Sunday, 18 October 2020

मध्य-पूर्व और भारत-ईरान सम्बंध

 

मध्य-पूर्व और भारत-ईरान सम्बंध

प्रमुख आयाम

1.  मध्य-पूर्व के बदलाव और ईरान:

a. सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता

b. मध्य-पूर्व में बनते नए समीकरण

c.  मध्य-पूर्व में चीन की बढ़ती सक्रियता

2.  चीन-ईरान सामरिक निवेश-समझौता:

a. आर्थिक-सामरिक साझेदारी प्रस्ताव

b. भारत पर असर

c.  पश्चिमी देशों की चिन्ताएँ

d. साझेदारी की पृष्ठभूमि

e. अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा(INSTC) से सम्बद्ध प्रगति अवरुद्ध

f.   चीन के लिए अवसर

g. आगे का रास्ता इतना आसान नहीं

h. चीन के ज़रिये सन्देश

3.  भारत-ईरान:

a.    भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंध

b. खाड़ी देश और ईरान की दुविधा में फँसा भारत

c.     द्विपक्षीय सम्बंधों के हालिया रुझान

d.    धीमे पड़ते कारोबारी सम्बंध

4.  चाबहार-विवाद:

a. चाबहार समझौता

b. चाबहार रेल-प्रोजेक्ट

c.  चाबहार रेल-प्रोजेक्ट से भारत के बाहर होने के कारण

d. चीन के हाथ जाने की आशंका

e. मध्य-पूर्व में बढ़ते चीनी प्रभाव को काउन्टर करने की रणनीति

f.   चाबहार परियोजना का सामरिक महत्व

g. चाबहार रेल-विवाद और ईरान

h. चाबहार रेल-विवाद और भारत

i.   भारतीय रक्षा-मंत्री की ईरान-यात्रा

j.   भविष्य में अमेरिकी दबाव में कमी की सम्भावना

k.    विश्लेषण

मध्य-पूर्व के बदलाव और ईरान

सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता:

सऊदी अरब और ईरान के बीच प्रतिद्वंद्विता की शुरुआत सन् 1979 में ईरान की क्रांति के ठीक बाद हुई थी उस समय, ईरान ने सभी मुस्लिम देशों में राजशाही को हटा धर्म-शासन लागू करने का आह्वान किया था जिसने सऊदी शाही-शासन के मन में आमजन की ओर से बग़ावत की आशंका को जन्म दिया सन् 1981 में ईरान पर इराक़ी हमले ने सऊदी अरब सहित खाड़ी देशों के साथ ईरान की दुश्मनी को स्थायी बना दिया वर्तमान में सऊदी अरब यमन में ईरान-समर्थित हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहा है सीरिया में ईरान राष्ट्रपति बशर अल-असद के साथ है, तो सऊदी सुन्नी लड़ाकों के साथ जून,2017 में सऊदी के नेतृत्व वाले सहयोगी देशों ने इस आधार पर क़तर पर नाकेबंदी आरोपित किया कि क़तर ईरान-समर्थित विद्रोहियों की मदद कर रहा है

मध्य-पूर्व में बनते नए समीकरण:

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ राकेश सूद कहते हैं, “ईरान, चीन, रूस, पाकिस्तान और तुर्की मध्य-पूर्व में साथ आते दिख रहे हैं ....... रूस भी मध्य-पूर्व में अमरीका के ख़िलाफ़ अहम् ताक़त है मध्य-पूर्व में रूस और चीन की लाइन अलग नहीं है।” पाकिस्तान-अमरीका संबंध में बदलावों के भारत पर असर की ओर इशारा करते हुए पाकिस्तानी रक्षा-विशेषज्ञ आयशा सिद्दिक़ा ने कहा, “पाकिस्तान ने अमरीका-तालिबान वार्ता में अहम् भूमिका निभाई, लेकिन पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली सारी आर्थिक मदद बंद हो चुकी है ...... पाकिस्तान संकट की घड़ी में चीन के अलावा किसी और से उम्मीद नहीं कर सकता विश्व राजनीति के बदलते नए समीकरण में अमरीका, सऊदी अरब और भारत साथ हो गए हैं ऐसे में पाकिस्तान अब चीन, रूस और ईरान के खेमे में जाता दिख रहा है” यही कारण है कि राजनाथ सिंह और एस. जयशंकर के तेहरान दौरे को पाकिस्तान, ईरान, रूस, चीन और तुर्की के बनते गठजोड़ के आईने में भी देखा जा रहा है भारत की चीन, तुर्की और पाकिस्तान से कभी दोस्ती नहीं रही, लेकिन रूस भारत का पारंपरिक दोस्त रहा है और ईरान से भी उसके अच्छे संबंध रहे हैं ऐसे में भारत की यह चिंता लाजिमी है कि ईरान और रूस से अपने संबंधों को ख़राब न होने दे

मध्य-पूर्व में चीन की बढ़ती सक्रियता:

मध्य-पूर्व चीन के लिए ऊर्जा-सुरक्षा की दृष्टि से ही नहीं, वरन् चीनी उत्पादों एवं निवेश के बड़े बाज़ार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन वैश्विक महाशक्ति के रूप में अपने लिए जिस भूमिका की अपेक्षा पालता है, वह अपेक्षा भी चीन के लिए मध्य-पूर्व को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। इसी के मद्देनज़र चीन की आर्थिक और सामरिक योजना का मकसद चीन और मध्य-पूर्व के बीच सामुद्रिक क्षेत्र पर आधिपत्य जमाना है। इसके लिए स्वेज नहर के पास जिबूती में चीन ने अपना पहला नौवहन बंदरगाह तैयार किया है। इसी प्रकार चीनी वितीय सहायता से अरब सागर में ग्वादर बंदरगाह (बलूचिस्तान, पाकिस्तान) को विकसित किया गया है। इस दोनों बंदरगाहों के ज़रिये चीन होरमुज जलडमरू मध्य के रास्ते होने वाले नौवहन की निगरानी सुनिश्चित करना चाहता है और इस रास्ते अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक पहुँच को प्रभावित करना चाहता है। अब उसकी पूरी-की-पूरी कोशिश ईरान को अपने प्रभाव में लेकर चाबहार तक पहुँचने की है। अगर ऐसा होता है, तो फारस की खाड़ी में चीन की सामरिक उपस्थिति और उसका सामरिक प्रभाव मज़बूत होगा।

इतना ही नहीं, चीन पूरे मध्य-पूर्व को अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव(BRI) के दायरे में लाने की कोशिश में है और इसके मद्देनज़र मध्य-पूर्व की अवसंरचनाओं में भारी मात्रा में निवेश को इच्छुक है। यह एक ओर मध्य-पूर्व के देशों के साथ चीन के आर्थिक-सामरिक हितों के एकीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करेगा, वरन् चीन को उत्पादक निवेश का बेहतर अवसर भी उपलब्ध हो सकेगा और चीनी उत्पादों की इस क्षेत्र के बाज़ारों तक आसान शर्तों पर तीव्र पहुँच संभव भी हो सकेगी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में चीन सबसे बड़े कारोबारी साझेदार और सबसे बड़े निवेशक के रूप में उभरकर सामने आया है, तथा मध्य-पूर्व में भारत के लिए चीन से मुक़ाबला करना धीरे-धीरे और भी मुश्किल होता जा रहा है। एईआई चाइना ग्लोबल इन्वेस्टमेंट ट्रैकर के अनुसार, सन् (2005-19) के दौरान चीन ने मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका में 55 अरब डॉलर निवेश किए; जबकि ऐडडेटा रिसर्च लैब के अनुसार, सन् सन् (2004-14) के बीच चीन ने 42.8 अरब डॉलर की आर्थिक मदद इन इलाक़ों में दी।

चीन-ईरान कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रैटिजिक पार्टनरशिप अग्रीमेंट की लीक रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा करती है कि अगर प्रस्तावित प्रोजेक्ट पर चीन और ईरान के बीच सहमति बनती है, तो चीन ईरान में 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगा इसके अलावा, इस बात के संकेत मिले हैं कि ईरान के चाबहार से अफ़ग़ानिस्तान के ज़ेरांज प्रान्त को जोड़ने वाले चाबहार रेलवे-प्रोजेक्ट के लिए भारत की जगह चीन को शामिल किया गया

 

चीन-ईरान सामरिक निवेश-समझौता

ईरान-चीन आर्थिक-सामरिक साझेदारी प्रस्ताव:

मध्य-पूर्व में चीन, रूस और ईरान, ही देशों के हित अमेरिकी हित से टकराते हैं और इसीलिए मध्य-पूर्व में ये तीनों देश सामरिक भागीदार के रूप में सामने आए हैं रूस ने ईरान के साथ रक्षा एवं आर्थिक सहयोग बढ़ा दिया हैउधर, चीन और ईरान ने अगले 25 वर्षों के लिए 400 अरब डॉलर का समझौता, यद्यपि इस प्रस्ताव को अभी ईरानी संसद से मंजूरी नहीं मिली है, किया है जिसमें आर्थिक, सामरिक, सुरक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग की बात है इस साझेदारी से ईरानी बंदरगाहों पर चीन का प्रभाव और दखल भी काफी बढ़ने की संभावना है।

भारत पर असर:

प्रस्तावित साझेदारी को ईरानी संसद की अनुमति मिलने की स्थिति में मध्य-पूर्व में भारतीय सामरिक हित प्रतिकूलतः प्रभावित होंगे, क्योंकि मध्य एशिया से लेकर अफगानिस्तान तक में भारत के प्रवेश के लिए ईरानी बंदरगाह महत्वपूर्ण हैं। ग्वादर और चाबहार की भौगोलिक निकटता के कारण चाबहार, जस्क और बंदर अब्बास बंदरगाह में चीनी निवेश और चीनी नौसेना की मौजूदगी भारत की मुश्किलों को बढ़ाने वाला साबित होगा। भारत पश्चिमी समुद्री-सीमा पर बुरी तरह से घिर जाएगा और समुद्री सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, इसलिए यह माना जा रहा है कि भारतीय की कूटनीति के लिए यह गंभीर चुनौती होगी। भारत की परेशानी यह भी है कि ईरान ने भारत के सहयोग से बनाए जाने वाले चाबहार-जाहेदान रेल-लाइन का निर्माण-कार्य खुद शुरू कर दिया है। भारत के लिए प्रस्तावित रेल-लाइन की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि रेल-लाइन के सहारे भारत अफगानिस्तान के हाजीगक तक व्यापारिक रास्ते को विकसित करने की योजना बना रहा है, लेकिन ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध इस रेल-लाइन के विकास में भारतीय भागीदारी को लेकर बाधा बना हुआ है।

पश्चिमी देशों की चिंताएँ:

ईरान-चीन के बीच साझेदारी संबंधी प्रस्ताव से यूरोपीए देश और अमेरिका भी सतर्क हैं, क्योंकि साझेदारी पर सहमति बनने के बाद ईरान होरमुज जलडमरूमध्य के पास स्थित जस्क बंदरगाह चीन के हवाले कर सकता है। होरमुज जलडमरूमध्य, जिस पर चीन अपने प्रभाव को कायम करने की कोशिश में लगा हुआ है, वैश्विक तेल-आपूर्ति का एक महत्वपूर्ण रास्ता है। दरअसल, अमेरिकी जिद्द ने ईरान को चीन की तरफ जाने को मजबूर किया है। अमेरिका-सहित पश्चिमी ताकतें चाहती हैं कि ईरान चीन के पाले में न जाए, लेकिन वे ईरानी अर्थव्यवस्था के संकट पर ध्यान देने को तैयार नहीं हैं।

साझेदारी की पृष्ठभूमि:

प्रस्तावित आर्थिक-सामरिक भागीदारी पर बातचीत की शुरुआत सन् 2016 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ईरान-दौरे के दौरान हुई थी। लेकिन, सन् 2018 के अंत में अमेरिका द्वारा ईरान पर फिर से आरोपित प्रतिबंधों ने ईरान को चीन की ओर बढ़ने के लिए विवश किया:

1.      अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद ईरान का तेल-निर्यात पच्चीस लाख बैरल प्रति दिन से ढाई लाख बैरल प्रति दिन पर सिमट कर रह गया।

2.      शेल तेल एवं गैस की खोज और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अवमंदन(SlowDown) के कारण तेल की गिरती कीमतों ने ईरान सहित मध्य-पूर्व की उन अर्थव्यवस्थाओं को बुरी तरह से झकझोर कर रख दिया है जो तेल पर आधारित हैं। इससे ईरान के सामने गंभीर संकट खड़ा होना स्वाभाविक था।

अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा(INSTC) से सम्बद्ध प्रगति अवरुद्ध:

ईरान की चिंता रेल, सड़क एवं नौवहन की बहुपक्षीय व्यवस्था वाला उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा(NSTC) भी है। सन् 2002 में ईरान, भारत और रूस के बीच सहमति के बाद इस गलियारे के विकास पर खासा काम भी हुआ, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों ने गलियारे के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। भारत के मुंबई से ईरान के बंदर अब्बास, चाबहार के रास्ते अजर-बैजान होते हुए रूस और यूरोप तक जाने वाला यह गलियारा ईरान के लिए खासा महत्त्वपूर्ण है। इस गलियारे का विस्तार प्रस्तावित चाबहार-जाहेदान रेल लाईन तक है।

ईरान पर दुबारा अमेरिकी प्रतिबंध लगाए जाने के बाद रूस इस गलियारे से संबंधित कुछ योजनाओं से पीछे हट गया। ईरान में अजर-बैजान सीमा से तुर्कमेनिस्तान सीमा तक जाने वाली रेल-लाइन का विद्युतीकरण करने का काम रूसी रेलवे के पास था, लेकिन उसने काम शुरू नहीं किया। पिछले साल ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने को लेकर बैठक भी हुई थी, मगर जमीन पर दोनों मुल्कों के बीच सिर्फ सीरिया में रणनीतिक सहयोग नजर आया। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का फायदा उठाते हुए रूस ईरान के हिस्से वाले अंतराष्ट्रीय तेल-बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने में लगा हुआ है। स्पष्ट है कि अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ईरान में चल रही विकास-योजनाएँ प्रभावित हुई हैं और अमेरिकी दबाव में भारत और रूस जैसे देश प्रत्यक्षतः-परोक्षतः इन परियोजनाओं से अपना हाथ पीछे खींच रहे हैं।

चीन के लिए अवसर:

इन बदले हालात का लाभ उठाते हुए चीन ने अपने रणनीतिक स्वार्थ को साधने की कोशिश कर रहा है। उसकी पूरी कोशिश उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे को बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव से जोड़ने की है जिससे दोनों लाभान्वित होंगे क्योंकि चीन न केवल ईरान के रास्ते यूरोपीय बाजार तक पहुँच सकेगा, वरन् महत्वपूर्ण ईरानी बंदरगाहों पर प्रभाव कायम कर फारस की खाड़ी से अरब सागर तक अपना वर्चस्व बढ़ाएगा।

आगे का रास्ता इतना आसान नहीं:

ईरान-चीन सामरिक भागीदारी को लेकर ईरान में भी विरोधी स्वर उठे हैं, क्योंकि चीनी निवेश की प्रकृति और इसके सन्दर्भ में अंतर्राष्ट्रीय अनुभव के कारण ईरान आशंकित है, अब यह बात अलग है कि ईरान की भी अपनी मजबूरियाँ हैं। इन्हीं आशंकाओं के कारण प्रस्तावित साझेदारी में कई पेंच फँस सकते हैं:

1.  ईरान का स्वाभिमान: चीन के साथ सामरिक साझेदारी में पेंच ईरान का स्वाभिमान है। ईरानी नेताओं का साफ मानना है कि चीन की छिपी शर्तें ईरान के स्वाभिमान और संप्रभुता दोनों को चोट पहुँचाएँगी। सामरिक साझेदारी में ईरान चीन की उन शर्तों को कतई नहीं मानेगा, जो जिनसे उसकी संप्रभुता पर आँच आए।

2.  चीनी निवेश, कर्ज और वर्चस्व के खेल से वाकिफ: ईरान चीन के निवेश, कर्ज और वर्चस्व के खेल को बखूबी समझता है, और वह चीनी निवेश और कर्ज के जाल में फँसे पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों की स्थिति से वाकिफ़ है। वह इस बात को जानता है कि जिन शर्तों पर चीन ने पकिस्तान में निवेश किया है, न तो उन शर्तों की जानकारी पाकिस्तानी संसद तक को है और न ही ये संसद एवं संसदीय समिति की अधिकारिता में आती हैं। और, यह स्थिति केवल पाकिस्तान की नहीं है, वरन् अंगोला, लाओस, श्रीलंका, मालदीव सहित उन तमाम देशों की है जो चीनी ऋण एवं निवेश के चक्रव्यूह में बुरी तरह से फँस चुके हैं। इसलिए ईरान चीन से सामरिकी भागीदारी करने से पहले शर्तों की गहन पड़ताल करेगा।

3.  सुन्नी अरब देशों के साथ चीन के बेहतर संबंध: ईरान सुन्नी अरब देशों: सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि (जो न केवल चीन की ऊर्जा-सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, वरन् ये चीनी उत्पादों के लिए एक बड़े बाज़ार का काम भी करते हैं) के साथ चीन के अच्छे संबंधों को भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है। ध्यातव्य है कि चीन के तेल-आयात का बड़ा हिस्सा सऊदी अरब से आता है और चीनी उत्पादों के लिए भी अरब जगत के देश बड़ा बाजार हैं।

चीन के ज़रिये सन्देश:

दरअसल, ईरान ने चीन से साझेदारी के ज़रिये यह सन्देश दिया है कि उसके पास तमाम विकल्प खुले हैं। ईरान इस बात को भली-भाँति समझता है कि अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद ईरान-चीन का द्विपक्षीय व्यापार 2019 में घट कर तेईस अरब डालर रह गया, जबकि 2016 में ईरान दौरे के दौरान जिनपिंग ने दावा किया था कि दोनों मुल्कों के बीच द्विपक्षीय व्यापार दस साल में छह सौ अरब डालर तक लेकर जाएँगे। ईरान यह समझ रहा है कि:

a.  उसके साथ साझेदारी बढ़ाने में चीन सिर्फ अपना हित देख रहा है

b.  इसके जरिये वह फारस की खाड़ी तक आसानी से पहुँचना चाह रहा है, क्योंकि वर्तमान में चीन-अमेरिका व्यापार-युद्ध चरम पर पहुँच चुका है।

भारत-ईरान

भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंध:

भले ही ईरान भारत का दूरस्थ पड़ोसी हो, पर भारत के ईरान के साथ पारम्परिक रूप से गहरे ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सम्बंध रहे हैं, उस समय से, जब यह पारसी देश था। आज भी ईरान से आये पारसी भारत और ईरान के बीच उस सांस्कृतिक जुड़ाव का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत में ईरान के बाद सबसे ज़्यादा शिया मुसलमान हैं और कुछ समय पहले तक भारत की सीमा ईरान से लगती थी ईरान और भारत के बीच के इस सांस्कृतिक जुड़ाव को पारसियों और शियाओं के साथ-साथ सिखों ने भी आधार प्रदान किया है। ईरान में सन् 2011 की जनगणना के हिसाब से सिखों के साठ परिवार रहते हैं जो भारत-विभाजन से भी पहले से वहाँ रह रहे हैं और जिन्हें वहाँ पूरी धार्मिक आज़ादी प्राप्त है। ये वहाँ मुख्य रूप से व्यावसायिक गतिविधियों में लिप्त हैं और उनके बच्चे वहाँ के भारतीय स्कूल में अन्य विषयों के साथ-साथ फारसी भाषा का भी अध्ययन करते हैं।

लेकिन, सदियों से चले आ रहे इस परंपरागत ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सम्बंध ने इन दोनों के बीच राजनीतिक-कूटनीतिक सम्बंधों के साथ-साथ गहरे कारोबारी-आर्थिक सम्बंधों को आधार प्रदान किया है। वर्तमान में इन दोनों के अंतर्संबंधों की व्याख्या निम्न सन्दर्भों में की जा सकती है:

1.      ऊर्जा-क्षेत्र: भारत अपनी ऊर्जा-ज़रूरतों(कच्चे तेल और गैस) को पूरा करने के लिए जिन चार-पाँच मुख्य देशों पर निर्भर हुआ करता है, कुछ समय पहले तक ईरान उनमें दूसरे स्थान पर था। और, ऐसा नहीं कि यह सम्बंध एकतरफा था। भारत ईरानी तेल और गैस-उद्योग में निवेश करने वाले देशों में शामिल हैं। इसके अलावा, ईरान भारत से दवाइयाँ, भारी मशीनरी, कल-पुर्जे और अनाज लेता है।

2.      कनेक्टिविटी अर्थात् पारगमन सुविधा: ईरान के रास्ते हमें अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे कई मुल्कों तक व्यापार-संपर्क बढ़ाने की सुविधा मिली है। अफगानिस्तान, खासतौर से चारों ओर से जमीन से घिरा हुआ देश है और पाकिस्तान के कारण हमारी उस तक पहुँच नहीं बन पाती, लेकिन अरब सागर होते हुए ईरान के जरिए भारत पाकिस्तान को बाईपास करता हुआ न केवल अफगानिस्तान तक, वरन् मध्य एशिया, रूस और यहाँ तक कि यूरोपीय देशों तक आसानी से पहुँच सकने में सक्षम है।

3.      कूटनीतिक संबंध: अफगानिस्तान, मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में सामरिक तौर पर रस्पर सहयोगी इन दोनों देशों के साझा सामरिक हित हैं। गुटनिरपेक्ष भारत के सोवियत संघ के प्रभाव में और ईरान के अमेरिकी प्रभाव में होने के बावजूद दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत 1950 के दशक से ही हो गई थी। 1990 के दशक में भारत और ईरान, दोनों ही देशों ने अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ नार्दर्न एलायंस की अशरफ गनी सरकार का समर्थन किया। दोनों अफगान-समस्या के क्षेत्रीय समाधान की हिमायत करते हैं और अफगानिस्तान में शान्ति एवं स्थिरता दोनों ही देशों के पक्ष में है। बलूचिस्तान के मसले पर दोनों देशों का रवैया भी इन्हें के दूसरे के करीब ले आता है। लेकिन, कई मामले ऐसे हैं जिनमें दोनों के बीच मतभेद भी रहे हैं। कश्मीर के मसले पर ईरान का झुकाव पाकिस्तान की ओर रहा है और कई बार उसके इस रुख ने भारत के लिए कूटनीतिक मुश्किलें खड़ी की हैं। इसी प्रकार ईरान के लिए उसका परमाणु-कार्यक्रम प्रतिष्ठा का विषय बन चुका है और वह नाभिकीय शक्ति हासिल कर सुन्नी ताक़त पाकिस्तान की नाभिकीय शक्ति को प्रति-संतुलित करना चाहता है, ताकि शिया-सुन्नी विवाद में संतुलन बनाये रखा जा सके, लेकिन भारत परमाणु हथियारों से मुक्त मध्य-पूर्व की परिकल्पना करता है और इसीलिए वह ईरान की इस कोशिश के विरोध में है। जहाँ तक अफगानिस्तान का प्रश्न है, तो दोनों तालिबान के विरोध में हैं, पर जहाँ भारत ने अफगानिस्तान में अमेरिकी और नाटो-सैनिकों की मौजूदगी का समर्थन किया, वहीं ईरान ने विरोध। इसी प्रकार जहाँ भारत-अमेरिका सम्बंध और इसका भारत-ईरान सम्बंध को प्रभावित करना ईरान को खटकता है, वहीँ चीन के साथ ईरान की बढ़ती हुई नज़दीकियाँ भारत को खटकती हैं। 

अमेरिकी प्रतिबन्ध और भारत-ईरान सम्बंध:

नवम्बर,2019 में ईरानी विदेश-मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने भारत को आश्वस्त करने की कोशिश की कि भारत और ईरान के रिश्ते तात्कालिक वैश्विक वजहों या राजनीतिक-आर्थिक गठबंधनों से नहीं टूट सकते, लेकिन उन्होंने भारत से ईरानी अपेक्षाओं की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि भारत अमेरिकी दबावों के आगे झुकने से परहेज़ करे। उन्होंने यह कहा कि अगर भारत अमेरिकी दबाव के आगे झुकता हुआ ईरान से तेल नहीं ख़रीदता, तो ईरान भारत से चावल नहीं ख़रीदेगा पहले ईरान को लगता था कि भारत सद्दाम हुसैन और इराक़ के कहीं ज़्यादा क़रीब है, और अब उसे यह लगता है कि भारत अरब देशों के कहीं अधिक करीब है। हाल में इजराइल के साथ संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के समझौते के प्रति भारत के नज़रिए और भारत-सऊदी अरब सम्बंध की गर्माहट उसकी इस आशंका को और भी पुष्ट कर रहे हैं। दरअसल, इस्लामिक क्रान्ति, इराक़-ईरान युद्ध और फिर नाभिकीय मसले पर अमेरिका-ईरान सम्बंधों में तनाव ने भारत-ईरान सम्बंध के सहज एवं स्वाभाविक विकास को प्रभावित किया और पारस्परिक ज़रूरतों के बावजूद उन्हें एक दूसरे के करीब आने नहीं दिया ईरानी परमाणु-कार्यक्रम को लेकर अमेरिका की आपत्ति है और वह नहीं चाहता है कि परमाणु-शक्ति हासिल कर ईरान मध्य-पूर्व में अपना दबदबा कायम करे

दुविधा में फँसा भारत:

गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल(GCC) के देश मध्य-पूर्व में भारत के सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर हैं वित्त-वर्ष (2018-19) के दौरान बहरीन, कुवैत, ओमान, क़तर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व वाले गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल(GCC) के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार सन् 2005 के 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 121.25 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुँच गया और इस प्रकार यह भारत के साथ कारोबार करने वाला सबसे बड़ा ट्रेडिंग ब्लॉक, यहाँ तक कि आसियान और यूरोपीय संघ से भी बड़ा, बना। वित्त-वर्ष (2014-15) में यह 137.7 बिलियन डॉलर के स्तर पर था। वित्त-वर्ष (2018-19) में भारतीय आयात 79.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर रहा, तो भारतीय निर्यात 41.55 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर और व्यापार-घाटा 38.15 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर।  

इसके अलावा, खाड़ी के देशों में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी हैं मध्य-पूर्व में कोई टकराव होता है, तो इस मोर्चे पर भी भारत को झटका लग सकता है विश्व बैंक के अनुसार, सन् 2019 में भारत ने 83 बिलियन अमेरिकी डॉलर बाह्य वित्त-प्रेषण के रूप में प्राप्त किया, लेकिन सन् 2020 में 20 प्रतिशत की गिरावट के साथ इसके 64 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर रहने की संभावना है। भारतीय वित्त-प्रेषण में मध्य-पूर्व के देशों का योगदान 53.5 प्रतिशत के स्तर पर है। कुल बाह्य वित्त-प्रेषण का 26.9 प्रतिशत यूनाइटेड अरब अमीरात से, 22.9 प्रतिशत अमेरिका से, 11.6 प्रतिशत सऊदी अरब से, 6.5 प्रतिशत क़तर से, 5.5 प्रतिशत कुवैत से और 3 प्रतिशत ओमान से आता है। करीब देश के बहार रह रहे 17.5 मिलियन अप्रवासी भारतीयों में 60 प्रतिशत से अधिक अप्रवासी भारतीय मध्य-पूर्व के देशों में रहते हैं

द्विपक्षीय सम्बंधों के हालिया रुझान:

मध्य-पूर्व में ईरान ऐसी क्षेत्रीय शक्ति है जिसकी अनदेखी सम्भव नहीं है और जिसे हल्के में लेने की भूल कोई नहीं कर सकता है, अब चाहे वह भारत हो या चीन अब समस्या यह है कि मध्य-पूर्व में भारत की सामरिक उलझनें बढ़ रही हैं और भारत मुश्किलों से घिरता दिखाई पड़ रहा है पिछले कुछ समय से अमेरिका की ईरान-नीति भारत-ईरान द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित कर रही है, और ईरान को चीन के पाले में जाने के लिए विवश कर रही है ईरान और चीन के बीच बढ़ती इन नज़दीकियों में पाकिस्तान अहम् भूमिका निभा रहा है, यद्यपि बलूचिस्तान के साथ-साथ शिया-सुन्नी मसले पर ईरान और पाकिस्तान के बीच गम्भीर मतभेद बने हुए हैं इस प्रकार एक ओर ताक़तवर देशों: अमरीका, रूस और चीन की खेमेबंदी एवं सक्रियता, दूसरी ओर क्षेत्रीय शक्तियों: भारत, ईरान, सऊदी अरब और पाकिस्तान के सामरिक हितों एवं महत्वाकांक्षाओं की टकराहट ने मध्य-पूर्व को दुनिया के सर्वाधिक अस्थिर इलाक़े में तब्दील कर दिया है। वर्तमान में मध्य-पूर्व में भारत के सऊदी, ईरान और इजराइल तीनों के साथ अच्छे संबंध हैं, लेकिन ईरान की सऊदी और इजराइल से दुश्मनी किसी से छुपी नहीं है और कहीं-न-कहीं मध्य-पूर्व का यह समीकरण भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है आज जहाँ खाड़ी देश सहित अरब देशों का ध्यान इजराइल-फ़िलिस्तीन विवाद को सुलझाने से ज़्यादा ज़ोर ईरान के प्रभाव रोकने पर है, वहीं इजराइल भी ईरान को रोकने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई पड़ता है और इसके लिए ये दोनों कुछ भी करने को तैयार दिखते हैं

यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें मध्य-पूर्व में चीन, रूस पाकिस्तान, तुर्की और ईरान एक धुरी निर्मित करते दिख रहे हैं, तो अमेरिका, भारत, इजराइल, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दूसरी धुरी निर्मित करते। और, इन दोनों धुरियों के बीच पिस रहा है भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंध, और इसके परिणामस्वरूप दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती हुई दिख रही हैं। द्विपक्षीय संबंधों में आकार ग्रहण करते तनावों के प्रबन्धन के मद्देनज़र सितम्बर,2020 में पहले भारतीय रक्षा-मन्त्री राजनाथ सिंह ईरान के दौरे पड़ गए, और फिर भारत के विदेश-मंत्री एस. जयशंकर; ताकि द्विपक्षीय संबंधों में आ रही खटास को दूर किया जा सके

धीमे पड़ते कारोबारी सम्बंध:

अगर इसके सापेक्ष ईरान की बात करें, तो 2018-19 में भारत का ईरान के साथ व्यापार 17.03 बिलियन अमेरिकी डॉलर था जिनमें पीओएल आयात 12.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के स्तर पर था, लेकिन अप्रैल-नवम्बर,2020 के दौरान अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण पेट्रोलियम उत्पादों के आयात के शून्य के स्तर पर रह जाने के कारण यह 90 प्रतिशत की गिरावट के साथ भारतीय आयात 1.29 बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया। इसी अवधि के दौरान भारतीय निर्यात 36 प्रतिशत की गिरावट के साथ 2.23 बिलियन अमेरिकी डॉलर रह गयाऐसी स्थिति में सऊदी अरब और ईरान के बीच टकराव न केवल भारत के सामरिक हितों और उसकी ऊर्जा-सुरक्षा को सीधे-सीधे प्रभावित करेगा, वरन् खाड़ी क्षेत्र में रह-रहे करीब (85-90) लाख लोगों की जान-माल भी खतरे में होगी अगर ईरान से भारत के संबंध ख़राब होते हैं, तो इस इलाक़े के तेल और गैस के 30 अरब डॉलर का कारोबार बर्बाद हो सकता है

ईरान को इस बात से तकलीफ है कि अपने ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सम्बंधों की अनदेखी करते हुए भारत, जो दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा तेल-उपभोक्ता है, ने अमेरिकी दबाव में न केवल ईरान से तेल-आयात बन्द कर दिया है, वरन् उसने ईरान की विकास-परियोजनाओं से भी अपने हाथ पीछे खींचने शुरू कर दिएइसके परिणामस्वरूप भारत के लिए तेल-निर्यातक देशों की सूची में कुछ समय पहले तक दूसरे-तीसरे स्थान पर रहने वाला ईरान आज परिदृश्य से गायब है और चालू वित्त-वर्ष में ईरान से तेल-आयात शून्य के स्तर पर पहुँच चुका है ईरान का कहना है कि अगर भारत उसका तेल नहीं खरीदेगा, तो वह भारत से चावल, मसाले, चाय, औषधि और अन्य रासायनिक उत्पादों की खरीद नहीं करेगा

चाबहार-विवाद

चाबहार समझौता:

चाबहार ओमान की खाड़ी के तट पर दक्षिण-पूर्वी ईरान में अवस्थित ईरान का इकलौता बंदरगाह शहर है, जो वहाँ के दूसरे सबसे बड़े प्रांत सिस्तान और बलूचिस्तान प्रान्त का शहर है इस बंदरगाह के विकास के लिए सन् 2003 में ही भारत और ईरान के बीच सहमति कायम हुई थी  लेकिन ईरान पर अंतराष्ट्रीय प्रतिबंधों की वजह से रूकावटें आने लगीं सन् 2016 में ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक त्रिपक्षीय समझौते को मंज़ूरी मिली। इस मेमोरेंडा ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग(MOU) के तहत्:

1.  भारत द्वारा चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए 85 मिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि उपलब्ध करवानी थी और ईरान को 150 मिलियन अमेरिकी डॉलर का क्रेडिट-लाइन उपलब्ध करवाना था

2.  भारत को बंदरगाह के कुछ हिस्सों के विकास के लिए 10 साल की लीज़ मिली और उसे चाबहार रेल-लिंक के विकास की भी जिम्मेवारी सौंपी गयी।

3.  भारत चाबहार-हाज़ीगक रेलवे परियोजना के लिए भारत ने 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि उपलब्ध करवाने के प्रति भी प्रतिबद्धता व्यक्त की। ज़ाहेदान से अफ़ग़ानिस्तान की सीमा लगभग 40 किलोमीटर दूर है, और अगर ये रेल-लिंक बन जाता, तो मालगाड़ी से सामान को आसानी से पहुँचाया जा सकता है।

4.  चाबहार विशेष आर्थिक क्षेत्र में 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के प्रस्ताव पर भी सहमति बनी

5.  मध्य अफगानिस्तान में 11 बिलियन अमेरिकी डॉलर की हाज़ीगक लौह एवं इस्पात खनन परियोजना में भारतीय कम्पनियों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी थी।

स्पष्ट है कि भारत के लिए रणनीतिक रूप से अहम् ये परियोजनाएँ चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट से कहीं पहले अस्तित्व में आ गई थीं, लेकिन इसके बाद 2016 से पहले तक इस परियोजना में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, रूस और मध्य एशिया की तरफ़ कुछ और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट शुरू करने पर सहमति जताई गई थी हालाँकि चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने बड़ी मुस्तैदी दिखाई और सन् 2018 में भारत ने पोर्ट के एक टर्मिनल का संचालन भी अपने हाथ में ले लिया रान स्थित चाबहार बंदरगाह के रास्ते भारत का व्यापार सिर्फ इन्हीं देशों तक नहीं, बल्कि पश्चिमी देशों के साथ भी संभव हो सका है। हालाँकि अभी चाबहार बंदरगाह में भारत द्वारा निर्मित शहीद बहिश्ती टर्मिनल का परिचालन पूरी तरह शुरू नहीं हो सका है, लेकिन इसकी शुरुआत से सिर्फ नौ-दस माह में ही उसके जरिए हम दो लाख टन से ज्यादा कार्गो अन्य देशों तक भेज चुके हैं।

चाबहार रेल-प्रोजेक्ट:

मई,2016 में ईरान-भारत ने इस रेल-प्रोजेक्ट पर समझौता किया, लेकिन, ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों की वज़ह से भारत से फंड मिलने में देरी ने अन्ततः ईरान को इस प्रोजेक्ट को भारत से अपने हाथों में लेने के लिए विवश किया और जुलाई,2020 में इसे अपने हाथों में लेते हुए ईरान ने नेशनल डेवलपमेंट फंड के इस्तेमाल के ज़रिए इस प्रोजेक्ट को मार्च,2022 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया

ईरान ने इस प्रोजेक्ट को ऐसे समय में अपने हाथ में लिया जब भारत-चीन संबंधों में तनाव चरम पर था और चीन के करीब पहुँचते ईरान ने उसके साथ 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर के रणनीतिक निवेश से सम्बंधित समझौता किया। ध्यातव्य है कि भारत-अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के बीच सम्पन्न इस समझौते के तहत् भारत की ओर से इंडियन रेलवेज़ कंस्ट्रक्शन लिमिटेड(IRCON) ने इस रेल-प्रोजेक्ट के लिए सभी सेवाएँ, सुपर-स्ट्रक्चर वर्क और करीब 1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर की फाइनेंसिंग का वादा किया था

चाबहार रेल-प्रोजेक्ट से भारत के बाहर होने के कारण:

यद्यपि सैद्धांतिक रूप से अमेरिका ने चाबहार पोर्ट और चाबहार रेल-प्रोजेक्ट को प्रतिबंधों से छूट दी थी, तथापि अमेरिकी प्रतिबंधों की आशंका में उपकरण-आपूर्तिकर्ता एवं पार्टनर के रूप में जुड़ने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ और कहीं-न-कहीं अमेरिका से आशंकित भारत भी इसको लेकर गम्भीर नहीं था लेकिन, पश्चिम एशिया से सम्बंधित मामलों के अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ क़मर आग़ा इस प्रोजेक्ट में भारत की ओर से होने वाले विलम्ब के अलावा ईरान-चीन नजदीकी को इसका महत्वपूर्ण कारण मानते हैं यह ख़बर ऐसे समय आई है जब भारत और चीन के बीच तनाव चरम् पर है और चीन-ईरान के बीच चार सौ अरब डॉलर के बीच सामरिक निवेश समझौता सम्पन्न हुआ है आशंका यह भी है कि चीन के साथ बढ़ती नज़दीकी के कारण चाबहार बंदरगाह भारत के हाथ से निकलकर चीन के हाथ जा सकता है

चीन के हाथ जाने की आशंका:

ऐसा माना जा रहा है कि ईरान ने चाबहार रेल-प्रोजेक्ट में चीन को भागीदारी प्रदान की है। इसलिए भारत को डर है कि भविष्य में चाबहार बंदरगाह के लीज के नवीनीकरण में मुश्किलें आएँ और यह पूरी तरह से भारत के हाथ से निकलकर जा सकता है इस आशंका को इस बात से भी बल मिलता है कि ईरान ने खुद ही पिछले साल चीन द्वारा संचालित पाकिस्तानी ग्वादर बंदरगाह और चाबहार के बीच टाई-अप एवं चाबहार ड्यूटी फ्री ज़ोन का प्रस्ताव दिया था अगर ऐसा होता है, तो यह भारत के लिए सामरिक झटका होगा क्योंकि यह पश्चिम एशिया, जिसे पश्चिमी देश मध्य-पूर्व के नाम से पुकारते हैं, में चीन की सामरिक उपस्थिति को मजबूती प्रदान करेगी। चीन पहले से ही पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को संचालित कर रहा है और हाल में उसने स्वेज नहर के पास जिबूती में अपना पहला नौवहन बंदरगाह तैयार किया है।

मध्य-पूर्व में बढ़ते चीनी प्रभाव को काउन्टर करने की रणनीति:

चीन ने अब जिस तरह से मध्य-पूर्व में ईरान में प्रवेश किया है, उस चुनौती से भारत अकेला नहीं लड़ सकता उसके लिए सामूहिक रणनीति की ज़रूरत है कमर आग़ा का मानना है कि यह सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि अमरीका समेत पश्चिमी देशों के लिए भी चिंता का विषय है क्योंकि अब पूरा ग्वादर से लेकर चाबहार और बंदर-ए-जस्क पोर्ट, जो चाबहार क़रीब 350 किलोमीटर दूर है, उन सब पर धीरे-धीरे चीन का कब्ज़ा होता रहेगा उनका मानना है कि भारत अब भी ईरान को अपने एक मित्र देश के रूप में देखता है उनके अनुसार, “भारत के साथ ईरान के ऐतिहासिक रिश्ते हैं भारत की कोशिश होगी कि वो अच्छे रिश्ते बने रहें और चाबहार बंदरगाह का काम चलता रहे और वो आगे इस प्रोजेक्ट के साथ जुड़ा रहे” उन्होंने यह आशा जताई कि इरकॉन कम्पनी बाद में किसी वक्त इस प्रोजेक्ट को ज्वाइन कर ले लेकिन,ईरान में धर्म-तंत्र या फिर पश्चिमी तर्ज़ पर लोकतंत्र’ को लेकर चल रहे विमर्श का हवाला देते हुए अश्विनी मोहपात्रा ने कहा कि सम्भव है कि ईरान में सत्ता-परिवर्तन से इस रुख में कोई बदलाव आए

चाबहार परियोजना का सामरिक महत्व:

भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार समझौता इस क्षेत्र में पाकिस्तान और चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने में समर्थ हैपाकिस्तानी बलूचिस्तान प्रान्त में अवस्थित ग्वादर बंदरगाह, चीन द्वारा संचालित, से चाबहार की दूरी सड़क के रास्ते से 400 किलोमीटर से कम और समुद्र से लगभग 100 किलोमीटर पड़ती है। इसके अलावा, चाबहार परियोजना अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का हिस्सा है। यह भारत के लिए रणनीतिक तौर पर एक महत्वपूर्ण परियोजना रही है जिसके तहत् भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर एक अंतरराष्ट्रीय यातायात मार्ग स्थापित करना चाहता है। इसके ज़रिए भारत  पाकिस्तान को बाईपास करता हुआ अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यहाँ तक कि यूरोप तक पहुँच सकता है।

जहाँ तक चाबहार रेल-प्रोजेक्ट की बात है, तो करीब 628 किलोमीटर लम्बी यह परियोजना ईरान के चाबहार पोर्ट को  अफ़ग़ानिस्तान-सीमा पर अवस्थित ज़ाहेदान से जोड़ता है भारत पाकिस्तान को बाईपास करते हुए इस रास्ते का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान और फिर अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशियाई देशों, रूस और यहाँ तक कि यूरोप तक पहुँचने के लिए करना चाहता है पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से 70 किलोमीटर दूर चाबहार पोर्ट को उसका जवाब माना जा रहा था इसके अलावा, यह परियोजना भारत को ताज़िकिस्तान में खुद उसके द्वारा ही संचालित फ़रखोर एयरबेस तक सीधी पहुँच प्रदान करती है, वो भी कम लागत पर कम समय में। ध्यातव्य है कि चाहबहार के कारण शिपमेंट-लागत में 60 प्रतिशत की कमी और भारत से मध्य एशिया तक शिपमेंट समय में 50 प्रतिशत की कमी आएगी चाबहार से यूरोप तक सामान पहुँचाने में केवल दो दिन लगेंगे इसलिए चाबहार भारत के लिए आर्थिक रूप से भी अहमियत रखता है और इसके कारण इस क्षेत्र में न केवल भारतीय पहुँच आसान होगी, वरन् परिवहन-लागत कम होने के कारण उनकी प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति भी बेहतर होगी

चाबहार रेल-विवाद और ईरान:

ईरान ने यह कहते हुए चाबहार रेल-प्रोजेक्ट से भारत को बाहर निकले जाने की इस रिपोर्ट का खंडन किया कि “ईरान ने भारत के साथ चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे के लिए कोई क़रार ही नहीं किया था” ईरान की आधिकारिक समाचार एजेंसी इरना ने एक ईरानी अधिकारी के हवाले से कहा, “सन् 2016 में समझौता केवल दो चीज़ों पर हुआ था: पोर्ट के विकास का और 15 करोड़ डॉलर के भारत के निवेश का।” इसी आलोक में चाबहार के लिए आए भारतीय निवेशों में से एक निवेश चाबहार रेलवे के बारे में भी था, पर ये समझौते का हिस्सा नहीं था।”

चाबहार रेल-विवाद और भारत:

भारत सरकार ने भी चाबहार रेल-प्रोजेक्ट पर मीडिया में आई ख़बरों को अटकलबाज़ी बताते हुए खारिज किया है विदेश-मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि सन् 2016 के बाद से कठिनाइयों के बावजूद चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट में काफ़ी प्रगति हुई है और सन् 2018 के बाद से भारतीय कंपनी के द्वारा इस पोर्ट का संचालन किया जा रहा है चाबहार रेल-परियोजना के बारे में उनका कहना है, “कुछ तकनीकी और वित्तीय मुद्दों को अंतिम रूप देने के लिए ईरान की ओर से किसी अधिकारी की नियुक्ति का इंतज़ार था, जो अबतक सम्भव नहीं हो पाया है अब भी इस नियुक्ति का इंतज़ार हो रहा है।” फ़रज़ाद-बी गैस फ़ील्ड से भारतीय कंपनी ओएनजीसी के अलग होने की ख़बरों पर टिप्पणी करते हुए अनुराग श्रीवास्तव ने कहा, “जनवरी,2020 में भारत को सूचित किया गया कि आगे से ईरान ही इस गैस-क्षेत्र को विकसित करेगा और भारत को आगे चलकर शामिल किया जाएगा

भारतीय रक्षा-मंत्री की ईरान-यात्रा:

यह कहा जा रहा है कि भारत ने फ़ारस की खाड़ी में व्याप्त अस्थिरता से चिंतित होकर और अफ़गानिस्तान की सुरक्षा के मद्देनज़र अपने रक्षा-मन्त्री को ईरान भेजा, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि तो भारत-ईरान के बीच बढ़ती दूरी के आलोक में ही तैयार हो गयी थी भारतीय रक्षा-मंत्री शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक में हिस्सा लेने मास्को गए थे और वहाँ से लौटते हुए पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम नहीं होने के बावजूद ईरानी रक्षा-मंत्री आमिर हातमी के अनुरोध पर तेहरान पहुँचे। भारत-चीन सीमा-तनाव, ईरान-चीन की बढ़ती नज़दीकियों और अफगान-तालिबान शान्ति-वार्ता के बीच दोनों देशों के रक्षा-मंत्रियों की इस अहम् मुलाक़ात में अफ़गानिस्तान समेत क्षेत्रीय सुरक्षा से सम्बद्ध मसलों पर द्विपक्षीय सहयोग की सम्भावनाओं पर विस्तार से चर्चा हुई दोनों देशों के रक्षा-मंत्रियों की बातचीत में जिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई, उनका सरोकार दोनों के हितों से है। अफगानिस्तान के मौजूदा हालात और अफगानिस्तान से अमेरिका के निकल जाने के बाद वहाँ जिस तरह से तालिबान का राज चलेगा, उसको लेकर दोनों देश चिन्तित हैं और वह किसी बड़े खतरे से कम नहीं है। तालिबान को पाकिस्तान का पूरा समर्थन है और पाकिस्तान किसी भी तरह से भारत को अफगानिस्तान के विकास की प्रक्रिया से अलग करना चाहता है।

भविष्य में अमेरिकी दबाव में कमी की सम्भावना:

अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव के दौरान जो तस्वीर उभरती दिखाई पड़ रही है, उससे इस बात का संकेत मिलता है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी  जो. बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका की ईरान-नीति वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीति से भिन्न होगी अगर अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार बनती है और जो. बाइडन सत्ता में आते है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि वे अमेरिका-ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करेंगे, भले ही पुनर्निर्धारित शर्तों के साथ, क्योंकि वे प्रेसिडेंशियल डिबेट के दौरान इस ओर इशारा कर चुके हैं अगर ऐसा होता है, तो ईरान को लेकर भारत की दुविधा कम होगी, लेकिन शायद तबतक अधिक देर हो जाए। वर्तमान में ईरान को भारत की ज़रुरत कहीं अधिक है।   

विश्लेषण:

भले ही इस रिपोर्ट को भारत और ईरान दोनों ने खारिज किया है, पर दोनों का स्पष्टीकरण वाला बयान तकनीकी प्रकृति वाला है जो स्वीकार एवं अस्वीकार, दोनों की संभावनाओं को समाहित करता है इससे इतना तो संकेत मिल ही जाता है कि भारत-ईरान द्विपक्षीय सम्बंध संक्रमण की अवस्था से गुजर रहे हैं और आनेवाले समय में ईरान में भारत की मुश्किलें बढ़ने जा रही हैं पश्चिम एशियाई मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर ए. के. पाशा के अनुसार, दरअसल तटस्थता भारत-ईरान के बीच के पारंपरिक सम्बंधों की बुनियाद रही है जो भारत-अमेरिकी सम्बंधों की बढ़ती हुई निकटता के कारण हिलती हुई दिख रही है। अमेरिकी दबाव के कारण भारत चाहकर भी ईरान के लिए कुछ कर पाने में असमर्थ है और अब ईरान को यह बात समझ में आने लगी है कि भारत के साथ दोस्ती उसके लिए फ़ायदेमंद नहीं है।” आशंका तो यह भी जताई जा रही है कि अगर द्विपक्षीय संबंधों की यही दिशा रही, तो चाबहार पोर्ट की लीज़ का एक्सटेंशन भी मुश्किल होगा  

दरअसल, भारत और ईरान दोनों एक दूसरे की ज़रुरत हैं, और दोनों में से कोई भी एक दूसरे को खोने की स्थिति में नहीं है न तो भारत कभी यह चाहेगा कि ईरान चीन, पाकिस्तान और तुर्की के पाले में चला जाए और न ही ईरान कभी चाहेगा कि उसका पारंपरिक एवं महत्वपूर्ण सहयोगी भारत पूरी तरह से अमरीका या पश्चिमी देशों के पाले में चला जाए। इसलिए बदलते वैश्विक हालात में भारत और ईरान एक दूसरे की उपयोगिता से इनकार नहीं कर सकते। पर, अमेरिकी प्रतिबंधों को झेल रहे ईरान की ज़रूरतें और भारत की अमेरिका-परस्ती इन दोनों को एक दूसरे के साथ सहज नहीं होने दे रही है, यह भी कटु सत्य है  

 

 

 

 

 

 

 

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