Friday 11 March 2022

भारतीय राजनीति और पुनरुत्थानवाद (समीक्षात्मक आलेख)

 

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है 
दुश्नाम[1] तो नहीं है, ये इकराम[2] ही तो है

दिल ना-उमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है, 
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है
अर्थ: 1.गाली 2.सम्मान
बहुत कोशिश कर रहा हूँ सहज रहने की, पर ऐसा करना आसान नहीं है बहुत मुश्किलें आयी, खुद को रोकने की कोशिश भी की, पर ऐसा संभव नहीं हो पाया। प्रतिक्रिया के क्षणों में ये विचार आते रहते हैं कि हम ऐसे ही नेतृत्व की डिजर्व करते हैं और गाहे-बगाहे इस विचार को अभिव्यक्त भी करता रहा, लेकिन बार-बार खुद को समझाना पड़ा कि जनता कभी गलत नहीं होती। लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक मूल्यों का तकाज़ा भी यही है। दरअसल यह कोशिश है, अपनी असफलता को निरीह जनता के हाथों मढ़ने की, और इस तथ्य को झुठलाने की कि विचार और विचारधारा भरे पेट की उपज होती है। जिस देश की आधी आबादी गरीबी रेखा के आस-पास ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त है, उससे यह अपेक्षा करना है कि वह अपने संकीर्ण हितों की कीमत पर ऐसा त्याग करे जो व्यापक राष्ट्रीय-सामाजिक हित के मद्देनज़र अपेक्षित है, उसके साथ ज्यादती है। इसी उधेड़-बुन में समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक की शरण में पहुँचा, इस सोच के साथ कि अपनी बेचैनी को रचनात्मक दिशा दूँ। और, इसका सुखद पहलू यह रहा कि यहाँ से आगे की दिशा मिलती हुई भी दिखाई पड़ी।          

समाजवादी चिन्तक किशन पटनायक की पुस्तक है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। इस पुस्तक में संकलित आलेखों में से एक आलेख है ‘पुनरुत्थानवादी ताकतें कौन-सी हैं’ मूलतः नवम्बर,1982 में प्रकाशित इस आलेख में परम्परा को स्थिर के बजाय गतिशील संकल्पना बतलाते हुए वे लिखते हैं, “नयी परम्परा बनती रहती है, पुरानी परम्परा घटती रहती है, कभी लुप्त होती है और कभी पुनर्जीवित हो जाती है। परम्परा अच्छी और बुरी दोनों होती है।” उन्होंने परम्परा के साथ पुनरुत्थानवाद के सम्बंध को स्थापित करते हुए लिखा है, “आधुनिकता के सतही और अवैज्ञानिक तथा असफल प्रयोग से ही पुनरुत्थानवाद का जन्म होता है।” वे समाज की बुनियाद में पुनरुत्थानवाद के बीज की मौजूदगी मानते हैं और इसे आधुनिकता को जबरन थोपे जाने के प्रति अतीत के प्रतिरोध के रूप में परिभाषित करते हैं, “अगर अतीत से कोई पुरानी सभ्यता चली आ रही है, तो प्रतिरोध की ताकत उसी से मिलती है। इसी प्रतिरोध का नाम पुनरुत्थानवाद है। इसकी दिशा एवं भूमिका कितनी भी प्रतिगामी हो, इसका उद्गम-स्थल समाज की बुनियाद है।” उनकी नज़रों में, पुनरुत्थानवाद अतीत एवं वर्तमान के बीच असामंजस्य का परिणाम है। वे लिखते हैं, “अपनी संस्कृति और इतिहास को समझते हुए अगर समाज का नवीकरण नहीं हो पाता, तो जड़ता या पुनरुत्थानवाद की सम्भावना बनी रहती है।”  स्पष्ट है कि जहाँ परम्परा के जीवंत मूल्यों का पुनरोद्धार जहाँ नवीकरण का आधार तैयार करता है, वहीँ परम्परा के जीवंत के साथ-साथ जीर्ण मूल्यों का पुनरोद्धार पुनरोत्थान का आधार तैयार करता है। इस स्थिति से बचने के लिए ही वे आधुनिकता के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि पर बल देते हैं। यही आलोचनात्मक दृष्टि अतीत एवं वर्तमान के बीच सामंजस्य का आधार तैयार करती है। वे लिखते हैं, “अतीत को पार करने का मतलब है अतीत का क़र्ज़ चुकाते हुए, अतीत को हज़म करते हुए वर्तमान को बनाना।”

आज़ाद भारत के नेतृत्व की विफलता:

पुनरुत्थानवाद की चुनौतियों के लिए उन्होंने भारतीय बुद्धिजीवियों और राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेवार ठहराते हुए कहा, “पिछड़े मुल्कों के समाज में राजनेता की एक निर्णायक भुमिका होती है। बुद्धिजीवी वर्ग का वही प्रतिनिधित्व करता है और उसके माध्यम से ही बुद्धिजीवी समूह अपना काम करते हैं। राजनेता और बुद्धिजीवी दोनों का चरित्र एक जैसा होता है।----एक जैसी दृष्टि और एक जैसा चरित्र।” अपने संकीर्ण हितों को साधने के लिए इन्होंने मूर्ति-पूजा और जातिवाद को बनाए रखने में अहम् भूमिका निभायी। वे लिखते हैं, “आजादी के बाद राजनेता और बुद्धिजीवियों में मूर्ति-पूजा बढ़ी ......। जाति-प्रथा मज़बूत होकर राजनीति तथा विश्वविद्यालय में व्याप्त हो चुकी है। उसके खिलाफ आन्दोलन की कोई सशक्त धारा नहीं है।” इतना ही नहीं, आजादी के बाद शहर-केन्द्रित विकास-नीति को अपनाते हुए उपभोग को प्रोत्साहित करने की कोशिश की गयी। इसके परिणामस्वरूप उपभोक्तावादी संस्कृति का तेज़ी से विकास हुआ जिसने असमान विकास को जन्म दिया। उनका यह मानना है कि “आजादी के पहले आधुनिकीकरण की राष्ट्रीय धारा सही और वैज्ञानिक थी। इतिहास, संस्कृति और भौतिक सीमाओं को समझकर उसका प्रयोग हो रहा था। इसलिए पुनरुत्थानवाद या हिन्दू महासभा एक सशक्त धारा नहीं बन सकी। आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद् सशक्त बन रहे हैं क्योंकि भारत के राजनेता और बुद्धिजीवी नकली आधुनिकीकरण को अपनाने के साथ-साथ जाति-व्यवस्था और मूर्ति-पूजा को भी बढ़ावा देते हैं।” उन्होंने उन परिस्थितियों को भी रेखांकित किया जिनमें जातिवाद और मजबूती से स्थापित होता चला गया। यदि रोटी और बेटी के सम्बंध ने इसकी निरंतरता को सुनिश्चित किया, तो राजनीतिक ज़रूरतों की पृष्ठभूमि में वोटबैंक की राजनीति ने इसके फलने-फूलने के लिए अनुकूल अवसर निर्मित किये।

किशन पटनायक की नज़रों में, यदि भारतीय समाज में जातिवाद हावी है, तो उसका कारण है ‘जाति का ढोंग’। इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, “जब हम जाति को न मानने का ढोंग करते हैं, लेकिन जातिवाद के खिलाफ़ कोई ठोस काम नहीं करते, तब जाति का अनुप्रवेश इतना अधिक होता है कि राजनीति और विश्वविद्यालय जैसे सेक्युलर कार्यकलाप में भी वह हावी हो जाती है।” उनका निष्कर्ष है, “अगर हमारी राजनीति में जातिवाद और जाति-प्रथा के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं है, तो दलों के अन्दर जातीयता ज़रूर हावी होगी।”  

जातिवाद और साम्प्रदायिकता का अंतर्संबंध:

जातिवाद को पुनरुत्थानवादी मूल्य के रूप में रेखांकित करते हुए किशन पटनायक लिखते हैं, “जो जातिवादी है, वह सक्रिय रूप से सांप्रदायिक आचरण न भी करे, तो भी साम्प्रदायिकता से ऊपर नहीं उठ सकता।” आगे, वे सांप्रदायिक राजनीति के उभार के लिए बहुसंख्यक समाज में जाति-आधारित राजनीति के प्रचालन को जिम्मेवार ठहराते हैं, “भारत का बहुसंख्यक धर्म वाला समाज हिन्दू है। अगर उसमें अलगाव की प्रवृति बढ़ेगी, अल्पसंख्यक धर्मों में लाजिमी तौर पर अलगाव बढ़ेगा ही। अगर राजपूत, भूमिहार और यादव नेता जाति के बल पर राजनीति चलाएँगे, तो जिन समूहों में ब्राह्मण, राजपूत, यादव नहीं हैं, केवल धर्म है, वहाँ धर्म की राजनीति अवश्य चलेगी।” उनका यह मानना है कि इस स्थिति के लिए वह सामाजिक अलगाव जिम्मेवार है जो नकली आधुनिकीकरण द्वारा उत्प्रेरित विषमता की उपज है

भारतीय सेक्युलर ताकतों के अंतर्विरोध:

इसलिए भारत के सारे राजनीतिक दलों पर पुनरुत्थानवादी होने का आरोप लगाते हुए वे कहते हैं, “जाति-व्यवस्था के खिलाफ़ आन्दोलन न चलने के फलस्वरूप देश के सारे राजनीतिक दल पुनरुत्थानवाद के और साम्प्रदायिकता के सहायक हैं।” इसी आलोक में वे कहते हैं, “भारतीय जनता पार्टी को पुनरुत्थानवादी कहना आसान हो गया है। लेकिन, जनता पार्टी, काँग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी को पुनरुत्थानवादी क्यों नहीं कहा जाता है? .... हिन्दू होकर द्विजों की राजनीति करना, हिन्दू समाज को बदलने की कोई नीति या कार्रवाई न चलाना, यह अखिल भारतीय राजनीतिक दलों की बेईमानी है, जो अपने को सेक्युलर कहते हैं। इनमें से किसी के पास धर्म-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था बदलने का कार्यक्रम नहीं है।” उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्षता के अंतर्विरोधों को उद्घाटित करते हुए लिखा है, “सब धर्मों की रूढ़िवादिता को प्रोत्साहित करना ही सेक्युलर समझा जाता है। हिन्दुओं की जाति-प्रथा और मुसलमानों की शरीअत के विरुद्ध कुछ नहीं करना ही सेक्युलर माना जाता है।” भाजपा और तथाकथित सेक्युलर राजनीतिक दलों की पुनरुत्थानवादी चेतना के फर्क को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं, “फिर भी, हम हिन्दू पुनरोत्थानवाद की सारी जिम्मेदारी भारतीय जनता पार्टी के ऊपर डालकर अपने विवेक को शांत रखते हैं। मैं इतना फर्क मान सकता हूँ कि भारतीय जनता पार्टी की साम्प्रदायिकता में मुसलमान विद्वेष है, जनता पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी की साम्प्रदायिकता में एक विशेष गुण के रूप में यह नहीं है।    

विश्लेषण:

स्पष्ट है कि किशन पटनायक ने समकालीन भारत की चुनौतियों को आधुनिकीकरण के अंतर्विरोधों, पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के बढ़ाते वर्चस्व और इसके द्वारा उत्प्रेरित पुनरुत्थानवादी चेतना के उभार से सम्बद्ध करके देखा है। अपने इस आलेख में उन्होंने जितनी बेबाकी से पुनरोत्थानवाद को धर्म तक सीमित रखने के बजाय धर्म एवं जाति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में न केवल देखा है, वरन् इन दोनों के बीच एक सह-सम्बन्ध की भी पड़ताल की है, वह आज के भारत के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है और वर्तमान संकट की व्याख्या कर पाने में पूरी तरह से समर्थ है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने इस स्थिति के लिए भारतीय राजनीतिज्ञों के साथ-साथ भारतीय बुद्धिजीवियों को भी जिम्मेवार ठहराया है जिनके सेलेक्टिविज्म ने इस संकट को गहराने में अहम् भूमिका निभायी है।

लेकिन, वे संकट के रेखांकन तक सीमित नहीं रहते, वरन् उसके समाधान की संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं। उनकी नज़रों में, भारत तबतक इन चुनौतियों से नहीं उबार सकता है जबतक कि भारतीय बुद्धिजीवी और राजनीतिक नेतृत्व अपने दोहरेपन से मुक्त होते हुए जाति-प्रथा और धार्मिक रुढ़िवाद के विरुद्ध सघन अभियान नहीं चलाते और इसके लिए सड़कों पर संघर्ष के लिए नहीं तैयार होते। लेकिन, इतना ही काफी नहीं है। इसके लिए पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध सांस्कृतिक क्रान्ति के उद्घोष करते हुए एक ऐसी आर्थिक नीति की दरकार है जो आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सबको भागीदार बनाते हुए इसके लाभों की सब तक पहुँच को सुनिश्चित कर सके, ताकि लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकें। जब तक ऐसा नहीं होता, तबतक इन चुनौतियों से निबटना मुश्किल है।   

 

 

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