आरक्षण की समीक्षा
भारत के सामने मौजूद
चुनौतियाँ:
वर्तमान में भारत उग्रवाद, आतंकवाद,
अलगाववाद एवं नक्सलवाद की चुनौतियों का सामना कर रहा है और इन चुनौतियों के मूल
में मौजूद है सामाजिक-आर्थिक वैषम्य, जिसके तार कुछ हद तक भारत की सामाजिक संरचना
से जुड़े हुए हैं। इसे दलितों, महिलाओं, एवं आदिवासियों के
परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जा सकता है। इसके
अतिरिक्त अल्पसंख्यक मुसलमानों का बहिष्करण और इस कारण उनका मुख्यधारा से कटा होना
भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है जिसके तार सामाजिक संरचना, ऐतिहासिक विरासत और गलत
विकास-रणनीतियों से जुड़े हुए हैं। इतना ही नहीं, पिछले तीन दशकों के दौरान अपनाई
गयी आर्थिक नीतियों के एक नए स्तर पर सामाजिक बहिष्करण को जन्म दिया है जिसे
गहराते ग्रामीण-शहरी विभेद और भारत-इंडिया अंतरालों के परिप्रेक्ष्य में देखा और
समझा जा सकता है।
यह वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत जनांकिकीय संक्रमण की दूसरी अवस्था से
गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में यदि उसे जनांकिकीय लाभांश (Demographic Devidend)
द्वारा सृजित संभावनाओं का दोहन करना है, तो उसे उन चुनौतियों से निबटते हुए अपने
जन-संसाधन को मानव-संसाधन में तब्दील करना होगा जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है। इसके
जरिये जनसंख्या के इस हिस्से में निहित विकास-संभावनाओं का दोहन अपेक्षित है,
अन्यथा जनांकिकीय लाभांश अवसर न रहकर चुनौती में तब्दील हो जाएगा। आज भी अनुसूचित
जाति(SC), अनुसूचित जनजाति(SC), अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC), मुस्लिम अल्पसंख्यक और
महिला आबादी का बड़ा हिस्सा मुख्यधारा से कटकर हाशिये पर पड़ा हुआ है और इसके कारण
उसमें निहित विकास-संभावनाओं का दोहन संभव नहीं हो पा रहा है। अगर उनमें निहित
विकास-संभावनाओं का दोहन करना है, तो इसके लिए एक समेकित नजरिया अपनाना होगा। इस
समेकित नज़रिए में आरक्षण को भी जगह देनी होगी, पर सिर्फ आरक्षण से कुछ नहीं होने
वाला है। इसके पूरक कदम भी अपेक्षित होंगे जिसके जरिये आरक्षण के लाभों को और
आरक्षण के परिणामों को अपेक्षाकृत ठोस आधार देना होगा।
यही वह पृष्ठभूमि में है जिसमें आरक्षण और इससे सम्बंधित मुद्दे आकार
ग्रहण कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से जिस तरह
आरक्षण का लाभ कुछ विशिष्ट जातियों तक सिमट रहा है, आरक्षण का विरोध हो रहा है और
कई मध्यवर्ती जातियाँ आरक्षण हेतु अपनी दावेदारी पेश कर रही हैं, उस पृष्ठभूमि में
आरक्षण की समीक्षा, पिछड़ी जातियों के वर्गीकरण और
आर्थिक आधार पर आरक्षण के मसले का उभरकर सामने आना अस्वाभाविक नहीं है। इतना ही नहीं, आरक्षण के बावजूद उच्च स्तर पर सरकारी
सेवाओं में अनुसूचित
जाति(SC), अनुसूचित जनजाति(SC) एवं अन्य पिछड़े वर्ग(OBC) की समुचित एवं पर्याप्त
भागीदारी अबतक संभव नहीं हो पायी है। साथ ही, राज्य भी इसको लेकर गंभीर नहीं हैं
जिसके कारण प्रोन्नति में आरक्षण का
प्रश्न लगातार चर्चा में बना हुआ है। इसी प्रकार
आधी आबादी के बड़े हिस्से की विकास-संभावनाओं का अबतक दोहन संभव नहीं हो पाया है और
इसके मद्देनज़र महिला-आरक्षण का मुद्दा
लगातार चर्चा में बना हुआ, अब यह बात अलग है कि सामंती पुरुष-प्रभुत्ववादी
मानसिकता के कारण हाल-फिलहाल ऐसा होता संभव नहीं दिखता है।
इतना ही नहीं, अल्पसंख्यक मुसलमानों को भी राष्ट्र एवं समाज की
मुख्यधारा से जोड़ा जाना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए आवश्यक है क्योंकि उनकी
भी स्थिति दलितों की भाँति है। सच्चर समिति की रिपोर्ट इस ओर इशारा करती है और
रंगनाथ मिश्रा आयोग ने भी इस प्रश्न पर विचार किया है। वर्तमान में पिछड़े
मुसलमानों को ओबीसी कोटे के अंतर्गत मिलने वाले आरक्षण का लाभ तो मिलता है, दलित
मुसलमानों को नहीं। अब समस्या यह है कि उन्हें उस आरक्षण के लाभ अपेक्षित रूप से
नहीं मिल पा रहे और भारतीय संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता
है। इस पृष्ठभूमि में उस रास्ते की तलाश करनी होगी जिसके जरिये उन्हें मुख्यधारा
से जोड़ा जा सके। ऐसा आरक्षण के जरिये भी संभव है और बिना आरक्षण दिए भी, इसीलिए
महत्वपूर्ण आरक्षण नहीं, महत्वपूर्ण है इन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाना। इस
पृष्ठभूमि में अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए आरक्षण
का मसला रह-रहकर जोर पकड़ता है।
समग्रतः
यह कहा जा सकता है कि आज देश उस मोड़ पर खड़ा है जहाँ आरक्षण
की रणनीति और आरक्षण के मॉडल की समीक्षा करते हुए इसे पुनर्परिभाषित किए जाने एवं वर्तमान की जरूरतों
के अनुरूप ढ़ाले जाने की ज़रुरत है। साथ ही, आवश्यकता इस बात की भी है कि जिस तरह से
सार्वजानिक क्षेत्र में रोजगार के अवसर सीमित होते चले गए हैं और इसने आरक्षण की
नीति को ही अप्रासंगिक बनाने का काम किया है, उसके मद्देनज़र निजी-क्षेत्र में भी
आरक्षण की संभावनाओं पर विचार किया जाए और शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार के पूरक
कदमों के जरिये आरक्षण की नीति को समर्थन प्रदान किया जाए।
आरक्षण को लेकर तेज होती बहस:
बहरहाल,
संविधान-निर्माताओं ने ऐतिहासिक कारणों से समाज के वंचित और शोषित जाति-समुदायों
के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल
करने के मकसद से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था के जरिए अवसर सृजित करने की कोशिश
की थी, लेकिन पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान इस मसले का राजनीतिकरण हो चुका है और
आज यह वोट-बैंक की राजनीति का हिस्सा बनकर जातीय महत्वाकांक्षाओं को उत्प्रेरित कर
रहा है। आरक्षण की माँग और उसके विरोध के लगातार उग्र होते जाने की सबसे बड़ी वजह
जॉबलेस ग्रोथ के साथ-साथ सरकार के द्वारा कृषि-क्षेत्र की उपेक्षा रही है जिसके
कारण कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों की आर्थिक बदहाली बढ़ी है और इसने इस पर निर्भर
समुदायों में जिस असंतोष को जन्म दिया है, वही असंतोष आज विभिन्न तरीके से मुखर
होकर समाज एवं देश के लिए परेशानियाँ खड़ी कर रहा है। यही कारण है कि जो समुदाय या
राजनीतिक दल कभी आरक्षण की इस व्यवस्था का मुखर होकर या दबे स्वरों में विरोध करते
थे, वे भी पिछले कुछ वर्षों से इसके राजनीतिक फायदे देखकर इसके मुरीद हो गए हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें आज प्रश्न राजनीतिक हो, या आर्थिक, या फिर सामाजिक:
इन तमाम प्रश्नों के उत्तर आरक्षण के जरिये तलाशने की प्रवृत्ति जोर पकड़ी है, और इसने
आर्थिक आधार पर आरक्षण के प्रश्न को जन्म दिया है। पिछले एक दशक के दौरान इसकी
माँग तेज़ होती चली गयी और इसने आरक्षण के प्रश्न को
समाज एवं राजनीति के समक्ष मौजूद एक जटिल प्रश्न के रूप में तब्दील कर दिया। यही
वह पृष्ठभूमि है जिसमें आरक्षण को लेकर बहस एक बार फिर से तेज होती चली गयी और
वोट-बैंक की राजनीति के कारण राजनीतिक दलों ने भी अपने-अपने तरीके एवं अपने
राजनीतिक लाइन के अनुरूप इस बहस को जारी रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
दरअसल पिछले दशक के दौरान आरक्षण के
मसले पर सवर्ण समुदाय की मुखरता बढ़ी है
और उसने सत्तारूढ़ गठबंधन से अपनी निकटता एवं अपने राजनीतिक प्रभावों का इस्तेमाल
करते हुए इस बहस की दिशा को निर्धारित करने की कोशिश की है। इस क्रम में केंद्र
सरकार के द्वारा पिछड़े वर्ग पर राष्ट्रीय आयोग को भंग करने, उसकी जगह संवैधानिक
संस्था के रूप में पिछड़े वर्ग पर राष्ट्रीय आयोग(NCBC) के गठन और अन्य पिछड़े
वर्ग(OBC) की स्थिति की समीक्षा एवं वर्गीकरण के लिए जस्टिस जी. रोहिणी की
अध्यक्षता में आयोग के गठन के निर्णय से भी इस आशंका को बल मिला। सन् 2018 में
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 के
सन्दर्भ में जो मार्गनिर्देश जारी किये हैं और जिसके तहत् तत्काल गिराफ्तारी पर
रोक लगते हुए इसे गैर-जमानती से जमानती अपराध में तब्दील किया गया है, दलितों के
शोषण एवं उत्पीड़न की घटनाओं में तीव्र वृद्धि की पृष्ठभूमि में उसने भी इस बहस को तल्ख
तेवर प्रदान किया।
इस
पृष्ठभूमि में समाज का एक तबका संविधान में संशोधन करते हुए जातिगत आरक्षण को
समाप्त कर आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग कर रहा है, जबकि संविधान केवल सामाजिक और
शैक्षिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार मानता है। इतना ही नहीं, हाल में सामाजिक
दृष्टि के प्रभुत्वशाली और आर्थिक दृष्टि से अपेक्षाकृत बेहतर इन मध्यवर्ती
जातियों के द्वारा आरक्षण हेतु चलाये जा रहे आन्दोलन को समाज का एक तबका संदेह की
दृष्टि से देखता है और उसे यह लगता है कि इसके जरिये आरक्षण को अप्रासंगिक बनाने
की साजिश की जा रही है। हाल में सोशल मीडिया की बढ़ती हुई भूमिका और
धार्मिक-सांप्रदायिक विद्वेष के साथ-साथ जातिगत विद्वेष एवं घृणा के प्रचार-प्रसार
के लिए इसके इस्तेमाल ने भी इन आशंकाओं को बल प्रदान किया है। यही वह पृष्ठभूमि है
जिसमें आरक्षण के औचित्य और प्रासंगिकता पर पुनर्विचार की ज़रूरत है। इस क्रम में
इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आरक्षण की माँग और उसके विरोध के लगातार
उग्र होते जाने की सबसे बड़ी वजह सरकार की विकास-रणनीतियाँ रहीं, जो सबों के
लिए रोज़गार उपलब्ध करवा पाने में असमर्थ
रही।
आरक्षण की समीक्षा का सवाल:
बहरहाल,
संविधान-निर्माताओं ने ऐतिहासिक कारणों से समाज के वंचित और शोषित जाति-समुदायों
के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल
करने के मकसद से संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की, निश्चय ही उसने इन सामाजिक
समूहों के समावेशन एवं सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन, यह भी सच है
कि यह व्यवस्था संविधान-निर्माताओं की अपेक्षाओं पर खरी उतर पाने में असमर्थ रही। जिन लोगों को इसका लाभ भी मिला, वे उस समूह के महज एक
छोटे से हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही, पूरक पहलों की अनुपस्थिति, या
फिर उसकी अप्रभाविता की पृष्ठभूमि में उन सामाजिक समूहों की सारी समस्याओं का हल भी संभव नहीं हो पाया। प्रमाण है आरक्षण-व्यवस्था के करीब-करीब सत्तर साल बाद भी
दलितों और आदिवासियों के लिए सरकारी शिक्षण-संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में
आरक्षण की आवश्यकता। इसका मतलब यह है कि आरक्षण
अपने मूलभूत उद्देश्यों को हासिल करने में काफी हद तक नाकाम रहा है, और इसीलिये
इसे जारी रखने के पहले इस पर पुनर्विचार एवं इसकी गंभीर समीक्षा की आवश्यकता है।
इतना ही नहीं, पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान आरक्षण के प्रश्न के
राजनीतिकरण ने इसे वोटबैंक की राजनीति के प्रभावी उपकरण में तब्दील कर दिया और सभी
राजनीतिक दल इसकी आड़ में अपने राजनीतिक हितों को साधने की कोशिश में लगे हुए हैं। उनकी इसी कोशिश ने विभिन्न जातीय समुदायों में भी नई
महत्वाकांक्षाएँ जगाई जिसके कारण आरक्षण की राजनीति तेज़ हुई और आरक्षण की समीक्षा
का प्रश्न जोर पकड़ा।
इसीलिए आरक्षण की समीक्षा की बात बिल्कुल तर्कसंगत और समय की माँग के
अनुरूप है। अब इस प्रश्न पर विचार का समय आ चुका है कि:
a.
जिन लोगों को ध्यान में रखते हुए संविधान-निर्माताओं ने आरक्षण का
प्रावधान किया था, उन लोगों तक उसका लाभ कहाँ तक पहुँचा है?
b.
जिन अपेक्षाओं के साथ और जिन उद्देश्यों से संविधान-निर्माताओं ने
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया था, वे अपेक्षाएँ कहाँ तक पूरी हुईं और वे उद्देश्य कहाँ तक हासिल हुए?
c.
कैसे आरक्षण के लाभों को जरूरतमंद लोगों तक सीमित किया जा सके और अवांछित लोगों को, या फिर उन
लोगों को, जिन्हें इसकी ज़रुरत नहीं है, इसका लाभ उठाने से रोका जा सके?
d.
कैसे आरक्षण-मॉडल
की समीक्षा करते हुए इसका बेहतर लक्ष्यीकरण संभव है? इसके मद्देनज़र आरक्षण हेतु एक समय-सीमा भी निर्धारित किया जाय।
e.
इसके बेहतर एवं वांछित परिणामों को सुनिश्चित करने के लिए अन्य कौन-से पूरक कदम अपेक्षित हैं?
आरक्षण की समीक्षा के क्रम में इस बात को भी ध्यान में रखा जाना
चाहिए कि:
1.
जहाँ देश में समय के साथ रोटी एवं बेटी के सम्बन्ध पर आधारित जातिगत
बंधन कमजोर हो रहे हैं, वहीं आरक्षण ने जाति के राजनीतिकरण की प्रक्रिया को तेज
करते हुए जातिवादी राजनीति की जड़ों
को गहराने का काम किया
है। इसके कारण सामाजिक मुश्किलें भी बढ़ी हैं और इसका प्रतिकूल असर सामाजिक सौहार्द्र पर पड़ रहा है।
2.
आरक्षण के कारण योग्यता एवं प्रतिभा की अनदेखी होती है, इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी एकाधिक अवसरों
पर स्वीकार है। अदालत ने यहाँ तक कहा है कि अनिश्चित एवं अनन्त समय तक आरक्षण की
अनुमति नहीं दी जा सकती है।
3.
किसी भी आरक्षित-समूह में आरक्षण का लाभ उसके अंतर्गत शामिल कुछ समुदायों और उनमें भी उस
समुदाय के एक हिस्से तक सीमित रहा है। उदाहरण के लिए अन्य पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण के लाभ
अधिकांशतः यादव, कोइरी, एवं कुर्मी तक, दलित आरक्षण के लाभ अधिकांशतः जाटव एवं
पासवान तक; और अनुसूचित जनजातियों के लिए दिए जाने वाले आरक्षण के लाभ अधिकांशतः
मीणाओं तक सीमित रहे हैं।
4.
अबतक आरक्षित समूहों के अंतर्गत नयी जातियों को अधिसूचित तो किया
जाता रहा है, पर उसके अंतर्गत शामिल उन जातियों को बाहर निकालने की कोई परिपाटी नहीं रही है जो आरक्षण के लाभों की बदौलत बेहतर स्थिति में पहुँच
चुके हैं। इसीलिये नियमित अंतरालों पर इस
सूची की समीक्षा की ज़रुरत है ताकि आरक्षण का
लाभ उठाकर बेहतर स्थिति में पहुँच चुकी जातियों को इस सूची से बाहर किया जा सके और
अपेक्षाकृत अधिक जरूतमंद लोगों एवं समूहों तक इसके लाभों को सुनिश्चित किया जा
सके।
5.
आरक्षण लागू होने के बाद से लेकर अब तक आबादी में निरंतर बढ़ोतरी हो
रही है, पर सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार-अवसरों की उपलब्धता
बढ़ाने की बजे कम हुई है। इसलिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किये जाने और इस
प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की संभावनाओं पर विचार किया जाए।
6.
भारतीय संविधान में जब सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण
का प्रावधान और इसके जरिये सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया, तो इसके पीछे मंशा यह थी कि कुछ समय बाद इन जातियों के सक्षम और सक्षम होकर
मुख्यधारा में शामिल हो चुकने के बाद आरक्षण के प्रावधान को समाप्त कर दिया जाएगा। लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया और विशेष
रूप से सन् 1990 के दशक में आरक्षण के मसले के राजनीतिकरण ने इसकी संभावनाओं को
लगभग समाप्त कर दिया। और, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के द्वारा सृजित असमान विकास की
पृष्ठभूमि में बढ़ते हुए असंतोष, विशेष रूप से कृषक-असंतोष ने पिछले एक दशक के
दौरान नए सिरे से आरक्षण की माँगों को तूल दिया।
7. जब निजी क्षेत्र हो या फिर सार्वजानिक क्षेत्र,
हर जगह नौकरियाँ निरंतर घट रही हैं और
जो रिक्तियाँ भी हैं, उन्हें भरे जाने को लेकर सरकार गंभीर नहीं है, तो फिर आरक्षण से क्या हासिल होगा?
सच्चाई यह है कि जाति को पिछड़ेपन का एकमात्र आधार माना ही नहीं जा
सकता। कुल मिलाकर देश में हर जाति और समुदाय के गरीबों को समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधन उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन आखिर में आगे बढ़ने के लिए योग्यता ही एकमात्र
पैमाना होना चाहिए। देश के कई हिस्सों में हो रहे आरक्षण के आंदोलन साफ संकेत दे
रहे हैं कि आगे आने वाले समय में अगर आरक्षण की समीक्षा ठीक ढंग से नहीं की गई, तो
यह समस्या बहुत विकराल रूप धारण कर सकती है। इसलिए समय रहते आरक्षण की समीक्षा की
जाए और अगर आवश्यक हो तो आरक्षण की निश्चित समय-सीमा तय कर उसके आधार पर भी विचार
किया जाए। स्पष्ट है कि आरक्षण के क्रियान्वयन का
अबतक अनुभव बतलाता है कि सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए सभी वर्गों के
बीच आरक्षण के लाभों का वितरण समान न होकर असमान रहा है और इसके लाभ जाति-विशेष तक
सिमटते जा रहे हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 2006 में आर्थिक आधार पर पिछड़े
वर्गों के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार हेतु सिन्हो आयोग और अक्टूबर,2017 में ओबीसी आरक्षण की
समीक्षा एवं उसके लाभों के समान वितरण के लिए अन्य पिछड़ी जातियों के वर्गीकरण के
प्रश्न पर विचार हेतु रोहिणी आयोग का गठन
किया गया। सन् 2017 में उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी इस
मसले पर विचार हेतु जस्टिस राघवेन्द्र कुमार आयोग का गठन किया।
सिन्हो आयोग,2010
आर्थिक
दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के प्रश्न पर संविधान-सभा में भी विचार किया
गया था, पर अंततः इसे खारिज कर दिया गया। बाद में, मंडल कमीशन की सिफारिशों को
लागू करने की घोषणा ने सवर्णों में जिस असंतोष को जन्म दिया, उसे शांत करने के लिए
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की दिशा में पहल की गयी, यह बात अलग है
कि यह कोशिश न्यायिक अवरोधों को नहीं पार कर पायी। समय के साथ ग्रामीण एवं कृषक
जीवन की बढ़ती हुए बदहाली की पृष्ठभूमि में यह मसला दबने की बजाय जोर पकड़ता चला
गया, जिस पर चर्चा पहले ही की जा चुकी
है। अंततः इसने सन् 2006 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(UPA) सरकार के
द्वारा सेवानिवृत्त मेजर जनरल एस. आर. सिन्हो की
अध्यक्षता में आर्थिक रूप से पिछड़े
वर्ग के लिए आरक्षण के प्रश्न पर विचार हेतु एक तीन सदस्यीय आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग(EBC) के लिए
आयोग के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।
इस आयोग का गठन आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए मानदंडों के निर्धारण
और लोक-नियोजन एवं शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की उपयुक्त मात्रा से संबंधित
सुझाव देने के लिए किया गया था। साथ ही, इस आयोग से यह भी अपेक्षा की गयी कि वह इस
वर्ग के कल्याण के लिए भी उपयुक्त सुझाव देगा। जुलाई,2010 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की,
हालाँकि इस सिफारिश को तत्कालीन संप्रग सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था।
रिपोर्ट
के प्रमुख अंश:
आयोग ने आर्थिक
दृष्टि से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की संभावनाओं को नकारते हुए निम्न सिफारिशें
की:
1. आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को
सामाजिक पिछड़ों से अलगाना: आयोग का
यह मानना था कि जहाँ आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के सन्दर्भ में आर्थिक पिछड़ापन
महत्वपूर्ण है, वहीं अन्य पिछड़े वर्ग के सन्दर्भ में आर्थिक पिछड़ापन से कहीं अधिक
सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ापन महत्वपूर्ण है और यही उस वर्ग के आर्थिक पिछड़ेपन का
कारण भी है।
2. आर्थिक पिछड़ेपन को सामाजिक एवं
शैक्षिक पिछड़ेपन से सम्बद्ध करके देखना: इस आयोग ने आरक्षण के लिए आर्थिक पिछड़ेपन को सामाजिक एवं शैक्षिक
पिछड़ेपन से सम्बद्ध करके देखे जाने की आवश्यकता पर बल दिया।
3. आर्थिक पिछड़ेपन की पहचान हेतु
गरीबी-रेखा और करमुक्त आय-सीमा का सुझाव: आर्थिक दृष्टि से कमजोर या पिछड़े वर्ग की पहचान के सन्दर्भ में इसने
यह सुझाव दिया कि इसके दायरे में या तो गरीबी-रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे
सवर्णों को शामिल किया जाय, या फिर कर-निर्धारण योग्य आय, जो उस समय 1.6 लाख थी,
से नीचे की पारिवारिक आय को रखा जाय और इसकी समय-समय पर समीक्षा की जाय।
4. आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान: इसी आलोक में
समिति ने यह सिफारिश की कि टैक्स भरने तक की कमाई ना कर पाने वाले सवर्णों को अन्य
पिछड़ा वर्ग(OBC) की तरह से देखा जाना चाहिए, जबकि सवर्णों की श्रेणी में (5-6) करोड़
लोग ऐसे हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति(SC) एवं अनुसूचित जनजाति(ST) की तरह। आरक्षण न
पाने वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की आबादी, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन
गुजर-बसर करने को अभिशप्त हैं, करीब 17% है। सवर्ण
जातियों में करीब 6 फीसदी ऐसे लोग हैं, जिनके
पास कोई ज़मीन तक नहीं है और करीब 65 फीसदी ऐसे लोग
हैं, जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है।
5. पारिवारिक आय के दायरे में
माता-पिता की सम्मिलित आय: आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि पारिवारिक आय के दायरे में माता-पिता की
सम्मिलित आय को रखा जाए।
6. आरक्षण हेतु पिछड़े वर्ग की पहचान
आर्थिक आधार पर नहीं: समिति
ने संवैधानिक एवं वैधानिक पहलुओं के आलोक में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि चूँकि
रोजगार एवं शिक्षण-संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण हेतु पिछड़े वर्ग की पहचान
आर्थिक आधार पर नहीं की जा सकती है, इसीलिए आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की पहचान हेतु
आर्थिक मानदंडों को केवल कल्याणकारी मानकों के विस्तार के सन्दर्भ में देखा जाना
चाहिए।
7. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग
और अनुसूचित जाति आयोग का प्रतिकूल सुझाव: अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग और
अनुसूचित जाति के लिए राष्ट्रीय आयोग के रुख का हवाला देते हुए आयोग ने कहा कि
आर्थिक स्थिति में उतार-चढाव आते रहते हैं और इसीलिए आरक्षण, जिसे ऐतिहासिक अन्याय
के निवारण के लिए लाया गया था, इसका समाधान नहीं है। दोनों आयोगों का यह मानना था कि इसके लिए
आवश्यकता गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित किये
जाने की है।
8. तकनीकी अवरोधों का संकेत: आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट के
द्वारा अपने पूर्व के निर्णय की समीक्षा किये जाने, या फिर संविधान में संशोधन
किये जाने तक 50 प्रतिशत की आरक्षण-सीमा बाध्यकारी है और राज्यों से इसका अनुपालन
अपेक्षित है। इस तरह से आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा
सकता है क्योंकि जिस सिद्धांत के तहत् एससी-एसटी या ओबीसी को आरक्षण दिया जाता है,
वह सिद्धांत आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों पर लागू नहीं होता है। इसीलिए
आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है।
9. आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग
के लिए आरक्षण की बजाय कल्याणकारी उपायों पर जोर: आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान के
लिए सुझाये गए आर्थिक मानकों का इस्तेमाल केवल कल्याणकारी उपायों तक उनकी पहुँच और
उन तक इसके लाभों के विस्तार को सुनिश्चित किये जाने के लिए किया जाना चाहिए, न कि
आरक्षण के लिए। इसी के मद्देनज़र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस
वर्ग के कल्याण के लिए कई सिफारिशें की:
a. सिन्हो कमीशन ने आवास, स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं कौशल-विकास से सम्बंधित चालू
योजनाओं तक आसान पहुँच के साथ-साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए
कल्याणकारी योजनाओं की अनुशंसा की,
b. आर्थिक पिछड़ेपन की शिकार सामान्य श्रेणी की महिलाओं के लिए मनरेगा के अंतर्गत रोजगार
को सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया, और
c.
इस श्रेणी से आने वाले बच्चों के लिए विशेष छात्रवृत्ति योजनाओं की
सिफारिश की, ताकि ऐसे बच्चे अपनी पढ़ाई जारी रख सकें।
10.
तत्काल राहत के साथ पृथक बजटीय
प्रावधान पर बल: आयोग ने
राष्ट्रीय सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन (NSSO) के द्वारा जारी आँकड़ों (2004-05) को
आधार बनाकर सामान्य श्रेणी के 5.85 करोड़ लोगों की पहचान करते हुए उन्हें तत्काल राहत प्रदान किये जाने की आवश्यकता पर बल
दिया और इनके लिए पृथक बजटीय प्रावधान
किये जाने तक 10 हज़ार करोड़ की आरंभिक रिलीफ पैकेज तत्काल जारी करने का सुझाव दिया।
11.
बॉटम अप एप्रोच को अपनाने का सुझाव: आयोग ने जरूरतमंद लोगों तक इसके अधिकतम लाभ को सुनिश्चित करने के
लिए बॉटम अप एप्रोच (Bottom-Up Approach) को अपनाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया।
अबतक इस
रिपोर्ट को सार्वजानिक नहीं किया गया है।
जस्टिस
रोहिणी आयोग,2017
आयोग का गठन:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अक्टूबर,2017 में
केंद्र सरकार ने अनु. 340 के प्रावधानों के अर्न्तगत
केन्द्रीय सूची में अन्य पिछड़े वर्गों के उप-वर्गीकरण के मुद्दे की जाँच के लिए
जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में एक पाँच सदस्यीय आयोग का गठन किया और उससे यह अपेक्षा की कि:
1. वह आरक्षण के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC’s) के
अंतर्गत आने वाली जातियों में से पिछड़ी रह
जानेवाली जातियों का पता लगाए, और
2. उनके उप-वर्गीकरण के जरिये आरक्षण के लाभों तक सर्वाधिक जरूरतमन्द
लोगों की पहुँच सुनिश्चित की जा सके।
3. ओबीसी की केंद्रीय सूची में
शामिल विभिन्न जातियों और समुदायों की आबादी का पता करने के अलावा यह सर्वेक्षण ओबीसी परिवारों में शिक्षा का स्तर और रोजगार की स्थिति के
बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराएगा।
4.
इस आयोग का गठन ओबीसी आरक्षण के समान
बँटवारे के लिए मानदंड तय करने का सुझाव देने के लिये किया गया है। नवंबर,2018 में आयोग का
कार्यकाल मई,2019 तक बढ़ाया गया।
आयोग के गठन के राजनीतिक
निहितार्थ:
यह सच है कि ओबीसी आरक्षण के पिछले तीन दशक के दौरान सामाजिक-आर्थिक
परिदृश्य तेजी से बदला है और उसके आलोक में इसकी समीक्षा अपेक्षित है, ताकि इसके
लाभों को जरूरतमंद समूहों तक सुनिश्चित किया जा सके और जो सक्षम हैं उन्हें इसके
लाभों से वंचित किया जा सके, या फिर उनके लिए इसके लाभों को सीमित किया जा सके।
लेकिन, यह भी सच है कि सरकार ओबीसी आरक्षण की समीक्षा के जरिये अपने लिए मण्डल 2.0
मोमेन्ट क्रिएट करना चाहती है और इसके जरिये अपने वोटबैंक के सामाजिक आधार को
पुनर्परिभाषित करते हुए अगले दो-तीन दशकों के लिए अपना राजनीतिक भविष्य सुरक्षित
करना चाहती है। इसीलिए उप-वर्गीकरण के जरिये वह चाहती है कि ओबीसी आरक्षण के लाभों
को उन जातियों तक पहुँचाया जा सके जिन तक इसके समुचित एवं पर्याप्त लाभ अबतक नहीं
पहुँच पाए हैं। इसके राजनीतिक हित भी सधेंगे और सामाजिक समावेशन की प्रक्रिया भी
तेज होगी।
अबतक की प्रगति:
इस आयोग ने उन सभी राज्यों/संघ-शासित
प्रदेशों से संपर्क साधने की कोशिश की जिन्होंने अन्य पिछड़े वर्गों एवं राज्य
पिछड़ा वर्ग आयोगों का उप-वर्गीकरण कर रखा है। आयोग ने उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों
में ओबीसी के दाखिले के संबंध में उच्च शिक्षा संस्थानों तथा सरकारी विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों
और वित्तीय संस्थानों के साथ-साथ केन्द्रीय सार्वजानिक उपक्रमों(CPSE’s) में
सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों(OBC) की भर्ती के संबंध में आँकड़े माँगे
हैं, ताकि अन्य पिछड़े वर्गों की केन्द्रीय सूची में शामिल
जातियों/समुदायों के बीच आरक्षण के लाभों का असमान वितरण होने के परिमाण का आकलन
किया जा सके। हालाँकि आयोग सरकार को
अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट पहले ही सौंप चुकी है, लेकिन
सरकार ने आयोग को इस मामले में और सटीक जानकारी जुटाने का सुझाव दिया था।
इस आलोक में दिसम्बर,2018 में जस्टिस रोहिणी आयोग ने सामाजिक न्याय और
अधिकारिता मंत्रालय को यह बताया कि:
1.
देश के
अलग-अलग हिस्सों में अन्य पिछड़े
वर्गों(OBC) की 2600 से ज्यादा जातियाँ रहती हैं।
2. ये भौगोलिक रूप से अलग स्थानों पर रहती है, इनका जीवन-स्तर भिन्न है और इनमें से कई आकार की दृष्टि से अत्यंत छोटी हैं, इसीलिए उपवर्गीकरण के उद्देश्य से
जाति-वार आबादी के आँकड़ों के आकलन की जरुरत है।
3.
चूँकि आजादी के बाद जातिवार आबादी के आधिकारिक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं,
इसलिए आयोग ने सक्षम सर्वेक्षण एजेंसी द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर एक सर्वेक्षण
कराने और सभी राज्यों एवं केंद्र-शासित प्रदेशों के हर उप-जिले को शामिल करते हुए
व्यापक नमूना इकठ्ठा करने का फैसला किया है।
4.
ऐसी
स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि इनकी स्थिति के आकलन के लिए परगना एवं तहसील
स्तर पर जाकर ओबीसी परिवारों के जीवन-स्तर के सन्दर्भ में सटीक जानकारियाँ जुटाई
जाएँ और शिक्षा एवं रोजगार के सन्दर्भ में इनकी स्थिति का आकलन किया जाए।
5.
इसके लिए
सन् 2011 की जनगणना के आँकड़ों को आधार बनाया जाएगा।
आयोग ने ओबीसी की पिछड़ी जातियों का पता लगाने के लिए सरकार को सर्वे
का यह प्रस्ताव उस समय दिया है, जब वह इस पूरी कवायद पर पहले ही साल भर से ज्यादा
का समय दे चुकी है।
सामाजिक, आर्थिक एवं
जातिगत जनगणना(SECC),2011 के आँकड़ों को सार्वजानिक करने का प्रश्न:
यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि सामाजिक, आर्थिक एवं जातिगत जनगणना(SECC),2011 के आँकड़ों को अबतक जारी क्यों
नहीं किया गया है और इन आँकड़ों को आधार बनाने की बजाय आयोग नए सिरे से सर्वेक्षण
की बात क्यों कर रहा है? दरअसल सामाजिक, आर्थिक एवं
जातिगत जनगणना(SECC) के आँकड़े ओबीसी-जनसंख्या की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
लेकिन, सरकार को इस बात का डर है कि एक बार आँकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद
अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की तर्ज़ पर अन्य पिछड़ी जातियों के द्वारा
भी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की माँग की जा सकती है जो न तो काँग्रेस की
राजनीति को सूट करता है और न ही भाजपा की राजनीति को, जिनके वोटबैंक और
राजनीतिक-सामाजिक आधार को निर्मित करने में सवर्णों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
इसीलिए उसके द्वारा ये तर्क दिए जा रहे हैं कि अगर जातीय जनगणना के आँकड़े
सार्वजनिक होते हैं, तो इससे जातिवाद बढ़ेगा।
ध्यातव्य है कि सन् 2011
में अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं, खासकर मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के
अनुरोध पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने सामाजिक, आर्थिक एवं जातिगत जनगणना कराने का
फैसला किया था और यह प्रक्रिया सन् 2015 में पूरी हुई थी। जुलाई,2015 में इस जनगणना से जुड़े ग्रामीण और शहरी आँकड़ों को जारी किया गया।
जनगणना,2011 के अनुसार, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या क्रमशः 16.6 और 8.6
फीसदी है। लेकिन ओबीसी के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं
है, हालाँकि, 2006 का नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन का
आँकड़ा ओबीसी की आबादी 41 फीसदी
बताता है, लेकिन यह केवल सैंपल डेटा
पर आधारित अनुमान था। इससे पूर्व जातिगत जनगणना सन् 1931
में हुई थी जिसके अनुसार उस समय ओबीसी की आबादी 52 फीसदी थी और इसी को आधार बनाकर सन् 1980 में मण्डल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट
सरकार को सौंपी थी।
जस्टिस
राघवेन्द्र कुमार आयोग,2017
आयोग का गठन एवं रिपोर्ट:
सन् 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा
जस्टिस राघवेन्द्र कुमार के नेतृत्व में अन्य
पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय आयोग का गठन किया गया। इस समिति ने दिसम्बर,2018 में प्रस्तुत रिपोर्ट में निम्न
अनुशंसाएँ की:
1. 27 प्रतिशत
ओबीसी कोटे के दायरे में आने वाली 79 जातियों को तीन उप-वर्गों में विभाजित करना:
a.
पिछड़े
वर्ग(BCs) के अंतर्गत यादव, कुर्मी एवं कलवार सहित कुल 9 जातियों के हिस्से 7 प्रतिशत
आरक्षण,
b.
अधिक
पिछड़े वर्ग(VBCs) के अंतर्गत गुज्जर एवं लोध सहित 33 जातियाँ के हिस्से 9 प्रतिशत
आरक्षण, और
c.
अत्यधिक
पिछड़े वर्ग(MBCs) के
अंतर्गत मल्लाह, निषाद एवं राजभर सहित 37 जातियों के हिस्से 11 प्रतिशत आरक्षण।
2. बिहार जैसे राज्यों में ऐसा उप-वर्गीकरण पहले ही
लागू किया जा चुका है और इस रिपोर्ट में पिछड़ी जातियों को कुलीन वर्ग (Aristocratic Class) की संज्ञा देते हुए यह कहा गया है कि इन जातियों ने अन्य जातियों की
कीमत पर आरक्षण के अधिकतम लाभों को अपने लिए सुनिश्चित किया है, यद्यपि अपने दावों
के पक्ष में प्रस्तुत करने के लिए इसके पास कोई आँकड़ा नहीं है।
3. इसी प्रकार अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत शामिल
जातियों की स्थिति की समीक्षा मनमाने ढंग से की गयी है। पिछड़े वर्ग को
वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत वैश्यों से सम्बद्ध कर देखा गया और उन्हें ब्राह्मणों
एवं क्षत्रियों के समकक्ष माना गया। इसके सापेक्ष अति-पिछड़े वर्ग(MBCs) को
जादू-टोना में विश्वास करने वाला और नियमित तौर पर शाम में मद्यपान करने वाला माना
गया।
रिपोर्ट का विश्लेषण:
इंडियन
एक्सप्रेस में प्रकाशित आलेख ‘कोटा एंड बैड फेथ’ (Quota and bad faith) में
क्रिस्टोफर जाफ्रेलॉट और ए. कलैयारासन ने आयोग के द्वारा अपनाई गयी मेथडोलॉजी को
दो आधारों पर प्रश्नांकित किया है:
1. एक ओर यह गरीबों के साथ न्याय की बात करता है,
दूसरी ओर यह अपने विश्लेषण के लिए वर्ग की बजाय जाति पर निर्भर करता है। यह
अंतर-जातीय जटिलता को नहीं समझ पा रहा है जिसके कारण सीटों के कम होने की स्थिति
में गरीब यादवों एवं कुर्मियों को सक्षम एवं साधन-सम्पन्न यादवों एवं कुर्मियों से
प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी।
2. इस रिपोर्ट में क्रीमी लेयर की अवधारणा के उल्लेख
तक की ज़रुरत नहीं समझी है, जबकि यह संकल्पना वर्गीकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
3. इतना ही नहीं, यह न तो पिछड़ेपन के मानदंडों का नए
सिरे से निर्धारण करता है और न ही उन मानदंडों के आलोक में पिछड़ी जातियों के
पिछड़ेपन पर विचार करता है, जिनकी प्रस्तावना मण्डल कमीशन के द्वारा की गयी थी।
आयोग के निष्कर्षों के विपरीत उन्होंने भारत
मानव-विकास सर्वेक्षण (IHDS) के आँकड़ों का हवाला देते हुए यह दिखने की कोशिश की कि
सन् 2004-05 और सन् 2011-12 के बीच अधिकांश बड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में समान
अनुपात में (लगभग 3 गुना) सुधार हुआ है। इसी प्रकार वेतनभोगी रोजगार (Salaried Jobs) के सन्दर्भ में भी यह वर्गीकरण फिट नहीं बैठता
है। जहाँ अधिक पिछड़ों की श्रेणी में शामिल
गदरियाओं में यह 13 प्रतिशत के स्तर पर है, वहीं पिछड़ों की श्रेणी में शामिल
कुर्मी की भागीदारी महज 6 प्रतिशत के स्तर पर। यादवों में यह 14.5 प्रतिशत के स्तर
पर है। जहाँ तक आरक्षण और जातिगत उपलब्धि का प्रश्न है, तो सन् 2011 में 8.3
प्रतिशत कुर्मियों के पास ग्रेजुएशन की डिग्री थी, जबकि यादवों, जो तेली के आस-पास
हैं, में यह महज 4.7 प्रतिशत थी। वास्तविकता यह है कि अधिकांश पिछड़ी जातियाँ शेष
पिछड़ी जातियों की तरह या तो किसान हैं, या फिर खेतिहर श्रमिक। बस फर्क यह है कि
यादवों एवं कुर्मियों में किसानों का अनुपात 56 प्रतिशत एवं 68 प्रतिशत है, जबकि
खेतिहर मजदूरों का अनुपात क्रमशः 17 प्रतिशत एवं 15 प्रतिशत। अन्य पिछड़ी जातियों
की तुलना यादवों और कुर्मियों में किसानों का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक है और खेतिहर
मजदूरों का अनुपात अपेक्षाकृत कम। इसने ही इन समुदायों के पिछड़ेपन को प्रभावित
किया है।
ओबीसी क्रीमी-लेयर की
आय-सीमा में वृद्धि का औचित्य:
सितम्बर,1993 में जब
पहली बार ओबीसी क्रीमी-लेयर की आय-सीमा निर्धारित की गयी, तो इसे 1 लाख रुपये प्रति
परिवार प्रति वर्ष रखा गया और सन् 2004 में इसे बढ़ाकर 2.5 लाख, सन् 2008 में 4.5
लाख, सन् 2013 में 6 लाख और सन् 2017 में 8 लाख किया गया। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आज जब आरक्षण की समीक्षा की
माँग लगातार की जा रही है, वैसी स्थिति में क्रीमी-लेयर की आय-सीमा में वृद्धि का औचित्य क्या है? इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि:
1. क्रीमी-लेयर के लिए निर्धारित
आय-सीमा को वास्तविक बनाना: इस
वृद्धि के जरिये क्रीमी-लेयर के लिए निर्धारित आय-सीमा को वास्तविक बनाये जाने की
कोशिश की जा रही है क्योंकि समय के साथ औसत आय में वृद्धि और मुद्रास्फीतिक दबाव
इसके समायोजन की आवश्यकता को जन्म देते हैं।
2. योग्य उम्मीदवारों की उपलब्धता को
बढ़ाना: योग्य उम्मीदवारों की अनुपलब्धता के
कारण सरकारी शिक्षण-संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में ओबीसी कोटे के स्थान रिक्त रह
जा रहे हैं। उन्हें पूरी तरह से भरा जाना संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए
क्रीमी-लेयर हेतु निर्धारित आय-सीमा में वृद्धि के जरिये योग्य उम्मीदवारों की
उपलब्धता को बढ़ाने की कोशिश की जा रही है।
लेकिन,
यदि इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया जाए, तो इस वृद्धि का सम्बन्ध कहीं-न-कहीं
वोटबक की राजनीति से जुड़ता है। इसके जरिये अन्य पिछड़े वर्ग के उस समूह को खुश करने
की कोशिश की जा रही है जो राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक प्रभावशाली है और जिसके
कारण ओबीसी आरक्षण के लाभों तक इस वर्ग के सामान्य लोगों की पहुँच संभव नहीं हो पा
रही है। सवाल यह उठता है कि जिस देश की आधी आबादी गरीबी-रेखा की आस-पास ज़िंदगी
गुजर-बसर कर रही हो, उस देश में करीब-करीब 66 हज़ार रुपये प्रति माह की आय वालों को
क्रीमी-लेयर के अंतर्गत नहीं शामिल करना और उन तक आरक्षण के लाभों को पहुँचाना
कहाँ तक उचित है?
अक्सर
क्रीमी-लेयर की आय-सीमा में वृद्धि के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में वृद्धि का
हवाला दिया जाता है, लेकिन यह तर्क संतोषजनक नहीं है क्योंकि सन् 1993 से अबतक ओबीसी क्रीमी-लेयर की निर्धारित आय-सीमा में 700 प्रतिशत की वृद्धि की गयी, जबकि इस दौरान
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 413 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
इसकी
पुष्टि नेशनल कमीशन फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट
सर्वे और नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाईजेशन के द्वारा जारी वेजेज-सर्वे (Wages
Survey) से भी होती है, जिसके मुताबिक 8 लाख की आय-सीमा 99 प्रतिशत परिवारों को
आर्थिक दृष्टि से पिछड़ेपन के दायरे में ले आती है। सवाल यह
उठता है कि ओबीसी समुदाय में ऐसे लोगों का अनुपात कितना है जो क्रीमी-लेयर के
अंतर्गत आते हैं, और अगर ऐसे लोगों का अनुपात (1-2) प्रतिशत के आस-पास है, तो फिर
ऐसी आय-सीमा का क्या औचित्य है? इसीलिए आवश्यकता इस बात की है कि क्रीमी-लेयर हेतु
आय-सीमा के निर्धारण के वक़्त व्यावहारिक नजरिया अपनाया जाय और यह सुनिश्चित किया
जाय कि आरक्षण का लाभ जरूरतमन्द लोगों तक सीमित रहे।
अनुसूचित
जाति एवं अनुसूचित जनजाति और क्रीमी-लेयर
अदालत का रुख:
सितम्बर,2018 में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के मामले
में SC/ST आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय
संवैधानिक पीठ ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिए सरकारी
नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर निर्णय सुनते हुए कहा कि:
1. प्रमोशन में आरक्षण के सन्दर्भ
में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के मामलों में भी
क्रीमी-लेयर का नियम लागू किया जा सकता है, ताकि जिन लोगों को इसका लाभ मिल चुका
है और जो इसका लाभ उठाकर अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में पहुँच चुके हैं, उन्हें इसके
लाभों से वंचित किया जा सके। इससे वांछित समूह तक प्रमोशन में आरक्षण के लाभों
को पहुँचा पाना संभव हो सकेगा।
2. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से
निर्णय देने की बजाय संसद से इस बात की अपेक्षा की कि क्रीमी लेयर की
संकल्पना को लागू करने या न करने के सन्दर्भ में
निर्णय संसद ले।
इससे पूर्व एम. नागराज एवं
अन्य बनाम् भारत संघ वाद,2006 में भी पाँच सदस्यीय संविधान-पीठ ने यह टिप्पणी की
थी कि क्रीमी-लेयर की संकल्पना को अनुसूचित जाति
एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के सन्दर्भ में भी लागू किया जा सकता है,
यद्यपि इस टिप्पणी का वैधानिक दृष्टि से बहुत महत्व नहीं था। कारण यह कि:
1. इंद्रा साहनी वाद,1993 में सुप्रीम कोर्ट
की नौ सदस्यीय संविधान-पीठ ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को क्रीमी लेयर
के दायरे से बाहर रखा।
अदालत की ओर से यह टिप्पणी पाँच सदस्यीय संवैधानिक बेंच के द्वारा सुनवाई के क्रम
में आयी और यह परम्परा रही है कि कोई भी संविधान-पीठ अपने से बड़ी पीठ के निर्णय को नहीं बदल सकती
है।
2. ये बातें सुनवाई के दौरान
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के रूप में सामने आयीं, न कि अदालत के निर्णय के अंश के
रूप में।
खैर, अदालत ने सन् 2018 में प्रमोशन में आरक्षण
से सम्बंधित अपने निर्णय में इस अस्पष्टता को दूर कर दिया। अब संसद द्वारा इस सन्दर्भ में निर्णय लिए जाने तक क्रीमी-लेयर की
संकल्पना दलितों एवं आदिवासियों के सन्दर्भ में नहीं लागू होगी।
क्रीमी-लेयर के पक्ष में तर्क:
इन माँगों के पक्ष में निम्न तर्क दिए जाते हैं:
1. जो तर्क ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी-लेयर की
संकल्पना की मौजूदगी के सन्दर्भ में लागू होते हैं, वे तर्क अनुसूचित जाति एवं
अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के सन्दर्भ में भी प्रभावी हैं।
2. अधिसूचित अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों
की सूची से सम्बद्ध 1677 समुदायों की 99 प्रतिशत
आबादी आरक्षण के लाभों से वंचित है। मतलब यह है कि अनुसूचित जाति एवं
अनुसूचित जनजाति के लिए दिए जानेवाले आरक्षण का लाभ महज कुछ जातियों और उन जातियों
में भी महज कुछ लोगों तक सिमट कर रह गया है।
3. जरनैल सिंह वाद,2018 में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि “जो व्यक्ति समान स्थिति में हैं, उनके साथ समान रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए, और जो असमान रूप से स्थित व्यक्तियों के साथ विशिष्ट रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए।” इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में भी क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करने की बात करते हुए कहा कि जो लोग बेहतर स्थिति में हैं, उन्हें आरक्षण के लाभ नहीं मिलने चाहिए।
4. प्रमोशन में आरक्षण के संदर्भ में निर्णय
देते वक़्त अदालत ने यह स्पष्ट किया कि आरक्षण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि
पिछड़े वर्ग के लोग आगे बढ़ते रहें ताकि वे देश के अन्य नागरिकों के कन्धे-से-कन्धा
मिलाकर आगे बढ़ सकें और ऐसा तबतक संभव नहीं होगा
जबतक सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षित रोजगार का लाभ आरक्षित समूह के उन लोगों तक
सिमटकर रह जाए जो आर्थिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में हैं और क्रीमी लेयर के
अंतर्गत आते हैं।
5. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति के सन्दर्भ में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करते वक़्त अदालत अनु. 341-342 के तहत् तैयार सूची में किसी भी तरह से
छेड़-छाड़ नहीं कर रहा है क्योंकि इस सूची में शामिल समूह या उप-समूह तब
भी उस सूची में बने रहेंगे और उन्हें इसका लाभ मिलता रहेगा। इसका मतलब सिर्फ यह
होगा कि जो भी
लोग आर्थिक बेहतरी के कारण छूआछूत एवं पिछड़ेपन की स्थिति से बाहर आ चुके हैं,
उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पायेगा।
क्रीमी-लेयर का औचित्य:
जहाँ तक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के
लिए आरक्षण के सन्दर्भ में क्रीमी-लेयर की अवधारणा को लागू करने का प्रश्न है, तो
यह उचित नहीं प्रतीत होता है। कारण यह कि:
1. अबतक न्यायपालिका अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति को अपने आपमें पृथक वर्ग मानती रही है, इसीलिए क्रीमी लेयर का सिद्धांत इन
पर नहीं लागू होता है।
2. अबतक ओबीसी के सन्दर्भ में इसके अनुभव बहुत सुखद नहीं
रहे हैं। एक ओर इसके लिए निर्धारित आय-सीमा अव्यवहारिक है और वह इसे लगभग
अप्रासंगिक बना देता है, दूसरी ओर इसके कारण योग्य
उम्मीदवार नहीं मिल पा रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप शिक्षण-संस्थाओं
एवं सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए आरक्षित
स्थान खाली रह जा रहे हैं।
3. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत क्रीमी लेयर के दायरे में आनेवाले लोगों का अनुपात ओबीसी की
तुलना में और भी कम होने की संभावना है
4. शैक्षणिक एवं सामाजिक
पिछड़ेपन के सन्दर्भ में अन्य पिछड़ा वर्ग की तुलना में अनुसूचित
जातियों एवं जनजातियों की स्थिति कहीं अधिक गंभीर है और उनके सन्दर्भ
में आर्थिक हैसियत में इजाफे के साथ सामाजिक स्थिति में सुधार की सम्भावना और भी
काम है। इनके सन्दर्भ में सामाजिक गतिशीलता की
संभावना और भी कम है।
ध्यातव्य है कि सन् 1965 में लोकुर समिति ने अधिसूचित
अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों की सूची की आवधिक समीक्षा का सुझाव दिया
था, अब यह बात अलग है कि इस सुझाव को व्यवहार में कभी लागू नहीं किया गया। सन् 2012 में
ओ. पी. शुक्ल ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए अनुसूचित जातियों एवं
अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण के लिए अधिसूचित जातियों एवं जनजातियों की सूची की
समीक्षा की अपील की गयी और क्रीमी-लेयर के दायरे में आने वाले अनुसूचित जातियों
एवं अनुसूचित जनजातियों से सम्बद्ध लोगों को इस आरक्षण के लाभ के दायरे से बाहर
रखने की अपील की गयी थी।
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