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गाँधी और गाँधीवाद: वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता ====================================
प्रमुख आयाम
1.
अहिंसात्मक
सत्याग्रह की संकल्पना
2.
भारत की ज़रूरत के
रूप में‘सर्वधर्मसमभाव’
3. पितृसत्तात्मक
संरचना को चुनौती:
आज, जब हम गाँधी की 151वीं जयन्ती मना रहे हैं, हम ऐस दौर
में जी रहे हैं, जिसमें गाँधी को जानना और समझना किसी अपराध से कम नहीं है, मानने
की तो बात ही छोड़ दें। यह अपने आप में यह बतलाने के लिए काफ़ी है कि आज हमें
गाँधी की कितनी ज़रूरत है और कितनी ज़रूरत है उनको न केवल जानने और समझने की, वरन्
उनको मानने की भी।
अहिंसात्मक सत्याग्रह की संकल्पना
अब प्रश्न यह उठता है कि जिस
गाँधीवाद के माध्यम से हम गाँधी तक पहुँच सकते हैं, वह गाँधीवाद क्या है? गाँधीवाद समय एवं परिस्थितियों के सापेक्ष विकसनशीलशील
अवधारणा है, न कि स्थिर धारणा। इसके स्वरूप के निर्धारण में दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के
विरूद्ध संघर्ष से लेकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न चरणों तक के दौरान
प्राप्त अनुभवों की अहम् भूमिका रही। इसे गाँधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह की संकल्पना के परिप्रेक्ष्य में देखा एवं समझा
जा सकता है, जिसके मूल में गौतम बुद्ध का अहिंसावाद है। जहाँ फ़रवरी,1922 में चौरी-चौरा काण्ड के बाद गाँधी
ने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया, वहीं सन् 1931 में चटगाँव, शोलापुर एवं पेशावर की
हिंसक घटनाओं के बावजूद उन्होंने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को जारी रखा। आगे चलकर, सन्
1942 में भारत छोड़ो
आन्दोलन के दौरान होनेवाली हिंसा की आलोचना करने की बजाय गाँधी ने उसे ‘ब्रिटिश
दमन की प्रतिक्रिया में उपजी हुई हिंसा’ बतलाकर जस्टिफाई किया। इतना ही नहीं,
गाँधी ने अहिंसा को लेकर व्यावहारिक नज़रिया अपनाते हुए कहा कि अगर अहिंसा कायरता
का रूप लेने लगे, तो मैं हिंसक हो जाना पसन्द करूँगा। स्पष्ट है कि गाँधी ने अहिंसात्मक
सत्याग्रह के जरिए शक्तिशाली ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के समक्ष ऐसी नैतिक दुविधा
उत्पन्न की जिसकी उसके पास कोई काट नहीं थी और इसी कारण इसने भारतीय राष्ट्रीय
आन्दोलन को आज़ादी की तार्किक परिणति तक पहुँचाया।
भारत की ज़रूरत के रूप में‘सर्वधर्मसमभाव’:
दरअसल गाँधीवाद आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय
चिन्तन परम्परा की पुनर्व्याख्या है जिसकी ज़रूरत औपनिवेशिक शासन की पृष्ठभूमि में उसके द्वारा
उत्पन्न चुनौतियों ने महसूस करवाई। इसके केन्द्र में सहिष्णुता एवं समन्वय का वह तत्व
है जो वैष्णव धर्म एवं वैष्णव संस्कारों के प्राण-तत्वहैं। इसे ही तद्युगीन
ज़रूरतों के आलोक में गौतम बुद्ध के यहाँ ‘मध्यमा प्रतिपदा’ और तुलसी के यहाँ ‘विरूद्धों
के सामंजस्य’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है, और इसे ही गाँधी के यहाँ ‘सर्वधर्मसमभाव’ के रूप में अभिव्यक्ति मिली है।इसके बिना न तो विदेशी
पराधीनता के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई को तार्किक परिणति तक पहुँचाया जा सकता था,
और न ही विविधताओं से भरे भारतीय समाज एवं संस्कृति के ताने-बानों को ही सुरक्षित
रखा जा सकता था। शायद यही कारण है कि अंग्रेज़ों ने मुस्लिम एवं हिन्दू सम्प्रदायवादियों
के माध्यम से उनकी इस सोच को निरन्तर चुनौती दी। इसके परिणामस्वरूप गाँधी इन दोनों
के निशाने पर रहे और यहाँ तक कि गाँधी और उनके नेतृत्व वाले काँग्रेस के ख़िलाफ़ इन
दोनों ने एक दूसरे हाथ तक मिलाया। गाँधी जीवनपर्यन्त इन दोनों ताक़तों के ख़िलाफ़
लड़ते रहे, और अब जबकि वो हमारे बीच नहीं हैं, तब भी उनकी सोच इन ताक़तों के
ख़िलाफ़ निरन्तरलड़ रही है और इनके प्रहारों का सामना कर रही है। आज भी यह सोच
गाँधी और गाँधीवाद को अपनेअस्तित्व के लिएखतरा मानती हुई उसे निरन्तर अप्रासंगिक
बनाने की कोशिश में उनके चरित्र-हनन की कोशिश में लगी है।पहले इस सोच ने गाँधी की
हत्या की, और अब यह सोच गाँधीवाद की हत्या पर उतारू है।
इस क्रम में यह भी जानने की
आवश्यकता है कि गाँधी के लिए ‘सर्वधर्मसमभाव’ का मतलब मुस्लिम तुष्टीकरण नहीं है। अगर
ऐसा होता, तो राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तिम दिनों मेंगाँधीन तो मुस्लिम
साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ नोआखाली की सड़कों परउतरते और न ही सके विरूद्ध संघर्ष
करते हुए हिन्दुओं को बचाने की कोशिश करते। इसीलिए अगर हम भारत और भारतीयता से
प्यार करते हैं, तो हमारी यह नैतिक ज़िम्मेवारी बनती है कि हम गाँधी और गाँधीवाद
के मूल्यों को महफ़ूज़ रखें, क्योंकि ये
दोनों भारत एवं भारतीयता से अभिन्न हैं। यह भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एवं गंगा-जमुनी
तहज़ीब के लिए भी आवश्यक है, और भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अक्षुण्णता
के लिए भी आवश्यक।
पितृसत्तात्मक
संरचना को चुनौती:
इससे इतर हटकर देखें, तो पारम्परिक
धारणाओं के विपरीत गाँधीवादभारतीय
समाज की पितृसत्तात्मक संरचना के लिए भी चुनौती बनकर आता है। उन्होंने एक ओर
राष्ट्रीय आन्दोलन के अहिंसक स्वरूप की परिकल्पना के जरिए राष्ट्रीय आन्दोलन में
महिलाओं की भागीदारी के मार्ग को प्रशस्त किया, दूसरी ओर इन्द्रिय-संयम एवं नैतिक
शुद्धि पर बल देते हुए उनके पुरूष सहकर्मियों को इस बात को लेकर आश्वस्त किया कि महिलाएँ
घर के बाहर भी सुरक्षित हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने चरखे के माध्यम से भारतीय
महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता के मार्ग को प्रशस्त किया। शायद इसीलिए सुमित
सरकार जैसे मार्क्सवादी भी नारी-मुक्ति में गाँधी के अप्रतिम योगदान को रेखांकित
करते हैं।
अप्रासंगिक नहीं हैं गाँधी:
गाँधी का आज कितनी प्रासंगिकता है, इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के विभिन्न हिस्सों में आमलोगों से
जुड़े हुए विभिन्न मसलों पर निरंकुश सत्ता-तंत्र को चुनौती देते हुएजो आन्दोलनों हो
रहे हैं और जिन वामपंथियों के द्वारा इसको समर्थन एवं संस्थागत आधार प्रदान किया
जा रहा है, आज उन्हें भी गाँधी एवं गाँधीवाद की जय करते देखा जा सकता है। इस
प्रकार आज पूरा भारत गाँधी एवं गाँधीवाद की जय से गुँजायमान हो उठा है।स्पष्ट है
कि अहिंसा, सर्वधर्मसमभाव एवं स्त्री-स्वत्वगाँधी और गाँधीवाद के ऐसे मूल तत्व हैं
जो गाँधीवाद को जिलाए रखने में सहायक हैं और जिसके कारण गाँधीवाद की प्रासंगिकतानिर्विवाद
है।
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