Tuesday, 23 June 2020

पड़ोसी देशों के प्रति भारतीय नीति: पंचशील


पड़ोसी देशों के प्रति भारतीय नीति: पंचशील
प्रमुख आयाम
1. पंचशील फिर से चर्चा में
2.  पंचशील की पृष्ठभूमि
3.  पंचशील से आशय
4.  पंचशील का आविर्भाव
5.  पश्चिमी कूटनीतिक वर्चस्व में एशियाई दखल
6.  पंचशील-विवाद: चीनी दावा और उसकी अहमियत
7.  पंचशील: नेहरु का रुख
8.  भारत और पंचशील
9.  पंचशील की भ्रूण-ह्त्या
10.  नेहरुवादी विदेश-नीति का पुनर्परिभाषित होना: 1990’s

पंचशील फिर से चर्चा में:
मई,2014 में भारत का प्रधानमंत्रित्व सँभालने के बाद नरेन्द्र मोदी ने क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में जो सक्रियता दिखलायी, उसने कइयों को हतप्रभ कर दिया। नेहरु के बाद शायद ही किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में इतने कम समय में अपने धमक महसूस करवाई हो। इस क्रम में उन्होंने ‘पड़ोस प्रथम’ की बात करते हुए नेपाल और भूटान को कहीं अधिक तवज्जो दिया। साथ ही, उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा चीन पर केन्द्रित करते हुए उसके साथ भारत के संबंधों में सुधार को प्राथमिकता दी। ऐसा लगा कि भारत-चीन द्विपक्षीय सम्बन्ध एक बार फिर से 1950 के दशक के पूर्वार्द्ध में ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ वाली मनोदशा में पहुँच चुका है। आर्थिक कूटनीति और इसके परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित होती भू-राजनीति के इस दौर में यह अस्वाभाविक नहीं था, अस्वाभाविक था उस सबक को भूलना जो सन् 1962 में चीन के हाथों मिला। इसलिए देर-सबेर इसकी सजा तो मिलनी ही थी और वो मिली भी, जून,2020 में पूर्वी लद्दाख स्थित गलवान घाटी में, जहाँ चीनी सैनिकों के हाथों भारत के बीस सैनिक अत्यन्त बर्बर तरीके से शहीद हुए। उसके बाद पूरे देश में एक ऐसा माहौल सृजित हुआ जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन को लेकर अत्यन्त उदार एवं नरम रुख अपनाने के लिए आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू हुई। लेकिन, इसी की पृष्ठभूमि में बायकॉट चाइना ने चीन-विरोधी माहौल सृजित करते हुए उत्तेजना का जो वातावरण निर्मित किया, उसमें सीमा-विवाद के हल के लिए एक बार फिर से पंचशील की चर्चा शुरू हुई और इस चर्चा ने मृतप्राय पंचशील को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया, यद्यपि बदले हुए रूपों में पंचशील पिछले सत्तर वर्षों के दौरान अपना कायांतरण करता रहा है, कभी गुजराल डॉक्ट्रिन के रूप में, तो कभी नेवरहुड फर्स्ट पॉलिसी के रूप में। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें ‘पंचशील’ के प्रश्न पर एक बार फिर से विचार और इसकी प्रासंगिकता का पुनर्निर्धारण अपेक्षित हो जाता है।         
पंचशील की पृष्ठभूमि:
सन् 1947 में आज़ाद होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में भारत ने अपने समक्ष मौजूद जटिल चुनौतियों को समझा और उन चुनौतियों से निबटने के लिए बाह्य मोर्चे पर उलझने से बचने की आवश्यकता महसूस की। उसने महसूस किया कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर एवं शांतिपूर्ण सम्बन्ध को सुनिश्चित किये बिना ऐसा संभव नहीं है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने उन चुनौतियों, जो करीब दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक शोषण एवं उत्पीड़न शीत-युद्ध  से उपजी हुई थीं और जिनसे तत्काल निपटना किसी भी ऐसे देश के लिए अत्यन्त आवश्यक था जो अभी-अभी स्वतंत्र हुआ है, से निपटने के लिए घरेलू मोर्चे पर ध्यान केन्द्रित करने की रणनीति अपनायी। इसी रणनीति के तहत् गुटों में बँटी और शीत-युद्ध का दंश झेल रही दुनिया की चुनौतियों से भारत को बचाने के लिए गुट-निरपेक्षता की रणनीति अपनायी और पड़ोसी देशों के साथ उलझने से बचने के लिए एवं बेहतर सम्बन्ध को सुनिश्चित करने के लिए पंचशील के सिद्धांतों का अनुसरण किया। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत ने पंचशील एवं गुट-निरपेक्षता को अपनी विदेश-नीति का आधार बनाया।
पंचशील से आशय:
वामपंथी चिन्तक भगवान प्रसाद सिन्हा ने ‘पंचशील’ शब्द की व्युत्पत्ति की ओर इशारा करते हुए लिखा है, “दरअसल, पंचशील शब्द मूलतः बौद्ध साहित्य एवं दर्शन से जुड़ा शब्द है। चौथी-पाँचवी शताब्दी के बौद्ध दार्शनिक बुद्धघोष की पुस्तक ‘विशुद्धमाग्गो’ में ‘पंच-शील’ की विस्तृत चर्चा है जिसके अनुसरण की अपेक्षा बौद्ध-धर्म के अनुयायियों से की गयी।” 20वीं सदी में इंडोनेशिया के राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के क्रम में डॉक्टर अहमद सुकर्णो ने बौद्ध-परंपरा से इस शब्द को उठाते हुए इन्हीं पाँच सिद्धांतों की बुनियाद पर डच अधिपतियों से आज़ादी की लड़ाई लड़ी, और जून,1945 में इन्हीं पाँच सिद्धांतों के आधार पर अपने राष्ट्र की बुनियाद खड़ा करने का उद्घोष किया। उस समय उसे वहाँ की भाषा में ‘पंत्ज-सील’ (Five Principles) की संज्ञा दी गयी और उसके अंतर्गत राष्ट्रवाद, मानवतावाद, स्वाधीनता, सामाजिक न्याय और ईश्वर-आस्था की स्वतंत्रता को स्थान दिया गया।
पंचशील का आविर्भाव:
बाद में, सन् 1950 के दशक के मध्य में भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन के चाऊ एन लाई और म्याँमार के तत्कालीन प्रधानमंत्री यू नू के साथ मिलकर पंचशील की प्रस्तावना की बौद्ध-दर्शन के इतिहास और इंडोनेशिया के राष्ट्रीय परिदृश्य से अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में इस शब्द को लाने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को जाता है जब 29 अप्रैल,1954 को पीकिंग में भारत और चीनी तिब्बत क्षेत्र के बीच व्यापार एवं पारस्परिक मेल-जोल पर (नोटों के आदान-प्रदान के साथ) समझौता सम्पन्न हुआ। इस समझौते में द्विपक्षीय संबंधों के साथ-साथ अन्य देशों के साथ पारस्परिक संबंधों में भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच आधारभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया और इन्हें ‘पंचशील’ का नाम दिया गया। पंचशील का स्वरुप इसी समझौते से उभर कर सामने आया जिसमें निम्न बातें की गईं:
1.  एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता, अखंडता एवं संप्रभुता के प्रति सम्मान का भाव;
2.  शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व: अर्थात् एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारते हुए शांति बनाये रखना
3.  अहस्तक्षेप की नीति: अर्थात् एक-दूसरे के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना
4.  अनाक्रामकता: अर्थात् एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करना, और
5.  पारस्परिक लाभ के लिए समानता-पूर्ण सहयोग
और दोनों देशों से यह अपेक्षा की गयी कि वे पंचशील के इन सिद्धांतों का पालन करेंगे। आगे चलकर, पंचशील के इस सिद्धांत ने गुटनिरपेक्षता की नीति के रूप में तार्किक परिणति प्राप्त की और उसका मार्गदर्शक आधारभूत सिद्धांत बन गया। दूसरे शब्दों में कहें, तो गुटनिरपेक्षता की नीति वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पंचशील की नीति का ही विस्तारित रूप है और इस रूप में इसने शीतयुद्ध काल में उपनिवेश के चँगुल से मुक्त हुए तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों की संप्रभुता एवं अखंडता के लिए रक्षा-कवच का काम किया।
पश्चिम के कूटनीतिक वर्चस्व में एशियाई दखल:
भगवान प्रसाद सिन्हा ने ‘पंचशील’ की संकल्पना को पश्चिम के वर्चस्व वाले अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परिवेश में एशियाई दखल के रूप में देखा है और इसे एशियाई अस्मिताबोध, जिसके भाव पंडित नेहरु से लेकर चाउ एन लाई और डॉ. सुकर्णों तक में मौजूद थे, से सम्बद्ध किया है। उन्हीं के शब्दों में कहें, तो “इस रूप में इस शब्द का ओरियंटल मूल पश्चिम के वर्चस्व वाली दुनिया में गौरवान्वित करनेवाले सांस्कृतिक अस्मिताबोध का एहसास कराता है। भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लिए यह शब्द विश्व सभ्यता को भारतीय संस्कृति का तोहफ़ा था। चीन के लिए यह शब्द बौद्ध- मूल का था जो चीन के इतिहास से अभिन्न रूप से उसी तरह जुड़ा था जैसे भारत की संस्कृति के साथ। इंडोनेशिया के लिए यह उसकी राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा था। पहली बार नेहरू ने इंटरनेशनल डिप्लोमेसी में न केवल नए मुहावरे दिए, वरन् उसके दर्शन को परिभाषित भी किया।”
इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि सन् 1954 में इंडोनेशिया के प्रधानमंत्री अली शास्त्रोमिद्ज्स्जो के दिल्ली-आगमन पर उनके सम्मान में दिये भोज के अवसर पर पंडित नेहरू ने पंचशील की चर्चा करते हुए कहा, “इंडोनेशिया के राष्ट्रीय अस्मिता का यह शब्द अब नये अवतार में अभी अस्तित्ववान हुआ है। ..... संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की यह ख़ास संदर्भ में पुनर्अभिव्यक्ति है।” इसी प्रकार अप्रैल,1955 में इंडोनेशिया में आयोजित अफ्रो-एशियाई देशों के बांडुंग सम्मेलन में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने ‘पंचशील-सिद्धांत’ के ‘एशियाईपन’ पर जोर देते हुए इसके सार्वभौमिक महत्व पर बल दिया था, और इसमें शामिल 23 अफ्रीकी-एशियाई देशों ने पंचशील के सिद्धांत की बुनियाद पर प्रत्येक देश को स्वयं एवं सामूहिक रूप से प्रतिरक्षा करने के अधिकार की मान्यता को अंगीकार किया था।
पंचशील-विवाद: चीनी दावा और उसके लिए इसकी अहमियत  
स्पष्ट है कि लोकप्रिय एवं स्वीकृत मान्यताएँ भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को ‘पंचशील’ के प्रतिपादक के रूप में देखती हैं, लेकिन चीन का यह दावा है कि पंचशील की प्रस्तावना चाऊ एन लाई के द्वारा की गयी थी और उन्हीं के आग्रह पर पंचशील को इस समझौते हिस्सा बनाया गया। ऐसा माना जाता है कि चीन की नज़र में पंचशील तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को सुनिश्चित करने का साधन था और उसने इसके माध्यम से भारत को यह संदेश देने की कोशिश की कि वह तिब्बत से दूर रहे और चीन की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता का सम्मान करे। आज भी चीन के लिए पंचशील का मतलब यह है कि भारत तिब्बत और तिब्बती शरणार्थियों के साथ अपने संबंधों को समाप्त करे। ध्यातव्य है कि ब्रिटिश-राज का उत्तराधिकारी होने के नाते भारत को तिब्बत में कई विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसे चीन स्वीकारने एवं मान्यता देने के लिए तैयार नहीं था।
इस तरह, अगर देखें, तो पंचशील तिब्बत के मसले पर रणनीतिक दृष्टि से महत्व रखने के अलावा तीन तरीके से चीनी कूटनीतिक हितों को साधने में सहायक था और आज भी है, इस तथ्य के बावजूद कि व्यावहारिक रूप से अब इसकी बहुत अहमियत नहीं रह गयी है,:
1.  एक तो लोकतंत्र एवं मानवाधिकार से लेकर इन्टरनेट एवं गवर्नेंस के मुद्दे पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ चीन के वैचारिक संघर्ष में विरोध में जाने से भारत को रोकना,
2.  दूसरे, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रभुत्व स्थापित करने की भारतीय आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना, और
3.  तीसरे, इसके जरिये चीनी खतरे की आशंका को निर्मूल करते हुए एशियाई देशों के उस भय को दूर करने का प्रयास किया गया जो चीन के तेजी से उभार और उसकी बढ़ती हुई आक्रामकता के कारण उनमें प्रवेश कर गया था, ताकि एशिया में शांति एवं स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।
इस रूप में अगर देखा जाए, तो चीन के लिए सामरिक दृष्टि से पंचशील की ज़रुरत आज उससे कहीं अधिक है, जितनी 1950 के दशक में थी; अब यह बात अलग है कि चीन ने अपने कूटनीतिक व्यवहार में पंचशील के आदर्शों का न तो तब अनुसरण किया था और न ही यह उन आदर्शों का अब ही अनुसरण करने के लिए तैयार है।
पंचशील: नेहरु का रुख
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरु और वी. पी. मेनन की बातचीत से इस बात का संकेत मिलता है कि आरम्भ में नेहरु पंचशील को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे और उनके लिए इसकी अहमियत आदर्शवादी सदिच्छाओं के माफिक थी, पर समय के साथ इसके प्रति उनका और भारत का भी नज़रिया बदला। कहा यह जाता है कि जब कृष्णमेनन ने सन् 1954 के समझौते के उस अंश, जिसमें पंचशील का उल्लेख था, को लेकर अपनी ओर से आपत्ति दर्ज की, तो नेहरु ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा था, “यह महज प्रस्तावना है, न कि कोई समझौता। अतः इसमें बहुत कुछ न तलाशा जाय। यह न तो भारतीय विदेश-नीति का हिस्सा है और न ही आधारभूत सिद्धांत।” लेकिन, यह भी सच है कि इसका स्वरुप उभर कर सामने आने के बाद भारत ने चीन के साथ-साथ अपने निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ संबंधों के निर्धारण में पंचशील को मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में अपनाया। इसी का परिणाम था कि भारत ने उस दौर में ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया। साथ ही, आगे चलकर जब गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का आविर्भाव हुआ, तो उसने इसे उसमें भी तवज्जो दिया।  
भारत और पंचशील:
अब पंचशील के मसले पर चीन का दावा चाहे कुछ भी क्यों न हो, पर पंचशील को नेहरु-युग की भारतीय विदेश-नीति की महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जाता है और इसका श्रेय नेहरु को दिया जाता है। शायद इसका कारण यह है कि
1.  चीन ने इसको लेकर कभी गम्भीरता प्रदर्शित नहीं की,  
2.  भारत ने अपनी विदेश-नीति को और विशेष रूप से पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों को पंचशील पर आधारित बनाया, और  
3.  अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज़ पर नेहरु का कद और उनकी विश्वसनीयता उनके चीनी समकक्षों पर भारी पड़ती थी।
ऐसा माना जाता है कि गुटनिरपेक्षता की नीति भी पंचशील का ही विस्तारित रूप है जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक लोकप्रियता मिली और स्वीकृति भी। आगे चलकर इसे ही 1990 के दशक के मध्य में देवगौड़ा-सरकार के द्वारा ‘गुजराल-डॉक्ट्रिन’ (Gujral Doctrine) के रूप में और सन् 2014 में मोदी-सरकार के द्वारा इसे ही ‘प्रथम पड़ोस की नीति’ (Neighbourhood First Policy) के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया।
पंचशील की भ्रूण-ह्त्या:
कूटनीति में सदाशयता के लिए जगह नहीं होती है। इसकी जगह नीतियाँ राष्ट्रीय हितों से निर्देशित होती हैं। इसकी पुष्टि सन् 1954 की संधि से भी होती है जिसके जरिये भारत ने तिब्बत पर चीनी संप्रभुता को स्वीकारा और चीन में तिब्बत के विलय को औपचारिक मान्यता दी। भारत तिब्बत के सन्दर्भ में कई विशेषाधिकारों को छोड़ने पर भी राजी हुआ और व्यापारियों एवं तीर्थयात्रियों के लिए सीमा तक आसान पहुँच सुनिश्चित की। स्पष्ट है कि इस संधि के जरिये हिमालयी-क्षेत्र में वाणिज्यिक एवं सांस्कृतिक संपर्क को मान्यता प्रदान किया गया।
फिर भी, चीन की इतनी शर्तों को स्वीकार इतनी सारी न तो चीन की शिकायतें दूर नहीं हुईं और न ही चीन ने अपनी विदेश-नीति के निर्धारण में पंचशील को कभी गंभीरता से ही लिया। इससे पहले कि पंचशील व्यावहारिक रूप ले पाता और कूटनीतिक व्यवहार के धरातल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा पाता, यह जन्मदाताओं के लिए बोझ बन गया और उन्होंने उसे उतार फेंकने में ही अपनी भलाई समझी। 1960 के दशक के आरम्भ में भारत और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु चीन और चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई से गुहार लगते रहे और पंचशील की दुहाई देकर सीमा-विवाद के समाधान की अपील करते रहे, पर उनकी एक नहीं सुनी गयी। परिणाम यह हुआ कि भारत-चीन युद्ध,1962 ने पंचशील का मृत्यु घोषणा-पत्र लिख दिया, यद्यपि सैद्धांतिक रूप से भारत ने इसे अपनी विदेश नीति का हिस्सा बनाये रखा।
भले ही सन् (1954-1991) के दौरान भारत ने पंचशील की नीति को अपने विदेश-नीति का आधार बनाया हो, पर इस दौरान दो ऐसे मौके आये जब इसने इसके प्रतिकूल आचरण किया:
a.  सन् 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के मसले पर इसने बांग्लादेश-मुक्ति संग्राम में विद्रोहियों के पक्ष में हस्तक्षेप किया जिसकी परिणति बंगलादेश के उदय के रूप में हुई, और
b.  सन् 1987 में भारतीय शांति-सैनिकों को श्रीलंका भेजा जाना एवं तमिल विदोहियों के खिलाफ उनकी कार्रवाई, जिसकी परिणति लिट्टे से शत्रुता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या के रूप में हुई
चीन ने भी इसका इस्तेमाल अपने रणनीतिक हितों को साधने के लिए किया और अपनी सुविधा के हिसाब से पंचशील को अपनाया, या फिर ठण्डे बस्ते में डाल दिया। अबतक उसने पंचशील का सहारा लेते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत आने वाले दक्षिण एशियाई देशों में उस राजनीतिक नेतृत्व को समर्थन दिया है जो भारतीय दबाव के विरुद्ध खड़ा होना चाहते हैं। शायद इसीलिए भारत भी तिब्बत के जरिये चीन पर अपने दबाव को बनाये रखना चाहता है। इसीलिए अक्सर चीन भारत पर तिब्बत के मामले में हस्तक्षेप का आरोप लगाता रहा है और भारत ने भी चीन पर पूर्वोत्तर भारत में उपद्रवियों एवं नक्सलियों के समर्थन का आरोप लगाटा रहा है। इसे हाल के सन्दर्भों में भी देखा जा सकता है: मसला चाहे मालदीव में भूतपूर्व राष्ट्रपति मो. नशीद के विरुद्ध अब्दुल्ला यामीन के खुलकर समर्थन का हो, या फिर भूटान में लोटे शिरींगे के नेतृत्व वाले समाजवादी रुझान रखने वाले मध्यमार्गी राजनीतिक दल के समर्थन का; मसला चाहे नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एमाले) एवं के. पी. ओली के समर्थन का हो, या फिर श्रीलंका में रनिल विक्रमसिंघे के विरुद्ध महिन्दा राजपक्षे के समर्थन का। पाकिस्तान की तो बात ही छोड़ दी जाए। म्याँमार और बंगलादेश भी इसके अपवाद नहीं हैं।    
नेहरुवादी विदेश-नीति का पुनर्परिभाषित होना
सन् 1990 में सोवियत संघ के विघटन और साम्यवादी ब्लॉक के बिखराव के साथ भारत के समक्ष यह चुनौती उत्पन्न हुई कि वह बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित करने की कोशिश करे और इसके कारण जो नवीन चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, उनसे निबटने की कोशिश करे। इसके लिए आवश्यकता थी भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करने की। यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि अबतक:
1.  भारत की विदेश-नीति पश्चिम के बड़े देशों की ओर उन्मुख थी,
2.  उसका रुझान यथार्थ की बजाय आदर्शों की ओर कहीं अधिक था, और
3.  उसमें अबतक इसके छोटे पड़ोसी देशों को अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया था।

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें सन् 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारतीय विदेश-नीति को पुनर्परिभाषित करते हुए नेहरु-युग की विदेश-नीति से दूर ले जाने की कोशिश शुरू हुई, ताकि:
1.  इसे यथार्थ पर आधारित बनाया जा सके,
2.  बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ तालमेल स्थापित किया जा सके, और
3.  राष्ट्रीय हितों को बेहतर तरीके से संरक्षित किया जा सके।
इसी आलोक में पहले नरसिंहा राव की सरकार ने लुक ईस्ट पॉलिसी (Look East Policy) की घोषणा करते हुए भारत के दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार किया और फिर, सन् 1996-97 के दौरान देवगौड़ा-सरकार में विदेश-मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने गुजराल-डॉक्ट्रिन के जरिये भारत के दक्षिण एशियाई छोटे पड़ोसी देशों की अहमियत को स्वीकार करते हुए भारतीय विदेश-नीति को उनकी और कहीं ज्यादा अभिमुख किया।      

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