Saturday, 1 August 2015

याकूब की फाँसी के बहाने

"याकूब को फाँसी" के बहाने
A. गहरे अंतर्द्वन्द्व का शिकार में:
पिछले कुछ दिनों से उधेड़-बुन की िस्थति में था। क़लम कह रही थी कि याकूब की फाँसी के प्रश्न पर मुझे कुछ कहने दो और मैं उसे यह समझाने की कोशिश में लगा था कि मैंने राजनीतिक विषयों पर न लिखने का निर्णय लिया है। क़लम जिरह पर उतर आई । उसका कहना था कि यह राजनीतिक मसला नहीं है, पर मेरा प्रतिबद्ध मन यह मानने को तैयार नहीं था। लेकिन, सच कहूँ, तो क़लम की जिरह के आगे मेरी प्रतिबद्धता डिगने लगी थी। हाँ, राष्ट्रवादी भाइयों के "प्यार" ने मुझे डिगने नहीं दिया। पर, कहीं- न- कहीं मौक़े की तलाश मुझे भी थी।तीस जुलाई की सुबह "याकूब को फाँसी"ने मेरे काम को आसान कर दिया और अब मेरी क़लम आपके सामने है।
B. "फाँसी" के राजनीतिक निहितार्थ : 
सबसे पहले मैं आपके सामने यह स्पष्ट कर दूँ कि याकूब को फाँसी हो या नहीं, यह प्रश्न मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण नहीं रहा। न तो याकूब को फाँसी मिलने से मेरे राष्ट्रवादी अहम् को तुष्टि मिलती और न ही फाँसी न मिलने से मेरा राष्ट्रवादी अहम् असंतुष्ट ही रह जाता। याकूब गुनाहगार था और हर गुनाहगार को उसके किए की सज़ा मिले, ऐसी मेरी भी इच्छा रही है( चाहे वह गुनाहगार मैं स्वयं ही क्यों न हूँ)। शायद यह दुविधा भी थी जिसके कारण मैं लिख नहीं पा रहा था। पर, जिस तरह " याकूब को फाँसी " मसले का राजनीतिकरण करते हुए इसे राष्ट्रीय मसले में तब्दील कर दिया, उससे मैं वितृष्णा से भर उठा और फिर कई सारे प्रश्न कौंधते चले गए: अब व्यापम्, ललितगेट और छत्तीसगढ़ स्कैम का क्या होगा,काँग्रेस की जो नकारात्मक राजनीति मानसून सत्र में चरम् पर पहुँच रही है,उसका क्या होगा? दिल्ली में मीनाक्षी प्रकरण ने जो ज्वलंत प्रश्न उठाए,अखिलेश के कुशासन और उत्तर प्रदेश में विधि-व्यवस्था की बिगड़ती िस्थति : ये सारे- के - सारे प्रश्न हमारे दृष्टिपट से ओझल हो गए और एक ही प्रश्न बार- बार कौंधने लगा कि याकूब को फाँसी होनी चाहिए या नहीं? ख़ैर इन प्रश्नों पर चर्चा और विश्लेषण हमारा उद्देश्य नहीं।
C. फाँसी के विरोधी कौन? 
अब प्रश्न उठता है कि "याकूब को फाँसी" का विरोध करने वाले लोग कौन हैं? क्या वाक़ई वे देशद्रोही हैं? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता है जब तक कि फाँसी का विरोध करने वाले समूहों और उनके विरोध के कारण की पहचान नहीं की जाए।ये समूह हैं:
१.एक समूह ओवैसी जैसे लोगों का है जो मुसलमानों के रहनुमा होने का दम्भ भरते हैं और जिन्हें यह लगता है कि अगर वे न रहे, तो भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों को संरक्षित कर पाना मुश्किल होगा।
२. एक दूसरा समूह उन लोगों का है जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं और इस बहाने अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी लाभ सुनिश्चित करने में इनकी रूचि है। 
३. तीसरा समूह उन लोगों का है जो सोशल एक्टिविस्ट हैं। ये लोग मृत्युदंड का उन्मूलन चाहते हैं। याकूब की फाँसी के प्रति इनका विरोध सैद्धांतिक है।मैं इनके प्रति सम्मान रखता हूँ और इनके एजेंडे के प्रति मेरी सहानुभूति है।
४. चौथा समूह मेरे जैसे लोगों का है जिनका मानना है कि याकूब के साथ न्याय होना चाहिए।उसे अंत-अंत तक ख़ुद को डिफ़ेंड करने का मौक़ा मिलना चाहिए। और वह मिला भी, ऐसा प्रतीत होता है।
D. न्यायपालिका की भूमिका:
न्यायपालिका साक्ष्यों के आधार पर काम करती है और उसके पास जो भी साक्ष्य उपलब्ध थे, उसे उसी आलोक में निर्णय देना होता है और उसने दिया भी। अत: न्यायपालिका से शिकायत की गुंजाईश नहीं है।ऐसा पहली बार हुआ जब सुप्रीमकोर्ट ने न्याय की संभावनाओं की तलाश के लिए रात भर संभावनाओं की पड़ताल की। लेकिन, इन तमाम प्रयासों के बावजूद न्यायपालिका कहीं-न-कहीं ख़ुद अपने ही मानकों पर खड़ी उतरने में असफल रही।२००९ में शंकर किशन राव खाडे बनाम् महाराष्ट्र राज्य वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "किसी अपराधी को मृत्युदंड सिर्फ़ उसी िस्थति में दिया जाएगा जब "शून्य मिटिगेटिंग फ़ैक्टर" (zero mitigating factor) मौजूद हो।"इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपवादिक परिसि्थतियों में( rarest of rare) ही मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। याकूब के मामले में अपनी इन कसौटियों पर खड़ा उतरने में असफल रही। अफ़ज़ल गुरू के मामले में फाँसी के फ़ैसले पर अंतिम रूप से मुहर लगाते हुए कहा था कि "राष्ट्र की सामूहिक चेतना को संतुष्ट" करने के लिए न्यायालय को मृत्युदंड देना पड़ता है। ऐसा इसलिए नहीं होना चाहिए कि न्यायाधीश की इच्छा है, वरन् इसलिए कि समाज की ऐसी इच्छा है। और समाज की इस इच्छा पर याकूब को भी फाँसी के फंदे पर लटका दिया गया। सवाल यह उठता है कि यदि जनभावनाएँ ही न्याय का आधार हैं, तो फिर न्यायालय और न्यायाधीश की ज़रूरत क्या है?
E. चूक किससे और कहाँ पर?
याकूब के वक़ील सही ढंग से याकूब का पक्ष नहीं रख पाए और जब तक वरिष्ठतम वकीलों का समूह सक्रिय हुआ, तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। साथ ही, टाडा कोर्ट में ही मसला हाथ से निकल चुका था। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी।
प्रश्न यह उठता है कि :
१.यदि याकूब का भारत आना इंटेलिजेंस एजेंसी और याकूब के बीच डील का परिणाम था, तो इस मसले को कोर्ट की नोटिस में क्यों नहीं लाया गया।
२.सह-आरोपी के बयान मृत्युदंड के एकमात्र आधार के रूप में सामने आते हैं । पुलिस के समक्ष दिए गए बयान को साक्ष्य माना गया। इस असंगति के बावजूद कैसे मृत्युदंड की सज़ा मिली?
३.राॅ के पाकिस्तान डेस्क से जुड़े अधिकारी बी. रमन,जिन्होंने याकूब को गिरफ़्तार किया था, उनके आर्टिकल को साक्ष्य के रूप में कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं लाया गया?
४.याकूब के सहयोग के बिना पाकिस्तान की संलिप्तता की बात को साबित कर पाना संभव नहीं होता। यह अजमल कसाब-पूर्व दौर में एक महत्वपूर्ण साक्ष्य साबित हुआ। यह किसी भी दूसरे साक्ष्य की तुलना में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। इस महत्वपूर्ण मिटिगेटिंग फ़ैक्टर की उपेक्षा कैसे संभव हुई? यहाँ पर अभियोजन पक्ष के वक़ील की भूमिका पर भी प्रश्न उठता है।क्या उनकी यह ज़िम्मेवारी नहीं बनती थी कि वह याकूब से सम्बद्ध हर मसले को कोर्ट के संज्ञान में लाए ताकि निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित किया जा सके? ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने याकूब मसले में आरंभ में ही याकूब के पक्ष को कमज़ोर कर उसे उसी प्रकार बलि का बकरा बनाते हुए बहुसंख्यक हिन्दुओं की जनभावनाओं को संतुष्ट करने की कोशिश की जिस प्रकार १९८६ में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाकर।
F. राजनीतिक दलों का रूख:
याकूब के संदर्भ में सीमित विकल्प थे, विशेषकर उस िस्थति में जब कांग्रेस हिंदू दक्षिणपंथ के निरंतर दबाव में चल रही थी और मुस्लिम तुष्टीकरण के बैकग्राउंड के कारण दक्षिणपंथी हिन्दुओं को ख़ुश करने के लिए उसे अफ़ज़ल गुरू को अफ़रातफ़री में फाँसी पर चढ़ाकर अपनी राष्ट्रभक्ति भी साबित करनी पड़ी हो। ऐसे में उससे इसकी अपेक्षा की भी नहीं जा सकती थी। आजकल मोदी जी और आक्रामक भाजपा के कारण सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को हिंदू राष्ट्रवादियों को विश्वास में लेने की ज़रूरत महसूस होती रहती है क्योंकि दक्षिणपंथी हिन्दुअों के वोटों की ज़रूरत चुनाव जीतने के लिए उन्हें भी है। दक्षिण में तमिल राजनीतिक दलों की चिंता संतन, मुरूगन और नलिनी तक है क्योंकि उन्हें तमिलों का वोट चाहिए। इसी प्रकार अकाली दल की चिंता राजाओना तक सीमित है, उसे सिख वोट बैंक पर अपनी पकड़ जो बनाए रखनी है।
रही बात भाजपा की, तो वह गदगद है। उसे बैठे -बैठाए एक मुद्दा मिल गया। इस मुद्दे के ज़रिए न केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे से ध्यान बँटाया जा सकता था, वरन् बिहार चुनाव में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के ज़रिए अपनी िस्थति भी मज़बूत की जा सकती थी और आतंकवाद के प्रश्न पर अपनी प्रतिबद्धता भी साबित साबित की जा सकती थी। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था क्योंकि यह सब न्यायपालिका के भरोसे किया जा सकता था। इसीलिए उसने एक ओर मीडिया में अपने प्रवक्ताओं को छोड़कर िस्थति को भुनाना शुरू कर दिया, दूसरी ओर सोशल मीडिया में अपने रणबाँकुरों के ज़रिए उन लोगों के ख़िलाफ़ मिशन मोड में दुष्प्रचार अभियान छेड़दिया। इससे विरोधियों को बदनाम भी किया जा सकता था और ध्रुवीकरण का एजेंडा भी सफलतापूर्वक चलाया जा सकता था।
G. विकल्प क्या था? 
ऐसी िस्थति में सबकी नज़रें राष्ट्रपति महोदय पर टिकीं थीं। पर, वो भी बेबस थे। दया याचिका को ठुकरा दिया केन्द्र सरकार की सलाह पर। अगर वो चाहते, तो दया याचिका को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते थे। पर, उनका राजनीतिक अनुभव, विशेषज्ञों की सलाह और राष्ट्रपति पद की मर्यादा ने उन्हें टस-से-मस नहीं होने दिया अगर वे ऐसा करते, तो न केवल सरकार से टकराव की परिसि्थति निर्मित होती, वरन् राष्ट्रद्रोह का आरोप उन पर भी लगता।
H. फाँसी का विरोध करने वालों के बचाव में:
फाँसी का विरोध राष्ट्रद्रोह नहीं है। अगर ऐसा होता , तो भाजपा कभी अकाली दल (बादल) के साथ मिलकर केन्द्र और पंजाब में सरकार नहीं चला रही होती। ध्यातव्य है कि पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह का हत्यारा राजाओना भुल्लर भी एकआतंकवादी था, उसे भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई और अकाली दल ने उसका बचाव किया था। फाँसी का विरोध करने वालों पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाने वालों का यह भी कहना है कि याकूब मेनन का ही बचाव क्यों? इसके पहले के किसी मामले में ऐसा क्यों नहीं हुआ?
मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि जब जघन्य बलात्कार के आरोप में धनंज़य चटर्जी को मृत्युदंड सुनाया गया था, उस समय भी कुछ उसी तरह बवाल मचा था जैसा आज। अफ़ज़ल गुरू को फाँसी इतने गुपचुप तरीक़े से दिया गया कि विरोध का मौक़ा ही नहीं मिला, लेकिन चर्चा उस समय भी हुई थी। हाँ, यह ज़रूर है कि याकूब के मामले में समय मिल जाने के कारण यह मसला ख़ूब गरमाया। रही-सही कसर मसले के राजनीतिकरण ने पूरी कर दी। लेकिन यहाँ पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि ये केवल अफ़ज़ल गुरू, अजमल कसाब और याकूब मेनन को फाँसी के ही विरोध में नहीं हैं, वरन् साध्वी प्रज्ञा(मालेगांव ब्लास्ट में आरोपी, माया कोंडनानी(जिन पर गुजरात दंगे के दौरान नब्बे मर्डर के आरोप हैं),देविन्दर पाल सिंह भुल्लर(पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह समेत तेरह लोगों की हत्या के आरोपी), नलिनी, संतन एवं मुरूगन (तीनों राजीव गाँधी की हत्या के आरोपी) को फाँसी के भी विरूद्ध हैं। यहाँ इस बात को ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि फाँसी के विरोध का मतलब अपराध की सज़ा का विरोध नहीं है, वरन् दण्ड के अमानवीय स्वरूप का विरोध है।इनके प्रयासों और सक्रियता का ही परिणाम था कि आँध्र प्रदेश के दो बच्चों को फाँसी की नियत तिथि के ठीक एक दिन पहले फाँसी की सज़ा से मुक्ति मिली।
I. मृत्युदंड के विरोध का तार्किक औचित्य:
जो लोग भी आतंकवाद की चुनौती के मद्देनज़र याकूब को फाँसी और मृत्युदंड की सज़ा को बनाए रखने के पक्ष में हैं,उनसे मेरे कुछ प्रश्न हैं:
१. अगर आतंकवाद की चुनौती से मुक़ाबले के लिए फाँसी उतनी ही ज़रूरी है, तो फिर दुनिया में आतंकवाद से सर्वाधिक पीड़ित देश इज़रायल ने १९६२ से अब तक किसी को फाँसी क्यों नहीं दिया? फाँसी के बिना वह आतंकवाद से किस प्रकार मुक़ाबला कर पा रहा है?
२. पिछले तीन साल के दौरान हमने अफ़ज़ल,कसाब और अब याकूब: तीन-तीन लोगों को फाँसी पर चढ़ाया, तो क्या आतंकी घटनायें रूक गई या कम हो गई?
३. जिस तरह याकूब की फाँसी को लेकर उन्माद पैदा किया जा रहा था/है, वह हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक भेद की खाई को और चौड़ा करेगा।पहली बार किसी की मौत पर सेलिब्रेशन का ऐसा अंदाज देखा गया, वह भी समुदाय विशेष के द्वारा, जो निंदनीय ही नहीं,अमानवीय भी है। आनेवाले समय में ये चुनौतियाँ और गंभीर होने जा रही हैं, यदि समय रहते हमने सँभलने की कोशिश नहीं की।
४. दुनिया का एक भी सर्वे यह सिद्ध नहीं कर पाया है कि मृत्युदंड की सज़ा प्रभावी प्रतिरोधक का काम करती है।
५. अपराध के लिए दंड का प्रावधान क्यों किया जाता है:अपराधी को सुधारने के लिए या फिर अपराधी के अस्तित्व को मिटाने के लिए? क्या अपराधी के अस्तित्व को मिटाकर अपराध को समाप्त कर पाना संभव है? क्या बी. मेनन का ख़ुलासा और क़ैदी के रूप में याकूब का व्यवहार इस बात का संकेत नहीं देता है कि वह सुधरना चाहता था, लेकिन देश ने सुधरने का मौक़ा याकूब से छीन लिया। कल कोई याकूब कैसे किसी वक़ील या अपने भाई की सलाह की अनदेखी कर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनेगा? कैसे वह किसी ख़ुफ़िया अधिकारी पर विश्वास कर उसके साथ सहयोग करेगा? यह िस्थति ख़ुफ़िया संस्थाओं के साथ -साथ देश की विश्वसनीयता को संकट में डाल रही है। यह सुधार की इच्छा रखने वालों अपराधियों और ख़ुफ़िया संस्थाओं के बीच "ट्रस्ट डेफिसिट" की िस्थति सृजित करेगा जो दो समुदायों के बीच अविश्वास और नफरत की खाई को चौड़ी करेगी जिसकी आग में पूरे देश को झुलसना पड़ सकता है।
J. अभिव्यक्ति की स्वतंंत्रता और लोकतंत्र: दोनों ही ख़तरे में
कैसी विडम्बना है कि जिस समय राष्ट्रनायक एपीजे अब्दुल कलाम को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, ठीक उसी समय याकूब की फाँसी की पटकथा के बहाने कलाम के मूल्यों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही थी और फाँसी का विरोध करने वाले के ख़िलाफ़ अपशब्दों के प्रयोग से लेकर देशद्रोह का आरोप लगाया जा रहा था तथा याकूब की मौत को अल्पसंख्यक समुदाय को चिढ़ाने वाले अंदाज में सोशल मीडिया में सेलिब्रेट किया जा रहा था उन्हीं लोगों के द्वारा, जो अब्दुल कलाम के चरित्र और व्यक्तित्व को महिमामंडित करते हुए, उसे रोमांटिसाइज करते हुए उसके दैवीकरण की कोशिश में लगे हुए थे(कलाम के ख़ुद के मूल्य भी इसे अनुमति नहीं देते)। दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को अभिव्यक्ति देती कवि हरिओम पवार की ये पंक्तियाँ उस समूह की सोच और भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं:
जो भी अफ़ज़ल की फाँसी रुकवाने में शामिल हैं/ वे सब फाँसी के फंदे पर टँग जाने के क़ाबिल हैं।
सवाल यह उठता है कि इस सोच के साथ भारतीय लोकतंत्र को आप किधर ले जाने की सोच रहे हैं? क्या भारत हम्बूरावी की दंड संहिता(प्राचीन) की ओर वापस लौट रहा है जो आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत की तर्ज़ पर ख़ून के बदले ख़ून की माँग करेगा? क्या यही है कलाम के सपनों का भारत? अगर हाँ , तो कलाम की आत्मा आपको कभी माफ़ नहीं करेगी और न कभी माफ़ करेगा आपको यह राष्ट्र। कृपया राष्ट्र की एकता और अखंडता को ख़तरे में मत डालें। इन्सानियत से बड़ा धर्म नहीं हो सकता। हाँ, राष्ट्र भी नहीं। ऐसे सौ राष्ट्र इस पर क़ुर्बान क्योंकि ........... क्योंकि इन्सानियत के बिना हम राष्ट्र को भी नहीं बचा पायेंगे। 
इसी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलिए मत। यह लोकतंत्र की बुनियाद है। असहमति और विरोध की गुंजाईश के बिना लोकतंत्र प्राणवान् और जीवंत नहीं हो सकता है। अत: असहमति और विरोध के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करना हमें सीखना होगा अन्यथा लोकतंत्र को बचा पाना पाना मुश्किल होगा।
              जय हिंद। जय भारत!

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