सत्तारूढ़ दल के धरना-प्रदर्शन के मायने
भारतीय राष्ट्रीय राजनीति १९८९ ई. में गठबंधन के युग में प्रवेश करती है और तब से अब तक सरकार में कोई रहा हो और विपक्ष में कोई भी हो, दो प्रवृत्तियों को विकसित होते देखा जा सकता है:
१. सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा विपक्ष की भूमिका को हस्तगत किया जाना और विपक्ष का अप्रासंगिक होते चला जाना।
२.विपक्ष की नकारात्मक भूमिका का बढ़ते चला जाना।
केजरीवाल जी ने दिल्ली का मुख्यमंत्री रहते हुए एक नया ट्रेंड जोड़ा: सत्तारूढ़ दल और मुख्यमंत्री द्वारा धरना-प्रदर्शन का, यद्यपि यह धरना केंद्र सरकार के विरूद्ध था। वैसे यह उतना नया भी नहीं है क्योंकि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री भी धरने पर बैठ चुके हैं। साथ ही, कुछ अन्य राज्यों में भी ऐसा हो चुका है। पर, मैंने केजरीवाल जी को ट्रेंड- सेटर इसलिए कहा कि उन्होंने कई ऐसे प्रयोग किए हैं जिनका अनुकरण करते राष्ट्रीय स्तर के दोनों राजनीतिक दलों को देखा जा सकता है।वैसे, ऐसे कई ट्रेंड को सेट करने का श्रेय हमारे माननीय प्रधानमंत्री को भी जाता है।
इसका ताज़ा उदाहरण है कल एनडीए गठबंधन का "लाँग मार्च", जो उतना लाँग भी नहीं था।अगर मेरी यादाश्त कमज़ोर नहीं है , तो पहली बार सत्तारूढ़ गठबंधन के सबसे बड़े घटक दल के नेतृत्व में सारे मंत्रियों को विपक्ष द्वारा आपात काल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न किए जाने की कोशिशों के विरूद्ध सड़कों पर उतरना पड़ा, जो अपने आप में दिलचस्प है।
आख़िर मार्च की ज़रूरत क्यों ?
इस प्रश्न पर विचार करने के पहले दो चीज़ों को स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है:
१. लोकतंत्र और संविधान किसी भी व्यक्ति, संस्था या संगठन को धरना-प्रदर्शन करने या अपनी बातों को जनता तक पहुँचाने की अनुमति देता है। इसलिए ऐसे मार्च में कुछ भी ग़लत नहीं है।
२. अब तक सामान्यत: ऐसे मार्च का आयोजन विपक्षी दलों के द्वारा विरोध-प्रदर्शन के लिए किया जाता रहा है। पिछले कुछ समय से कई बार गठबंधन के सहयोगी दलों के द्वारा भी सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत् ऐसे मार्च का आयोजन किया जाता है।
दरअसल भाजपा "कांग्रेस-मुक्त भारत" के सपने को लेकर चल रही है जो प्रकारांतर से "विपक्ष-मुक्त भारत" का सपना है। उसे चुनाव के बाद ऐसा महसूस हुआ कि वह अपने मक़सद में कामयाब होने जा रही है। कांग्रेस लगातार बैकफ़ुट पर ही नहीं रही, वरन् पूरी तरह से डिमोरलाइज्ड भी नज़र आई। इस दौरान भाजपा के नेताओं और प्रवक्ताओं ने उसे और ज़्यादा डिमोरलाइज्ड करने की कोशिश की। इसी रणनीति के तहत् कांग्रेस को संसदीय अभिसमय की आड़ में औपचारिक रूप से विपक्ष का और उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा देने से बचने की कोशिश की।खैर,ख़ुद कांग्रेस ने भी १९७८ के विपक्षी दल के नेता का वेतन व भत्ता अधिनियम की अनदेखी करते हुए १९८० और १९८४ में किसी भी दल को औपचारिक रूप से विपक्षी दल तथा उसके नेता को विपक्षी दल के नेता का दर्जा देने से परहेज़ किया। इसीलिए कहा गया है:" जैसी करनी, वैसी भरनी"। लेकिन, एक बात समझ में नहीं आई कि किस मुँह से भाजपा ने दिल्ली विधानसभा में पाँच प्रतिशत से भी कम प्रतिनिधित्व के बावजूद विपक्षी दल और उसके नेता ने विपक्षी दल के नेता का औपचारिक दर्जा स्वीकार किया।
साल भर तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, पर उसके बाद भाजपा उसी तरह घिरती नज़र आ रही है जिस तरह सितंबर २०१० के बाद कांग्रेस ।व्यापम, ललितगेट, पीडीएस घोटाला और अब कैग ने व्यापम से भी बड़े जिस घोटाले की चर्चा की है, उसके कारण तेज़ी से चीज़ें बदलने लगी और इसने भाजपा को बैकफ़ुट पर ला दिया। इसने मृतप्राय कांग्रेस में नई जान फूँक दी और उसने एक अवसर की तरह इसे लोक लिया।भाजपा को "कांग्रेस मुक्त भारत"का सपना दूर छिटकता नज़र आया और इसी के साथ भाजपा का फ़्रस्ट्रेशन भी बढ़ता चला गया।
जब संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ, तो कांग्रेस ने भाजपा वाली रणनीति अपनाई और तब तक संसद नहीं चलने देने का निर्णय लिया जब तक सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया इस्तीफ़ा नहीं दे देती। कांग्रेस का यह स्टैंड ग़लत था। उसे संसदीय कार्यवाही चलने देनी चाहिए थी और संसद के बाहर विरोध-प्रदर्शन का सिलसिला जारी रखना चाहिए था। साथ ही, संसद के भीतर अन्य विपक्षी दलों को विश्वास में लेकर बहस भी करनी चाहिए थी और सरकार पर लगातार दबाव भी बढाना चाहिए था। पर, ग़लत रणनीति के कारण कांग्रेस पर चौतरफ़ा दबाव बढ़ता गया । इसी बीच राहुल गाँधी ने मर्यादा लाँघते हुए सुषमा पर "below the belt" अटैक किया। अंततः कांग्रेस को लोकप्रिय दबाव के आगे झुकना पड़ा और संसद का गतिरोध टूटा। संसदीय कार्यवाही शुरू हुई और ललित गेट पर बहस भी शुरू हुआ। लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि न तो प्रधानमंत्री की ओर से और न ही भाजपा के किसी बड़े नेता की ओर से इस गतिरोध को समाप्त करने की दिशा में कोई गंभीर पहल की गई। इसके उलट सत्तारूढ़ दल की ओर से लगातार ऐसे बयान दिए गए जिसकी चौतरफ़ा आलोचना हुई और पक्ष -विपक्ष के मतभेद को कम करने की बजाय बढ़ाने का काम किया।
पर, असली नाटक तो अभी होना था। पक्ष-विपक्ष दोनों ने अपनी मर्यादायें लाँघी , पर सुषमा जी ने तो हर सीमा तोड़ दी। उनके जैसे वरिष्ठ, अनुभवी और सम्मानित नेता से इसकी अपेक्षा नहीं थी। जिस तरीक़े से उन्होंने मोर्चा सँभाला, वह एक साथ कई संकेत छोड़ जाता है:
१. उनका फ़्रस्ट्रेशन साफ़ उनके चेहरे पर झलक रहा था। दरअसल वो भाजपा में भी अलग-थलग पड़ती जा रही हैं। इस प्रकरण में वे भाजपा की अंदरूनी राजनीति की शिकार हुई। यह संसदीय बहस के दौरान भी दिखाई पड़ा जब जेटली जी ने उनके बयान को निजी बयान कहकर दूरी बनाई।
२.सुषमा के अपराधबोध को सहज ही उनके चेहरे पर देखा जा सकता है।
३.सुषमा के भाषण से ऐसा लगता है कि वे संसद को संबोधित नहीं कर रही थीं, वरन् संसद के बाहर अपने आॅडियेंस को संबंधित कर रही थीं। जिस तरीक़े से उन्होंने गाँधी परिवार को लक्ष्य कर प्रहार किया और लोकसभाध्यक्षा ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी, वह निंदनीय था। कारण यह कि बोफ़ोर्स मसले पर राजीव गाँधी को न्यायपालिका की क्लीन चिट मिल चुकी है और एंडरसन मसले पर विधि मंत्री के रूप में अरुण जेटली २००४ में फ़ाइल बंद करने की सलाह कोर्ट को दे चुके हैं और राजीव आज अपना पक्ष रखने के लिए जीवित नहीं हैं , जबकि लोकसभाध्यक्षा ने वसुंधरा की अनुपस्थिति को आधार बनाकर राहुल गाँधी को उनका नाम लेने से रोका। बड़ी चालाकी से सुषमा उन प्रश्नों का जबाव देने से बच निकलीं। अगर गाँधी परिवार या उससे जुड़ा कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त है , तो इससे किसी सुषमा स्वराज , शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया या रमन सिंह को भ्रष्ट आचरण का लाइसेंस कहाँ मिल जाता है या इससे उनके भ्रष्ट आचरण को जस्टीफाइ कैसे किया जा सकता है और उनके भ्रष्ट आचरण की आलोचना का हमारा अधिकार समाप्त कहाँ हो जाता है?
४. सुषमा का यह रवैया सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच दूरी को आने वाले समय में और बढ़ाएगा । इसका असर संसदीय कार्यवाही से लेकर विधायन की प्रक्रिया तक दिखेगा।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भाजपा को छीजती लोकप्रियता और कम होती विश्वसनीयता को संभालने के लिए प्रचार और फ़ोकस की ज़रूरत महसूस हुई अन्यथा उसे पता है कि बिहार के चुनाव में इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। इसीलिए अब विपक्ष के दबाव का सामना करने का सबसे आसान तरीक़ा है विपक्ष को दुष्प्रचार के ज़रिए हाशिए पर धकेला जाए । दोस्तों, देश की चिन्ता न सत्ता पक्ष को है और न ही विपक्ष को। कांग्रेस के लिए यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली िस्थति है:वापसी के साथ-साथ २०१०-१४ के दौरान भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए जो कुछ किया, उसे सूद समेत वापस लौटाने का अवसर, तो भाजपा के लिए देश का ध्यान पिछले सवा साल के प्रदर्शन से ध्यान हटाते हुए कांग्रेस के कुशासन पर ध्यान केंद्रित करवाने का अवसर, ताकि चुनावी लाभ उठाया जा सके। हम या आप जिसके भी पक्ष में खड़े हों, अंततःबेवकूफ तो हमें ही बनना है। लोकतंत्र का तक़ाज़ा है कि विपक्ष को मज़बूती प्रदान की जाए ताकि सत्तारूढ़ दल को निरंकुश होने से रोका जा सके।हमें विपक्ष को अप्रासंगिक होने से रोकना होगा;हाँ, अगर विपक्ष अप्रासंगिक होना चाहे तब भी।
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