अन्तःअफगान शान्ति-वार्ता,
सितम्बर,2020
प्रमुख आयामत,AFP/GETTY IMAGES
1. अन्तःअफगान वार्ता,
सितम्बर,2020:
a. अफगान सरकार और तालिबान के बीच मतभेद
b. अबतक की प्रगति
c. अफगान सरकार के आन्तरिक मतभेद
d. अफगान शान्ति-वार्ता दल एवं परिषद् का गठन
e. तालिबान वार्ता-पैनल में बदलाव
f.
अन्तःअफगान
वार्ता की शुरुआत,सितम्बर,2020
g. तालिबान का रुख
h. अफगान-सरकार का रुख
i.
भारत का रुख
j.
आगे की
चुनौतियाँ
k. विश्लेषण
अन्तःअफगान वार्ता, सितम्बर,2020
फरवरी,2020 में सम्पन्न अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौते के
प्रावधानों के तहत् तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच अन्तःअफगान वार्ता को 10 मार्च से शुरू होना था, लेकिन काफी रस्साकसी
के बाद यह वार्ता सितम्बर,2020 में जाकर कहीं शुरू हो पाई। तालिबान और अफगानिस्तान
के बीच मतभेदों के कारण इस वार्ता की शुरुआत में विलम्ब हुआ। तालिबान ने जहाँ इस
वार्ता के लिए अफगान सरकार की कैद में बन्द तालिबानी लड़ाकों की रिहाई की
पूर्व-शर्त रखी, वहीं वार्ता के लिए संघर्ष-विराम और हिंसा में कमी की अफगान सरकार
की शर्त को खारिज कर दिया। खैर, अमेरिकी हस्तक्षेप और पहल ने दोनों पक्षों को इस
बात के लिए राजी किया कि वार्ता के शुरू होने के पहले अफगान सरकार के द्वारा 5,000
से अधिक तालिबानी लड़ाकों को रिहा किया जाए, और तालिबान द्वारा 1,000 अफगानी
सैनिकों को। लेकिन, अफगानी राष्ट्रपति अशरफ ग़नी इस बात पर अड़े हुए थे कि अफगान
सरकार उन 400 तालिबानी लड़ाकों को रिहा नहीं करेगी जिनके विरुद्ध गंभीर अपराध में
संलिप्तता के आरोप हैं। अफगानी सरकार के स्टैंड को इस मसले पर ऑस्ट्रेलिया और
फ्रांस के सख्त रुख से भी बल मिला। इस कारण अफगान सरकार और तालिबान के बीच गम्भीर मतभेद उभर कर सामने
आये और दोनों पक्षों को वार्ता हेतु राजी करने में समय लगा।
अन्ततः लोया जिरगा द्वारा 400 तालिबानी लड़ाकों की रिहाई से सम्बंधित प्रस्ताव
पारित किये जाने के बाद वार्ता का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस मसले पर भारत को भी फायदा हुआ और वह यह कि उन तीन भारतीयों को भी
रिहा किया गया जिन्हें तालिबान ने सन् 2018 से ही बन्दी बना रखा था।
अबतक की प्रगति:
अपने आलेख ‘इंट्रा-अफगान वार्ता की शुरुआत में मूल्यों का टकराव’ में
डॉ. अन्वेषा घोष ने अफगानिस्तान के सन्दर्भ में हालिया प्रगति के आलोक में भविष्य
की सम्भावनाओं को टटोलने की कोशिश की है।
इस समझौते को सम्पन्न हुई करीब सात महीने होने को हैं। इन सात महीनों के
अनुभव इस बात का संकेत देते हैं कि अफगान सरकार की
तुलना में तालिबान की स्थिति कहीं अधिक मज़बूत है और अफगान सरकार को
चाहे-अनचाहे अफगान सरकार की शर्तें स्वीकार करनी पड़ रही हैं। न चाहते हुए भी अफगान
सरकार को सभी तालिबानी लड़ाकों को रिहा करना पड़ा और जबतक इनकी रिहाई नहीं हुई,
राजनीतिक शान्ति-वार्ता हेतु तालिबान टस-से-मस नहीं हुआ। अगस्त,2020 में पारंपरिक अफगान बैठक ‘लोया जिरगा’
ने ‘अफगान-तालिबान शांति-वार्ता की शुरुआत हेतु बाधाओं को हटाने, रक्तपात को रोकने, और जनता की भलाई हेतु’ शेष 400 तालिबान कैदियों की रिहाई को मंजूरी से सम्बंधित प्रस्ताव पारित किया। अमेरिकी सहयोग की बदौलत फ्रांसीसी
और ऑस्ट्रेलियाई विरोध को नज़रंदाज़ करते हुए अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी ने
हाल ही में शेष बचे 400 अफगान
तालिबान कैदियों को रिहा करने का आदेश दिया। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान सरकार के न चाहने के बावजूद इस शान्ति-वार्ता
के एजेंडे के निर्धारण में पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण एवं निर्णायक
है। इससे पहले कि यह शान्ति-वार्ता शुरू हो, मुल्ला बरादर के नेतृत्व में तालिबान
की एक टीम पाकिस्तान के दौरे पर है।
हाल की रिपोर्टों के अनुसार, लगभग 13,000 से अमेरिकी सैनिकों की संख्या
अब घटकर लगभग 8,600 हो गई है और अफगानिस्तान में पाँच
ठिकाने बंद हो गए हैं। अमेरिकी के रक्षा-सचिव मार्क एस्पर ने इस बात के संकेत दिए कि
नवम्बर, 2020 तक 3,600 अतिरिक्त अमेरिकी सैनिकों
की वापसी के साथ अफगानिस्तान में बचे हुए अमेरिकी
सैनिकों की संख्या कम होकर करीब 5,000 रह जायेगी। शेष
बचे सैनिकों की वापसी अफगान-तालिबान शान्ति-वार्ता के परिणामों पर निर्भर करेगी।
अफगान सरकार के आन्तरिक मतभेद:
समस्या सिर्फ यही नहीं रही, वरन् यह भी रही कि अफगानी सरकार और इससे
सम्बद्ध विविध पक्षों के बीच मतभेदों ने भी इस वार्ता को विलंबित करने में अहम्
भूमिका निभायी। मासूम स्टानेकजई के नेतृत्व में अफगान वार्ता-पैनल
की संरचना और उसमें सदस्यों की नियुक्ति के मसले पर राष्ट्रपति अशरफ ग़नी और उनके
प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला, जो राष्ट्रीय सुलह की उच्च परिषद् (High Council for National Reconciliation) के अध्यक्ष
भी हैं, के बीच सहमति बनाने में भी समय लगा। इस
मसले पर भी मंथन हुआ कि पुरुष वार्ताकारों वाली तालिबानी टीम के साथ चार महिला
वार्ताकार को समाहित करने वाली अफगानी टीम की वार्ता कहाँ तक उचित होगी।
अफगान शान्ति-वार्ता दल एवं परिषद् का गठन:
उधर,
तालिबान के साथ राजनीतिक शान्ति-वार्ता में अफगानिस्तान
की 21 सदस्यीय टीम का नेतृत्व अफगान खुफिया-एजेंसी राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय(NSD)
के पूर्व प्रमुख मसूम स्टेनकेजई द्वारा किया जाएगा। इसके अलावा,
अगस्त,2020 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने पूर्व मुख्य कार्यकारी
अधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के नेतृत्व में 46
सदस्यीय परिषद का भी गठन किया है जिसमें अब्दुल रसूल और सय्यफ
गुलाबुद्दीन हिकमतयार सहित तमाम मुज़ाहिदीन एवं जिहादी नेताओं के साथ-साथ 9 महिला
प्रतिनिधियों को भी शामिल किया गया है। इस परिषद् से यह अपेक्षा की गयी है कि वह अफगान
सरकार की ओर से उस एजेंडे का निर्धारण करे, जिस पर शांति-वार्ता होनी है। अफगान
शान्ति-वार्ता दल को इसी परिषद् को रिपोर्ट करना है और इसी से निर्देश लेने हैं।
पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के द्वारा इस परिषद् में शामिल होने से इनकार आगे की
चुनौतियों की ओर इशारा करता है।
तालिबान वार्ता-पैनल में बदलाव:
इसके अतिरिक्त, हाल ही में तालिबान ने शान्ति-वार्ता में भाग लेने वाली टीम में बदलाव
करते हुए तालिबान सैन्य-अभियानों के प्रभारी एवं हार्डलाइनर मुल्ला मोहम्मद याक़ूब,
मुल्ला उमर के पुत्र और अनस हक्कानी, सिराजुद्दीन हक्कानी के छोटे भाई को शामिल
करने के संकेत दिए हैं। ये बदलाव इस ओर इशारा करते हैं कि आने वाले समय में अफगान सरकार के लिए तालिबान से डील कर पाना और उनसे रियायतें
हासिल कर पाना आसान नहीं होने जा रहा है। कारण यह कि:
1. न तो अब तक तालिबान वार्ताकारों ने किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे
पर कोई भी लचीलापन दिखाया है, और
2. न ही अफगान सरकार को मान्यता ही दी है जिसके कारण इस बात को
लेकर अस्पष्टता है कि कि तालिबान संवैधानिक लोकतांत्रिक राजनीतिक
व्यवस्था को स्वीकार भी करेगा या नहीं।
इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अगर अफगानिस्तान में
शान्ति के लिए पिछले दो दशकों की उपलब्धि संवैधानिक राजनीतिक व्यवस्था और महिलाओं
के अधिकारों को दाँव पर लगाया जाता है, तो यह अफगानिस्तान के भविष्य के लिए त्रासद
होगा।
अन्तःअफगान वार्ता की
शुरुआत,सितम्बर,2020
सितम्बर,2020 में क़तर में अफ़ग़ानिस्तान सरकार
और तालिबान के बीच पहली बार शांति-वार्ता हो रही है। अब
तक चरमपंथी इस्लामिक संगठन तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को ‘अमरीकी कठपुतली’ बतलाते
हुए उससे बात करने से परहेज़ करता रहा था। लेकिन, फरवरी में सम्पन्न
शान्ति-समझौते और अमेरिकी दबाव ने अन्ततः दोनों को एक प्लेटफ़ॉर्म पर आकर अफगानिस्तान
में शान्ति की पुनर्बहाली की दिशा में प्रयास के लिए विवश किया।
तालिबान
का रुख:
तालिबान शरिया की
हिमायत कर रहा है और इस्लामिक कानून से कम पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर साउथ
एशियन स्टडीज़ में प्रोफेसर संजय के. भारद्वाज कहते
हैं, “तालिबान हमेशा से
इस्लामी क़ानून लागू करने का पक्षधर रहा है। सम्भव है
कि वह संघर्ष-विराम के लिए राज़ी हो जाए, लेकिन लोकतांत्रितक संवैधानिक सरकार के
लिए उसका तैयार होना मुश्किल है।” यह स्थिति
भारत के लिए सुखद नहीं कही जा सकती है और इससे न केवल द्विपक्षीय सहयोग, वरन् भारत
की सुरक्षा भी प्रभावित होगी। इसका कारण यह है
कि भारत इस्लामिक चरमपंथ की चुनौती का सामना कर रहा है और इन भारत-विरोधी चरमपंथी
गुटों को तालिबान का समर्थन प्राप्त है। ऐसी स्थिति में
अफगानिस्तान में तालिबान का मजबूती से स्थापित होना इस्लामिक चरमपंथ की चुनौती का
सामना कर रहे पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र को प्रभावित करेगा जहाँ 4 मुस्लिम बहुल
देश हैं और मुसलमानों की आबादी करीब 60 करोड़ से अधिक है।
अफगान-सरकार
का रुख:
10 सितम्बर को वार्ता की शुरुआत के वक़्त
अफ़ग़ानिस्तान पीस काउंसिल के प्रमुख अब्दुल्ला अब्लदुल्ला ने संघर्ष-विराम को
अविलम्ब लागू करने का आह्वान किया, ताकि अफगानिस्तान में जारी हिंसा पर तत्काल
अंकुश लगाया जा सके। उन्होंने कहा कि उनका प्रतिनिधिमंडल
एक ऐसे उदार संवैधानिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जिससे देश की सांस्कृतिक, सामाजिक और जातीय
पृष्ठभूमि से आने वाले लाखों अफगानी जनता जुड़ी हुई है और जो अफगानिस्तान में अमन
एवं चैन की, शान्ति एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली चाहती है।
लेकिन, इस पर बात करने से परहेज़ करते हुए तालिबान
के नेता मुल्ला बरादर अखुंद ने उम्मीद जताई, “अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र और एकजुट रहे,
और...वहाँ एक इस्लामी व्यवस्था हो जिसमें देश की सभी जनजातियाँ और जातियाँ बिना
किसी भेदभाव के रह सकें।” मतलब यह कि संघर्ष-विराम, राजनीतिक प्रणाली के स्वरूप और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमा ऐसे मसले रहे
जिस पर दोनों पक्षों के बीच मतभेद बना रहा और जिस पर सहमति तक पहुँच पाना आसान
नहीं होने जा रहा है। महिला एक्टिविस्ट इस बात को लेकर
आशंकित हैं कि कहीं पिछले एक दशक एक दौरान महिलाओं के अधिकारों को लेकर होने वाले
थोड़ी-बहुत प्रगति से भी वंचित नहीं होना पड़े। उनकी यह आशंका
निराधार भी नहीं है क्योंकि तालिबान के प्रतिनिधि-मंडल में एक भी
महिला नहीं है।
भारत का रुख:
अन्तःअफगान
वार्ता अर्थात् अफ़ग़ानिस्तान-तालिबान राजनीतिक वार्ता के उद्घाटन समारोह में ऑनलाइन भाग
लेते हुए भारत के विदेश-मंत्री एस. जयशंकर ने भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच
ऐतिहासिक रिश्तों और सहयोग पर बात की। उन्होंने शांति-वार्ता के दौरान अफ़ग़ानिस्तान
की महिलाओं और अल्पसंख्यंकों के हितों को ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता पर बल
दिया। भारतीय विदेश-मंत्रालय के मुताबिक़, अफ़गानिस्तान में
क़रीब 1700 भारतीय बैंकिंग, अस्पताल, सुरक्षा
और आईटी सेक्टर से सम्बद्ध कम्पनियों के अलावा अस्पतालों में काम करते हैं। अप्रवासी
भारतीयों के जाँ-माल की हिफाज़त से इतर, भारत अफगानिस्तान
से यह अपेक्षा करता है कि अफगानिस्तान अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी भी हाल में भारत-विरोधी
गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। इसके लिए भारत को अफगानिस्तान के दोनों विरोधी
पक्षों के साथ कूटनीतिक संबंध को बेहतर रखने की जरूरत महसूस हो रही है। अतः भारत
की कोशिश यह है कि वह अफगानिस्तान शान्ति-वार्ता में शामिल सभी पक्षों को इस बात
के लिए राजी कर सके कि वे इन आतंकी संगठनों को काबू में रखें और प्रत्यक्षतः या
परोक्षतः उन्हें किसी भी प्रकार की मदद न दें।
आगे
की चुनौतियाँ:
वार्ता
का यह दौर ज्यादा चुनौती भरा इसलिए भी है क्योंकि दोनों पक्षों को स्थायी
संघर्ष-विराम की शर्तें, शान्ति-वार्ता के बाद की व्यवस्था, संवैधानिक
संशोधनों, सत्ता के
बँटवारे, देश के नए नाम और झंडे, महिलाओं
और अल्पसंख्यकों के अधिकार और तालिबान कैदियों की रिहाई जैसे जटिल मुद्दों पर बात
करके समाधान तक पहुँचना है। भारत भी
अफ़ग़ानिस्तान-तालिबान शांति वार्ता में ख़ासी दिलचस्पी रखता है और चाहता है कि
दोनों के बीच बातचीत सफल साबित हो।
अफ़ग़ानिस्तान में यह
उम्मीद की जा रही है कि सरकार को तालिबान से बातचीत में धार्मिक स्वतंत्रता, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार और प्रेस की
स्वतंत्रता जैसी देश की प्रमुख उपलब्धियों की सुरक्षा करनी चाहिए। लेकिन, इस वार्ता में तालिबान का प्रतिनिधित्व धार्मिक गुरु शेख़ अब्दुल हाकिम कर
रहे हैं और इन मसलों पर तालिबान का रवैया कहीं अधिक कठोर है।
विश्लेषण:
दरअसल तालिबान और
अफगान सरकार के बीच लड़ाई अफगानिस्तान की सत्ता को लेकर है। और अफगान सैनिकों पर आए
दिन होने वाले हमले बता रहे हैं कि आने वाले वक्त में अफगान सेना की चुनौतियाँ
बढ़ने वाली हैं। इसलिए भी कि अमेरिका भी अब किसी भी तरह से अफगानिस्तान से पिंड
छुड़ाने में लगा है। उधर, पाकिस्तान अपने खुले समर्थन के ज़रिए अफगानिस्तान में तालिबान
को सत्ता में काबिज कराने की रणनीति पर चल रहा है, और ईरान भी तालिबान को हथियार एवं
प्रशिक्षण उपलब्ध करवा रहा है। ऐसी स्थिति में, यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि पोस्ट-तालिबान युग में लोकतंत्र, शासन की संस्थाएँ
और अल्पसंख्यक एवं महिला-अधिकारों के मोर्चे पर होने वाली प्रगति की कीमत पर
अफगानिस्तान में शान्ति न आए। सम्भव है कि अमेरिका
के दबाव में अफगान सरकार तालिबान की कुछ और माँगे मान ले और थोड़े वक्त के लिए शान्ति-वार्ता
सफल होती दिखे, लेकिन अफगान सरकार
के लिए ज्यादा समय तक इन बुनियादी मसलों की अनदेखी करना सम्भव नहीं होगा। इसकी
पुष्टि तालिबान के रवैये से भी होती है जिसने मानवीय संघर्ष-विराम लागू करने की अफ़ग़ान-सरकार की अपील को नज़रन्दाज़
करते हुए युद्ध-विराम संधि के उल्लेख से परहेज़ किया और अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक
क़ानून लागू किये जाने की आवश्यकता पर बल दिया। इसलिए यह आशंका व्यक्त की
जा रही है कि अफगानिस्तान जिस तरह के चक्रव्यूह में फँस
चुका है, उससे निकलना
फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है।
ऐसा नहीं कि तालिबान के सामने समस्या नहीं है।
वार्ता के क्रम में तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान के लिए ठोस राजनीतिक दृष्टिकोण रखना है
जिसके आलोक में आगे की बातचीत हो। लेकिन, इस मसले पर तालिबान का रुख स्पष्ट नहीं है।
वह यह तो कह रहा है कि वह ‘इस्लामिक, लेकिन समावेशी सरकार’ के
पक्ष में है, लेकिन यह सरकार की इस संकल्पना को कैसे मूर्त रूप दिया जाएगा, इसको
लेकर उसने चुप्पी साध रखी है।
No comments:
Post a Comment