Tuesday, 21 May 2019

‘टाइम’ मैगजीन में छपी मोदी-महिमा पर एक दृष्टिपात: मणिभूषण सिंह (बेगूसराय)


‘टाइम’ मैगजीन में छपी मोदी-महिमा पर एक दृष्टिपात
                       -मणिभूषण सिंह (बेगूसराय)

"टाइम" नाम की ख्यातिप्राप्त अमेरिकी पत्रिका में पाकिस्तानी स्तंभकार "आतिश तसीर" ने भारत के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा संवैधानिक परिदृश्य को जिस सुललित भाषाशैली, परिष्कृत रचनाधर्मिता एवम उत्कृष्ट अर्थगम्भीरता के साथ चित्रित किया है, उसमें केन्द्रीभूत रूप से मोदी, राहुल और योगी प्रधान भूमिकाओं में दिखे हैं क्योंकि यही हैं जिनसे भारत का वर्तमान और भविष्य जुड़ा हुआ है। चित्रण के अपने इस प्रयास में तसीर ने मोदी को भारत का प्रमुख विभाजनकारी पुरुष बताया है। योगी को कट्टर हिंदुत्ववादी सोच का युवा तुर्क कहते हुए तसीर ने उनको नफरत की आग फैलाने वालों का सेनानी बताया है। उनकी चपेट से हालाँकि कांग्रेस पार्टी और राहुल गाँधी भी बमुश्किल बचे। द्रष्टव्य है कि राहुल को धर्मनिरपेक्ष नेहरूवियन समाजवाद और नेहरू वंश का मौजूदा चिराग़ बताने के क्रम में उन्होंने उनके सम्पूर्ण प्रक्रम को एक ‘Unteachable Mediocrity’ भी कहा।

पत्रिका के भीतर इस आमुख कथा का शीर्षक एक प्रश्ननुमा वक्रोक्ति है जिसका शब्दानुवाद होगा, "क्या दुनिया का विशालतम लोकतंत्र मोदी सरकार का एक और पाँच साल झेल सकता है?" मुखपृष्ठ पर मोदी का स्केच है और आवरण के लिए एक भिन्न शीर्षक है जो पूर्ण रूप से निर्णयात्मक है। लिखा है, "INDIA'S DIVIDER IN CHIEF" यानी "भारत का सबसे बड़ा विभाजनकारी"। आमफहम बातचीत की शब्दावली में कहें, तो 'भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह' बोलने वाले 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' का सरदार। टाइम ने वक़्त-वक़्त पर नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, राजीव, सोनिया, मनमोहन आदि पर भी कई सारी आमुख कथाएँ की हैं। इससे पहले इसी टाइम ने मोदी में भारत के विकास की उम्मीद देखी थी। इस आशय की एक कवर स्टोरी उसने तब भी की थी। आज उसी की वह उम्मीद टूटती नजर आती है। वह इस बात को भी रखता है। जाहिर है कि ऐसे आलेख बाह्यतः अवलोकन के निष्पक्ष दृष्टिकोण से उत्पन्न होते हैं।

मोदी का आविर्भाव: भारतीय लोकतंत्र का पॉपुलिस्ट हो जाना:
अनुभूत सत्य लिखने की चेष्टा में लेखक आतिश तसीर ने भारत के वाराणसी में सियासी पारे की परख भी की थी। बनारस में एबीवीपी के किसी कार्यकर्ता से विकास और विनाश की चर्चा सुनना और इतिहास में भारत की आजादी के दिन से सत्रहवें लोकसभा चुनाव तक की गति को परिप्रेक्ष्य बनाकर मौजूदा परिस्थितियों के ऊपर बेबाक राय व्यक्त करना पाठ को और अधिक विश्वसनीय बना देता है। तसीर ने सन् 2014 में मोदी के अभ्युदय को 'अपरिहार्यता तथा विपत्ति' (inevitability and calamity) बताते हुए भारतीय लोकतंत्र के पॉपुलिस्ट हो जाने की बात की है। वे भारत की आजादी से शुरू करते हैं। विभाजन के बाद मुस्लिम देश पाकिस्तान के विपरीत भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाकर राज्य तथा धर्म को एक दूसरे से विलग करने में कैंब्रिज-एजुकेटेड नेहरू की भूमिका को अहम मानते हैं। हालाँकि उनके वारिसों पर सामंती वंशवाद का तगमा लगाने से भी वे नहीं चूकते, लेकिन फिर भी अपने तुलनात्मक अध्ययन में उन्होंने काँग्रेस को ही बेहतर विकल्प ठहराया है।
सत्ता पक्ष द्वारा पोषित और संरक्षित होते रहने के न्यस्त स्वार्थ में भारतीय मीडिया का एकपक्षीय अवलोकन राष्ट्रीय प्रक्रियाओं और घटनाक्रमों की जो अतिरंजित तस्वीर सामने ले आता है, उससे सूचना-संग्राही जनता के भीतर किसी निष्पक्ष दृष्टि के बन पाने की कोई संभावना नहीं होती और इसीलिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया के वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण को ही आधार मानकर यथास्थिति का मूल्यांकन कर सकने का विकल्प शेष रह जाता है। पुलवामा वाले मामले में जब भारतीय मीडिया एक ठेठ वाररूम बनकर रह चुकी थी, तब एक आँखें खोल देने वाला आलेख इसी अमेरिका के "हफिंग्टन पोस्ट" ने छापा था। (https://www.huffingtonpost.in/entry/our-captured-wounded-hearts-arundhati-roy-on-balakot-kashmir-and-india_in_5c78a574e4b0de0c3fbf6b50) लेखिका थीं प्रख्यात कलमबाज अरुंधती रॉय। ठीक वैसे ही भारतीय लोकतंत्र के सत्तर साल के इतिहास में मोदी की भूमिका का आकलन हिंदुस्तानी मीडिया की बजाय वर्ल्ड-मीडिया की ओर से ज्यादा यथार्थवादी और वस्तुनिष्ठ माना जायेगा। टाइम के इस आलेख में तसीर ने दो तरह के पॉपुलिस्टों का जिक्र किया...
1.  एक तो टर्की के एरडोगन और ब्राज़ील के बोलसोनारो की तरह के वैसे पॉपुलिस्ट जो उनसे जुड़ाव रखते हैं जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, और
2.  दूसरे वे जो उनकी भावनाओं का शोषण मात्र करते हैं जिनके वे अंग तक नहीं हैं, जैसे शैम्पेन नियो-फ़ासिस्ट, ब्रेक्झिटियर्स, डोनाल्ड ट्रम्प और इमरान खान।
3.  मोदी को उन्होंने पहले वर्ग में रखा।
(यद्यपि इस पर प्रतिक्रिया देते हुए यह आलेख भी लिखा गया: https://www.newslaundry.com/2019/05/11/aatish-taseer-narendra-modi-time-magazine-divider-in-chief?fbclid=IwAR2C7zViDAhrGPEgViDdsVpewReISXLqemf2xzFwEJy1WjsJg7n6pDIfhD4)
सांस्कृतिक दरार पैदा करने की कोशिश:
तसीर लिखते हैं कि सन् 2014 में सांस्कृतिक दरार पैदा की गई थी। भारतीय गणराज्य पर, इसके संस्थापकों पर, अल्पसंख्यकों तथा उनकी संस्थाओं की स्थिति पर, विश्वविद्यालयों और कॉर्पोरेट से लेकर मीडिया तक पर अविश्वास व्याप्त हो चुका था। धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य जैसी स्वतंत्र भारत की स्तुत्य उपलब्धियाँ बहुतों की दृष्टि में एक बड़ी साजिश लगने लगी थीं जिसमें मूलोच्छेदित हिन्दू कुलीन इस्लाम तथा ईसाइयत जैसे एकेश्वरवादी धर्मों के अल्पसंख्यकों के साथ गिरोह बाँधकर हिन्दू बहुसंख्या पर प्रभुत्व कायम किये हुए थे। इसी अविश्वास ने मोदी को जीत दिलाई। मोदी नेहरू और नेहरूवियन मूल्यों की भर्त्सना कर रहे थे। धार्मिक राष्ट्रवाद, जाति-विद्वेष और मुस्लिम-विरोध का पतीला उबल रहा था। कांग्रेस-मुक्त भारत की बात करते हुए मोदी ने तमाम स्थापित मूल्यों को बुहारकर फेंक दिया। 1984 और 2002 के दंगों की तुलना में उन्होंने यह कहा कि कांग्रेस ने तो भीड़ द्वारा की गई हिंसा से अपना दामन छुड़ा लिया लेकिन गुजरात के दंगे में मोदी की छवि दंगाई भीड़ के मित्र की बनी। दंगा-मित्र मोदी जोर देकर कहते रहे कि मुग़ल, अंग्रेज आदि विदेशी शासकों के सभी उत्तराधिकारी गौरवशाली हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सम्मिलित विरोध करते रहे हैं।

सांस्कृतिक आवेश को आर्थिक प्रत्याशा में परिवर्तित करना:
2014 में मोदी ने सांस्कृतिक आवेश को आर्थिक प्रत्याशा में परिवर्तित कर दिया। विकास और रोजगार के वादे की बात हुई। राम-मंदिर से विकास का एजेंडा अधिक बड़ा लग रहा था। इस चुनाव में हालाँकि स्थिति बदली है। मोदी के आर्थिक चमत्कार फलीभूत नहीं हो पाए। भारत में जहरीले धार्मिक राष्ट्रवाद का वातावरण बना दिया गया है। इस संदर्भ में तसीर ने भाजपा के तेजस्वी सूर्या के मार्च,2019 का बयान सामने रखा, "अगर तुम मोदी के साथ हो, तो तुम भारत के साथ हो। अगर तुम मोदी के साथ नहीं हो तो तुम भारत-विरोधी ताकतों को बल दे रहे हो।" हिंदुस्तान के कुल चौदह प्रतिशत मुसलमान-शासन की मौन सहमति से हिन्दू भीड़ के द्वारा पवित्र गाय के नाम पर निर्मम हिंसा के शिकार होते रहे हैं। 2017 के मोहम्मद नईम के वाकये से सरकार के असली मौन को प्रदर्शित करते हुए स्तंभकार ने चिंता जताई है कि आधारभूत प्रतिमान तथा नागरिक आचार इतने दूषित हो चुके हैं कि मोदी अब इस हिंसा को कोई दिशा नहीं दे सकेंगे। तसीर मानते हैं कि एक बार नफ़रत को मंजूरी मिली नहीं कि फिर उसे लक्ष्य-च्युत करना आसान नहीं रह जाता। भाजपा स्वयं परेशान है कि वही लोग जो मुस्लिम को अपनी हिंसा का टारगेट बनाये हुए थे, वही लोग अब अवर्ण हिंदुओं के साथ वही कर रहे हैं,जबकि भाजपा को तो उनसे भी वोट लेना है। जुलाई,2006 में गौरक्षा के नाम पर गुजरात में चार चमारों को नंगा करके लोहे की छड़ों से पीटे जाने और सड़क पर घुमाये जाने की घटना इस बात का समर्थन करती है।
महिलाओं की स्थिति भी बेहतर नहीं:
महिलाओं के मामले में भी मोदी का हिसाब कुछ बेहतर नहीं। 2014 में औरतों को अपने चुनाव का प्रधान मुद्दा बनाकर भी वे 2018 में भारत को स्त्री-वर्ग के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक स्थल घोषित होने से रोक नहीं पाए। स्वतन्त्रता की पाश्चात्य अवधारणाओं को आत्मसात करने से उत्पन्न सामाजिक विषमताओं को मान भी लिया जाय, तो कहा जायेगा कि मोदी के कार्यकाल में उदारवादी, निम्नतर जाति के लोग, मुसलमान और ईसाई सभी अल्पसंख्यक धाराएँ चोटिल हुई हैं। सबके विकास के वादे से बहुत दूर मोदी ने भारत में सबके बीच के अंतर को ही बढ़ावा दिया है। पिछले चुनाव में जैसे इस अंतर से एक आशा उपजाई गयी थी, इस चुनाव में वह अंतर यूँ ही धरा पड़ा है। तसीर लिखते हैं, "The incumbent may win again–the opposition, led by Rahul Gandhi, an unteachable mediocrity and a descendant of Nehru, is in disarray–but Modi will never again represent the myriad dreams and aspirations of 2014. Then he was a messiah, ushering in a future too bright to behold, one part Hindu renaissance, one part South Korea’s economic program. Now he is merely a politician who has failed to deliver, seeking re-election. Whatever else might be said about the election, hope is off the menu." यानी "सत्ताधारी दुबारा जीत सकता है: एक अपाठनीय औसत-मति और नेहरू के वंशज राहुल गाँधी द्वारा नीत विपक्ष अस्त-व्यस्त है; लेकिन मोदी दुबारा कभी 2014 के असंख्य स्वप्नों और अभिलाषाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। तब वह मसीहा था, आधा हिन्दू पुनर्जागरण और आधा दक्षिण कोरियाई आर्थिक कार्यक्रम को समेटे वह इतने जाज्वल्यमान भविष्य में ले जा रहा था कि जिसे देख कर आँखें चौंधिया जाएँ। अब वह मात्र एक राजनेता है जिससे विकास पैदा नहीं हो पाया है, और अब दुबारा चुनाव में पद खोज रहा है। चाहे चुनाव के बारे में और जो कुछ कहा जाय, आशा सूची से बाहर ही है।"
विशेषाधिकार सम्पन्न लिबरल्स की मौजूदगी राहत की बात:
अपने राजनैतिक पुनरुत्थान के लिए जेरुसलम, रोम या मक्का की तरह के हिन्दू तीर्थ शहर-ए-बनारस से अपना चुनाव लड़ने के लिए मोदी आये हैं और वहीं पहुँचकर तसीर को अनुभव हुआ कि जिस समाज का निर्माण मोदी करना चाहते हैं, उसमें उन जैसे व्यक्ति जिनके पिता पाकिस्तानी मुसलमान और माता भारतीय अंग्रेजी भाषाभाषी संभ्रांत हों, के लिए कोई स्थान नहीं होगा। फिर भी, भारत में सत्ता के स्वरूप के मोदीवादी विश्लेषण के लिए इन्हें सहानुभूति थी कि पश्चिम के असदृश भारत में वामपंथी या उदारवादी समूह विशेषाधिकार सम्पन्न हैं और दक्षिणी छोर पर ऐसा कोई समूह अभी नहीं है। पिछले चुनाव में मोदी द्वारा सांस्कृतिक पृथक्करण के मसले पर नेहरू को याद करते हुए तसीर कहते हैं कि नेहरू मानते थे कि भारत का आधुनिकीकरण विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी से ही सम्भव है और इसके लिए जरूरी है कि पश्चिमी वैज्ञानिक प्रवृत्ति अपनायी जाय। 2014 के मोदी के गणेश जी और प्लास्टिक सर्जरी वाले बयान को लेकर तसीर ने यह तक लिखा, "Modi, inadvertently or deliberately, has created a bewildering mental atmosphere in which India now believes that the road to becoming South Korea runs through the glories of ancient India." यानी "मोदी ने लापरवाही से या जानबूझकर एक विस्मयकारी मानसिक वातावरण तैयार किया है जिसमें भारत अब विश्वास करता है कि दक्षिण कोरिया बनने का मार्ग प्राचीन भारत की महिमाओं से होकर गुजरता है।"

चाहे राजनीति हो, अर्थशास्त्र हो या भारत-विद्या (indology अर्थात भारतीय इतिहास, संस्कृति या भाषा आदि का अकादमिक अध्ययन) हो, मोदी भारत को प्रतिभा-विरोधी राह पर ले जा रहे हैं। प्रो० जगदीश भगवती ने स्वामीनाथन गुरुमूर्ति के बारे में कहा था कि अगर वे अर्थशास्त्री हैं, तो मैं भरतनाट्यम नर्तक हूँ। वही गुरुमूर्ति रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के बोर्ड में मोदी की कृपा से बिठाए गए। उन्होंने ही 2016 में मोदी को काले धन से निपटने की तरकीब बताते हुए कहा था कि 1000 और 500 के बैंकनोट जो कुल करेंसी का 86% थे, उन्हें एकबारगी चलन से बाहर कर दिया जाय। परिणाम यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी तक नोटबन्दी के उस घातक हमले से उबर नहीं पाई है। ऐसे में मोदी के पास सिर्फ राष्ट्रवादी बुखार बचा है और हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच के तनाव से ही कोई चुनावी लाभ लिया जा सकता है। 2017 में यूपी चुनाव जीतने के बाद (जहाँ सबसे सघन मुस्लिम आबादी है) भाजपा ने नफ़रत का ज़हर फैलाने वाले हिन्दू राष्ट्रवादी और भगवाधारी पुजारी आदित्यनाथ योगी को राज्य चलाने दिया। योगी के बारे में तसीर लिखते हैं, "Yogi Adityanath had not been the face of the campaign. If he was known at all, it was for vile rhetoric, here imploring crowds to kill a hundred Muslims for every Hindu killed, there sharing the stage with a man who wanted to dig up the bodies of Muslim women and rape them." यानी "योगी आदित्यनाथ कभी अभियान का चेहरा नहीं रहे। अगर उन्हें जाना जाता था तो सिर्फ उनकी घिनौनी शब्दावली के लिए, यहाँ वध किये गए प्रत्येक हिन्दू के लिए सौ मुसलमानों की हत्या करने की भीड़ से प्रार्थना करना और वहाँ उस आदमी के साथ मंच साझा करना जो मुसलमान औरतों की लाशें खोदना और उनका बलात्कार करना चाहता हो।"
योग्यता एवं प्रतिभा की अनदेखी:
हिंदुस्तान में अकादमिक लोग वामपंथी ही थे। प्रतिभाहीन और अधपढ़ों को तरजीह देकर मोदी ने योग्यता पर भीषण कुठाराघात कियाICHR (ऐतिहासिक शोध का भारतीय परिषद) और JNU (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) जहाँ से राजनेताओं और बुद्धिजीवियों की भीड़ निकला करती थी, वहाँ के प्रशासन और वहाँ की अध्यापन व्यवस्था में फेरबदल कर उन स्थानों को खोखला कर दिया गया। कुमारस्वामी के हवाले से तसीर ने यह स्पष्ट किया कि भारत को प्रगतिशील होने के लिए अंधविश्वास और जादू-टोने के चक्कर से निकलकर विज्ञान की शरण लेनी होगी, लेकिन मोदी हर हाल में भारत को उसके मध्ययुगीन अतीत में पीछे ले जाने की कोशिश करेंगे। यह एक उलझा हुआ विषय है कि भारत के पास क्या अपना है और क्या उसने औरों से लिया। गाँधी के शब्दों में "अपनी धरती के परदेसी" नामक मुहावरा बार-बार दुहराया जाता रहा है, हालाँकि कमोबेश विदेशी संस्कृति और विदेशी मानदंड के प्रति हम कभी खुले न थे। एक एबीवीपी के कार्यकर्ता ने तसीर से बनारस में यह कहा कि हमारे अपने ही गैरों में जा मिले हैं। अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति से जुड़े नहीं हैं। पता नहीं यह सब कौन नियंत्रित कर रहा है, मगर विकास और विनाश में अधिक अंतर नहीं है।यह युवा हिन्दू राष्ट्रवादी उपनिवेशवाद से असंबद्ध जरूर रहा, लेकिन भूमंडलीकरण ने इसे छुआ है। आत्महीनता के शिकार इन लोगों को यह लगता है कि उनकी सभ्यता, उनकी संस्कृति और उनके धर्म को नीचा दिखाया जा रहा है। वे हिन्दूफोबिया के सपने देखते हैं। हिक़ारत से सिकुलर, लिबटर्ड और न्यू यक टाइम्स बोलकर अपने संस्कृतिगत घाटे को बदलकर राजनैतिक विचारधारा बना लेना चाहते हैं। यही वजह है कि उनके मन में मुसलमानों, पिछड़ी जाति वालों तथा भारतीय संवर्ग के प्रति क्रोध-भाव पैदा हो जाता है। अमित शाह आप्रवासी मुस्लिमों की तुलना दीमक से करते हैं। भाजपा का ट्विटर हैंडल लिखता है कि मुसलमानों के अतिरिक्त और सभी धर्म वाले भारत आ सकते हैं। भोपाल, जहाँ की इस्लामी तवारीख रही है, 25% मुस्लिम आबादी है, वहाँ से एक भगवाधारी महिला साध्वी प्रज्ञा ठाकुर भाजपा प्रत्याशी है जो एक मस्जिद के निकट छह लोगों की हत्या के आतंकवादी हमले की मास्टरमाइंड रही है और अभी बेल पर बाहर है। यह राष्ट्रवाद और अपराध की गड्डमड्ड स्थिति है।

अंत में तसीर लिखते हैं कि मोदी के हिंदुस्तान में पुरानी व्यवस्था जरूर नष्ट हो गयी है, मगर कोई नई विश्वसनीय व्यवस्था आ नहीं सकीमोदी जीते हैं, हो न हो फिर जीत जाएं, मगर उससे क्या होगा? मोदी ब्रांड पापुलिज्म ने भारतीय समाज की जो विश्वस्त समीक्षा प्रस्तुत की है, उसका कांग्रेस पार्टी से बेहतर और कोई प्रतीक नहीं। कांग्रेस पार्टी के पास सिवाय वंशवाद के अभी और कुछ देने को नहीं है। भारत की सबसे पुरानी पार्टी के पास भाई राहुल की मदद के लिए बहन प्रियंका को भेजने के अतिरिक्त और कोई राजनैतिक ख्याल नहीं है। तसीर ने यह भी कहा, "Modi is lucky to be blessed with so weak an opposition–a ragtag coalition of parties, led by the Congress, with no agenda other than to defeat him. Even so, doubts assail him, for he must know he has not delivered on the promise of 2014. It is why he has resorted to looking for enemies within." यानी "मोदी भाग्यशाली है कि उसके पास इतना लचर विपक्ष है, कांग्रेस के नेतृत्व में पार्टियों का कुली-कबाड़ी टाइप गठबंधन जिसके पास उसे हराने के अलावे और कोई एजेंडा नहीं है। फिर भी संदेह उस पर बरस पड़ते हैं, क्योंकि उसे बखूबी जानना चाहिए कि 2014 के वादे को वह पूरा नहीं कर पाया है। यही वजह है कि उसने अंदरूनी शत्रु तलाशने शुरू कर दिए हैं।" और अपने लेख को समाप्त करते हुए उन्होंने एक डर जाहिर किया है कि "...a second term, one cannot help but tremble at what he might yet do to punish the world for his own failures." यानी "एक दूसरा कार्यकाल, अपनी असफलताओं के बदले दुनिया को दंडित करने के लिए वह और जो भी करेगा उसे सोचकर सिवाय काँपने के कोई और कुछ नहीं कर सकता।"
© मणिभूषण सिंह

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