Thursday 27 August 2015

"मैं निराशावादी हूँ"

"मैं निराशावादी हूँ"
(स्वाधीनता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री 
के राष्ट्र के नाम संदेश पर एक प्रतिक्रिया)
दोस्तों,आप सबको स्वतंत्रता दिवस की,देर से ही सही, ढेर सारी शुभकामनाएँ। कल लालक़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौक़ा मिला। इस संबोधन ने सुकून भी दिया और दुविधापूर्ण मन:स्िथति में पहुँचा दिया।फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं भी निराशावादियों में ही हूँ। 
खैर,सबसे पहले मैं प्रधानमंत्री को बधाई देना चाहूँगा। पहली बार उनके लंबे स्पीच को धैर्यपूर्वक सुनने की हिम्मत जुटा सका। अच्छ लगा यह देखकर कि अब हमारे प्रधानमंत्री हवा-हवाई घोषणाओं से परहेज़ की अहमियत को धीरे-धीरे ही सही समझ रहे हैं।वे यथार्थवाद के कहीं ज्यादा क़रीब दिखे। अपने स्पीच में प्रधानमंत्री जब देश को नई कार्य-संस्कृति देने की बात कर रहे हैं, जब देश को निराशा और हताशा की मनोदशा से बाहर निकालकर आशा और विश्वास के संचार की बात कर रहे हैं,जब जातिवाद के ज़हर एवं संप्रदायवाद के ज़ुनून के लिए जगह न होने की बात करते हुए देश की सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी को संरक्षित करने की बात कर रहे हैं, जब लोकतंत्र में जनभागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क-संवाद स्थापित करने की आवश्यकता पर बल एवं इस संदर्भ में स्वयं अपने द्वारा की जाने वाली पहल की बात कर रहे हैं,वित्तीय समावेशन की दिशा में पहल करते हुए जन-धन, अटल पेंशन,सुरक्षा बीमा एवं जीवन ज्योति बीमा का अपनी उपलब्धि के रूप में उल्लेख कर रहे हैं, तो निश्चय ही वे प्रभावी भी हैं और उनसे असहमति की सीमित गुंजाइश ही बनती है।इसी प्रकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए विशेष पहचान संख्या का प्रावधान उनके लिए सामाजिक सुरक्षा योजना के लाभ को भी सुनिश्चित करेगा और उनकी बचतों की उनके लिए उपलब्धता को भी। अपने भाषण में उन्होंने उचित ही क़ानूनों की बहुलता और जटिलताएँ की ओर इशारा करते हुए चार आचार संहिताओं के ज़रिए उनके सहजीकरण-सरलीकरण की बात की।लेकिन, यहीं पर अन्य निराशावादियों की तरह मेरे मन में भी कुछ प्रश्न उठते हैं। 
A.जनधन का संदर्भ 
यह सच है कि महज़ साल भर से भी कम समय में सत्रह करोड़ खाते का खुलना और इसके ज़रिए बीस हज़ार करोड़ के आस-पास की राशि का मिलना उपलब्धि है, पर इस संदर्भ में कुछ प्रश्न :
१. क्या नये खाताधारक में बड़ी संख्या में वे लोग भी शामिल हैं जो पहले से वित्तीय ढाँचे की पहुँच में हैं और उन्होंने इस स्कीम का लाभ उठाने के लिए जनधन खाते खुलवाए।
२. क्या लगभग छियालीस प्रतिशत से अधिक खाते निष्क्रिय और शून्य बैलेंस की िस्थति में नहीं हैं? लेकिन , मैं भी प्रधानमंत्री की तरह भविष्य में इनकी भूमिका को महत्वपूर्ण और निर्णायक मानता हूँ।
३.क्या जनधन खातों के समर्थन के सिए हमारे पास पर्याप्त वित्तीय ढाँचा मौजूद है?
४. क्या महज़ खाता खोलने से वित्तीय समावेशन का उद्देश्य पूरा होगा? क्या बैंकिंग साख तक इनकी पहुँच को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई?
B.सामाजिक सुरक्षा संजाल:
तीनों सामाजिक सुरक्षा योजनायें, जिन्हें मोदी जी अपनी उपलब्धि बतला रहे हैं, क्या वाक़ई उपलब्धि हैं?-इस प्रश्न पर विचार अपेक्षित है।इनकी सार्वभौमिक प्रकृति इनकी उपलब्धि है। साथ ही, पूर्ववर्ती योजनाओं की तुलना में बीमा कवर राशि का अधिक होना और मिशन मोड अप्रोच में इन्हें चलाया जाना इन्हें विशिष्ट बनाता है, लेकिन इनमें सर्वाधिक प्रगतिशील प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना है जो महज़ बारह रूपए में दो लाख रूपए तक का बीमा कवर प्रदान करता है। पर, अटल पेंशन योजना अनाकर्षक है। जीवन ज्योति बीमा योजना कुछ मामलों में अपनी पूर्ववर्ती की तुलना में प्रगतिशील है और कुछ मामलों में प्रतिगामी। स्पष्ट है कि इन तीनों योजनाओं में दुर्घटना बीमा योजना ही मोदी सरकार के लिए यूएसपी बन सकती है।
C.स्वच्छता: 
मोदी भले ही इसे अपना यूएसपी बनाने की कोशिश में लगे हों, पर इस दिशा में अब तक जो भी प्रयत्न हुए हैं,वे प्रचारात्मकता तक सीमित रहे हैं। अब तक इन्हें ज़मीनी धरातल पर उतारने की कोशिश नहीं हुई है और न ही इसके लिए अवसंरचनात्मक संस्थागत ढाँचे को विकसित किया गया है। साथ ही,बिना मनोवृत्ति और सोच के स्तर पर बदलाव के सफलता के मुक़ाम तक पहुँचा पाना मुश्किल है।इस संदर्भ में मोदी जी ने सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए टाॅयलेट के संदर्भ में जिस उपलब्धि की बात की गई , उसमें संदेह है।
अब प्रश्न उठता है कि स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग ४.१९ लाख टाॅयलेट- निर्माण के लक्ष्य का, तो प्रधानमंत्री का यह दावा कि ४अगस्त २०१५ तक ३.६४ लाख टाॅयलेट का निर्माण किया जा चुका है, संदेह से परे नहीं है क्योंकि मई २०१५ तक महज़ १.२१ लाख शौचालयों का निर्माण ही संभव हो पाया था।इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न इनके रखरखाव और इनके चालू होने का है।
सर, अगर स्वच्छता अभियान को निष्कर्ष तक पहुँचाना है, तो स्थानीय संस्थाओं को ज़िम्मेवारी सौंपनी होगी,उन्हें फ़ंड उपलब्ध करवाने होंगे और क्षमता-निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी। लेकिन, दुर्भाग्य से आपकी सरकार ने राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को बंद करने का निर्णय लिया जिससे पंचायतों के क्षमता-निर्माण का काम बुरी तरह से प्रभावित होगा।
D.महँगाई को कम करना:
निश्चित तौर पर थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर मुद्रास्फीति माइनस चार प्रतिशत और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर चार से पाँच प्रतिशत के बीच है जो यूपीए-२ के अधिकांश हिस्से में दहाई अंकों के आसपास रही।लेकिन, इस प्रश्न पर दो कोणों से विचार किया जाना चाहिए:
१. क्या सरकार उन पाँच क़दमों के बारे में बतला सकती है जो उसने महँगाई कम करने के लिए उठाए हैं और जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि महँगाई आगे नियंत्रित ही रहेगी?
२. महँगाई में कमी का एक महत्वपूर्ण कारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड आॅयल की क़ीमतों में ज़बरदस्त गिरावट है जिसपर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है। इसी कारण चालू खाता घाटे में भी गिरावट की िस्थति भी दिखाई पड़ती है, नहीं तो निर्यात के मोर्चे पर हमारा प्रदर्शन अत्यंत निराशाजनक रहा है और उसमें निरंतर गिरावट जारी है।
साथ ही, चीज़ों का सस्ता होना और महँगाई वृद्धि दर में गिरावट दो चीज़ें हैं। क्या वह गिरावट रोज़मर्रा की वस्तुओं में हो रही है जिन्हें ख़रीदने के लिए हमें अक्सर बाज़ार जाना होता है या फिर मुख्य रूप से उन विनिर्मित उत्पादों की क़ीमतों में, जिन्हें ख़रीदने हम कभी-कभी बाज़ार जाते हैं?
E."जातिवाद का ज़हर और 
संप्रदायवाद का जुनून"
प्रधानमंत्री जी ने यह सही ही कहा कि "बंधुत्व, भाईचारा और सद्भाव सामाजिक-सांस्कृतिक पूँजी है" जिसकी हर क़ीमत पर रक्षा होनी चाहिए क्योंकि इसके बिना राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा कर पाना मुमकिन नहीं होगा। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि इसे ख़तरा किससे है? इसी के साथ यह प्रश्न उठता है कि भाजपा और प्रधानमंत्री सही मायने में नई प्रकार की राजनीति करते हुए जातिवाद और सम्प्रदायवाद के लिए "नो स्पेस" के अपने रूख पर अटल है? अगर हाँ, तो गिरिराज सिंह और साध्वी निरंजन ज्योति जैसों के लिए मंत्रिमंडल में स्पेस कैसे? कैसे जनवरी- मई २०१४ की तुलना में जनवरी-मई २०१५ के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में चौबीस प्रतिशत का उछाल अाया और मरने वालों की संख्या छब्बीस से बढ़कर तैंतालीस हो गई? सर, "घर वापसी", "लव जेहाद" धर्मांतरण आदि के मसले पर आपकी चुप्पी ने आहत किया है। यह चुप्पी पवन दीक्षित की इन पंक्तियों की याद दिलाती है:
बुरे लोगों से दुनिया को ख़तरा नहीं,
शरीफ़ों की चुप्पी ख़तरनाक है ।
प्रधानमंत्री जी, आपको अति पिछड़ा वर्गके नेता के रूप में प्रचारित किया जाना, आपको तेली समुदाय का बतलाया जाना, नवनियुक्त राज्यपाल की नियुक्ति का नीतीश जी के द्वारा संघवाद के आधार पर विरोध को महादलित की नियुक्ति के विरोध के रूप में प्रचारित कर इसका राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास, राष्ट्रकवि दिनकर को भूमिहार के रूप में प्रचारित करना, एक दौर में माँझी के लिए जेल की माँग करने वाले तथा माँझी के राज को जंगलराज बताने वालों का आज अचानक माँझी के साथ गलबाँहियाँ डाले घूमना, पप्पू यादव के प्रति प्रेम, जो रामविलास और रामकृपाल कल तक पानी पी-पीकर आपको कोसते थे, आज आपके मंचों पर शोभायमान होते: ये बातें "नो स्पेस" वाली सोच के साथ हज़म नहीं होतीं। ऐसा नहीं कि आपके विरोधी दूध के धुले हों:अब बात चाहे नीतीश और लालू की हो या फिर काँग्रेस की; पर प्रश्न आप से विशेष रूप से इसलिए है कि आपने नई प्रकार की राजनीति का आश्वासन दिया था और आप देश के प्रधानमंत्री हैं, यद्यपि मैंने् आपको वोट नहीं दिया और न ही दूँगा, पर महज़ इस बात से मेरे आप पर अधिकार कम नहीं हो जाते हैं क्योंकि आप उनहत्तर प्रतिशत उन मतदाताओं की तरह मेरे भी प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने आपको वोट नहीं दिया, पर जिनकी अपने प्रधानमंत्री से अपेक्षाएँ हैं।
F. कालाधन और भ्रष्टाचार:
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपने कालेधन के संदर्भ में यह दावा किया कि देश में कालेधन का सृजन रूक चुका है। आपके इस दावे में कितनी सच्चाई है, इस बात को मुझसे बेहतर आप समझते हैं। जहाँ तक काले धन पर विशेष जाँच दल के गठन की बात है, तो निश्चय ही आपने इस मसले पर तत्परता दिखाई, जिसके लिए आप तारीफ़ के हक़दार हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या आप सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों से बँधे हुए नहीं थे? G-20 में इस मसले को उठाने की बात को निरंतरता में देखा जाना चाहिए।ऐसा नहीं कि आपने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार पहल नहीं की। इसके पहले भी पिछले कुछ वर्षों से इस दिशा में प्रयास जारी हैं। यह कहना कि अब कोई भी देश से बाहर कालाधन भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, यह अतिरंजना है। आपने पैंसठ सौ करोड़ के कालाधन घोषित किए जाने का हवाला दिया, जो ऊँट के मुँह में ज़ीरा के समान है।जहाँ तक काले धन पर नए क़ानून की बात है, तो यह अचानक नहीं हुआ । इस पर पहले से प्रयास चल रहे थे। इसे इसी निरंतरता में देखा जाना चाहिए।
जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, तो प्रधानमंत्री जी सिर्फ़ यह कह देने मात्र से कि पिछले पन्द्रह महीने के दौरान मेरी सरकार पर एक भी पैसे के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है,आपकी बातें स्वीकार्य नहीं हो जातीं। ललित गेट मसले पर सुषमा स्वराज का अनुचित और अनैतिक आचरण पर आपको अपनी िस्थति स्पष्ट करनी चाहिए। मध्यप्रदेश में व्यापम, वसुंधरा राजे सिंधिया की ललित मोदी के साथ साँठगाँठ , छत्तीसगढ़ में पीडीएस घोटाला : इन तमाम मसलों पर चुप्पी और सहिष्णुता क्यों? क्या आपको नहीं लगता कि भ्रष्टाचार जो भाजपा का यूएसपी था और भाजपा ने इस मसले पर बढ़त बनायी भी थी,आज उस बढत को भाजपा लूज़ कर चुकी है।कैग की रिपोर्ट कहती है कि मध्य प्रदेश में व्यापम से भी कई गुना बड़े घोटाले का मसला प्रकाश में आया है। इस स्कैम के बारे में सीबीआई का कहना है कि उसके पास इतने मानव संसाधन उपलब्ध नहीं हैं कि वह इस मामले की जाँच को आगे बढ़ा सके।अभी-अभी गोवा के मुख्यमंत्री के साले को रंगे हाथ घूस लेते देखें जाने का मामला प्रकाश में आया है।ऐसी िस्थति में भ्रष्टाचार के संदर्भ में आपके उपरोक्त निष्कर्ष को स्वीकारना मेरे लिए कम-से- कम मुश्किल है।
G. किसानों का संदर्भ : 
सर, आपने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया जो निश्चय ही स्वागतयोग्य क़दम है। जहाँ तक मेरा ख़्याल है, इसकी अनुशंसा काफ़ी पहले एम एस स्वामीनाथन आयोग ने की थी। आपकी इस बात के लिए भी प्रशंसा करनी होगी कि प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में फ़सल-मुआवज़ा हेतु न्यूनतम मानदंड को आपने पचास प्रतिशत से घटाकर तैंतीस प्रतिशत कर दिया, अब यह बात अलग है कि इसका लाभ ज़रूरतमंदों तक पहुँचा या नहीं और यदि पहुँचा, तो किस हद तक। इसके लिए आपको ज़िम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए तत्संबंधित राज्य सरकारें ज़िम्मेवार हैं, चाहे वे कांग्रेस की हों, भाजपा की या फिर स्थानीय दलों की। पर, सर , आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य में पचास प्रतिशत की वृद्धि का वादा किया था, उस वादे का क्या हुआ? कहीं अगले पाँच सालों में पचास प्रतिशत वृद्धि की बात तो नहीं की गई थी? कई बार जब आपके समर्थक तर्क देते हैं और कहते हैं कि पैंसठ साल का हिसाब नहीं माँगा और हमसे पैंसठ दिन या तीन सौ पैंसठ दिन का हिसाब माँगते हो( ये वही लोग हैं जो अरविन्द केजरीवाल से उनकी जीत के बाद और सत्ता सँभालने के ठीक पहले से हिसाब माँग रहे हैं), तो लगता है कि ये पैंसठ साल तक हिसाब नहीं माँगने देंगे( यह बात अलग है कि इन पैंसठ वर्षों के दौरान (१९७७-७९),(१९८९-९०) और (१९९६-२००४) तीन बार में दो बार कुल दो बार भाजपा कुल आठ वर्षों तक प्रत्यक्षत: सत्ता में भागीदार रही। तो सर, पहले हम न तो हिसाब माँगना जानते थे और न हिसाब करना जानते थे, कांग्रेस के राजतंत्र में जीने वाली निरीह प्रजा थे हम; पर सर, आपने और केजरीवाल जी ने ही हिसाब माँगना और करना सिखाया। सर, अब हम हिसाब माँगेंगे भी और लेंगे भी, आपके तरीक़े से नहीं,अपने तरीक़े से और मानक कांग्रेस नहीं, मानक होंगे आपके द्वारा किए गए वादे और हमारी अपेक्षाएँ ।
लोकतंत्र और जनभागीदारी :
प्रधानमंत्री जी ने लालक़िले की प्राचीर से भागीदारी लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करने की बात की, लेकिन लोकसभा के चुनाव प्रचार अभियान से लेकर अगर अब तक की उनकी गतिविधियों पर ग़ौर किया जाय, तो हम पाते हैं कि :
१. लोकतंत्र की प्रधानमंत्री की अपनी परिभाषा है, तभी तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लंबे समय के बाद संसदीय चुनाव की बजाय राष्ट्रपतीय व्यवस्था के चुनाव पर लड़ा जा रहा है।
२.तब से लेकर अब तक लगभग सारे विधानसभा चुनाव व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर लड़े गए। कल तक कांग्रेस इसी तरह चुनाव लड़ती थी।
३. आपकी और केजरीवाल जी, दोनों की राजनीति की सीमा यह है कि दोनों की राजनीति मुद्दों से शुरू होती है और व्यक्तित्व के मंडन पर समाप्त होती है।
आपने "मन की बात" के ज़रिए जनता के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क संवाद स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन इसकी सीमा यह रही कि यह एकतरफ़ा सम्पर्क संवाद का माध्यम बनकर रह गया।दूसरी बात यह कि आपके दौर में श्री मती गाँधी के समय प्रचलित राजनीतिक मुहावरे एक बार फिर से लोकप्रिय होने लगे।प्रधानमंत्री कार्यालय इतना हावी है कि कैबिनेट सचिवालय अप्रासंगिक प्रतीत होने लगा।इतना ही नहीं, एक ओर आप भागीदारी लोकतंत्र की बात करते हैं, दूसरी ओर पंचायतों के क्षमता-निर्माण के लिए चलाए जा रहे राजीव गाँधी पंचायत सशक्तीकरण अभियान को रोक देते हैं।
प्रधानमंत्री जी, आपकी कुछ चीज़ें भारत का ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे काफ़ी परेशान करती है:
१. विपक्ष के प्रति सम्मान का अभाव
२.अपने आलोचकों के प्रति असहिष्णुता और अपनी आलोचना सुनने को तैयार न होना, जैसा कि आपने लालक़िले की प्राचीर से अपने आलोचकों पर "निराशावादी" कहकर निशाना साधा।
३.आत्ममुग्धता की मनोदशा में अबतक की सरकारों की उपलब्धियों को नकारना
प्रधानमंत्री महोदय,बस इतनी अपेक्षा है आपसे कि बीच-बीच में आत्ममूल्यांकन का अवसर निकालें। निश्चित तौर पर गवर्नेंस आपका यूएसपी हो सकता है, पर तभी जब आप गिरिराजों, नरेन्द्र तोमरों, साक्षी महाराजों और साध्वी निरंजन ज्योतियों पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाएँ तथा भ्रष्टाचार को लेकर अपने स्टैंड में कनसिस्टेंसी को मेनटेन करें।रही बात निराशावादी होने की, तो मैं निदा फाजली की इस शायरी से इस आलेख का अंत करना चाहूँगा: 
हम ग़मज़दा हैं गाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत,
देंगे वही जो इस दुनिया से पायेंगे हम।

Saturday 15 August 2015

सत्तारूढ़ दल के धरना-प्रदर्शन के मायने

सत्तारूढ़ दल के धरना-प्रदर्शन के मायने
भारतीय राष्ट्रीय राजनीति १९८९ ई. में गठबंधन के युग में प्रवेश करती है और तब से अब तक सरकार में कोई रहा हो और विपक्ष में कोई भी हो, दो प्रवृत्तियों को विकसित होते देखा जा सकता है:
१. सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा विपक्ष की भूमिका को हस्तगत किया जाना और विपक्ष का अप्रासंगिक होते चला जाना।
२.विपक्ष की नकारात्मक भूमिका का बढ़ते चला जाना।
केजरीवाल जी ने दिल्ली का मुख्यमंत्री रहते हुए एक नया ट्रेंड जोड़ा: सत्तारूढ़ दल और मुख्यमंत्री द्वारा धरना-प्रदर्शन का, यद्यपि यह धरना केंद्र सरकार के विरूद्ध था। वैसे यह उतना नया भी नहीं है क्योंकि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री भी धरने पर बैठ चुके हैं। साथ ही, कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हो चुका है। पर, मैंने केजरीवाल जी को ट्रेंड- सेटर इसलिए कहा कि उन्होंने कई ऐसे प्रयोग किए हैं जिनका अनुकरण करते राष्ट्रीय स्तर के दोनों राजनीतिक दलों को देखा जा सकता है।वैसे, ऐसे कई ट्रेंड को सेट करने का श्रेय हमारे माननीय प्रधानमंत्री को भी जाता है।
इसका ताज़ा उदाहरण है कल एनडीए गठबंधन का "लाँग मार्च", जो उतना लाँग भी नहीं था।अगर मेरी यादाश्त कमज़ोर नहीं है , तो पहली बार सत्तारूढ़ गठबंधन के सबसे बड़े घटक दल के नेतृत्व में सारे मंत्रियों को विपक्ष द्वारा आपात काल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न किए जाने की कोशिशों के विरूद्ध सड़कों पर उतरना पड़ा, जो अपने आप में दिलचस्प है।
आख़िर मार्च की ज़रूरत क्यों ?
इस प्रश्न पर विचार करने के पहले दो चीज़ों को स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है:
१. लोकतंत्र और संविधान किसी भी व्यक्ति, संस्था या संगठन को धरना-प्रदर्शन करने या अपनी बातों को जनता तक पहुँचाने की अनुमति देता है। इसलिए ऐसे मार्च में कुछ भी ग़लत नहीं है।
२. अब तक सामान्यत: ऐसे मार्च का आयोजन विपक्षी दलों के द्वारा विरोध-प्रदर्शन के लिए किया जाता रहा है। पिछले कुछ समय से कई बार गठबंधन के सहयोगी दलों के द्वारा भी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत् ऐसे मार्च का आयोजन किया जाता है।
दरअसल भाजपा "कांग्रेस-मुक्त भारत" के सपने को लेकर चल रही है जो प्रकारांतर से "विपक्ष-मुक्त भारत" का सपना है। उसे चुनाव के बाद ऐसा महसूस हुआ कि वह अपने मक़सद में कामयाब होने जा रही है। कांग्रेस लगातार बैकफ़ुट पर ही नहीं रही, वरन् पूरी तरह से डिमोरलाइज्ड भी नज़र आई। इस दौरान भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं ने उसे और ज़्यादा डिमोरलाइज्ड करने की कोशिश की। इसी रणनीति के तहत् कांग्रेस को संसदीय अभिसमय की आड़ में औपचारिक रूप से विपक्ष का और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा देने से बचने की कोशिश की।खैर,ख़ुद कांग्रेस ने भी १९७८ के विपक्षी दल के नेता का वेतन व भत्ता अधिनियम की अनदेखी करते हुए १९८० और १९८४ में किसी भी दल को औपचारिक रूप से विपक्षी दल तथा उसके नेता को विपक्षी दल के नेता का दर्जा देने से परहेज़ किया। इसीलिए कहा गया है:" जैसी करनी, वैसी भरनी"। लेकिन, एक बात समझ में नहीं आई कि किस मुँह से भाजपा ने दिल्ली विधानसभा में पाँच प्रतिशत से भी कम प्रतिनिधित्व के बावजूद विपक्षी दल और उसके नेता ने विपक्षी दल के नेता का औपचारिक दर्जा स्वीकार किया।
साल भर तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, पर उसके बाद भाजपा उसी तरह घिरती नज़र आ रही है जिस तरह सितंबर २०१० के बाद कांग्रेस ।व्यापम, ललितगेट, पीडीएस घोटाला और अब कैग ने व्यापम से भी बड़े जिस घोटाले की चर्चा की है, उसके कारण तेज़ी से चीज़ें बदलने लगी और इसने भाजपा को बैकफ़ुट पर ला दिया। इसने मृतप्राय कांग्रेस में नई जान फूँक दी और उसने एक अवसर की तरह इसे लोक लिया।भाजपा को "कांग्रेस मुक्त भारत"का सपना दूर छिटकता नज़र आया और इसी के साथ भाजपा का फ़्रस्ट्रेशन भी बढ़ता चला गया।
जब संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ, तो कांग्रेस ने भाजपा वाली रणनीति अपनाई और तब तक संसद नहीं चलने देने का निर्णय लिया जब तक सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया इस्तीफ़ा नहीं दे देती। कांग्रेस का यह स्टैंड ग़लत था। उसे संसदीय कार्यवाही चलने देनी चाहिए थी और संसद के बाहर विरोध-प्रदर्शन का सिलसिला जारी रखना चाहिए था। साथ ही, संसद के भीतर अन्य विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर बहस भी करनी चाहिए थी और सरकार पर लगातार दबाव भी बढाना चाहिए था। पर, ग़लत रणनीति के कारण कांग्रेस पर चौतरफ़ा दबाव बढ़ता गया । इसी बीच राहुल गाँधी ने मर्यादा लाँघते हुए सुषमा पर "below the belt" अटैक किया। अंततः कांग्रेस को लोकप्रिय दबाव के आगे झुकना पड़ा और संसद का गतिरोध टूटा। संसदीय कार्यवाही शुरू हुई और ललित गेट पर बहस भी शुरू हुआ। लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि न तो प्रधानमंत्री की ओर से और न ही भाजपा के किसी बड़े नेता की ओर से इस गतिरोध को समाप्त करने की दिशा में कोई गंभीर पहल की गई। इसके उलट सत्तारूढ़ दल की ओर से लगातार ऐसे बयान दिए गए जिसकी चौतरफ़ा आलोचना हुई और पक्ष -विपक्ष के मतभेद को कम करने की बजाय बढ़ाने का काम किया।
पर, असली नाटक तो अभी होना था। पक्ष-विपक्ष दोनों ने अपनी मर्यादायें लाँघी , पर सुषमा जी ने तो हर सीमा तोड़ दी। उनके जैसे वरिष्ठ, अनुभवी और सम्मानित नेता से इसकी अपेक्षा नहीं थी। जिस तरीक़े से उन्होंने मोर्चा सँभाला, वह एक साथ कई संकेत छोड़ जाता है:
१. उनका फ़्रस्ट्रेशन साफ़ उनके चेहरे पर झलक रहा था। दरअसल वो भाजपा में भी अलग-थलग पड़ती जा रही हैं। इस प्रकरण में वे भाजपा की अंदरूनी राजनीति की शिकार हुई। यह संसदीय बहस के दौरान भी दिखाई पड़ा जब जेटली जी ने उनके बयान को निजी बयान कहकर दूरी बनाई।
२.सुषमा के अपराधबोध को सहज ही उनके चेहरे पर देखा जा सकता है।
३.सुषमा के भाषण से ऐसा लगता है कि वे संसद को संबोधित नहीं कर रही थीं, वरन् संसद के बाहर अपने आॅडियेंस को संबंधित कर रही थीं। जिस तरीक़े से उन्होंने गाँधी परिवार को लक्ष्य कर प्रहार किया और लोकसभाध्यक्षा ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी, वह निंदनीय था। कारण यह कि बोफ़ोर्स मसले पर राजीव गाँधी को न्यायपालिका की क्लीन चिट मिल चुकी है और एंडरसन मसले पर विधि मंत्री के रूप में अरुण जेटली २००४ में फ़ाइल बंद करने की सलाह कोर्ट को दे चुके हैं और राजीव आज अपना पक्ष रखने के लिए जीवित नहीं हैं , जबकि लोकसभाध्यक्षा ने वसुंधरा की अनुपस्थिति को आधार बनाकर राहुल गाँधी को उनका नाम लेने से रोका। बड़ी चालाकी से सुषमा उन प्रश्नों का जबाव देने से बच निकलीं। अगर गाँधी परिवार या उससे जुड़ा कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त है , तो इससे किसी सुषमा स्वराज , शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया या रमन सिंह को भ्रष्ट आचरण का लाइसेंस कहाँ मिल जाता है या इससे उनके भ्रष्ट आचरण को जस्टीफाइ कैसे किया जा सकता है और उनके भ्रष्ट आचरण की आलोचना का हमारा अधिकार समाप्त कहाँ हो जाता है?
४. सुषमा का यह रवैया सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दूरी को आने वाले समय में और बढ़ाएगा । इसका असर संसदीय कार्यवाही से लेकर विधायन की प्रक्रिया तक दिखेगा।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भाजपा को छीजती लोकप्रियता और कम होती विश्वसनीयता को संभालने के लिए प्रचार और फ़ोकस की ज़रूरत महसूस हुई अन्यथा उसे पता है कि बिहार के चुनाव में इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। इसीलिए अब विपक्ष के दबाव का सामना करने का सबसे आसान तरीक़ा है विपक्ष को दुष्प्रचार के ज़रिए हाशिए पर धकेला जाए । दोस्तों, देश की चिन्ता न सत्ता पक्ष को है और न ही विपक्ष को। कांग्रेस के लिए यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली िस्थति है:वापसी के साथ-साथ २०१०-१४ के दौरान भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए जो कुछ किया, उसे सूद समेत वापस लौटाने का अवसर, तो भाजपा के लिए देश का ध्यान पिछले सवा साल के प्रदर्शन से ध्यान हटाते हुए कांग्रेस के कुशासन पर ध्यान केंद्रित करवाने का अवसर, ताकि चुनावी लाभ उठाया जा सके। हम या आप जिसके भी पक्ष में खड़े हों, अंततःबेवकूफ तो हमें ही बनना है। लोकतंत्र का तक़ाज़ा है कि विपक्ष को मज़बूती प्रदान की जाए ताकि सत्तारूढ़ दल को निरंकुश होने से रोका जा सके।हमें विपक्ष को अप्रासंगिक होने से रोकना होगा;हाँ, अगर विपक्ष अप्रासंगिक होना चाहे तब भी।

Saturday 1 August 2015

याकूब की फाँसी के बहाने

"याकूब को फाँसी" के बहाने
A. गहरे अंतर्द्वन्द्व का शिकार में:
पिछले कुछ दिनों से उधेड़-बुन की िस्थति में था। क़लम कह रही थी कि याकूब की फाँसी के प्रश्न पर मुझे कुछ कहने दो और मैं उसे यह समझाने की कोशिश में लगा था कि मैंने राजनीतिक विषयों पर न लिखने का निर्णय लिया है। क़लम जिरह पर उतर आई । उसका कहना था कि यह राजनीतिक मसला नहीं है, पर मेरा प्रतिबद्ध मन यह मानने को तैयार नहीं था। लेकिन, सच कहूँ, तो क़लम की जिरह के आगे मेरी प्रतिबद्धता डिगने लगी थी। हाँ, राष्ट्रवादी भाइयों के "प्यार" ने मुझे डिगने नहीं दिया। पर, कहीं- न- कहीं मौक़े की तलाश मुझे भी थी।तीस जुलाई की सुबह "याकूब को फाँसी"ने मेरे काम को आसान कर दिया और अब मेरी क़लम आपके सामने है।
B. "फाँसी" के राजनीतिक निहितार्थ : 
सबसे पहले मैं आपके सामने यह स्पष्ट कर दूँ कि याकूब को फाँसी हो या नहीं, यह प्रश्न मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। न तो याकूब को फाँसी मिलने से मेरे राष्ट्रवादी अहम् को तुष्टि मिलती और न ही फाँसी न मिलने से मेरा राष्ट्रवादी अहम् असंतुष्ट ही रह जाता। याकूब गुनाहगार था और हर गुनाहगार को उसके किए की सज़ा मिले, ऐसी मेरी भी इच्छा रही है( चाहे वह गुनाहगार मैं स्वयं ही क्यों न हूँ)। शायद यह दुविधा भी थी जिसके कारण मैं लिख नहीं पा रहा था। पर, जिस तरह " याकूब को फाँसी " मसले का राजनीतिकरण करते हुए इसे राष्ट्रीय मसले में तब्दील कर दिया, उससे मैं वितृष्णा से भर उठा और फिर कई सारे प्रश्न कौंधते चले गए: अब व्यापम्, ललितगेट और छत्तीसगढ़ स्कैम का क्या होगा,काँग्रेस की जो नकारात्मक राजनीति मानसून सत्र में चरम् पर पहुँच रही है,उसका क्या होगा? दिल्ली में मीनाक्षी प्रकरण ने जो ज्वलंत प्रश्न उठाए,अखिलेश के कुशासन और उत्तर प्रदेश में विधि-व्यवस्था की बिगड़ती िस्थति : ये सारे- के - सारे प्रश्न हमारे दृष्टिपट से ओझल हो गए और एक ही प्रश्न बार- बार कौंधने लगा कि याकूब को फाँसी होनी चाहिए या नहीं? ख़ैर इन प्रश्नों पर चर्चा और विश्लेषण हमारा उद्देश्य नहीं।
C. फाँसी के विरोधी कौन? 
अब प्रश्न उठता है कि "याकूब को फाँसी" का विरोध करने वाले लोग कौन हैं? क्या वाक़ई वे देशद्रोही हैं? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता है जब तक कि फाँसी का विरोध करने वाले समूहों और उनके विरोध के कारण की पहचान नहीं की जाए।ये समूह हैं:
१.एक समूह ओवैसी जैसे लोगों का है जो मुसलमानों के रहनुमा होने का दम्भ भरते हैं और जिन्हें यह लगता है कि अगर वे न रहे, तो भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों को संरक्षित कर पाना मुश्किल होगा।
२. एक दूसरा समूह उन लोगों का है जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं और इस बहाने अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी लाभ सुनिश्चित करने में इनकी रूचि है। 
३. तीसरा समूह उन लोगों का है जो सोशल एक्टिविस्ट हैं। ये लोग मृत्युदंड का उन्मूलन चाहते हैं। याकूब की फाँसी के प्रति इनका विरोध सैद्धांतिक है।मैं इनके प्रति सम्मान रखता हूँ और इनके एजेंडे के प्रति मेरी सहानुभूति है।
४. चौथा समूह मेरे जैसे लोगों का है जिनका मानना है कि याकूब के साथ न्याय होना चाहिए।उसे अंत-अंत तक ख़ुद को डिफ़ेंड करने का मौक़ा मिलना चाहिए। और वह मिला भी, ऐसा प्रतीत होता है।
D. न्यायपालिका की भूमिका:
न्यायपालिका साक्ष्यों के आधार पर काम करती है और उसके पास जो भी साक्ष्य उपलब्ध थे, उसे उसी आलोक में निर्णय देना होता है और उसने दिया भी। अत: न्यायपालिका से शिकायत की गुंजाईश नहीं है।ऐसा पहली बार हुआ जब सुप्रीमकोर्ट ने न्याय की संभावनाओं की तलाश के लिए रात भर संभावनाओं की पड़ताल की। लेकिन, इन तमाम प्रयासों के बावजूद न्यायपालिका कहीं-न-कहीं ख़ुद अपने ही मानकों पर खड़ी उतरने में असफल रही।२००९ में शंकर किशन राव खाडे बनाम् महाराष्ट्र राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "किसी अपराधी को मृत्युदंड सिर्फ़ उसी िस्थति में दिया जाएगा जब "शून्य मिटिगेटिंग फ़ैक्टर" (zero mitigating factor) मौजूद हो।"इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपवादिक परिसि्थतियों में( rarest of rare) ही मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। याकूब के मामले में अपनी इन कसौटियों पर खड़ा उतरने में असफल रही। अफ़ज़ल गुरू के मामले में फाँसी के फ़ैसले पर अंतिम रूप से मुहर लगाते हुए कहा था कि "राष्ट्र की सामूहिक चेतना को संतुष्ट" करने के लिए न्यायालय को मृत्युदंड देना पड़ता है। ऐसा इसलिए नहीं होना चाहिए कि न्यायाधीश की इच्छा है, वरन् इसलिए कि समाज की ऐसी इच्छा है। और समाज की इस इच्छा पर याकूब को भी फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया। सवाल यह उठता है कि यदि जनभावनाएँ ही न्याय का आधार हैं, तो फिर न्यायालय और न्यायाधीश की ज़रूरत क्या है?
E. चूक किससे और कहाँ पर?
याकूब के वक़ील सही ढंग से याकूब का पक्ष नहीं रख पाए और जब तक वरिष्ठतम वकीलों का समूह सक्रिय हुआ, तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। साथ ही, टाडा कोर्ट में ही मसला हाथ से निकल चुका था। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी।
प्रश्न यह उठता है कि :
१.यदि याकूब का भारत आना इंटेलिजेंस एजेंसी और याकूब के बीच डील का परिणाम था, तो इस मसले को कोर्ट की नोटिस में क्यों नहीं लाया गया।
२.सह-आरोपी के बयान मृत्युदंड के एकमात्र आधार के रूप में सामने आते हैं । पुलिस के समक्ष दिए गए बयान को साक्ष्य माना गया। इस असंगति के बावजूद कैसे मृत्युदंड की सज़ा मिली?
३.राॅ के पाकिस्तान डेस्क से जुड़े अधिकारी बी. रमन,जिन्होंने याकूब को गिरफ़्तार किया था, उनके आर्टिकल को साक्ष्य के रूप में कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं लाया गया?
४.याकूब के सहयोग के बिना पाकिस्तान की संलिप्तता की बात को साबित कर पाना संभव नहीं होता। यह अजमल कसाब-पूर्व दौर में एक महत्वपूर्ण साक्ष्य साबित हुआ। यह किसी भी दूसरे साक्ष्य की तुलना में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। इस महत्वपूर्ण मिटिगेटिंग फ़ैक्टर की उपेक्षा कैसे संभव हुई? यहाँ पर अभियोजन पक्ष के वक़ील की भूमिका पर भी प्रश्न उठता है।क्या उनकी यह ज़िम्मेवारी नहीं बनती थी कि वह याकूब से सम्बद्ध हर मसले को कोर्ट के संज्ञान में लाए ताकि निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित किया जा सके? ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने याकूब मसले में आरंभ में ही याकूब के पक्ष को कमज़ोर कर उसे उसी प्रकार बलि का बकरा बनाते हुए बहुसंख्यक हिन्दुओं की जनभावनाओं को संतुष्ट करने की कोशिश की जिस प्रकार १९८६ में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाकर।
F. राजनीतिक दलों का रूख:
याकूब के संदर्भ में सीमित विकल्प थे, विशेषकर उस िस्थति में जब कांग्रेस हिंदू दक्षिणपंथ के निरंतर दबाव में चल रही थी और मुस्लिम तुष्टीकरण के बैकग्राउंड के कारण दक्षिणपंथी हिन्दुओं को ख़ुश करने के लिए उसे अफ़ज़ल गुरू को अफ़रातफ़री में फाँसी पर चढ़ाकर अपनी राष्ट्रभक्ति भी साबित करनी पड़ी हो। ऐसे में उससे इसकी अपेक्षा की भी नहीं जा सकती थी। आजकल मोदी जी और आक्रामक भाजपा के कारण सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को हिंदू राष्ट्रवादियों को विश्वास में लेने की ज़रूरत महसूस होती रहती है क्योंकि दक्षिणपंथी हिन्दुअों के वोटों की ज़रूरत चुनाव जीतने के लिए उन्हें भी है। दक्षिण में तमिल राजनीतिक दलों की चिंता संतन, मुरूगन और नलिनी तक है क्योंकि उन्हें तमिलों का वोट चाहिए। इसी प्रकार अकाली दल की चिंता राजाओना तक सीमित है, उसे सिख वोट बैंक पर अपनी पकड़ जो बनाए रखनी है।
रही बात भाजपा की, तो वह गदगद है। उसे बैठे -बैठाए एक मुद्दा मिल गया। इस मुद्दे के ज़रिए न केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे से ध्यान बँटाया जा सकता था, वरन् बिहार चुनाव में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के ज़रिए अपनी िस्थति भी मज़बूत की जा सकती थी और आतंकवाद के प्रश्न पर अपनी प्रतिबद्धता भी साबित साबित की जा सकती थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था क्योंकि यह सब न्यायपालिका के भरोसे किया जा सकता था। इसीलिए उसने एक ओर मीडिया में अपने प्रवक्ताओं को छोड़कर िस्थति को भुनाना शुरू कर दिया, दूसरी ओर सोशल मीडिया में अपने रणबाँकुरों के ज़रिए उन लोगों के ख़िलाफ़ मिशन मोड में दुष्प्रचार अभियान छेड़दिया। इससे विरोधियों को बदनाम भी किया जा सकता था और ध्रुवीकरण का एजेंडा भी सफलतापूर्वक चलाया जा सकता था।
G. विकल्प क्या था? 
ऐसी िस्थति में सबकी नज़रें राष्ट्रपति महोदय पर टिकीं थीं। पर, वो भी बेबस थे। दया याचिका को ठुकरा दिया केन्द्र सरकार की सलाह पर। अगर वो चाहते, तो दया याचिका को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते थे। पर, उनका राजनीतिक अनुभव, विशेषज्ञों की सलाह और राष्ट्रपति पद की मर्यादा ने उन्हें टस-से-मस नहीं होने दिया अगर वे ऐसा करते, तो न केवल सरकार से टकराव की परिसि्थति निर्मित होती, वरन् राष्ट्रद्रोह का आरोप उन पर भी लगता।
H. फाँसी का विरोध करने वालों के बचाव में:
फाँसी का विरोध राष्ट्रद्रोह नहीं है। अगर ऐसा होता , तो भाजपा कभी अकाली दल (बादल) के साथ मिलकर केन्द्र और पंजाब में सरकार नहीं चला रही होती। ध्यातव्य है कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का हत्यारा राजाओना भुल्लर भी एकआतंकवादी था, उसे भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई और अकाली दल ने उसका बचाव किया था। फाँसी का विरोध करने वालों पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाने वालों का यह भी कहना है कि याकूब मेनन का ही बचाव क्यों? इसके पहले के किसी मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?
मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि जब जघन्य बलात्कार के आरोप में धनंज़य चटर्जी को मृत्युदंड सुनाया गया था, उस समय भी कुछ उसी तरह बवाल मचा था जैसा आज। अफ़ज़ल गुरू को फाँसी इतने गुपचुप तरीक़े से दिया गया कि विरोध का मौक़ा ही नहीं मिला, लेकिन चर्चा उस समय भी हुई थी। हाँ, यह ज़रूर है कि याकूब के मामले में समय मिल जाने के कारण यह मसला ख़ूब गरमाया। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी। लेकिन यहाँ पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि ये केवल अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब और याकूब मेनन को फाँसी के ही विरोध में नहीं हैं, वरन् साध्वी प्रज्ञा(मालेगांव ब्लास्ट में आरोपी, माया कोंडनानी(जिन पर गुजरात दंगे के दौरान नब्बे मर्डर के आरोप हैं),देविन्दर पाल सिंह भुल्लर(पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह समेत तेरह लोगों की हत्या के आरोपी), नलिनी, संतन एवं मुरूगन (तीनों राजीव गाँधी की हत्या के आरोपी) को फाँसी के भी विरूद्ध हैं। यहाँ इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि फाँसी के विरोध का मतलब अपराध की सज़ा का विरोध नहीं है, वरन् दण्ड के अमानवीय स्वरूप का विरोध है।इनके प्रयासों और सक्रियता का ही परिणाम था कि आँध्र प्रदेश के दो बच्चों को फाँसी की नियत तिथि के ठीक एक दिन पहले फाँसी की सज़ा से मुक्ति मिली।
I. मृत्युदंड के विरोध का तार्किक औचित्य:
जो लोग भी आतंकवाद की चुनौती के मद्देनज़र याकूब को फाँसी और मृत्युदंड की सज़ा को बनाए रखने के पक्ष में हैं,उनसे मेरे कुछ प्रश्न हैं:
१. अगर आतंकवाद की चुनौती से मुक़ाबले के लिए फाँसी उतनी ही ज़रूरी है, तो फिर दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक पीड़ित देश इज़रायल ने १९६२ से अब तक किसी को फाँसी क्यों नहीं दिया? फाँसी के बिना वह आतंकवाद से किस प्रकार मुक़ाबला कर पा रहा है?
२. पिछले तीन साल के दौरान हमने अफ़ज़ल,कसाब और अब याकूब: तीन-तीन लोगों को फाँसी पर चढ़ाया, तो क्या आतंकी घटनायें रूक गई या कम हो गई?
३. जिस तरह याकूब की फाँसी को लेकर उन्माद पैदा किया जा रहा था/है, वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक भेद की खाई को और चौड़ा करेगा।पहली बार किसी की मौत पर सेलिब्रेशन का ऐसा अंदाज देखा गया, वह भी समुदाय विशेष के द्वारा, जो निंदनीय ही नहीं,अमानवीय भी है। आनेवाले समय में ये चुनौतियाँ और गंभीर होने जा रही हैं, यदि समय रहते हमने सँभलने की कोशिश नहीं की।
४. दुनिया का एक भी सर्वे यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि मृत्युदंड की सज़ा प्रभावी प्रतिरोधक का काम करती है।
५. अपराध के लिए दंड का प्रावधान क्यों किया जाता है:अपराधी को सुधारने के लिए या फिर अपराधी के अस्तित्व को मिटाने के लिए? क्या अपराधी के अस्तित्व को मिटाकर अपराध को समाप्त कर पाना संभव है? क्या बी. मेनन का ख़ुलासा और क़ैदी के रूप में याकूब का व्यवहार इस बात का संकेत नहीं देता है कि वह सुधरना चाहता था, लेकिन देश ने सुधरने का मौक़ा याकूब से छीन लिया। कल कोई याकूब कैसे किसी वक़ील या अपने भाई की सलाह की अनदेखी कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनेगा? कैसे वह किसी ख़ुफ़िया अधिकारी पर विश्वास कर उसके साथ सहयोग करेगा? यह िस्थति ख़ुफ़िया संस्थाओं के साथ -साथ देश की विश्वसनीयता को संकट में डाल रही है। यह सुधार की इच्छा रखने वालों अपराधियों और ख़ुफ़िया संस्थाओं के बीच "ट्रस्ट डेफिसिट" की िस्थति सृजित करेगा जो दो समुदायों के बीच अविश्वास और नफरत की खाई को चौड़ी करेगी जिसकी आग में पूरे देश को झुलसना पड़ सकता है।
J. अभिव्यक्ति की स्वतंंत्रता और लोकतंत्र: दोनों ही ख़तरे में
कैसी विडम्बना है कि जिस समय राष्ट्रनायक एपीजे अब्दुल कलाम को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, ठीक उसी समय याकूब की फाँसी की पटकथा के बहाने कलाम के मूल्यों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही थी और फाँसी का विरोध करने वाले के ख़िलाफ़ अपशब्दों के प्रयोग से लेकर देशद्रोह का आरोप लगाया जा रहा था तथा याकूब की मौत को अल्पसंख्यक समुदाय को चिढ़ाने वाले अंदाज में सोशल मीडिया में सेलिब्रेट किया जा रहा था उन्हीं लोगों के द्वारा, जो अब्दुल कलाम के चरित्र और व्यक्तित्व को महिमामंडित करते हुए, उसे रोमांटिसाइज करते हुए उसके दैवीकरण की कोशिश में लगे हुए थे(कलाम के ख़ुद के मूल्य भी इसे अनुमति नहीं देते)। दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को अभिव्यक्ति देती कवि हरिओम पवार की ये पंक्तियाँ उस समूह की सोच और भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं:
जो भी अफ़ज़ल की फाँसी रुकवाने में शामिल हैं/ वे सब फाँसी के फंदे पर टँग जाने के क़ाबिल हैं।
सवाल यह उठता है कि इस सोच के साथ भारतीय लोकतंत्र को आप किधर ले जाने की सोच रहे हैं? क्या भारत हम्बूरावी की दंड संहिता(प्राचीन) की ओर वापस लौट रहा है जो आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत की तर्ज़ पर ख़ून के बदले ख़ून की माँग करेगा? क्या यही है कलाम के सपनों का भारत? अगर हाँ , तो कलाम की आत्मा आपको कभी माफ़ नहीं करेगी और न कभी माफ़ करेगा आपको यह राष्ट्र। कृपया राष्ट्र की एकता और अखंडता को ख़तरे में मत डालें। इन्सानियत से बड़ा धर्म नहीं हो सकता। हाँ, राष्ट्र भी नहीं। ऐसे सौ राष्ट्र इस पर क़ुर्बान क्योंकि ........... क्योंकि इन्सानियत के बिना हम राष्ट्र को भी नहीं बचा पायेंगे। 
इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलिए मत। यह लोकतंत्र की बुनियाद है। असहमति और विरोध की गुंजाईश के बिना लोकतंत्र प्राणवान् और जीवंत नहीं हो सकता है। अत: असहमति और विरोध के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करना हमें सीखना होगा अन्यथा लोकतंत्र को बचा पाना पाना मुश्किल होगा।
              जय हिंद। जय भारत!