Wednesday 12 June 2019

सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम: एक विश्लेषण


सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम,2019
प्रमुख आयाम
1.  सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम
2.  चुनाव-परिणाम को प्रभावित करने वाले कारक:
a.  भारतीय चुनाव की प्रकृति में परिवर्तन
b.  प्रधानमंत्री मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व
c.  भाजपा का मजबूत संगठन और उसकी सटीक चुनावी-रणनीति
d.  चुनाव जीतने की ललक
e.  सरकारी योजनायें और कार्यक्रम का लाभ
f.   जातिगत एवं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
g.  मतदाताओं के विशेष समूह को लक्षित करना
h.  पुलवामा एवं बालाकोट के बहाने देशभक्ति का ज्वार
i.   विरोधियों की नकारात्मक छवि
j.   सत्तारूढ़ दल के द्वारा धनबल का इस्तेमाल

3.  धन-बल की बढ़ती भूमिका

4.     क्षेत्रीय दलों की कीमत पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का फिर से उभार

5.  सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव और सामाजिक न्याय:

a.  अप्रासंगिक होती सामाजिक न्याय की राजनीति

b.  बदलाव की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान करती भाजपा

c.  सामाजिक न्याय की राजनीति 3.0

d.  सामाजिक न्याय और महिलाएँ

e.  सामाजिक न्याय और मुसलमान

f.   सवर्ण-उभार और मंत्री-परिषद की सामाजिक संरचना

g.  भविष्य की संभावना

सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम
सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम राजनीतिक विश्लेषकों के लिए कब्रगाह साबित हुए और सारे अनुमान धरे-के-धरे रह गए। ऐसी आशा की जा रही थी कि इस बार शायद ही किसी को बहुमत मिले। साथ ही, भले ही भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बने, पर उसे बहुमत मिलना मुश्किल है। लेकिन, तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने न केवल दोबारा बहुमत हासिल किया, वरन् अपने अबतक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का रिकॉर्ड तोड़ते हुए तीन सौ के जादुई आँकड़े को भी छुआ।
सत्रहवीं लोकसभा चुनाव-परिणाम:
अप्रैल-मई,2019 में संपन्न लोकसभा-चुनावों में बड़े पैमाने पर नकदी मिलने की वजह से तमिलनाडु की वेल्लोर लोकसभा सीट पर मतदान को चुनाव आयोग ने रद्द कर दिया, जिसके कारण इस बार 542 लोकसभा सीटों के लिए ही चुनाव हुए। 23 मई के आये चुनाव-परिणाम में 303 स्थानों के साथ भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरकर सामने आयी और इस प्रकार उसने पिछले लोकसभा के मुकाबले 21 सीटों की बढ़त सुनिश्चित की। इस तरह सन् 1971 के बाद पिछले 48 वर्षों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग-सरकार ऐसी पहली सरकार बनी, जिसे पूर्ण बहुमत के साथ दूसरे कार्यकाल के लिए चुना गया। भाजपा के नेतृत्व वाले राजग-गठबंधन ने भी अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार करते हुए 350 सीटें हासिल की। भाजपा के सहयोगियों में जनता दल (यूनाइटेड) ने 16 सीटें हासिल की, तो शिवसेना पिछली बार की तरह 18 सीटें हासिल करने में सफल रही।
इसके विपरीत गठबंधन सहयोगियों के साथ सत्ता में वापसी की आस लगाये काँग्रेस के लिए यह चुनाव एक बार से दु:स्वप्न साबित हुआ और वह लगातार दूसरी बार औपचारिक रूप से विपक्षी दल के रूप में मान्यता हेतु 55 सांसदों के आँकडे को जुटा पाने में असमर्थ रही। पिछली लोकसभा के 44 सांसदों के मुकाबले काँग्रेस इस बार केवल 52 सीटें ही जीत पायी। काँग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन को महज 91 सीटें मिली।
क्षेत्रीय दलों में पश्चिम बंगाल में तृणमूल काँग्रेस(TMC) 22 सीटों, ओड़िशा में बीजू जनता दल (BJD) 12 सीटों, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) 9 सीटों, आन्ध्रप्रदेश में वायएसआर काँग्रेस 16 सीटों, और तमिलनाडु में द्रमुक(DMK) 23 सीटों के साथ अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में भाजपा को कुछ हद तक चुनौती दे पाने में सफल रहे। उत्तर प्रदेश में बसपा भी दहांई अंक में पहुँचने में सफल रही, जबकि पिछली बार संसद में उसका प्रतिनिधित्व नहीं था। द्रमुक लोकसभा में भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।
जहाँ तक महिलाओं एवं अल्पसंख्यक मुसलमानों की भागीदारी का प्रश्न है, तो इस लोकसभा में 78 महिलाएँ चुनकर संसद पहुँची हैं, जबकि 16वीं लोकसभा में 62 महिलाओं को लोगों ने अपना जनप्रतिनिधि चुना था हालाँकि, भारत में भी धीरे-धीरे राजनीति और संसद में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन यह अब भी विकसित और कई पिछड़े देशों की तुलना में कम हैअमेरिका में 24 फीसदी, ब्रिटेन में 32 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 43 फीसदी, बांग्लादेश में 21 फीसदी और रवांडा में 61 फीसदी महिला प्रतिनिधि हैं। जहाँ तक मुस्लिम-प्रतिनिधित्व कीबात है, तो यद्यपि इसमें दो सांसदों की बढ़ोत्तरी हुई है, पर यह अभी भी चिंताजनक स्तर पर है।
चुनाव-परिणाम को प्रभावित करने वाले कारक:
अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि भाजपा की इस अप्रत्याशित जीत के क्या कारण हैं, और किन-किन तत्वों ने इसमें निर्णायक भूमिका निभाई? निश्चय ही इन प्रश्नों पर विस्तार से विचार की ज़रुरत है:
1.  भारतीय चुनाव की प्रकृति में परिवर्तन: भारत में संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया गया है जिसमें मतदाताओं के द्वारा अपने क्षेत्र के प्रतिनिधियों का चयन किया जाता है और फिर जनता के द्वारा निर्वाचित किये गए वे प्रतिनिधि बहुमत दल के नेता का चयन करते हैं जिन्हें भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है। लेकिन, सन् 2014 एवं सन् 2019 में संपन्न पिछला दोनों संसदीय चुनाव संसदीय व्यवस्था से विपथगमन (Diversion) का संकेत देता है। पिछले दोनों संसदीय चुनाव अध्यक्षात्मक व्यवस्था की तर्ज़ पर लड़े गए और पूरा चुनाव-अभियान नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द लड़ते हुए ऐसा आभामंडल बुना गया जिसमें स्थानीय प्रत्याशी अप्रासंगिक होते चले गए। साथ ही, चुनाव-अभियान का सञ्चालन इस रूप में किया गया कि यह इवेन्ट-मैनेजमेंट में तब्दील होकर रह गया
2.  मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व: भारतीय राजनीति में आरम्भ से ही करिश्माई व्यक्तित्व की महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका रही हैमुक्तिदाता की अवधारणा और अवतारवाद में आस्था भारतीय समाज एवं संस्कृति में करिश्माई व्यक्तित्व के लिए पर्याप्त स्पेस सृजित करती है। पिछले ढ़ाई दशकों (1991-2014) के दौरान ऐसा लगने लगा था कि भारतीय राजनीति में करिश्माई व्यक्तित्व की भूमिका सीमित होती जा रही है, पर सन् 2013-14 में काँग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और बढ़ती हुई अलोकप्रियता की पृष्ठभूमि में कॉर्पोरेट्स एवं कॉर्पोरेट-नियंत्रित मीडिया ने नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द ऐसा आभामंडल निर्मित किया जिससे यह लगने लगा कि सारी समस्याओं का समाधान इनके पास है। तब से लेकर अबतक इस आभामंडल को बनाये रखने के लिए प्रिंट-मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया एवं सोशल मीडिया से लेकर समर्थकों और ट्रोलर्स की फौज का जमकर इस्तेमाल किया गयाइतना ही नहीं, इनके सहारे विरोधियों की छवि को नुकसान पहुँचाने एवं इसके लिए उनके चरित्र-हनन तक की कोशिशें हुईं, और फेक न्यूज़ तक का सहारा लिया गया। जब मोदी की छवि धूमिल पदने लगी, तो बड़ी चालाकी से उसी प्रश्न को बार-बार उठाया गया जिसे कभी काँग्रेस के दौर में उठाया जाता था: मोदी नहीं, तो कौन? यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें जनता के बीच यह सन्देश सफलतापूर्वक पहुँचाया गया कि मोदी स्वच्छ, ईमानदार एवं सख्त प्रशासक हैं और अभी देश के पास उनसे बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं है। इसीलिए वोटर्स तक यह सन्देश पहुँचाया गया कि वे प्रत्याशियों को न देखें, कमल पर बटन दबाएँ और उनके वोट सीधे मोदी को जाएगा। इसका सीधा लाभ मोदी और उनके नेतृत्व वाली भाजपा को मिला।
3.  भारतीय चुनाव की प्रकृति में परिवर्तन मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व: भाजपा का मजबूत संगठन और उसकी सटीक चुनावी-रणनीति: विरोधी दल जनता तक पहुँचने और उससे कनेक्ट करने की बजाय सोशल मीडिया एवं मीडिया के सहारे चुनाव अभियान चलते रहे और अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो उनके पास न तो मज़बूत संगठन था और न ही समर्पित कार्यकर्ताओं का वह हुजूम, जो उनकी बातों को आम मतदाताओं तक पहुँचा सके और उन्हें कन्विंस कर सके। इसके विपरीत भाजपा के पास बेहतर एवं मज़बूत संगठन भी था और आरएसएस के समर्पित कैडर का सपोर्ट भी, जिसकी बदौलत वे अपनी बातों को आम मतदाताओं तक पहुँचा पाने में सफल रहे। भाजपा ने प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनाव जीतने की रणनीति तक का निर्धारण हर सीट के हिसाब से की और अपने कार्यकर्ताओं से लगातार कनेक्ट किया इसने सबसे बड़े फर्क को जन्म दिया, विशेषकर तब जब कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो लगभग पूरी मीडिया सत्तारूढ़ दल के साथ रही और उसने उसके लिए जम कर काम करते हुए उसे निर्णायक बढ़त प्रदान की जिससे भाजपा की जीत आसान हो गयी। इतना ही नहीं, भाजपा ने पन्ना-प्रमुखों के माध्यम से प्रभावी बूथ-मैनेजमेंट को प्राथमिकता दी और इसके माध्यम से अपने वोटरों को बूथ तक लाने का काम किया।       
4.  चुनाव जीतने की ललक: भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव-अभियान को आक्रामकता प्रदान किया जिससे वह युद्ध-अभियान में तब्दील होता दिखायी पड़ा। इनके नेतृत्व में हर चुनाव युद्ध की तरह जीवन-मरण के प्रश्न के रूप में लड़े जाते हैं और यही स्थिति हालिया संपन्न लोकसभा-चुनाव के दौरान भी दिखाई पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि सत्तारूढ़ भाजपा ऐसी राजनीतिक पार्टी के रूप में सामने आयी जो सालो भर इलेक्शन मोड में रहती है जो इनके विरोधियों की तुलना में इन्हें निर्णायक बढ़त प्रदान करता। इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चुनाव-परिणाम आते ही भाजपा सन् 2024 के लोकसभा-चुनाव की तैयारी में लग गयी और इसके लिए उसने विमर्श के एजेंडे को निर्धारित करने की दिशा में पहल की। यथा: इस बार भाजपा को मुसलमानों का अच्छा-खासा वोट मिला है, और जनसंख्या-नियंत्रण के एजेंडे को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाना।
इसके विपरीत इनके विरोधियों की नींद तब खुलती है जब वे चुनाव के करीब होते हैं, और ऐसे स्थिति में उनके पास बहुत विकल्प नहीं रहा जाते हैं। चुनाव जीतने की इनकी ललक का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा-चुनावों से लेकर लोकसभा-चुनाव तक प्रधानमंत्री स्वयं चुनाव-प्रचार की कमान सँभालते हैं। इतना ही नहीं, नए कलेवर में भाजपा ने ऐसे चुनावी स्लोगनों का ईजाद किया है जो सहज ही लोगों की जुबान पर चढ़ गए, या फिर इसकी तुलना में यह कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा कि एक रणनीति के तहत् इन स्लोगनों को लोगों की जुबाँ पर चढ़ा दिया गया। ‘मोदी है, तो मुमकिन है’, ‘मैं भी चौकीदार’, ‘एक बार फिर मोदी सरकार’, ‘कहो दिल से, मोदी फिर से’ जैसे चुनावी नारे इसके प्रमाण हैं। इसने मतदाताओं के साथ इनकी कनेक्टिविटी को बनाये रखने में अहम् भूमिका निभायी और हालिया लोकसभा-चुनाव में इसका सीधा फायदा भाजपा को मिला। 
5.  सरकारी योजनायें और कार्यक्रम का लाभ: सत्तारूढ़ दल भाजपा को केंद्र-प्रायोजित योजनाओं का भी सीधा-सीधा लाभ मिला। उज्जवला-योजना के जरिये मुफ्त गैस-कनेक्शन हो, या स्वच्छ भारत अभियान के जरिये शौचालय हेतु वित्तीय सहायता; प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत् आवास हेतु वित्तीय सहायता हो या ठीक चुनाव के मौके पर किसान सम्मान निधि के तहत् छोटे एवं सीमान्त किसानों को छः हज़ार रुपये की सालाना सहायता; जन-धन योजना हो, या डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर;  आयुष्यमान भारत के जरिये सार्वभौम स्वास्थ्य की अवधारणा हो, या फिर  बेटी बचाओ-बेटी बढ़ाओ जैसी महत्वपूर्ण योजनायें, भाजपा ने अपने कैडर के माध्यम से इसके लाभ को आम मतदाताओं तक पहुँचाने की कोशिश की और इसका क्रेडिट लिया जिसका उसे सीधा चुनावी लाभ मिला। 
6.  जातिगत एवं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण: पिछले पाँच-छह वर्षों के दौरान भाजपा ने एक ओर अपने उग्र-हिंदुत्व की राजनीति को देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद से सम्बद्ध कर दिया और इसके जरिये किसी-न-किसी तरीके से अल्पसंख्यक मुसलमानों को लगातार लक्षित किया जिसके कारण स्थानीय स्तर पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज हुई जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक फेक न्यूज़ एवं हेट न्यूज़ के सिलसिले को जारी रखा गया। इसके अतिरिक्त पिछले पाँच वर्षों के दौरान भाजपा ने एक निश्चित रणनीति के तहत् देशभक्ति बनाम् देशद्रोह के मसले को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया और एक सिरे से अपने विरोधियों को देशद्रोही साबित करने की हर संभव कोशिश की और उसे इस कोशिश में मीडिया का भी साथ मिला। इसके अतिरिक्त, उसने सूक्ष्म स्तर पर जातिगत समीकरणों को साधने की कोशिश भी की और पिछड़े एवं दलित समूह के उस हिस्से को साधने का प्रयास किया जिनका सामाजिक न्याय के लिए इस्तेमाल तो किया गया, पर जिन तक इसका लाभ नहीं पहुँचा। इसके परिणामस्वरूप सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले अलग-थलग पड़ते चले गए।
7.  मतदाताओं के विशेष समूह को लक्षित करना: मई,2014 में सत्ता में आने के बाद से ही भाजपा को पता था कि अगला चुनाव उसके लिए आसान नहीं होने जा रहा है, इसीलिए उसने मतदाताओं के नए समूह को लक्षित किया और उन्हें विश्वास में लेने की कोशिश की। इसी रणनीति के तहत् उसने युवा मतदाताओं को लक्षित करते हुए उसके साथ संवाद स्थापित करने की कोशिश की और ऐसा माना जा रहा है कि इन युवा मतदाताओं का रुझान भाजपा की ओर रहा और उन्होंने इस लोकसभा-चुनाव में भाजपा को निर्णायक बढ़त दिलवाई। इसी प्रकार सत्ता में रहते हुए भाजपा ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान तुरंत ट्रिपल तलाक, बहुविवाह एवं हलाला जैसे संवेदनशील मसले लगातार उठाये और इसके जरिये एक ओर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की, दूसरी ओर मुस्लिम महिलाओं को अपनी ओर आकृष्ट करना चाहा। ऐसा माना जा रहा है कि इस रणनीति ने ज़मीनी धरातल पर फर्क भी उत्पन्न किया और इसके कारण भाजपा की राह आसान हुई।  
8.  पुलवामा एवं बालाकोट के बहाने देशभक्ति का ज्वार: इस पृष्ठभूमि में जब फरवरी,2019 में पुलवामा(भारत) में सीआरपीएफ जवानों पर हमला हुआ और इसका प्रतिकार करते हुए भारत ने बालाकोट (पाकिस्तान) पर एयर-स्ट्राइक किया, तो इसने पूरे देश में देशभक्ति का ज्वार पैदा किया, और पहले से तैयार बैठी भाजपा ने समर्पित कैडर एवं समर्पित मीडिया के सहारे अपने पक्ष में माहौल निर्मित करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा।  देशभक्ति बनाम् देशद्रोह के विमर्श की पहले से मौजूदगी के कारण इसके लिए अनुकूल वातावरण पहले से ही तैयार था।  
9.  विरोधियों की नकारात्मक छवि: इस चुनाव में जहाँ प्रधानमंत्री मोदी ‘विकल्पहीनता’ का सन्देश जनता तक पहुँचा पाने में समर्थ रहे, वहीं विपक्ष मतदाताओं को भरोसा एवं विश्वास दिला पाने और उससे कनेक्ट कर पाने में असफल रहा। इसका कारण यह था कि:
a.  विपक्ष किसी सकारात्मक एजेंडे को जनता के सामने प्रस्तुत कर पाने में असफल रहा और उसकी पूरी रणनीति मोदी-विरोध के इर्द-गिर्द केन्द्रित रही जिसके कारण जनता के बीच एक नकारात्मक सन्देश गया।
b.  सत्तारूढ़ दल आम मतदाताओं तक यह सन्देश पहुँचा पाने में सफल रहा कि उसके विरोधी दल और उसके नेता भ्रष्ट हैं और परिवारवादी एवं वंशवादी हैं। वे सिर्फ इसलिए एकजुट हैं कि राजग सरकार ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर एवं भ्रष्ट लोगों को जेल की सलाखों के पीछे डालकर उनके हितों को प्रतिकूलतः प्रभावित किया है और इन्हें डर हैं कि ये भी देर-सबेर जेल भेजे।
c.  एक तो पारस्परिक हितों की टकराहट के कारण विपक्ष बिखरा हुआ था, और दूसरे, जहाँ गठबंधन की दिशा में पहल भी हुई, उनमें से अधिकांश जगहों पर उसे ज़मीन पर नहीं उतारा जा सका। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला।      
10.         सत्तारूढ़ दल के द्वारा धनबल का इस्तेमाल: जून,2019 में चुनाव के दौरान धन-बल के दुरुपयोग के तमाम आरोपों के बाद निजी थिंक टैंक सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (CMS) के द्वारा चुनावी खर्चे को लेकर जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि चुनावी खर्च में बाकी दलों की तुलना में सत्तारूढ़ दल भाजपा सबसे आगे रहा जिसने सन् 2019 में कुल चुनावी खर्च का लगभग (45-55) प्रतिशत राशि खर्च की, जबकि उसके प्रतिद्वंद्वी काँग्रेस ने कुल चुनावी खर्च की (15-20) प्रतिशत राशि खर्च की और यह सब तब संभव हुआ जब चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के लिए (10-12) करोड़ रुपये की चुनावी खर्च-सीमा निर्धारित की थी और उसने उम्मीदवारों एवं राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में खर्च की गई राशि पर नज़र रखने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश भी जारी किए थे ध्यातव्य है कि इस चुनाव के दौरान इलेक्टोरल बांड के जरिये चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता के नाम पर गोपनीयता को बढ़ावा दिया गया
इस रिपोर्ट के अनुसार, कुल चुनावी खर्च का लगभग (25-30) प्रतिशत, जो लगभग (12-15) हज़ार करोड़ रुपये सीधे मतदाताओं को दिए गए, जबकि चुनाव-प्रचार पर (20-25) हज़ार करोड़ रुपये (कुल व्यय का 35 प्रतिशत) खर्च हुए। पैसों के अलावा विभिन्न तरह की योजनाओं और वादों से भी मतदाताओं को लुभाया जाता रहा है।
धन-बल की बढ़ती भूमिका:
चुनाव के दौरान धन-बल के दुरुपयोग के तमाम आरोपों के बाद निजी थिंक टैंक सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (CMS) के द्वारा चुनावी खर्चे को लेकर जारी रिपोर्ट में यह बताया गया कि जून,2019 में चुनावी ख़र्च पर आई सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़(CMS) की इस रिपोर्ट के अनुसार, सन् (1998-2019) के दौरान लोकसभा चुनावों में होने वाले व्यय 9 हज़ार करोड़ से बढ़कर (55-60) हज़ार करोड़ हो गए, अर्थात् चुनावी खर्च में छह गुनी बढ़ोत्तरी हुई हैहालिया लोकसभा-चुनाव के दौरान प्रत्येक लोकसभा सीट पर औसतन लगभग 100 करोड़ रुपये एवं प्रत्येक वोट पर औसतन 700 रुपये ख़र्च किए गए। यह चुनाव अबतक दुनिया के किसी हिस्से में सम्पन्न चुनावों में सबसे मँहगा चुनाव रहा है जिसमें (55-60) हज़ार करोड़ रुपये के बीच खर्च हुए, जिसमें 40 फीसदी राशि उम्मीदवारों और 35 फीसदी राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया गयाइसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि 19 मई,2019 तक सत्रहवें लोकसभा-चुनाव के दौरान लगभग 3456 करोड़ को नकदी/सामान जब्त हुए, जो चौदहवीं-लोकसभा-चुनाव की तुलना में लगभग दोगुना रहा।
क्षेत्रीय दलों की कीमत पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का फिर से उभार:
सोलहवीं लोकसभा-चुनाव के परिणामों के आने के बाद यह कहा जा रहा था कि भारत की राष्ट्रीय राजनीति गठबंधन के दौर से बाहर निकल रही है और एक बार फिर से क्षेत्रीय दलों की कीमत पर राष्ट्रीय दलों के वर्चस्व का दौर वापस आ रहा है लेकिन, कई राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे जल्दबाजी में निकला गया निष्कर्ष बतलाया और इस सन्दर्भ में उनकी आशंकाएँ सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव की पूर्व संध्या पर सच प्रतीत होती दिखाई पड़ी। ऐसा लगा कि सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव के दौरान शायद किसी दल को बहुमत नहीं मिले, इसीलिए सरकार के गठन में क्षेत्रीय दलों की भूमिका निर्णायक साबित हो और राष्ट्रीय राजनीति एक बार फिर से गठबंधन की राजनीति की ओर वापस लौटे। लेकिन, सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव-परिणामों ने इन तमाम आशंकाओं को निरस्त करते हुए न केवल भाजपा को पिछली बार से भी अधिक सीटें दीं, वरन् राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के उभार एवं क्षेत्रीय दलों के अवसान की प्रक्रिया को भी तेज़ किया। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि भाजपा-काँग्रेस को मिलने वाली सीटों की संख्या सन् 2014 के 326 से बढ़कर सन् 2019 में 355 तक पहुँच गयी। इस दौरान भाजपा की सीटों की संख्या 282 से बढ़कर 303 और काँग्रेस की सीटों की संख्या 44 से बढ़कर 52 हो गयाभाजपा और काँग्रेस की सीटों की संख्या ही नहीं बढ़ी, वरन् इन्हें मिलने वाले वोटों में भी इजाफा हुआ भाजपा के वोट सन् 2014 के 17.1 करोड़ से बढ़कर 22.6 करोड़ और काँग्रेस के वोट 10.69 करोड़ से बढ़कर 11.86 हो गए दोनों के संयुक्त वोट इस बीच 27.79 करोड़ से बढ़कर 34.46 करोड़ और प्रतिशत में 50.3 प्रतिशत से बढ़कर 57 प्रतिशत हो गया जो सन् 1996 से अबतक के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा है। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि मण्डल आन्दोलन की पृष्ठभूमि में जातिगत आधार पर वोटरों का जो बिखराव शुरू हुआ और इसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय दलों की कीमत पर स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों का विकास हुआ, अब वह प्रक्रिया रिवर्स डायरेक्शन में मूव कर रही है। अब वोटर्स मंडलवादी क्षेत्रीय ताकतों से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की ओर वापस लौट रहे हैं। यह कम-से-कम राष्ट्रीय राजनीति के लिए शुभ संकेत है और इसके लिए देश को भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए।
सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव और सामाजिक न्याय
सन् 2019 के सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव-परिणामों ने सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों, विशेषकर उत्तर भारत में वंचित समूहों का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक दलों को गहरा झटका दिया है और इस झटके के साथ सामाजिक न्‍याय की राजनीति के भविष्‍य पर भी सवाल उठने लगे हैं। मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान और गुजरात जैसे राज्‍यों में सामाजिक न्‍याय की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल तो पहले से ही वहाँ के चुनावी राजनीतिक परिदृश्य से लगभग गायब हैं, पर इस लोकसभा-चुनाव में उत्‍तर प्रदेश में असीम संभावनाओं वाले सपा-बसपा महागठबंधन का महज़ 14 सीटों पर सिमट जाना और बिहार में राजद का सूपड़ा साफ होना इस ओर इशारा करता है कि या तो सामाजिक न्‍याय की राजनीति अब प्रासंगिक नहीं रह गई है और अब इससे लोगों का मोहभंग होने लगा है, या फिर इसे नेतृत्व प्रदान करने वाले राजनीतिक दलों एवं नेताओं ने इसे उस मोड़ पर पहुँचा दिया है जहाँ से यह या तो समाप्त हो जायेगी, या फिर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए इसे खुद को पुनर्परिभाषित करना होगा। इसका संकेत पिछले लोकसभा-चुनाव के दौरान ही मिलने लगा था जब बिहार और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल(युनाइटेड), समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी का लगभग सफ़ाया हो गया। पर, जब बिहार विधानसभा-चुनाव,2015 में राजद, जद(यू) एवं काँग्रेस के महागठबंधन ने तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए ज़बर्दस्त चुनावी सफलता हासिल की, तब संकटग्रस्त सामाजिक न्याय की राजनीति को पुनर्जीवन मिलता हुआ दिखाई पड़ा और उससे प्रेरणा ग्रहण करते हुए उत्तर प्रदेश में सपा एवं बसपा ने भी चुनावी गठजोड़ की दिशा में पहल की; लेकिन इस लोकसभा-चुनाव में यह प्रयोग भी बुरी तरह से पिट गया और सामाजिक न्याय की राजनीति अस्तित्व के संकट से गुज़रती दिखाई पड़ रही है।
अप्रासंगिक होती सामाजिक न्याय की राजनीति:
दरअसल सन् 1990 के दशक में मंडल की राजनीति की काट में लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाया जिसे मंडलवादी राजनीति के कारण हाशिये पर पहुँचते सवर्णों ने हाथों-हाथ लिया। जैसे-जैसे काँग्रेस कमजोर होती चली गयी, सवर्णों का भाजपा की ओर रुझान बढ़ता चला गया। फिर भी, पिछले ढ़ाई दशकों की भारतीय राजनीति में मंडलवाद ने मंदिर एवं उग्र हिंदुत्व की राजनीति को हाशिये पर रखने में बहुत हद तक सफल रही, जिसका कारण यह था कि भाजपा की छवि लम्बे समय तक ब्राह्मण-बनिए की पार्टी वाली बनी रही तमाम कोशिशों के बावजूद इस छवि को तोड़ पाने और उससे बाहर निकल पाने में भाजपा को सफलता नहीं मिल पायी, पर लोकसभा-चुनाव,2019 में अंतिम रूप से मंडल बनाम् मंदिर की राजनीति मंदिर के पक्ष में तार्किक परिणति तक पहुँचती दिखायी पड़ रही है; या फिर यह कहना कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है कि मंडल की राजनीति को मंदिर की राजनीति के सहायक एवं पूरक के रूप में तब्दील करने की जो प्रक्रिया सन् 1998 में शुरू हुई और जो प्रक्रिया सन् 2014 में तेज हुई, वह सन् 2019 में तार्किक परिणति तक पहुँचती दिखाई पड़ रही है
बदलाव की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान करती भाजपा:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 2014 में सोलहवीं लोकसभा-चुनाव के दौरान भाजपा ने एक ओर बड़ी चालाकी से उग्र-हिंदुत्व की राजनीति को राष्ट्रवादी एजेंडे से सम्बद्ध किया, दूसरी ओर सामाजिक न्याय की मंडलवादी राजनीति के ठहराव एवं अंतर्विरोधों को अपने पक्ष में भुनाने की हर संभव कोशिश की। दरअसल इन दो दशकों के दौरान सामाजिक न्याय की राजनीति ने खुद को धर्मनिरपेक्ष एजेंडे से सम्बद्ध करते हुए खुद को भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन इसी दौरान सामाजिक न्याय की राजनीति जाति विशेष के राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के साधन में तब्दील होने लगी जिसके कारण अन्य शोषित-उत्पीड़ित एवं वंचित जातियाँ खुद को ठगा एवं छला हुआ महसूस करने लगी। बिना सामाजिक न्याय की राजनीति को पुनर्परिभाषित किये इनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का समायोजन संभव नहीं था और इसके लिए सामाजिक न्याय की रहनुमाई करने वाले तैयार नहीं थे। स्वाभाविक था कि इसके कारण सामाजिक न्याय की राजनीति से वंचित समुदाय का मोहभंग हो। मोहभंग की इस प्रक्रिया को इस बात से भी बल मिला जब उन्होंने देखा कि सामाजिक न्याय की धर्मनिरपेक्ष राजनीति एक ओर वंशवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार की गिरफ्त में बुरी तरह से फँसता हुआ विकास के एजेंडे की अनदेखी कर रही है, दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता मुस्लिम-तुष्टिकरण के पर्याय में तब्दील होती जा रही है। इतना ही नहीं, चूँकि सामाजिक न्याय की राजनीति ने न केवल सवर्णों की उपेक्षा की, वरन् प्रतिक्रियावाद के धरातल पर खड़ा होकर सामाजिक अन्याय का आधार तैयार किया, इसीलिए स्वाभाविक था कि सवर्णों को इसके विकल्प की तलाश होती और यह तलाश भाजपा के माध्यम से पूरी होती दिखाई पड़ी। स्पष्ट है कि सन् 2014 में भाजपा ने इसी से उपजे असंतोष को अपने पक्ष में भुनाते हुए मंडलवादी राजनीति को पुनार्परिभाषित करने का काम भी किया और उसे अप्रासंगिक बनाने का काम भी। यदि सोलहवीं लोकसभा के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं, तो सत्रहवीं लोकसभा के नतीजे 2014 के चुनाव-परिणामों पर मुहर लगाते हुए आते हैं।
सामाजिक न्याय की राजनीति 3.0:
दरअसल 2019 के चुनावों में हिंदुत्व की राजनीति ने मंडलवादी जातिगत राजनीति को न केवल अपने पक्ष में पुनर्परिभाषित किया, वरन् उसमें दरार उत्पन्न करते हुए जातिगत राजनीति करने वाले अपने विरोधियों को हाशिये पर पहुँचाने का काम भी किया भाजपा ने बड़ी चालाकी से एक ओर उग्र हिंदुत्व पर आधारित अपनी राजनीति और उसमें राष्ट्रवाद की छौंक के सहारे जातिगत राजनीति के अभेद्य किले में सेंध लगाई, वरन् गैर-यादव पिछड़ों एवं गैर-जाटव दलितों को बेहतर भागीदारी प्रदान करते हुए उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को तुष्ट करते हुए मंडलवादी राजनीति को अपने पक्ष में पुनर्परिभाषित भी किया। बिहार में भाजपा ने यह काम सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रबल पैरोकार और सामाजिक न्याय 2.0 के प्रतीक नीतीश कुमार एवं दलित-राजनीति के लोकप्रिय चेहरे राम विलास पासवान के सहारे किया, तो उत्तर प्रदेश में इसने मुलायम सिंह यादव की पिछड़ों की राजनीति की पोल खोलते हुए यह साबित कर दिया कि यह यादवों तक सीमित है, और यही काम उसने मायावती की दलित-राजनीति के पर्दाफाश के जरिये किया जो जाटवों तक सीमित थी। इसी की बदौलत सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपने दुर्ग को ढ़हने से कुछ हद तक बचाने में सफलता हासिल की और बिहार में अपने प्रदर्शन को सुधारते हुए उत्तर प्रदेश में होने वाले नुकसान की भरपाई की। इस प्रकार उसने सन् 2014 की अपनी सफलता को न केवल दोहराया, वरन् उत्तर प्रदेश और बिहार, दोनों ही जगहों पर महागठबंधन की राजनीति के साथ-साथ मुस्लिम-यादव समीकरण एवं दलित-मुस्लिम समीकरण को निर्णायक झटका दिया जिसके कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अपनी चुनावी रणनीति को पुनर्परिभाषित किये बिना विरोधी दलों के लिए भाजपा की चुनौती से मुकाबला करना आने वाले समय में आसान नहीं होने जा रहा है। इसीलिए यह कहा जा रहा है कि सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव ने मंडल की राजनीति को भले ही अप्रासंगिक नहीं बनाया हो, पर इसने यह ज़रूर स्पष्ट कर दिया कि अब जाति-आधारित राजनीति द्वारा धर्म-आधारित राजनीति को हाशिये पर रखना संभव नहीं है, इन दोनों के बीच के समीकरण बदल चुके हैं और धर्म-आधारित राजनीति जाति-आधारित राजनीति पर रही है
इतना ही नहीं, इसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जिस तरह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर की जाने वाली राजनीति मुस्लिम तुष्टिकरण का पर्याय बनती चली गयी और इसकी आड़ में बहुसंख्यकों की कीमत पर अल्पसंख्यक हितों को जो तवज्जो दी गयी, उससे बहुसंख्यक समुदाय में उपजे असंतोष को भुनाते हुए भाजपा ने सफलतापूर्वक अपने उग्र-हिंदुत्व की राजनीति की ऐसी पुख्ता ज़मीन तैयार की है, उसके विरोधियों के लिए जिसे आने वाले समय में दरका पाना आसान तो नहीं ही होने जा रहा है  
सामाजिक न्याय और महिलाएँ:
जब सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव के परिणामों को सामाजिक न्याय के आलोक में देखा जाए, तो यह हमें आश्वस्त भी करता है और आशंकित भी। इसका एक महत्वपूर्ण पहलू है महिला-मतदाताओं की बढ़ती हुई सक्रियता और चुनाव-परिणामों को निर्धारित करने में उनकी महत्वपूर्ण होती भूमिका। ऐसा लग रहा है कि अब वे पुरुष-प्रभुत्ववादी शिकंजे से मुक्त होकर अपने मताधिकारों के प्रयोग के सन्दर्भ me स्वतंत्र निर्णय लेने की दिशा में बढ़ रही हैं। स्वतंत्र भारत में पहली बार संख्या की दृष्टि से मतदान के मामले में महिलाओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया और सन् 2019 के लोकसभा-चुनाव में पुरुषों एवं महिलाओं की वोटिंग का अंतर घटकर 0.4 रह गया है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए काँग्रेस ने तो महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए संसद एवं विधान-मंडल में महिला-आरक्षण को अपने चुनाव घोषणा-पत्र का हिस्सा बनाया। ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजेडी नेता नवीन पटनायक ने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी बीजू जनता दल से 33 प्रतिशत टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की घोषणा की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने भी 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने की घोषणा कर डाली। केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए/भाजपा-सरकार ने उज्ज्वला, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, सौभाग्य, जन-धन खाते, मुद्रा-लोन, तुरंत ट्रिपल तलाक पर कानून आदि के जरिए महिला मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की भरपूर कोशिश की।
लेकिन, इसी के साथ एक और महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत मिला है और वह है 17वीं लोकसभा में 78 महिला सांसदों का पहुँचना और इसके साथ लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी का 14 प्रतिशत के स्तर पर पहुँचना, जो भारतीय संसदीय इतिहास में सर्वाधिक है; यद्यपि दुनिया के अन्य हिस्सों के सापेक्ष और जनसंख्या के अनुपात में उनकी यह भागीदारी अब भी समुचित एवं पर्याप्त नहीं है। 16वीं लोकसभा में करीब 11 प्रतिशत महिलाएँ थीं। इस बार आम चुनाव में खड़ी महिला उम्मीदवारों की संख्या 10 प्रतिशत से भी कम थी, लेकिन संसद में जीतकर पहुँचने वाली महिलाओं का प्रतिशत 14 है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकसभा में पुरुष-सांसदों की संख्या 3 प्रतिशत की गिरावट के साथ सन् 2014 के 462 से घटकर 2019 में 446 हो गया। यह भारत की चुनावी राजनीति में आ रहे सकारात्मक बदलाव का संकेत है।
बहरहाल इनमें एक-तिहाई महिला सांसद ऐसी हैं, जिन्हें जनता ने दोबारा भेजा है। यद्यपि उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, दोनों ही राज्यों से 11-11 महिला-सांसद निर्वाचत हुई हैं, लेकिन चूँकि बंगाल में लोकसभा के लिए आवंटित सीटों की संख्या उत्तर प्रदेश की तुलना में लगभग आधे के स्तर पर है, इसीलिए पश्चिम बंगाल से महिला सांसदों का अनुपात उत्तर प्रदेश की तुलना में लगभग दोगुना है और इसका श्रेय ममता बनर्जी एवं तृणमूल काँग्रेस को जाता है जिन्होंने 41 प्रतिशत टिकटें महिलाओं को दी थीं। राजनीतिक दलों में सर्वाधिक 40 महिला-सांसद भाजपा के टिकट पर निर्वाचित होकर आयी हैं।

सामाजिक न्याय और मुसलमान:

भारतीय लोकतंत्र में मुसलमान और महिलाएँ, ये दोनों ही सामाजिक समूह अल्प-प्रतिनिधित्व के शिकार रहे हैं, और उस पर तुर्रा यह कि पिछ्ली दो लोकसभाओं में बहुसंख्यकवाद की राजनीति करके केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा का एक भी सांसद मुसलमान नहीं है। समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है, भाजपा ने विरोधी दलों पर मुस्लिम-तुष्टिकरण का जो आरोप लगाया है और जिसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है, उसके कारण विरोधी दल भी दबाव में हैं और इस कारण उन्होंने भी मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़ किया। इतना ही नहीं, बहुसंख्यकवाद की राजनीति के कारण जो राजनीतिक-सामाजिक परिवेश सृजित हुआ, उसमें मुसलमानों का चुनाव जीत पाना मुश्किल होता चला गया। इसका परिणाम यह हुआ कि न केवल लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम होकर पाँच प्रतिशत से नीचे के स्तर पर पहुँच गया, वरन् केन्द्रीय सत्ता में मुसलमानों की भागीदारी लगभग शून्य के स्तर पर भी पहुँच गयी, जबकि देश की आबादी में उनकी हिस्सेदारी लगभग पन्द्रह प्रतिशत के स्तर पर है। सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव में कुल मिला कर 25 मुसलमान सांसद चुने गए हैं, जबकि सन् 1980 में यह 49 सांसदों के साथ अधिकतम 9.20 प्रतिशत के स्तर पर था और सोलहवीं लोकसभा-चुनाव के दौरान यह 16 सांसदों के निम्नतम स्तर पर पहुँच गया। सत्तारूढ़ भाजपा ने कुल 6 मुसलमानों को टिकट दिया था, लेकिन उसका एक भी मुस्लिम उम्मीदवार चुनावी जीत नहीं हासिल कर सका।
कमोबेश यही स्थिति विधानसभाओं में मुस्लिम-प्रतिनिधित्व की भी रही है। सन् (2013-15) के दौरान होने वाले विधानसभा-चुनावों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 35 प्रतिशत से घट कर 20 प्रतिशत हो गया। इसके बाद सन् नवम्बर-दिसम्बर,2018 में हुए पाँच राज्यों में चुनाव हुए तो यही हाल हुआ। इन विधानसभा-चुनावों में छत्तीसगढ़ में 1, मध्य प्रदेश में 2, राजस्थान में 8 और तेलंगाना में 8 मुसलमान विधायक चुने गए। दरअसल इसका महत्वपूर्ण कारण एक तो मुख्यधारा से अलगाव के कारण मुस्लिम उम्मीदवारों की गैर-मुस्लिम समुदायों के बीच स्वीकार्यता को लेकर आने वाली परेशानियाँ हैं और दूसरे, स्वयं राजनीतिक दल भी मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि मुसलमानों के बीच ऐसे नेता नहीं उभरते हैं, जो मुसलमानों के अलावा दूसरे समुदायों में भी स्वीकार्य हों ताकि उनका जीतना आसान हो। यदि कोई ऐसा नेता उभरता भी है तो पार्टी कोशिश करती है कि उन्हें उन्हीं जगहों से टिकट दिया जाए, जहां मुसलमान निर्णायक भूमिका में हों। इसका नतीजा यह होता है कि उन नेताओं की कभी भी सर्वस्वीकार्य छवि नहीं बन पाती है। वे जब मुसलिम-बहुल इलाक़ों से भी खड़े होते हैं तो ग़ैर-मुसलिम उन्हें ठीक से स्वीकार नहीं कर पाते हैं और उनका जीतना वहाँ से भी मुश्किल होता है। संक्षेप में कहें, तो मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का प्रश्न पहचान की राजनीति के साथ-साथ अल्पसंख्यकवाद बनाम् बहुसंख्यकवाद की राजनीति में उलझ कर रह गया है।

सवर्ण-उभार और मंत्री-परिषद की सामाजिक संरचना

इसकी पुष्टि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(NDA) सरकार 3.0 में विभिन्न सामाजिक समूहों के प्रतिनिधित्व से भी होती है। नवगठित 58 सदस्यीय मंत्रीमंडल में सवर्णों को 55 प्रतिशत (32 सवर्ण) प्रतिनिधित्व मिला है, जबकि पिछड़ी जाति को 22.4 प्रतिशत (13 पिछड़े), अनुसूचित जाति को लगभग 10 प्रतिशत (6 मंत्री), और अनुसूचित जनजाति को 6.9 प्रतिशत (4 मंत्री) प्रतिनिधित्व। सवर्णों में नौ ब्राह्मण नेताओं को कैबिनेट रैंक का दर्जा देकर इस जाति के लोगों को संदेश देने की कोशिश की गई है, क्योंकि ब्राह्मण समुदाय अपनी उपेक्षा और राजपूतों को विशेष तवज्जो मिलने से नाराज़ बतलाया जा रहा था। अल्पसंख्यकों में सिख समुदाय के दो सदस्यों को और मुस्लिम समुदाय के एक सदस्य को प्रतिनिधित्व दिया गया है। स्पष्ट है कि मंत्री-परिषद में साफ़ तौर पर सवर्ण जातियों का दबदबा है, लेकिन जातिगत समीकरण बनाने की कोशिश भी की गई है। झारखंड के नेता अर्जुन मुंडा को कैबिनेट मंत्री बनाकर जनजाति समुदाय को साधने की कोशिश की गई है। मंत्री-परिषद में बिहार से छह सांसदों को शामिल किया गया जिनमें चार मंत्री सवर्ण समुदाय से आते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि ग़ैर-यादव पिछड़ी जाति से या अति-पिछड़ी जाति से एक भी संसद को जगह नहीं मिली है। सवर्णों के वर्चस्व का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि दिसम्बर,2018 में चुनाव के पहले हिन्दी-बेल्ट में भाजपा के जो सात मुख्यमंत्री थे, उनमें से पाँच राजपूत समुदाय से आते थे। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि न केवल भाजपा में सवर्णों, वरन् सवर्णों में भी ठाकुरों का वर्चस्व है। इसके कारण न केवल भाजपा के गैर-सवर्ण सहयोगियों में, वरन् भाजपा-समर्थक ब्राह्मणों में भी असंतोष एवं नाराज़गी को तेजी से बढ़ावा मिला
  
भविष्य की संभावना:
संभव है कि अगड़ी जातियों के समर्थन के प्रति आश्वस्त भाजपा आने वाले समय में बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी ओबीसी एवं दलित नेताओं को तरजीह दे सकती है और इसके जरिये सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों को मात देने की रणनीति अपना सकती है इतना ही नहीं, आनेवाले समय में भाजपा मुसलमानों से सम्बंधित उन संवेदनशील मसलों (जिनकी दिशा में पहल खुद मुस्लिम समाज को और उनकी रहनुमाई करने वाले धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को करनी चाहिए थी, पर मुस्लिम तुष्टिकरण की रणनीति के कारण जिसने इस दिशा में पहल से परहेज़ करते हुए इस्लामिक समाज में प्रगतिशील सामाजिक सुधारों की प्रक्रिया को बाधित किया) को उठाकर मुस्लिम वोटबैंक में सेंध भी लगाएगी और हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति को भी जारी रखेगी, जैसा कि उसने तुरंत ट्रिपल तलाक जैसे मसलों को उठाकर किया इतना ही नहीं, जिस तरीके से गुजरात और राजस्‍थान में पहली बार लोकसभा चुनाव में उतरी भारतीय ट्राइबल पार्टी ने कड़ी टक्‍कर दी है, उम्‍मीद की जा रही है कि आने वाले समय में यह पार्टी सामाजिक न्याय के दायरे का विस्तार करती हुई अपनी मज़बूत एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाएगी।


  

3 comments:

  1. बहुत शानदार विश्लेषण।।पहले के करिश्माई नेता साधारण दिखकर उच्च विचार रखकर अपने को लोगों के सामने प्रस्तुत करते थे लेकिन आज का यह करिश्माई व्यक्तित्व ऐशोआराम के जितनी आधुनिक साधन हो सकते है अपनाते हैं।
    भाजपा या मोदी-शाह जोड़ी एक मायने में बहुत ही बेजोड़ है कि नेतागिरी को इन्होंने बहुत ही प्रोफेशनल बना दिया है अब बिना परफॉर्मेंस किए बाप-दादा के नाम पर लोगो को लुभाना आसान नही रह गया। सामाजिक न्याय के नाम पर up-बिहार में जो अंधेरगर्दी मची थी उसके लिए लोगो को भाजपा का आभारी होना चाहिए बसर्ते मुस्लिम समुदाय अपने को सुरक्षित महशूस करे।।

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  2. विचारनीय है कि सामाजिक न्याय की राजनीति अप्रासंगिक हुई या इससे जुड़े कुछ नेता. तीसरा मोर्चा आज तक व्यवस्थित रूप नहीं ले सका और इसकी प्रतिक्रिया में लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बहुमत प्राप्त राष्ट्रीय दल का सहयोगी बनने और गठबंधन के नाम पर सौदेबाजी करने तक सीमित दिखती है.फिर मतदाता इनसे पांच वर्ष तक शासन चलाने की उम्मीद कैसे कर सकता है,ऐसे में वह राष्ट्रीय दलों की ओर ही देखेगा और मोदी जैसे महान व्यक्तित्व को ही चुनेगा.विडम्बना यह रही कि बीजेपी ने मोदी को ऐजेंडा बनाया और कांग्रेस ने भी मोदी को ही ऐजेंडा बना डाला ,जैसे कि चौकीदार बनाम चोर के सिवा और कोई मुद्दा ही न हो.2004 में भी अटल जी का आभामंडल और व्यक्तित्व कुछ कम न था और बीजेपी लगातार सोनिया गांधी के विदेशी मूल एवं पीएम पद पर उनकी दावेदारी को लेकर कांग्रेस को घेर रही थी परंतु इसके बावजूद कांग्रेस द्वारा सोनिया को पीएम के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया गया.इससे इतर राहुल गांधी बीजेपी के तरीके को लगभग समर्थन देते हुए सीधी लड़ाई को उतर आए.रूख भी ऐसा था कि जैसे जनता में सरकार विरोधी लहर चल रही हो और बस उसे थोड़ी हवा की ही जरूरत हो.शायद कांग्रेस यह मान चुकी थी कि बीजेपी को मुस्लिम वोट मिल ही नहीं सकते.उम्मीद की जा सकती है कि यह हार एक संगठन के रूप में कांग्रेस को कई सबक सिखाएगी.जहां तक बात जाति एवं सामाजिक न्याय की राजनीति की है तो इसे अप्रासंगिक कहना जल्दबाजी होगी.

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  3. Thik thak hai, but isme bislesan ki kami hai or jatiye purbagrah bhara hua hai. Abhi or mehnat ki jarurat hai,

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