Saturday, 4 May 2019

प्रेमचंद्र की ‘सद्गति’: जय भीम, लाल सलाम से आगे की सोच


प्रेमचंद्र की द्गति
य भीम, लाल सलाम से आगे की सोच
प्रेमचंद्र नवजागरण-चेतना को साहित्यिक धरातल पर समग्रता में अभिव्यक्ति देने वाले पहले रचनाकार हैं और सामाजिक धरातल पर उनकी यह नवजागरण-चेतना प्रकट हुई है महिलाओं और दलितों के सन्दर्भ में लेकिन, यह बात अचम्भित करती है कि न तो भारतीय समाज के सर्वाधिक उपेक्षित समूह आदिवासी उनकी सहानुभूति एवं संवेदना के हक़दार बन पाए, और न ही आदिवासियों के लिए उनके साहित्य में 'स्पेस' ही सृजित हो पाया, पर ‘गोदान’ उपन्यास और ‘सद्गति कहानी इसका कुछ हद तक अपवाद है
‘गोदान’ उपन्यास का सन्दर्भ:
न तो प्रेमचंद के कथा-साहित्य में आदिवासियों को जगह नहीं मिली है और न ही उनका आदिवासियों के जीवन से परिचय था, तथापि उनकी रचनाओं में दो जगहों पर आदिवासियों की चर्चा मिलती है: ‘गोदानउपन्यास में और सद्गतिकहानी में। गोदान में शिकार-प्रसंग में मेहता और मालती की टोली शिकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जंगल के एक ऐसे हिस्से में पहुँच जाती है, जहाँ उनकी मुलाकात वन-कन्या अर्थात् आदिवासी लड़की से होती है। प्रेमचंद ने उस वन-कन्या का चित्रण करते हुए पारंपरिक सौंदर्य-चेतना के आलोक में भले ही उसे कुरूप बतलाया हो, पर उसके मांसल शरीर का वर्णन करते हुए मिस्टर मेहता को उसके प्रति आकृष्ट और उसके सेवा-भाव की प्रशंसा करते हुए दिखलाया है। यह वन-कन्या मेहता की पत्नी की कसौटी पर खड़ी उतरती है, अब यह बात अलग है कि दोहरे मानदंडों के साथ जीने वाले मेहता उसे अपनी पत्नी के रूप में नहीं स्वीकारते। वह मालती को ऊत्तेजित करने और अपने प्रति आकृष्ट करने के साधन भर में तब्दील होकर रह जाती है। मेहता पूरे प्रसंग में आदिवासी लड़की के अंगों का विलासदेखते रहते हैं और मालती से डाँट खाने के बाद आते समय कहते हैं, ‘अब मुझे आज्ञा दो, बहन लेकिन, यह प्रसंग अपवाद है, और इसका आदिवासी विमर्श से कोई लेना-देना नहीं है शायद उस प्रसंग में ऐसा संभव भी नहीं था   
सद्गति कहानी का सन्दर्भ:
लेकिन, सद्गतिकहानी आदिवासी-विमर्श के संदर्भ में प्रेमचंद के लेखन में आशा की किरण की तरह देखी जा सकती है। इस कहानी में प्रेमचंद चिखुरी गोंड के रूप में ऐसे आदिवासी चरित्र को लेकर उपस्थित होते हैं जिसकी चेतना प्रगतिशील है, जो एक वर्ग-चेतन चरित्र है, और जो विद्रोही चेतना से लैश हैयद्यपि उसकी भूमिका सीमित है, और इसलिए उसके चरित्र को विस्तार नहीं मिला है, तथापि कथानक को परिणति तक पहुँचाने में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक रही है विद्रोही-चेतना से लैस चिखुरी गोंड़ दुखी चमार को पंडित घासीराम के शोषण से बचाने की हरसंभव कोशिश करता है, लेकिन धर्म-सत्ता के आत्मसातीकरण से उपजे भय के कारण दुखी उससे निकल नहीं पाता और त्रासद मौत का शिकार होता है।
अगर दुखी चमार चिखुरी गोंड की बात मान लेता, तो शायद अपनी त्रासद परिणिति से बच सकता था पर उसके भीतर तो ब्राह्मणत्व एवं धर्म की खलबली मची थीउसके मानस पटल परसका भय और आतंक विद्यमान था, और कहीं--कहीं पुत्री की शुभ-चिन्ता के कारण  वह बेबस था। चिखुरी गोंड के मन में दुखी के प्रति सहानुभूति है, इसलिए दिकू एवं आदिवासियों के विवाद में उलझे बगैर वह तंबाकू माँगने पहुँचे दुखी को चिलम-तंबाकू उपलब्ध करवाता है और भूखे पेट गर्मी में पसीने से तर-बतर दुखी को देख कर वह अपना सहयोगी हाथ बढ़ाता हैवह पहले दुखी को समझाने की कोशिश करता है, और फिर उसके हाथ से कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी की गाँफाड़ने की असफल कोशिश करता है इसी क्रम में चिखुरी की दुखी से बातचीत होती है और चिखुरी गोंड के व्यक्तित्व का बौद्धिक पक्ष सामने आता है जो आदिवासी-विमर्श पर लिखे गए किसी किताब की उपज नहीं है, वरन् जीवन के अनुभवों के बीच आकार ग्रहण करता हैवह दुखी से पूछता है:
"कुछ खाने को मिला, या बस करवाना जानते हैं? जाकर माँगते क्यों नहीं?"
उसके संवाद की प्रतिक्रिया में दुखी यह कहता है:
कैसी बात करते हो चिखुरी, ब्राह्मण की रोटी हमको पचेगी
उसके इस संवाद का प्रतिवाद करते हुए चिखुरी कहता है:
"पचने की पच जाएगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया, और आराम से सोए, तुम्हे लकड़ी फाड़ने में लगा दिया। मींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी-बहुत मजदूरी दे देता हैयह उससे भी बढ़ गए ऊपर से धर्मात्मा बनते हैं"
चिखुरी का यह संवाद एक र शोषक-वर्ग में ब्राह्मण-पुरोहितों को सबसे गया-गुजरा बतलाता है, दूसरी ओर इस ओर भी इशारा करता है कि धर्म शोषण के उपकरण रूप में तब्दील हो चुका है, और इसकी आड़ में तमाम कुकर्मों को कने की कोशिश की जा रही है। जब लकड़ी की गाँठ फाड़ने में चिखुरी सफल रहता है, तो वह चेतावनी भरे लहजे में दुखी से कहता है:
"तुम्हारे फाड़े यह ना फटेगी, जान भले निकल जाए
यद्यपि दुखी उसकी पहली भविष्यवाणी को गलत साबित करता है, लेकिन उसे अपनी जाँ देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है जान जाने की दूसरी भविष्यवाणी को वह नहीं टाल पाता
दुखी की मौत के प्रति चिखुरी गोंड की प्रतिक्रिया:
जब दुखी की मौत की सूचना चिखुरी गोंड को मिलती है, तो चमरौने में जाकर वही दलितों को इस अन्याय की खबर देता है, और उन्हें आंदोलित करने की कोशिश करता हुआ सबको चेतावनी भरे लहजे में कहता है:
"खबरदार! मुर्दा उठाने मत जानाअभी पुलिस की तहकीकात होगी दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ले पंडित होंगे, तो अपने घर में होंगे लाश उठाओगे, तो तुम भी पकड़े जाओगे"
चमरौने में उसकी बात का असर होता है जिसके परिणामस्वरुप चमरौने  के लोग पंडित के तमाम दबाव के बावजूद पुलिस के भय से दुखी की लाश उठाने से इंकार कर देते हैं और उनके प्रतिरोध के समक्ष पंडित घासीराम का ब्राह्मणत्व दम तोड़ता दिखाई देता है इस तरह यह कहानी हिंदू धार्मिक संस्कारों से मुक्त एक गोंड़ के माध्यम से ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई की कहानी है, जिसमें दलित और आदिवासी एकता की जरूरत की ओर संकेत भी है।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने इस कहानी में चमरौने और चिखुरी गों के संयोजन के बहाने दलितों-आदिवासियों के बीच सहयोग एवं सामंजस्य के जरिए एक ऐसे सामाजिक समीकरण का आधार तैयार किया है जो भविष्य के लिए नवीन संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त करता है, और जिसमें भविष्य के समतामूलक समाज की भावना अंतर्निहित है। यह समीकरण उस समीकरण में कहीं आगे की चीज है जिसकी बा जय भीम, लाल सलाम के जरिए की जाती है। इसलिए यह समीकरण ह बतलाता है कि प्रेमचंद अपने युग, समय, समाज और परिवेश से कितने आगे की सोच रखते थे प्रेमचंद भले ही आदिवासी रचनाकार न हों, पर उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये उस सामंती-महाजनी सभ्यता के विरुद्ध आवाज़ उठाई जिनका आदिवासी जीवन एवं समाज में हस्तक्षेप आज भी बदस्तूर जारी है और जो आदिवासी दमन एवं शोषण के मूल में मौजूद है। इनकी जड़ें आदिवासी क्षेत्रों में न होकर सेमरी एवं बेलारी जैसे गाँवों में हैं और प्रेमचंद इनकी इन्हीं जड़ों पर प्रहार करते हैं।


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