मेडिकल टीम पर होने वाले हमले के
लिए ज़िम्मेवार कौन?
समाज और उसकी सोच
इस प्रश्न पर
विचार करने के पहले मैं इस पोस्ट के पाठकों के समक्ष इस बात की स्पष्ट शब्दों में
घोषणा करना चाहता हूँ कि इस आलेख से तटस्थता एवं निष्पक्षता की उम्मीद न पालें
क्योंकि मैं किसी भ्रम में नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरा एक पक्ष है।इसलिए न तो
मैंतटस्थ एवं निष्पक्षहो सकता हूँ औरन हीहोना चाहता हूँ।
अब लौटता हूँ
मूल प्रश्न पर। क्या
आपको भी लगता है कि कोरोना के सन्दर्भ में देश के विभिन्न हिस्सों में मेडिकल टीम
और पुलिस वालों पर होने वाले हमलों के लिए मुसलमान ज़िम्मेवार हैं? अगर हाँ, तो इस
स्थिति के लिए आप भी ज़िम्मेवार हैं, आपकी सोच भी ज़िम्मेवार है; और जबतक आप जैसे
लोग और आपकी जैसी सोच मौजूद रहेगी, तबतक ऐसे हमले होते रहेंगे।
दरअसल इस
स्थिति के लिए जहालत ज़िम्मेवार है, और
जहालत मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है। कमोबेश हर समुदाय में यह जहालत मौजूद है, अन्तर
है, तो सिर्फ़ डिग्री का। कहीं पर यह जहालत अधिक मात्रा में विद्यमान है, तो कहीं
पर कम मात्रा में; पर है यह हर जगह पर। हाँ, मुझे यह स्वीकार करने में हिचक नहीं
है कि चूँकि मुस्लिम समाज अभाव, ग़रीबी और अशिक्षा से कहीं अधिक ग्रस्त है, इसीलिए
उसमें जहालत कहीं अधिक विद्यमान है और जाहिलों की संख्या कहीं अधिक है। शायद यही
कारण है कि यह अब भी फ़िरक़ापरस्तों, रूढ़िवादियों और कट्टरपंथियों की गिरफ़्त में
है। इसीलिए वहाँ इस तरह की घटनाएँ अपेक्षाकृत ज्यादा हैं और स तरह की घटनाओं के
ख़िलाफ़ मुस्लिम समाज का प्रगतिशील तबक़ा उतना मुखर नहीं है जितना अन्य धार्मिक
समुदायों का प्रगतिशील तबक़ा। लेकिन, जितना बड़ा सच यह है, उतना ही बड़ा सच यह भी
है कि पिछले एक दशक के दौरान हिन्दू समाज के जाहिलीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई हैऔर
अब तो पढ़े-लिखे जाहिलों की फ़ौज भी तैयार होती जा रही है जो ऐसी घटनाओं को भी
साम्प्रदायिक नज़रिए से देख रही है, बिना उसकी क़ीमत जाने, और जिसका ऐसी घटनाओं के
प्रति नज़रिया सेलेक्टिव है।
इसके
अतिरिक्त, भारतीय समाज एवं राजनीति
के साथ-साथ प्रशासन एवं भारतीय मीडिया का सम्प्रदायीकरण, एजेंडा पत्रकारिता एवं ऐसी
घटनाओं के प्रति सेलेक्टिव एप्रोच और उग्र एवं आक्रामक हिन्दुत्व का उभार भी इस
स्थिति के लिए कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं, जिसने तबलीग का मतलब मुसलमान, कोरोना-संकट
के लिए मुस्लिमों की एकमात्र जिम्मेवारी और कोरोना-जिहाद जैसी भ्रामक वधारणाओं को
प्रचारित-प्रसारित करते हुए इसे हिन्दू जन-मानस से जड़-मूलबद्ध कर दिया।
लेकिन, जिस
एक बिन्दू पर चर्चा होनी चाहिए थी और जिस पर अबतक चर्चा नहीं हुई, वह है ऐसी घटनाओं के प्रति समाज की सोच
और इसके लिए उसकी ज़िम्मेवारी की। हमने कोरोना को अस्पृश्यता को बढ़ावा देने के
साथ-साथ घृणा एवं नफ़रत पैदा करने के नए उपकरण के रूप में तब्दील कर दिया है। वैसे
लोगों को, जो कोरोना संदिग्ध हैं या जिनका कोरोना टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव है,
हमारी सहानुभूति एवं समर्थन की ज़रूरत है, न कि उपेक्षा एवं तिरस्कार की। इसके
विपरीत, उनके प्रति समाज के साथ-साथ पुलिस एवं प्रशासन का रवैया कुछ वैसा ही होता
है जैसा एक अपराधी के प्रति। शायद यही कारण है कि मेडिकल टीम और पुलिस-प्रशासन उन्हें
अपने दुश्मन की तरह लगते हैं, ऐसा लगता है कि वे उन्हें सज़ा देने के लिए आ रहे
हैं और इसीलिए उनके प्रति उनका रवैया न केवल असहयोगात्मक होता है, वरन् वे कई बार
उग्र, अराजक, आक्रामक एवं हिंसक भी हो जाते हैं। इतना ही नहीं, इस स्थिति के लिए कोरेंटाइन सेन्टर एवं आइसोलेशन
सेन्टर की अव्यवस्था भी कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं है। यही
कारण है कि ऐसी भीड़ और ऐसे हमले मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं हैं, वरन् इनका
दायरा बहुसंख्यक समुदायों के साथ-साथ ग़ैर-मुस्लिम समुदायों तक फैला हुआ है। इस
पूरी प्रक्रिया में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के बीच सक्रिय संकीर्ण हित-समूह फेक
न्यूज एवं हेट न्यूज के जरिए उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।
exact analysis
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