भूमध्यसागरीय
क्षेत्र में गहराता तनाव: तुर्की
प्रमुख आयाम
1. तुर्की:
नवीन उभार:
a. तुर्की
का उभार
b. तुर्की
की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा
c. खिलाफत
की चाहत और उम्मा
2. तुर्की
का उभार और भूमध्यसागरीय क्षेत्र:
a. भूमध्यसागरीय
क्षेत्र में तनाव
b. अंतर्राष्ट्रीय
कानूनों की व्याख्या को लेकर मतभेद
c. भूमध्यसागरीय
क्षेत्र में बढ़ता ध्रुवीकरण
d. तुर्की
की पहल
e. ग्रीस-तुर्की
तनाव
f. संघर्ष
की लम्बी परम्परा
g. लीबिया:
क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की टकराहट
h. फ़्रांस-जर्मनी
का रूख
i. यूरोपीय
संघ की प्रतिक्रिया
j. तुर्की
की प्रतिक्रिया
3. भारत-तुर्की
सम्बंध
a. आजादी
के बाद
b. 1980
के दशक में बदलाव के संकेत
c. अर्दोगान
के नेतृत्व में तुर्की
d. द्विपक्षीय
सम्बंध के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ
e. पाकिस्तान,
तुर्की और कश्मीर
तुर्की:
नवीन उभार
तुर्की का उभार:
तुर्की अपने आर्थिक उभार का इस्तेमाल क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को
पूरा करने के लिए करना चाहता है और वह अपनी मुखर विदेश-नीति की बदौलत भूमध्यसागरीय
क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश में है। तुर्की का ब्लू होमलैंड
सिद्धांत उसकी सामुद्रिक महत्वाकांक्षा और उसे पूरा करने के लिए अपनायी जाने वाली
नौसैनिक रणनीति की ओर इशारा करता है। यद्यपि हाल में दुनिया के अन्य देशों की तरह तुर्की
की अर्थव्यवस्था भी लड़खड़ाई है, लेकिन तुर्की पीछे हटने के लिए
तैयार नहीं है।
तुर्की
की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा:
यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि
आर्थिक संकट से जूझ रहा तुर्की पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में मौजूद गैस को अवसर
के रूप में देख रहा है। इतना ही नहीं, तुर्की की आतंरिक राजनीति में चुनौतियों का
सामना कर रहे अर्दोगान के लिए भी यह एक राजनीतिक अवसर है। ध्यातव्य है कि अर्दोगान
की एकेपी पार्टी ने संसद में अपना पूर्ण बहुमत खो दिया है। वे तुर्की की क्षेत्रीय
महत्वाकांक्षाओं को उत्प्रेरित करते हुए अपने ऊपर बन रहे राजनितिक दबाव को कम करने
की कोशिश में हैं और इसके लिए तुर्की राष्ट्रवाद का इस्तेमाल ढ़ाल के रूप में कर
रहे हैं। इतना ही नहीं, वे इसके लिए पैन-इस्लामिज्म का इस्तेमाल तुर्क लोगों की
धार्मिक भावनाओं को उभारने के लिए भी कर रहे हैं और इसके ज़रिए ये सऊदी अरब की
सुन्नी दुनिया की बादशाहत को चुनौती दे रहे हैं। उनके इस काम में सहयोगी के रूप
में सामने आ रहे हैं ईरान, पाकिस्तान, क़तर और मलेशिया जैसे देश। इसी आलोक में
तुर्की ने आक्रामक विदेश-नीति को अपनाया है और लीबिया से लेकर यमन, सीरिया और क़तर
तक अपनी महत्वपूर्ण सामरिक उपस्थिति दर्ज करवा रहा है।
स्पष्ट है कि अर्दोगान आक्रामक विदेश-नीति के सहारे आर्थिक बदहाली से
लोगों का ध्यान भटकाकर अपनी गिरती लोकप्रियता को सँभालने की कोशिश में लगा हुआ है।
खिलाफत
की चाहत और उम्मा:
अर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की पैन-इस्लामिस्म
की अवधारणा से प्रेरित होकर ‘उम्मा’ के रूप में
ऐसे वृहद् इस्लामी राज्य के निर्माण की आकांक्षा रखता है जो सौ करोड़ से
अधिक आबादी वाले 57 देशों को एक राजनीतिक-सांस्कृतिक इकाई का रूप देगा। इसके ज़रिए
अर्दोगान तुर्की के खोये हुए गौरव को एक बार फिर से पुनर्बहाल करते हुए नया खलीफ़ा
बनना चाहते हैं। ध्यातव्य है कि शास्त्रीय इस्लाम आनुवंशिक राजशाही में यकीन नहीं
करता है, और इसलिए उम्मा की संकल्पना एक खिलाफत के
ज़रिये शरीयत के मुताबिक मुसलमानों के राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व की
बात करती है।
ध्यातव्य है कि पहले विश्व युद्ध में
ऑटोमन साम्राज्य के साथ जब खिलाफत की निर्णायक पराजय हो गई, तो अता-तुर्क मुस्तफ़ा
कमाल पाशा ने एक उदार, धर्मनिरपेक्ष एवं आधुनिक लोकतंत्र के रूप में तुर्की की
नींव रखी। लेकिन, वे अपने समक्ष मौजूद चुनौतियों से वाकिफ थे और उन्हीं चुनौतियों
के मद्देनज़र उन्होंने पहले खुद को या किसी ऐसे कमजोर को खलीफा घोषित करने की योजना
बनाई, जो उनके हाथों में वास्तविक शक्तियाँ रहने दे, पर तत्कालीन परिस्थितियों में
उन्हें खिलाफत समाप्त करनी पड़ी और इसी के साथ भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में
उसके सम्मान एवं मर्यादा की पुनर्बहाली और रक्षा के लिए चलने वाले मुसलमानों के
आंदोलन तो खत्म हो गए। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि खिलाफत के लिए मुस्लिम
दुनिया की चाहत समाप्त हो गयी। प्रमाण हैं मिस्र के शाह फुआद और वहाबी कबीला सरदार
सऊद, जिन्होंने बाद में पश्चिमी ताकतों की मदद से सऊदी अरब की स्थापना की, के
द्वारा खलीफा बनने के असफल प्रयास।
तुर्की का
उभार और भूमध्यसागरीय क्षेत्र का तनाव
पिछले डेढ़ दशकों के दौरान शेल ऑयल एवं
गैस की खोज ने दुनिया के देशों की ऊर्जा-सुरक्षा हेतु मध्य-पूर्व पर निर्भरता को
भी कम किया और मध्य-पूर्व की अहमियत को भी कम किया। इसके कारण यह उम्मीद की जा रही
थी कि तेल एवं गैस के प्रमुख स्रोत होने के कारण टकराव एवं संघर्ष की दृष्टि से
दुनिया के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र के रूप में उभरकर सामने आए खाड़ी-क्षेत्र को
राहत मिलेगी, लेकिन दूर-दूर तक ऐसा होता नहीं दिखाई पड़ रहा है। व्यवहार में हुआ
सिर्फ इतना है कि मध्य-पूर्व के समीकरण बदल रहे हैं और टकराव के कारण भी बदलते हुए
दिख रहे। हालात यहाँ तक पहुँचते दिख रहे हैं कि भूमध्य सागर दुनिया के दूसरे
दक्षिणी चीन सागर में तब्दील होता दिखाई पड़ रहा है।
भूमध्यसागरीय क्षेत्र में तनाव:
अब तेल की जगह प्राकृतिक गैस तनाव के
नए मुद्दे के रूप में उभरकर सामने आया है, और प्राकृतिक
गैस की अन्तर्निहित सम्भावनाओं के कारण पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र टकराव एवं
संघर्ष के कुरुक्षेत्र में तब्दील होता दिख रहा है। अनुमान है कि पूर्वी भूमध्यसागरीय
क्षेत्र में साढ़े तीन ट्रिलियन क्यूबिक मीटर(TCM) गैस है, जिसमें
2.3 टीसीएम गैस की मिस्र, इजरायल और
साइप्रस के आर्थिक क्षेत्र में मौजूदगी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इस
क्षेत्र में गैस-संसाधनों की खोज के बहाने इस क्षेत्र के प्रमुख देश अपने-अपने
सामरिक हितों को साधते हुए अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश
में लगे हैं। आर्थिक संकट से जूझ रहे तुर्की को इसमें अपने लिए अवसर नज़र आ रहा है
और तुर्की इस गैस-भंडार को अपनी ताकत बढ़ाने के अवसर के रूप में देख रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय
कानूनों की व्याख्या को लेकर मतभेद:
अब से तीन-चार दशक पहले तक समुद्रों
से जुड़े आर्थिक हित सिर्फ मछलियाँ पकड़ने और जहाजों की आवाजाही तक सीमित माने
जाते थे, लेकिन तेल-गैस और खनिजों के स्रोतों के रूप में उनकी अहमियत सामने आने पर
धीरे-धीरे उन सामुद्रिक क्षेत्रों पर दावेदारी तेज हो रही है। इसने समुद्री
मामलों के अंतरराष्ट्रीय कानून: यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ़ द सीज(UNCLOS) की
अहमियत को बढ़ा दिया है और अब आलम यह है कि भू-सामरिक अवस्थिति और भू-सामरिक हितों
के मद्देनज़र भूमध्यसागरीय क्षेत्र से सम्बद्ध देशों की अपनी-अपनी व्याख्याएँ हैं। तुर्की और चीन दुनिया के उन 15 देशों में हैं
जो इस समुद्री क्षेत्र से सम्बद्ध अधिकारों से सम्बंधित इस यूएन कन्वेंशन को स्वीकार नहीं करते। तुर्की पूर्वी भूमध्य सागर के गैस वाले इलाके को
अपने कॉन्टिनेंटल शेल्फ में मानता है और उसका यह कहना है कि वहाँ किसी अन्य देश का
कोई अधिकार नहीं है। लेकिन, ग्रीस का कहना
है कि हर छोटे-बड़े देश की अपनी समुद्री-सीमा है और उसे अपने आर्थिक क्षेत्र में
ड्रिलिंग का अधिकार है।
भूमध्यसागरीय क्षेत्र में बढ़ता ध्रुवीकरण:
भूमध्यसागरीय क्षेत्र में गैस-भंडारों पर अधिकार और इस क्षेत्र के देशों
की सामुद्रिक सीमाओं के परिसीमन और उनके कॉन्टिनेल्टल शेल्फ़ को लेकर विवाद है। इस
विवाद का लाभ उठाकर अपने क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश में तुर्की ने अपने
दावों को पुष्ट करने के लिए सन् 2019 में लीबिया की नेशनल अकॉर्ड सरकार (GNA) के
साथ सामुद्रिक समझौते पर हस्ताक्षर किया। यह समझौता भूमध्यसागर के उन क्षेत्रों
में गैस-अन्वेषण अभियानों के बारे में था जिन्हें ग्रीस अपना मानता था। तुर्की ने
लीबिया की सरकार से गैस-बँटवारे का समझौता किया और साइप्रस के तुर्क-बहुल उत्तरी
हिस्से पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई है। मगर,
क्षेत्र के अन्य देश उसकी राह रोकने को तत्पर हैं।
इसकी प्रतिक्रिया में जनवरी,2020 में ग्रीस, साइप्रस और इजरायल ने समुद्र के अंदर 1900 किलोमीटर
की गैस-पाइपलाइन बनाने का समझौता किया और इटली, जॉर्डन एवं
फिलस्तीन के साथ मिलकर एक ब्लॉक भी बना लिया। फ्रांस भी इस ब्लॉक की सदस्यता को
इच्छुक है और इसके लिए उसने आवेदन कर रखा है। अगस्त,2020 में ग्रीस और मिस्र ने एक
सामुद्रिक सीमा-समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसने तुर्की को नाराज़ किया। तुर्की ने
इसकी प्रतिक्रिया में पूर्वी भूमध्यसागर में गैस-अन्वेषण अभियान की दिशा में पहल
की। जहाँ तुर्की इस इलाके में ऑफ-शोर ड्रिलिंग को आगे बढ़ाने पर अड़ा हुआ है, वहीं
फ्रांस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि विवादित क्षेत्र में तुर्की के द्वारा किसी भी
प्रकार की एकतरफा कार्रवाई उसके लिए अस्वीकार्य है। स्पष्ट है कि अधिकारों को
मान्यता देने को लेकर हुए समझौतों ने भूमध्यसागरीय क्षेत्र में तनाव को बढ़ावा
दिया है।
तुर्की
की पहल:
अगस्त,2020 में तुर्की ने पूर्वी भूमध्यसागर
में गैस-भंडार खोज की दिशा में पहल करते हुए नौसेना के बैकअप के साथ व्यापक
सर्वेक्षण अभियान शुरू करवाया जिसके कारण भूमध्यसागरीय क्षेत्र में तनाव की
परिस्थितियाँ निर्मित हुई। पूर्वी भूमध्यसागर के जिस इलाक़े में तुर्की ड्रिलिंग
का काम कर रहा है, साइप्रस उस पर अपना दावा करता है। इन
मुद्दों को लेकर साइप्रस और ग्रीस तुर्की का लगातार विरोध कर रहा है और इस मामले
में फ़्रांस उसके साथ है। इसी बीच पूर्वी भूमध्यसागर में फ़्रांस, ग्रीस, इटली और साइप्रस का साझा सैन्य-अभ्यास भी
शुरू हुआ।
तुर्की ने कहा है कि क्रीट द्वीप से ग्रीस के छह एफ़-16 जंगी जहाज़ों ने उस इलाक़े में घुसने करने की कोशिश की जहाँ तुर्की अपना
ड्रिलिंग का काम कर रहा है, लेकिन तुर्की के एफ़-16 जंगी जहाज़ों ने उन्हें रोक दिया। तुर्की का दावा है कि वीडियो में यूनान
के लड़ाकू विमानों को गैस खोजने के अभियान में लगे तुर्की के जहाज़ के नज़दीक आते
देखा जा सकता है। उधर, ग्रीस ने तुर्की पर यह आरोप लगाया है कि क्रीट में बेस पर
लौट रहे उसके एफ़-16 विमानों का रास्ता तुर्की के फाइटर जेट
ने रोका। ध्यातव्य है कि तुर्की और ग्रीस, दोनों ही देश नाटो के सदस्य हैं। इसी
बीच यूनाइटेड अरब अमीरात ने ग्रीस का साथ देने लिए कुछ एफ़-16 विमान क्रेटे एयरबेस पर भेजने का एलान किया गया। हालिया विवाद में
जैसे-जैसे तुर्की के खिलाफ ज़्यादा देश लामबंद हो रहे हैं, वैसे-वैसे
खुद को अलग-थलग महसूस करते तुर्की की आक्रामकता बढ़ती जा रही है। लेकिन, ऐसा माना
जा रहा है कि गैस की खोज तात्कालिक कारण है।
संघर्ष की लम्बी परम्परा:
दरअसल, यह ग्रीस और तुर्की के बीच लम्बे समय से चले आ रहे संघर्ष का हिस्सा
है। आधुनिक तुर्की राज्य की स्थापना से पहले यूनानियों और तुर्कों के बीच दुश्मनी
का एक लंबा इतिहास रहा है। आधुनिक सन्दर्भों में देखें, तो ग्रीस-तुर्की विवाद सन्
1974
से ही जारी है, जब ग्रीस द्वारा समर्थित सैन्य-तख्तापलट के जवाब में
तुर्की-लड़ाकों ने इस द्वीप पर हमला किया था और बाद में टर्किश रिपब्लिक ऑफ़
नॉर्दन साइप्रस की एकतरफा घोषणा कर दी गई थी। उम्मीद की जा रही थी कि तुर्की द्वारा
यूरोपीय संघ की सदस्यता हासिल करने की प्रक्रिया शुरू होने पर साइप्रस-मुद्दा का हल
सम्भव है, लेकिन तुर्की के यूरोपीय संघ में शामिल होने की संभावना टलने के बाद वह
सम्भावना भी जाती रही। अब, ऊर्जा को लेकर शुरू हुई इस होड़ ने मामले को और उलझा
दिया है।
लीबिया: क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की टकराहट:
ग्रीस-तुर्की टकराहट के मूल में क्षेत्रीय भू-रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता
है जिसका विस्तार लीबिया से पूर्वी भूमध्य सागर के पार कहीं आगे तक है। लीबियाई
गृह-युद्ध में संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित लीबिया सरकार को तुर्की ने भारी
समर्थन दिया है, जबकि संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र जनरल खलीफ़ा हफ़्तार के पक्ष
में हैं। लीबिया में तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात आपस में छद्म ड्रोन-युद्ध में
भिड़े हुए हैं जिसमें यूएई अपने चीन से लाए ड्रोन का इस्तेमाल करता है और तुर्की
अपने देश में बने सशस्त्र ड्रोन का। यद्यपि लीबिया की नेशनल अकॉर्ड सरकार(GNA) तुर्की
की सैन्य-शक्ति की बदौलत ही खुद को बचाए रखने में सफल रही है, पर लीबियाई गृहयुद्ध
ने तुर्की और मिस्र के बीच की दुश्मनी को गहरा कर दिया है। इसी प्रश्न पर तुर्की
की फ्रांस के साथ भी नौसैनिक तनातनी हुई जिसमें तुर्की-युद्धपोतों ने फ्रांसीसी
नौसेना के द्वारा मालवाहक जहाज को रोके जाने पर हस्तक्षेप किया। ऐसा माना जा रहा
था कि उस ज़हाज़ के जरिए लीबिया के तट से हथियार ले जाया जा रहा था। ग्रीस और तुर्की
के बीच बढ़ते तनावों के मद्देनज़र फ्रांस ने ग्रीस के साथ एकजुटता दिखाने के किए दो
युद्धपोतों और दो समुद्री जहाज़ों को भेजा है।
फ़्रांस-जर्मनी का रूख:
फ़्रांस ने भी नाटो और लीबिया में तुर्की की भूमिका और भूमध्यसागर में
गैस-रिज़र्व को लेकर तुर्की महत्वाकांक्षा का विरोध किया है। फ्रांस ने ग्रीस पर
आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने की माँग करते हुए कहा कि साइप्रस के पास मौजूद गैस-भंडार
और साइप्रस के कॉन्टिनेन्टल शेल्फ़ की सुरक्षा को लेकर उत्पन्न विवाद में यूरोपीय
संघ को ग्रीस और साइप्रस का साथ देना चाहिए। ध्यातव्य है कि जून,2020 में लीबिया
को हथियार बेचने को लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के मद्देनज़र फ़्रांस ने
तुर्की के जहाज़ की जाँच करने की कोशिश की थी, जिसने फ़्रांस-तुर्की
विवाद को जन्म दिया। फ्रांस ने इसे यूरोपीय संघ में शामिल देशों की संप्रभुता और
उनके स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन पर हमला करार दिया।
उधर, जर्मनी का कहना है कि इस मामले को सुलझाने के लिए तुर्की और
ग्रीस को बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए। जर्मनी इस विवाद में मध्यस्थता को तैयार
है और उसकी पहल पर तुर्की और यूनान के विदेश मंत्रियों ने आपस में बात भी की,
लेकिन भूमध्यसागरीय क्षेत्र में दोनों पक्षों के द्वारा अपने हक़ों की रक्षा के
दावों के कारण मामला सुलझने की बजाय औऱ भी उलझ गया।
यूरोपीय संघ की प्रतिक्रिया:
यूरोपीय संघ बातचीत के ज़रिए इस समस्या के हल के पक्ष में है, लेकिन इस
मामले में वह ग्रीस और साइप्रस के साथ है। भूमध्यसागरीय क्षेत्र में सैन्य-गतिरोध से
आशंकित यूरोपीय संघ ने तुर्की को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर पूर्वी भूमध्यसागर
में तुर्की ने एकतरफ़ा कार्रवाई से बचते हुए ग्रीस और साइप्रस के साथ तनाव कम करने
की कोशिश नहीं की, तो उस पर सम्बद्ध ड्रिलिंग-जहाजों, यूरोपीय संघ के बंदरगाहों के
इस्तेमाल और ड्रिलिंग के काम से जुड़ी आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिबंध सहित कड़े
आर्थिक प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
तुर्की की प्रतिक्रिया:
तुर्की ने बातचीत के ज़रिए इस समस्या के हल के यूरोपीय संघ केप्रस्ताव
से सहमति जतायी, लेकिन यूरोपीय संघ के द्वारा प्रतिबंधों की धमकी दिए जाने पर सख्त
ऐतराज जताया। उसने कहा कि अगर यूरोपीय संघ पूर्वी भूमध्यसागर की समस्या का हल
चाहता है तो उसे एक ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभानी होगी। तुर्की के राष्ट्रपति
रेचेप तैय्यप अर्दोगान ने नाटो प्रमुख जेन्स स्टोल्टेनबर्ग से कहा,
“नाटो को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों की अवमानना
करने वाले और इलाक़े में शान्ति को भंग करने वाले एकतरफ़ा क़दमों का विरोध करना
चाहिए।”
भारत-तुर्की सम्बंध
तुर्की के साथ भारत के सम्बंध
पारंपरिक रूप से अच्छे नहीं रहे हैं, पर हाल के
वर्षों में इस सम्बन्ध में और भी गिरावट का रुझान दिखाई पड़ता है।
विशेष रूप से पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय विदेश-नीति की अमेरिका की ओर
उन्मुखता, इसमें श्रेष्ठताबोध के लिए सृजित स्पेस और इसके कारण भारतीय विदेश-नीति
में प्रबल राष्ट्रवादी आग्रह ने तुर्की ही नहीं, पड़ोसी देशों के साथ भारत के
सम्बंधों को भी प्रभावित किया है। इसके अलावा, घरेलू स्तर पर आक्रामक हिंदुत्व, जो
कहीं-न-कहीं मुस्लिम-विरोध पर आधारित है, के उभार के कारण भी इस्लामिक देश भारत के
बहुत सहज नहीं महसूस कर रहे हैं। उधर, खिलाफत की पुनर्स्थापना की तुर्की आकांक्षा,
मध्य-पूर्व में तुर्की की भारत-विरोधी कैम्प से नजदीकियाँ, भारत की कीमत पर
पाकिस्तान से बेहतर होता सम्बन्ध और इस कारण कश्मीर मसले पर तुर्की का आक्रामक रुख
भारत को तुर्की के साथ सहज नहीं होने दे रहा है। यही वह पृष्ठभूमि है जो
भारत-तुर्की सम्बन्ध पर पुनर्विचार की आवश्यकता को जन्म दे रही है।
आजादी के बाद:
पश्चिम एशियाई मामलों के विशेषज्ञ
प्रोफ़ेसर ए. के. पाशा कहते हैं, “वहाँ मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने ऑटोमन सुल्तान को हटाकर एक धर्मनिरपेक्ष,
लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित किया था, और
नेहरू इस बात से काफ़ी प्रभावित थे कि पहली बार इतना बड़ा मुस्लिम राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष
देश बनने जा रहा है।” तुर्की के साथ बेहतर सम्बंध की तत्कालीन भारतीय
प्रधानमन्त्री की चाह को तब झटका लगा, जब द्विध्रुवीय दुनिया में तुर्की अमरीकी
खेमे का हिस्सा बनता हुआ पश्चिमी देशों के सैन्य संगठन नाटो में शामिल हो गया।
शीतयुद्ध के दौर में भारत की तुर्की से दूरी बढ़ती चली गयी, और चाहे वो 1965
का भारत-पकिस्तान युद्ध हो या फिर सन् 1971 का,
तुर्की ने पाकिस्तान की सैन्य-सहायता की। सन् 1974 में
तुर्की ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अगुआ साइप्रस पर हमला किया, तो भारत ने साइप्रस
का साथ दिया और गुटनिरपेक्ष नेताओं के साथ मिलकर तुर्की के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी की।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत तुर्की से दूर होता चला गया और पाकिस्तान तुर्की के
नज़दीक।
1980 के दशक में बदलाव के संकेत:
1980 के दशक में जोर पकड़ती कश्मीर-समस्या और उसके अंतर्राष्ट्रीयकरण की पृष्ठभूमि में राजीव गाँधी
के प्रधानमंत्री-काल में तुर्की के साथ बेहतर सम्बंधों की दिशा में पहल की गयी,
ताकि भारत पर इस्लामिक देशों के दबाव को कम किया जा सके। ध्यातव्य है कि इसी समय
तुर्की और सऊदी अरब जैसे देशों की पहल पर इस्लामिक सहयोग संगठन(OIC) ने कश्मीर में
मानवाधिकारों की स्थिति की पड़ताल के लिए एक समूह बनाया था। 1990 के दशक में
भारतीय प्रधानमंत्रियों और तुर्की प्रधानमंत्री के एक दूसरे के यहाँ आना-जाना शुरू
हुआ। इस दशक के अन्त में तुर्की के प्रधानमंत्री बुलंट येविट ने अपनी भारत-यात्रा
के क्रम पाकिस्तान होते हुए भारत जाने से यह कहते हुए इनकार किया कि जनरल परवेज़
मुशर्रफ़ ने लोकतांत्रिक सरकार का तख़्तापलट कर सत्ता हासिल की है। इस समय तक
आते-आते ऐसा लगने लगा था कि तुर्की भारत के क़रीब आ रहा है।
अर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की:
लेकिन, सन् 2002 में पैन-इस्लामिज्म
को मुद्दा बनाकर सत्ता में आने वाली जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी(AKP) और रेचेप
तैय्यप अर्देगान के नेतृत्व में परिस्थितियाँ बदलने लगीं। उनके नेतृत्व में आधुनिक
उदार धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में तुर्की की वह पहचान बदलने लगी जो मुस्तफ़ा कमाल
पाशा ने निर्मित की थी। उनके नेतृत्व में तुर्की की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा आकार
ग्रहण करने लगी और इसके लिए तुर्की ने अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा की विरासत से
दूरी बनाते हुए खुद को मुस्लिम देशों के सर्वमान्य नेता के रूप में प्रस्तुत करना
शुरू किया। इस दौरान तुर्की ने फ़िलिस्तीन से लेकर कश्मीर तक मुस्लिम समुदायों से
जुड़े विवादास्पद मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना शुरू किया।
द्विपक्षीय सम्बंधों में सन् 2016-17
में तुर्की में होने वाली बग़ावत ने भी कड़वाहट
उत्पन्न की। तुर्की ने इस बग़ावत के लिए अमरीका और अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए
को जिम्मेवार ठहराया। तुर्की का यह कहना है कि अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए
अमेरिका से सक्रिय तुर्की धार्मिक नेता फ़ेतुल्लाह गुलान का इस्तेमाल कर तुर्की
में तख़्तापलट करना चाहता है। तुर्की की भारत से यह अपेक्षा थी कि वह भारत में
सक्रिय गुलान मूवमेंट पर अंकुश लगाने की दिशा में पहल करे और उसके स्कूलों एवं
दफ़्तरों को बन्द करवाए। लेकिन, जब भारत ने उनकी बात मानी नहीं, तो फिर तुर्की का जोर कश्मीर मसले पर बढ़ता चला गया। फ़रवरी,2020 में भी राष्ट्रपति
अर्दोगान ने पाकिस्तानी संसद को सम्बोधित करते हुए में कहा कि कश्मीर जितना अहम्
पाकिस्तान के लिए है, उतना ही तुर्की के लिए भी।
द्विपक्षीय
सम्बंध के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ:
दरअसल भारत-तुर्की सम्बंध को न केवल
पैन-इस्लामिज्म की चुनौतियों से, वरन् व्यापार-संतुलन के भारत के पक्ष में होने के
कारण बढ़ते हुए द्विपक्षीय व्यापार-घाटे की चुनौतियों से भी निबटना है। तुर्की भारत
से यह अपेक्षा करता है कि वह व्यापार-असन्तुलन से सम्बंधित उसकी चिंताओं का भी
समाधान करे और मध्य-पूर्व में उसकी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में भी
सामरिक सहयोगी भूमिका का निर्वाह करे। लेकिन, समस्या यह है कि भारत तुर्की के लिए
न तो सऊदी अरब सहित खाड़ी देशों, जिनसे तुर्की के हित एवं उसकी महत्वाकांक्षाएँ
टकराती हैं, के साथ अपने सम्बंधों को दाँव पर लगा सकता है और न ही अपने सामरिक
हितों के साथ समझौता करता हुआ अपनी एकता एवं अखंडता को दाँव पर लगा सकता है।
दरअसल, तेल-गैस से वंचित तुर्की के पास थोरियम मौजूद है और वह उस
थोरियम से परमाणु-ऊर्जा के उत्पादन में भारत का तकनीकी-सहयोग चाहता है, लेकिन भारत
से उसे सकारात्मक संकेत नहीं मिले। इसके लिए सन् 2017-18 में अर्दोगान ने स्वयं
दिल्ली की दो-दो बार यात्रा भी की, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी। उन्होंने अपनी
नाराज़गी यह कहते हुए प्रकट की, “भारत के साथ उम्मीद रखना बेकार है।” यही वह
पृष्ठभूमि है जिसमें भारत से मोहभंग ने तुर्की को पाकिस्तान के कहीं और अधिक नज़दीक
जाने के लिए विवश कर दिया और अगस्त,2019 में कश्मीर के मसले पर होने वाले प्रगति
के बाद उसका भारत-विरोध मुखर होता चला गया जिसकी झलक सन् 2019-20 में संयुक्त
राष्ट्र संघ में तुर्की के सम्बोधनों में और दिसम्बर,2019 में क्वालालम्पुर सम्मिट
में तुर्की की बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी में मिलती है। फलतः आज मध्य-पूर्व में तुर्की उस
सामरिक समीकरण का नेतृत्व कर रहा है जो उस गठबन्धन के विरोध में निर्मित हो रहा है
जिसमें भारत शामिल है और जिसमें अधिकांशतः भारत-विरोधी शक्तियाँ मौजूद हैं।
पाकिस्तान,
तुर्की और कश्मीर:
इधर, आर्थिक बदहाली का सामना कर रहा पाकिस्तान
भारत और जम्मू-कश्मीर पर अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं है। उसने इस्लामिक
देशों से समर्थन हासिल करने के प्रयास को तुर्की और मलेशिया का समर्थन मिला है।
पाकिस्तान को तुर्की का समर्थन रणनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। तुर्की के
वोल्कान बोजकिर संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले सम्मेलन के अध्यक्ष होंगे, और
पाकिस्तान उनसे यह अपेक्षा कर रहा है कि उनका सहयोग संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे
अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफ़ॉर्म पर भारत के विरुद्ध उसकी रणनीतिक उपस्थिति को मजबूती
प्रदान करेगा। लेकिन, तुर्की से मेल-मिलाप बढ़ाने की कीमत उसे सऊदी अरब सहित अन्य
अरब देशों के साथ रिश्तों पर असर के रूप में चुकानी पड़ेगी।
पाकिस्तानी अपेक्षाओं के
अनुरूप सितंबर,2019 में टर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोगान ने संयुक्त
राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए कश्मीर के मसले पर कहा, “अंतर्राष्ट्रीय
समुदाय पिछले 72 सालों से कश्मीर समस्या का समाधान खोजने में नाकाम रहा है। संयुक्त
राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद कश्मीर में 80 लाख
लोग फँसे हुए हैं। भारत
और पाकिस्तान कश्मीर समस्या को बातचीत के ज़रिए सुलझाएँ।” इस साल संयुक्त
राष्ट्र के 75वें स्थापना-दिवस के ऐतिहासिक अवसर पर तुर्की ने एक बार फिर से कश्मीर
के मुद्दे को उठाते हुए भारत को घेरने की कोशिश की। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगान
संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन को बिना किसी संदर्भ के भारत के आंतरिक मामले पर
बेमानी टिप्पणी का मौका बना लिया। उन्होंने कहा, “कश्मीर विवाद, जो दक्षिण एशिया की स्थिरता और शांति के लिए
महत्वपूर्ण है, अभी एक ज्वलंत मुद्दा है।”
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