Wednesday 26 August 2020

पुलिस-सुधार (अद्यतन): बिहार के विशेष सन्दर्भ में

 

पुलिस-सुधार

प्रमुख आयाम:

1.  पुलिस-सुधार: अद्यतन स्थिति:  

a. भारत में पुलिस-बल की स्थिति

b. सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश

c.  अनुपालन-रिपोर्ट

d. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केन्द्र सरकार के दिशानिर्देश

e. पुलिस-सुधारों के प्रति राज्यों की उदासीनता

2.  बिहार पुलिस अधिनियम, 2007:

a. बिहार सरकार: पुलिस-सुधार का विरोध

b. पुलिस-सुधार की दिशा में पहल

c.  पुलिस-सुधारों की वास्तविकता

d. विश्लेषण

3.  बिहार पुलिस-रिफार्म,2019:

a. पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना

b. हालिया पुलिस-सुधारों से लाभ

c.  मौजूद चुनौतियाँ

d. बिहार पुलिस-बल की स्थिति

पुलिस-सुधार: अद्यतन स्थिति

भारत में पुलिस-बल की स्थिति:

पुलिस-बल के सन्दर्भ में उपलब्ध अद्यतन आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2017 में भारत के सभी राज्यों में पुलिस-बलों की अनुमोदित क्षमता 2.8 मिलियन थी, लेकिन प्रभावी क्षमता महज 1.9 मिलियन थी, अर्थात् 28 लाख स्वीकृत पदों में करीब नौ लाख की रिक्तियाँ थीं जो करीब स्वीकृत पदों का एक तिहाई है। परिणामतः लाइव मिंट के आकलन के अनुसार, भारत में पुलिस-पब्लिक अनुपात 144 प्रति लाख है और भारत निम्न पुलिस-पब्लिक अनुपात की दृष्टि से दुनिया के पाँच देशों में से एक है, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के अनुसार इसे 222 प्रति लाख के स्तर पर होना चाहिए। अगर इन रिक्त पदों को भर दिया जाए, तब भी यह अनुपात 185 प्रति लाख पर जाकर रुक जाता है। इतना ही नहीं, पुलिस बलों को लह्गातर संसाधनों की किल्लत से जूझना पड़ता है। जहाँ पुलिस-बलों और पुलिस-अवसंरचना के आधुनिकीकरण के मद्देनज़र इन्हें अधिक संसाधनों की ज़रुरत है, वहीँ पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक सन् (2015-19) के दौरान पुलिसिंग के लिए राज्यों का बजटीय आवंटन सन् (2011-15) के 4.4 प्रतिशत से घटकर 4 प्रतिशत रह गया। सन् 2016 का डाटा बतलाता है कि इस वर्ष जितने मामले दर्ज किये गए, उनमें से 30 प्रतिशत मामले उस वर्ष के अंत तक नहीं सुलझाये जा सके। अगर यह स्थिति वर्तमान में है, तो उस समय की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है जब सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस-सुधारों के सन्दर्भ में दिशा-निर्देश जरी किये थे।

पुलिस-सुधार हेतु सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश:

सन् 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके पुलिस-सुधार की माँग करते हुए यह अपील की थी कि कोर्ट केंद्र एव राज्यों को यह निर्देश दे कि वे अपने-अपने यहाँ पुलिस की गुणवत्ता में सुधार करें और जड़ हो चुकी व्यवस्था को प्रदर्शन करने लायक बनाएँ। इस याचिका पर न्यायमूर्ति वाई. के. सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई करते हुए सन् 2006 में केंद्र और राज्यों को सात दिशा-निर्देश, जिनमें छह निर्देश राज्यों के लिए थे और एक निर्देश केंद्र सरकार के लिए, जारी किए:

1.  राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन का निर्देश: सुप्रीम कोर्ट ने संघीय सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन से सम्बंधित निर्देश दिए, जिस पर केन्द्रीय पुलिस बलों के प्रमुखों के चयन एवं पदस्थापन, अपग्रेडेशन के जरिये इनकी प्रभावशीलता को सुनिश्चित करने और इनके कर्मियों की सेवा-स्थिति (Service-Condition) में सुधार की जिम्मेवारी होती  

2.  राज्य सुरक्षा आयोग का गठन: हर राज्य में एक राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए, जिसका काम पुलिस से सम्बंधित व्यापक नीतिगत फ्रेमवर्क तैयार करना होगा और जो पुलिस को निरोधक कार्यवाही (Preventive Tasks) और सेवा-उन्मुख प्रकार्यण के सन्दर्भ में निर्देश दे सकने में सक्षम होगा 

3.  पुलिस स्थापना बोर्ड का गठन: पुलिस स्थापना बोर्ड का गठन किया जाए, जिसमें पुलिस महानिदेशक(DGP) और पुलिस विभाग के चार वरिष्ठतम अधिकारी शामिल होंगे और जो ट्रांसफर, पोस्टिंग्स, प्रमोशन और पुलिस सेवा से सम्बंधित अन्य मसलों को देखेंगे

4.  पुलिस शिकायत-निवारण प्राधिकरण का गठन: सुप्रीम कोर्ट ने राज्य-स्तर पर और जिला-स्तर पर पुलिस शिकायत-निवारण प्राधिकरण के गठन के निर्देश दिए, ताकि पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध दुर्व्यवहार से सम्बंधित शिकायतों की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जाँच संभव हो सके

5.  यूपीएससी पैनल द्वारा डीजीपी का चयन: सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह भी निर्देश दिया गया कि राज्य सरकार के द्वारा पुलिस महानिदेशक का चयन पुलिस विभाग के तीन वरिष्ठतम अधिकारियों की उस सूची से किया जाएगा जिसे यूपीएससी ने प्रोन्नति के लिए तैयार किया है। साथ ही, उनके लिए न्यूनतम दो वर्षों के कार्यकाल को सुनिश्चित किया जाएगा।

6.  फील्ड में ऑपरेशनल कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे पुलिस अधिकारियों के लिए दो वर्षों का निश्चित कार्यकाल: सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशक(DGP), इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस (IG) एवं डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस(DIG) से लेकर पुलिस अधीक्षक, पुलिस उपाधीक्षक और अन्य पुलिस अधिकारियों तक के लिए न्यूनतम दो वर्षों के कार्यकाल सुनिश्चित करने की बात की।

7.  आपराधिक जाँच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना: त्वरित जाँच, विशेषज्ञता और लोगों के बीच पुलिस की बेहतर छवि के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक जाँच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करने के निर्देश दिए।

इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया जिसे उस अधिनियम की रूप-रेखा के सन्दर्भ में सुझाव देना था जो भारतीय पुलिस अधिनियम,1861 का विकल्प होता इसी के सुझावों के आलोक में मॉडल पुलिस अधिनियम की रूप-रेखा तैयार की गयी और राज्यों से यह अपेक्षा की गयी कि वे इस मॉडल पुलिस अधिनियम के आलोक में अपने यहाँ नया पुलिस अधिनियम लाते हुए पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएँ

इन्हीं दिशानिर्देशों के राज्यों द्वारा अनुपालन के सन्दर्भ में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (CHRI) द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि कोर्ट के इस दिशा-निर्देश को करीब 12 साल बीत चुके हैं और अब तक कोई कारगर पहल नहीं हो सकी है। इससे पहले सन् 2008 में गठित थामस कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में भी इस बात की चर्चा की थी कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलांइस का राज्यों के द्वारा अनुपालन नहीं किया गया है।

अनुपालन-रिपोर्ट:

पुलिस-सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों द्वारा अनुपालन से सम्बंधित स्टेटस-रिपोर्ट यह बतलाती है कि किसी भी राज्य ने शीर्ष अदालत के निर्देशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया है। यह रिपोर्ट यह बतलाती है कि राज्यों के द्वारा इन निर्देशों की या तो अनदेखी की गयी है, या उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे मानने से इनकार कर दिया है, या फिर इसे आधे-अधूरे मन से स्वीकार करते हुए इस दिशा-निर्देशों की आत्मा की ही हत्या कर दी है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सन् 2006 के बाद से अप्रैल,2018 तक केवल 18 राज्यों ने नए पुलिस एक्ट को पारित किया है, जबकि बाकी राज्यों ने सरकारी आदेश/अधिसूचनाएँ जारी की हैं। लेकिन, किसी भी एक राज्य ने अदालत के निर्देशों का पूरे तरीके से पालन नहीं किया है।

1.  राज्य सुरक्षा आयोग के गठन का मसला: सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों में सबसे पहले हर राज्य और केंद्र-शासित प्रदेश में सुरक्षा आयोग के गठन की बात कही गई थी, ताकि राज्य सरकारें पुलिस पर अनावश्यक दबाव न डाल सकें और पुलिस-प्रशासन राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहकर अपने दायित्वों का निष्पादन कर सके। रिपोर्ट के मुताबिक:

a.  राज्य सुरक्षा आयोग का गठन नहीं: देश के 29 राज्यों में से 27 में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन पुलिस एक्ट या फिर सरकारी आदेश के जरिए किया गया है। लिखित तौर पर सिर्फ जम्मू कश्मीर और ओडिशा ने राज्य सुरक्षा आयोग का गठन नहीं किया है।

b.  आयोग के गठन के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं: आयोग में विपक्ष के नेता शामिल नहीं: हालाँकि 27 राज्यों में से छह राज्यों: असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, पंजाब और त्रिपुरा ने राज्य सुरक्षा आयोग के गठन के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया है। इन राज्यों ने राज्य सुरक्षा आयोग में विपक्ष के नेता को शामिल नहीं किया है।

c.  स्वतंत्र सदस्य के सन्दर्भ में दिशा-निर्देशों की अनदेखी: जिन राज्यों में राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया गया है, उनमें से 18 राज्यों में आयोग में स्वतंत्र सदस्यों को शामिल तो किया गया है, लेकिन उनकी नियुक्तियों के लिए एक स्वतंत्र चयन पैनल का गठन नहीं किया है। इसके अलावा, बिहार, कर्नाटक और पंजाब ऐसे राज्य हैं जहाँ राज्य सुरक्षा आयोग का गठन तो किया गया है, पर आयोग में स्वतंत्र सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है।

d. राज्य सुरक्षा आयोग की अनुशंसाओं और इसके क्रियान्वयन के सन्दर्भ में राज्य विधानमंडल के समक्ष वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत न करना: सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुसार राज्यों से हर साल इस आयोग के सन्दर्भ में राज्य विधानमंडल के समक्ष वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने की अपेक्षा की गयी है जिसमें यह बतलाया जाएगा कि राज्य सुरक्षा आयोग ने क्या अनुशंसाएँ की हैं और उन अनुशंसाओं का राज्य सरकारों के द्वारा कहाँ तक अनुपालन किया गया है। देश के 28 राज्यों में से केवल आठ राज्य: अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल ने सुरक्षा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट तैयार की और इसे राज्य विधान-मंडल के सामने प्रस्तुत किया है।

2.  पुलिस-महानिदेशक और वरिष्ठ पुलिस-अधिकारियों का सन्दर्भ: पुलिस-प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप में कमी और अनावश्यक राजनीतिक दबाव से उसकी मुक्ति के मद्देनज़र पुलिस-महानिदेशक(DGP) और दूसरे वरिष्ठ पुलिस-अधिकारियों की नियुक्ति एवं स्थानान्तरण की प्रक्रिया और निश्चित कार्यकाल के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशा-निर्देशों जारी किये थे, लेकिन नगालैंड एकमात्र राज्य है जिसके द्वारा इन दिशा-निर्देशों का अनुपालन किया गया। इस विचलन को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

a.  यूपीएससी पैनल कई अनुशंसा के आधार पर पुलिस-महानिदेशक की नियुक्ति से सम्बंधित दिशा-निर्देश की अनदेखी: सुप्रीम कोर्ट ने संघ लोक सेवा आयोग के पैनल द्वारा की गयी अनुशंसाओं के आलोक में राज्य सरकार के द्वारा पुलिस-महानिदेशक की नियुक्ति की बात की गयी, लेकिन इस सन्दर्भ में 23 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों पर ध्यान नहीं दिया।

b.  दो साल के निश्चित कार्यकाल से सम्बंधित दिशा-निर्देश की अनदेखी: जहाँ तक न्यूनतम दो साल के निश्चित कार्यकाल के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश का प्रश्न है, तो डीजीपी के सन्दर्भ में इस दिशा-निर्देश का अनुपालन सिर्फ चार राज्यों द्वारा किया गया है और इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस(IG), डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस(DIG), सुपरिंटेंडेंट ऑफ़ पुलिस(SP) और स्टेशन हाउस ऑफिसर(SHO) के सन्दर्भ में इस दिशा-निर्देश का पालन सिर्फ छह राज्यों के द्वारा किया गया।

3.  अन्य दिशा-निर्देशों का अनुपालन: जहाँ तक सुप्रीम कोर्ट के अन्य दिशा-निर्देशों का प्रश्न है, तो:

a.  आपराधिक जाँच एवं अभियोजन के कार्यों को कानून-व्यवस्था के दायित्व से अलग करना: अभी तक देश में 11 राज्यों ने क़ानून एवं व्यवस्था के दायित्व को आपराधिक जाँच एवं अभियोजन के कार्यों से नहीं अलगाया है। अगस्त,2019 में बिहार ने इस दिशा में पहल की है। इसका उद्देश्य पुलिस बल पर कार्यों के बोझ को कम करने के साथ-साथ विशेषज्ञता के विकास के जरिए उसकी दक्षता के स्तर में सुधार को सुनिश्चित करना था, ताकि प्रभावी पुलिसिंग को सुनिश्चित किया जा सके।  

b.  राज्य-स्तरीय एवं जिला-स्तरीय पुलिस शिकायत-निवारण प्राधिकरण का गठन: देश में 12 राज्यों ने अपने यहाँ पुलिस शिकायत-निवारण प्राधिकरण का गठन तो किया है, लेकिन इस क्रम में  सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन नहीं किया है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केन्द्र सरकार के दिशानिर्देश:

इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद केंद्र सरकार ने सभी राज्यों में खाली पड़े पुलिस के पदों के साथ पुलिस की ड्यूटी के लिए काम के घंटे तय करने के लिए सभी डीजीपी से भी रिपोर्ट माँगी थी। मौजूदा इंडियन पुलिस ऐक्ट,1861 के हिसाब से पुलिस को 24 घंटे ड्यूटी में माना जाता है। अभी सिर्फ केरल में पुलिस के लिए शिफ्ट ड्यूटी की व्यवस्था है। इसके अलावा, मध्य प्रदेश के 5 थानों में इसका सफल प्रयोग किया गया है। पिछले दिनों होम मिनिस्ट्री की रिपोर्ट में हालात पर चिंता जताते हुए पुलिस को काम करने का बेहतर माहौल देने के लिए दो शिफ्ट में काम को बाँटने का प्रस्ताव दिया गया है।

पुलिस-सुधारों के प्रति राज्यों की उदासीनता:

समस्या यह है कि कोई भी राज्य-सरकार पुलिस-सुधारों को लेकर गंभीर नहीं है क्योंकि इससे पुलिस पर उसकी पकड़ कमजोर होगी और फिर वह पुलिस का मनचाहा इस्तेमाल नहीं कर पाएगी जो कि उसकी मुश्किलों को बढ़ने वाला साबित होगा। कारण यह कि अक्सर राज्य सरकारें अपने फायदे के लिए पुलिस का दुरुपयोग करती हैं और इसका इस्तेमाल विरोधियों से निपटने से लेकर अपनी नाकामी छुपाने तक के लिए किया जाता है। पुलिस-सुधार के सन्दर्भ में स्थिति स्पष्ट करते हुए उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने यह कहा, “पुलिस-सुधार का यह मतलब नहीं है कि पुलिस स्वतंत्र हो जाए, वरन् यह है कि नीति-नियंता यह तय कर दें कि पुलिस कौन-से कानून से चलेगी, किस सिद्धांत का पालन करेगी, उसकी भूमिका क्या होगी और उसके ऊपर जिम्मेदारी क्या रहेगी, ताकि पुलिस अपने हिसाब से काम कर सके।”

बिहार पुलिस अधिनियम, 2007

बिहार सरकार: पुलिस-सुधार का विरोध:

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह मानना है कि दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग के द्वारा प्रस्तावित संशोधन संघवाद की मूल संकलपना के प्रतिकूल हैं। उनका कहना है कि पुलिस-सुधार और ट्रायल्स के सञ्चालन में अदालत के निष्पादन में सुधार से सम्बंधित अनुशंसाओं में मूलभूत अंतर्विरोध है। उनके अनुसार, यदि प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप पुलिस-तंत्र को दिन-प्रतिदिन की कार्यवाही में कई अधिकारियों के नियंत्रण में रखा जाता है, तो इससे कई प्रकार की विसंगतियाँ उभर कर सामने आयेंगी। इसलिए पुलिस पर विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं को नियंत्रण प्रदान करने की स्थिति में राज्य विधान-मंडल में निर्वाचित सरकार को पुलिस के निष्पादन के लिए जिम्मेवार ठहराना अव्यावहारिक होगाउनका यह भी कहना है कि प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप प्रत्येक राज्य में अपराध-अन्वेषण एजेंसी और अन्वेषण बोर्ड के गठन का विचार संवैधानिक एवं वैचारिक अंतर्विरोधों से भरा है। लेकिन, उन्होंने फॉरेंसिक साइंस इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार, जाँच के दौरान प्रोफेशनलिज्म, ख़ुफ़िया सूचनाओं के संग्रहण, प्रशिक्षण पुलिसिंग में लैंगिक मसले, सुभेद्य समूह (Vulnerable Sections) के विरुद्ध अपराध और जेल-सुधार से सम्बंधित अनुशंसाओं को लागू किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया। निश्चय ही, उनकी इस सोच ने बिहार में पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया और उसके स्वरुप को प्रभावित किया है।   

 

पुलिस-सुधार की दिशा में पहल:

बिहार सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के आलोक में औपनिवेशिक भारतीय पुलिस अधिनियम,1861 के पुलिस कानून को प्रतिस्थापित करने वाला पहला राज्य बना इसने बिहार पुलिस-अधिनियम,2007 के ज़रिए पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ने की दिशा में पहल की  ध्यातव्य है कि पुलिस के राज्य सूची के विषय होने के कारण सोली सोराबजी समिति की अनुशंसाओं के आलोक में केंद्र सरकार ने मॉडल पुलिस अधिनियम,2007 को पारित किया और राज्य सरकारों से इस दिशा में पहल की अपेक्षा की

1.  संस्थागत-सुधार:

a.  राज्य सुरक्षा आयोग (State Security Commission) का गठन: अवांछित राजनीतिक दबाव से मुक्त रखने के लिए और पुलिस के परफॉर्मेंसेज के मूल्यांकन के लिए।

b.  पुलिस शिकायत प्राधिकार का गठन: शिकायतों के निवारण के लिए राज्य स्तर पर और जिला स्तर पर स्वतंत्र पुलिस शिकायत प्राधिकार का गठन। निचले स्तर के पुलिस अधिकारियों के भ्रष्टाचार से सम्बंधित मामलों का निष्पादन पुलिस अधीक्षक की अध्यक्षता वाली समिति के द्वारा।

c.  पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना: इसके द्वारा पुलिस उपाधीक्षक से नीचे के स्तर के अधिकारियों की नियुक्ति, पदस्थापना या स्थानांतरण के संदर्भ में निर्णय लेना।

2.  संघ लोक सेवा आयोग के पैनल के द्वारा पुलिस महानिदेशक का चुनाव।

3.  पदस्थापना एवं कार्यकाल: फील्ड में तैनात पुलिस अधिकारियों के लिए न्यूनतम दो वर्षों का कार्यकाल।

4.  लॉ एंड ऑर्डर और अपराध-अन्वेषण को अलग-अलग करने की अनुशंसा।

5.  पुलिसिंग अवसंरचना से सम्बंधित वित्तीय ज़िम्मेवारी: अब ज़िलाधिकारी के बजाय पुलिस अधीक्षक को।

6.  ज़िला क्राइम कंट्रोल मीटिंग की अध्यक्षता ज़िलाधिकारी द्वारा, और पुलिस अधीक्षक सचिव।

7.  आरक्षी की जगह पुलिस शब्द का प्रयोग।

पुलिस-सुधारों की वास्तविकता:

बिहार पुलिस अधिनियम जिन सुधारों की प्रस्तावना करता है, उन सुधारों से बिहार पुलिस का लोकतंत्रीकरण संभव हो पायेगा और उसे मानवीय चेहरा प्रदान किया जा सकेगा, इसमें सन्देह है। कारण यह कि यह अधिनियम न तो पुलिस को अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप से संरक्षण प्रदान करता है और न ही उनकी जवाबदेही को सुनिश्चित करता है ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखते हुए बच निकलने के रास्ते की तलाश है, ताकि अदालत का कोपभाजन बनने से बचा जा सके स्पष्ट है कि बिहार ने पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के क्रम में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया है। इसे निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

 

1.  पुलिस-तंत्र को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग का गठन: ध्यातव्य है कि सोली सोराबजी समिति ने भी राजनीतिक कार्यपालिका और पुलिस के बीच एक ऐसी संस्था की कल्पना की जिसमें सरकार, पुलिस और आमलोगों के प्रतिनिधि शामिल हों और जिसके द्वारा पुलिस से सम्बंधित नीतिगत निर्णय लिए जा सकें सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सुरक्षा आयोग के रूप में इस संस्था की परिकल्पना करते हुए इसके निर्णय को सरकारों पर बाध्यकारी बनाये जाने की अपेक्षा की लेकिन, इस सन्दर्भ में सरकार का तर्क यह है कि अनिर्वाचित संस्था को इस बात की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह निर्वाचित सरकारों पर अपने निर्णय को थोप सके इसके आलोक में अदालत ने  यह निर्देश दिया कि अगर सरकार इस संस्था के निर्णय से सहमत नहीं है, तो उसे  विधानमंडल के पटल पर वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए इसका स्पष्टीकरण देना होगा और इस सन्दर्भ में सदन को आश्वस्त करना होगाऐसे प्रावधान स्पष्टता एवं पारदर्शिता को सुनिश्चित करते हैं और दुरूपयोग की तमाम संभावनाओं को निरस्त करते हैंलेकिन, यदि इस आलोक में बिहार सरकार द्वारा पारित अधिनियम के प्रावधानों पर विचार करें, तो:

a.  इसके प्रावधान न तो राज्य सुरक्षा आयोग के निर्णय को बाध्यकारी बनाते हैं और न ही असहमति की स्थिति में सरकार से सदन के पटल पर स्पष्टीकरण की अपेक्षा करते हैं। बिहार उन राज्यों की श्रेणी में आता है जिन्होंने राज्य विधान-मंडल के सामने राज्य सुरक्षा आयोग से सम्बंधित वार्षिक रिपोर्ट को प्रस्तुत करने की ज़रुरत नहीं समझी।

b.  जहाँ तक राज्य सुरक्षा आयोग की संरचना का प्रश्न है, तो इस सन्दर्भ में बिहार पुलिस अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की अनदेखी करता है सुप्रीम कोर्ट की अपेक्षाओं के विपरीत बिहार ने इसके अंतर्गत न तो विपक्ष के नेता को शामिल किया है और न ही स्वतंत्र सदस्यों को शामिल किया है।

2.  पुलिस शिकायत-निवारण तंत्र का गठन: वर्तमान में पुलिस की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाला मैकेनिज्म बहुत ही कमजोर है, संसदीय निगरानी अप्रभावी है, मानवाधिकार आयोग मानवाधिकार-उल्लंघन से सम्बंधित मामलों में प्रभावी तरीके से निगरानी कर पाने में असमर्थ है, और आतंरिक अनुशासन मैकेनिज्म इतना अपारदर्शी है कि उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है इसलिए ऐसे मैकेनिज्म की ज़रुरत है जिसमें आमलोगों की भी भागेदारी हो, और इसी के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट और सोराबजी पैनल की अनुशंसाओं के आलोक में तैयार मॉडल पुलिस एक्ट ने पुलिस के खिलाफ होने वाली शिकायतों के निवारण के लिए राज्य एवं जिला के स्तर पर सिविलियन शिकायत एजेंसी की अवधारणा प्रस्तुत की इससे इस तंत्र तक लोगों की आसान पहुँच भी सुनिश्चित की जा सकेगी और पुलिस पर स्वतंत्र निगरानी सुनिश्चित की जा सकेगी लेकिन, बिहार इस मॉडल को पूरी तरह से खारिज करते हुए जिला स्तर पर ऐसी संस्था का सृजन करता है जो स्वतंत्र नहीं है क्योंकि इसके अंतर्गत जिलाधिकारी, पुलिस उपाधीक्षक और अतिरिक्त जिलाधिकारी शामिल किया गया है बिहार के हालात ये हैं कि यहाँ मानवाधिकार आयोग तक नहीं है

3.  अशान्त क्षेत्र घोषित करने से सम्बंधित प्रावधान: यह अधिनियम सरकार को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वह कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के राज्यों की तरह किसी क्षेत्र को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर सके, ताकि अतिरिक्त पुलिस बलों की मौजूदगी के औचित्य को साबित किया जा सके  

ध्यातव्य है कि मॉडल पुलिस अधिनियम,2007 जिसके जरिये भारतीय पुलिस अधिनियम,1861 को प्रतिस्थापित किये जाने वाले कानून के मॉडल के निर्धारण की कोशिश की गयी है, भी इसकी अनुमति प्रदान करता है, लेकिन इसके लिए शर्त यह है कि जब स्थानीय आबादी के द्वारा इसकी माँग की जाएलेकिन, बिहार पुलिस अधिनियम,2007 इस शर्त की अनदेखी करता हुआ ‘ज़रुरत पड़ने पर’ पुलिस के द्वारा ऐसा किये जाने का प्रावधान करता है।

4.  विशेष पुलिस अधिकारियों की तैनाती: यह अधिनियम विशेष पुलिस पदाधिकारियों(SPO), जिन पर देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीर से छतीसगढ़ तक मानवाधिकार-उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं, को पुलिस-बलों की सहायता के लिए अधिकृत करता है

जब यह अधिनियम लाया गया था, तो यह आशंका जतायी गयी थी कि उपरोक्त दोनों प्रावधानों का दुरूपयोग जनान्दोलनों को कुचलने और लोगों की आवाज़ को दबाने के लिए किया जा सकता है साथ ही, विशेष पुलिस अधिकारी की संकल्पना लम्बे समय तक निजी सेनाओं के भय एवं आतंक से त्रस्त रहे बिहार के लिए नये सिरे से परेशानियाँ को जन्म दे सकता है। इस आशंका को इस बात से भी बल मिला कि बिहार में निजी सेना की भूमिका की जाँच के लिए गठित आमिर दास आयोग को सिर्फ इसलिए भंग कर दिया गया था कि भाजपा और जनता दल(यू) के उन नेताओं को बचाया जा सके जिनके रणवीर सेना के साथ सम्बन्ध हैं लेकिन, अबतक के अनुभव इन आशंकाओं को निरस्त करते हैं

5.  राज्य सरकार को ‘नियंत्रण’ एवं ‘अधीक्षण’ की शक्ति, पर इन शब्दों का अपरिभाषित रहना: बिहार पुलिस अधिनियम पुलिस पर बिहार सरकार के पूर्ण नियंत्रण(Control) एवं अधीक्षण (Superintendence) को सुनिश्चित करता है, यद्यपि यह इन दोनों शब्दों को स्पष्टतः परिभाषित नहीं करता है; जबकि भारत पुलिस अधिनियम,1861 राज्य सरकार को पुलिस के अधीक्षण के लिए अधिकृत करता है इसके विपरीत, मॉडल पुलिस अधिनियम दक्ष, अनुक्रियाशील (Responsive) एवं जवाबदेह पुलिस-व्यवस्था को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी राज्य सरकार को सौंपता है और इसके मद्देनज़र उसे पुलिस के अधीक्षण की शक्ति प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल उसे इस रूप में करना पड़ता है कि कानून के अनुरूप आचरण करने वाले प्रोफेशनल एवं दक्ष पुलिस बल के रूप में उसके आचरण को सुनिश्चित किया जा सकेलेकिन, बिहार पुलिस अधिनियम सरकार के उत्तरदायित्व को निर्धारित किये बिना उसे पुलिस को नियंत्रित करने के लिए अधिकृत करता है। लेकिन, सरकार ऐसा किस उद्देश्य से कर सकती है और किस हद तक कर सकती है, इस पर यह अधिनियम मौन है 

6.  दोहरे नियंत्रण की व्यवस्था का जारी रहना: यह अधिनियम पुलिस पर दोहरे नियंत्रण: पुलिस अधीक्षक और जिला अधिकारी (परिस्थितियों को स्पष्टत परिभाषित किये बिना सामान्य नियंत्रण एवं दिशानिर्देश के सन्दर्भ में), की व्यवस्था को बनाये रखता है, और इसके कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं की अनदेखी करता है। यह संकटपूर्ण स्थिति में पुलिस को जिलाधिकारी एवं अनुमंडलाधिकारी के दिशानिर्देशों एवं अनुमति पर निर्भर बनाती है और अस्पष्टता को बनाए रखती हुई उत्तरदायित्व एवं जवाबदेही की संकल्पना को कमजोर करती है।

7.  पुलिस-परफॉर्मेंस के मूल्यांकन का मैकेनिज्म: सोली सोराबजी समिति की अनुशंसाओं के आलोक में जिस मॉडल पुलिस एक्ट को अंतिम रूप दिया गया है, उसमें पुलिस-परफॉर्मेंस के मूल्यांकन के मैकेनिज्म की विस्तार से चर्चा की गयी है, और यह कहा गया है कि राज्य-स्तरीय स्वतंत्र संस्था जन-संतुष्टि, पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई एवं जाँच से प्रभावितों की संतुष्टि, जवाबदेही, मानवाधिकार-मानकों के आलोक में पर्यवेक्षण और संसाधनों के इष्टतम दोहन जैसे स्पष्टतः परिभाषित मानकों के आधार पर किया जाएगा आयोग को इस कार्य में निष्पादन-मूल्यांकन के निरीक्षणालय के द्वारा सहयोग किए जाएगा जिसकी अध्यक्षता रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक एक द्वारा किया जाएगा और जिसमें पदासीन एवं सेवानिवृत्त पुलिस-अधिकारी, समाज-विज्ञानी, पुलिस-अकादमिक और अपराध सांख्यिकी-विद् शामिल होंगे

अब, यदि इस मॉडल एक्ट के आलोक में बिहार सरकार के द्वारा लाया गया अधिनियम परफॉर्मेंस-मूल्यांकन के मानकों को तो स्वीकार करता है, पर यह परफॉर्मेंस-मूल्यांकन से सम्बंधित राज्य-स्तरीय संस्था की संरचना में अपनी सुविधा के हिसाब से बदलाव करता है। अगर इस संस्था में केवल मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक और गृह-सचिव शामिल होंगे, तो फिर उनके द्वारा पुलिस के निष्पादन का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मूल्यांकन मुश्किल होगा और उस मूल्यांकन की विश्वसनीयता भी संदिग्ध होगी, कारण यह कि समिति की रूचि पुलिस को अच्छा एवं दक्ष साबित करने में होगी और फिर सुधार की संभावना धूमिल होगी। वर्तमान में तो पुलिस राजनीतिक कार्यपालक के द्वारा शासित और यहाँ तक कि कई राज्यों में नियंत्रित होती है और उनसे मिलने वाला संरक्षण अक्सर दोषी पुलिस अधिकारियों को सज़ा से बचा ले जाता है।

8.  पुलिस की जवाबदेही को सुनिश्चित कर पाने में असमर्थ: पुलिस को उसके आचरण, दुर्व्यवहार और प्रदर्शन के लिए जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन, समस्या यह है कि ऑपरेशनल मामलों में निर्णयन की स्वतंत्रता के बिना पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित कर पाना संभव नहीं है, और यह तबतक मुश्किल है जबतक कि सरकार और पुलिस की भूमिका के साथ-साथ उनके उत्तरदायित्व को स्पष्टतः परिभाषित या रेखांकित नहीं किया जाता है

यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सामान्यतः पुलिस के परफॉर्मेंस का मूल्यांकन अपराध से सम्बंधित आँकड़ों के आलोक में किया जाता है, जबकि  संभव है कि इसके पीछे बेहतर रिपोर्टिंग एक कारण रही हो जिसके लिए पुलिस की तारीफ होनी चाहिए। संभव है कि क्राइम—रिपोर्टिंग की प्रक्रिया आसान बनायी गयी हो, या फिर पुलिस के प्रति बढ़ते भरोसे के कारण लोग अब पुलिस तक आसानी से पहुँच रहे हों और रिपोर्ट दर्ज करवा रहे हों।   

इस आलोक में, यह अधिनियम पुलिस की जवाबदेही को सुनिश्चित कर पाने में असमर्थ है। इसके उलट, यह पुलिस-अधिकारियों को सभी प्रकार की विधिक कार्यवाही और अदालती कार्यवाही से संरक्षण प्रदान करता है, बशर्ते यह विश्वास (Good Faith) में किया गया हो। ऐसा माना जा रहा है कि यह प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 से भी बुरा है जो अधिकारियों के अभियोजन के लिए सरकार की पूर्वानुमति की शर्त रखता है और जिसे वापस लेने की अनुशंसा सन् 1981 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने की थी। नया अधिनियम इसकी अनदेखी करता है

9.  पुलिस-अपराध का संकीर्ण दायरा: सोराबजी मॉडल एक्ट प्राथमिकी दर्ज न करने से लेकर अवैध तलाशी, ज़ब्ती, गिरफ्तारी एवं निरोध और शारीरिक उत्पीड़न, अमानवीय यातना एवं गैर-कानूनी वैयक्तिक हिंसा तक उन तमाम अपराधों को वर्गीकृत करता है जो सामन्यतः पुलिस के द्वारा किये जाते हैं ये तमाम अपराध आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत् दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आते हैं, लेकिन इन्हें पुलिस-अधिनियम में शामिल किया जाना इस बात का संदेश देता है कि उनके आपराधिक कृत्य अस्वीकार्य हैं लेकिन, बिहार पुलिस अधिनियम इनकी चर्चा से परहेज़ करता हुआ पुलिस के द्वारा किये गए अपराध के अंतर्गत केवल अनुशासन से सम्बद्ध मामलों की चर्चा करता है, न कि आम लोगों के प्रति पुलिस के अपराध को भी

इस सबका संकेत यह है कि नया पुलिस अधिनियम लोगों को दक्ष, अनुक्रियाशील एवं जवाबदेह पुलिस-सेवा उपलब्ध करवा पाने में असमर्थ है इसके उलट, यह सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों नज़रंदाज़ करता हुआ इसके रास्ते में बाधक बनता दिखाई पड़ता है

विश्लेषण:

पुलिस-रिफार्म के प्रश्न पर विचार करते हुए इस बात को समझने की ज़रुरत है कि पुलिस को जवाबदेह बनाये जाने की बात और पुलिस-संगठन को नियंत्रित करने की बात: दोनों बातें एक ही नहीं हैं, दोनों में फर्क है कोई भी परिपक्व लोकतंत्र पुलिस बल से यह तो अपेक्षा करता है कि वे निर्धारित विधिक प्रक्रिया के अधीन रहकर काम करें और जवाबदेह बने, पर उससे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि राजनीतिक तंत्र के नियंत्रण में रहकर उसके दिशानिर्देशों के अनुरूप काम करे, या फिर दिन-प्रतिदिन की कार्यवाही में राजनीतिक तंत्र से दिशानिर्देश प्राप्त करें और तदनुरूप आचरण करें स्पष्ट है कि पुलिस-सुधारों का उद्देश्य पुलिस-तंत्र को फंक्शनल ऑटोनोमी दिया जाना है, ताकि वह दबाव-मुक्त रहकर काम कर सके  

बिहार पुलिस-रिफार्म,2019

पुलिस-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना:

अगस्त,2019 में बिहार सरकार ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पुलिस-रिफॉर्म की प्रक्रिया को आगे बढ़ने का निर्णय लेते हुए इस बात की घोषणा की कि:

1.  लॉ एंड ऑर्डर तथा इन्वेस्टिगेशन को एक दूसरे से अलगाना: हर थाने में अलग-अलग इंस्पेक्टर: पुलिस रिफॉर्म की नई व्यवस्था के तहत् अब हर थाने में लॉ एंड ऑर्डर को बहाल रखने के लिए अलग टीम होगी, तो केस की जाँच करने के लिए अलग टीम होगी।

2.  थाना-मैनेजर की नियुक्ति: सभी थानों में अब थाना मैनेजर भी नियुक्त होगा। थाना-मैनेजर प्रशासनिक जरूरतों को देखने के अलावा आम लोगों की शिकायतों और उनकी जरूरतों को सुनेगा।

हालिया पुलिस-सुधारों से लाभ:

लॉ एंड ऑर्डर को जाँच एवं अभियोजन की प्रक्रिया से अलगाने के कई लाभ होने की संभावना है:

1.  इससे रुचि एवं स्वाभाविक रुझानों के अनुरूप पुलिस बलों की प्रति-नियुक्ति संभव हो सकेगी और उन पर से कार्यों के बोझ को भी कम करना सम्भव हो सकेगा ध्यातव्य है कि कई लोग ऐसे होते हैं जिनकी रूचि फील्ड-वर्क में होती है और वे ऑफिस में पेपर-वर्क में उलझना पसंद नहीं करते हैं, तो कई लोग ऐसे होते हैं जो फील्ड-वर्क की भाग-दौड़ के बजाय ऑफिस वर्क को पसंद करते हैं

2.  इससे पुलिस-बलों में विशेषज्ञता का विकास संभव हो सकेगा जो पुलिस-बल की दक्षता के स्तर को बढ़ाने में सहायक साबित होगा

3.  इससे जाँच एवं अभियोजन की प्रक्रिया में भी तेजी लाई जा सकेगी और बेहतर पुलिसिंग को सुनिश्चित किया जा सकेगा

4.  इससे न केवल (60-90) दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर चार्जशीट दाखिल करना संभव हो सकेगा, वरन् जाँच-प्रक्रिया की दक्षता में वृद्धि बेहतर दोष-सिद्धि दर को सुनिश्चित करेगी   

मौजूद चुनौतियाँ:

अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या वाकई महज एक घोषणा से और उसे कानूनी अमलीजामा पहनाने के लिए जारी कार्यपालक आदेशों के जरिये इस पहल को व्यावहारिक धरातल पर उतरा जा सकेगा? कारण यह कि एक तो बिहार में स्वीकृत पदों के आलोक में पुलिस-पब्लिक अनुपात देश में आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद सबसे कम है और दूसरे, इनमें करीब 30 प्रतिशत पड़ रिक्त हैं। इसके मद्देनज़र लॉ एंड ऑर्डर और जाँच एवं अभियोजन के पृथक्करण के निर्णय को व्यावहारिक धरातल पर उतारना आसन नहीं होगा, विशेषकर तब जब वीआईपी सुरक्षा का दबाव बढ़ता है, या फिर आकस्मिक स्थिति में व्यापक स्तर पर लॉ एंड ऑर्डर की समस्या उत्पन्न होती है इसके मद्देनज़र न केवल स्वीकृत पदों पर विद्यमान रिक्तियों को भरने की आवश्यकता होगी, वरन् पुलिस-बल एवं पुलिस-अवसंरचना के आधुनिकीकरण की ज़रुरत भी होगी। और, इन सबके लिए पुलिस-बल हेतु बजटीय आवंटनों को भी बढ़ाना होगा जो बिहार जैसे संसाधन की किल्लत से जूझ रहे राज्यों के लिए आसान नहीं होने जा रहा है। इसके अतिरिक्त दोनों विंग से जुड़े लोगों के लिए अलग-अलग वाहनों की भी व्यवस्था करनी होगी। जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक पुलिस-बलों की कार्यक्षमता और दक्षता में सुधार मुश्किल होगा यही कारण है कि सामान्यतः पुलिस-मुख्यालय पुलिस-सुधारों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं होते आलम यह है कि अक्सर पुलिस पर कार्यों के बोझ के कारण पुलिस-अधिकारियों के निलंबन को जाँच-प्रक्रिया के दौरान ही रद्द करना पड़ता है, उसके पूरा होने का इन्तजार नहीं किया जाता है

बिहार पुलिस-बल की स्थिति:

बिहार के सन्दर्भ में देखें, तो स्थिति और बदतर दिखाई पड़ती है। पुलिस-पब्लिक अनुपात की दृष्टि से बिहार भारतीय राज्यों में 33वें नंबर पर है और उससे नीचे सिर्फ ओड़ीसा है। ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट (BPRD) के अनुसार, बिहार में प्रति 839 लोगों पर एक पुलिस-बल के पद स्वीकृत हैं, जबकि मणिपुर में प्रति 80 व्यक्ति पर एक पुलिस-बल के पद स्वीकृत और राष्ट्रीय स्तर पर 554 लोगों पर एक पुलिस-बल के पद स्वीकृत; यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक अनुपात प्रति 729 लोगों पर एक पुलिस-बल। आंध्र प्रदेश (875), पश्चिम बंगाल (918) और दादरा एवं नगर हवेली (1358) ही बिहार से पीछे हैं। बिहार में स्वीकृत पदों की संख्या 1.11 लाख है, लेकिन पुलिस-बल की वास्तविक क्षमता महज 77 हज़ार है, अर्थात् स्वीकृत पदों में 34,000 पद अभी भी रिक्त हैं सन् 2009 में बिहार में प्रति लाख जनसंख्या पुलिस के स्वीकृत पद 90.35 थे, जबकि वास्तविक स्थिति प्रति लाख 63.38 थी। पूरे बहरत के सन्दर्भ में यह क्रमशः 177.67 और 134.28 था।  

स्रोत-सामग्री:

1.  “बिहार पुलिस एक्ट: रेफॉर्मिंग द पुलिस, ऑर प्रोटेक्टिंग इट फ्रॉम रिफॉर्म”: स्वाति मेहता

2.  पुलिस रिफॉर्म्स इन इण्डिया: पीआरएस.इण्डिया

3.  बिल्डिंग स्मार्ट पुलिस इन इण्डिया: बैकग्राउंड इनटू द नीडेड पुलिस फ़ोर्स रिफॉर्म्स: सुपर्णा जैन-अपराजिता गुप्ता (नीति आयोग की रिपोर्ट)

4.  पुलिस रिफॉर्म्स अगेंस्ट फेडेरलिज्म: नीतीश कुमार

 

https://www.prsindia.org/policy/discussion-papers/police-reforms-india

https://niti.gov.in/writereaddata/files/document_publication/Strengthening-Police-Force.pdf

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