Tuesday, 6 October 2020

संयुक्त राष्ट्र-सुधार: हालिया सन्दर्भ

                                            संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO)

प्रमुख आयाम

1.  संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO)

a. सामान्य परिचय:

b. उद्देश्य

c.  प्रमुख अंग

2.  संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA):

a. सामान्य परिचय

b. क्रिया-प्रणाली

c. निर्णय-प्रक्रिया और उसका महत्व

d. वीटो के अधिकार से आशय

e. सुरक्षा परिषद् की क्रिया-प्रणाली

3.  सुरक्षा परिषद:

a. सुरक्षा परिषद् की संरचना

b. वीटो के अधिकार से आशय

c.  सुरक्षा परिषद् की क्रिया-प्रणाली

d. निर्णय का महत्व

e. महासभा से भिन्नता

f.   संयुक्त राष्ट्र संघ की कमियाँ

4.  भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ

5.  संयुक्त राष्ट्र-सुधार:

 

a. भारतीय प्रधानमंत्री: संयुक्त राष्ट्र-सुधार का प्रश्न

b. सुधार से आशय

c.  सुधार की पृष्ठभूमि

d. पंगु होता संयुक्त राष्ट्र संघ

e. संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न

f.   वैश्विक चिन्ताओं के समाधान में अप्रभावी

g. सुधारों का औचित्य

6.  सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता: भारत की दावेदारी

7.  प्रस्तावित सुधार-मॉडल:

a. सुधार का प्रस्तावित मॉडल

b. जी-4 का गठन

c.  लैटिन अमेरिकी-अफ्रीकी मॉडल

d. कोफ़ी अन्नान फॉर्मूला, मार्च-2005

8.  संयुक्त राष्ट्र-सुधार: विभिन समूहों के रुख:

a. सदस्य देशों की प्रतिक्रिया

b. सुधारों की दिशा में भारतीय पहल

c.  जी-4 का रुख

d. कॉफ़ी क्लब का रुख

e. स्थायी सदस्यों का रुख

f.   चीन का रुख

9.  संयुक्त राष्ट्र-सुधार: मौजूद चुनौतियाँ

10.  भविष्य की सम्भावना 

 

संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO)

 

सामान्य परिचय:         

पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ की संकल्पना द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उभर कर आमने आयी, और इसकी स्थापना के समय दुनिया के सामने राष्ट्रसंघ और उसकी विफलता से सम्बद्ध अनुभव थे। इन्हीं अनुभवों के आलोक में 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र अधिकार-पत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर के साथ अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ(UNO) की स्थापना हुई।

स्थापना का उद्देश्य:

संयुक्त राष्ट्र संघ से यह अपेक्षा की गयी थी कि यह अंतर्राष्ट्रीय शान्ति एवं स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक एवं आर्थिक विकास, जीवन-स्तर में सुधार, मानव-अधिकार और विश्व शांति के लिए प्रयासरत हो स्पष्ट है कि इसकी स्थापना का उद्देश्य भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्पन्न तनावों एवं टकरावों को टालते हुए उसे विश्वयुद्ध में परिणत होने से रोकना था। यह तबतक संभव नहीं होता, जबतक संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में हस्तक्षेप करने और ज़रुरत पड़ने पर वहाँ सामान्य स्थिति की पुनर्बहाली हेतु शान्ति-सेना, जो सदस्य-देशों के सैनिकों से मिलकर बनते, को तैनात करने के लिए अधिकृत नहीं किया जाता। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों की संख्या 193 है, और इसका मुख्यालय न्यूयॉर्क(USA) में है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख अंग:

संयुक्त राष्ट्र संघ के छह प्रमुख अंग हैं जो उन जिम्मेवारियों के निर्वाह में अहम् भूमिका निभाते हैं जिनकी अपेक्षा इससे की गयी है: संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA), सुरक्षा परिषद् (Security Council), आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् (ESC), अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ), न्यास परिषद् (Trusteeship Council) और सचिवालय (Secretariat) इनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं: संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद्

 

संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA)

सामान्य परिचय:

संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) संयुक्त राष्ट्र संघ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है जिसका स्वरुप लोकतान्त्रिक और समावेशी है संयुक्त राष्ट्र महासभा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मसले पर आपसी विचार-विमर्श को प्रोत्साहित करता है और इस क्रम में सभी सदस्य-देशों को अपनी बात रखने का अधिकार प्रदान करता है इसके नियमित सत्र की शुरुआत आम बहस से होती है जिसमें सभी देश अपने राष्ट्राध्यक्षों, शासनाध्यक्षों या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर अपना पक्ष रखते हैं इसकी क्रिया-प्रणाली भी लोकतान्त्रिक है और यह अपने तमाम निर्णयों को ‘एक देश, एक वोट’ की संकल्पना के आधार पर लेता है इसीलिए इसकी निर्णय-प्रक्रिया लोकतान्त्रिक भी है और समावेशी भी लेकिन, सुरक्षा परिषद्, उसकी संरचना और उसकी क्रिया-प्रणाली के साथ-साथ विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर संयुक्त राष्ट्र की निर्णय प्रक्रिया में महासभा की तुलना में सुरक्षा परिषद् को मिलने वाला महत्व इसके लोकतान्त्रिक एवं समावेशी स्वरुप पर प्रश्नचिह्न बन कर उपस्थित होता है 

महासभा की क्रिया-प्रणाली:

महासभा न केवल निरस्त्रीकरण और शान्ति-व्यवस्था एवं सुरक्षा के मसलों पर, वरन् राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और स्वास्थ्य से सम्बंधित मसलों पर भी सदस्य-देशों के बीच परस्पर सहयोग को सुनिश्चित करती है महासभा अंतर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा से सम्बद्ध उन सभी मसलों पर विचार कर सकती है और उनके शान्तिपूर्ण समाधान के लिए पहल कर सकती है जो सुरक्षा परिषद् में लम्बित एवं विचाराधीन नहीं हैं इतना ही नहीं, इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न संस्थाओं द्वारा जारी की जाने वाली रिपोर्टों पर भी विचार किया जाता है     

महासभा दो तरीके से निर्णय लेती है: सामान्य बहुमत के आधार पर और दो-तिहाई बहुमत के आधार पर महासभा में शान्ति एवं सुरक्षा, सदस्यता, बजट आदि जैसे मसलों पर दो-तिहाई बहुमत से निर्णय लिए जाते हैं, लेकिन अन्य मामलों में सामान्य बहुमत से निर्णय लिए जाते हैं इसकी क्रिया-प्रणाली और इसकी निर्णय-प्रक्रिया ‘एक देश, एक वोट’ की संकल्पना पर आधारित है

निर्णय-प्रक्रिया और उसका महत्व:

सामान्यतः संयुक्त राष्ट्र के सभी कार्य महासभा के निर्णयों के आधार पर सम्पन्न होते हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर विचार पूर्ण बैठक में ही सम्भव होता है इसमें होने वाले विचार-विमर्श में समितियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है भले ही महासभा के निर्णय विश्व समुदाय की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हों, पर ये निर्णय सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी नहीं हैं यही वह बिंदु है जहाँ पर आकर महासभा अपनी प्रभावशीलता खो देता है    

सुरक्षा परिषद

सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र के छः प्रमुख अंगों में सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसे अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने की जिम्मेवारी सौंपी गयी है जिसके कारण इसे ‘विश्व का प्रहरी’ भी कहा जाता है

सुरक्षा परिषद् की संरचना:

जब सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया, उस समय 11 सदस्यीय सुरक्षा परिषद् की कल्पना की गयी इनमें सुरक्षा परिषद् में सदस्यों का दो श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया: स्थायी सदस्य और अस्थाई सदस्य ग्यारह सदस्यों में पाँच सदस्य परिषद् के स्थायी सदस्य होते, जिनके पास वीटो का अधिकार होता और शेष छह सदस्य अस्थायी सदस्य होते, जो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से चुने जाते, जिनका कार्यकाल दो वर्षों का होता और जिनके पास वीटो का अधिकार नहीं होता इस प्रकार सुरक्षा परिषद् के सदस्यों के बीच स्थायी एवं अस्थायी का ही नहीं, वरन् मताधिकार एवं उसकी अहमियत के सन्दर्भ में भी विभेद किया गया  

आगे चलकर, दिसम्बर,1963 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करते हुए सुरक्षा परिषद् के विस्तार की दिशा में पहल की इसके तहत् स्थायी सदस्यों की संख्या तो अपरिवर्तित रही, पर अस्थायी सदस्यों की संख्या छह से बढ़ा कर 10 कर दी गयी इनमें से 5 सदस्य एशियाई-अफ़्रीकी राज्यों से चुने जाते हैं, 1 सदस्य पूर्वी यूरोपीय राज्यों से, 2 सदस्य लैटिन अमेरिका से और 2 सदस्य पश्चिमी यूरोपीय राज्यों एवं अन्य राज्यों से इस प्रकार सुरक्षा परिषद् ग्यारह सदस्यीय से पंद्रह सदस्यीय हो गया ये संशोधन सन् 1965 में लागू हुए, और तब से लेकर अबतक यह इसी रूप में मौजूद है  

वीटो के अधिकार से आशय:

सुरक्षा परिषद् भी ‘एक देश, एक वोट’ की संकल्पना पर आधारित है, और इसमें किसी भी प्रस्ताव के पारित होने के लिए उसके पक्ष में न्यूनतम 9 सकारात्मक वोटों की अपेक्षा की गयी है लेकिन, प्रस्ताव के पारित होने के लिए एक और भी शर्त है, और वह यह कि उस प्रस्ताव को सभी स्थायी सदस्यों का या तो समर्थन मिलना चाहिए, या फिर वे इस मसले पर मतदान से अलग रहें अगर उन्होंने किसी प्रस्ताव के विरुद्ध अपने नकारात्मक मत का प्रयोग किया है, तो वह प्रस्ताव खारिज मन जाएगा और इस तरह अपनी अहमियत खो देगा

इसका कारण यह है कि सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार प्रदान किया गया है वीटो का मतलब होता है नकारात्मक मतदान का अधिकार, प्रतिषेध का अधिकार मतलब यह कि स्थायी सदस्यों में से कोई भी एक देश अगर किसी प्रस्ताव से असहमत है, तो वह सुरक्षा परिषद् को उस मसले पर निर्णय लेने से रोक सकता है उसकी असहमति की स्थिति में वह प्रस्ताव खारिज माना जाएगा, भले ही अन्य 14 देश उस प्रस्ताव से सहमत ही क्यों न हों मतलब यह कि वीटो का यह अधिकार सुरक्षा परिषद् के सदस्यों और उसके समान मताधिकार की पूरी-की-पूरी संकल्पना को ही निरर्थक बना देता है यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यदि कोई सदस्य-देश किसी प्रस्ताव का न तो समर्थन करना चाहता है और न ही विरोध, तो वह खुद को मतदान की प्रक्रिया से अलग रख सकता है इसे नकारात्मक मतदान अन्हीं माना जाएगा

सुरक्षा परिषद् की क्रिया-प्रणाली:

जब सुरक्षा परिषद् के सामने कोई भी विवादस्पद क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय मसला आता है, तो वह उस मसले को सुलझाने के लिए तत्संबंधित राष्ट्रों को बातचीत के लिए प्रोत्साहित करती है और ज़रुरत पड़ने पर पंचों, मध्यस्थों एवं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा सहयोग लेने का भी सुझाव देती है अगर सम्बद्ध पक्ष तमाम कोशिशों के बावजूद समस्या को सुलझा पाने में असमर्थ रहते हैं, तो यह दोषी राष्ट्रों के विरुद्ध  प्रतिबन्ध भी लगती है और ज़रुरत पड़ने पर अंतिम विकल्प के रूप में सैन्य कार्यवाही के ऑप्शन को भी खुला रखती है यहाँ तक तो संयुक्त राष्ट्र संघ प्रभावशाली नज़र आता है, लेकिन समस्या की शुरुआत भी यहीं से होती है

निर्णय का महत्व:

सुरक्षा परिषद् के द्वारा पारित प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी होते हैं वे इन निर्णयों से बँधे होते हैं और इनको मानना एवं इनके क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना उनकी जिम्मेवारी होती है ये प्रावधान ही इसे भिन्न एवं विशिष्ट बनाते हैं, और इतने विशिष्ट कि यह परिषद् संयुक्त राष्ट्र महासभा जैसे समावेशी संस्था के मुकाबले भी महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट बन जाती है   

महासभा से भिन्नता:

सुरक्षा परिषद् इस मायने में महासभा से भिन्न है कि:

1.  परिषद् का स्वरुप, इसकी संरचना और इसकी क्रिया-प्रणाली अलोकतान्त्रिक है इसके विपरीत, महासभा का स्वरुप भी लोकतान्त्रिक है और उसकी क्रियाप्रणाली भी लोकतान्त्रिक है

2.  जहाँ महासभा का स्वरुप समावेशी है, वहीं परिषद् में दुनिया के चुनिंदा सदस्य ही शामिल होते हैं

3.  जहाँ महासभा ‘एक देश, एक वोट’ की संकल्पना के आधार पर काम करता है, वहीं परिषद् के स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार प्राप्त है जबतक वीटो के अधिकार से सम्पन्न सभी देश की प्रस्ताव पर सहमत नहीं होते हैं, तबतक कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं माना जाता है, चाहे उस प्रस्ताव के पक्ष में कितने भी मत क्यों न पड़े हों ऐसे किसी निर्णय को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव कहा जाता है।  

4.  जहाँ परिषद के निर्णय बाध्यकारी होते हैं, वहीं महासभा के निर्णय बाध्यकारी नहीं होते हैं

संयुक्त राष्ट्र संघ की कमियाँ:

चूँकि संयुक्त राष्ट्र संघ के पास अपनी कोई सेना नहीं है और न ही अपना कोई बजट है, इसीलिए इसे सैन्य-कार्यवाही के लिए अपने सदस्य-देशों के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है यही कारण है कि अक्सर सुरक्षा परिषद् बड़े शक्तिशाली राष्ट्रों से सम्बद्ध मामलों में बेबस एवं लाचार नज़र आती है और उनके सन्दर्भ में इसकी प्रभावशीलता उन प्रभावशाली देशों के हितों और तदनुरूप उनके सहयोग एवं समर्थन पर निर्भर करती है ज़रुरत पड़ने पर ये शक्तिशाली देश सुरक्षा परिषद् के निर्णयों की अवहेलना से भी परहेज़ नहीं करते हैं   

 

भारत और संयुक्त राष्ट्र संघ

भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य रहा है इसने 01 जनवरी,1942 में वाशिंगन में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पर और (अप्रैल-जून),1945 में सेन फ्रांसिस्को में सम्पन्न ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन सम्मेलन में भाग लेते हुए 26 जून,1945 को संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर भी हस्ताक्षर हस्ताक्षर कि थे। संस्थापक सदस्य होने के नाते इसने न केवल इसके उद्देश्यों एवं सिद्धांतों को स्वीकार किया है, वरन् उसे ज़मीनी धरातल पर उतारने में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन, भारत को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता से वंचित रखा गया है इसीलिए अबतक भारत को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता के लिए अस्थायी सदस्यों वाले रूट पर निर्भर रहना पड़ रहा है भारत सन् (2021-22) के कार्यकाल के लिए एशिया-प्रशांत क्षेत्र से अस्थायी सदस्यता के लिए एकमात्र उम्मीदवार था और वह 184 वोट हासिल कर निर्विरोध निर्वाचित हुआ भारत सन् (1950-51) में पहली बार सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य बना था और इस बार 8वीं बार सुरक्षा परिषद् का अस्थायी सदस्य बना है इस बार भारत को 95.8 फीसद वोट मिले हैं। उसमें सबसे उल्लेखनीय 55 सदस्यीय एशिया-प्रशांत समूह का संपूर्ण वोट मिलना भी रहा है।

 

संयुक्त राष्ट्र-सुधार

 

भारतीय प्रधानमंत्री: संयुक्त राष्ट्र-सुधार का प्रश्न:

वर्ष 2020 में संयुक्त राष्ट्र अपनी 75वीं वर्षगाँठ मना रहा है और ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि संस्थापकों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ से की गयी अपेक्षाओं के सन्दर्भ में पिछले 75 वर्षों की इसकी उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाए। साथ ही, इस प्रश्न पर भी विचार हो कि अगर संयुक्त राष्ट्र संघ उन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका, तो इसके क्या कारण थे? इसकी 75वीं वर्षगाँठ के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री ने वैश्विक समुदाय के समक्ष संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता एवं प्रासंगिकता का प्रश्न उठाया और कहा कि विश्वसनीयता में यह कमी इसमें उन सुधारों के अभाव का परिणाम है, जिनकी लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही है और इसीलिए इस मसले पर गंभीर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इसलिए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस अवसर को भुनाते हुए अपने संबोधन में संयुक्त राष्ट्र संघ की संरचना और क्रिया-प्रणाली में सुधार के प्रश्न को उठाया और भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता की दावेदारी पेश करते हुए वैश्विक संस्था से यह प्रश्न पूछा है कि आखिर संयुक्त राष्ट्र संघ की वे कौन-सी मजबूरियाँ हैं जिसके कारण पिछले डेढ़ दशकों से संयुक्त राष्ट्र में सुधारों पर चर्चा तो हो रही है, पर वह सुधारों की इस प्रक्रिया को शुरू करने और इन्हें आगे बढ़ा पाने में असमर्थ है। भारतीय प्रधानमन्त्री का यह प्रश्न, कि आखिर कब तक भारत को स्थायी सदस्यता के लिए इंतजार करना पड़ेगा, इस बात की ओर इशारा करता है कि भारत के सब्र का बाँध टूट रहा है?

भारत का मानना है कि चूँकि सन् 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ और इसकी सुरक्षा परिषद् 21वीं सदी की दुनिया की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामरिक वास्तविकता को प्रतिबिम्बित नहीं करती है, इसलिए यह आज की चुनौतियों का सामना कर पाने में असमर्थ हैइस मसले पर G-4 के विदेश-मंत्रियों के बीच वर्चुअल मीटिंग के दौरान संयुक्त राष्ट्र सुधार की तत्काल आवश्यकता पर विस्तृत विचार-विमर्श हुआ और समय-बद्ध सुधार-प्रस्ताव की माँग की, ताकि सुरक्षा परिषद् आज की वास्तविकताओं को प्रतिबिम्बित कर सके। उधर, तुर्की कूटनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ वोल्कान बोजकिर, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के अगले महासचिव होने जा रहे हैं, का कहना है कि 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद् की संरचना अधिक लोकतान्त्रिक एवं प्रातिनिधिक होनी चाहिए महासभा की बैठक में संयुक्त राष्ट्र संघ की 75वीं वर्षगाँठ पर जिस उद्घोषणा को सभी सदस्य देशों ने पारित किया, उसमें संयुक्त राष्ट्र के अपग्रेडेशन की आवश्यकता पर बल देते हुए सुरक्षा-परिषद् में सुधार के मसले पर अवरुद्ध विचार-विमर्श की प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाएगा।

सुधार से आशय:

वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ, इसकी सुरक्षा परिषद् की संरचना और इसकी क्रियाप्रणाली 1950 और 1960 के दशक के वैश्विक परिदृश्य की वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती है, न कि आज की दुनिया की वास्तविकता को यही कारण है कि लम्बे समय से संयुक्त राष्ट्र-सुधारों की माँग की जा रही है लेकिन, इससे पहले कि इन सुधारों के औचित्य के प्रश्न पर विचार किया जाए, सुधारों के आशय को समझना महत्वपूर्ण है और यह जानना भी, कि सुधारों के पहले निम्न प्रश्नों पर विचार करते हुए सैद्धांतिक सहमति कायम करने की अपेक्षा है:

1.  संयुक्त राष्ट्र की क्रिया-प्रणाली की समीक्षा: सुरक्षा परिषद् एवं महासभा के बीच शक्तियों का पुनर्वितरण और इसके जरिए शक्ति-संतुलन को पुनर्परिभाषित करना,

2.  सुरक्षा परिषद् के विस्तार का प्रश्न: सुरक्षा परिषद् में कितने नए सदस्यों को शामिल किया जाए?

3.  सदस्यता की श्रेणियाँ: स्थायी एवं अस्थायी सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की दो ही श्रेणियाँ होंगी या इससे अधिक, और नए सदस्यों को इनमें से किस श्रेणी के अन्तर्गत रखा जाए, जैसा कि कोफ़ी अन्नान फ़ॉर्मूला में सुझाया गया है   

4.  वीटो का प्रश्न: नए सदस्यों को वीटो का अधिकार दिया जाए या नहीं, और

5.  क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का प्रश्न: दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के बीच प्रतिनिधित्व की दृष्टि से कैसे सन्तुलन साधा जाए?  

लेकिन, इस क्रम में इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि संयुक्त राष्ट्र की संरचना एवं क्रिया-प्रणाली में कोई भी सुधार तबतक सम्भव नहीं है, जबतक कि वीटो के अधकार से लैस सुरक्षा परिषद् के भी स्थायी सदस्य उस प्रस्ताव से असहमत हैं

सुधार की पृष्ठभूमि:

1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन और साम्यवादी गुट के बिखराव ने शीतयुद्ध का खात्मा करते हुए वैश्विक व्यवस्था को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहाँ वह न तो द्विध्रुवीय रह पाई और न ही यह बहुध्रुवीय या एकध्रुवीय बन पाई इतना ही नहीं, 1990 के दशक में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना और सूचना-प्रौद्योगिकी क्रान्ति की पृष्ठभूमि में वैश्वीकरण की जो प्रक्रिया तेज हुई, उसने भारत के साथ-साथ ब्रिक्स देशों के तीव्र आर्थिक उभार को सम्भव बनाया इसके परिणामस्वरूप वैश्विक आर्थिक संतुलन में तेजी से बदलाव आया और इन बदलावों ने भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ जर्मनी एवं जापान की अंतर्राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी बल प्रदान किया। इसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक-कूटनीतिक परिदृश्य में बदलाव लाते हुए वैश्विक व्यवस्था के संतुलन को परिवर्तित किया

इस प्रक्रिया को वैश्विक आर्थिक मन्दी,2008-09 से भी बल मिला, जिसने अमेरिका और यूरोपीय देशों सहित विकसित देशों की अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक कमजोरियों को सामने लाते हुए इन्हें आर्थिक दृष्टि से कमजोर किया और भारत एवं चीन जैसी तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं के नेतृत्व में विकासशील देशों की ओर वैश्विक आर्थिक संतुलन की शिफ्टिंग की प्रक्रिया को तेज किया। कारण यह कि ये भारत और चीन जैसे विकासशील देश ही थे जिन्होंने आर्थिक मन्दी से रिकवरी की प्रक्रिया को नेतृत्व प्रदान किया था और विकसित देह्सों की अर्थव्यवस्था को भी राहत की साँस प्रदान की थी। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें जी-8 का रूपांतरण जी-20 में हुआ जो वैश्विक आर्थिक संतुलन में आने वाले बदलावों और नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के आविर्भाव को प्रतिबिम्बित करता है।

और, रहा-सहा काम डोनाल्ड ट्रम्प और कोविड-19 संकट ने कर दिया है जिसके कारण वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका की छवि और उसकी विश्वसनीयता को ज़बरदस्त झटका लगा है, सन्दर्भ चाहे ट्रान्स-पेसिफ़िक पार्टनरशिप(TPP) को खारिज करने का हो या फिर ईरान के साथ न्यूक्लियर डील का, सन्दर्भ चाहे जलवायु-परिवर्तन पर पेरिस एग्रीमेंट से बाहर निकलने का हो या फिर विश्व स्वस्थ्य संगठन को खारिज करते हुए उससे बहार निकलने का। किसी भी दृष्टि से अमेरिका के इन कदमों को जिम्मेवार वैश्विक महाशक्ति का व्यवहार नहीं माना जा सकता है और इसके कारण वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका की छवि धूमिल हुई है। इस संकट ने चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षा और इस सन्दर्भ में उसकी दावेदारी को प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः बल प्रदान किया है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत-अमेरिका सामरिक सम्बंधों में बढ़ती हुई निकटता को देखा जाना चाहिए।  

इसका परिणाम यह हुआ कि नयी वैश्विक व्यवस्था, जो आज की राजनीतिक एवं कूटनीतिक के साथ-साथ आर्थिक वास्तविकता को प्रतिबिम्बित करे और जो अपने स्वरुप में लोकतान्त्रिक एवं समावेशी हो, की माँग तेज हुई और इसके लिए पश्चिम के वर्चस्व वाली अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे संस्थाओं में सुधार की माँगें तेज होती चली गयीं। स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार के प्रश्न का सम्बन्ध वैश्विक व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण के प्रश्न से सम्बद्ध है जिसके बिना न्यायपूर्ण एवं समावेशी वैश्विक व्यवस्था की परिकल्पना नहीं की जा सकती है।     

पंगु होता संयुक्त राष्ट्र संघ:

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के बाद से लेकर सोवियत संघ और साम्यवादी गुट के विघटन तक, अर्थात् शीत-युद्ध के दौरान सोवियत संघ-अमेरिका की प्रतिस्पर्धा ने सुरक्षा परिषद् की निर्णय-प्रक्रिया को अवरुद्ध किया। इस अवधि के दौरान सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों से सम्बंधित प्रस्तावों को अमेरिका ने वीटो किया और अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों से सम्बंधित प्रस्ताव को सोवियत संघ ने वीटो किया।  

सोवियत संघ और साम्यवादी गुट के विघटन की पृष्ठभूमि में 1990 के दशक में थोड़े समय के लिए दुनिया द्विध्रुवीयता से एकध्रुवीयता की ओर बढ़ती दिखाई पड़ी और इसके कारण अमेरिका को वैश्विक सुरक्षा के अपने एजेंडे को आगे बढ़ने का अवसर मिला इस दौर में रूस सोवियत संघ की विरासत को सँभालने की कोशिश में आतंरिक स्तर पर उलझा रहा, तो चीन भी खुद को दुरुस्त करने की कोशिश में घरेलू मोर्चे पर उलझा हुआ दिखायी पड़ा। इसके कारण इन दोनों देशों ने टकराव से परहेज़ किया और करीब एक दशक तक लगभग प्रतिरोधहीनता की स्थिति उत्पन्न हुई जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ पर से दबाव को भी कम करने का काम किया

21वीं सदी के आरम्भ तक आते-आते सुरक्षा परिषद् का समीकरण एक बार फिर से बदलता दिखाई पड़ा। ब्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस ने एक बार फिर से अपनी धमक दिखानी शुरू की और उसे साथ मिला, चीन का, जिसके आर्थिक उभार ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उसकी महत्वाकांक्षा को बल प्रदान किया। फलतः इस सदी के पहले दशक में आकर एक बार फिर से गतिरोध उत्पन्न होता तब दिखाई पड़ा, जब रूस एवं चीन ने अमेरिकी मनमानी का प्रतिरोध करना शुरू किया और अब जब दुनिया इस सदी के तीसरे दशक में दस्तक दे रही है, अमेरिका और रूस-चीन का द्वंद्व चरम पर पहुँचता दिखायी पड़ रहा है  

समस्या सिर्फ इतनी नहीं है समस्या यह भी है कि कई वैश्विक मसलों पर अमेरिका एवं पश्चिम के बीच गहराते मतभेदों और पश्चिमी दुनिया के विभाजन ने अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को कहीं अधिक जटिल बनाया है। हाल में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा ईरान पर आरोपित प्रतिबन्धों को लेकर पश्चिमी देशों के साथ अमेरिका के मतभेद सामने आए हैं। जहाँ अमेरिका ईरान के साथ बढ़ते मतभेदों की पृष्ठभूमि में इन प्रतिबंधों को जारी रखना चाहता है, लेकिन पश्चिमी यूरोपीय देश इसके लिए राजी नहीं हैं और ईरान के साथ उनका नाभिकीय समझौता अब भी बना हुआ है। यहाँ तक कि इस मसले पर अमेरिका खुद भी विभाजित है

संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न:

अब, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ अपनी पचहत्तरवीं वर्षगाँठ मना रहा है, आवश्यकता इस बात की है कि अबतक के अनुभवों और बदलते हुए वैश्विक परिदृश्य के आलोक में इसकी भूमिका पर नए सिरे से विचार हो और उसके ढाँचे एवं क्रिया-प्रणाली की समीक्षा करते हुए इसे आज की अपेक्षा के अनुरूप ढ़ालने के प्रयास किए जाएँ। अगर वक्त के साथ इस संस्था के कामकाज एवं शक्तियों में बदलाव नहीं होंगे, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह अप्रासंगिक बनकर रह जाएगी और फिर दुनिया के बाकी देशों को इसके विकल्प के बारे में विचार करने को विवश होना पड़े। स्पष्ट है कि बदलते अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में शक्ति-संतुलन को पुनर्परिभाषित और पुनर्बहाल किए जाने की ज़रुरत है और यह तभी सम्भव होगा जब संयुक्त राष्ट्र जैसा वैश्विक निकाय अपनी भूमिका पर खरा उतरे।

वैश्विक चिन्ताओं के समाधान में अप्रभावी:

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर इस मकसद के साथ की गई थी कि दुनिया में शांति स्थापित करने और अंतर्राष्ट्रीय विवादों देशों के बीच विवादों को मिल-बैठ कर सुलझाने के लिए यह वैश्विक मंच के रूप में विभिन्न देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान में और इसके ज़रिये शांति-व्यवस्था की पुनर्बहाली में अहम् भूमिका निभाएगा। लेकिन, अन्य वैश्विक संस्थाओं की तुलना में संयुक्त राष्ट्र संघ वैश्विक चिन्ताओं के समाधान में बहुत प्रभावी नहीं रहा है

अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया से लेकर लेबनान और फिलीस्तीन तक मध्य-पूर्व का संकट गहराता दिखायी पड़ रहा है और इसमें संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्यों, विशेष रूप से अमेरिका, चीन और रूस के सामरिक हितों और इसके संरक्षण के लिए की जाने वाले भू-राजनीति की अहम् एवं निर्णायक भूमिका रही है। लेकिन, इन मामलों में संयुक्त राष्ट्र संघ प्रभावी तरीके से हस्तक्षेप कर पाने और इन समस्याओं को सुलझा पाने में असमर्थ रहा है और उसकी इस विफलता का कारण है उस पर स्थायी सदस्यों का दबदबा। इस दबदबे ने पूरे मध्य-पूर्व को युद्ध-क्षेत्र में तब्दील आकर दिया है। आज सीरिया और अद्गानिस्तान अगर अस्थिर है, इसके पीछे किन शक्तियों के हाथ हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

बहुत पीछे न जाएँ, तो भी सदी के सबसे बड़े संकट: कोविड-19 संकट को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका को देखा जा सकता है। दुनिया की सबसे बड़ी संस्था इस संकट के समाधान की बात तो छोड़ ही दें, इस पर गंभीर चर्चा तक कर पाने में असमर्थ रही। और, जानते हैं क्यों? तो, अपनी संरचनात्मक विसंगतियों के कारण। चीन नहीं चाहता था कि संयुक्त राष्ट्र इस संकट के उद्भव एवं स्रोत पर चर्चा करे क्योंकि इस चर्चा के कारण उसकी किरकिरी हो सकती थी। इसीलिए उसने अपनी शक्ति एवं प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस मसले पर विचार-विमर्श की पूरी सम्भावना को ही अवरुद्ध कर दिया।

वर्तमान में दुनिया कोरोना-संकट और जलवायु-परिवर्तन के अलावा  दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उभार की चुनौती से जूझ रहा है और इसके कारण द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर व्यवस्था अस्तित्व के संकट से गुजर रही है इसे अगर बचाए रखना है और इसकी प्रभावकारिता सुनिश्चित करनी है, तो आवश्यकता इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्र सहित उन तमाम संस्थाओं की संरचना एवं क्रिया-प्रणाली की समीक्षा करते हुए उन्हें पुनर्परिभाषित किया जाए, जिनके ज़रिये इस व्यवस्था को सुनिश्चित किया जा रहा है जिस तरीके से संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्यों के द्वारा वीटो-अधिकार का इस्तेमाल अपने भू-राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया जाता है, वह संयुक्त राष्ट्र संघ को पंगु बनाते हुए इस बात का संकेत देता है कि अपने वर्तमान स्वरूप में संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद् प्रभावी तरीके से न तो सामूहिक सुरक्षा को सुनिश्चित कर पाने की स्थिति में है और न ही इन चुनौतियों से निबट पाने की स्थिति में ऐसा तबतक सम्भव नहीं होगा जबतक कि वीटो के अधिकार से सम्पन्न बड़ी शक्तियों के बीच आम-सहमति एवं सहयोग न हो, और परस्पर विरोधी हितों की टकराहट के कारण यह अत्यन्त मुश्किल है 

सुधारों का औचित्य:

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि पिछले डेढ़ दशकों से संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार की माँगें बनी हुई हैं और समय-समय पर यह माँग जोर पकड़ती रहती हैं इस माँग के औचित्य को निम्न सन्दर्भों में देखा जा सकता है:

1.  सुरक्षा-परिषद् की दोषपूर्ण संरचना: एवं का लोकतंत्रीकरण: वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्य के रूप में वीटो के अधिकार से सम्पन्न देश द्वितीय विश्वयुध्द के पश्चात् की उस व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे विश्वयुद्ध में विजयी देशों ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए कायम किया था। यही कारण है कि सुरक्षा परिषद् की संरचना से लेकर क्रिया-प्रणाली तक  इसके प्रमाण हैं। एक ओर सुरक्षा परिषद् का स्वरुप लोकतान्त्रिक एवं समावेशी नहीं है, दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्णय-प्रक्रिया में इसकी भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अगर इसकी संरचना पर गौर करें, तो सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता में ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि एशिया से केवल एक ही सदस्य के रूप में चीन मौजूद है। यह सुरक्षा परिषद् के स्वरुप को अलोकतांत्रिक और असमावेशी बनाता है क्योंकि न तो जनसख्या की दृष्टि से और न ही भौगोलिक आकार की दृष्टि से सुरक्षा परिषद् दुनिया के एक बड़े हिस्से को समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान कर पाने में समर्थ है। 

2.  संयुक्त राष्ट्र की क्रिया-प्रणाली: अलोकतांत्रिक निर्णय-प्रक्रिया: संयुक्त राष्ट्र में सदस्यों की संख्या 193 है, जबकि सुरक्षा परिषद् में केवल 15 सदस्य: 5 स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य हैं। इसका मतलब यह हुआ कि सुरक्षा परिषद् की तुलना में महासभा का स्वरुप कहीं अधिक लोकतान्त्रिक एवं समावेशी है, फिर भी संयुक्त राष्ट्र की निर्णय-प्रक्रिया में महासभा की तुलना में सुरक्षा परिषद् को कहीं अधिक महत्व मिला है। एक तो सुरक्षा परिषद् संयुक्त राष्ट्र महासभा के निर्णय को पलट सकता है, और दूसरे यहाँ तक कि यदि सुरक्षा परिषद् का एक भी स्थायी सदस्य महासभा के निर्णय को पलटना चाहे, तो वीटो के अपने अधिकार का इस्तेमाल करता हुआ वह ऐसा करने में सक्षम है।

3.  बड़े सहयोगी देशों पर संयुक्त राष्ट्र की निर्भरता: संयुक्त राष्ट्र संघ एक नख-विहीन और दन्त-विहीन संस्था है, और इसका कारण यह है कि न तो इसके पास संसाधन उपलब्ध हैं और न ही इसकी अपनी सेना है, जिससे यह अपने निर्णयों को क्रियान्वित करवा सके और उसके वित्तीय बोझ को वाहन कर सके। इन दोनों ही मामलों में यह अपने बड़े सहयोगी देशों पर निर्भर है और ऐसी स्थिति में टकराव एवं संघर्ष की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रभावी होना इस बात पर निर्भर करता है कि इसे कहाँ तक सदस्य-देशों का सहयोग मिल पा रहा है। अक्सर ऐसा देखा गया है कि संयुक्त राष्ट्र बड़े देशों के विरुद्ध, या फिर उन देशों के विरुद्ध जिन्हें स्थायी सदस्यों का सहयोग एवं समर्थन हासिल है, प्रभावी तरीके से कार्यवाही कर पाने में असमर्थ रहा है। 

इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के बजट (2018-19 में 5.56 बिलियन अमेरिकी डॉलर) में 193 सदस्य देशों में शीर्ष 20 देशों का योगदान उसके कुल बजट का 83.3 प्रतिशत और शीर्ष 10 देशों का 69 प्रतिशत है, जबकि शेष 173 देशों का अंशदान महज 16.16 प्रतिशतसंयुक्त राष्ट्र के बजट में इसके स्थायी सदस्यों: अमेरिका (22 प्रतिशत),  चीन(12 प्रतिशत), जर्मनी (6 प्रतिशत), यूनाइटेड किंगडम (4.57 प्रतिशत) और फ्रांस(4.43%) का योगदान कुल-मिलाकर लगभग 50 प्रतिशत के स्तर पर है वर्ष 2016-18 में इसमें भारत जैसे देश का अंशदान महज 0.7 प्रतिशत के स्तर पर था, जबकि वैश्विक सकल राष्ट्रीय उत्पाद(GNP) में इसका योगदान 2.78 प्रतिशत के स्तर पर है

सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता: भारत की दावेदारी

पिछले तीन दशकों के दौरान आने वाले बदलावों ने भारत को जापान, जर्मनी और ब्राज़ील के साथ दुनिया के उन देशों की अगली पाँत में लाकर खड़ा कर दिया है जो वैश्विक व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण के ज़रिये अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सद्भाव को सुनिश्चित करना चाहते हैं और इसमें अपनी नेतृत्वकारी भूमिका निभाने को लेकर उत्सुक हैं यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत के द्वारा संयुक्त राष्ट्र-सुधारों की माँग करते हुए अपने लिए सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता की माँग की जा रही है भारतीय दावेदारी के पक्ष में निम्न तर्क दिए जा रहे हैं:

1.  भारत की भिन्न एवं विशिष्ट पहचान: भारत न सिर्फ दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला दूसरा बड़ा देश है, वरन् क्षेत्रफल की दृष्टि से दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश है। भारत न केवल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वरन् यह एक जिम्मेवार परमाणु-शक्ति संपन्न राष्ट्र भी है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था निरपेक्ष दृष्टि से दुनिया की (5-7)वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो क्रय-शक्ति समता की दृष्टि से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था

2.  भारत की महत्वपूर्ण भू-सामरिक अवस्थिति: इंडो-पेसिफिक क्षेत्र, जो सामरिक दृष्टि से इस सदी के खाड़ी क्षेत्र में तब्दील होता दिखाई पड़ रहा है, में इसकी महत्वपूर्ण भू-सामरिक अवस्थिति, हिन्द महासागर की ह्रदय-स्थली में इसकी भौगोलिक अवस्थिति और इसके पास दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सशस्त्र सेना की मौजूदगी इसे महत्वपूर्ण बनाती हुई सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतु इसकी दावेदारी को मजबूती प्रदान करती है। आज भी भारत भेदभाव-मूलक वैश्विक व्यवस्था के अन्त के प्रति प्रतिबद्ध और प्रयत्नशील है। आरम्भ से ही इसकी आस्था मानवाधिकार और पूर्ण निरस्त्रीकरण के प्रति रही है और इसने पिछले करीब दो दशकों से अधिक की अवधि के दौरान जिम्मेवार परमाणु राष्ट्र के रूप में व्यवहार किया है।

प्रश्न चाहे वैश्विक आतंकवाद का हो या फिर इस्लामिक चरमपन्थ का, मसला चाहे हिन्द महासागरीय क्षेत्र सहित सम्पूर्ण इंडो-पेसिफ़िक में निर्बाध नौवहन की आज़ादी का हो या फिर समुद्रों पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की प्रभावकारिता और सामुद्रिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने का, सन्दर्भ चाहे मादक पदार्थों की तस्करी का हो या फिर हथियारों की तस्करी का: ये तमाम ऐसे मसले हैं जिन्हें भारत के सहयोग एवं समर्थन के बिना सुलझा पाना संभव नहीं प्रतीत होता है    

3.  अबतक अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का निर्वहन: इसने पिछले 75 वर्षों के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है और जब भी ज़रुरत पड़ी है, इसने अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह किया है, सन्दर्भ चाहे वैश्विक समस्याओं के समाधान का हो, या दुनिया के अशांत एवं उपद्रव-ग्रस्त इलाके में शान्ति-व्यवस्था एवं स्थिरता की पुनर्बहाली को हेतु शान्ति-सैनिकों को भेजने का, या फिर निरस्त्रीकरण जैसे महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मसले पर आम-सहमति बनाने का। संयुक्त राष्ट्र शान्ति-सेना में भागीदारी के मामले में भारत दुनिया के देशों में तीसरे स्थान पर है जो अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं स्थिरता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है  

4.  बहुपक्षीय मसलों पर भारत की नेतृत्वकारी भूमिका: जब शीत-युद्ध काल में सुरक्षा परिषद् में गतिरोध के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ पंगु हो चुका था, उस समय भारत ने गुटबन्दी से परे रहते हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के ज़रिये तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों को नेतृत्व प्रदान किया और विकासशील देशों के हितों को संरक्षण प्रदान किया। इस क्रम में उसने मानवाधिकार, रंग-भेद और विउपनिवेशीकरण से लेकर निरस्त्रीकरण और नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था(NIEO) तक अपना बहुपक्षीय एजेंडा आगे बढ़ाया इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर राजनीतिक समर्थन भी जुटाया, जो वैश्विक जिम्मेवारियों के प्रति उसकी संवेदनशीलता के साथ-साथ उसकी नेतृत्वकारी क्षमता का प्रमाण है। जलवायु-परिवर्तन से लेकर दोहा एजेंडे तक भारत का प्रयास आज भी इसी दिशा में जारी है। यह इस बात का संकेत देता है कि भारत दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। ऐसी स्थिति में दुनिया की सबसे बड़े वैश्विक निकाय में, जिसके लोकतान्त्रिक एवं समावेशी होने का दावा किया जाता हो, भारत का स्थायी सदस्यता से वंचित रहना खटकता भी है और उसके लोकतान्त्रिक एवं समावेशी  स्वरुप पर प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा भी होता है।

प्रस्तावित सुधार-मॉडल

सुधार का प्रस्तावित मॉडल:

सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार के प्रश्न पर चर्चा की दिशा में पहल करते हुए तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव बुतरस बुतरस घाली ने कहा कि वैश्विक परिदृश्य में आनेवाले बदलावों के आलोक में संयुक्त राष्ट्र की संरचना और क्रिया-प्रणाली अप्रासंगिक हो चुकी है क्योंकि वह इन बदलावों को प्रतिबिम्बित नहीं करता है, इसीलिए इसकी समीक्षा करते हुए इसे पुनर्परिभाषित किये जाने की ज़रुरत है इसी पृष्ठभूमि में संयुक्त राष्ट्र ने ‘एजेंडा फॉर पीस’ नामक दस्तावेज़ प्रकाशित किया आगे चलकर, सन् 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में अमेरिका के बाद दूसरा एवं तीसरा सबसे अंशदाता बनने के बाद जापान और जर्मनी ने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतु अपनी ओर से दावेदारी पेश कीयही वह पृष्ठभूमि है जिसमें संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद् की संरचना में सुधार और इसके विस्तार के लिए समय-समय पर विभिन्न सुझाव दिए गए

जी-4 का गठन:

सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 60वीं वर्षगांठ के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के ढाँचे में बुनियादी परिवर्तन के वास्ते जापान, जर्मनी, भारत और ब्राज़ील ने स्थायी सदस्यता हेतु एक-दूसरे की दावेदारी का समर्थन करते हुए जी-4 का गठन किया था। इसके गठन का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सुधारों हेतु व्यापक अभियान चलाना था, ताकि स्थायी सदस्यता हेतु सदस्य-देशों की दावेदारी को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया जा सके।

जी-4 ने सुधारों का प्रस्ताव पेश करते हुए 25 सदस्यीय सुरक्षा परिषद् का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव के अनुसार, सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या पाँच से बढ़ाकर ग्यारह की जानी थी और जी-4 के सदस्य देशों के अलावा दो अफ्रीकी देशों को भी इसके अंतर्गत शामिल किया जाना था। शेष 14 सदस्य अस्थायी सदस्य होते, जिनका कार्यकाल दो वर्षों का होता।

लैटिन अमेरिकी-अफ्रीकी मॉडल:

अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुधार का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करते हुए इसमें संरचनात्मक एवं प्राक्रियागत बदलाव की सिफारिश की:

1.  महासभा की महत्ता को पुनर्स्थापित करने का सुझाव और उसके सुझावों को बाध्यकारी बनाना: इस मॉडल ने निर्णय-प्रक्रिया में सुरक्षा परिषद् की जगह महासभा को कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका दिए जाने की बात की गयी और इसके निर्णय को बाध्यकारी बनाए जाने का सुझाव दिया।

2.  अफ़्रीकी समूह के देशों द्वारा सुरक्षा परिषद् में दो स्थायी सीटों की माँग: अफ़्रीकी समूह के देशों ने अपने साथ होने वाले ऐतिहासिक अन्याय के मद्देनज़र अपने लिए सुरक्षा परिषद् में दो स्थायी सीटों की माँग शुरू की और कहा कि ये सीटें अफ़्रीकी समूह के देशों के बीच रोटेट करे। उनका यह भी तर्क है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का एजेंडा मुख्य रूप से इसी महाद्वीप पर केन्द्रित है।   

लेकिन, सुधारों के प्रश्न पर सहमति न बन पाने के कारण अबतक इस दिशा में प्रगति सम्भव नहीं हो पायी है।     

कोफ़ी अन्नान फॉर्मूला, मार्च-2005

मार्च-2005 में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान ने संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा-परिषद में सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए ‘इन लार्जर फ्रीडम’ के नामक दस्तावेज़ में इसकी रूप-रेखा प्रस्तुत की, जो ‘कोफ़ी अन्नान’ फ़ॉर्मूला के नाम से जाना जाता है। महासभा के सन्दर्भ में कोफ़ी अन्नान ने निर्णय-प्रक्रिया में आम सहमति को महत्व दिए जाने के कारण होने वाले विलम्ब के लिए इसकी आलोचना करते हुए यह सुझाव दिया कि समग्र पैकेज सुधार के ज़रिये महासभा को प्रभावी बनाए जाने की बात की, ताकि उसकी क्रिया-प्रणाली के यौक्तीकरण किया जा सके, उसके एजेंडे को व्यवस्थित किया जा सके और इसके अध्यक्ष की भूमिका को विस्तार दिया जा सके इसने सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता के विस्तार की उम्मीद जगा दी। इस प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् का विस्तार करते हुए इसे 15 सदस्यीय से 24 सदस्यीय बनाया जाना था और अब सुरक्षा परिषद् के सदस्यों का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया जाना था। इसके लिए दो वैकल्पिक प्लान पेश किये गए:

1.  कोफ़ी अन्नान का प्लान A: प्लान A के अंतर्गत सुरक्षा परिषद में स्थायी एवं अस्थायी, दो प्रकार के सदस्य होते और इन 24 सदस्यों  का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया जाना था:

a.  वीटो की शक्ति से सम्पन्न स्थायी सदस्य: ऐसे सदस्यों की संख्या 5 होगी और ये सब वही सदस्य होंगे, जो वर्तमान में हैं, अर्थात् अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। इन सारे देशों के पास वीटो का अधिकार होगा और उनका यह अधिकार पूर्ववत् बना रहेगा।

b.  वीटो की शक्ति से रहित नए स्थायी सदस्य: इसके अनुसार, स्थायी सदस्यों की एक नयी श्रेणी सृजित की जानी थी जिन्हें स्थायी सदस्यों का दर्ज़ा तो प्राप्त होता, लेकिन इनका कार्यकाल चार वर्षों का होता, पर उन्हें वीटो का अधिकार नहीं दिया जाता। ऐसे स्थायी सदस्यों की संख्या 6 होती, जिनमें दो-दो सदस्य एशिया-पेसिफिक एवं अफ्रीका से और एक-एक सदस्य यूरोप एवं अमेरिका से चुने जाते। इनका कार्यकाल चार वर्षों का होता। इसके अंतर्गत नए स्थायी सदस्यों की सदस्यता के नवीनीकरण का कोई प्रावधान नहीं था। 

c.  दो वर्षों के कार्यकाल वाले अस्थायी सदस्य: इस श्रेणी में आने वाले सदस्य अस्थायी सदस्य कहलाते। इनका कार्यकाल दो वर्षों का होता। ऐसे अस्थायी सदस्यों की संख्या 13 होती, जिनमें चार-चार सदस्य अमेरिका एवं अफ्रीका से, तीन सदस्य एशिया-पेसिफिक से और दो सदस्य यूरोप से चुने जाते।

2.  कोफ़ी अन्नान का प्लान B: प्लान B के अंतर्गत भी सुरक्षा परिषद में स्थायी एवं अस्थायी, दो प्रकार के सदस्य होते और इन 24 सदस्यों का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया जाना था:

a. वीटो की शक्ति से सम्पन्न स्थायी सदस्य: प्लान A की तरह प्लान B के अंतर्गत भी ऐसे सदस्यों की संख्या 5 होती और ये सब वही सदस्य होते, जो वर्तमान में हैं, अर्थात् अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। इन सारे देशों के पास वीटो का अधिकार होगा और उनका यह अधिकार पूर्ववत् बना रहेगा।

b. चार वर्षों के कार्यकाल वाले अस्थायी सदस्य, जिनकी सदस्यता का नवीनीकरण सम्भव: प्लान B के वैकल्पिक फ़ॉर्मूले के तहत् चारों क्षेत्रों से दो-दो सदस्यों को चुना जाता और इस तरह प्लान बी के अंतर्गत 8 नए सदस्यों होते, जिनका कार्यकाल 4 वर्षों का होता, पर उनकी सदस्यता का नवीनीकरण संभव था। 

c.  दो वर्षों के कार्यकाल वाले 11 अस्थायी सदस्य: इस श्रेणी में आने वाले सदस्य अस्थायी सदस्य कहलाते। इनका कार्यकाल दो वर्षों का होता। इसके अनुसार, अस्थायी सदस्यों की संख्या 11 होती, जिनमें चार सदस्य अफ्रीका से, तीन-तीन सदस्य एशिया-पेसिफिक एवं अमेरिका से और एक सदस्य यूरोप से चुने जाते।

अब इन दोनों प्रस्तावों पर गौर करें, तो जहाँ प्लान A के तहत् स्थायी सदस्यों का वर्गीकरण दो श्रेणियों में किया जाना था, वहीं प्लान B के तहत् अस्थायी सदस्यों का वर्गीकरण दो श्रेणियों में। दोनों ही स्थितियों में नए सदस्यों को वीटो अधिकारों से वंचित रखा जाता। यदि गहराई से विचार किया जाए, तो दोनों ही प्रस्ताव सुधार के नाम पर सुधार का भ्रम पैदा करते हैं, पर इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस प्रस्ताव को तैयार करते हुए कोफ़ी अन्नान ने व्यावहारिक नज़रिया अपनाया और इस बात का ख्याल रखा कि एक ओर उनके प्रस्ताव वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करें, दूसरी ओर सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के महत्वाकांक्षी देशों की भी चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करें।

संयुक्त राष्ट्र सुधार: विभिन समूहों के रुख

सदस्य देशों की प्रतिक्रिया:

कोफ़ी अन्नान के प्रस्ताव के प्रति सदस्य देशों की प्रतिक्रिया मिश्रित रही जी-4 के सदस्य देशों: जापान, भारत, जर्मनी और ब्राज़ील ने प्लान A को स्थायी सदस्यता हेतु अपनी दावेदारी के पक्ष में माना और इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में वोटिंग करवाए जाने की अपील की। चूँकि अफ्रीकी देशों के सन्दर्भ में नाम अबतक फाइनल नहीं हो पाए थे, इसीलिए जी-4 का मानना था कि सैद्धांतिक रूप से इस प्रस्ताव को अनुमति दे दी जाए और नाम बाद में फाइनल किया जाए। लेकिन, साउथ कोरिया, पाकिस्तान, इटली और मेक्सिको ने प्लान बी को समर्थन देते हुए आम-सहमति से निर्णय पर बल दिया और परोक्षतः जी-4 देशों का पक्ष लेने के लिए कोफ़ी अन्नान की आलोचना की।  यद्यपि इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं बन पाई, तथापि इस प्रस्ताव ने वह आधार प्रदान किया जिसको आधार बनाकर संयुक्त राष्ट्र सुधारों पर विमर्श की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता था

 

सुधारों की दिशा में भारतीय पहल:

भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रश्न पर सुधारों के लिए आम-सहमति बनाए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि इसमें अन्तर्सरकारी बातचीत अहम् भूमिका निभा सकती हैइसके लिए भारत जी-77 और गुट-निरपेक्ष आन्दोलन जैसे बहुपक्षीय प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करते हुए स्थायी सदस्यता के सन्दर्भ में अपनी दावेदारी मज़बूत करने की कोशिश में लगा हुआ है। इसके अतिरिक्त, वह अपनी दावेदारी को द्विपक्षीय प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिये भी मज़बूत करने की कोशिश में लगा हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र सुधार-प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के प्रयास के तहत् अंतर सरकारी वार्ता के दौरान संयुक्त राष्ट्र में भारत के तत्कालीन स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने भारत के साथ-साथ जी-4 के रुख को स्पष्ट करते हुए कहा कि वह सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के तौर पर तब तक वीटो का अधिकार नहीं होने के विकल्प को लिए भी तैयार है, जब तक इस बारे में कोई फैसला नहीं हो जाता

जी-4 का रुख:

जी-4 के सदस्य देशों ने संयुक्त बयान में कहा, “नए स्थायी सदस्यों के पास सैद्धांतिक तौर पर वो सभी जिम्मेदारियाँ और बाध्यताएँ होंगी जो मौजूदा समय के स्थायी सदस्यों के पास है, यद्यपि उनके द्वारा वीटो का उपयोग तब तक नहीं किया जाएगा जबतक समीक्षा के दौरान कोई फैसला नहीं हो जाता” इस समूह ने कहा कि वीटो का मुद्दा अहम है, लेकिन सदस्य देशों को वीटो के जरिये 'सुरक्षा-परिषद की सुधार-प्रक्रिया को अवरुद्ध करने का अधिकार नहीं होना चाहिएबयान में कहा गया कि उनका मानना है कि सुरक्षा परिषद में स्थायी और गैर-स्थायी सदस्यों के बीच 'प्रभाव का असंतुलन' है और अस्थायी सदस्यों की संख्या में विस्तार समस्या का हल देने के बजाय इस असंतुलन को और बढ़ाने वाला साबित होगा।

कॉफ़ी क्लब का रुख:

जी-4 के सदस्य-देशों की स्थायी सदस्यता की दावेदारी का विरोध करते हुए जर्मनी की दावेदारी रोकने के वास्ते इटली, स्पेन और मिस्र सामने आए, ब्राज़ील को रोकने के लिए कनाडा, मैक्सिको, कोलंबिया और अर्जेंटीना सामने आये, जापान को रोकने के लिए दक्षिण कोरिया सामने आए तथा भारत की दावेदारी का विरोध करने के लिए पाकिस्तान सामने आए। पाकिस्तान, इटली, स्पेन और अर्जेंटीना ने इनकी दावेदारी के विरोध में जोरदार अभियान चलाया। इसने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के विस्तार का विरोध किया इन्होंने इटली और पाकिस्तान की अगुवाई वाले ‘युनाइटिंग फॉर कन्सेंसस’ ने संयुक्त राष्ट्र सुधार का वैकल्पिक मॉडल पेश करते हुए कोफ़ी अन्नान मॉडल के प्लान बी से सहमति प्रदर्शित करते हुए सदस्यों की एक नई श्रेणी का प्रस्ताव रखा और जो स्थायी तो नहीं है, लेकिन उसकी सदस्यता अवधि लंबी होती और उसके एक बार पुनर्निर्वाचित होने की संभावना होती। इसने अस्थायी सदस्यों की संख्या दस से बढ़ाकर बीस करने का सुझाव दिया और इन सदस्यों के क्षेत्रीय आधार पर चयन की बात की। सदस्यों का यह समूह ‘कॉफ़ी क्लब’ के नाम से लोकप्रिय हुआ और इनका एक ही उद्देश्य था, येन-केन-प्रकारेण जी-4 के सदस्य-देशों की दावेदारी का विरोध करना।

स्थायी सदस्यों का रुख:

जहाँ तक स्थायी सदस्यता हेतु भारत की दावेदारी के सन्दर्भ में सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के रूख का प्रश्न है, तो चीन को छोड़कर बाक़ी चार देश अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस बयान दे चुके हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य देश का दर्जा मिलना चाहिए। सितम्बर,2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के वार्षिक अधिवेशन में अगले साल संयुक्त राष्ट्र सुधार के प्रश्न पर विचार हेतु सहमति बनी और इसके लिए सदस्य-देशों से सुझाव माँगे गए। इनसे यह अपेक्षा की गयी है कि वे संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन, संरचना और क्रिया-प्रणाली के सन्दर्भ में सुझाव दें, और इन्हीं सुझावों के आलोक में संयुक्त राष्ट्र ने विस्तृत चर्चा के लिए संकल्प-प्रारूप तैयार किया। लेकिन, जब सन् 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने इस मसले पर स्थायी सदस्यों की राय जाननी चाही, तो चीन सहित सभी देशों के समर्थन की पोल खुल गयी। सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों में फ्रांस ही अकेला ऐसा देश था, जिसने न केवल भारत सहित जी-4 के सदस्य-देशों की दावेदारी का समर्थन किया, वरन् उसने नए सदस्य-देशों को वीटो-अधिकार दिए जाने के विरोध न करने की घोषणा की। फ़्रांस के अलावा ब्रिटेन ही ऐसा देश रहा जिसने भारत सहित जी-4 के सदस्य-देशों की दावेदारी का तो समर्थन किया, पर उसने भी अमेरिका और रूस की तरह नए सदस्य-देशों को वीटो-अधिकार न दिए जाने की बात की। अन्य सदस्य-देश, अब वे चाहे अमेरिका हो, या रूस, या फिर चीन, इन तीनों ही देशों ने भारत की दावेदारी का खुलकर समर्थन देने से इनकार किया।

यद्यपि फ्रांस कई साथ-साथ रूस भी बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था के समर्थक हैं और इसके निर्माण में भारत की भूमिका का समर्थन करते हैं, तथापि संयुक्त राष्ट्र के इस फीडबैक में रूस ने विस्तार के उचित विकल्पों को तो समर्थन दिया, लेकिन वीटो के अधिकार में किसी भी प्रकार के छेड़-छाड़ न किए जाने की बात की। अमेरिका ने भी संयुक्त राष्ट्र सुधार और इसके आलोक में सुरक्षा परिषद् के विस्तार का तो समर्थन किया, पर वीटो के साथ किसी भी प्रकार के छेड़-छाड़ और इसमें किसी भी प्रकार के विस्तार का विरोध किया।

बाद में, जब यह रिपोर्ट लीक हुई और बहरत की नाराज़गी का खतरा उत्पन्न हुआ, तो अमेरिका और रूस ने यह स्पष्ट किया कि सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतु भारतीय दावेदारी के सन्दर्भ में उसके रुख में कोई बदलाव नहीं आया है, पर इसकी बहुत अहमियत नहीं है और इतना तो स्पष्ट ही है कि ये वीटो-अधिकारों को सुरक्षा परिषद् के पाँच सदस्यों तक सीमित करना चाहते हैं। इनकी यह सोच सुरक्षा परिषद् में भारत की महत्वाकांक्षाओं को एक झटका है और अगर भारत को स्थायी सदस्यता मिल भी जाती है, तो यह उसे दोहरे दर्जे के स्थायी सदस्य में तब्दील करके रख देगा।   

चीन का रुख:

आरम्भ में चीन ने इस मसले पर अपना रुख नरम करते हुए संकेत दिया था कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता दी जाती है, तो उसे आपत्ति नहीं होगी। लेकिन, जब सन् 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने इस मसले पर स्थायी सदस्यों की राय जाननी चाही, तो चीन सहित सभी देशों के समर्थन की पोल खुल गयी। चीन ने कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए सुरक्षा परिषद् में विकसित देशों के बेहतर प्रतिनिधित्व का समर्थन किया और इस आलोक में जरूरी सुधारों को समर्थन देने की बात की, लेकिन उसने यह भी कहा कि अभी इस प्रश्न पर विचार का उपयुक्त समय नहीं आया है।   

हाल में, संयुक्त राष्ट्र संघ की 75वीं वर्षगाँठ के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र सुधारों की जोर पकड़ती माँगों के आलोक में चीन ने यह तो स्वीकार किया है कि सुरक्षा परिषद् अंतर्राष्ट्रीय सामूहिक सुरक्षा मैकेनिज्म के केंद्र में है और इसीलिए अगर इसे अपने दायित्वों का प्रभावी तरीके से निष्पादन करना है, तो इसके लिए सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ानी होगी ताकि इसमें विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व एवं उसकी आवाज़ बेहतर हो सके और छोटे एवं मध्यम श्रेणी के देश सुरक्षा परिषद् में शामिल हो सकेन और उन्हें निर्णय-प्रक्रिया में भागीदारी मिल सके। चीन ने कहा कि चीन, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा-परिषद में सुधार का समर्थन करता है। उसका कहना है कि सुरक्षा-परिषद सुधार का संबंध सदस्यता की श्रेणियों, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और वीटो पावर जैसे मुद्दों से है। इन मुद्दों का हल पैकेज समाधान के जरिये किया जाना चाहिए, जिसमें व्यापक लोकतांत्रिक विमर्श के माध्यम से सभी पक्षों के हितों एवं चिंताओं को समेटा गया हो। उसका कहना है कि संयुक्त राष्ट्र सुधार के मसले पर व्यापक मतभेद विद्यमान है, आम सहमति का अभाव है, और वह निरंतर संवाद एवं बातचीत के ज़रिए ‘पैकेज सॉल्यूशन’ पर काम करना चाहता है, ताकि सभी सम्बद्ध पक्षों के हितों एवं चिंताओं का ख्याल रखा जा सके। मतलब यह कि अबतक उसका मानना था कि संयुक्त राष्ट्र सुधार के लिए उपयुक्त समय अभी आया नहीं है, और अब वह इस मसले पर आम-सहमती के अभाव के बहाने और पैकेज डील के बहाने सुधारों की प्रक्रिया को लटकाना चाहता है। उसका यह मानना है कि जबतक सुधारों को लेकर आम-सहमति नहीं बन जाती है, तबतक इंतज़ार किया जाना चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र-सुधार: मौजूद चुनौतियाँ

अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र-सुधार को लेकर दशकों से चल रही अंतर्सरकारी बातचीत किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पा रही है और यह स्थिति भारत सहित जी-4 के सदस्य देशों को फ्रस्ट्रेट कर रही है ऐसा नहीं है कि यह स्थिति इतनी जल्दी बदलने वाली है इसके रास्ते में मौजूद चुनौतियों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:

1.  संयुक्त राष्ट्र के भीतर व्यापक सहमति की ज़रुरत: संयुक्त राष्ट्र-सुधार को लेकर व्यापक सहमति की ज़रुरत है क्योंकि कोई भी सुधार तबतक प्रभावी नहीं होंगे, जबतक कि:

a.  संयुक्त राष्ट्र महासभा ऐसे प्रस्ताव को दो-तिहाई अभुमत से पारित न करे,

b.  संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी इस प्रस्ताव को कम-से-कम 9 सदस्यों का सकारात्मक समर्थन मिलना चाहिए, और

c.  सुरक्षा परिषद् के सारे स्थायी सदस्य इस प्रस्ताव के पक्ष में हों

इन तीनों शर्तों को पूरा करना असम्भव नहीं, तो अत्यन्त मुश्किल अवश्य है।    

2.  स्थायी देशों की मंशा साफ़ नहीं: सन् 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा जो फीडबैक हासिल किया गया, वह इस बात की ओर इशारा करता है कि संयुक्त राष्ट्र-सुधारों को लेकर स्थायी देशों की मंशा साफ़ नहीं है। वे चीन की आड़ में सुधारों की प्रक्रिया को टालने के पक्ष में हैं। उन्हें लगता है कि अगर सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ायी जाती है, तो उनकी विशिष्ट स्थिति डायल्यूट होगी जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं।

3.  वीटो अधिकारों को लेकर मतभेद: स्थायी सदस्यों के बीच सुधारों के स्वरुप के प्रश्न पर भी मतभेद है। एक फ्रांस को अपवादस्वरुप छोड़ दिया जाए, तो कोई भी स्थायी देश न तो वीटो अधिकार का विस्तार चाहता है और न ही वीटो अधिकारों में किसी भी प्रकार से छेड़-छाड़ चाहता है। उन्हें लगता है कि अगर नए सदस्यों को वीटो के अधिकारों के साथ सुधारों की प्रक्रिया आगे बढ़ायी जाए, तो उनकी भूमिका सीमित होगी। इसके अतिरिक्त, यह समस्या भी उत्पन्न होगी कि सुरक्षा परिषद् का काम करना और भी मुश्किल हो जाएगा, और यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र संघ को पंगु बना देगी।

4.  आतंरिक क्रिया-प्रणाली में सुधार के प्रश्न पर चुप्पी: सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य-देशों ने इस मसले पर चुप्पी साध रखी है कि संयुक्त राष्ट्र की आन्तरिक क्रिया-प्रणाली में सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा को अधिक अधिकार सम्पन्न बनाया जाए, और निर्णय-प्रक्रिया में महासभा-सुरक्षा परिषद् के बीच विद्यमान वर्तमान असंतुलन को दूर किया जाए।

5.  क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता: संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता, जिसे चीन जैसे स्थायी देश हवा दे रहे हैं, भी एक महत्वपूर्ण अवरोध है। जी-4 के सदस्य-देशों की दावेदारी का विरोध करने के लिए कॉफ़ी क्लब का सामने आना इस बात का प्रमाण है।    

भविष्य की सम्भावना

संक्षेप में कहें, तो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव तत्कालीन अध्यक्ष बुतरस बुतरस घाली की पहल पर संयुक्त राष्ट्र सुधारों की चर्चा सन् 1992 में शुरू हुई जब सन् 2003 में अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम के द्वारा सद्दाम हुसैन पर नाभिकीय, रासायनिक एवं जैविक हथियारों को विकसित करने का आरोप लगाते हुए इराक़ के विरुद्ध एकतरफा कार्रवाई की गयी और संयुक्त राष्ट्र इस पर अंकुश लगा पाने में असमर्थ रहा, तब संयुक्त राष्ट्र की संरचना एवं क्रिया-प्रणाली में सुधार की माँग जोर पकड़ी इस पृष्ठभूमि में जब सन् 2005 में संयुक्त राष्ट्र संघ की 60वीं वर्षगाँठ पर संयुक्त राष्ट्र सुधारों की चर्चा शुरू हुई, तब सुधारों को क्रियान्वित करना अपेक्षाकृत आसान था; लेकिन पिछले डेढ़ दशकों के दौरान चीन के तेजी से उभार और इसे प्रति-संतुलित करने के लिए भारत-अमेरिका की बढ़ती हुई नजदीकियों ने अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य को कहीं अधिक जटिल बनाया है और इसकी पृष्ठभूमि में भारत-चीन सम्बंधों में उत्पन्न तनावों ने भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता को और भी अधिक मुश्किल बना दिया है। यह तब तो और भी मुश्किल है जब एशिया से भारत के साथ-साथ जापान भी स्थायी सदस्यता का दावेदार है, और भारत की तरह जापान भी चीन-विरोधी खेमे का देश है और इन दोनों ने अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर इंडो-पेसिफिक में चीन के लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिश में हैं। ऐसी स्थिति में चीन से यह अपेक्षा करना, कि वह भारत और जापान की स्थायी सदस्यता की दावेदारी का समर्थन करते हुए एशिया के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र एवं सुरक्षा परिषद् में अपने प्रतिद्वंद्वी की स्थिति को मज़बूत कर खुद अपनी ही स्थिति को कमजोर करेगा, उचित नहीं है। और, वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की जो संरचना एवं क्रिया-प्रणाली है, उसमें एक भी स्थायी सदस्य के असहमत होने की स्थिति में सुधारों की प्रक्रिया को आगे बढ़ा पाना सम्भव नहीं है। इसलिए चीन अकेला सुधारों की प्रक्रिया को अवरुद्ध करने में सक्षम है, और इस कारण भारत के लिए सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हासिल कर पाना दूर की कौड़ी है। और, यहाँ तो अकेला चीन ही नहीं है। सन् 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ की 70वीं वर्षगाँठ पर संयुक्त राष्ट्र-सुधार के मसले पर सुरक्षा परिषद् के अन्य सदस्यों का रुख भारत की अपेक्षा के विपरीत रहा। एक ब्रिटेन को छोड़कर अन्य सभी देश किसी-न-किसी रूप में स्थायी सदस्यता हेतु भारतीय दावेदारी के समर्थन से पीछे हटते दिखे।

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