लड़ाका रामशरण शर्मा!
(पुण्य-तिथि 20 अगस्त पर स्मरण)
अपने ही घर में उपेक्षित:
परसों 64वीं बीपीएससी परीक्षा के
साक्षात्कार में शामिल होने जा रही बेगूसराय की एक छात्रा, जो वर्तमान में कैनरा
बैंक में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत है, के मुँह से यह सुना कि बेगूसराय
की धरती ‘साहित्य की धरती’ है, तो मिश्रित अनुभूति हुई। मिश्रित इसलिए कि बेगूसराय
की धरती अपनी संश्लिष्ट पहचान के लिए जानी जाती है। अगर इस धरती की एक पहचान बिहार
के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की कर्म-भूमि के रूप में है, तो इसकी
दूसरी पहचान बिहार की औद्योगिक राजधानी के रूप में। इन दोनों पहचानों के बीच सत्ता
की राजनीति और राष्ट्रकवि दिनकर की लोकप्रियता ने ‘दिनकर की धरती’ के रूप में इसकी
साहित्यिक पहचान को दृढ़ पहचान को सुदृढ़ किया है। लेकिन, इन पहचानों से इतर, ‘बिहार
के मास्को’ के रूप में पहचाने जाने वाले वामपन्थ के इस गढ़ की एक और पहचान होनी
चाहिए, विश्व-प्रसिद्ध इतिहासकार राम शरण शर्मा की धरती के रूप में, जो इन सारे
पहचानों पर भारी पड़नी चाहिए, विशेष रूप से इस क्षेत्र की बौद्धिक चेतना और बौद्धिक
सक्रियता के मद्देनज़र; पार्ट यह बेगूसराय की विडम्बना रही कि वामपंथ के गढ़ होने के
बावजूद कभी बेगूसराय ने अपनी इस पहचान को दृढ होने की तो बात ही छोड़ दें, अपनी इस
पहचान को निर्मित करने में रूचि भी नहीं प्रदर्शित की। ताज्जुब तो यह है कि जिस
वामपंथ ने रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकारों के द्वारा किये गए कामों को भुनाते हुए अपनी
राजनीतिक संभावनाओं की तलाश की, उसी ने इस बात की सुध लेने की आवश्यकता नहीं महसूस
की। परिणाम आपके सामने है। सूरजभान सिंह और गिरिराज सिंह जैसे लोग बेगूसराय की
पहचान बन रहे हैं। सच ही कहा गया है कि जो पीढ़ी अपनी विरासत को सहेजना नहीं जानती
है और उसका सम्मान नहीं करना जानती है, उसका हश्र बुरा होता है। आज बेगूसराय में वामपन्थ
का हश्र इसकी गवाही दे रहा है। वामपन्थ का हश्र सबक है, वामपंथ के लिए भी,
बेगूसराय के लिए भी और उस पीढ़ी के के लिए भी, जो अपने पूर्वजों का सम्मान करना
नहीं जानती है, या सम्मान करना नहीं चाहती है।
उनका असमझौतावादी व्यक्तित्व:
आज भी बेगूसराय की फिजाँ में
विद्रोह की गन्ध को महसूसा जा सकता है। अगर दिनकर की रूमानी चेतना में इसके बीज
मौजूद थे, तो वामपंथ ने इसके लिए ठोस आधार तैयार
किया। अगर कॉमरेड चन्द्रशेखर, काका रामेश्वर सिंह और सूरज दा
ने इसके लिए राजनीतिक वातावरण निर्मित किया, तो राम शरण
शर्मा, राधा कृष्ण चौधरी, और अखिलेश्वरी
कुमार ने इसके लिए बौद्धिक वातावरण निर्मित किया; अब यह बात
अलग है बेगूसराय के वामपंथ ने रामशरण शर्मा के अवदान को कभी खुले मन से स्वीकार
नहीं किया, अन्यथा इसके लिए वह खुद कृतज्ञ महसूस करता और
रामशरण शर्मा जी का स्मरण करता। लेकिन, सत्ता की सरपरस्ती
में दिनकर बेगूसराय की फ़िजाँ में छाते चले गए। शायद इसका एक कारण यह भी कहा कि
रामशरण शर्मा बेगूसराय के होकर भी बेगूसराय के न हो सके, उन अर्थों में जिन अर्थों
में दिनकर अपनी राष्ट्रीय पहचान के बावजूद हो सके; और स्थानीय राजनीति से उनकी
दूरी बनी रही। शायद राजनीति बौद्धिक वर्ग से अनुकरण की जो अपेक्षा करती है और
अनुकरण के लिए जिस रीढ़-विहीनता की ज़रूरत होती है, उसका
शर्मा जी में अभाव था। राजनीति की दृष्टि से देखा जाए, तो
उनकी समस्या यह थी कि उनके पास ऐसा ‘थिंकिंग ब्रेन’ था जो अंतिम दम तक सक्रिय रहा। साथ ही, उनके पास
रीढ़ की हड्डी भी थी जिसने उन्हें कभी समर्पण करने की अनुमति नहीं दी, या फिर जिसके कारण वे राजनीति के समक्ष समर्पण नहीं कर पाए। लेकिन,
बेगूसराय उनकी रगों में बसा हुआ था और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है उनका विद्रोही
व्यक्तित्व, जो इतिहासकार के रूप में उनकी आरंभिक यात्रा से लेकर अन्तिम यात्रा तक
बना रहा। उनकी प्रतिरोधी चेतना का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि
उन्होंने भारतीय इतिहास काँग्रेस के संस्थापक नुरुल हसन की इच्छा के विरुद्ध जाकर
इस काँग्रेस में श्रीमती सरकार के द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा के विरुद्ध प्रस्ताव
पारित करवाया, और वह भी तब जब वामपंथी दल तत्कालीन काँग्रेस सरकार के साथ खड़े थे। ऐसी स्थिति में राजनीतिक वामपन्थ के लिए उन्हें न पचा
पाना ही सहज एवं स्वाभाविक था।
विद्रोही-चेतना का इतिहास के धरातल
पर प्रकट होना:
रामशरण
शर्मा के विद्रोही व्यक्तित्व की झलक उस समय ही देखने को मिलती है जब उनके
इतिहासकार-व्यक्तित्व के आकार ग्रहण करने की प्रक्रिया शुरू हो रही थी। उन्होंने ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ विषय को शोध हेतु चुना।
उन्होंने ऐसे समय में इस विषय का चयन किया था जब भारत में मनुवादी व्यवस्था की
जड़ें इतनी गहरी थी कि इस विषय पर मार्गदर्शन के लिए गाइड तक की उपलब्धता संभव
नहीं हो सकी। जब उन्होंने अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ के ज़रिए न केवल राम एवं कृष्ण के साथ-साथ रामायण एवं महाभारत की
ऐतिहासिकता को चुनौती दी, वरन् प्राचीन भारत के आरंभिक दौर में ऋग्वैदिक काल में
गो-मांस भक्षण की चर्चा की। ऐसा कर उन्होंने इतिहास-बोध को सामूहिक सांस्कृतिक
चेतना पर वरीयता दी, उस सामूहिक सांस्कृतिक चेतना पर, जिससे राम एवं कृष्ण इतने अभिन्न
हो चुके थे कि उन्हें भगवान के रूप में पूजा जाता था और कुछ ऐसी ही स्थिति गाय की
भी थी जिसे माता के रूप में पूरा देश पूजता था। इसलिए इस बात पर बवाल तो होना ही था,
विशेषकर तब जब दक्षिणपन्थी हिन्दुत्व के पैरोकार सरकार में हों। परिणामतः सन् 1978
में जनता पार्टी की सरकार, जिसमें जनसंघ भी
शामिल था और जिस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसकी विचारधारा का गहरा प्रभाव था,
ने उनकी उस पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया। इसके लिए उन्होंने उसे
कभी माफ़ नहीं किया और सरकार के इस कदम का विरोध ‘इन
डिफेंस ऑफ़ एनशिएन्ट इण्डिया’ लिखकर किया। परिणामतः 1980 में इस पुस्तक का एक बार फिर से प्रकाशन शुरू हुआ और
इसे अंतिम रूप से सन् 2002 में प्रकाशित होने से रोक दिया गया। इस
आलोक में जुलाई,2005 में उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक 'प्राचीन
भारत', जो पहले एनसीईआरटी से
प्रकाशित होती थी, के संशोधित
संस्करण की भूमिका में सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी
संकीर्णतावादियों पर तीखा हमला बोलते हुए लिखा, "पहली
बार इस पुस्तक को एनसीईआरटी के द्वारा प्रकाशित किया गया था, लेकिन 1978 में एनसीईआरटी ने अपने दकियानूसी विचारों
और रूढ़िवादी तत्वों के प्रभाव में इसका प्रकाशन रोक दिया। ........ 2001 में जब एनसीईआरटी ने इसे पुनः प्रकाशित किया, तो
पुस्तक के कुछ अंश को लेखक की सहमति के बगैर हटा दिए गए। अन्ततः 2002 में एनसीईआरटी ने अपने रूढ़िवादी और दकियानूसी विचारों के चलते इस पुस्तक
के प्रकाशन पर रोक लगा दी।"
इस क्रम में यह
स्पष्ट करने की भी आवश्यकता है कि पश्चिमी इतिहास-लेखन के दबाव से मुक्त होकर
उन्होंने भारतीय परिप्रेक्ष्य में इतिहास-बोध और इतिहास-दृष्टि को विकसित करने एवं
समझने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने वेदों, उपनिषदों और पुराणों का सूक्ष्म अध्ययन
करते हुए भारतीय इतिहास को पुनर्निर्मित करने का प्रयास किया। आगे चलकर, रोमिला
थापर ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। आज दक्षिणपन्थ को इसी ऐतिहासिक विरासत पर इतराते
हुए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते देखा जा सकता है।
सम्प्रदायीकरण के विरुद्ध
प्रतिरोधी आवाज़:
रामशरण शर्मा संघ परिवार और
जनसंघ/भाजपा के नेतृत्व में समाज एवं राजनीति के संप्रदायीकरण की चल रही कोशिशों
के बीच प्रतिरोध की सशक्त आवाज़ थे। जब सन् 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में अयोध्या में राम
मन्दिर बनाम् बाबरी मस्जिद का मामला उभरकर सामने आया, तो एक बार फिर से उन्होंने पुरातात्विक साक्ष्यों के आलोक में दक्षिणपंथी
दावों को चुनौती देते हुए आस्था और इतिहास के घाल-मेल की कोशिश का ज़ोरदार तरीक़े
से पूरी निडरता एवं मुखरता के साथ विरोध किया। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “अयोध्या में दूसरी सदी ईसा-पूर्व के पहले
किसी आबादी के चिह्न नहीं मिलते हैं। ..... और कि 16वीं सदी
तक राम के किसी भी मन्दिर का कोई (अयोध्या में) साक्ष्य नहीं मिला है। यहाँ तक कि
तुलसीदास, जिन्होंने अयोध्या में राम चरित मानस लिखी थी,
अवधपुरी का किसी तीर्थस्थल के रूप में उल्लेख नहीं करते हैं। एक
चौपाई में वह कहते हैं कि उन्होंने पाण्डुलिपि अवधपुरी में लिखी थी, जबकि वह आसानी से अवध तीर्थ लिख सकते थे और इसके लिए उन्हें छन्द-विधान
में भी कोई परिवर्तन नहीं करना पड़ता।” उन्होंने कृष्ण की
ऐतिहासिकता को खारिज करते हुए कहा, "हालाँकि
कृष्ण महाभारत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, मथुरा
में पाए जाने वाले शिलालेख और मूर्तिकला के उदाहरण 200 ई.पू.
और 300 ई. के बीच के हैं जो उनकी उपस्थिति को सत्यापित नहीं
करते हैं। इसी वजह से रामायण और महाभारत पर आधारित एक महाकाव्य युग के विचारों को
त्याग दिया जाना चाहिए।” आगे चलकर, दिसम्बर,1992 में बाबरी-मस्जिद के
विध्वंस के बाद उन्होंने इतिहासकार सूरज भान, एम. अतहर अली और द्विजेन्द्र
नारायण झा के साथ मिलकर ‘हिस्टोरियन रिपोर्ट टू द नेशन’ लेकर आए और इसके जरिये यह बताने की
कोशिश की कि विवादित स्थल पर मंदिर की मौजूदगी के सन्दर्भ में दक्षिणपन्थी हिन्दुत्ववादियों
का दावा भ्रान्त है और हिन्दुत्ववादियों की मस्जिद गिराने की कार्रवाई पूरी तरह से
के बर्बर कार्रवाई थी।
सन् 2002 में गुजरात दंगों पर तीखी प्रतिक्रिया
व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था, ”इतिहासकार का काम सद्भावना जुटाना नहीं,
ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करना है।” लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि उनके लिए
धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुसलमानों का तुष्टिकरण था। उन्होंने एक बार कहा था,
“जब सत्ता तथा अपने हितों का सवाल आता था, तो
हिन्दू शासक वर्ग के लोग उतने ही भयंकर साबित होते थे, जितने
मुस्लिम शासक वर्ग के लोग।” मतलब यह कि वे धर्मांन्धता और
साम्प्रदायिकता, चाहे अल्पसंख्यक की हो या बहुसंख्यक की,
को धर्म के राजनीतिकरण का परिणाम मानते थे और उनकी दृष्टि में सत्ता
और संकीर्ण स्वार्थों की प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है जो अपनी ज़रूरतों के अनुरूप
लोगों को इस बहाव में बहाने का काम करती है।
उनका मानना था कि इतिहास को वर्तमान के साथ मुठभेड़ में सक्षम
होना चाहिए, ताकि भविष्य की चुनौतियों का आकलन किया जाना चाहिए और बच्चों को
भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार किया जा सके। इसी आलोक में उन्होंने अयोध्या विवाद,1992 और गुजरात दंगा,2002 को 'सामाजिक
रूप से प्रासंगिक विषय' बताते हुए उन्हें विद्यालय-पाठ्यक्रम
में शामिल करने की आवश्यकता पर बल दिया और इसके परिणामस्वरूप एनसीईआरटी ने सिख-विरोधी
दंगा,1984 के साथ इन दोनों संवेदनशील मसलों को राजनीति
विज्ञान की पुस्तकों(12वीं कक्षा) में शामिल करने का फैसला किया, क्योंकि ये ऐसी घटनाएँ थीं जिन्होंने’ 1980 और 1990 के दशक के बाद के
राजनीतिक परिदृश्य को गहरे स्तर पर प्रभावित किया था।
विकसनशील इतिहास-बोध:
रामशरण शर्मा की स्मृति में साप्ताहिक लोक-प्रहरी (19-25
सितम्बर,2011) में प्रकाशित आलेख ‘इतिहास का प्रहरी
डॉ. रामशरण शर्मा’ में कला कौशल सितम्बर,2003 के एक वाक़िये का ज़िक्र करते हैं। शर्मा जी पटना में आयोजित जनवादी लेखक
संघ के छठे महासम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा था, “मैं जब भोर-भ्रमण के लिए निकलता हूँ, तो लोगों के
पैर देखता चलता हूँ।” और फिर, अपने
अंदाज़े बयाँ को विस्तार देते हुए उन्होंने मौजूद साहित्यकारों को आगे की राह
दिखाई, “आप आदिवासियों को कितना जानते हैं?
आप जुलाहों को कितना जानते हैं?” इसी क्रम में मैं इस
बात का भी ज़िक्र करना चाहूँगा कि राम शरण शर्मा अक्सर इस बात का ज़िक्र किया करते
थे कि एक इतिहासकार को लोक में प्रचलित लोकोक्तियों एवं मुहावरे के सहारे युग-जीवन
के यथार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए और आमलोगों को चाहिए कि ऐसी लोकोक्तियों
एवं मुहावरे को संग्रहित कर इसे थाती के रूप में इतिहासकार को सौंपे। गौर से देखें,
तो सब-अल्टर्न इतिहासकार भी तो इसी दिशा में पहल करते दिखाई पड़ते हैं। मतलब यह कि एक
इतिहासकार के रूप में रामशरण शर्मा खुद को भी पुनर्परिभाषित करने की कोशिश में लगे
रहे और उन्होंने औरों को भी इसके लिए लगातार उत्प्रेरित करने की कोशिश की। पटना
यूनिवर्सिटी में उनके पंद्रह वर्षों के कार्यकाल की उपलब्धियों की ओर इशारा करते
हुए वामपंथी चिन्तक भगवान प्रसाद सिन्हा
कहते हैं, “इतिहास के पाठ्यक्रम को ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रभाव से मुक्त कर उसका
अपडेशन और इसके जरिये इतिहास के अध्ययन-क्षेत्र का विस्तार इस पूरे शैक्षणिक दौर
में उनका माइलस्टोन वर्क माना जा सकता है।”
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