Tuesday 22 September 2020

हालिया जीएसटी-विवाद: केंद्र और राज्य

 

जीएसटी-विवाद: केंद्र और राज्य

प्रमुख आयाम

1.  जीएसटी-व्यवस्था

2.  जीएसटी-विवाद:

a. मुआवज़े का वैधानिक मैकेनिज्म

b. 15वाँ वित्त-आयोग और जीएसटी

c.  राजस्व में गिरावट और मुआवज़े का बढ़ता बोझ

d. जीएसटी परिषद् और मुआवज़े का प्रश्न

e. जीएसटी कौंसिल-बैठक,अगस्त,2020

f.   केन्द्र सरकार का पक्ष

g. राज्यों की आपत्तियाँ

h. समग्र अर्थव्यवस्था पर असर

3.  जीएसटी मैकेनिज्म की समीक्षा

4.  लास्ट-प्वॉइंट टैक्सका रूप देने का विकल्प

 

जीएसटी-व्यवस्था:

वन नेशन, वन टैक्सवाली जिस जीएसटी व्यवस्था को कॉपरेटिव फेडरलिज्म के मॉडल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, वही व्यवस्था आज केंद्र-राज्य विवाद की वजह बन चुकी है ध्यातव्य है कि जुलाई,2017 में केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा एक्साइज ड्यूटी/ वैट जैसे 17 टैक्सों को मिलाकर जीएसटी लागू किया गया और इसे तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया:

1.  केन्द्रीय जीएसटी(CGST),

2.  राज्य जीएसटी(SGST) और

3.  अंतर्राज्यीय जीएसटी(IGST)

इस वर्गीकरण के हिसाब से राज्यों का जीएसटी में हिस्सा तो तय कर दिया गया, लेकिन जीएसटी के गंतव्य-आधारित टैक्सेशन (Destination-Based Taxation) होने के कारण बड़े मैन्युफैक्चरिंग राज्यों को इस बात की चिंता थी कि उन्हें नयी व्यवस्था के कारण उनके हित प्रतिकूलतः प्रबह्वित होंगे क्योंकि टैक्स उस राज्य के द्वारा वसूला जाएगा जहाँ उसकी बिक्री होगी इसके अलावा, राज्य करारोपण के अपने अधिकारों के छिनने के साथ-साथ कर-राजस्व में कमी को लेकर भी आशंकित थे इसलिए राज्यों की चिन्ताओं के समाधान के लिए सन् 2022 तक पाँच साल के लिए जीएसटी व्यवस्था के कारण राज्यों को होने वाली राजस्व-हानि की भरपाई के लिए मुआवज़े की व्यवस्था की गयी 

मुआवज़े का वैधानिक मैकेनिज्म:

जब जीएसटी व्यवस्था अपनायी जा रही थी, उस समय इसे अपनाये जाने को लेकर राज्यों में हिचक थी क्योंकि उन्हें बिक्री और और एंट्री टैक्स सहित कई मामलों में करारोपण के अपने अधिकार को केंद्र के पक्ष में छोड़ना होता। राज्यों की इस हिचक को दूर करते हुए केंद्र सरकार ने उन्हें यह आश्वस्त किया कि:

1.  राजस्व-हानि की भरपाई के लिए वैधानिक मैकेनिज्म का विकास: जीएसटी व्यवस्था के अंतर्गत अगर राज्यों के कर-राजस्व में 14 प्रतिशत की दर से कम सालाना वृद्धि हुई, तो अगले पाँच साल तक उस कमी की शत-प्रतिशत भरपाई केंद्र सरकार के द्वारा की जायेगी। क्षति-पूर्ति का यह वादा लिखित है, सिर्फ मौखिक नहीं; और इसके लिए एक वैधानिक मैकेनिज्म विकसित किया गया। इस मैकेनिज्म के तहत्:

2.  कम्पनसेशन फण्ड की स्थापना: इस वैधानिक मैकेनिज्म के तहत् कम्पनसेशन के लिए जीएसटी कम्पनसेशन फण्ड की स्थापना की गयी।

3.  कम्पनसेशन सेस का प्रावधान: इस फण्ड में कम्पनसेशन सेस से प्राप्त राशि जमा होनी थी और जिससे राजस्व-हानि की स्थिति में मुआवजा देना था।

4.  कम्पनसेशन सेस से आशय: यह कम्पनसेशन सेस आटोमोबाइल, कोयला, कोल्ड ड्रिंक्स, सिगरेट, शराब वगैरह पर वसूला जाता है। अभी तक के प्रावधानों के मुताबिक, यह टैक्स जून,2022 तक ही वसूला जाना है।

5.  कम्पनसेशन टैक्स वसूलने की अवधि का विस्तार: यह मैकेनिज्म इस बात का भी प्रावधान करता है कि अगर ज़रुरत पड़ी, तो कम्पनसेशन टैक्स वसूलने की पाँच साल की निर्धारित अवधि को आगे भी बढ़ाया जा सकता है और ज्यादा समय तक कम्पनसेशन टैक्स की वसूली की अनुमति दी जा सकती है।

15वाँ वित्त-आयोग और जीएसटी:

अगस्त,2019 से ही केंद्र द्वारा क्षति-पूर्ति भुगतान में टाल-मटोल के मद्देनज़र वित्त-आयोग से यह आशा की जा रही थी कि वह सहकारी संघवाद की मूल भावना के अनुरूप संघीय संतुलन की पुनर्बहाली को सुनिश्चित करने की दिशा में शायद कोई पहल करे। अबतक के अनुभवों के आलोक में वित्त-आयोग ने न केवल जीएसटी के अनुमानित संग्रहण तथा वास्तविक संग्रहण के बीच के अंतर को, बल्कि इसके संग्रहण में अस्थिरता की प्रवृति के साथ-साथ रिफंड और राज्यों को मिलने वाली क्षति-पूर्ति में देरी को भी नोटिस में लिया है। लेकिन, इस मसले पर इसने यह जिम्मेदारी जीएसटी परिषद पर डालते हुए बच निकलने की कोशिश की। यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि 14वें वित्त-आयोग ने ही जीएसटी के मामले में क्षति-पूर्ति का पंचवर्षीय फार्मूला सुझाया था।

राजस्व में गिरावट और मुआवज़े का बढ़ता बोझ:

जुलाई,2016 में 101वें संविधान-संशोधन अधिनियम की धारा 18 के तहत् सन् 2022 तक जीएसटी के कारण राज्यों को होनेवाली राजस्व-हानि की क्षति-पूर्ति की जिम्मेवारी केंद्र सरकार की होगी इसके मद्देनज़र कर-राजस्व की गणना के लिए वर्ष 2016-17 को आधार-वर्ष के रूप में स्वीकार किया गया है और 14 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि की दर से इसका आकलन किया गया है। इस व्यवस्था के तहत् केंद्र-सरकार ने वित्त-वर्ष (2017-18) में 41,146 करोड़ रुपये और वित्त-वर्ष (2018-19) में 69,275 करोड़ रुपये राज्यों को बतौर कम्पनसेशन दिए गए। लेकिन, वित्त-वर्ष (2019-20) तक आते-आते आर्थिक विकास की प्रक्रिया के अवरुद्ध होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था बेपटरी होने लगी और इसका प्रतिकूल असर राजस्व-संग्रहण पर भी पड़ा। फलतः मुआवज़े के ज़रिये राजस्व-हानि की भरपाई में केंद्र सरकार को मुश्किलें आने लगी।

इसके परिणामस्वरूप अक्टूबर,2019 से केंद्र द्वारा मुआवज़े के भुगतान में देरी शुरू हुई और इतनी देरी कि इस साल मार्च का पैसा जुलाई,2020 के अंत में रिलीज किया गया। वित्त-वर्ष (2019-20) में केंद्र सरकार ने मुआवज़े के रूप में राज्यों को 1 लाख 65 हजार करोड़ रुपये की राशि दी। बच-खुचा काम कोरोना-संकट ने कर दिया, और अब आलम यह है कि लेकिन, अब कोरोना और लॉकडाउन की वजह से ठप्प पड़ी अर्थव्यवस्था के कारण अप्रैल-जून,2020 वाली तिमाही में जीएसटी से कमाई में 41 फीसदी की गिरावट आई है। यह गिरावट केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों की कमाई में भी देखी जा सकती है जिसके कारण केंद्र एवं राज्य, दोनों ही सरकारों पर वित्तीय दबाव बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है। अगर चालू वित्त-वर्ष (2020-21) में केंद्र सरकार के द्वारा राज्यों की राजस्व-हानि की भरपाई की जाए, तो उसे करीब तीन लाख करोड़ रुपये देने पड़ेंगे।

अब राज्य सरकारें अपनी वित्तीय मुश्किलों का हवाला देती हुई केंद्र सरकार से मुआवज़े की राशि ट्रांसफर करने की माँग कर रही हैं, और केंद्र किसी-न-किसी बहाने ऐसा करने में अपना असामर्थ्य प्रदर्शित कर रहा है। स्पष्ट है कि मुआवज़े के भुगतान में होने वाले विलम्ब ने केंद्र और राज्यों के बीच तनाव की परिस्थितयों को निर्मित किया है राज्य सरकारों का यह कहना है कि कोविड संकट ने उनकी राजस्व-आय को प्रतिकूलतः प्रभावित किया है, जबकि कोविड की चुनौतियों से निबटने के क्रम में उनका खर्च तेजी से बढ़ा है। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार से मुआवजा नहीं मिलने के कारण उनके लिए अपने दैनन्दिन का खर्च चला पाना मुश्किल हो रहा है।

जीएसटी परिषद् और मुआवज़े का प्रश्न:

भूतपूर्व वित्त-मंत्री पी. चिदम्बरम ने इण्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख ‘प्रॉमिस ब्रोकन, स्टेट्स ब्रोक’ में उस प्रक्रिया का विस्तार से उल्लेख किया जो उस समय राज्यों को भरोसे में लेने के लिए अपनायी गयी थी और इस आलोक में उन्होंने जीएसटी काउन्सिल में होने वाली बहस और अंत में जारी मिनट्स का भी हवाला दिया है। उनके अनुसार, चिदम्बरम का यह आरोप है कि हालिया विवाद में वित्त-मंत्रालय और केंद्र सरकार ने इस पहलू की अनदेखी की है।

इस क्रम में इस बात की भी अनदेखी की गयी है कि जीएसटी परिषद की बैठक में हर सम्भावनाओं पर विचार किया गया है इसमें उस स्थिति की भी चर्चा की गयी है, जब पाँच वर्षों की समाप्ति के बाद फण्ड अधिशेष या घाटे की स्थिति में हो ऐसी स्थिति में:

1.  फण्ड-अधिशेष की स्थिति में केन्द्र को आधा अधिशेष: अगर पाँच वर्षों की समाप्ति के बाद, अर्थात् सन् 2022 के बाद यह फण्ड अधिशेष की स्थिति में रहता है, तो 50 प्रतिशत अधिशेष केंद्र सरकार को ट्रांसफर किया जाएगा

2.    फण्ड-डेफिसिट की स्थिति में केन्द्र द्वारा भरपाई: फरवरी, 2017 में सम्पन्न जीएसटी काउन्सिल अपनी दसवीं बैठक में (8-9)वीं बैठक की चर्चा को समावेशित करते हुए इस निष्कर्ष, जो मिनट्स का हिस्सा है, पर पहुँची कि अगर यह फण्ड घाटे में रहता है, तो तेलंगाना सरकार के प्रतिनिधि की इस सलाह, कि ऐसी स्थिति में अन्य स्रोतों से फण्ड का संग्रह किया जाना चाहिए, के आलोक में सचिव ने कहा, “ड्राफ्ट मुआवज़ा कानून की धारा 8(1) के अनुसार, जीएसटी कंपनसेशन उपकर की वसूली पाँच वर्षों तक, या फिर जीएसटी काउन्सिल के द्वारा प्राधिकृत अवधि तक लिए की जा सकती है। आगे, उन्होंने यह कहा कि इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार अन्य स्रोतों से भी मुआवज़े के लिए भी संसाधन जुटा सकती है और इसके लिए मुआवज़ा उपकर को पाँच साल से आगे के लिए भी बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बाज़ार सहित अन्य स्रोतों से मुआवज़े हेतु संसाधनों को जुटाना जनवरी,2017 में सम्पन्न जेएसटी परिषद् की 8वीं बैठक के अंत में जारी मिनट्स का हिस्सा है, इसीलिए उसे कानून में शामिल करने की ज़रुरत नहीं है। परिषद् उनके इस सुझाव से सहमत हुई।”

जीएसटी कौंसिल की 41वीं बैठक, अगस्त,2020:   

अगस्त,2020 में वस्तु एवं सेवा कर(GST) से जुड़े मुआवजा-विवाद की पृष्ठभूमि में जीएसटी कौंसिल की 41वीं बैठक में केंद्र सरकार ने राज्यों को मुआवज़ा देने में असमर्थता प्रदर्शित की। इस बैठक में वित्त-मंत्री निर्मला सीतारमण ने एडवोकेट जनरल के. के. वेणुगोपाल द्वारा तैयार एक नोट पेश किया, जिसमें राज्यों के समक्ष वैकल्पिक प्रस्ताव रखते हुए उन्हें दो विकल्प सुझाया गया:

1.  पहला विकल्प तो यह है कि राज्य सरकारें जीएसटी की वजह से हुए राजस्व-नुकसान की पूर्ति रिज़र्व बैंक से 97 हजार करोड़ रुपये का कर्ज ले कर करें जिसके लिए केन्द्र सरकार न्यूनतम ब्याज दर सुनिश्चित करेगी, और

2.  दूसरा विकल्प यह कि राज्य अगर चाहें, तो राज्‍य विशेष विंडो की मदद से रिज़र्व बैंक से इस साल की कुल जीएसटी-क्षतिपूर्ति, अर्थात् 2.35 लाख करोड़ रुपये को हासिल करे और इसके लिए रिजर्व बैंक से विचार-विमर्श कर उसकी मदद सुनिश्चित करे।

3.  इसके पीछे केन्द्र सरकार का यह तर्क था कि चूँकि जीएसटी-संग्रह में करीब 2.35 लाख करोड़ रुपए की कमी की संभावना है और इस कमी के कारण केंद्र राजस्व-हानि की भरपाई में असमर्थ हैं, इसलिए आर्थिक मुश्किलों और वित्तीय दबावों से बाहर निकलने के लिए राज्यों को फिलहाल भारतीय रिज़र्व बैंक से उधार ले लेना चाहिए।

4.  केन्द्र सरकार की ओर से यह कहा गया कि राज्य भारतीय रिजर्व बैंक से या बाजार से कर्ज उठा लें और जब राजस्व की वसूली हो जाए, तो उससे कर्ज चुका दिया जाएगा।

5.  सरकार का यह भी प्रस्ताव है कि इस अतिरिक्त उधारी को चुकाने के लिए कम्पनसेशन टैक्स की वसूली जून,2022 कई बाद भी जारी रहे। वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक, यह टैक्स जून,2022 तक ही वसूला जाना है।

के. वेणुगोपाल के द्वारा तैयार किया गया यह नोट केंद्र सरकार के इरादों को दर्शाता हैचर्चा से बचने के लिए केंद्र सरकार ने इस नोट को राज्यों को पहले से मुहैया कराने के बजाय बैठक के अंत में पेश किया, ताकि बैठक के दौरान मुश्किलों से बचा जा सके और बैठक को अपने एजेंडे के अनुरूप संचालित किया जा सके।

केन्द्र सरकार का पक्ष:

केन्द्र सरकार तकनीकी पेचीदगियों के सहारे मुआवज़ा देने की अपनी जिम्मेवारी से बच निकलने की कोशिश में है। उसका कहना है कि:

1.  जीएसटी कम्पनसेशन सेस की सुविधानुसार व्याख्या: केन्द्र-सरकार कानूनी बारीकियों का सहारा लेकर यह तर्क दे रही है कि चूँकि मुआवजे से सम्बंधित प्रावधान के मुताबिक राज्यों को होने वाली राजस्व-हानि की भरपाई कम्पनसेशन सेस के ज़रिये जीएसटी कम्पनसेशन फण्ड में इकट्ठे पैसे से किया जाना है, इसलिए अगर राजस्व-संग्रह कम होने की स्थिति में इस फण्ड में पैसा ही नहीं है, तो मुआवजे का भुगतान कैसे किया जाएगा। इसलिए केंद्र-सरकार राज्यों को होने वाली राजस्व-हानि का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन, राज्य इस बात से सहमत नहीं है।

2.  केन्द्रीय राजस्व का बड़ा हिस्सा राज्यों को ट्रान्सफर किया जाना: केन्द्र सरकार की यह भी दलील है कि वह अपनी कमाई का 42 फीसदी राजस्व तो राज्यों को ही हस्तान्तरित कर देती है, ऐसी स्थिति में उधार लेकर राज्यों की राजस्व-हानि की भरपाई सम्भव नहीं है।

3.  तकनीकी कारणों से केंद्र रिज़र्व बैंक से कर्ज़ लेने में समर्थ नहीं: केंद्र द्वारा क़र्ज़ लेने में तकनीकी जीएसटी में मुआवजे का हिस्सा राज्यों को मिलने वाले टैक्स का हिस्सा है, इसलिए उसके आधार पर केंद्र सरकार कर्ज नहीं ले सकती है। केंद्र सरकार सिर्फ अपने हिस्से के टैक्स के बदले में ही कर्ज उठा सकती है। चूँकि मुआवजा राज्यों के टैक्स का हिस्सा है, इसलिए राज्यों को ही कर्ज लेना होगा।

4.  निम्न जीडीपी-खर्च अनुपात के कारण राज्य कम राजस्व-वसूली के दबाव झेलने में कहीं अधिक सक्षम: केंद्र सरकार राज्यों में जीडीपी-खर्च अनुपात, जो अधिकांश भाजपा-शासित राज्यों में (25-30) फीसदी के आसपास है और कई विपक्ष-शासित राज्यों में अपेक्षाकृत ज्यादा, का हवाला देते हुए कह रही है कि राज्य सरकारों का खर्च इतना ज्यादा नहीं है और इसलिए वे इस दबाव को मैनेज कर सकने की स्थिति में है। केरल सरकार का निर्धारित प्रशासनिक खर्च उसकी जीडीपी के 56 फीसदी से भी ज्यादा है और पश्चिम बंगाल में 40 फीसदी के करीब, जिसके कारण ये राज्य नकदी-संकट का सामना कर रहे हैं और मुआवजा न मिलने की स्थिति में इनकी स्थिति बिगड़ेगी।

5.  राज्यों की आर्थिक सक्षमता के प्रमाण हैं 1.8 लाख करोड़ के ट्रेजरी बिल्स: केंद्र सरकार राज्यों से कह रही है कि उन्होंने ट्रेजरी बिल्स के तौर पर एक लाख 80 हजार करोड़ रुपए जमा किए हुए हैं और इसलिए वे नहीं कह सकते हैं कि उनके पास पैसे नहीं है। ध्यान रहे ट्रेजरी बिल्स पूँजी-बाजार का एक समाधान है, जिसका इस्तेमाल लघु-अवधि की तरलता की समस्या को दूर करने के लिए किया जाता है। इससे राज्यों में नाराजगी है क्योंकि उनको लग रहा है कि सरकार उनके खातों पर नजर रखे हुए है और उस आधार पर उन्हें उनका हिस्सा देने से मना कर रही है।

केंद्र सरकार का यह कहना है कि 2.35 लाख करोड़ की संभावित राजस्व-हानि में महज 97 हजार करोड़ का राजस्व-नुकसान जीएसटी के कारन हुआ है और शेष 1.38 लाख करोड़ रुपए के राजस्व-नुकसान के मूल में कोविड-19 संकट और इससे निपटने के लिए लागू लॉकडाउन है, यद्यपि केंद्र सरकार के इस दावे के पीछे कौन-सी रिपोर्ट और कौन-सा आकलन है, केंद्र सरकार इस मसले पर कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन, केंद्र सरकार के इस तर्क से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि वह कोविड के कारण होने वाली राजस्व-हानि के भुगतान से बचना चाहती है और यह भी चाहती है कि उसी के अनुसार जीएसटी के कारण होने वाली राजस्व-हानि की तत्काल भरपाई भी राज्य सरकारें रिज़र्व बैंक से उधर लेकर करें और उधारी के ब्याज का वित्तीय बोझ खुद वाहन करें। देर-सबेर केंद्र सरकार सामान्य स्थिति के पुनर्बहाल होने पर इस राजस्व-हानि की भरपाई कर देगी। ऐसा करते हुए केंद्र सरकार अपने बैलेंस-शीट को दुरुस्त रख सकेगी आयर फिस्कल आँकड़ों को नियंत्रण में रखा जा सकेगा और केंद्र सरकार के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की आर्थिक सेहत को दुरुस्त दिकह्या जा सकेगा।

राज्यों की आपत्तियाँ:

लेकिन, 31 अगस्त को आठ गैर-भाजपा शासित राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों: पंजाब, पश्चिम बंगाल, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, राजस्थान और पुदुचेरी ने केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए ज़रुरत पड़ने पर केंद्र सरकार के उपरोक्त सुझावों को वैधानिक चुनौती देने के विकल्प को भी खुला रखा है, यद्यपि इसे आखिरी विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। बिहार के उपमुख्यमंत्री और वित्त-मंत्री सुशील मोदी ने भी केंद्र के इस रवैये को लेकर अपनी नाखुशी प्रदर्शित करते हुए कहा कि केंद्र नैतिक रूप से, यदि कानूनी तौर पर नहीं, तो राज्यों को मुआवजा देने के लिए बाध्य है, हालाँकि बाद में 29 अगस्त को उन्होंने अपने बयान वापस ले लिए। केरल के वित्त-मंत्री थॉमस इसाक ने कहा कि राज्य न सिर्फ केंद्र सरकार का प्रस्ताव ठुकरा रहे हैं, बल्कि तीसरे विकल्प के रूप में रिज़र्व बैंक अथवा सीधे बाज़ार से उधारी लेकर, या फिर अन्य देशों की तरह हीनार्थ प्रबंधन के ज़रिये क़र्ज़ के मौद्रीकरण के माध्यम से राज्य सरकार को मुआवज़ा उपलब्ध करवाने के विकल्प अपनाने का सुझाव केंद्र सरकार को दिया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में विशेष रूप से कोरोना-काल में राज्य के सीमित संसाधनों और व्यापक उत्तरदायित्व का हवाला देते हुए कहा कि कोरोना की वजह से राज्यों का खर्च बढ़ गया है और जीएसटी के लागू होने के बाद से उसके राजस्व में कमी आई है, जबकि केंद्र की अब भी कर-राजस्व सहित व्यापक संसाधनों तक पहुँच है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पत्र में केन्द्र सरकारों के सुझावों को अपनाये जाने की स्थिति में राज्यों पर पड़ने वाले भारी वित्तीय बोझ का हवाला दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री से कानूनी रूप से व्यवहार्य विकल्प पर विचार करने की अपील करते हुए कहा कि जीएसटी परिषद को केंद्र को अपनी ओर से कर्ज लेने के लिए अधिकृत करने के मामले में विचार करते हुए जीएसटी कंपनसेशन-उपकर के संग्रह की अवधि सन् 2022 से आगे बढ़ानी चाहिए। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में उपरोक्त सुझावों की अव्यवहार्यता का हवाला देते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीस्वामी ने कहा, “केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित दोनों विकल्पों में राज्यों को उधार लेना है, जो प्रशासनिक रूप से क्रियान्वित करना मुश्किल है और अधिक मँहगा है। चाहे भारत सरकार उधार ले या फिर राज्य सरकारें, रेटिंग एजेंसियाँ या फिर अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली अन्य एजेसियों के लिए सरकारी घाटा ही प्रासंगिक है।” प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में राज्यों की वित्तीय मुश्किलों और संघीय भावनाओं का हवाला देते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने कहा, “मैं जीएसटी से सम्बंधित जटिलताओं को लेकर परेशान हूँ, जो राज्य के प्रति भारत सरकार के विश्वास और नैतिक जिम्मेदारी के साथ विश्वासघात करने के बराबर है और जो संघवाद के नियमों की अवहेलना करता है।”

स्पष्ट है कि केंद्र के इस प्रस्ताव पर विपक्ष-शासित राज्यों ने दो टूक अंदाज में कर्ज लेने से मना कर दिया। राज्यों की आपत्ति निम्न सन्दर्भों में है:

1.  राजस्व-हानि की भरपाई केन्द्र सरकार की जिम्मेवारी: चूँकि राजस्व-हानि की भरपाई केन्द्र सरकार की जिम्मेवारी है, इसीलिए वह कर्ज ले और राज्यों को उनका हिस्सा दे। अगर वह स्वयं उधार लेकर ऐसा कर पाने में असमर्थ है, तो वह राज्यों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करे और उसके पुनर्भुगतान के साथ-साथ ब्याज-भुगतान की जिम्मेवारी भी स्वीकार करे। यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जीएसटी कम्पनसेशन मैकेनिज्म राज्यों के प्रति क्षति-पूर्ति सम्बंधी केन्द्र सरकार के दायित्वों के निर्वाह में सहायक है, न कि दायित्वों का निर्वाह इस मैकेनिज्म पर निर्भर करता है। लेकिन, समस्या यह है कि केन्द्र कर्ज लेकर राज्यों को उनका हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं है।

2.  ट्रेजरी बिल्स और निम्न जीडीपी-खर्च अनुपात केंद्र सरकार को जिम्मेवारी से बचने का रास्ता उपलब्ध नहीं करवाता: ट्रेजरी बिल्स के तौर पर चाहे उनके जितने पैसे जमा हों या जीडीपी के मुकाबले उनका निर्धारित खर्च कितना भी कम हो, इससे केंद्र को मतलब नहीं होना चाहिए क्योंकि कर-राजस्व में नुकसान की भरपाई के लिए जीएसटी में जब मुआवजे का प्रावधान किया गया।

3.  राजस्व-नुकसान का वर्गीकरण जिम्मेवारी से बचने का बहाना और इसके कारण राज्यों की नाराज़गी: राज्यों की नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि केंद्र सरकार अपनी जिम्मेवारियों से बचने के लिए जीएसटी के कारण राज्यों को होने वाले 2.35 लाख करोड़ रुपए के राजस्व-नुकसान को बड़ी चालाकी से 97 हजार करोड़ का जीएसटी राजस्व-नुकसान और 1.38 लाख करोड़ रुपए के कोविड-नुकसान के रूप में वर्गीकृत कर रही है।

4.  उधारी-सीमा से सम्बंधित राज्य सरकारों की व्यावहारिक मुश्किलें: इस सन्दर्भ में राज्य सरकारों की व्यावहारिक मुश्किलों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। भूतपूर्व वित्त-मंत्री पी. चिदम्बरम ने इसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “वित्त-वर्ष 2020-21 में प्रत्येक राज्य के द्वारा अपने राज्य जीडीपी (GSDP) के 3 प्रतिशत की उधारी-सीमा को लाँघे जाने की सम्भावना है और इसीलिए उन्होंने केंद्र सरकार से उधारी-सीमा में अधिक लोचशीलता की माँग की जिसके एवज में उन्हें 0.5 प्रतिशत की छूट मिली। लेकिन, यह उम्मीद की जा रही है कि इस साल के अंत-अंततक वे इस सीमा को भी अतिक्रमित कर जायेंगे। इससे अधिक की उधारी के लिए उन्हें उन शर्तों को पूरा करना होगा जिसके लिए राज्य सरकारें तैयार नहीं हैं।”

5.  राज्यों की तुलना में केंद्र उधारी लेने में कहीं अधिक सक्षम: जैसा कि भूतपूर्व वित्त-मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि केंद्र सरकार के पास संप्रभु शक्तियाँ हैं जिसका इस्तेमाल करते हुए वह रिज़र्व बैंक से अधिकारपूर्वक क़र्ज़ की माँग कर सकती है, अपने लिए न्यूनतम ब्याज दर पर क़र्ज़ की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती है, क़र्ज़ का मौद्रीकरण करते हुए रिज़र्व बैंक से उतनी मात्रा में अतिरिक्त मुद्रा छपने का निर्देश दे सकती है और रिज़र्व बैंक से उसके लाभ में लाभांश की माँग कर सकती है। ये सारी सुविधाएँ राज्यों के पास उपलब्ध नहीं हैं। उन्हें रिज़र्व बैंक से क़र्ज़ लेने के लिए केंद्र की ओर से पूर्वानुमति की ज़रुरत होगी और ब्याज भी अधिक चुकाना होगा। इसलिए राज्यों की तुलना में केन्द्र के लिए क़र्ज़ लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर होगा, इसलिए भी कि इससे केंद्र के लिए अपनी विश्वसनीयता को बचाए रखना संभव हो पायेगा।      

अब इस मसले पर जीएसटी काउन्सिल की अगली बैठक, जो पहले 19 सितम्बर को प्रस्तावित थी और जिसे स्थगित करते हुए 5 अक्टूबर को पुनर्निर्धारित किया गया है, में विचार किया जाएगा

समग्र अर्थव्यवस्था पर असर और केन्द्र सरकार की दुविधा:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि जीएसटी कम्पनसेशन की भरपाई का पेंच सुलझाने के लिए केंद्र सरकार और गैर-भाजपाई राज्यों के बीच तनाव का माहौल बन चुका है। गैर-भाजपाई राज्यों का कहना है कि केंद्र स्वयं उधारी ले कर उन्हें धन उपलब्ध कराये। अब केन्द्र सरकार की समस्या यह है कि अगर वह रिज़र्व बैंक से एकमुश्त 2.35 लाख करोड़ रुपये की उधारी लेकर राज्यों को मुआवज़ा देने की दिशा में पहल करती है, तो केंद्र की देनदारियाँ भी बढ़ेंगी और उस पर ब्याज-भुगतान का बोझ भी बढ़ेगा। यह स्थिति केन्द्र की राजकोषीय स्थिति को बिगाड़ती हुई एक ओर मँहगाई को उत्प्रेरित करेगी, दूसरी ओर कोविड-19 संकट के बाद के दौर में अर्थव्यवस्था में सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली की प्रक्रिया को भी अवरुद्ध कर सकती है क्योंकि सरकार पर देनदारियों का बढ़ा हुआ दबाव सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाओं के लिए संसाधनों की उपलब्धता को प्रतिकूलतः प्रभावित करेगी

इसका विकल्प डेफिसिट फाइनेंसिंग अर्थात् नए नोटों की छपाई और कर्ज के मौद्रीकरण के ज़रिये राज्यों की राजस्व-हानि की भरपाई है लेकिन, यह कदम भी एक ओर मुद्रास्फीतिक दबाव को बढ़ाने वाला साबित होगा, दूसरी ओर राजकोषीय अनुशासन पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा शायद इसीलिए केन्द्र सरकार इन दोनों विकल्पों से बचते हुए उस जिम्मेवारी को लेने से परहेज़ करती हुई यह जिम्मेवारी राज्यों पर थोपने की कोशिश कर रही है। लेकिन, समस्या यह है कि क़र्ज़ चाहे केंद्र सरकार के द्वारा लिए जाएँ या फिर राज्य सरकारों के द्वारा, अंतिम रूप से परिणाम तो संयुक्त रूप से केन्द्र-राज्य के क़र्ज़ के स्तर और क़र्ज़-जीडीपी अनुपात में वृद्धि के रूप में सामने आयेगा। मोतीलाल ओसवाल फाइनेंशिएल सर्विसेज की ताजी रिपोर्ट बताती है कि केंद्र एवं राज्य जिस हिसाब से कर्ज ले रहे हैं, उसे देखते हुए वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के मुकाबले केंद्र एवं राज्यों का संयुक्त कर्ज का स्तर पिछले वित्त-वर्ष के 75 फीसद से बढ़कर  91 फीसद हो जाएगा। इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था की अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग पर और तदनुरूप अंतर्राष्ट्रीय निवेश पर पड़ सकता है।

जीएसटी मैकेनिज्म की समीक्षा:

अर्थशास्त्री अरुण कुमार का मानना है कि दरअसल, भारत में जीएसटी की बुनियाद ही कमजोर है, और इसके मूल में है मज़बूत असंगठित क्षेत्र की मौजूदगी। इसीलिए फ़्रांस में असंगठित क्षेत्र की गैर-मौजूदगी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना फ्रांस से नहीं की जा सकती है जहाँ यह 1954 से यह लागू है। इसी तरह अमेरिका ने तो अब तक न वैट (VAT) लागू किया है, और न जीएसटी। इसलिए, उनका मानना है कि देश के आर्थिक ढाँचे के मुताबिक कर-ढाँचा बनना चाहिए और इसे वास्तविक अर्थ में सरल भी होना चाहिए। दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित अपने आलेख ‘जीएसटी वही, जिससे सबको फायदा’ में उन्होंने जीएसटी-व्यवस्था की जटिलता की ओर इशारा करते हुए कहा:

1.  टैक्सेशन की जटिलता: जुलाई,2017 में ‘वन नेशन, वन टैक्स’ का हवाला देते हुए इसे जस्टिफाई करने की कोशिश की गयी और यह कहा गया कि इससे पेपर-वर्क कम होने के कारण टैक्स-फाइलिंग में आसानी होगी जिससे कारोबारियों को राहत मिलेगी, लेकिन व्यापक तौर पर इसने कर-प्रक्रिया को और उलझा दिया है। उन्होंने मोटा-मोटी अनुमान लगाया कि जीएसटी के तहत् देश भर में हर महीने करीब चार अरब प्रविष्टियाँ दर्ज की जाती हैं। एक कम्पनी को साल भर में 37 रिटर्न फाइल करनी होती है, और अखिल भारतीय कारोबार की स्थिति में कार-निर्माता कम्पनी को आज भी हर साल करीब 1,100 फॉर्म भरने पड़ते हैं।

2.  इनपुट क्रेडिट का मसला: उनका मानना है कि इनपुट क्रेडिट का मसला भी जीएसटी को जटिल बनाता हैवर्तमान में तमाम कम्पनियाँ परिवहन, लेखा-जोखा संबंधी कामों, स्टोरेज आदि मदों के लिए अलग-अलग टैक्स चुकाती हैं और उन पर इनपुट क्रेडिट लेती हैं। इस व्यवस्था की दो प्रमुख खामियाँ हैं:

a. एक तो इनपुट क्रेडिट का लाभ लेने के लिए कम्पनियों का फर्जीवाड़ा शुरू हो चुका है और

b.  दूसरे, इनपुट क्रेडिट व्यवस्था का लाभ संगठित क्षेत्र को तो मिलता है, पर असंगठित क्षेत्र को नहीं।

3.  असंगठित क्षेत्र पर प्रतिकूल असर: इनपुट क्रेडिट के कारण संगठित क्षेत्र की लागत कम हो जाती है और असंगठित क्षेत्र की तुलना में संगठित क्षेत्र को प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त मिलती है। यही कारण है कि ग्राहकों का रुझान संगठित क्षेत्र की ओर बढ़ रहा है जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के फॉर्मलाइजेशन की प्रक्रिया तेज हुई है और दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में इसका लाभ संगठित क्षेत्र के साथ-साथ सरकार को भी मिलने की सम्भावना है। लेकिन, इसके कारण असंगठित क्षेत्र धीरे-धीरे बिखर रहे हैं जिसका प्रतिकूल असर अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। अबतक के तमाम अध्ययन बतलाते हैं कि नोटबन्दी के साथ-साथ जीएसटी की वजह से असंगठित क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ है। असंगठित क्षेत्र के उद्यमों को जीएसटी से छूट तो दी गई है, फिर उनकी संरचना कुछ ऐसी है कि वे इनपुट क्रेडिट का लाभ ले पाने की स्थिति में नहीं हैं। ध्यातव्य है कि वर्तमान में असंगठित क्षेत्र में करीब छह करोड़ कम्पनियाँ हैं, जिनका कुल कारोबार जीडीपी का करीब 31 फीसदी है और जिससे भारतीय श्रम-बाज़ार का 90 प्रतिशत श्रम-बल सम्बद्ध है ।

जीएसटी को लास्ट-प्वॉइंट टैक्सका रूप देने का विकल्प:

इसी आलोक में इसी आलोक में उन्होंने यह सुझाव दिया कि चूँकि अंत में कर का सारा बोझ उपभोक्ता ही वहन करता है, ऐसे में अगर जीएसटी को लास्ट-प्वॉइंट टैक्सका रूप देते हुए अंतिम चरण में ही टैक्सेशन की व्यवस्था अपनायी जाती है, तो फर्जी कम्पनियों के माध्यम से चल रहे इनपुट क्रेडिट के खेल को भी रोका जा सकता है और जीएसटी की मासिक प्रविष्टियाँ करीब चार अरब से घटकर चार करोड़ रह जाने के कारण इसकी जटिलता कम हो जाएगी। लिहाजा, जीएसटी को लास्ट-प्वॉइंट टैक्सबना देने से कुछ कम्पनियाँ टैक्स देने से बच सकती हैं, पर इसकी भरपाई कर-व्यवस्था के सरलीकरण के कारण टैक्स अदायगी को मिलने वाले प्रोत्साहन से हो सकती है। उनका कहना है कि वर्तमान में जीएसटी के तहत् रजिस्टर्ड 1.2 करोड़ इकाइयों में से केवल 70 लाख इकाइयाँ टैक्स देती हैं और इनमें कुल कर-संग्रह का 95 फीसदी करीब पाँच प्रतिशत कम्पनियों से आता है। साथ ही, इसका सबसे बड़ा लाभ असंगठित क्षेत्र को मिलेगा, जो जीएसटी के कारण बुरी तरह हलकान है।

स्रोत-सामग्री:

1.  जीएसटी पर केंद्र विफलता माने: शशांक राय सितम्बर 9, 2020

2.  जीएसटी मसले पर मोदी निज़ाम का रुख संघवाद पर एक बड़ा हमला है: अगस्त 31, 2020

3.  जीएसटी वही, जिससे सबको फायदा: अरुण कुमार, अगस्त 28, 2020

4.  जीएसटी कंपनसेशन विवाद: हिमांशु शेखर मिश्र  प्रवीण प्रसाद सिंह   30 अगस्त, 2020

5.  Promise Broken, States Broke: P. Chidambaram,  September 20, 2020

 

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