Saturday, 26 September 2020

हालिया कृषि बाज़ार-सुधार: पार्ट 3 (प्रमुख विधायी पहलें)

हालिया कृषि बाज़ार-सुधार: प्रमुख विधायी पहलें

प्रमुख आयाम

1. कृषि-बाज़ार सुधार(APMC):

a. कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020:

b. विधायन की पृष्ठभूमि

c.  प्रस्तावित उपबंध

d. किसानों का रुख

e. सरकार का मण्डियों के प्रति रवैया

f.   विश्लेषण

g. उपयुक्त सुझाव

2.  कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग:

a. मूल्य-आश्वासन और कृषि-सेवाओं पर कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक, 2020

b. प्रस्तावित संशोधन

c.  अमिताभ कान्त का विश्लेषण

d. बिल की सीमायें

e. पेप्सिको विवाद,2019

f.   विश्लेषण

3.  आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020:

a. प्रमुख प्रावधान

b. संशोधनों को देखने का नज़रिया

c.  विश्लेषण


कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020

विधायन की पृष्ठभूमि:

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कान्त ने अनुबन्ध खेती से सम्बंधित विधायन के औचित्य की ओर इशारा करते हुए कहा कि मौजूदा एपीएमसी अधिनियमों के तहत् सभी कृषि-उपज उन मंडियों के माध्यम से खरीदी और बेची जाती थी, जहाँ किसान अपनी उपज पहुँचाते थे। पारदर्शी मूल्य-निर्धारण व्यवस्था द्वारा किसानों के संरक्षण के लिए स्थापित इन मण्डियों पर आढ़तियों (Commission Agents) और खरीददार कारोबारियों(Purchasers) के नापाक गठबंधन ने इन मण्डियों में स्थानीय एकाधिकार तंत्र के विकास को संभव बनाया जिसने किसानों को नुकसान पहुँचाया। इसलिए प्रतिस्पर्धात्मक वैकल्पिक कृषि-बाज़ार, जो किसानों की खरीददारों तक सीधी पहुँच सुनिश्चित करता, के सृजन के माध्यम से इस एकाधिकार तंत्र को झटका देते हुए किसानों को बिचौलियों के चँगुल से मुक्त करने की आवश्यकता थी। यही वह पृष्ठभूमि जिसमें कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक,2020 लाया गया और इसके ज़रिये एक ऐसा आर्थिक वातावरण सृजित करने का प्रयास किया जा रहा है जहाँ किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर कृषि-उत्पादों को खरीदने और बेचने की आज़ादी होगी।

प्रस्तावित उपबंध:

1.  रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर फसलों की लेन-देन को अनुमति: प्रस्तावित विधेयक किसानों और खरीददार कारोबारियों रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों के बाहर कृषि-उत्पादों की लेन-देन की अनुमति प्रदान करता है  

2.  खरीद के लिए पैनकार्ड की अनिवार्यता: कोई भी व्यापारी जिसके पास पैन कार्ड हो, वो किसान से फसल ले सकता है

3.  रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर होने वाले लेन-देन शुल्क-मुक्त: रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर कृषि-उपज के होनेवाले लेन-देन पर किसानों, व्यापारियों और इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म्स से किसी भी प्रकार के शुल्क, सेस या प्रभार की वसूली नहीं की जाएगी।

4.  प्रस्तावित कानून के लक्ष्यों के संदर्भ में राज्यों को आदेश देने के लिए केंद्र को अधिकृत करना: प्रस्तावित विधेयक केंद्र को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वह ज़रुरत पड़ने पर प्रस्तावित कानून के लक्ष्यों के संदर्भ में राज्यों को आदेश दे सके

5.  इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग को सशर्त अनुमति: इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग को प्रोत्साहित करने के लिए यह किसान-उत्पादक संगठन(FPO), कृषि सहकारी संघ(FCA), कम्पनियों, पार्टनरशिप फर्म्स  और पंजीकृत सोसाइटी, बशर्ते इनके पास पैन नंबर या फिर केंद्र सरकार के द्वारा अधिसूचित वैधानिक दस्तावेज़ मौजूद हों, को इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और ट्रांज़ैक्शन प्लेटफॉर्म तैयार करने की अनुमति प्रदान करता है, ताकि फसलों को इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और इंटरनेट के जरिए खरीदा-बेचा जा सके। 

6.  ई-ट्रेडिंग की पारदर्शी व्यवस्था: यह बिल ई-ट्रेडिंग के सिस्टम को पारदर्शी बनाए जाने की बात करता है और इसके मद्देनज़र इस प्लेटफ़ॉर्म पर लेन-देन के लिए पैन नम्बर की अनिवार्यता सुनिश्चित करता हैजिस किसान के पास पैन नंबर है, वह ई-ट्रेडिंग कर सकेगा साथ ही, इस बात को सुनिश्चित करता है कि किसानों को उसी दिन या तीन दिनों के अन्दर पैसे का भुगतान किया जाए

किसानों का रुख:

संभव है कि शुल्क-मुक्त होने के कारण किसानों के लिए मण्डी से बाहर खरीदना-बेचना फायदेमंद हो और आरम्भ में किसानों को रेगुलेटेड मण्डियों से बाहर ज्यादा कीमत मिले, लेकिन धीरे-धीरे मण्डियाँ अप्रासंगिक होती चली जायेगी और फिर उस विकल्प के अप्रासंगिक होते ही किसान बाज़ार और कॉर्पोरेट्स की गिरफ्त में होंगे। इसीलिए किसान इस बात को लेकर आशंकित हैं कि व्यवहार में इस विधेयक के प्रावधान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित खरीद-व्यवस्था को अप्रासंगिक बनाते हुए उनके शोषण की प्रक्रिया को तेज करेगी जो उनकी मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित होगा। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि 86 प्रतिशत किसान छोटे एवं सीमान्त किसान, जो अपने जिले से बाहर जा पाने की स्थिति में नहीं हैं। ध्यातव्य है कि देश में करीब 50 प्रतिशत आबादी और 65 करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं जिनमें 86 प्रतिशत या तो खेतिहर मजदूर हैं या फिर छोटे एवं सीमान्त किसान। इनकी इन मण्डियों तक पहुँच नहीं है और ये अपनी उपज इन मण्डियों में जाकर नहीं बेचते हैं, फिर भी यह बाज़ार-कीमतों पर मनोवैज्ञानिक दबाव सृजित करता हुआ कृषक हितों को संरक्षित करता है।

सरकार का मण्डियों के प्रति रवैया:

वर्तमान में कृषि-सुधारों के प्रश्न के राजनीतिकरण और किसानों के द्वारा इसके भारी विरोध के बीच सरकार भले ही यह कह रही हो कि वह न तो मण्डियों की व्यवस्था को खत्म करने जा रही है और न ही एमएसपी व्यवस्था को, लेकिन अबतक के संकेत और इन संशोधनों का विश्लेषण कुछ और ही कहता है। मई,2014 में राजग सरकार बनने के बाद कृषि-उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के बोनस नहीं देने का निर्देश दिए गए। जब केन्द्र सरकार के द्वारा अप्रैल,2016 में कृषि-सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ाते हुए ई-नाम (E-NAM) को इंट्रोड्यूस किया गया, उसकी पृष्ठभूमि में नवम्बर,2019 में भारतीय वित्त-मंत्री निर्मला सीतारमण ने केन्द्र सरकार की आकांक्षा के अनुरूप राज्यों से यह अपेक्षा प्रकट की कि राज्य एपीएमसी रेगुलेटेड मण्डियों को ख़त्म करें। इसकी पुष्टि कृषि-बाज़ार के विकास के मद में बजटीय आवंटन में कमी के ज़रिए होती है। बज़ट,2018-19 में 1050 करोड़ का आवंटन किया गया जो संशोधित बजट में 500 करोड़ हो गया और आखिर में मिला 458 करोड़। बज़ट,2019-20 में इसी मद में 600 करोड़ की राशि आवंटित की गयी और संशोधित बजट में यह राशि घटाकर 331 करोड़ कर दी गयी। उपरोक्त दोनों पहले न तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप हैं और न ही स्टैंडिंग कमिटी की सिफारिशों के अनुरूप।

विश्लेषण:

स्पष्ट है कि प्रस्तावित विधेयक एपीएमसी के दायरे में आने वाले रेगुलेटेड बाजारों की भौतिक सीमाओं का निर्धारण करते हैं जिसके कारण अब उनका दायरा अपेक्षाकृत अधिक सीमित होगा। ये न केवल सीधी खरीद को संभव बनाते हैं, वरन् उन्हें शुल्क-मुक्त रखते हुए मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन कॉस्ट में कमी को सुनिश्चित करते हैं जिससे उसकी लेन-देन की लागत कम हो जाती है। इस रूप में ई-ट्रेडिंग के माध्यम से बड़े बाज़ार तक किसानों की पहुँच को सुनिश्चित करता है जिससे अंतर्राज्यीय एवं अन्तरा-राज्यीय कृषि-व्यापार को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन, प्रस्तावित कानून न तो मौजूदा एपीएमसी कानूनों को रद्द करते हैं और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त करते हैं, पर इन दोनों की अप्रासंगिकता का आधार ज़रूर तैयार करते हैं। साथ ही, प्रस्तावित विधेयक इस मसले पर भी मौन है कि अन-रेगुलेटेड बाज़ार में कृषि-उत्पादों के लेन-देन का आधार क्या होगा और उसका न्यूनतम समर्थन मूल्य से क्या सम्बंध होगा।

इसी आलोक में प्रस्तावित विधेयक को किसानों के हित के प्रतिकूल मानते हुए कृषि-विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा का कहना है कि अमेरिका में जो सिस्टम फेल हुआ, वही सिस्टम हमारे देश की जनता पर थोपा जा रहा हैसन् 2006 में स्वामीनाथन समिति की तीसरी रिपोर्ट में मण्डियों के विकास और प्राइवेट सेक्टर की मण्डियों की बात कही गयी है। इस समिति ने सुझाव देते हुए कहा था कि सरकार मण्डियों के भीतर लगने वाले तरह-तरह के टैक्स को ख़त्म करते हुए उसकी जगह एक शुल्क लगाए जिसका इस्तेमाल बाजार के ढाँचे के विकास के लिए हो। बड़े शहरों के पास मेगा मार्केट बनें जो एपीएमसी एक्ट के बाहर हो। अपनी रिपोर्ट में एम. एस. स्वामीनाथन ने कहा था कि:

1.  अगर प्राथमिक उत्पादों पर टैक्स न लगे तो एपीएमसी एक्ट एवं बाज़ार समिति ख़त्म हो जाएगी।

2.  अगर बाजार रेगुलेट नहीं होंगे, तो किसानों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, जैसे अधिक लेन-देन शुल्क और मूल्यों एवं उत्पाद के आगमन की सूचना न होना।

सन् 2010 में कृषि-विपणन सुधारों के लिए गठित राज्य मंत्रियों की कमिटी ने इस बात पर बल दिया कि बाजार को पूरी तरह रेगुलेशन से मुक्त कर देना समस्या का समाधान नहीं है और न ही यह निजी निवेश को सुनिश्चित कर पाने में समर्थ है।  इसी आलोक में इसने कहा था कि निजी निवेश के लिए आवश्यक है उपयुक्त कानूनी एवं संस्थागत संरचना, जिसमें विकासात्मक रेगुलेशन की संभावनाएँ मौजूद हो। इससे बाजार का व्यवस्थित कामकाज सुनिश्चित होगा और इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में निवेश होगा।

उपयुक्त सुझाव:

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि अगर देश किसानी एवं किसानों की स्थिति में सुधार के प्रति गंभीर एवं संवेदनशील है, तो उसे तत्काल इन कृषि-सुधारों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने की दिशा में पहल करनी होगी की। लेकिन, इस बात को भी समझने की ज़रुरत है कि अपने वर्तमान रूप में उपरोक्त सुधार किसानों का भला करने के बजाय उसे बर्बाद करेंगे और बाजारवादी ताकतों के हाथों शोषण के लिए छोड़ देंगे। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उपरोक्त संशोधनों के आलोक में निम्न पूरक पहलों की तत्काल आवश्यकता है:

1.  सभी प्रकार के लेन-देन के लिए एमएसपी को बेस प्राइस के रूप में स्वीकार करना: एपीएमसी मण्डियों के बाहर, चाहे वह लेन-देन खुले बाज़ार में हो या फिर ई-ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म पर, होने वाले लेन-देन के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को आधार क़ीमत के रूप में स्वीकार किया जाए। जो भी लेन-देन हो, इस कीमत या इससे अधिक पर हो, न कि इससे कम पर। अगर इसका उल्लंघन होता है, तो खरीददारों के विरुद्ध सख्ती बरतते हुए क़ानूनी कार्यवाही का प्रावधान किया जाए। यहाँ पर यह स्पष्ट करना अपेक्षित होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने तत्कालीन केंद्र सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में एमएसपी की गारंटी देने का खुलकर समर्थन किया था, लेकिन आज इस मसले पर वे मौन हैं

2.  रेगुलेटेड और नन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार के बीच के फर्क की समाप्ति: सरकार भले ही यह कह रही हो कि वह इसके ज़रिये भारतीय कृषि-बाज़ार के बिखराव को समेटते हुए उसे ‘वन नेशन, वन मार्केट’ का रूप देना चाहती है, लेकिन वास्तव में उसकी यह पहल ‘वन नेशन, टू मार्केट’ का आधार तैयार कर रही है: शुल्क-युक्त रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार और शुल्क-मुक्त नन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार। सरकार को इस दिशा में गंभीर प्रयास करना चाहिए कि ‘वन नेशन, वन मार्केट’ को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए शुल्क और बाज़ार-अवसंरचना की दृष्टि से रेगुलेटेड और नन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार के बीच के फर्क को समाप्त करे, अन्यथा आगे चलकर यह फर्क एपीएमसी मण्डियों के साथ-साथ एमएसपी की पूरी-की-पूरी व्यवस्था को ही अप्रासंगिक बना देगी।

3.  सरकारी मण्डियों के गाँवों ता विस्तार के साथ बेहतर बाज़ार अवसंरचना हेतु सार्वजनिक निवेश की तत्काल ज़रुरत: मण्डी-व्यवस्था के ग्रामीण इलाकों तक विस्तार को सुनिश्चित करते हुए किसानों की इन कृषि-मण्डियों तक आसान पहुँच सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही, इन मण्डियों में प्रभावी बाज़ार-अवसंरचना को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को आगे आना होगा और इसके लिए वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी।  

4.  एपीएमसी मण्डी के बाहर के कृषि-बाज़ारों के अनिवार्य रेगुलेशन: उपरोक्त तथ्यों के आलोक में किसानों के हितों के संरक्षण, एमएसपी व्यवस्था के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु आवश्यक निगरानी और रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार एवं नॉन-रेगुलेटेड कृषि-बाज़ार के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को सुनिश्चित करने के लिए मण्डी के बाहर के कृषि-बाज़ारों के अनिवार्य रेगुलेशन की व्यवस्था हो।

अगर उपरोक्त पहले की जाती हैं, तो कृषि-बाज़ार सुधार की प्रक्रिया भी आगे बढ़ाई जा सकती है और कृषक हितों को भी खतरे में पड़ने से बचाया जा सकता है अगर ऐसा होता है, तभी कारोबारियों, बिचौलियों, किसानों और उपभोक्ताओं; सभी के हितों को एक साथ संरक्षित करने का प्रधानमन्त्री का स्वप्न साकार हो सकेगा

 

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग

मूल्य-आश्वासन और कृषि-सेवाओं पर कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक, 2020

कृषि-सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए केन्द्र सरकार विकसित देशों की तर्ज पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग लागू करना चाहती है, क्योंकिउसकी नज़रों में, जब तक ऐसा नहीं किए जाता, तब तक कृषि को बाज़ार से जोड़ते हुए न तो कृषि-क्षेत्र में निवेश के प्रवाह को सुनिश्चित किया जा सकता है और न ही कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण एवं तकनीकी उन्नयन को। सरकार का यह मानना है कि अगर कृषि को बाज़ार से जोड़ा जाता है और उसे बाज़ार के अनुकूल बनाया जाता है, तो इसका फायदा बाज़ार को भी मिलेगा और किसानों को भी। इसी आलोक में अनुबंध कृषि को वैधानिक स्वरूप प्रदान करने की दिशा में पहल करते हुए उन कम्पनियों के लिए अनुकूल वातावरण सृजित करने का प्रयास किया गया जो खुदरा कारोबार में सक्रिय हैं और अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता को बनाये रखने के लिए किसानों से सीधी खरीद के ज़रिये अपनी लागत को कम करना चाहती हैं और कृषि-उत्पादों के खुद तक प्रवाह को सुनिश्चित करते हुए इसके सन्दर्भ में अनिश्चितता को दूर करना चाहती हैं।

प्रस्तावित संशोधन:

यह विधेयक अनुबंध कृषि-क़रार पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क का प्रावधान करता हैयह विधेयक कृषि-उत्‍पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं, कृषि-बिज़नेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक-विक्रेताओं, बड़े खुदरा-विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्‍त करता हैइसके अन्तर्गत निम्न उपबंध किये गए हैं:

1.  उत्पादन-पूर्व अनुबन्ध का प्रावधान: यह विधेयक किसान को फसल की बुवाई से पहले अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने हेतु अनुबंध करने की सुविधा प्रदान करता है। उपज की कीमत और खरीददार के पहले से तय होने के कारण किसानों को खरीदार ढूँढने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा और पहले से कीमतों के तय रहने के कारण बाज़ार-जोखिम भी कम होगा।

2.  कृषि-अनुबन्ध की अवधि: अनुबन्ध की अवधि न्यूनतम एक फसल-चक्र, या पशुओं की स्थिति में एक प्रजनन-चक्र की होगी, और इसकी अधिकतम अवधि पाँच वर्ष की होगी। लेकिन, यदि  उत्पादन-चक्र पाँच वर्ष से अधिक का है, तो ऐसी स्थिति में समझौते की अवधि वह होगी जो दोनों पक्ष मिलकर आपसी सहमति से निर्धारित करें। 

3.  मालिकाना हक़ किसानों के पास: इस समझौते में फसल का मालिकाना हक़ किसान के पास रहेगा और उत्पादन के बाद व्यापारी को तय कीमत पर किसानों से उसका उत्पाद खरीदना होगा 

4.  क़ृषि-उत्पाद का मूल्य-निर्धारण: अनुबन्ध करते वक़्त ही कृषि-उत्पादों का खरीद-मूल्य भी निर्धारित किया जाएगा और यह समझौते में दर्ज होगा। यदि लोचशील मूल्य-व्यवस्था को अपनाया जाता है, तो मूल्य में बदलाव की स्थिति में उत्पाद के लिए गारंटीशुदा मूल्य समझौते में दर्ज होगा। ऐसी स्थिति में गारंटीशुदा मूल्य के अलावा जो अतिरिक्त राशि उपलब्ध करवाई जानी है और उसके लिए जो मानदण्ड एवं शर्तें हैं, अनुबन्ध दस्तावेज़ में उनका स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, अनुबन्ध-दस्तावेज़ में मूल्य-निर्धारण के तरीके का उल्लेख भी होगा।

5.  कीमत का भुगतान: व्यापारी को फसल की डिलिवरी के वक्त ही तय कीमत का दो-तिहाई किसान को चुकाना होगा शेष राशि का भुगतान 30 दिन के अंदर देना होगा

6.  कृषि-विस्तार सेवाओं से सम्बंधित अनुबंधकर्ता कम्पनियों की जिम्मेवारी: इस विधेयक के प्रावधान इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि करार करने वाली कम्पनी पर अनुबंधित किसानों को बेहतर गुणवत्ता वाले बीज, ओस्तेमाल में लाए जाने वाले खाद, तकनीकी सहायता, ऋण-सुविधा और फ़सल-बीमा सुविधा की उपलब्धता सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी होगी। साथ ही, कम्पनियों को फ़सल-स्वास्थ्य की निगरानी की जिम्मेवारी भी सौंपी जाएगी। ऐसी स्थिति में इस खर्च को ध्यान में रखते हुए फसल की कीमत तय की जाएगी

7.  फसल के परिवहन की जिम्मेवारी अनुबंधकर्ता कारोबारी की: इसमें ये प्रावधान भी है कि खेत से फसल उठाने की ज़िम्मेदारी व्यापारी की होगी अगर किसान अपनी फसल व्यापारी तक पहुँचाता है, तो इसका इंतज़ाम व्यापारी को ही करना होगा

8.  अनुबंध की शर्तों के उल्लंघन की स्थिति में पेनाल्टी: इस बिल में इस बात का प्रावधान किया गया है कि अगर कोई एक पक्ष अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो उस पर पेनल्टी लगाई जा सकेगी

9.  विवाद-निपटारा: यह विधेयक त्रि-स्तरीय विवाद-निपटान प्रणाली का प्रावधान करता हैकन्सीलिएशन बोर्ड, सब-डिविजिनल मजिस्ट्रेट और अपीलीय अथॉरिटी। इसमें कहा गया है कि अगर अनुबंध की शर्तों को लेकर दोनों पक्षों के बीच किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है, तो:

a.  सुलह बोर्ड का गठन: सबसे पहले सभी विवादों को समाधान के लिए सुलह बोर्ड को संदर्भित किया जाना चाहिए। इसके लिए सुलह बोर्ड का गठन किया जाएगा जिसमें समझौते से सम्बद्ध विभिन्न पक्षों: किसान और कम्पनी के प्रतिनिधियों निष्पक्ष और संतुलित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इस बोर्ड से अपेक्षा की गयी है कि यह विवाद को तीस दिनों के अंतर्गत सुलझाए।

b.  सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत: अगर तीस दिनों में बोर्ड विवाद का निपटारा नहीं कर पाता, तो पक्ष समाधान के लिए सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट(SDM) से संपर्क कर सकते हैं।

c.  जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष अपीलीय अधिकारिता: सभी पक्षों के पास यह अधिकार होगा कि सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट(SDM) के फैसले के खिलाफ कलेक्टर(DM) या एडिशनल कलेक्टर(ADM) की अध्यक्षता वाली अपीलीय अथॉरिटी में अपील कर सकें।

d.  मजिस्ट्रेट और अपीलीय अथॉरिटी की अधिकारिता और जिम्मेवारी: मजिस्ट्रेट और अपीलीय अथॉरिटी को आवेदन प्राप्त होने के तीस दिनों के भीतर विवाद का निपटारा करना होगा। इन दोनों के पास सिविल अदालत की शक्ति होगी और इनके द्वारा समझौते का उल्लंघन करने वाले पक्ष पर जुर्माना लगाने की शक्ति होगी, लेकिन यह स्पष्ट किया गया है कि किसान से किसी प्रकार के बकाए की वसूली के लिए उसकी खेती की जमीन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती।

अमिताभ कान्त का विश्लेषण:

नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कान्त ने अनुबन्ध खेती से सम्बंधित विधायन के औचित्य की ओर इशारा करते हुए कहा कि प्रस्तावित विधेयक अनुबन्ध कृषि से सम्बंधित उस सक्षम ढाँचे की उपलब्धता को सुनिश्चित करेगा जो कृषि और खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग के साथ सम्बंधों को बढ़ावा देगा  के लिए एक सक्षम ढाँचे की जरूरत थी। अनुबंधात्मक खेती से किसान भी एक सुनिश्चित आय के साथ निवेश निर्णयों की योजना बना पाएँगे। उनका मानना है कि किसान प्रसंस्करण-योग्य किस्मों को विकसित करने और उन्हें सुनिश्चित कीमतों पर बेचने के लिए खाद्य-संसाधक के साथ समझौता कर सकेंगे एक राष्ट्र की विकास-प्रक्रिया में कृषि के आधुनिकीकरण के महत्व को रेखांकित करते हुए कृषि-सेवा प्रदाताओं के सहयोग से खेती एक सेवा’ (FAS) को प्रोत्साहन मिलने की अपेक्षा की क्योंकि यह किसानों के लिए उन कृषि-तकनीक स्टार्ट-अप के सहयोग को सुनिश्चित करेगा जो क्रॉप इंटेलिजेंस के साथ-साथ ग्रेड और उत्पादन की परख करने के लिए कृत्रिम बौद्धिकता जैसी प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर रहे हैं।

बिल की सीमायें:

प्रस्तावित कानून तो उन्हीं कारोबारी अनुबंधकर्ताओं के पक्ष में है जो संगठित हैं, सक्षम हैं और साधन-सम्पन्न हैं। लिखित अनुबंधों में कीमतों के अलावा आपूर्ति, गुणवत्ता, ग्रेडिंग, और स्टैंडर्ड्स की शर्तों का उल्लेख होगा। लेकिन, प्रस्तावित विधेयक कीमतों के निर्धारण के किसी मैकेनिज्म की प्रस्तावना नहीं करता है जिसके कारण यह माना जा रहा है कि कीमतों के निर्धारण में निजी क्षेत्र के कॉर्पोरेट्स को फ्री-हैण्ड दिया जाना किसानों के शोषण का आधार तैयार करेगा। इसी तरह, इस बिल में जिला मजिस्ट्रेट की अपीलीय अदालत के निर्णय से संतुष्ट न होने की स्थिति में किसानों को अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की अनुमति नहीं दी गयी है। इतना ही नहीं, इसमें किसानों के कृषक उत्पादक संगठन(FPO) या सहकारिता संघ को भी कम्पनी का दर्ज़ा दे दिया गया है। इसलिए प्रस्तावित बिल जिन पक्षों के बीच अनुबंधों की प्रस्तावना करती है, वे समकक्ष नहीं हैं, और चूँकि वे समकक्ष नहीं हैं, इसीलिए अनुबंध में शामिल कमजोर पक्ष को सरकार से विशेष संरक्षण की ज़रुरत है और यह संरक्षण उसकी शक्ति एवं सीमाओं के आलोक में होनी चाहिए।

सरकार का यह भी दावा है कि अनुबंध करार के जरिए आधुनिक तकनीक और बेहतर इनपुट तक किसानों की पहुँच सुनिश्चत कर विपणन-लागत कम करके आय या मुनाफे को बढ़ाया जाएगा। लेकिन, इस कानून के लागू होने के बाद किसानों की मोल-तोल करने की शक्ति के कमजोर होगी और बड़ी निजी कम्पनियाँ, निर्यातक, थोक विक्रेता और उद्योगपति बढ़त की स्थिति में रहेंगे जिसका खामियाजा अन्ततः किसानों को भुगतना पड़ेगा। अगर सरकार किसानों को लेकर गंभीर है और इन सुधारों के माध्यम से उनका भला करना चाहती है, तो नई व्यवस्था में उसे सब कुछ निजी क्षेत्र या बड़े कारोबारियों के भरोसे छोड़ने के बजाय कृषि, किसानों और आर्थिक क्षेत्र के पारस्परिक हितों को सुनिश्चित करना चाहिए।

पेप्सिको विवाद,2019:

अमेरिकी कंपनी पेप्सिको ने गुजरात और राजस्थान के 10 किसानों के खिलाफ पेटेंट के उल्लंघन पर मुकदमा दर्ज करवाते हुए कहा कि इन किसानों ने उसके द्वारा पेटेंट कराई गई अपेक्षाकृत कम आर्द्रता वाले आलू की एफसी-5 किस्म की खेती की है जिसका इस्तेमाल कम्पनी अपने लोकप्रिय लेज पटेटो चिप्स बनाने के लिए करती है पेप्सिको कम्पनी का दावा है कि चूँकि सन् 2016 में उसने आलू के इस किस्म का प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट के अंतर्गत प्लांट वैराइटी सर्टिफिकेट ले लिया था, इसलिए इसकी पैदवार और बिक्री पेप्सिको कम्पनी की सहमति के बिना कोई और नहीं कर सकता है। यहाँ पर सवाल यह उठता है कि आखिरकार एक आम किसान इस बात को कैसे जान पाएगा कि कौन-सा बीज पेटेंटेड है और कौन नहीं, किससे पैदावार करनी चाहिए और किससे नहीं, और क्या पैदावार करने की स्थिति में उसे दण्डित एवं मुआवज़े के भुगतान के लिए बाध्य किया जा सकता है? इसके उलट, किसानों का यह कहना है कि सरकार पौधों की किस्मों और किसानों के अधिकारों के संरक्षण अधिनियम, 2001 के तहत् किसानों के अधिकारों को बरकरार रखने के लिए और पेप्सीको इंडिया को मुकदमे वापस लेने का निर्देश देउनका कहना है कि प्रोटेक्शन ऑफ़ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर राइट्स एक्ट के अंतर्गत उन्हें किसी भी बीज से पैदावार करने और बिक्री करने का अधिकार हासिल है, शर्त यह है कि बीज रजिस्टर्ड वैरायटी के तहत् ब्रांडेड बीज ना हो। ब्रांडेड बीज के सन्दर्भ में वह इस्तेमाल तो कर सकता है, पर वाणिज्यिक उद्देश्यों से वह उसकी बिक्री नहीं कर सकता है। अब यह बात अलग है कि पेप्सिको ने किसान-समूहों की ओर निर्मित हो रहे दबावों के मद्देनज़र मुक़दमा वापस ले लिया।

लेकिन, यह समस्या कोई अपवाद नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों के किसानों की ओर से अक्सर कम्पनियों की ओर से अनुबंध की शर्तों के उल्लंघन की शिकायतें आती रहती हैं। ऐसा ही एक विवाद पंजाब में पेप्सी कम्पनी और किसानों के बीच आलू के करार को लेकर उत्पन्न हुआ। जब पेप्सी को सस्ता आलू मिलने लगा, तो गुणवत्ता, और साइज़ के नाम नाम पर लेने से मना कर दिया। इससे भी बुरी हालत लाल मिर्च वाले किसानों की हुई। कम्पनी तो अपने हिस्से के करार को लागू करवा पाई, पर किसान ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि उनके पास न तो पैसा था, न ही वकील और न ही सरकार।

विश्लेषण:

यद्यपि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग देश के किसानों के लिए कोई नयी चीज नहीं है क्योंकि खाद्यान्नों के सन्दर्भ में अनौपचारिक अनुबंध और गन्ना एवं पॉल्ट्री फार्मिंग के क्षेत्र में औपचारिक अनुबंध पहले से ही प्रचलन में हैं, तथापि विवाद की स्थिति में कृषि-क्षेत्र के असंगठित स्वरुप और संसाधनों के अभाव के कारण कॉर्पोरेट्स के विरुद्ध कानूनी लड़ाई में टिक पाने को लेकर किसान सशंकित हैं। निश्चय ही अनुबंध कृषि के वैधानिक ढाँचे की प्रस्तावना एक ओर किसानों को बेहतर विकल्प उपलब्ध करवाती है, दूसरी ओर उन ज़रूरतों को भी पूरा करती है जो रिटेल कारोबार में संगठित क्षेत्र की कम्पनियों के प्रवेश के कारण उत्पन्न होती हैं। इसलिए यह कृषि के कॉर्पोरेटाइजेशन के मार्ग को प्रशस्त करता हुआ कृषि-क्षेत्र में निवेश के ज़रिए उसमें अन्तर्निहित संभावनाओं के दोहन का मार्ग प्रशस्त करता है। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीय किसान, विशेष रूप से 86% भारतीय किसान, जो या तो खेतिहर मजदूर की श्रेणी में आते हैं या फिर छोटे एवं सीमान्त किसानों की श्रेणी में, इतने सक्षम एवं जागरूक हैं कि वे अनुबन्ध के पहले उन तकनीकी जटिलताओं को समझ सकें और इसके लिए वकीलों की सेवाएँ ले सकें? साथ ही, क्या वे इतने समर्थ हैं कि अनुबंधकर्ता कम्पनियों के द्वारा अनुबंध की शर्तों के उल्लंघन की स्थिति में वे अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें? यह व्यवस्था किसानों को उसी तरह वकीलों को हवाले कर देगी जिस प्रकार जीएसटी ने असंगठित क्षेत्र के कारोबारियों को चार्टर्ड अकाउंटेंट और टैक्स कंसलटेंट के हवाले कर दिया। शायद इन्हों सब बातों को ध्यान में रखते हुए स्वामीनाथन समिति ने किसानों के बीच बाज़ार-साक्षरता बढ़ाने की बात की थी।

आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020:

इस अधिनियम का निर्माण उस दौर में किया गया जब भारत खाद्यान्न मामलों में आत्मनिर्भर नहीं था, वह इसके लिए दूसरे देशों और वहाँ से होने वाले आयात पर निर्भर था। ऐसे स्थिति में इस अधिनियम के ज़रिए आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी रोकते हुए उसके प्रवाह एवं उसकी कीमतों को सुनिश्चित करने और इसके लिए उनके उत्पादन, आपूर्ति, स्टॉक, और वितरण को रेगुलेट करने का प्रयास किया गया इस अधिनियम में ‘आवश्यक वस्तु’ को परिभाषित करने के बजाय ‘कौन-सी वस्तु आवश्यक वस्तु है और कौन नहीं’: यह परिभाषित करने के लिए संसद को अधिकृत किया गया है। लेकिन, खाद्यान्न मामलों में भारत के आत्मनिर्भरता और कृषि-उत्पादन में अधिशेष की स्थिति को ध्यान में रखते हुए अब सरकार ने इनमें से कई वस्तुओं को अनिवार्य वस्तुओं की सूची से बाहर रखने के लिए इस अधिनियम में संशोधन करने का निर्णय लिया गया। ऐसा माना गया कि इसके कारण कृषि-क्षेत्र में निवेश बाधित हो रहा है और इसका प्रतिकूल असर कृषि अवसंरचना के विकास पर पड़ रहा है। इसलिए इसे यह कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, खाद्य-प्रसंस्करण और निवेश की कमी के कारण कृषि-उत्पादों की बेहतर कीमत न मिल पाने की समस्या का समाधान माना जा रहा है।

विधेयक के प्रमुख प्रावधान:

प्रस्तावित बिल से सम्बंधित प्रावधानों को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

1.  भण्डारण पर लगी रोक को सशर्त हटाना: प्रस्तावित विधेयक के तहत् आलू, प्याज, अनाज, दलहन, तिलहन और खाद्य-तेल को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने की दिशा में पहल की गयी है और उसके भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है।

2.  विशेष परिस्थितियों में इनके स्टॉक को रेगुलेट किया जा सकना सम्भव: केंद्र सरकार केवल असामान्य परिस्थितियों में कुछ खाद्य पदार्थों, जैसे आलू, प्याज, अनाज, दलहन, तिलहन और खाद्य-तेलों की आपूर्ति को रेगुलेट कर सकती है। ये असाधारण परिस्थितियाँ हैं: युद्ध, अकाल, कीमतों में अप्रत्याशित उछाल, या फिर गंभीर प्राकृतिक आपदा। इन परिस्थितियों में सरकार के द्वारा इनकी स्टॉकिंग की सीमा निर्धारित की जा सकती है और उसे नियंत्रित किया जा सकता है

3.  तीव्र मुद्रा-स्फीति की स्थिति में केंद्र सरकार द्वारा स्टॉक का रेगुलेशन: अगर सब्ज़ी और फल सहित शीघ्र नष्ट होने वाले बागवानी-उत्पादों के खुदरा-मूल्य में 100% की वृद्धि होती है, या फिर शीघ्र नष्ट न होने वाले कृषि खाद्य-पदार्थों के खुदरा-मूल्य में 50% की वृद्धि होती है, तो ऐसी स्थिति में इस अधिनियम के अधीन रहते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा कृषि-उत्पादों के लिए स्टॉक की सीमा तय की जा सकती है।

4.  विशेष परिस्थितियों में भी निर्यातकों और संसाधकों को मिलने वाली छूटों का जारी रहना: प्रस्तावित संशोधन निर्यातकों और संसाधकों को विशेष परिस्थितियों में राज्य के द्वारा आरोपित रेगुलेशन के दायरे से बाहर रहेंगी, अर्थात् उन्हें इन मदों की स्टॉकिंग के सन्दर्भ में मिलने वाली छूटें जारी रहेंगी

5.  कार्यपालक आदेश के ज़रिये आवश्यक वस्तुओं की सूची में संशोधन सम्भव: यह बिल सरकार को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि वो ज़रूरत के हिसाब से आवश्यक वस्तुओं की सूची में संशोधन कर सकती है और इस बाबत निर्देश जारी कर सकती है

संशोधनों को देखने का नज़रिया:

प्रस्तावित संशोधनों को सरकार और किसान अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं। सरकार का मानना है कि नए प्रावधानों से उत्पादन, उत्पादों को जमा करने, आवागमन, वितरण और आपूर्ति की स्वतंत्रता से बड़े स्तर पर अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा और कृषि-क्षेत्र में निजी एवं विदेशी प्रत्यक्ष निवेश आकर्षित होगा। लेकिन, किसान-संगठनों का कहना है कि भंडारण के मामले में ज्यादातर किसानों की जो स्थिति है, उसमें संसाधनों और सुविधाओं से लैस बड़ी कम्पनियाँ किसानों से अपनी शर्तों पर उनकी उपज खरीदेंगी और बेचेंगी। ऐसे में आलू और प्याज सहित खाने-पीने की सबसे जरूरी चीजों को ही आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी से बाहर कर दिए जाने का फैसला गरीब-विरोधी है क्योंकि वैसे भी खाद्यान्न अपस्फीति का असर थोक कीमतों पर भले दिख रहा हो, पर खुदरा कीमतों पर नहीं। मौजूदा समय में आलू और प्याज सहित खाने-पीने की सभी चीजों की कीमतें गरीबों की पहुँच के बाहर होती जा रही हैं, और ऐसे समय में इन वस्तुओं के भंडारण की आजादी के बड़े पूँजीपतियों के लिए बेलगाम मुनाफा सुनिश्चित करेंगी और इसकी कीमत किसानों एवं आम ग्राहकों को चुकानी होगी।

विश्लेषण:

निस्संदेह आवश्यक वस्तु अधिनियम में उपरोक्त बदलाव सब्जियों और अनाज के भंडारण में सरकार के दखल को ख़त्म करेंगे। इससे कृषि-अवसंरचना में निजी निवेश की सम्भावना बढ़ेगी जो फसलों की बर्बादी पर भी अंकुश लगाने में सहायक होगा और कृषि उत्पादों की बेहतर गुणवत्ता को सुनिश्चित करने में भी सहायक इसका फायदा उन किसानों को होगा, जो बेहतर कीमत के लिए प्रतीक्षा करना चाहते हैं और जो इसके मद्देनज़र स्टॉकिंग हेतु भण्डारण-सुविधा का लाभ उठाने या भण्डारण-क्षमता के विकास में निवेश कर पाने में समर्थ हैं।

लेकिन, स्टॉकिंग पर ये छूटें खाद्य-सुरक्षा को प्रतिकूलतः प्रभावित करने में सक्षम हैं क्योंकि इससे जमाखोरी और कालाबाज़ारी को बढ़ावा देगा जिसके कारण आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तीव्र उतार-चढ़ाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और इसका प्रतिकूल प्रभाव हाशिए पर के समूह की खाद्य सुरक्षा पर पड़ सकता है। यह आशंका इसलिए भी खारिज नहीं की जा सकती है कि रेगुलेशन के अभाव के कारण स्टॉक की उपलब्धता के सन्दर्भ में राज्यों के पास भी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं होंगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि यह सब किसके लिए होगा और किसकी कीमत पर होगा? चूँकि देश के अधिकांश किसान, जो भूमिहीन, छोटे एवं सीमान्त किसान की श्रेणी में आते हैं, के पास भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है, इसीलिए इसका सीधा फायदा या तो धनी एवं समृद्ध किसानों को होगा, या फिर उन कंपनियों को मिलेगा, जिनके पास पर्याप्त संसाधन और भंडारण सहित पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं या जिनकी उपलब्धता को सुनिश्चित करने में वे समर्थ हैं। इस प्रकार निजी कारोबारियों और निजी कम्पनियों के स्टॉक अपने हिसाब से मार्केट को चलाएँगे और ऐसे में फसल की कीमत तय करने में किसानों की भूमिका नहीं के बराबर रह जाएगी अन्ततः इसका खामियाजा किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ेगा।

    


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