Wednesday, 1 May 2019

बेगूसराय-नामा भाग 8: भारी पड़ती जमात की राजनीति


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बेगूसराय-नामा भाग 8
बेगूसराय की बदलती हवा:
भारी पड़ती जमात की राजनीति
============================================अब जबकि 29 अप्रैल को बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में चुनाव सम्पन्न हो चुका है,सभी दलों, उनके उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के द्वारा अपनी ओर से दावे एवं प्रति-दावे किए जा रहे हैं। इन दावों और प्रतिमानों के बीच चुनाव-परिणाम का आकलन लगा पाना मुश्किल प्रतीत हो रहा है, विशेषकर तब जब चुनाव समाप्त हो जाने के बावजूद मतदाता अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं हैं। सबसे पहले उन नए रूझानों का आकलन, जो सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव के दौरान बेगूसराय में देखने को मिले।
मुस्लिम अल्पसंख्यकों का राजनीतिक रूझान और वोटिंग-पैटर्न: ध्वस्त होता ‘माय’ समीकरण
बेगूसराय में राजद के द्वारा कन्हैया कुमार को समर्थन देने और अपनी ओर से डॉ. तनवीर हसन को उम्मीदवार बनाने के साथ गिरिराज सिंह और डॉ. कन्हैया कुमार के बीच भूमिहार वोट के बँटने की संभावना प्रबल हो गयी, और कहा गया कि ऐसी स्थिति में तनवीर हसन के जीतने की संभावना प्रबल होगी क्योंकि तनवीर हसन को मुसलमानों के द्वारा अपेक्षाकृत अधिक अनुपात में मुस्लिम वोट एकमुश्त मिलने की संभावना है। लेकिन, चुनाव तक आते-आते ये संभावनाएँ निरस्त होती दिखाई पड़ी। मुसलमानों ने न केवल बढ़-चढ़कर अपने मताधिकारों का प्रयोग किया, वरन् कन्हैया के पक्ष में एकमुश्त मतदान किया। विभिन्न क्षेत्रों में यह (60-90) प्रतिशत तक कन्हैया के पक्ष में रहा। गिरिराज सिंह को किसी मुस्लिम मतदाता का समर्थन मिला होगा, इसमें सन्देह है, और इसका कारण है कट्टर हिन्दुत्व के फायर-ब्रांड वाली उनकी छवि, और उनका मुसलमानों के विरूद्ध आग उगलते रहना। इस समुदाय ने न केवल मतदान-प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर भाग लेते हुए भूमिहार मतदाताओं के बीच गिरिराज की बढ़त को न्यूट्रलाइज किया, वरन् अपनी ओर से उनकी हार को हर-संभव सुनिश्चित करने की भी कोशिश की। साथ ही, यह संदेश भी दिया कि यदि उम्मीदवार विश्वसनीय हो, उनके भीतर मौजूद असुरक्षा के अहसास को दूर करने को लेकर आश्वस्त करने में सक्षम हो, और सकारात्मक राजनीति की दिशा में पहल करे, वे मज़हब  एवं बिरादरी के दायरे को लाँघकर किसी भी उम्मीदवार को अपनी पसन्द बना सकते हैं।
सांप्रदायिक राजनीति के दायरे से बाहर निकलते मुसलमान:
ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि मुस्लिम मतदाताओं ने अपने ही समुदाय के उम्मीदवार को ख़ारिज करते हुए एक सेक्यूलर चेहरे के पक्ष में मतदान किया, और बिहार के साथ-साथ पूरे देश को यह संदेश किया कि वे अब अपनी बँधी-बँधायी सोच से बाहर निकल कर जमात के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। ऐसा होना बिहार, देश और स्वयं मुस्लिम समुदाय के लिए भी अच्छा है जिनका इस्तेमाल तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति और उसके नेतृत्व के साथ-साथ मुस्लिम-नेतृत्व के द्वारा महज़ वोट-बैंक के रूप में किया गया। अगर इस मॉडल का अनुकरण देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों के द्वारा किया जाता है, तो यह मुस्लिम समाज को सामाजिक रूपांतरण की ओर ले जायेगा।
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मोहभंग का कारण:
ऐसा माना जा रहा है कि इसमें कन्हैया कुमार की मोदी-विरोधी छवि, उनकी मुखरता, भाजपा-उम्मीदवार की जीत की आशंका, और चुनावी राजनीति से इतर तनवीर हसन की निष्क्रियता की अहम् भूमिका रही। इसके अतिरिक्त, करीब डेढ़ साल पहले सितम्बर-अक्टूबर,2017 में बारो में घटी साम्प्रदायिक घटना और स्थानीय नेतृत्व की इसके प्रति प्रतिक्रिया ने भी मुस्लिम मतदाताओं के रूझान को निर्धारित करने में अहम् भूमिका निभाई। ध्यातव्य है कि इस घटना के कारण उत्पन्न तनाव को कम करने में कन्हैया कुमार सहित कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की अहम् भूमिका रही थी, और इन्होंने यह सुनिश्चित किया कि यह घटना तूल न ले और साम्प्रदायिक तनाव और न फैले। इसके विपरीत, तनवीर हसन मुसलमानों के आग्रह के बावजूद इस मसले पर चुप्पी साधे रहे जिसने मुस्लिम मतदाताओं में उनके प्रति गहरी नाराज़गी को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त तनवीर हसन के कारण बेगूसराय ही नहीं, पूरे बिहार और पूरे देश के मोदी-विरोधी मतदाताओं को यह संदेश गया कि राजद ने तेजस्वी यादव के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए तनवीर हसन की उम्मीदवारी के जरिए बेगूसराय की सीट को फँसा दिया है। इसने मुस्लिम-युवाओं एवं मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सोचने के लिए विवश किया, और मुस्लिम-समुदाय चुनावी राजनीति में पक्षधरता को लेकर दो हिस्सों में बँटता दिखायी पड़ा। जहाँ मुस्लिम युवा दृढ़तापूर्वक कन्हैया कुमार के पक्ष में खड़े थे, वहीं बुज़ुर्गों की पीढ़ी तनवीर के पक्ष में, और मुस्लिम युवाओं पर बढ़ते हुए दबाव ने बुज़ुर्गों को अपने नज़रिए में बदलाव के लिए विवश किया।
भूमिहार मतों का विभाजन:
इस बार का चुनावी परिदृश्य सन् 2014 के चुनावी-परिदृश्य से भिन्न प्रतीत हो रहा था, पर वोटिंग के दौरान वोटर्स का रुझान यह बतला रहा है कि थोड़े से बदले हुए सन्दर्भ में बेगूसराय में सन् 2019 का लोकसभा-चुनाव सन् 2014 के लोकसभा-चुनाव की ही पुनरावृत्ति है, बस फर्क यह है कि इस बार सीधी टक्कर भाजपा एवं सीपीआई उम्मीदवार के बीच लग रही है, और राजद उम्मीदवार तीसरे स्थान की ओर बढ़ते दिख रहे हैं अनुमान है कि भूमिहारों का करीब (55-60) प्रतिशत वोट गिरिराज सिंह के हिस्से में गया है और (35-40) प्रतिशत कन्हैया के खाते में, जबकि 5 प्रतिशत तनवीर, नोटा तथा अन्यों के हिस्से में। सीपीआई-उम्मीदवार के पक्ष में भूमिहार मतों का यह विभाजन जहाँ उनकी स्थिति को मज़बूत कर रहा है, वहीं भाजपा उम्मीदवार की स्थिति को कमजोर
अबतक यह माना जा रहा था कि कन्हैया कुमार के लिए गिरिराज के इस क़िले को भेद पाना आसान नहीं रहेगा, इसलिए भी कि भूमिहार मतदाता भूमिहार वोटों के बँटने को लेकर आशंकित थे और उन्हें डर था कि इस बार कहीं इसका लाभ उसी तरह तनवीर हसन को न मिल जाए, जिस तरह सन् 2009 में मोनाजिर हसन को मिला था, जिनके अनुभव अच्छे नहीं रहे थे। इस आशंका को निरस्त करने के लिए भूमिहार वोटरों का एक वर्ग ‘वेट एंड वाच’ की मुद्रा में था, और मुस्लिम मतदाताओं के रूख का इन्तज़ार कर रहा था। अगर मुस्लिम मतदाता साम्प्रदायिक आधार पर तनवीर के पक्ष हमें खड़े होते, तो भूमिहार मतदाता हिन्दुत्व के आधार पर गिरिराज के पक्ष में। लेकिन, यदि मुस्लिम मतदाताओं का रूझान कन्हैया के पक्ष हमें होता, तो भूमिहार मतदाताओं को अपने नाती की तुलना में बेगूसरैया बेटे के पक्ष में खड़ा होने से परहेज नहीं होता।
भूमिहार वोटरों का पारम्परिक रूझान और कन्हैया कुमार की मुश्किलें:
यद्यपि बेगूसराय के भूमिहार-वोटर्स अपने राजनीतिक वर्चस्व को लेकर अत्यन्त सजग रहे हैं और पारम्परिक रूप से काँग्रेस एवं भाजपा के वोटर रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि बेगूसराय में भूमिहारों ने ही वामपंथी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया है, और ऐसा करते हुए भूमिहारों के राजनीतिक वर्चस्व को सुनिश्चित करने में निर्णायक भूमिका निभाई है। इसीलिए इस जाति में वामपंथी कैडरों की प्रभावी उपस्थिति रही है जो समय के साथ कमजोर पड़ता चला गया। यद्यपि मूल रूप से उनका रूझान साम्प्रदायिक तो नहीं रहा है, पर पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा के बढ़ते हुए प्रभाव ने उन्हें इस रास्ते पर ले जाने का काम किया है। ये पारम्परिक रूप से
भूमिहार मतों के विभाजन का कारण:
इस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं के कन्हैया कुमार की ओर रूझान ने भूमिहार वोटों के विभाजन का आधार तैयार किया, और इसकी पृष्ठभूमि में ‘नेता नहीं, बेटा’ का स्लोगन भूमिहार वोटों में सेंध लगाता दिखाई पड़ा। इसमें कन्हैया कुमार का युवा होना, उसकी लिबरल छवि, उसमें अंतर्निहित भविष्य की संभावनाएँ, उसका सम्मोहक व्यक्तित्व, उसकी वक्तृत्व-शैली और वामपंथियों की पुरानी पीढ़ी की नकारात्मक छवि के कारण उनसे कन्हैया कुमार की बरती गई दूरी ने महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभाई। जहाँ भूमिहार युवाओं (लड़के एवं लड़कियों) के बीत कन्हैया कुमार के प्रति ज़बर्दस्त आकर्षण था, वहीं ‘नेता नहीं बेटा’ के नारे ने सामंती पुरूष-प्रभुत्ववादी समाज की भूमिहार महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। इसके अतिरिक्त, कन्हैया कुमार की निम्न-वर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि ने ‘भूमिहरवा’ अर्थात् ग़रीब-गुरबा भूमिहार मतदाताओं में कन्हैया कुमार के प्रति आकर्षण को जन्म दिया, तोभूमिहार बुद्धिजीवियों ने भी कन्हैया कुमार का खुलकर समर्थन किया। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि कन्हैया कुमार भाजपा के भूमिहार वोट-बैंक में सेंध लगा पाने में एक सीमा तक ही सफल रहे। भाजपा ने बड़े ही सलीक़े से कन्हैया कुमार की जो देशद्रोही छवि निर्मित की और इसके कारण भूमिहारों के बीच कन्हैया कुमार की बनी नकारात्मक छवि को वर्तमान ध्रुवीकृत माहौल में भेद पानाबहुत ही मुश्किल था। इसके अतिरिक्त, भाजपा, उसके नेतृत्व और उसके कार्यकर्ता भूमिहार मतदाताओं को भूमि के पुनर्वितरण को लेकरलम्बे समय तकचले संघर्ष और उस हिंसक दौर की याद दिला पाने एवं भय के मनोविज्ञान को कहीं गहरे तक बठा पाने में सफल रहे। उन्हें लगा किलाल झंडा का पुनः उभरना उनके लिए नुकसान की बात है। इतना ही नहीं, आरक्षण को लेकर कन्हैया कुमार के रूख ने भी उनकी मुश्किलें बढ़ाई।लेकिन, इसे प्रति-संतुलित करने का काम किया उन भूमिहार युवाओं ने, जिसने न तो लाल-क्रांति का हिंसक दौर देखा था और न ही इसके हिंसक परिणामों को भुगता था। इसके अतिरिक्त भूमिहार बुद्धिजीवियों ने कन्हैया कुमार केप्रति नरमी बरतते हुए इन आशंकाओं को ख़ारिज करने की कोशिश की और उन्हें यह आश्वस्त किया कि यह उस बदनाम लाल दौर का उभार नहीं है।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कन्हैया कुमार पुराने वामपंथी भूमिहारों को कुछ हद तक वापस वामपंथ के करीब लाने में सफल रहे। ऐसा बछवारा और तेघरा विधानसभा क्षेत्रों में कहीं अधिक दिखायी पड़ा है। इसके विपरीत, कुमार सोनी बाबू के शब्दों में कहें, तो “बेगूसराय नगर निगम और मटिहानी के भूमिहारों की वामपंथ से दूरी शत्रुता की हद तक है। उन्हें न तो भूमिहारों में लाल कैडर दिख पाता है, और न ही वे यह मानते हैं कि भूमिहार इस जगह के अतिरिक्त भी कहीं रहते हैं।”
यादव मतदाताओं का रूझान:
यादव मतदाता राजद के परम्परागत वोटर्स रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान इनका रूझान भाजपा की ओर बढ़ा। लेकिन, चूँकि लालू जी जेल में हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें ज़मानत नहीं मिली है, इसलिए उन्हें ऐसा लग रहा है कि लालू जी को भाजपा सरकार के द्वारा ज़बरन परेशान किया जा रहा है। इसको लेकर यादव वोटर्स में भाजपा के प्रति नाराज़गी भी है, और राजद के प्रति सहानुभूति भी। फिर भी, बेगूसराय में ‘माय समीकरण’ में सेंध लगता दिखायी पड़ा है। पहल मुसलमानों की ओर से हुई, और फिर इसका असर यादव वोटर्स पर भी देखा जा सकता है। यादव मतदाताओं के एक हिस्से को भी यह लग रहा है कि तेजस्वी के चक्कर में राजद ने बेगूसराय सीट को फँसा दिया है। इतना ही नहीं, कम्युनिस्ट आंदोलन के दौर में सीपीआई ने अच्छी पैठ बना ली थी जो पिछले तीन दशकों के दौरान टूटती दिखायी पड़ रही थी और जो कन्हैया के सक्रिय होने के बाद सीपीआई की तरफ़ वापस लौटता दिख रहा है। जब इन्होंने देखा कि मुसलमान तनवीर हसन की बजाय कन्हैया की तरफ़ मूव कर रहे हैं, तो कई जगहों पर यादव मतदाताओं ने भी कन्हैया की ओर रूख किया है जिसके कारण यादव वोट-बैंक बँटा है। अब कितना बँटा है, इसका आकलन कर पाना मुश्किल है। युवाओं एवं महिलाओं के कन्हैया की ओर रूझान के मद्देनजर और मोमेंटम एवं अंडर-करेंट के कन्हैया के पक्ष में रहने के कारण इस बात की संभावना कहीं अधिक है कि कन्हैया कुमार को यादव मतदाताओं के कहीं अधिक मत मिले हों।
ग़ैर-ओबीसी मतदाताओं का रूझान:
भले ही मात्राओं का अनुमान न लगाया जा सके, पर इतना तो तय है कि इसी के सहारे कन्हैया जाति और धर्म से आगे बढ़ते हुए जमात की राजनीति की ओर बढ़ते दिखाई पड़े। दरअसल कन्हैया कुमार ने आरम्भ से ही बेगूसराय जिले के उत्तरी हिस्से पर खुद को फोकस किया जो पिछड़ा-बहुल इलाका है और जो कभी कम्युनिस्ट आन्दोलन का गढ़ हुआ करता था। इसके कारण कन्हैया के नेतृत्व में वामपंथ को अपनी खोई हुई ज़मीन तलाशने में मदद मिली है और इसने पिछड़ी जातियों एवं दलित-मतों के विभाजन को सुनिश्चित किया है।

इसके परिणामस्वरूप भूमिहार, मुसलमान एवं यादव मतदाताओं के अलावा कुर्मी, कुशवाहा, कोयरी, सहनी आदि वोट भी कहीं पर एकमुश्त पड़ने की बजाय बँटे हैं। नीतीश कुमार के प्रभाव में कोइरी एवं कुर्मी वोटरों का रूझान भाजपा की तरफ़ रहा है, पर पूर्व में सीपीआई के प्रभाव वाले कुर्मी-बहुल क्षेत्रों में कन्हैया की मेहनत ने उसे कुछ हद तक चुनौती भी दी है और वहाँ सीपीआई कुर्मी मतदाताओं का एकमुश्त वोट हासिल करने में सफल रही है। इसी प्रकार की स्थिति सहनी-बहुल क्षेत्रों में भी दिखायी पड़ती है। इसके अतिरिक्त चौरसिया एवं कुम्हार समाज का सीपीआई की ओर रूझान रहा, जबकि बनिया-कायस्थ भाजपा के पक्ष में अधिक झुके रहे। ऐसा ही भाजपा के परम्परागत वोट-बैंक कायस्थों में भी दिखता है और करीब-करीब आधे कायस्थ की शिफ्टिंग कन्हैया की तरफ़ दिख रहा है। कायस्थों की तरफ पासवान वोटों की भी शिफ़्टिंगकन्हैया की तरफ़ दिखाई पड़ती है। छिट-पुट स्तर पर छोड़ दें, तो राजपूत और ब्राह्मण वोटों को भाजपा अपने पक्ष में बनाए रख पाने में सफल रही है। जहाँ तक दलितों, महादलितों और अन्य पिछड़ी जातियों का प्रश्न है, तो यहाँ पर कन्हैया ने प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाई है, यद्यपि उज्ज्वला और शौचालय योजनाओं की ब्रांडिंग ने कुछ हद तक भाजपा को लाभ पहुँचाया है।
विधानसभा-वार विश्लेषण:
बेगुसराय संसदीय क्षेत्र की सातों विधानसभा-क्षेत्रों के सन्दर्भ में यदि संभावित परिणामों का विश्लेषण करें, तो बछवाड़ा और बखरी विधानसभा क्षेत्रों में कन्हैया कुमार को भारी बढ़त मिलने की संभावना है, जबकि तेघरा में अपेक्षाकृत छोटी बढ़त होगी। गिरिराज सिंह को   मटिहानी एवं चेरिया-बरियारपुर विधानसभा-क्षेत्र में भारी बढ़त की सम्भावना है, जबकि बेगूसराय में मामला करीबी है और यहाँ गिरिराज सिंह को मामूली बढ़त मिलने की सम्भावना है। आरम्भ में ऐसा लग रहा था कि बेगूसराय एवं मटिहानी में भाजपा को भारी बढ़त मिलेगी, लेकिन अंतिम सप्ताह में भूमिहार मतदाताओं के रुझान में आने वाले बदलावों ने इसे कम करने का काम किया। साहेबपुर कमाल सीट से तनवीर हसन को बढ़त मिलने की संभावना है और यहाँ कन्हैया दूसरे नंबर पर रहेंगे और गिरिराज तीसरे नंबर पर।
मतदाताओं की चुप्पी ख़तरनाक:
संक्षेप में कहें, तो बेगूसराय की फ़िज़ाँ कन्हैयामय रही है। युवाओं के जोश, उत्साह और ऊर्जा ने इस फ़िज़ाँ को निर्मित करने में अहम् भूमिका निभाई है। इसके कारण अंडर-करेंट कन्हैया के पक्ष में रहा है। इसे नामांकन के दिन से लेकर अंतिम दिन तक देखा जा सकता है, और इसीलिए यह उम्मीद की जा रही है कि इसका लाभ कन्हैया कुमार को मिलेगा और यह उसकी जीत में निर्णायक भूमिका निभायेगा। यही कारण है कि कन्हैया को दलगत राजनीति से परे हटकर समर्थन मिला। कई भाजपा और काँग्रेस के कार्यकर्ता भी कन्हैया का प्रचार करते और कन्हैया की जीत को सुनिश्चित करते दिखे। यहाँ तक कि पर्दे के पीछे रहकर भाजपा एवं काँग्रेस के कई स्थानीय नेताओं ने भी कन्हैया की जीत और गिरिराज की हार करते दिखे। इस पृष्ठभूमि में जब काँग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बेगूसराय से कन्हैया कुमार को समर्थन न देने के निर्णय की आलोचना की और कन्हैया कुमार ने भोपाल में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के विरूद्ध चुनाव लड़ रहे दिग्विजय सिंह के पक्ष में प्रचार करने की घोषणा की, तो इसने बेगूसराय के मतदाताओं को यह संकेत दिया कि बेगूसराय में काँग्रेस कन्हैया कुमार के साथ है, और इसके कारण मतदान के ठीक पहले अंतिम चौबीस घंटे के दौरान तनवीर के वोट तेज़ी से कन्हैया कुमार की तरफ़ शिफ़्ट करते दिखाई पड़े। अब यह शिफ़्टिंग कितनी हुई है, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है क्योंकि भय के वातावरण में मतदाता साइलेंट हैं, अपना मुँह खोलने के लिए तैयार नहीं हैं। पर, ऐसा माना जा रहा है कि चूँकि भय का यह माहौल भाजपा एवं उनके समर्थकों के द्वारा सृजित है, इसलिए संभव है कि ईवीएम पर मतदाताओं की चुप्पी टूटने का लाभ कन्हैया को मिले। पर, अंतिम तौर पर कुछ कह पाना बहुत ही मुश्किल है।
इन सबके बावजूद अगर मुझे अनुमान लगाना हो, तो मैं कन्हैया कुमार की जीत पर दाँव लगाना चाहूँगा, यह कहते हुए कि:
1.  हो सकता है कि जीत का अंतर उससे कहीं अधिक बड़ा हो, जितने का अनुमान लगाया जा सकता है। संक्षेप में कहें, तो इस चुनाव में जो सहानुभूति-लहर कन्हैया के प्रति दिखाई पड़ी है, अगर मतों में रूपांतरित हुई, तो जीत-हार का फासला बढ़ता चला जाएगा।
2.  अगर कन्हैया कुमार जीतते हैं, तो इसका श्रेय उन्हें, उनकी पार्टी, और उनके कैडर की बजाय उनके उन समर्थकों को दिया जाना चाहिए जिनकी कोई दलीय प्रतिबद्धता नहीं रही है, पर जो विभिन्न कारणों से कन्हैया कुमार के प्रति आकर्षित थे और जिन्होंने अपनी ऊर्जा, अपने उत्साह और अपनी प्रतिबद्धता की बदौलत उन्हें वह बढ़त दी जिसके लिए उनके विरोधी तरसते रहे।
3.  इसके बावजूद अगर कन्हैया कुमार हारते हैं, तो इसके लिए ज़िम्मेवार वे स्वयं होंगे जिन्होंने अनुभव एवं कैडर को हाशिए पर पहुँचाते हुए खुद अपनी हाईटेक टीम के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लिया है। अंतिम 48 घंटे के दौरान फ़ील्ड में कैडरों की निष्क्रियता की क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, क्योंकि भाजपा और संघ के कैडरों की सर्वाधिक सक्रियता इसी समय में देखी गयी है।





6 comments:

  1. बहुत सटीक माइक्रो एनालिसिस किये है सर।
    जो भी हो कन्हैया कुमार की जीत एक आशावादी राजनीतिक क्रांति लाएगी इसलिए कन्हैया कुमार की जीत के लिए मेरी मंगल कामना है।

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  2. बेगूसराय में आपकी सक्रिय उपस्थिति के कारण आपके इस ब्लॉग की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यदि कन्हैया कुमार की जीत होती है तो यह बिहार ही नही भारत की राजनीति में भी एक अभिनव प्रयोग के रूप में देखा जाएगा। ऐसा प्रयोग जिसके अंतर्गत जाति, धर्म और सम्प्रदाय की दीवारें दरकती नजर आयी।

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  3. इंतजार है रिजल्ट का।

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  4. A better and bitter analysis of Begusarai parliamentary election 2019.

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  5. मेरे अनुमान से तेघड़ा और बेगूसराय shit को फिर से विचार करने की जरूरत है पता नहीं हमे ऐसा क्यू लगता यदि हम बात करे तेघड़ा की तोह वहाँ से कन्हिया को 70% से ज्यादा तथा बेगूसराय से 40% ही वोट इनके पक्ष मे दिखाई पड़ता है।।

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  6. अच्छा समाजशास्त्रीय लेख ,

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