संविधान-सभा की बहस: आरक्षण का सैद्धांतिक पक्ष
समानता का अधिकार और सामाजिक न्याय:
सामाजिक
समानता के बिना सामाजिक न्याय को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता और सामाजिक न्याय के
बिना सामाजिक लोकतंत्र को मजबूती नहीं प्रदान की जा सकती। इसीलिए भारतीय संविधान
की प्रस्तावना भारतीय नागरिकों को एक ओर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय
सुनिश्चित करने का आश्वासन देती है, दूसरी ओर उनके लिए प्रतिष्ठा एवं अवसर की समता
सुनिश्चित करने का आश्वासन। इसी के अनुरूप सर्वोच्च न्यायालय ने भी समता के अधिकार
को एकाधिक अवसरों पर मूल ढाँचे का हिस्सा बतलाया है और न्यायिक पुनर्विलोकन के
अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इसे यथासंभव सुनिश्चित करने की कोशिश की है। इस आलोक
में आरक्षण का उपबंध समानता की संकल्पना के प्रतिकूल है; लेकिन गहराई से विचार
करें, तो आरक्षण के प्रावधानों का सम्बन्ध सामाजिक न्याय से जुड़ता है और ये समानता
की संकल्पना को पुष्ट करते हुए आते हैं।
सामाजिक
न्याय का आशय सिर्फ यह नहीं है कि राज्य अपने नागरिकों के साथ समान व्यवहार करे,
वरन् यह भी है कि वह ऐतिहासिक अन्याय का निवारण करते हुए अपने उन नागरिकों को अन्य
नागरिकों के समान स्तर पर लाने की कोशिश करे जो विकास की प्रक्रिया में पिछड़ कर हाशिये
पर पहुँच चुके हैं, मुख्यधारा से कट चुके हैं और अन्य नागरिकों के साथ समानता के
धरातल पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का सामना कर पाने में असमर्थ हैं। यहाँ पर इस बात को
ध्यान में रखा जाना चाहिए कि असमानों के बीच प्रतिस्पर्धा अन्याय को जन्म देती है
और इस अन्याय से अगर नागरिकों को बचाना है, तो उन्हें समानता के धरातल पर
प्रतिस्पर्धा कर पाने की स्थिति में लाना होगा। आरक्षण इस संक्रमण को सुनिश्चित
करता हुआ सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करता है।
आरक्षण के मसले पर वैचारिक बहस:
संविधान-सभा
में आरक्षण के मसले पर विचार के लिए सलाहकार समिति को अधिकृत किया गया और इसके
मद्देनज़र कई समितियों का गठन हुआ। इस मसले पर संविधान-सभा में जोरदार बहस हुई और
अंततः इससे सम्बंधित धारा 10, जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए नौकरियों
में आरक्षण का प्रावधान करती थी, को महज एक वोट के अंतर से ख़ारिज कर दिया गया। फलतः अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति के लिए आरक्षण का प्रस्ताव
पारित नहीं हो सका। यह उन प्रगतिशील शक्तियों के लिए एक झटका था जो संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और नवोदित लोकतंत्र से यह अपेक्षा कर रहीं
थीं कि वे लोकतंत्र में शोषित, उत्पीड़ित एवं वंचित लोगों की समुचित एवं पर्याप्त
भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए वाजिब अवसर उपलब्ध कराये। ऐसे समय में डॉ. अम्बेडकर ने हिम्मत हारने की बजाय मोर्चा सम्भाला
और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के लिए इसकी जगह ‘पिछडा
वर्ग’ शब्द का उपयोग करना चाहा।
‘पिछड़ा’
शब्द की परिभाषा:
जब संविधान-सभा के सामने माइनॉरिटी
रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी थी, तब उसमें ‘पिछड़ा’ (Backward) शब्द मौजूद नहीं था। प्रस्तावित संविधान में इस शब्द को
शामिल किया जाना अनावश्यक समझा गया और इसकी जगह पर ‘माइनॉरिटीज’ शब्द को रखा गया। लेकिन, बाद में इसकी जगह ‘बैकवार्ड’ शब्द को
रखा गया। ए. ए. गुरूँग ने ‘बैकवार्ड’
शब्द की अस्पष्टता की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसके अंतर्गत
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को तो शामिल किया गया है, पर शैक्षिक एवं
आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों को नहीं। के. एम. मुंशी ने
‘पिछड़ा’ शब्द की अस्पष्टता के सदर्भ में यह कहा कि बम्बई में कई वर्षों से ‘पिछड़ा
वर्ग’ की परिभाषा प्रचलन में है जिसके अंतर्गत न केवल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित
जनजाति, वरन् अन्य पिछड़े वर्ग के आर्थिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़े
लोगों को भी शामिल किया गया है। इसीलिए इस शब्द को परिभाषित करते हुए इसे
समुदाय विशेष तक सीमित करने की ज़रुरत नहीं है। इसके दायरे में वे सारे लोग आयेंगे
जो पिछड़े हैं। टी. चेन्नैय्या ने उत्तर
भारत और दक्षिण भारत में ‘पिछड़े’ शब्द के अलग-अलग सन्दर्भों की ओर इशारा करते
हुए इसे स्पष्टतः परिभाषित करने की माँग करते हुए कहा कि उत्तर भारत में हिन्दुओं
एवं मुसलमानों में स्पष्ट फर्क है, वहाँ इस शब्द का मतलब वे समझते हैं और हिन्दुओं
के बीच कृषक वर्ग एवं दस्तकार वर्ग भी मौजूद हैं जिन्हें पिछड़ा माना जाता है। इसके विपरीत दक्षिण भारत में ‘पिछड़ा’ शब्द को
सामाजिक एवं शैक्षिक सन्दर्भों में समझा जाता है। केवल एक वर्ग जो इसके दायरे में
नहीं आता है, वह है आर्थिक रूप से अगड़ों का। इसी आलोक में धरम प्रकाश ने उन्होंने
निष्पक्ष तरीके से पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने की
आवश्यकता महसूस की, क्योंकि वास्तव में कोई ऐसा समुदाय
नहीं है जिसमें आर्थिक, शैक्षिक या सामाजिक रूप से पिछड़े मौजूद न हों।
योग्यता एवं प्रतिभा बनाम् सामाजिक न्याय:
आरक्षण
की संकल्पना योग्यता एवं प्रतिभा पर सामाजिक न्याय को तरजीह देती है, इसीलिए लम्बे
समय से पूरी दुनिया में, खासकर पश्चिमी मुल्कों में यह विवाद चल रहा है कि क्या
सामाजिक बराबरी के लिए योग्यता एवं प्रतिभा की अनदेखी उचित है और क्या इसके नाम पर
योग्यता एवं प्रतिभा को कुंठित होने दिया जाए? इसी आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने
आरक्षण के मसले पर विचार करते हुए यह कहा कि “आरक्षण योग्यता एवं प्रतिभा की
अनदेखी करता है, इसीलिए अनिश्चित काल के लिए आरक्षण की इजाजत नहीं दी जा सकती है।”
स्वाभाविक
रूप से ‘योग्यता एवं प्रतिभा बनाम् सामाजिक न्याय’ (Meritorian v/s Compensatory Dispute) उस समय भी उभरकर सामने आया जब संविधान-सभा में आरक्षण के
मसले पर बहस चल रही थी। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
मूल रूप से ऐसे किसी भी आरक्षण के विरोध में थे क्योंकि उनकी दृष्टि
में यह सक्षम एवं प्रभावी प्रशासन की संभावनाओं को हतोत्साहित करता है। उन्होंने अपनी किताब
‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा है: “सरकारी महकमों में जहाँ तक कोटे की बात है, अगर हमने
उसमें सांप्रदायिक भावना का समावेश किया, तो यह एक अच्छी सरकार के लिए घातक होगा।
मैं समझता हूँ कि सक्षम प्रशासन के लिए, उसे आवश्यक रूप से हमेशा योग्य हाथों में होना
चाहिए। निश्चय ही वहाँ भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। पदों का वितरण हर
समुदाय के सदस्यों के अनुपात में नहीं होना चाहिए। जो सरकारी सेवाओं में जवाबदेही
के पदों को पाने की लालसा रखते हैं, वे इसके लिए जरूरी परीक्षा पास करने पर ही उन पर
काबिज हो सकते हैं।” यहाँ पर गाँधी सक्षम एवं
प्रभावी प्रशासन को योग्यता एवं प्रतिभा से सम्बद्ध कर देख रहे हैं और
इसीलिये कोटे की किसी भी संभावना को नकार रहे हैं। आगे चलकर जून,1961 में राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में तत्कालीन
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी आरक्षण के मसले पर अपने रुख
को स्पष्ट करते हुए कहा कि: “हमें आरक्षण की पुरानी आदत और इस जाति या उस समूह को
दी गई खास तरह की रियायतों से बाहर आने की आवश्यकता है। यह सच है कि अनुसूचित
जाति-जनजाति को मदद करने के प्रसंग में हम कुछ नियम-कायदों और बाध्यताओं से बँधे
हैं। वे मदद के पात्र हैं, लेकिन इसके बावजूद मैं किसी
भी तरह के कोटे के खिलाफ हूँ, खासकर सरकारी सेवाओं में। मैं
किसी भी तरह की अक्षमता और दोयम दर्जेपन के सर्वथा विरुद्ध हूँ। मैं चाहता हूँ कि
मेरा देश हरेक क्षेत्र में अव्वल देश बने। जिस घड़ी हम दोयम दर्जे को बढ़ावा देंगे, हम मोर्चा हार जायेंगे।”
आरक्षण के विरोध में:
अबतक यह
बात सामने आ चुकी है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के शीर्ष पर काबिज़ गाँधी और नेहरु
योग्यता एवं प्रतिभा को तरजीह दिए जाने के पक्ष में थे और उनकी इस सोच ने उन्हें
आरक्षण के विरोध में लाकर खड़ा कर दिया। यह स्थिति
संविधान-सभा की बहसों में भी दिखाई पड़ती है। संविधान-सभा की बहस के दौरान
समाजवादी सेठ दामोदर स्वरूप सेठ ने आरक्षण का विरोध करते हुए दक्षता एवं अच्छे
शासन पर इसके प्रतिकूल प्रभाव की ओर इशारा किया: “पिछड़े वर्ग के लिए सेवाओं में आरक्षण का अर्थ दक्षता और अच्छी सरकार
को नकारना है।” उन्होंने लोक-नियोजन में योग्यता
एवं प्रतिभा को महत्व दिए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए यह आशंका
जतायी कि “अगर इस उपबंध को स्वीकार किया जाता है, तो यह जातिवाद एवं पक्षपात को बढ़ावा देगा जिसके लिए
धर्मनिरपेक्ष राज्य में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।” उन्होंने उन्हें आरक्षण की जगह सुविधाएँ एवं रियायतें दिए जाने की
बात की। लोकनाथ मिश्रा ने बहस में भाग
लेते हुए लोक-नियोजन में आरक्षण से सम्बंधित उपबंध
को अनावश्यक बताते हुए कहा: “प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार, भोजन,
वस्त्र, आश्रय और अन्य चीजों का अधिकार होगा, लेकिन यह किसी नागरिक के लिए मौलिक
अधिकार नहीं होगा कि वह लोक-नियोजन के एक हिस्से पर अपना दावा करे जिसके योग्यता
पर आधारित होने की अपेक्षा है।” उधर पी.
एस. देशमुख ने आरक्षण को लेकर यह आशंका जताई कि कहीं इसके कारण
तथाकथित बहुसंख्यकों की अनदेखी न हो और उन्हें हाशिये पर न पहुँचा दिया जाय। उन्होंने संविधान-सभा
के सदस्यों से बहुसंख्यकों के प्रति संवेदनशील होने की अपील करते
हुए कहा कि हमारे शासकों को पीड़ित एवं उपेक्षित ग्रामीण आबादी की ओर भी ध्यान देना
चाहिए। मई,1949 में संविधान-सभा की बहस के दौरान सरदार
वल्लभ भाई पटेल ने कहा कि धर्म के आधार पर कोटा के बजाय वे इस बात के लिए प्रतीक्षा करना
बेहतर समझेंगे कि देशवासियों के भीतर एक मूल्य के रूप में सहिष्णुता एवं
निष्पक्षता का विकास हो और उनकी अंतरात्मा जगे। उनका यह मानना था कि सच्चे
लोकतंत्र और सभी के लिए उचित अवसर के बिना इस देश के लिए कोई भविष्य नहीं हो सकता
है। लेकिन, जाति-व्यवस्था की जड़ता एवं रूढ़िबद्धता को ध्यान में रखते हुए इसे
आदर्शवादी सदिच्छा से अधिक नहीं माना जा सकता है, जिसकी कोई व्यावहारिक अहमियत
नहीं है।
आरक्षण के पक्ष में:
लेकिन,
इस मसले पर गाँधी के राजनीतिक-गुरु गोपाल कृष्ण
गोखले की सोच उनसे भिन्न थी। गोखले ने समाज को कुंठित होने से बचाने के लिए आरक्षण की आवश्यकता पर
बल देते हुए कहा था कि “ब्रिटिश
कर्मचारी तंत्र में भारतीयों का प्रतिनिधित्व न होने के कारण समाज कुंठित हो रहा
है। इसलिए समाज के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, नैतिकता के आधार पर उनकी क्षमताओं के उपयोग
के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए।” यही कारण है कि संविधान-सभा
में आरक्षण के मसले पर बहस के दौरान डॉ. भीम राव अम्बेडकर
ने गोखले के उपरोक्त कथन को उद्धृत करते हुए यह
प्रश्न किया कि “जब डेढ़ सौ वर्ष पुरानी अंग्रेजी
शासन-व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण भारतीय सवर्ण अपनी क्षमताओं का
उपयोग नहीं कर पा रहे थे, तो भारत के दलित समाज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।” इसी पृष्ठभूमि में अम्बेडकर
ने संविधान-सभा में दलितों को आरक्षण देने की माँग उठाई, ताकि उनका प्रतिनिधित्व हो सके और वे अपनी क्षमताओं का
उपयोग कर सकें।
आरक्षण
की परिस्थितियाँ:
संविधान-सभा
में आरक्षण पर बहस में शामिल होते हुए धरम
प्रकाश ने उन परिस्थितियों की
चर्चा की जिन्होंने आरक्षण की आवश्यकता
को जन्म दिया। उन्हीं के शब्दों में कहें, “यद्यपि
मैं एक ऐसे देश में आरक्षण की कोई ज़रुरत नहीं महसूस करता हूँ जो आज़ाद
है और जहाँ पर पूरी स्वतंत्रता से निर्मित संविधान विद्यमान है, पर देश के हालात नौकरियों के साथ-साथ विधायिका में आरक्षण
की माँग के लिए विवश कर रहे हैं क्योंकि न तो
हमारे समाज में कल्याणकारी पहलों के लिए अपेक्षित उदारता एवं निष्पक्षता है और न
ही निकट भविष्य में इसकी उम्मीद की जा सकती है।” उन्होंने संस्थागत पूर्वाग्रह और
इसकी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि की ओर इशारा करते हुए संविधान-सभा के सदस्यों
का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि “हमारी राष्ट्रीय सरकार को ऐसी प्रशासनिक
मशीनरी विरासत में मिली है, जिसका गठन संकीर्ण सांप्रदायिक, प्रांतीय या धार्मिक
आधार पर किया गया। ऐसी स्थिति में संकीर्ण
भावनाओं से प्रेरित होकर सम्बद्ध अधिकारी नियुक्ति के समय योग्यता
एवं प्रतिभा को अपेक्षित महत्व देने की बजाय प्रांतीय, सांप्रदायिक या जातीय
भावनाओं को अधिक महत्व देता है और वह देखता है कि
उम्मीदवार उसके हितों को संपुष्ट करने में कहाँ तक सहायक है। ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा करना कि पुराने पैटर्न पर आधारित यह
मशीनरी नियुक्ति के समय पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर काम करेगी, उचित नहीं है।”
प्रोफेसर के. टी. शाह के अनुसार, आरक्षण न होने की स्थिति
में संस्थागत पूर्वाग्रहों की मौजूदगी के कारण दलितों एवं आदिवासियों को उनका वाजिब हक मिलना मुश्किल
हो जाएगा। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “नौकरियों में यदि आरक्षण नहीं होगा, तो भर्ती
करने वाले अफसर अपने इच्छानुसार पक्षपात करेगा। ऐसी स्थिति में अफसर योग्यता नहीं
देखता है। वह केवल स्वार्थ देखता है।” एच. जे.
खाण्डेकर के कारण इन्हीं संस्थागत पूर्वाग्रहों के कारण अनुसूचित जाति के लोगों को जातिगत भेदभावों का शिकार होना पड़ता है। इसकी ओर
इशारा करते हुए उन्होंने यह कहते हुए आरक्षण का औचित्य साबित किया कि “अनुसूचित
जाति के लोग अच्छी योग्यता होने के बावजूद नियुक्ति के अच्छे अवसर नहीं पाते है और
उनके साथ जातिगत आधार पर भेदभाव किया जाता है।” शान्तनु
कुमार दास ने योग्यता एवं प्रतिभा के बावजूद संस्थागत पूर्वाग्रह, भाई-भतीजावाद और जातिवाद के कारण दलितों के साथ
होने वाले भेदभावों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए अल्पसंख्यकों की
अनदेखी एवं उनकी आशंकाओं का ज़िक्र किया और कहा कि बिना आरक्षण के उनके लिए चुनाव
एवं नौकरियों में जगह बना पाना मुश्किल होगा। उनके अनुसार, “अनुसूचित जाति के लोग
परीक्षा में बैठते हैं, उनका नाम सूची में आ जाता है, लेकिन जब
पदों पर नियुक्ति का समय आता है, तो उनकी नियुक्ति नहीं होती है।” एच.
जे. खांडेकर ने शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण खुली
प्रतिस्पर्धा का सामना करने में अनुसूचित जाति के असामर्थ्य की ओर
इशारा करते हुए कहा कि “हमलोग शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हैं और हम अन्य समुदायों से
प्रतिस्पर्धा कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। अगर हरिजनों उम्मीदवारों के लिए योग्यताओं में
छूट नहीं दी जाती है, तो हमारे समुदाय के उम्मीदवार ब्राह्मण समुदाय या तथाकथित
सवर्ण हिन्दुओं से प्रतिस्पर्धा कर पाने की स्थिति में नहीं होंगे।” इसीलिए
उन्होंने लोक सेवा आयोग में हरिजन प्रतिनिधियों
एवं नियुक्ति-अर्हताओं में छूट की माँग की। उन्होंने
अनुसूचित जातियों के सन्दर्भ में भारत सरकार के द्वारा जारी सर्कुलर का हवाला देते
हुए बतलाया कि उच्चतर सेवाओं में इनके लिए 12.5 प्रतिशत सीटें और निम्नतर सेवाओं
में 16.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गयी हैं, लेकिन जिस तरीके से इस
नियुक्ति-प्रक्रिया को व्यवहार में संचालित किया जा रहा है, उसके कारण इन सेवाओं
में इनकी भागीदारी 1 प्रतिशत से भी कम है।
उन्होंने क्षेत्रीयतावाद, प्रान्तीयतावाद और साम्प्रदायिकता के
उभार से सम्बद्ध खतरों की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि अगर यह
प्रक्रिया जारी रही, तो ‘पिछड़ा’ शब्द की व्याख्या इस रूप में की जायेगी कि इसके
अंतर्गत अन्य जातियों के लोगों की दावेदारी के कारण अनुसूचित जाति के लोगों के लिए
समुचित अवसर सुलभ नहीं हो पायेंगे और फिर इस सन्दर्भ में लोक सेवा आयोग खुद को
असमर्थ महसूस करेगा।
चन्द्रिका
राम ने समुचित एवं पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर
बल देते हुए इस बात की ओर सदन का ध्यान आकृष्ट किया कि “यह सच है कि
शैक्षणिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों की स्थिति बेहतर है और इनके
साथ अछूत की तरह व्यवहार भी नहीं होता है; लेकिन अहीर को अपवादस्वरुप छोड़ दें, तो
पिछड़े वर्ग के अंतर्गत किसी भी जाति का विधान-मंडल में समुचित एवं पर्याप्त
प्रतिनिधित्व नहीं है, जो चिन्ता का विषय
है क्योंकि बिना समुचित एवं पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व के किसी समुदाय के लिए
प्रगति कर पाना और समाज में उच्च स्थिति हासिल कर पाना मुश्किल है।” इसीलिए उन्होंने
हरिजनों की तर्ज़ पर पिछड़ों के लिए भी सरकारी नौकरियों एवं विधान-मंडल में आरक्षण
की माँग की और इसे प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय के
लिए आवश्यक बतलाया।
आर्थिक आधार पर आरक्षण:
जब संविधान-सभा में इस मसले पर बहस शुरू हुई, तो महावीर त्यागी ने आरक्षण के मसले पर अपने रुख को
स्पष्ट करते हुए कहा कि:
1. वे सामुदायिक स्तर पर अल्पसंख्यक की अवधारणा में
विश्वास नहीं करते हैं।
2.
आरक्षण से दलितों का भी भला नहीं होनेवाला है।
3.
अल्पसंख्यक
की अवधारणा आर्थिक आधार पर निर्धारित की जाए।
महावीर त्यागी ही नहीं, संविधान-सभा के कई सदस्य ‘बैकवार्ड’ शब्द को
आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भी परिभाषित किये जाने के पक्ष में थे। ए. ए.
गुरूँग का कहना
था कि अगर शैक्षिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों को भी
इसके दायरे में ले आया जाए, तो करीब-करीब भारत की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी इसके
दायरे में आ जायेगी। के. एम. मुंशी ने बम्बई का हवाला देते हुए
आर्थिक दृष्टि से पिछड़ों को भी इसके अंतर्गत शामिल करने का संकेत दिया। लेकिन, टी.
चेन्नैय्या ने आर्थिक रूप से अगड़ों
को इसके दायरे से बाहर बतलाया। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि आर्थिक पिछड़ेपन की
पहचान का तरीका क्या हो और इसके लिए स्पष्ट एवं पारदर्शी मैकेनिज्म क्या हो, इससे
सम्बंधित प्रश्न को सुलझाना आसान नहीं था? यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा
जाना चाहिए कि आर्थिक स्थिति बेहद लचीली होती है और उसकी प्रवृत्ति अस्थिर होती
है। इसीलिए इसके आधार पर पिछड़ेपन का निर्धारण मुश्किल था जिसको ध्यान में रखते हुए
संविधान-सभा ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की संभावना को खारिज कर दिया।
अल्पसंख्यकों
के लिए आरक्षण:
संविधान-सभा की बहस के दौरान ‘माइनॉरिटी
शब्द का प्रयोग कभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ-साथ अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित
जनजातियों के लिए किया गया है, तो कभी अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के
सन्दर्भ में। ए. ए. खान ने आरक्षण के
दायरे में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े अल्पसंख्यकों को भी लाने की माँग
करते हुए कहा कि “अगर देश में रहने वाले सिख, मुस्लिम, ईसाई और ऐसे ही अन्य समूह
शैक्षिक एवं अन्य शर्तों को पूरा करते हैं, तो उनके दावों की अनदेखी नहीं की जानी
चाहिए।” मोहम्मद इस्माइल खान ने यह
स्पष्ट किया कि “इसका किसी भी रूप में यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि मुस्लिम,
ईसाई एवं अनुसूचित जाति जैसे अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बद्ध पिछड़े वर्ग के लोग इस
प्रावधान के दायरे से बाहर रखे जाएँ।”
उन्होंने इससे सम्बद्ध प्रावधानों को संविधान के अंतर्गत स्थान दिए जाने की माँग
की, ताकि मुस्लिम, ईसाई एवं अनुसूचित जाति जैसे अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बद्ध
पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए इस सन्दर्भ में स्पष्ट प्रावधान किये जा सकें और उनके
लिए भी ऐसे आरक्षण के लाभों को सुनिश्चित किया जा सके। उन्होंने साम्प्रदायिकता को अधिकारों की बजाय अल्प एवं
अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और इससे उपजे असंतोष से सम्बद्ध करके देखा। इसी आलोक में उन्होंने राष्ट्रीय एकता हेतु
आवश्यक सामाजिक एवं सांप्रदायिक सौहार्द्र हेतु आरक्षण को आवश्यक बतलाया। लेकिन, धरम
प्रकाश ने अल्पसंख्यकों
के लिए आरक्षण का विरोध करते कहा कि “भारत जैसे आज़ाद देश
में यह उचित नहीं है कि सिर्फ अल्पसंख्यक होने के आधार पर हिन्दुओं, मुसलमानों,
ईसाइयों एवं सिखों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया जाए।”
आरक्षण
की समय-सीमा:
संविधान-सभा में आरक्षण के मसले पर बहस के क्रम
में आरक्षण की समय-सीमा के प्रश्न पर भी बहस हुई। ह्रदय नारायण कुँजरू ने इसे सिद्धांततः
स्वीकार करते हुए अनिश्चित
काल के लिए ऐसे प्रावधान का विरोध करते हुए इसके लिए समय-सीमा के निर्धारण की बात की और इसकी समय-समय पर समीक्षा से सम्बंधित
प्रावधान किये जाने की माँग की। धरम प्रकाश ने सैद्धांतिक रूप से आरक्षण से
असहमति प्रदर्शित करते हुए इसे व्यावहारिक ज़रुरत
के रूप में स्वीकार किया और कहा कि “जहाँ तक हिन्दू समुदाय के अंतर्गत
हरिजनों का प्रश्न है, तो वे वास्तव में पिछड़े हैं, इसीलिए यह उपयुक्त होगा कि
उनके लिए कुछ समय के लिए आरक्षण के प्रावधान किये जाएँ और जब शेष आबादी के समकक्ष
स्तर पर पहुँच जाएँ, तो मैं पहला आदमी होऊँगा जो उनके लिए आरक्षण के प्रावधान का
विरोध करूँगा।”
शान्तनु कुमार दास ने आरक्षण की ज़रुरत को
विदेशी शासन के दुष्प्रभावों से सम्बद्ध
करके देखा और जब तक यह प्रभाव बना हुआ है, तबतक आरक्षण को जारी रखने की ज़रुरत पर
बल दिया।
अम्बेडकर और आरक्षण:
अन्त मे बहस पर जवाब देते हुए डॉ. अम्बेडकर ने धारा 10(3) की
उपधारा (3) में ‘बैकवार्ड’ शब्द के प्रयोग पर कहा कि:
1. समान योग्यता की स्थिति में सबके लिए समान अवसर: “प्रथमतः
सभी नागरिकों के लिए सेवा के समान अवसर होने चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति जो निश्चित
पद के योग्य है, उसको आवेदन-पत्र देने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, जिससे
यह तय हो कि वह किसी पद के योग्य है, या नहीं। जहाँ तक सरकारी नौकरियों का सम्बन्ध
है, सभी नागरिक यदि वे योग्य है, तो उनको समानता
के स्तर पर रखा जाना चाहिए।”
2. सामाजिक न्याय के मद्देनज़र आरक्षण के रूप में विशेष संरक्षण और
ऐतिहासिक अन्याय का निवारण: “मैं जोर देकर कहता हूँ कि यह एक
अच्छा सिद्धान्त है कि अवसर की समानता होनी चाहिए, उसी
समय यह भी प्रावधान होना चाहिए कि कुछ समुदायों को शासन में स्थान देना है, जिनको
अब तक प्रशासन से बाहर रखा गया है।”
3. “मैंने
प्रारूप-समिति के तीनों विचारों को सामने रखकर सूत्र तैयार किया है:
a. प्रथम,
सबको अवसर उपलब्ध होंगे,
b. दूसरा,
उन निश्चित समुदायों के लिए आरक्षण होगा, जिनको प्रशासन में अब तक उचित स्थान नहीं
मिला है।”
c. आरक्षण को अल्पसंख्यक पदों तक सीमित करना: “उदाहरण
के लिए, किसी समुदाय का आरक्षण कुछ पदों का 70 प्रतिशत
कर दिया जाए और 30 प्रतिशत गैर-आरक्षित छोड दिया जाए,
क्या कोई कह सकता है कि सामान्य प्रतियोगिता के लिए 30 प्रतिशत
आरक्षण है। ऐसी स्थिति में यह पहले सिद्धान्त समान अवसर होंगे के दृष्टिकोण से
उचित नहीं है। इसलिए जो पद आरक्षित होने है, यदि
धारा 10(1) के साथ आरक्षण को मजबूत रखना है, तो उसकी सीमा अल्पसंख्यक होनी
चाहिए।”
मतलब यह
कि डॉ. अम्बेडकर सबके लिए समान अवसर और राज्य
राज्य में समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए ‘बैकवर्ड’ शब्द का प्रयोग आवश्यक समझते थे और वे
इसे न्याय के प्रश्न से सम्बद्ध करके देखते थे। उनका
मानना था कि इसकी अनुपस्थिति में आरक्षण के प्रावधानों का दुरूपयोग संभव है और यह
इसे अप्रासंगिक बनाने का काम करेगा। अंततः डॉ. अम्बेडकर के प्रयासों से
धारा 10 संशोधित रूप में पारित होकर संविधान हिस्सा बनी। उन्होंने संविधान-सभा
को चेतावनी देते हुए कहा था कि “अगर हमने इस ग़ैर-बराबरी को ख़त्म नहीं
किया, तो इससे पीड़ित लोग उस ढ़ाँचे को ध्वस्त कर देंगे, जिसे इस संविधान-सभा ने इतनी
मेहनत से बनाया है।” उन्होंने यह भी कहा कि “अपनी माँगों को पूरा
करने के लिए संविधानेतर आंदोलनों से अब परहेज़ करना चाहिए। इसे वे ग्रामर
ऑफ एनार्की यानी अराजकता का रास्ता बताते हैं जो संवैधानिक ढ़ाँचे को कमज़ोर करेगा।”
आरक्षण आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या का हल नहीं:
भारतीय संविधान में आरक्षण के साथ-साथ सामाजिक न्याय
से सम्बंधित अन्य प्रावधान उन सामाजिक समूहों के लिए किये गए जिन्हें जातिगत
रूढ़ियों और जाति-व्यवस्था की अलोचशीलता ने मुख्यधारा से कटते हुए हाशिये पर पहुँचा
दिया और इसके कारण जिन्हें सामूहिक रूप से शिक्षा एवं सार्वजानिक क्षेत्र में
रोजगार के अवसरों से वंचित रखा गया। इसीलिए संविधान में
अनुसूचित जाति(SC) और अनुसूचित जनजाति(ST) समुदायों के लिए और बाद में अन्य पिछड़े
वर्ग(OBC) के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की गयी है, वह जाति-व्यवस्था द्वारा बनाई
गई सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों, इससे उपजी हुई सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और
इसके कारण होने वाले ऐतिहासिक अन्याय के निवारण की दिशा में सकारात्मक पहल है। स्पष्ट है कि आरक्षण सामाजिक बहिष्करण को दूर करते हुए समतामूलक समाज के विकास की दिशा
में की गयी एक सार्थक पहल है जो सामाजिक नीति का हिस्सा है, न की आर्थिक नीति का हिस्सा,
जिसकी परिकल्पना गरीबी-उन्मूलन और आर्थिक वैषम्य को दूर करने के लिए की गयी है।
इसीलिए यह न तो आर्थिक पिछड़ेपन का इलाज है और
न ही गरीबी-उन्मूलन कार्यक्रम। इसका सम्बन्ध सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक विभेद से जाकर जुड़ता है
और इससे अपेक्षा की गयी है कि यह ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से ऐतिहासिक विकास की
प्रक्रिया में पिछड़ गए सामाजिक समूहों के साथ होने वाले अन्याय का निवारण करते हुए
विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच विद्यमान अंतरालों को कम करे।
आर्थिक पिछड़ापन की प्रकृति
सामाजिक पिछड़ापन से भिन्न:
जाति महज़
संबंधों का प्रकार नहीं है, यह सोपान-क्रम पर आधारित सामाजिक संबंधों की दिशा में
संकेत देता है जो जातिगत भेदभावों को जन्म देता है और ये जातिगत भेदभाव बहिष्करण
की ओर ले जाते हैं। आरक्षण की शुरुआत इन्हीं जातिगत भेदभावों और बहिष्करण की
पृष्ठभूमि में समावेशन के आग्रह के साथ हुई। यह बहिष्करण को साधने का जितना
प्रभावी उपकरण है, उतना गरीबी को साधने का नहीं। लेकिन, आरक्षण को लेकर सवर्णों की यह धारणा बन
गयी कि यह कल्याणकारी कार्यक्रमों का ही एक दूसरा रूप है।
मंडल आन्दोलन ने भले ही सामाजिक क्रांति को जन्म
दिया हो, पर इसने इस धारणा को भुला दिया कि आरक्षण एक साधन है, साध्य नहीं। समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने ठीक ही कहा है कि “यह सच है कि अधिकांश गरीब पिछड़ी जाति से आते
हैं, फिर भी गरीब होना निम्न जाति के होने से अलग है। गरीबी के शिकार सभी लोग,
चाहे वे किसी भी जाति से आते हों, आर्थिक बहिष्करण का सामना करते हैं, पर जहाँ
आर्थिक स्थिति बदलते ही गरीब न रहने पर सवर्ण
गरीबों का बहिष्करण समाप्त हो जाता है, वहीं गरीबी समाप्त होने के बावजूद निम्न
जाति के लोगों का बहिष्करण समाप्त नहीं होता है। आर्थिक हैसियत बदलने के बावजूद
विभिन्न स्तरों पर उनका सामाजिक बहिष्करण जारी रहता है, यह कभी समाप्त नहीं होता
है।”
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