क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौता और भारत: हालिया प्रगति, नवम्बर 2019
प्रमुख आयाम
1. वैश्विक व्यापार: दशा एवं दिशा:
a. बदलता आर्थिक
व्यापारिक संतुलन
b. क्षेत्रीय व्यापार
समझौता: भारत की मुश्किलें
2. क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौता और भारत:
a. समझौते की पृष्ठभूमि
b. भारत आरसीईपी समझौते
से बाहर
3.
समझौते से बाहर निकलना: औचित्य:
a. नीति-आयोग की सलाह
b. चीन को लेकर भारत आशंकित
c. आरसीईपी देशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्बंध
d. भारत का असमंजस
e. भारत-आसियान: अबतक
का अनुभव
f.
दक्षिण कोरिया के
साथ समझौते का अनुभव
g.
जापान के साथ समझौते
का अनुभव
4. सम्बद्ध हित-समूहों
का विरोध:
a. भारतीय किसानों
द्वारा विरोध
b. भारतीय डेयरी-उद्योग की
चिन्ताएँ
c. उत्पादकों और कारोबारियों का दबाव
d. सेवा-क्षेत्र और निवेश से
सम्बद्ध चिन्ताएँ
5.
मतभेद के प्रमुख मसले:
a. ‘रूल
ऑफ ऑरिजिन’ को लेकर विवाद
b. आधार-वर्ष को लेकर
विवाद:
c. नॉन-टैरिफ बैरियर का मसला
d. ऑटो-ट्रिगर मैकेनिज्म की माँग
e. बौद्धिक सम्पदा का
संदर्भ
6.
मुक्त
बाज़ार समझौता: विभ्रम की स्थिति:
a.
b. नौशाद फोर्ब्स का
विश्लेषण
7. समझौते से बाहर निकलना: भारत की भूल:
a. समझौते की अहमियत
b. विशेषज्ञ पैनल की
सलाह की अनदेखी
c. भारत की दुविधा
d. भारत की धूमिल होती छवि
8. विश्लेषण
9.स्रोत-सामग्री
वैश्विक
व्यापार: दशा एवं दिशा
बदलता
आर्थिक व्यापारिक संतुलन:
पिछले तीन दशकों के
दौरान अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का फोकस पश्चिम के विकसित देशों से एशिया एवं अन्य
क्षेत्रों की विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की ओर शिफ्ट होता चला गया और महज दो
दशकों(1991-2011) के दौरान वैश्विक
व्यापार में विकासशील देशों की भागीदारी 0.8 प्रतिशत की सालाना वृद्धि के साथ 16
प्रतिशत से बढ़कर 32 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गयी। इसे उत्प्रेरित करने का काम किया सन् (2008-09)
की वैश्विक आर्थिक मन्दी ने, और फिर 2008 के बाद विकासशील देशों की भागीदारी में
सालाना वृद्धि की दर 1.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गयी जो गहराते दक्षिण-दक्षिण
सहयोग की ओर भी इशारा करता है। भारत के विशेष सन्दर्भ में देखें, तो वैश्विक निर्यात में
भारत की भागीदारी 1991 के 0.5 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 2 प्रतिशत से अधिक के
स्तर पर पहुँच चुकी है वर्तमान में वाणिज्यिक पण्य-निर्यात में भारत की की
हिस्सेदारी 1.67 प्रतिशत के स्तर पर है और वैश्विक सेवा-निर्यात में 3.54 प्रतिशत
के स्तर पर। भारत ने भी लुक ईस्ट, एक्ट ईस्ट
और इंडो-पेसिफ़िक के ज़रिए इसे गति देने की कोशिश की है और क्षेत्रीय समग्र भागीदारी
समझौता इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था, जो अधूरा रह गया।
क्षेत्रीय व्यापार समझौतों को लेकर
भारत की मुश्किलें:
भारतीय उत्पादकों और किसानों की मूल चिन्ता यह थी कि मुक्त व्यापार-समझौतों
को लेकर भारत के अबतक के अनुभव ठीक नहीं रहे हैं। ऐसे मुक्त-व्यापार समझौतों के साथ समस्या यह
है कि अगर ऐसे समझौते प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्थाओं के बीच हों, तो इनकी सफलता
संदिग्ध हो जाती है। पूरकता इनकी
सफलता की अनिवार्य पूर्व शर्त है। भारत के साथ समस्या यह है कि पड़ोसी देशों, चाहे
वे दक्षिण एशिया से हों या फिर दक्षिण-पूर्व एशिया से, के सापेक्ष उसकी
अर्थव्यवस्था पूरक न होकर प्रतिस्पर्धी है। इसीलिए यह कहा जाता
है कि भारत के लिए क्षेत्रीय व्यापार समझौतों(RTA) के बजाय बहुपक्षीय व्यापार
समझौते(MTA) कहीं बेहतर हैं, लेकिन समस्या यह है कि विश्व व्यापार संगठन के
प्लेटफ़ॉर्म पर विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच गतिरोध के कारण बहुपक्षीय
व्यापार समझौते विलंबित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में
क्षेत्रीय व्यापार समझौते के विकल्प को अपनाना भारत की मजबूरी है, और किस कारण से
अगर भारत इससे परहेज़ करता है, तो फिर वैश्विक प्लेटफ़ॉर्म पर अपने हितों को
संरक्षित कर पाना इसके लिए मुश्किल हो जाएगा।
क्षेत्रीय समग्र आर्थिक
भागीदारी(RCEP) समझौता और भारत: हालिया
प्रगति
समझौते की
पृष्ठभूमि:
यद्यपि क्षेत्रीय समग्र आर्थिक
भागीदारी(RCEP) समझौते की रूपरेखा आसियान को केंद्र में रखते हुए तैयार की गयी है,
तथापि यह चीन के दिमाग की उपज है जिसके जरिये उसने अमेरिका के नेतृत्व वाले
ट्रान्स-पेसिफ़िक पार्टनरशिप(TPP) समझौते, जिससे चीन को बाहर रखा गया था, को
काउन्टर करना चाहा था।
इतना ही नहीं, यह एक ऐसे दौर में चीन के लिए विदेशी बाज़ारों को खोलने की रणनीति का
हिस्सा है जब अमेरिका के साथ उसका व्यापार-युद्ध(Trade War) अपने चरम पर है और
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उभार की पृष्ठभूमि में
आर्थिक संरक्षणवादी नीतियों के जोर पकड़ रही हैं और इसके कारण चीन की आर्थिक
मुश्किलें बढ़ती दिख रही हैं।
भारत आरसीईपी समझौते से बाहर:
नवंबर,2019 में बैंकाक में सम्पन्न तीसरी क्षेत्रीय समग्र
आर्थिक भागीदारी(RCEP) सम्मेलन में लम्बे उहापोह के बाद भारत ने इस सलाह की अनदेखी
करते हुए खुद को इस समझौते से बाहर रखने का निर्णय लिया। ऐसा माना जा रहा है कि अभी भारतीय अर्थव्यवस्था
वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए तैयार नहीं है, इसीलिए अगर भारत इस
समझौते में शामिल होता है, तो इसकी कीमत बड़ी होगी, बढ़ते व्यापार-असंतुलन और बढ़ते
हुए व्यापार घाटे के रूप में, जिससे भारतीय उद्योग और घरेलू बाज़ार अप्रभावित नहीं
रह पाएँगे। ऐसी स्थिति में नोटबन्दी और
जीएसटी द्वारा उत्पन्न चुनौतियों की पृष्ठभूमि में मन्दी की ओर अग्रसर भारतीय
अर्थव्यवस्था के लिए यह निर्णय कम-से-कम तात्कालिक राहत तो अवश्य देगा। ऐसे समय
में अगर भारत ने इस समझौते का हिस्सा बनने का निर्णय लिया होता, तो शायद उसकी
मुश्किलें कहीं अधिक बढ़ जातीं। लेकिन, भारत के अतिरिक्त इस समझौते में शामिल अन्य सभी 15 सदस्यों
ने इस पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लिया है। इस समझौते के वर्ष 2020 तक सम्पन्न होने की उम्मीद है।
समझौते से बाहर निकलना: औचित्य
नवम्बर,2019 में
आयोजित तीसरे आरसीईपी सम्मलेन में भारतीय
प्रधानमंत्री ने भारतीय चिन्ताओं का हवाला देते हुए बताया कि ख़ासकर समाज के
कमज़ोर वर्गों के लोगों और उनकी आजीविका पर इसके प्रभावों के मद्देनज़र भारत ने इस
समझौते से बाहर रहने का फ़ैसला किया है। समझौता-वार्ता के
दौरान भारत ने न केवल व्यापार-घाटे पर अपनी चिन्ताओं को दूर करने, वरन् भारतीय
सेवाओं और निवेशों के लिए वैश्विक बाजार खोलने की आवश्यकता पर भी जोर दिया था। भारत ने सम्बद्ध पक्षों को अपनी चिन्ताओं से
अवगत करवाते हुए समझौते की शर्तों को लेकर पूरी मज़बूती से उनके साथ
मोलभाव करने की कोशिश की, लेकिन सम्बद्ध पक्षों के द्वारा उसकी चिन्ताओं को समझ
पाने और उसका समाधान दे पाने में असमर्थ रहने पर भारत ने खुद को इस समझौते से बाहर
रखने का फ़ैसला किया। समझौते की
शर्तों के अनुकूल न होने के कारण भारत ने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी। ध्यातव्य है कि इस समझौते में भारत और आसियान
देशों के अलावा चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड भी शामिल हैं।
नीति-आयोग की सलाह:
प्रस्तावित क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौते को लेकर
गठित उच्च-स्तरीय सलाहकार समूह ने केंद्र सरकार को इसमें शामिल होने की सलाह देते
हुए कहा था कि अगर इस समझौते(RCEP) से भारत के बाहर रहने का मतलब है इसका एक बड़े
क्षेत्रीय बाज़ार से बाहर रह जाना, जो बेहतर अवसर खोने के समान होगा। ऐसा माना जा
रहा है कि आसियान के सदस्य-देश अगर पिछले कुछ वर्षो से भारत के प्रति ज्यादा
उदारता दिखा रहे थे, तो उसके पीछे आरसेप ही था। ।सन् 2018 में नीति आयोग द्वारा मुक्त व्यापार
समझौतों से सम्बंधित भारतीय अनुभवों के आलोक में ‘ए
नोट ऑन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स एंड देयर कॉस्ट्स’ नाम से एक नोट जारी
किया गया, जिसे डॉ. वी. के. सारस्वत, प्राची प्रिया और अनिरुद्ध घोष ने तैयार किया
है। नीति आयोग के द्वारा
जारी दस्तावेज़ के अनुसार, इस समझौते में शामिल 16 देश 25% वैश्विक जीडीपी, 30% वैश्विक व्यापार, 26% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश(FDI) और दुनिया की 45% आबादी
का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस रिपोर्ट में नीति आयोग ने मुक्त व्यापार
समझौतों से सम्बंधित भारतीय अनुभवों के हवाले भारत को इस समझौते में शामिल न होने
की सलाह दी और बतलाया कि वित्त-वर्ष 2017 में भारतीय निर्यात में इन देशों की
हिस्सेदारी महज 15 प्रतिशत के स्तर पर है, जबकि भारतीय निर्यात में इनकी भागीदारी
35 प्रतिशत के स्तर पर; और आरसीईपी देशों के साथ भारत का व्यापार-घाटा वित्त-वर्ष
2017 में वित्त-वर्ष 2005 के 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 83 बिलियन अमेरिकी
डॉलर के स्तर पर पहुँच चुका है और इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक व्यापार-घाटा चीन
के साथ है।
चीन को लेकर भारत आशंकित:
दरअसल, भारत की समस्या यह है कि चीन इस समझौते में शामिल सबसे बड़ा
भागीदार है और भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार भी। भारत पहले से ही चीन
के साथ बढ़ते व्यापारिक घाटे की चुनौती का सामना कर रहा है और इस चुनौती
से निबटना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। चीनी जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑन कस्टम(GAC) के मुताबिक, वर्ष 2019 में
भारत को चीनी निर्यात करीब 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर और चीनी आयात करीब 18 बिलियन
अमेरिकी डॉलर के स्तर पर था। इस प्रकार
सन् 2019 में द्विपक्षीय व्यापार-घाटा सन् 2018 के 57.86 बिलियन अमेरिकी डॉलर से
घटकर 56.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया है जो कुल द्विपक्षीय व्यापार के करीब 60
प्रतिशत से भी अधिक के स्तर पर है। ऐसी स्थिति में अगर भारत इस समझौते
में शामिल होता है, तो इस समझौते के अंतर्गत मिलने वाली छूटों का लाभ चीन को भी
प्राप्त होगा और इस कारण भारत चीन के साथ द्विपक्षीय व्यापारिक घाटे में तीव्र
वृद्धि को लेकर आशंकित है। इसलिए कहीं-न-कहीं भारत को लग रहा है
कि इस समझौते से जितना फायदा हो सकता है, उससे कहीं अधिक नुकसान की
सम्भावना है।
समस्या सिर्फ भारत-चीन द्विपक्षीय
व्यापार-असन्तुलन और बढ़ता हुआ व्यापार-घाटा ही नहीं है, समस्या यह भी है कि आसियान देशों तक पहुँच के मामले में भी चीन भारत
की तुलना में कहीं अधिक बेहतर स्थिति में है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना में चीनी
अर्थव्यवस्था की स्थिति प्रतिस्पर्धात्मक दृष्टि से भी बेहतर है जिसके
कारण इस समझौते से जो लाभ संभावित हैं, उसके भी प्रति-संतुलित होने की संभावना है।
भारत इस समझौते के रास्ते चीनी सामानों की डम्पिंग
को लेकर भी आशंकित है जो उसकी आर्थिक मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित हो
सकता है।
आरसीईपी देशों के साथ भारत के
व्यापारिक सम्बंध:
आरसीईपी में शामिल 15
देशों में से 11 देशों के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार घाटे में
है। वित्त-वर्ष 2018-19 में 34 प्रतिशत भारतीय आयात
एवं 21 प्रतिशत भारतीय निर्यात आरसीईपी देशों के साथ था और भारत के कुल
व्यापार-घाटे (184 बिलियन अमेरिकी डॉलर) में इसके 11 देशों के साथ पण्य
व्यापार-घाटे का योगदान लगभग 107.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। इस घाटे
में निरन्तर वृद्धि का रुझान मिलता है जो कहीं-न-कहीं
भारत के लिए चिन्ता का सबब था। भारत का ऐसा मानना है कि अगर उसने इस
समझौते में शामिल होने के पक्ष में निर्णय लिया होता, तो भारतीय बाजार के सस्ते चीनी इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों और इंजीनियरिंग उत्पादों से भर जाता और इसके परिणामस्वरूप इस
व्यापार-घाटे में और भी तेजी से वृद्धि होती। भारत इस बात को लेकर आशंकित है कि जिस तरह चीन-आसियान मुक्त व्यापार समझौते,2002 का जितना लाभ
चीन को मिला, उतना आसियान देशों को नहीं, ठीक उसी तरह की
स्थिति आरसीईपी समझौते के साथ भी संभावित है; इसलिए भी कि आरसीईपी में भारत
जिन देशों के साथ शामिल होगा, उनसे भारत आयात अधिक करता है और निर्यात कम।
भारत का असमंजस:
दरअसल मुक्त व्यापार समझौते के सन्दर्भ में भारत के अनुभव
उत्साहवर्द्धक नहीं रहे हैं। चाहे आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौतों का अनुभव
हो या फिर दक्षिण कोरिया और जापान के साथ मुक्त व्यापार समझौतों का अनुभव, इनका
जितना लाभ समझौते में शामिल अन्य पक्ष को मिला, उतना भारत को नहीं। इस मुक्त
व्यापार समझौते के बाद चीन के उत्पाद इन आसियान देशों
के माध्यम से भारत में आने लगे, जिससे भारतीय कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र को बहुत
ज़्यादा नुक़सान हुआ। यही कारण है कि इनके साथ भारत का व्यापार-घाटा बढ़ता
चला गया।
भारत-आसियान:
अबतक का अनुभव:
आसियान देशों के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता सन् 2010
से लागू हुआ और सन् 2014 से सेवाओं को भी इसके दायरे में लाया गया। वित्त-वर्ष 2019-20 में आसियान देशों को भारतीय निर्यात सन् 2010 के 23 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 31.49 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच गया और
भारतीय आयात 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 55.37 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर। इस क्रम में व्यापार घाटा 7 बिलियन
अमेरिकी डॉलर से बढ़कर करीब 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच गया। वित्त-वर्ष 2005-06 में द्विपक्षीय व्यापार 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर था और व्यापार घाटा 0.5
बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर ।
अक्टूबर,2019
में सिंगापुर-आधारित बहुराष्ट्रीय बैंकिंग एवं वित्तीय निगम डीबीएस ग्रुप द्वारा प्रकाशित अध्ययन-प्रपत्र
में यह बतलाया गया है कि मुक्त व्यापार समझौतों के बाद आसियान देशों के साथ भारत
के निर्यात में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि भारत के आयात में 79 प्रतिशत की
वृद्धि हुई है। इस अध्ययन में यह बात भी सामने आयी है कि भारत के उन देशों, जिनके
साथ मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, के साथ निर्यात वृद्धि-दर समझौते वाले देशों की
निर्यात वृद्धि-दर से मामूली रूप से कम है, लेकिन आयात वृद्धि-दर के सन्दर्भ में
यह फर्क अपेक्षाकृत ज्यादा है जो बढ़ते हुए व्यापार-घाटे की व्याख्या करता है।
दक्षिण कोरिया के साथ समझौते का अनुभव:
सन् 2010 में दक्षिण
कोरिया के साथ भारत का समग्र आर्थिक भागीदारी समझौता(CEPA) लागू हुआ। इसकी पृष्ठभूमि में सन् (2010-18) के दौरान दक्षिण कोरिया के साथ
भारतीय निर्यात 5.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 5.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर
पर पहुँच गया, वहीं भारतीय आयात 9.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 16.4 बिलियन
अमेरिकी डॉलर के स्तर पर। मतलब यह कि जहाँ दक्षिण कोरिया को भारतीय
निर्यात लगभग स्थिर रहा है, वहीं भारतीय आयात में तीव्र वृद्धि दिखाई पड़ती है और
इसके परिणामस्वरूप इस दौरान द्विपक्षीय व्यापार-घाटा 4.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर बढ़कर
10.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच चुका है।
जापान के साथ समझौते का अनुभव:
सन् 2011 में जापान के साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता
लागू हुआ। सन् (2011-18) के दौरान जापान
के साथ भारतीय निर्यात 19 प्रतिशत की सालाना नकारात्मक वृद्धि के साथ 6.8 बिलियन
अमेरिकी डॉलर से घटकर 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया, जबकि 12 प्रतिशत की सालाना
वृद्धि के साथ भारतीय आयात 1.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 12.5 बिलियन अमेरिकी
डॉलर। इस तरह विवेच्य अवधि में 5.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का
व्यापार अधिशेष 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापार घाटे में तब्दील हो गया।
सम्बद्ध
हित-समूहों का विरोध
वर्तमान में, विश्व
व्यापार संगठन के प्रावधानों के अन्तर्गत रहते हुए 400 से अधिक क्षेत्रीय व्यापार
समझौते प्रवर्तमान हैं और आज ये वैश्विक अर्थव्यवस्था के ड्राइविंग फ़ोर्स में
तब्दील हो चुके हैं।
फिर भी, इन मुक्त क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के प्रति भारत का कितना उदासीन रहा है, इसका
अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने एक लम्बे समय तक इसकी उपेक्षा की, फिर
बहुपक्षीय व्यापार समझौते में विलम्ब के मद्देनज़र आधे-अधूरे मन से इसकी दिशा में
पहल की और अब एक बार फिर से विभिन्न कारणों से इससे परहेज़ करता दिख रहा है। इसका प्रमाण है
इसके द्वारा सन् 2012 से अबतक कोई मुक्त व्यापार समझौता न किया जाना, इस मसल पर
होने वाली वार्ताओं का लम्बा खिंचना, बातचीत के क्रम में अड़ियल रवैया और अब
क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी समझौते से इसका बाहर निकलना। अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि नवम्बर,2012 से करीब
सात वर्षों तक वार्ता-प्रक्रिया का हिस्सा रहने के बावजूद भारत ने इतने करीब जाकर
इस समझौते से बहार निकलने का निर्णय क्यों लिया? क्या इसका कारण
सिर्फ यह था कि विपक्ष इस मसले पर सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब होता दिखाई पड़ा
और सरकार कहीं-न-कहीं घिरती दिखी; या फिर सरकार सम्बद्ध हित-समूहों के दबाव के आगे
घिरती दिखी?
इस सन्दर्भ में
देखें, तो भारत में किसानों से लेकर छोटे-मंझोले कारोबारियों और उत्पादकों तक इस
समझौते के विरोध में दिखे और कहीं-न-कहीं सरकार उनके दबाव को अनदेखा कर पाने में
असमर्थ रही। साथ ही, विभिन्न मसलों पर सम्बद्ध पक्ष
और विशेष रूप से चीन भारत की चिन्ताओं को समझने और उसे रेस्पोंड कर पाने में
असमर्थ रहे। परिणामतः भारत को कठोर निर्णय लेना पड़ा।
भारतीय किसानों द्वारा विरोध:
ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड की मौजूदगी कृषि एवं भारतीय डेयरी-उद्योग
को, तो दक्षिण-पूर्व एशियाई राज्यों की मौजूदगी बागानी अर्थव्यवस्था के विकास को
प्रतिकूलतः प्रभावित कर सकती है। यद्यपि कृषि से सम्बंधित सारे उत्पादों को
संवेदनशील मदों की सूची में शामिल करते हुए इस समझौते के दायरे से बाहर रखा गया
था, लेकिन खाद्य-प्रसंस्करण उत्पादों को समझौते के दायरे में रखा गया था। ऐसी स्थिति में भारतीय
खाद्य-प्रसंस्करण उत्पादों को आयातित उत्पादों से प्रतिस्पर्धा करनी ही होती और
देर-सबेर इसका असर भारतीय कृषि-क्षेत्र पर भी देखने को मिलता। इसीलिए भारत में कृषि से सम्बंधित मदों को इसके
दायरे में लाये जाने का विरोध इस आधार पर किया जा रहा था कि अगर भारत इसमें
शामिल हुआ, तो पहले से परेशान किसान और छोटे व्यापारी तबाह हो जाएँगे। इस समझौते के बाद खेती-किसानी के
सन्दर्भ में नारियल, काली मिर्च, रबर, गेहूँ और
तिलहन की कीमतों में तेजी से गिरावट की आशंका थी जो पहले
से ही बदहाल किसानों की बदहाली को और भी बढ़ाने में सहायक होते।
भारतीय
डेयरी-उद्योग की चिन्ताएँ:
इस समझौते में भारतीय भागीदारी का विरोध करने में ऑस्ट्रेलिया
और न्यूजीलैंड के विकसित डेयरी उद्योग की प्रतिस्पर्धा से आशंकित भारतीय
डेयरी-उद्योग सबसे आगे रहा। यद्यपि दूध सहित कृषि से सम्बंधित सारे उत्पादों
को संवेदनशील मदों की सूची में शामिल करते हुए इस समझौते के दायरे से बाहर रखा गया
था, लेकिन डेयरी-उत्पादों को समझौते के दायरे में रखा गया था। भले ही दुग्ध-उत्पादक इस समझौते से प्रत्यक्षतः
प्रभावित नहीं होते, पर उनके परोक्षतः प्रभावित होने से इनकार नहीं किया जा सकता
क्योंकि जब उनके दूध को खरीदने वाले दुग्ध-प्रसंस्करणकर्ता प्रभावित होंगे, तो वे
कैसे और कितने दिनों तक उस प्रभाव से बचे रह सकते हैं। दरअसल, न्यूज़ीलैंड
द्वारा 93.4 प्रतिशत दूध पाउडर, 94.5 प्रतिशत बटर और 83.6 प्रतिशत चीज-उत्पादों का
निर्यात किया जाता है और वर्तमान में न्यूजीलैंड के डेयरी-उद्योग की नज़रें भारतीय बाज़ारों पर
टिकी हुई थीं। अगर इनके लिए भारतीय बाज़ार को खोला जाता, तो भारतीय बाज़ार
न्यूज़ीलैंड के सस्ते डेयरी-उत्पादों से भर जाता और फिर भारतीय डेयरी-उद्योग उनकी
प्रतिस्पर्धा का सामना न कर पाने के कारण बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता। ध्यातव्य
है कि भारतीय डेयरी उद्योगों के द्वारा दूध की खरीद करीब न्यूजीलैंड से तीन-गुनी
दरों पर की जाती है। भारत में किसानों से दूध 31 रुपए प्रति लीटर ख़रीदा जाता है, वहीं
न्यूजीलैंड में 10 रुपए प्रति लीटर दूध ख़रीदा जाता है। इसी
के मद्देनज़र भारत ने टैरिफ में कमी हेतु आधार-वर्ष के रूप में सन् 2014 के बजाय
सन् 2019 को बनाए जाने की शर्त रखी जिस पर समझौते में शामिल अन्य पक्ष तैयार नहीं
हुए।
उत्पादकों और कारोबारियों का दबाव:
भारतीय स्टील उद्योग, खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग एवं धातु-उद्योग पहले से ही
चीनी चुनौती और सस्ते चीनी उत्पादों के बढ़ते प्रवाह से उत्पन्न दबावों का सामना कर
रहा है। ऐसी स्थिति में उनकी आपत्ति आरसीईपी-समूह में चीन की मौजूदगी को लेकर है
क्योंकि यह इस दबाव को और अधिक बढ़ाने में सहायक होगी। ऐसा माना जा रहा था कि भारत
के इस समझौते में शामिल होने की स्थिति में स्टील, औषधि, ई-कॉमर्स,
खाद्य-प्रसंस्करण, कृषि, बौद्धिक सम्पदा और खाद्य-प्रसंस्करण क्षेत्र प्रभावित
होंगे। इसलिए भारतीय स्टील-उत्पादकों और भारतीय वस्त्र-उद्योगों के द्वारा भी इस
समझौते का विरोध किया जा रहा था। इस समूह में अगर चीन की मौजूदगी भारतीय विनिर्माण
उद्योग एवं औषधि क्षेत्र के लिए चुनौती उत्पन्न करती, तो सिंगापुर की मौजूदगी
भारतीय वित्तीय एवं तकनीकी क्षेत्र को।
उधर असंगठित क्षेत्र के छोटे कारोबारी, जो पहले से ही नोटबंदी और
जीएसटी की मार झेल रहे हैं, उनके लिए यह समझौता प्राणघातक होता और उनका
पूरा-का-पूरा धंधा चौपट होने के कगार पर पहुँच जाता। डेयरी, धातु,
इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग और रसायन समेत विभिन्न क्षेत्रों ने सरकार
से इन क्षेत्रों में शुल्क-कटौती नहीं करने का आग्रह किया था और इसके लिए उनके
द्वारा लॉबिइंग के ज़रिए सरकार पर दबाव निर्मित किया जा रहा था।
सेवा-क्षेत्र और
निवेश से सम्बद्ध चिन्ताएँ:
सेवा-क्षेत्र में भारत बेहतर स्थिति में है और भारत
के सेवा-प्रदाताओं के लिए अन्य देशों में बेहतर अवसर हो सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम
संगठन के अनुसार, 58 प्रतिशत भारतीय श्रम-बल अर्द्ध-कुशल (Medium-Skilled) हैं और 16 प्रतिशत भारतीय श्रम-बल उच्च
कौशल-सम्पन्न। भारत का सेवा-व्यापार अधिशेष की स्थिति में है। यही वह पृष्ठभूमि
है जिसमें भारत ने सभी सदस्य देशों के बीच ऐसे श्रम-समझौते का प्रस्ताव दिया था जिसके तहत् सदस्य-देशों
में श्रमिकों की आसान एवं मुक्त आवाजाही संभव हो सके और वहाँ पर उन्हें अस्थाई रूप
से काम करने का मौका मिल सके, ताकि वह अपने
श्रम-बल के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अंतर्निहित सम्भावनाओं का दोहन कर सके। इसी तरह, जहाँ अधिकांश देश सेवा-क्षेत्र के घरेलू नियमन के
पक्ष में हैं और भारत के मुक्त सेवा-निर्यात के प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं,
वहीं भारत के द्वारा सेवा-क्षेत्र से जुड़ी कम्पनियों को ज्यादा स्वतंत्रता देने
की माँग की गयी। इसी आलोक में भारत ने
सेवा-क्षेत्र में, विशेष रूप से श्रम-प्रवाह और सॉफ्टवेयर आउटसोर्सिंग सेक्टर में
वर्क वीजा जैसे तमाम मसलों पर रियायत के लिए सम्बद्ध पक्षों पर दबाव बनाने की
कोशिश की, लेकिन वह यहाँ भी रियायत हासिल कर पाने में असफल रहा। इसी तरह मुक्त निवेश-प्रवाह को लेकर आरसीईपी-प्रस्ताव को लेकर भी
भारत बहुत उत्साहित नहीं है क्योंकि इसका फायदा मुख्य रूप से चीन,
जापान एवं सिंगापुर के निवेशकों को मिलेगा।
मतभेद के
प्रमुख मसले
‘रूल ऑफ ऑरिजिन’ को
लेकर विवाद:
‘रूल ऑफ ओरिजिन’ (Rule of Origin)
से सम्बंधित वर्तमान प्रावधान उन देशों के उत्पादों के राउंड ट्रिपिंग पर अंकुश
लगा पाने में असमर्थ हैं जो मुक्त व्यापार समझौते के दायरे से बाहर हैं और जिनके
उत्पादों को भारत में प्रवेश के लिए उच्च सीमा-शुल्कों का सामना करना पड़ता है।
दरअसल, जबसे भारत और आसियान के बीच मुक्त व्यापार समझौता हुआ है, तब से चीनी माल
की आसियान के रास्ते भारत तक पहुँच बढ़ती चली
गयी और इसके परिणामस्वरूप आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार-घाटा बढ़ता चला गया,
पर रूल ऑफ़ ऑरिजिन के उदार प्रावधानों के कारण भारत आसियान के रास्ते पहुँचने वाले
चीनी माल के प्रवाह पर अंकुश नहीं लगा पा रहा है। आसियान-भारत मुक्त
व्यापार समझौते के सन्दर्भ में नीति आयोग ने ‘रूल ऑफ़ ऑरिजिन’ से
सम्बंधित प्रावधान के दुरूपयोग के जरिये भारत में आपूर्ति की राउंड-ट्रिपिंग की ओर
ध्यान आकृष्ट किया और कहा कि वित्त-वर्ष 2019 में कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स
उत्पादों पर आयात-शुल्क में वृद्धि के बाद चीन से आयात में 7.9 प्रतिशत की गिरावट
आयी है, जबकि कुछ आसियान देशों: सिंगापुर से आयात में 118 प्रतिशत, हांगकांग से
आयत में 68.5 प्रतिशत और वियतनाम से आयत में 43.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वित्त-वर्ष 2018 में हांगकांग का निर्यात, आयात एवं
व्यापार अधिशेष क्रमशः 14.69 बिलियन अमेरिकी डॉलर, 10.67
बिलियन अमेरिकी डॉलर और 4.02 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जो वित्त-वर्ष 2020 में
क्रमशः 10.96 बिलियन अमेरिकी डॉलर, 16.93 बिलियन अमेरिकी
डॉलर और व्यापार-घाटा 5.97 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया। ध्यान रहे कि इसी दौरान चीन के साथ भारत का द्विपक्षीय
व्यापार-घाटा 63.05 बिलियन अमेरिकी डॉलर से घटकर 48.66
बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया। चीन का आयात 76.38
बिलियन अमेरिकी डॉलर से घटकर 65.26 बिलियन
अमेरिकी डॉलर और निर्यात 13.33 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 16.66
बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया। इसलिए यह आशंका व्यक्त
की जा रही है कि चीनी-उत्पाद अब रास्ता बदलकर हांगकांग और आसियान देशों के रास्ते भारत पहुँच रहे हैं। ध्यातव्य है कि किसी उत्पाद के राष्ट्रीय स्रोत को निर्धारित करने के
लिये जिस मानदण्ड का उपयोग किया जाता है, उस मानदंड को ही ‘रूल्स
ऑफ ऑरिजिन’ कहा जाता है।
इन्हीं अनुभवों को ध्यान में रखते हुए भारत इस बार कहीं अधिक सतर्क है
और वह आरसीईपी समझौते में ‘रूल ऑफ़ ओरिजिन’ के
प्रावधान को और अधिक सख्त बनाना चाहता है, ताकि समझौते का लाभ उसी देश
तक सीमित रहे जिसके साथ समझौता किया गया है और उस समझौते का लाभ उठाते हुए कोई
अन्य देश व्यापार को विकृत न करें। पर सम्बद्ध पक्षों ने इससे सम्बंधित भारतीय
चिंताओं के भी समाधान की आवश्यकता नहीं समझी।
आधार-वर्ष को लेकर विवाद:
आधार-वर्ष विवाद के मूल में डेरी उद्योग और इलेक्ट्रॉनिक्स
उत्पादों से सम्बद्ध भारतीय चिन्ताएँ थीं। अगर वर्ष 2014 को आधार-वर्ष के रूप में
स्वीकार किया जाता, तो इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों पर भारत में आयात-शुल्क शून्य
प्रतिशत करना होता और ऐसी स्थिति में भारतीय बाज़ार सस्ते चीनी इलेक्ट्रॉनिक
उत्पादों से भर जाते। इसलिए भारत यह चाहता था कि आयात-शुल्क में कमी के लिए
सन् 2019 को आधार-वर्ष के रूप में चुना जाए, लेकिन इस समझौते
में टैरिफ घटाने के लिये सन् 2014 को आधार-वर्ष के रूप में प्रस्तावित
किया गया।
दरअसल चीन के साथ भारत
ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक जैसे कई उत्पादों पर आयात-शुल्क
बढ़ाया है जिसके कारण अगर सन् 2019 को आधार वर्ष बनाया जाता, तो उसे समझौते द्वारा
उत्पन्न चुनौतियों से निबटने के लिए थोडा-सा समय भी मिल जाता और थोड़ी-सी राहत भी।
वर्तमान में भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स एवं मोबाइल उद्योग आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर
है और ऐसी स्थिति में टैरिफ में कटौती के लिए 2014 के वर्ष को आधार-वर्ष के रूप
में स्वीकार करना एक तरह से प्रतिगामी कदम होता, जो इस दिशा में होने वाली प्रगति
को अवरुद्ध करता। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए भारत ने विश्व व्यापार
संगठन से सम्बद्ध समझौते की तरह ही स्पेशल सेफ़गार्ड मैकेनिज्म की भी माँग की थी,
अन्यथा भारत के घरेलू उद्योगों को बचा पाना मुश्किल होता चला जाता। लेकिन, अन्त-अन्त तक
भारत इस मसले पर भी आश्वासन हासिल कर पाने में असफल रहा।
नॉन-टैरिफ बैरियर का मसला:
अक्सर विकसित देशों, जहाँ कर-सुधारों की
प्रक्रिया एडवांस स्टेज में होने के कारण आयात-शुल्क की दरें अत्यन्त निम्न स्तर
पर है और उसमें वृद्धि की संभावना नहीं है, के द्वारा नॉन-टैरिफ बैरियर(NTB) का
इस्तेमाल अत्यन्त चालाकी से आयात को हतोत्साहित करने के लिए किया जाता है। चीन के
साथ व्यापार का अबतक का भारतीय अनुभव यह बतलाता है कि चीन ने नॉन-टैरिफ बैरियर का
प्रभावी तरीके से इस्तेमाल करते हुए भारतीय निर्यात को बाधित करने की कोशिश की है
और इसका प्रतिकूल असर द्विपक्षीय व्यापार संतुलन पर पड़ा है। शायद यही कारण है कि भारत
भी कहीं-न-कहीं समझौते में शामिल देशों के द्वारा नॉन-टैरिफ बैरियर के दुरूपयोग को
लेकर आशंकित था, इसीलिए वह आरसीईपी में शामिल अन्य देशों से इस मसले पर स्पष्ट
आश्वासन चाहता था कि नॉन-टैरिफ बैरियर के दुरूपयोग के ज़रिए उसकी बाज़ार पहुँच को
प्रभावित करने की कोशिश नहीं की जाएगी, लेकिन इस सन्दर्भ में भारत को कोई आश्वासन
नहीं मिली।
भारत द्वारा ऑटो-ट्रिगर मैकेनिज्म की माँग:
आरम्भ में भारत ने देश-विशिष्ट टैरिफ-व्यवस्था का सुझाव दिया था,
लेकिन जब इसे ख़ारिज कर दिया गया, तो इसने रै’चेट
ऑब्लिगेशन (Ratchet obligations) से छूट के लिए दबाव
बनाया। इस मैकेनिज्म के अनुसार, यदि कोई देश किसी अन्य
देश के साथ व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करता हुआ उसके पण्य आयात-निर्यात को टैरिफ
और कोटा से छूट प्रदान करता है, तो वह उससे पीछे वापस लौट कर अपेक्षाकृत
प्रतिबंधित प्रकृति वाली शर्तों को नहीं थोप सकता है। इसी आलोक में भारत ने ऑटो-ट्रिगर
मैकेनिज्म का सुझाव दिया, ताकि देश-विशेष से आयात में तीव्र वृद्धि की
स्थिति में आयात के एक निश्चित सीमा से अधिक होने पर उसके विरुद्ध प्रभावी तरीके
से कार्रवाई की जा सके और आयात-शुल्क में वृद्धि के ज़रिए घरेलू उद्योगों को
संरक्षण दिया जा सके। भारत का सुझाव था कि यदि कोई सदस्य भारत में अपने उत्पादों की
डम्पिंग कर रहे हैं और इसके कारण भारत के घरेलू उद्योग प्रतिकूलतः प्रभावित हो रहे
हैं, तो भारत को आयात-शुल्क में स्वत: बढ़ोतरी का अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन, लेकिन, भारत की तमाम कोशिशों के बावजूद चीन ने
भारत की इस माँग को खारिज कर दिया। दरअसल
यह माँग चीन को लेकर मौजूद आशंकाओं के कारण ही की रखी गयी।
इसी प्रकार अति-पसन्दीदा राष्ट्र(MFN) के दर्जे को लेकर भी अंत-अंत तक भारत और आरसीईपी के अन्य
सदस्य-देशों के बीच सहमति नहीं बन पायी है क्योंकि अन्य देश इसे सबों के लिए सुलभ
बनाने पर जोर दे रहे थे, जबकि भारत का जोर इसे सापेक्षिक बनाए रखने पर था।
बौद्धिक
सम्पदा का संदर्भ:
इस समझौते के सन्दर्भ में भारत की आपत्ति बौद्धिक संपदा एवं निवेश से
जुड़े प्रस्तावों को लेकर भी थी और भारत ने उसमें बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया था। अगर भारत बौद्धिक संपदा अधिकारों से सम्बंधित आरसीईपी-प्रस्ताव
को स्वीकार करता, तो कृषि बीज एवं औषधि-निर्माण के क्षेत्र में इसे ज़बर्दस्त
झटका लग सकता था, जैसा कि भारत दुनिया में जेनेरिक ड्रग्स का सबसे बड़ा
उत्पादक है। इसके अतिरिक्त, इसके कुछ प्रावधान ट्रिप्स प्लस को लागू करते हैं। ध्यातव्य है कि
ट्रिप्स प्लस अपेक्षाकृत कठोर बौद्धिक सम्पदा कानून की हिमायत करता है और इसके लिए
एवरग्रीनिंग अर्थात् पेटेंटिंग की अवधि
समाप्त हो जाने के बाद पुराने पेटेंट उत्पादों को ही थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ नए
सिरे से पेटेंट करने की अनुमति प्रदान करता है, को वैधानिक स्वरुप प्रदान करने की
आवश्यकता पर बल देता है। अगर ऐसा होता है, तो भारत के जेनेरिक मेडिसिन का पूरा कारोबार
ध्वस्त हो जाएगा।
मुक्त बाज़ार
समझौता: विभ्रम की स्थिति
13.4 प्रतिशत रही है, जबकि कुल वृद्धि-दर 10.9 प्रतिशत रही है। आयात के सन्दर्भ में 8.6 प्रतिशत रही है, जबकि कुल आयात वृद्धि-दर 12.7 प्रतिशत रही है। इस प्रकार विनिर्मित उत्पादों के सन्दर्भ में व्यापार-अधिशेष में 0.7 प्रतिशत की सालाना वृद्धि भारत के द्वारा दर्ज की गयी, और कुल पण्य व्यापार के सन्दर्भ में 2.3 प्रतिशत की सालाना वृद्धि।
नौशाद
फोर्ब्स का विश्लेषण:
नौशाद फोर्ब्स ने
अपने आलेख ‘ड्रॉपिंग आउट आरसीईपी प्रोटेक्ट्स इंडियन इंडस्ट्री इन द शार्ट रन, बट
इट सर्व्स आवर लॉन्ग-टर्म इंटरेस्ट’ में
मुक्त व्यापार समझौतों से सम्बंधित इस धारणा को
खारिज किया है कि मुक्त व्यापार समझौतों के कारण भारत के व्यापारिक हित
प्रतिकूलतः प्रभावित हुए हैं। उनके अनुसार, सन् 2000 में मुक्त व्यापार समझौतों के पहले
भारत का 17 प्रतिशत आयात और 15 प्रतिशत निर्यात इन देशों के साथ होता था, लेकिन
मुक्त व्यापार समझौतों के बाद 18 प्रतिशत आयात और 18 प्रतिशत निर्यात इन देशों के
साथ होता है। मतलब यह कि मुक्त व्यापार समझौतों के दौर में आयात की तुलना निर्यात
में कहीं अधिक तेजी से वृद्धि हुई और इसके परिणामस्वरूप इनके साथ व्यापार-घाटे की
भरपाई सम्भव हो सकी। और हाँ, यह आँकड़ा उस सोच को भी खारिज करता है जो मुक्त
व्यापार समझौतों की अहमियत को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। इसके विपरीत देखें, तो
किसी भी प्रकार का व्यापार-समझौता न होने के बावजूद (2000-19) के दौरान भारतीय
आयात में चीन की हिस्सेदारी 2.6 प्रतिशत से बढ़कर 13.7 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच
गयी।
उनका कहना है कि व्यापारिक रुझान इस
दिशा में संकेत करते हैं कि यह औद्योगिक प्रतिस्पर्धात्मकता है जो व्यापारिक
रुझानों को प्रभावित करता है, और इसका प्रमाण यह है कि पिछले बीस वर्षों के दौरान
वियतनाम, चीन एवं दक्षिण कोरिया से भारत के आयात में क्रमशः 65 गुनी, 54 गुनी एवं
15 गुनी वृद्धि हुई है और ये दुनिया की सर्वाधिक प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यवस्थाएँ
हैं जिसके कारण व्यापार-संतुलन को इनके पक्ष में होते हुए देखा जा सकता है। इस समझौते की
खासियत इस बात में थी कि इसने सदस्य-देशों को उनकी आर्थिक ज़रूरतों के हिसाब से
समायोजन के लिए (5-20) साल तक का समय दिया गया था।
समझौते
से बाहर निकलना: भारत की भूल
समझौते की
अहमियत:
भारत
लम्बे समय से वैश्विक उत्पादन का हब बनने की कोशिश में है और इसके मद्देनज़र आरसीईपी
पर हस्ताक्षर करने की स्थिति में वह आबादी के लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़े व्यापारिक-ब्लॉक
का हिस्सा बन जाता। भारत के शामिल होने
की स्थिति में क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौता जिस बाज़ार को निर्मित
करता, वह विश्व का सर्वाधिक आकर्षक बाज़ार होता, जो आकार की दृष्टि से यूरोपीय संघ
से भी ज्यादा बड़ा बाज़ार होता, जो भारतीय बाज़ार का आठ गुणा होता और जिसके अगले दो
दशकों तक आकर्षक बने रहने की सम्भावना है। नीति आयोग के द्वारा जारी दस्तावेज़ के अनुसार, इस समझौते में
शामिल 16 देश 25% वैश्विक
जीडीपी, 30% वैश्विक व्यापार, 26% विदेशी प्रत्यक्ष
निवेश(FDI) और दुनिया की 45% आबादी का प्रतिनिधित्व करते। और, सबसे महत्वपूर्ण यह
कि इसकी विकास-दर शेष विश्व की विकास-दर की दोगुनी है। इससे उसके लिए निर्यात करना भी आसान हो जाता और पूँजी एवं निवेश
तक उसकी पहुँच भी आसान हो जाती।
ध्यातव्य है कि चीन ने आरसीईपी को ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप
एग्रीमेंट के विकल्प के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश की और खुद सामने आने के बजाए
आसियान देशों के माध्यम से इसके ज़रिए वैश्विक आपूर्ति-श्रृंखला स्थापित करने की
दिशा में पहल की। लेकिन, समझौते से बाहर रहते हुए भारत ने वैश्विक-आपूर्ति श्रृंखला का
हिस्सा बनने का अवसर गँवा दिया है। अब, भारत के सामने चुनौती इस
निर्णय से होने वाले घाटे की भरपाई की है, लेकिन इसके लिए भारत को अपने घरेलू बाजार को
प्रतिस्पर्धी बनाना होगा जो कर-सुधारों, श्रम-सुधारों और मैन्युफैक्चरिंग-सुधारों
को फोकस करते हुए आर्थिक सुधारों की
प्रक्रिया को आगे बढ़ाए बिना सम्भव नहीं होगा।
विशेषज्ञ पैनल की सलाह की अनदेखी:
प्रस्तावित क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी(RCEP) समझौते को लेकर
गठित उच्च-स्तरीय सलाहकार समूह ने केंद्र सरकार को इसमें शामिल होने की सलाह देते
हुए कहा था कि अगर इस समझौते(RCEP) से भारत के बाहर रहने का मतलब है इसका एक बड़े
क्षेत्रीय बाज़ार से बाहर रह जाना, जो बेहतर अवसर खोने के समान होगा। ऐसा माना जा
रहा है कि आसियान के सदस्य-देश अगर पिछले कुछ वर्षो से भारत के प्रति ज्यादा
उदारता दिखा रहे थे, तो उसके पीछे आरसेप ही था। यह भी कहा जा रहा है कि इस समझौते का फायदा भारतीय उपभोक्ताओं को मिलता
और इसके कारण उनकी पहुँच अपेक्षाकृत कम कीमत पर बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों के
विविध रेंज तक संभव हो पाती। साथ ही, यह
भारतीय अर्थव्यवस्था के कृषि अर्थव्यवस्था से औद्योगिक अर्थव्यवस्था में रूपांतरण
की प्रक्रिया को भी उत्प्रेरित करने में समर्थ था।
नीति-आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने
क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) में शामिल ना होने के फैसले को गलत ठहराते हुए
कहा कि भारत के शामिल ना होने से देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनी नहीं आएगी और ना ही
भारत में निवेश करेगी।
भारत की दुविधा:
भारत की दुविधा यह है कि वह दूसरे देश के बाज़ारों तक
पहुँचते हुए शेष विश्व के साथ एकीकृत होना भी चाहता है और उसे अपने बाज़ारों को
खोलने से परहेज़ भी है। भारत एक ओर एशिया में नेतृत्वकारी भूमिका में आना चाहती है, दूसरी ओर
चीनी प्रभुत्व की आशंकाओं के कारण बच कर निकलना भी चाहता है; और ये दोनों चीजें एक
साथ सम्भव नहीं हैं। अगर भारत ने इस समझौते के साथ आगे बढ़ने का निर्णय
लिया होता, तो यह आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौते की तार्किक परिणति के रूप
में भी देखा जाता और भारत की एक्ट ईस्ट नीति और इंडो-पेसिफ़िक रणनीति के अनुरूप भी।
लेकिन, इस समझौते से अलग रहने के उसके इस निर्णय ने एक साथ उसकी एक्ट ईस्ट नीति और
इंडो-पेसिफ़िक रणनीति को झटका दिया है। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि भले ही भारत का
यह निर्णय थोड़ी देर के लिए भारत के किसानों, उत्पादकों और कारोबारियों को राहत
देता हुआ दिख रहा हो, पर उसका यह फैसला उसके दीर्घकालिक हितों के अनुरूप नहीं है
और देर-सबेर इस फैसले का नकारात्मक असर भारत को भी झेलना पड़ सकता है। शायद इसीलिए
विश्लेषकों का कहना है कि भारत को एक झटके के साथ इस समझौते से बाहर निकलने के
बजाय बातचीत की प्रक्रिया में बने रहना चाहिए था और समझौते में शामिल होने को
इच्छुक देशों के साथ पूरी दृढ़ता के साथ मोल-भाव (Hard Bargain) करना चाहिए।
भारत की
धूमिल होती छवि:
इतना ही नहीं, भारत के
इस कदम ने व्यापारिक सुधारों और घरेलू आर्थिक सुधारों को लेकर उसकी प्रतिबद्धता को
भी सवालों के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया है। इससे संरक्षणवादी देश के रूप में भारत की
छवि मज़बूत होगी और आने वाले समय में भारत पर अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने का दबाव
पहले से कहीं अधिक होगा। इस निर्णय के क्रम में भारत ने
इस बात को भुला दिया कि ऐसे मुक्त व्यापार समझौते अर्थव्यवस्था को बहुपक्षीय
व्यापार-जन्य प्रतिस्पर्धा, जिससे वैश्वीकरण के दौर में लम्बे समय तक बचा नहीं जा सकता है, के लिए बेहतर तरीके से तैयार
करने में सहायक हैं और इसीलिए उसके पूरक भी हैं। इसलिए भारत ने चुनौतियों को अवसर
में तब्दील करने का एक अवसर खो दिया।
स्वीडन में उपासला
यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल स्टडीज के निदेशक अशोक स्वैन ने इस ओर ध्यान आकृष्ट
करते हुए लिखा है, “भारत की गैर-मौजूदगी में अब चीन दुनिया के सबसे बड़े व्यापारिक
समझौते का नेतृत्व करेगा। पीएम मोदी ने भारत को
इस क्षेत्र में और दुनिया में अकेला कर दिया है।” उन्होंने आगे लिखा, “भारत आरसीईपी से इस डर से बाहर निकल गया
क्योंकि भारत के मैन्युफैक्चरर चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं, तो फिर
भारत को चीन को चुनौती देने की बात भूल ही जानी चाहिए।”
विश्लेषण
यहाँ पर इस बात को
ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि यह समझौता जहाँ आसियान के 90 प्रतिशत टैरिफ
लाइन के सापेक्ष चीन के महज 74 प्रतिशत टैरिफ-लाइन को ही समझौते के दायरे में लाता
है। इसी प्रकार आसियान, जापान और दक्षिण
कोरिया के सन्दर्भ में शून्य आयात-शुल्क की व्यवस्था तत्काल प्रभावी होगी, लेकिन
चीनी उत्पादों के संदर्भ में इसके लिए (5-20) वर्ष का समय दिया गया है, तब कहीं
जाकर शून्य टैरिफ की व्यवस्था प्रभावी होती। आज के दौर में अर्थव्यवस्थाओं के
समायोजन के लिए इतना समय कम नहीं होता है, इसीलिए विश्लेषण करते वक़्त इस पहलू की
अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए
कि आरसीईपी देशों में दक्षिण कोरिया, जापान और आसियान देशों के साथ भारत का मुक्त
व्यापार समझौता पहले से ही प्रभावी है। इसका मतलब यह है कि इन देशों में केवल चीन, ऑस्ट्रेलिया और
न्यूज़ीलैंड ऐसे देश हैं जिनके साथ भारत का मुक्त व्यापार समझौता नहीं है, इसलिए इस
समझौते से बाहर रहने का असर भारत पर वैसा नहीं होगा, जैसा कि बतलाया जा रहा है। इनमें भी भारत की ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के
साथ मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बातचीत चल रही है और उम्मीद की जा रही है कि
ऑस्ट्रेलिया के साथ बातचीत अंतिम चरण में है। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भले ही भारत ने खुद को इस समझौते से बाहर कर लिया
हो, पर भविष्य में जुड़ने की सम्भावना दोनों पक्षों ने खुली रखी है। इस समझौते से
अलग होने के भारत के निर्णय के बाद चीन का भी कहना है कि वह भारत की तरफ से उठाये गये
मुद्दों एवं आपत्तियों के निराकरण का प्रयास करेगा।
फिलहाल, आरसीईपी
भारत के बिना आगे बढ़ेगा जो भारत की आर्थिक और रणनीतिक नेतृत्व की महत्वाकांक्षाओं
के लिए बड़े झटके की तरह है। उम्मीद की जा रही है कि भारत इस साल के अन्त तक ऑस्ट्रेलिया
के साथ व्यापारिक समझौता, अमेरिका के साथ सीमित व्यापार समझौता और यूरोपीय संघ के
साथ मुक्त व्यापार समझौते को लेकर उत्पन्न गतिरोध को दूर करेगा और इसके ज़रिए इसकी
कुछ हद तक भरपाई करने की कोशिश करेगा, यद्यपि कोरोना संकट के कारण अब इसमें विलम्ब
की सम्भावना है।
स्रोत-सामग्री:
1. Trade pacts: Economic Survey argued FTAs beneficial
but Niti Aayog wants a review: Banikinkar
Pattanayak |
2. Why RCEP mattered for India: Udit Misra,
November 7, 2019
3. In RCEP negotiations, Delhi has been consistent. It is right to put its
own interests first: Soumya Kanti
Ghosh, November 5, 2019
4. Dropping out of RCEP protects Indian industry in the short run. But it
serves our long-term interests: Naushad
Forbes, November 14, 2019
5. By not joining RCEP, India sends signal of shrinking possibilities — at
home and abroad: Pratap Bhanu
Mehta: November 8, 2019
6. Safe, for now: On
India opting out of RCEP: Editorial, The Hindu, NOVEMBER 06, 2019
7. https://niti.gov.in/writereaddata/files/document_publication/FTA-NITI-FINAL.pdf
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