नयी सरकार: भारतीय विदेश-नीति के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ
प्रमुख आयाम
1. बदला हुआ घरेलू एवं
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य
2. ग्लोबल ट्रेडिंग आर्डर को अमेरिका के
द्वारा चुनौती
3. अमेरिकी मोर्चे पर
बढ़ती मुश्किलें
4. अमेरिकी आर्थिक
राष्ट्रवाद को अवसर में तब्दील करने की चुनौती
5. भारत के समक्ष मौजूद चीनी चुनौती
6. भारत के समक्ष मौजूद
पाकिस्तानी चुनौती
7. पड़ोसी देशों में भारत की बढ़ती मुश्किलें
8. पश्चिम एशिया में भारत की मुश्किलें
9. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के हितों का संरक्षण
एवं संवर्द्धन
10.
भारत के
लिए जटिल अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य और वर्तमान विदेश-मंत्री
बदला हुआ घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय
परिदृश्य:
जब सन् 2014 में राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन को देश का नेतृत्व करने का अवसर मिला, उस समय भारतीय विदेश-नीति
अपने मोमेंटम को खो चुकी थी। इसलिए नयी सरकार के सामने
चुनौती उस मोमेंटम को पुनर्बहाल करने की थी, जो उसने किया भी; पर उस समय की
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ऐसी थीं जिनके बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता
था। इस क्रम में राजग-सरकार को इस बात का श्रेय देना होगा कि उसने
भारतीय विदेश-नीति की जड़ता को दूर करते हुए उसके मोमेंटम को पुनर्बहाल किया,
विदेश-नीति के मोर्चे पर कहीं अधिक सक्रियता प्रदर्शित की, बांग्लादेश के साथ
भू-सीमा समझौता, अमेरिका के साथ नाभिकीय-समझौता, और इटालियन नौसैनिक-विवाद को
तार्किक परिणति तक पहुँचाते हुए भू-राजनीति को भू-आर्थिकी के कहीं अधिक सम्बद्ध
किया; अब यह बात अलग है कि इसका आर्थिक रूप से भारत को कितना फायदा मिला। साथ ही, सुषमा
स्वराज को इस बात का श्रेय देना होगा कि विदेश-मंत्री के रूप में उन्होंने भारतीय
विदेश-मंत्रालय एवं भारतीय कूटनीति को मानवीय पुट देते हुए यह सुनिश्चित किया कि
विदेश में किसी भी भारतीय की परेशानी प्राथमिकता के आधार पर हल की जाए। लेकिन, 2019 का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य बदल चुका
है और यह जटिल होने के साथ-साथ गतिमान है। साथ ही, पाकिस्तान-चीन की बढ़ती निकटता,
अमेरिका-ईरान टकराव, अमेरिका में आर्थिक राष्ट्रवाद का उभार और इसके कारण
बहुपक्षीय वार्ताओं के खतरे में पड़ने के कारण भारत के सामने मुश्किलें बढ़ती हुई
दिख रही हैं। अब जबकि अमेरिका, चीन एवं रूस जैसी वैश्विक महाशक्तियों के बीच
प्रतिद्वंद्विता नए सिरे से आकार ग्रहण कर रही है, वैश्विक व्यापार-व्यवस्था संकट
के दौर से गुजर रही है, और वैश्विक शक्तियों के आपसी संबंधों एवं वैश्विक आर्थिक व्यवस्था
में संरचनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया जारी है; ऐसी स्थिति में भारत को इन तमाम
चुनौतियों से निबटते हुए अपनी विदेश-नीति का पुनर्निर्धारण करना है और अपने
राष्ट्रीय हितों को संरक्षित एवं संवर्द्धित करना है। स्पष्ट है कि आने वाले समय में भारत
को अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में तेजी से आने वाले बदलावों के आलोक में अपनी
विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करना है, जो आसान नहीं होने जा रहा है।
ग्लोबल ट्रेडिंग आर्डर
को अमेरिका के द्वारा चुनौती:
भारत इन्डो-पेसिफिक में अमेरिका के
साथ सहयोग के लिए तो तैयार दिखता है, लेकिन वैश्विक व्यापार-व्यवस्था को चुनौती
देने वाली डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों के कारण भू-आर्थिकी के मोर्चे पर उत्पन्न
होने वाली कठिनाइयों के लिए भारत तैयार नहीं दिखता है। पिछले साढ़े तीन दशकों
तक अमेरिका ने जिस वाशिंगटन कंसेंसस को पूरी दुनिया पर थोपते हुए आर्थिक उदारीकरण
के एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ने की कोशिश की, उसके बारे में अमेरिकी
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को ऐसा लगता है कि वह अमेरिकियों के लिए नकारात्मक
परिणाम देने वाला रहा और उसके कारण जहाँ दुनिया के अन्य देशों को अमेरिकी बाज़ार के
खुलेपन का लाभ मिला, वहीं इसका खामियाजा अमेरिकी लोगों को भुगतना पड़ा। इसी सोच के
कारण हाल के वर्षों में उन्होंने विश्व व्यापार संगठन की अनदेखी की, ट्रांस
पेसिफिक पार्टनरशिप(TPP) से अमेरिका के बाहर होने की घोषणा की और मेक्सिको एवं
कनाडा के साथ नॉर्थ अमेरिका फ्री ट्रेड एग्रीमेंट(NAFTA) की पुनर्संरचना की दिशा
में पहल की। इतना ही नहीं, अमेरिका ने चीन के विरुद्ध मोर्चा खोलते हुए टकराव की ओर
ले जाने वाली व्यापारिक नीतियाँ अपनायी जिसने ट्रेड वॉर की स्थिति को जन्म दिया। यहाँ
तक कि अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया, जापान, भारत और जर्मनी तक को नहीं बख्शा, उसके
विरुद्ध भी मोर्चा खोलने से परहेज़ नहीं किया। स्पष्ट है कि इस व्यापार-युद्ध की पृष्ठभूमि में
वैश्विक उत्पादन-श्रृंखला की पुनर्संरचना होनी है, इसलिए यह स्थिति भारत के लिए
अवसर भी है और चुनौती भी।
अमेरिकी
मोर्चे पर बढ़ती मुश्किलें:
शीतयुद्धोत्तर परिदृश्य में भारत-अमेरिका
संबंध पुनर्परिभाषित हुआ, और फिर पिछले दो दशक के दौरान भारत एवं अमेरिका, दोनों
एक दूसरे के निकट आते चल गए। लेकिन, मई,2014
से दोनों देशों के बीच के सम्बन्धों के मोमेंटम बदलते दिखाई पड़े और भारत अमेरिका
के कहीं अधिक करीब आता चला गया। जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय
सम्बंधों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की चीनी आकांक्षा बलवती होती गयी, अमेरिका
और भारत एक दूसरे के निकट आते चले गए। और, इसी के साथ
भारत से यह अमेरिकी अपेक्षा भी प्रबल होती गयी कि भारत एशिया-पेसिफिक और अब
इन्डो-पेसिफिक में चीनी शक्ति को प्रतिसंतुलित करे। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार तो इससे परहेज़ करती
रही, पर वर्तमान सरकार ने खुद को अमेरिकी अपेक्षाओं के अनुरूप ढ़ल जाने दिया। बदले में, भारत के
सामरिक चिंताओं के प्रति अमेरिका ने संवेदनशीलता प्रदर्शित की और पकिस्तान पर
अंकुश लगते हुए भारत की क्षेत्रीय आकांक्षाओं एवं प्रमुख वैश्विक संस्थाओं में
प्रतिनिधित्व-भागीदारी की भारतीय आकांक्षाओं को समर्थन देना शुरू किया। इस रणनीति ने पाकिस्तान को चीन के
अधिक करीब लाने का काम किया, लेकिन इस रणनीति को झटका अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड
ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट की नीति और आर्थिक राष्ट्रवादी आकांक्षाओं से लगा। बचा-खुचा काम
अमेरिकी-ईरान प्रतिद्वंद्विता ने पूरा कर दिया।
अमेरिकी
आर्थिक राष्ट्रवाद को अवसर में तब्दील करने की चुनौती:
भारत के सामने
समस्या यह है कि अमेरिकी आर्थिक राष्ट्रवाद उसके लिए चुनौती बनता जा रहा है, और
अमेरिकी प्रभुत्ववादी आकांक्षा के साथ मिलकर यह भारत-रूस प्रतिरक्षा संबंधों को
दिशा-निर्देशित करना चाह रहा है। अमेरिका इस बात पर अड़ा हुआ है कि:
a. उसके
डेयरी-उत्पादों, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री एवं कृत्रिम अंगों के कारोबार के लिए भारत अपने बाज़ार खोले।
b. भारत अपने
महत्वपूर्ण रक्षा-उपकरणों की खरीद के लिए पुराने साझेदार रूस से पीछा छुड़ाते हुए अमेरिका के साथ अपने रक्षा-संबंधों को गहराए।
इसीलिए भारत के
सामने ट्रंप की व्यापार और आव्रजन-नीतियों के
प्रबंधन और भारत के सन्दर्भ में उसके नकारात्मक परिणामों को न्यूनीकृत करने की
चुनौती है। साथ ही, भारत के सामने विश्व
व्यापर संगठन(WTO) और जलवायु-परिवर्तन के मोर्चे पर बहुपक्षीय वार्ता को बचाने की
चुनौती भी है।
अब भारत की समस्या
यह है कि भारत पारंपरिक तरीके से बहुपक्षीयतावाद (Multilateralism) और जी-77 के
सहारे इस चुनौती का सामना नहीं कर सकता है क्योंकि इसका मतलब होगा बदले हुए
वैश्विक परिदृश्य ने भारत के लिए जिन संभावनाओं एवं अवसरों का सृजन किया है, उसे खो
देना। इसीलिए अगर भारत
वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की पुनर्संरचना से लाभान्वित होना चाहता है, तो:
1. उसे अपनी व्यापार-रणनीति को
व्यावहारिक रुझान देना होगा, और
2. आपसी बातचीत के एजेंडे को पुनर्परिभाषित
करना होगा।
आवश्यकता इस बात की है कि भारत
अमेरिका के साथ बातचीत के जरिये उसकी कारोबारी चिंता का भी समाधान करे और अपने लिए
कारोबारी छूटें हासिल करते हुए इस अवसर का लाभ उठाए।
भारत के समक्ष मौजूद चीनी चुनौती:
चीन की मंशा अब
वैश्विक मंच पर बड़ी भूमिका निभाने की है, और इसमें सहायक है उसकी आर्थिक क्षमता, उसके पास उपलब्ध विशाल फ़ॉरेक्स रिज़र्व, उसकी सैन्य-क्षमता,
टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उसका अग्रणी होना और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को
प्रभावित करने की क्षमता। इन सभी
क्षेत्रों में चीन भारत से मीलों आगे है, और अपनी इस बढ़त की बदौलत वह पहले एशिया में अपना
दबदबा स्थापित करना चाहता है। इसके
लिए वह ऐसी सामरिक रणनीति पर काम कर रहा है जो एक ओर चीन की ऊर्जा-सुरक्षा
सम्बन्धी चिंताओं का समाधान करते हुए उसके आर्थिक हितों को साधते हैं, दूसरी ओर
सामरिक दृष्टि से भारत को घेरते हुए भारत के सापेक्ष उसे रणनीतिक बढ़त भी प्रदान
करते हैं। वह भारत के पड़ोस में दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में वर्चस्व
कायम करने की कोशिशों में लगा हुआ है, और अपनी इस कोशिश में बहुत हद तक सफल भी है।
जहाँ तक भारत-चीन द्विपक्षीय
संबंधों का प्रश्न है, तो भारत-चीन संबंधों की गुत्थी बहुत जटिल है और इसे सुलझाना
भारत की कूटनीति एवं सुरक्षा-प्रतिष्ठान के लिए मुख्य चुनौती बनी हुई है:
a.
व्यापारिक असंतुलन एवं बढ़ता हुआ
व्यापार-घाटा, और
b. गहराती
सामरिक चुनौती एवं घिरता भारत।
c. समस्या सिर्फ यह
नहीं है। डोकलाम विवाद और उसके समाधान तक
पहुँचना भी एक चुनौती है, क्योंकि वह समस्या समाप्त नहीं हुई है। विदेश-सचिव के रूप में एस. जयशंकर ने डोकलाम-गतिरोध को दूर
करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और इसी आलोक में बतौर विदेश-मंत्री
जयशंकर ने अपना पहला विदेशी-दौरा भूटान का करते हुए उसे आश्वस्त करने का काम किया कि
भले ही चीन का दबाव बढ़े, लेकिन भारत हमेशा उसके साथ मजबूती से खड़ा रहेगा।
d. समस्या चीन और
पाकिस्तान की बढ़ती जुगलबन्दी भी है जिसने मसूद
अज़हर के मामले में भारत को बैकफुट पर धकेलते हुए भारत को वन बेल्ट, वन रोड के मसले
पर चुप्पी साधने को विवश किया जो कहीं-न-कहीं पाक-अधिकृत कश्मीर के
मसले पर भारत के सैद्धांतिक पक्ष को कमजोर कर रहा है।
इसीलिए चीन के प्रभाव को कम करना नयी सरकार के समक्ष मौजूद महत्वपूर्ण
चुनौती होगी, और इसके लिए भारत को अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों
से रिश्ते मजबूत करने होंगे। लेकिन, समस्या यह है कि न केवल भारत के व्यापारिक हित
चीन से जुड़ते हैं, वरन् विश्व व्यापार संगठन, जलवायु-परिवर्तन और विश्व बैंक एवं
आईएमएफ जैसी वैश्विक संस्थाओं के लोकतंत्रीकरण के मसले पर भारत और चीन के हित एक
दूसरे से जुड़ते हैं और इन मोर्चों पर भारत को चीन के साथ मिलकर काम करना होगा, लेकिन
चीनी चुनौती के मद्देनज़र भारत और अमेरिका के बीच गहराता सामरिक सहयोग भी इस रास्ते
में मौजूद महत्वपूर्ण चुनौती है जिसे भारत को साधना होगा।
भारत
के समक्ष मौजूद पाकिस्तानी चुनौती:
राजग-सरकार ने अपने पिछले
कार्यकाल(2014-19) के दौरान भारत ने पाकिस्तान के मोर्चे पर दो गलतियाँ की, जिसका
खामियाजा उसे कश्मीर में भुगतना पड़ रहा है:
a. उसने कश्मीर के मसले
को बलूचिस्तान से जोड़ दिया, और
b. उसकी पाकिस्तान-नीति
में निरंतरता का अभाव दिखा, और इसीलिये यह कहा जाने लगा कि ‘नो पाकिस्तान-पालिसी’
ही भारत की पाकिस्तान-नीति है।
इसीलिए नयी सरकार के
सामने सबसे बड़ी चुनौती भारत की पकिस्तान-नीति को
स्पष्टता के साथ पुनर्परिभाषित करने और प्रत्यक्षतः या परोक्षतः पाकिस्तान को
इंगेज करने की होगी, ताकि भारत पाकिस्तान पर दबाव बनाते हुए सीमा-पार
आतंकवाद पर अंकुश लगाने के सन्दर्भ में उससे आश्वासन ले पाने में समर्थ हो सके और
कश्मीर के मोर्चे पर उसकी मुश्किलें कम हों। इस मामले में मुश्किल यह भी है कि:
a. वर्तमान में भारत में उग्र-राष्ट्रवाद के उबाल का दौर चल रहा
है और जब बात पाकिस्तान की आती हो, तो यह चरम पर पहुँच जाता है।
b.
पाकिस्तान की नयी सरकार लगातार इस बात के संकेत
दे रही है कि वह भारत से बेहतर रिश्ते बनाना चाहती है। इसका संकेत उसने करतारपुर-कॉरिडोर
और अभिनन्दन की रिहाई से लेकर अन्य कई अवसरों पर दिया है। लेकिन, उनकी मंशा के
बारे में स्पष्टतः एवं निश्चित रूप से कुछ कह पाना मुश्किल है, विशेषकर तब जब पकिस्तान में सैन्य-तंत्र की प्रभावशीलता और वहाँ की सरकार
की सैन्य-तंत्र पर निर्भरता के आलोक में इसे देखा जाता है।
c. पाकिस्तान में चीन के बढ़ते निवेश, दोनों के बीच बढ़ती
सामरिक समझ एवं सहयोग, और चीन पर बढ़ती निर्भरता के आलोक में नीतिगत स्तर पर
पाकिस्तान को प्रभावित करने की चीनी क्षमता के मद्देनज़र भारत के लिए आगे का रास्ता
आसान नहीं होने जा रहा है। इस प्रकार चीन और पकिस्तान
की बढ़ती हुए जुगलबन्दी भी भारत के लिए चुनौती बनती जा रही है जिससे
निबटना उसके लिए आसान नहीं होने जा रहा है
पड़ोसी देशों में भारत की बढ़ती मुश्किलें:
भारतीय उपमहाद्वीप में सुरक्षा के लिहाज से भारत के लिए पड़ोसी देश
महत्वपूर्ण हैं, लेकिन चीन अपनी अधिशेष पूँजी के साथ भारत के दक्षिण एशियाई और
दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों में सक्रिय है और भारत के लिए निरंतर मुश्किलें
खड़ी कर रहा है। अब चाहे हिन्द महासागर में चीन की नौसैनिक रणनीति की बात करें, या
स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स की, या फिर वन बेल्ट, वन रोड(OBOR)/ बेल्ट एंड रोड
इनिशिएटिव(BRI) की: ये सारी परियोजनाएँ भारत के लिए रणनीतिक मुश्किलें खड़ी करने
वाली हैं। यद्यपि मालदीव एवं श्रीलंका में नेतृत्व-परिवर्तन के कारण भारत की
मुश्किलें थोड़ी कम हुई हैं, पर पाकिस्तान के साथ रणनीतिक गठजोड़ के साथ नेपाल,
भूटान एवं बांग्लादेश में चीन की बढ़ती हुई सक्रियता के कारण भारत की मुश्किलें अब
भी बनी हुई हैं। बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार का तानाशाही रवैया और विपक्ष
को कुचलने की रणनीति पर भारत की रणनीतिक चुप्पी और वर्तमान सरकार के द्वारा चीन से
रणनीतिक गठजोड़ भी आनेवाले समय में भारत के लिए मुश्किलें बढ़ा सकते हैं। रही-सही कसर
रोहिंग्या-समस्या ने पूरी कर डी है जिसने भारत-म्यांमार और भारत-बांग्लादेश के बीच
मुश्किलें बढ़ाई हैं।
पश्चिम एशिया में भारत की मुश्किलें:
भारत को अपने पड़ोस
पर नजर रखने के साथ ही पश्चिम एशिया में अपने
हितों को भी सुरक्षित रखना होगा जहाँ काफी उथल-पुथल मची हुई है। अफगानिस्तान और सीरिया से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के
निर्णय ने पश्चिम एशिया के परिदृश्य को कहीं अधिक जटिल बनाया है, और
ऐसी स्थिति में भारत की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं क्योंकि पाकिस्तान की मदद से चीन
इस क्षेत्र में सृजित शून्य को भरते हुए अपनी सामरिक उपस्थिति को महत्वपूर्ण बनाना
चाहेगा।
ऐसी स्थिति में इस
क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्ति ईरान की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो
जाती है, और अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ईरान के
मोर्चे पर भारत की मुश्किलें बढ़ी हैं जिसके कारण ईरान को साधना भारत के
लिए आसान नहीं होने जा रहा है, विशेष कर तब जब सीरिया में असद के विरुद्ध रूस, चीन
और ईरान एक प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हैं। चूँकि ईरान के खिलाफ अमेरिका की कड़ी नीतियों
से भारत प्रभावित हुआ है, इसलिए भारत को
अमेरिका-ईरान विवाद के समाधान तक पहुँचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी, जो
ट्रम्प के आर्थिक राष्ट्रवादी आग्रहों के कारण आसान नहीं होने जा रहा है। इसीलिए भारत के सामने
महत्वपूर्ण चुनौती अमेरिका और ईरान के साथ सामंजस्य स्थापित करने की होगी।
क्षेत्रीय
समीकरण को साधते हुए राष्ट्रीय हितों को संरक्षण एवं संवर्द्धन:
अपने वाणिज्यिक, आर्थिक,
कूटनीतिक और सामरिक हितों को देखते हुए भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र, अफ्रीका, दक्षिण
अमेरिका और यूरोप के साथ अपने रिश्तों में निरंतर
धार देनी होगी, और इन सभी क्षेत्रों में इसे चीनी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़
रहा है।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के
हितों का संरक्षण एवं संवर्द्धन:
आने वाले समय में भारत विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी भारत
के समक्ष चुनौती आने जा रही है। इसके
अलावा भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्(UNSC)
की स्थाई सदस्यता और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप(NSG) की सदस्यता हासिल
करने की कोशिशों में लगा है। उधर क्षेत्रीय व्यापक
आर्थिक भागीदारी समझौता(RCEP) और यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापर वार्ता(EUFTA)
के मोर्चे पर आ रही मुश्किलों को भी दूर करना होगा क्योंकि एक ओर ये
समझौते भारत के लिए ज़रूरी हैं, दूसरी ओर जिन मसलों पर सदस्य-देशों के द्वारा भारत
पर नरम रुख हेतु दबाव बनाया जा रहा है, वे मसले अत्यंत संवेदनशील हैं और उनसे भारत
के दीर्घकालिक हितों पर प्रतिकूल असर पर सकता है। इतना ही नहीं, जी-20, जी-77, ब्रिक्स और नाम जैसी संस्थाओं में भारत की
प्रभावी एवं नेतृत्वकारी भूमिका को सुनिश्चित करना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होने जा
रहा है।
भारत के लिए जटिल अंतर्राष्ट्रीय
परिदृश्य और वर्तमान विदेश-मंत्री:
विदेश सेवा-अधिकारी
के रूप में जयशंकर के पास बहुत व्यापक अनुभव रहा है, और वर्तमान सरकार ने उनके इस अनुभव
की अहमियत को समझते हुए ही उन्हें विदेश-मंत्री बनाया है। यदि अमेरिका में भारत के एम्बेसडर के
रूप में उन्होंने अमेरिका के साथ सिविल
न्यूक्लियर डील में अहम् भूमिका निभाई थी, वहीं विदेश-सचिव के रूप में डोकलाम-मसले पर उत्पन्न गतिरोध को
दूर करने में भी उनकी भूमिका अहम् रही। साथ ही, उनकी कार्य-शैली एवं
सोचने का तरीका भी वर्तमान नेतृत्व को कहीं अधिक सूट करता है। जयशंकर के पास अमेरिका ही नहीं, चीन के साथ काम
करने का भी अच्छा-खासा अनुभव है। उन्होंने करीब
साढ़े चार साल तक चीन में भी भारत के राजदूत के रूप में काम किया है
जिसके कारण यह उम्मीद की जा सकती है कि इनके पास चीन को लेकर बेहतर समझ होगी। इस
समझ का प्रदर्शन डोकलाम-विवाद के क्रम में हो चुका है। वर्तमान में इन्हीं दोनों
देशों को साधते हुए भारतीय विदेश-नीति राष्ट्रीय हितों को संरक्षित कर सकती है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने श्रीलंका, सिंगापुर और यूरोपीय देशों में भी सेवाएँ दी हैं।
उन्होंने सोवियत दौर में मास्को में सेवाओं के साथ अपने कूटनीतिक-करियर की शुरुआत
की। लेकिन, उनके सामने सबसे अधिक मुश्किलें पकिस्तान के मोर्चे पर आनेवाली हैं
जहाँ उन्हें पाकिस्तानी चुनौती के साथ-साथ घरेलू राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के दबाव
का भी सामना करना है। उम्मीद की जा रही है कि विदेश-मंत्री के रूप में जयशंकर
विदेश-नीति और कूटनीतिक मसलों पर इसमें विशेष रूचि रखने वाले और निरंतर सक्रियता
प्रदर्शित करने वाले भारतीय प्रधानमंत्री के मुख्य सलाहकार बने रहेंगे। स्पष्ट है कि आने वाले समय में विदेश-नीति के
मोर्चे पर नयी सरकार को कई मोर्चों पर जूझना है।
Thank-you sir...
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