर रोजगार तक इनकी भागीदारी का स्तर गिरता जा रहा है। महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के अनुसार तीन-चौथाई से कहीं अधिक मराठा-परिवार (76.86 प्रतिशत) अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन राज्य की 30 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले इस समुदाय में 7.5 प्रतिशत लोगों के पास टेक्निकल/प्रोफेशनल डिग्री है। इस समूह को गैर-कृषि कार्यों के लिए सक्षम बनाना और इसके मद्देनज़र इनके लिए आसान शर्तों पर पारंपरिक के साथ-साथ तकनीकी एवं प्रोफेशनल शिक्षा की बेहतर व्यवस्था न केवल कृषि पर जनसंख्या के दबाव को कम करने और इसे लाभकारी बनाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, वरन् आकार ग्रहण करते एवं गहराते नए सामाजिक विभाजन कोजिन चिंताओं को जन्म दे रहा है, उन चिंताओं के समाधान की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। लेकिन, यह तब संभव होगा जब राज्य शहरी मध्यम वर्ग के प्रति अपनी पक्षधरता को छोड़कर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले कृषक समुदाय के लोगों के प्रति अपनी संवेदनशीलता प्रदर्शित करे और उनके हितों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए सकारात्मक नीतिगत हस्तक्षेप करे; अन्यथा किसान एवं किसानी की स्थिति बिगड़ती चली जायेगी और उनका संकट गहराता चला जाएगा। ऐसी स्थिति में किसानों के बच्चे या तो खेती के अलाभकारी होने के बावजूद उससे जुड़े रहने के लिए बाध्य होंगे, या फिर वे अधिक-से-अधिक शहरों में प्राइवेट सिक्यूरिटी फोर्सेज से लेकर चपरासी की नौकरी के लिए उपयुक्त रह जायेंगे। और, फिर ग्रामीण-शहरी भारत का विभाजन गहराता हुआ संस्थागत रूप लेगा और विशाल दैत्य की भाँति भारतीय समाज के सामाजिक-धार्मिक सौहार्द्र को लीलने को तत्पर होगा।
ऐसा नहीं कि गरीबी शहरी क्षेत्रों में नहीं है, पर शहरी सवर्णों में मौजूद व्यक्तिगत गरीबी उन असाधारण परिस्थितियों का निर्माण नहीं करते जिनमें अदालत के द्वारा आरक्षण के लिए निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के अतिक्रमण की इजाजत दी गयी है। ऐसी ही बातें ग्रामीण गरीबों के लिए नहीं कही जा सकती है जो आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से बहिष्करण के शिकार एक समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन, समस्या यह है कि आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान और इसके लिए स्पष्ट एवं पारदर्शी मैकेनिज्म का विकास आसान नहीं है।
भविष्य की संभावना:
संभव है कि राज्य समानता वाले प्रावधान पर जोर देते हुए उसके परिप्रेक्ष्य में अधिनियम का औचित्य साबित करे सन् 1975 में जस्टिस के. के. मैथ्यु ने अनु. 14 को मूल ढ़ाँचा का हिस्सा मानने से इन्कार करते हुए कहा कि समानता एक बहुरंगी अवधारणा है जिसकी कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती है। फिर भी, एक अवधारणा के रूप में समानता मूल ढ़ाँचे का हिस्सा है और यह इस बात से भी पुष्ट होता है कि संविधान की प्रस्तावना प्रतिष्ठा एवं अवसरों की समता के साथ-साथ सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की बात करती है। लेकिन, इस सबके लिए ग्यारह सदस्यीय संविधान पीठ का गठन करना होगा क्योंकि उसी के द्वारा इंद्रा साहनी वाद में अदालत के द्वारा दिए गए निर्णय को पलटा जा सकता है।