अफगान
शान्ति-प्रक्रिया
अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौता
प्रमुख आयाम
1. अफगानिस्तान अबतक:
a. अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप
b. सोवियत हस्तक्षेप का अमेरिकी प्रतिकार
c. तालिबान का राजनीतिक उभार
d. सोवियत सैनिकों की वापसी और अमेरिकी भूल
e. तालिबान बनाम् अमेरिका: वॉर ऑन टेरर
f. शान्ति की पुनर्बहाली की दिशा में पहल
g. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य:
राष्ट्रपति चुनाव-विवाद
2. अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौता,2020:
a. शान्ति-वार्ता की दिशा में
पहल
b. समझौते के प्रमुख
प्रावधान
c. समझौते की खामियाँ
3. अफगानिस्तान के सन्दर्भ में समझौते के निहितार्थ:
a. अबतक के अनुभव
b. समझौते का भविष्य
c. अमेरिका-तालिबान शान्ति-वार्ता
और अफगान-सरकार
d. सत्ता-संघर्ष
तेज होने की सम्भावना
e. अफ़ग़ानिस्तान
की आर्थिक मुश्किलें
4. शान्ति-समझौता और तालिबान
a. तालिबानी
रुख में बदलाव की पृष्ठभूमि
b. तालिबान बढ़त की
स्थिति में
c. अफगानिस्तान में
शान्ति की पुनर्बहाली प्राथमिकता नहीं
d. शान्ति-वार्ता शुरू
होने से पहले सैनिकों की वापसी शुरू
5. शान्ति-समझौता
और अमेरिका:
a. अमेरिकी पराजय का
संकेत
b. वित्तीय बोझ बनता अफगानिस्तान
c. अमेरिका के समक्ष मौजूद वैश्विक चुनौतियाँ
d.
अफ़गानिस्तान की उलझन
e. अमेरिका में शांति-वार्ता
के प्रश्न पर मतभेद
6. समझौते के निहितार्थ: बाहरी
शक्तियों का संदर्भ:
a.
बाहरी शक्तियों की दुविधा
b. अफगानिस्तान और पाकिस्तान
7. अमेरिका-तालिबान समझौता और भारत:
a. भारत
की सधी प्रतिक्रिया
b. भारत
की चिन्ताएँ
c. सैन्य-हस्तक्षेप का विकल्प
d. भारत और तालिबान के
तल्ख़ रिश्ते
e. तालिबान की उपेक्षा
भारत की रणनीतिक भूल
f. भारत को लेकर तालिबान के रुख में नरमी
अफगानिस्तान
अबतक
‘ग्रेट पॉवर गेम’ का हिस्सा रहे अफगानिस्तान को अक्सर ‘द ग्रेवयार्ड ऑफ सुपरपावर्स’ की संज्ञा से
नवाज़ा जाता है क्योंकि जिन भी वैश्विक शक्तियों ने अफगानिस्तान की ओर रुख किया है,
उन्हें बड़े बेआबरू होकर यहाँ से प्रस्थान करना पड़ा है। उदाहरण के लिए, सन् 1919 में ब्रिटेन, सन् 1990 में सोवियत संघ और
सन् 2020 में अमेरिका को देखा जा सकता है। यद्यपि उम्मीद की जा रही है कि इस बार
अमेरिका 1990 के दशक वाली गलती से दोहराने से परहेज़ करेगा, और अपनी मज़बूत सामरिक
उपस्थिति को सुनिश्चित करेगा।
अफगानिस्तान
में सोवियत हस्तक्षेप:
आरम्भ से ही रूस अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर रहा है और
यही कारण है कि उसकी लम्बे समय तक पहले ब्रिटेन से और फिर अमेरिका से
प्रतिद्वंद्विता रही है। मध्य-पूर्व में तेल-कूटनीति और इससे सम्बद्ध रूसी सामरिक
हित की दृष्टि से अफगानिस्तान का महत्व रूस के लिए रणनीतिक दृष्टि से अफगानिस्तान
को महत्वपूर्ण बना देता है। वह अफगानिस्तान के जरिये एशिया पर अपने वर्चस्व को सुनिश्चित करना चाहता है और अफगानिस्तान के
रास्ते भूमध्य सागर और अरब सागर-हिन्द महासागर तक पहुँचने की चाह रखता है।
इसीलिए 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटेन
ने रूस को संभावित ख़तरे के रूप में देखा क्योंकि अफगानिस्तान से रूस की भौगोलिक
निकटता और ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य से ब्रिटेन की दूरी अफगानिस्तान भू-सामरिक
दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है। उस समय, अफगानिस्तान ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य और रूस के बीच बफर
स्टेट की भूमिका में होता था। खैर, सोवियत संघ को अफगानिस्तान में अपनी सामरिक
महत्वाकांक्षा को साधने का अवसर मिला सन् 1978 में, जब अफगानिस्तान की साम्यवादी सरकार ने मुजाहिदीनों के विरुद्ध उससे
मदद की गुहार लगायी और इस गुहार ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के प्रवेश का मार्ग
प्रशस्त किया।
सोवियत
हस्तक्षेप का अमेरिकी प्रतिकार:
अफगानिस्तान में
सोवियत हस्तक्षेप के विरुद्ध अमेरिका ने सीधी लड़ाई न लड़कर पाकिस्तान के माध्यम से
लड़ाई लड़ने की रणनीति अपनायी। इस क्रम में उसने पाकिस्तान की मदद से तालिबान एवं अल
क़ायदा को खड़ा किया और इसके लिए पकिस्तान को सैन्य एवं आर्थिक मदद प्रदान की। इतना
ही नहीं, उसने ‘अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप’ को इस्लाम के खिलाफ लड़ाई
कह कर प्रचारित करते हुए ‘इस्लाम खतरे में है’ और ‘इस्लाम के लिए जेहाद’ का नारा
दिया जिसके कारण इन संगठनों को सऊदी अरब एवं यूनाइटेड अरब अमीरात सहित अन्य
इस्लामिक देशों का भी समर्थन मिला। इस प्रकार तालिबान और अल-कायदा मूल रूप से अफगानिस्तान-युद्ध
की उपज हैं और ओसामा बिन लादेन वह शख्स था जिसे अमेरिका ने सोवियत संघ के विरुद्ध अफगानिस्तान
पर कब्जे की लड़ाई में हर तरह की मदद की थी। करीब एक दशक तक चलने वाले इस संघर्ष ने
सन् 1990 में सोवियत संघ को अफगानिस्तान
से पीछे हटने के लिए विवश किया। स्पष्ट है कि तालिबान एक इस्लामिक कट्टरपंथी
आंदोलन है जिसका गठन सोवियत सेनाओं के विरुद्ध मदरसों के अफगानी छात्रों को भड़काते
हुए पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस(ISI) ने किया था।
तालिबान
का राजनीतिक उभार:
अफगानिस्तान से
सोवियत सैनिकों की वापसी ने एक ऐसे राजनीतिक शून्य को सृजित किया जिसे भरने की
कोशिश में तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर अपना नियंत्रण कायम करते हुए उसे इस्लामिक
राष्ट्र में तब्दील कर दिया। 1990 के दशक के मध्य में पाकिस्तान के समर्थन ने
अफगानिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में तालिबान के राजनीतिक उभार को सम्भव बनाया,
और उसने पाकिस्तान के सीमावर्ती पश्तून-बहुल अफगानी इलाकों में शान्ति, व्यवस्था
एवं सुरक्षा की पुनर्बहाली, शरिया कानून लागू करने और भ्रष्टाचार पर अंकुश का वादा
किया। सितंबर,1995 में दक्षिणी-पश्चिमी
अफगानिस्तान से आगे बढ़ते हुए तालिबान ने ईरान की सीमा से लगे हेरात पर कब्ज़ा कर
लिया और इसके महज साल भर के भीतर इसने तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी
को बेदखल कर काबुल पर कब्जा कर लिया। इस दौरान सन् 1996 में इसे सूडान से लौटे
ओसामा बिन लादेन का नेतृत्व मिला और सन् 1998 तक आते-आते 90
प्रतिशत अफगान-इलाके इसके नियंत्रण में आ गए। अफगानिस्तान में तालिबान के इस शासन
को पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता प्रदान की। इसलिए अगर
देखा जाए, तो सन् (1995-2001) के बीच का समय तालिबान के लिए
स्वर्णिम काल माना जा सकता है, लेकिन सन् 2001 में अमेरिका पर आतंकी हमले से
सम्बंधित उसके निर्णय ने उसे अमेरिका के सामने लाकर खड़ा कर दिया।
सोवियत
सैनिकों की वापसी और अमेरिका:
1990 के दशक में
अफगानिस्तान से सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद अमेरिका ने भी खुद को समेट लिया
जिसका परिणाम यह हुआ कि कबीलाई योद्धाओं के निरंतर टकराव एवं संघर्ष के कारण
अफगानिस्तान अव्यवस्था एवं अराजकता की ओर अग्रसर होता चला गया। इस क्रम में अमेरिका को भनक तक नहीं
लगी कि तालिबान कैसे ख़ुद को अहमद शाह मसूद के मुकाबले खड़ा कर रहा है। अंततः इसकी परिणति अफगानिस्तान में
तालिबान-शासन की स्थापना और सन् 2001 में अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी
हमले (9/11 की घटना) के रूप में हुई जिसने ‘वार ऑन टेरर(WOT)’ का मार्ग प्रशस्त
किया। और, फिर जो हुआ, वह इतिहास है। इसलिए इस बार वह इस गलती को नहीं दोहराएगा और वह
अफगानिस्तान में अपने इंटेलिजेंस की प्रभावी उपस्थिति को सुनिश्चित करेगा।
तालिबान
बनाम् अमेरिका: वॉर ऑन टेरर
दरअसल, अल क़ायदा और
तालिबान की महत्वाकांक्षा अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं रही। ‘पैन-इस्लामिज्म’ की
अवधारणा से प्रेरित होकर उसने ‘उम्मा’ का सपना देखना शुरू किया और यही वह मोड़ था
जिसने अमेरिका और तालिबान-अल क़ायदा को एक-दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर दिया जिसकी
परिणति सन् 2011 में 9 सितम्बर को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले
के रूप में हुई। इस आतंकी हमले के बाद तालिबान दुनिया की नज़रों में आया। जब इस हमले
के बाद अमेरिकी दबाव के बावजूद तालिबानी प्रमुख मुल्ला उमर ने ओसामा बिन लादेन को अमेरिका
के हाथों सौंपने से इनकार कर दिया, तब अक्टूबर,2001 में अमेरिका ने आतंकवाद के जड़ों से
खात्मे के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में ‘ऑपरेशन इन्ड्यूरिंग फ्रीडम’ के नाम से ‘वार ऑन टेरर’ की घोषणा की। यद्यपि अमेरिका तालिबान
को अफगानी सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहा, पर तालिबान नेता मुल्ला उमर और
अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को पकड़ा नहीं जा सका। और, परिस्थितियाँ ऐसी
उत्पन्न हुईं कि इससे पहले कि यह अभियान तार्किक परिणति तक पहुँच पाता, अमेरिका को
इराक़ में और फिर सीरिया में उलझना पड़ा। इस तरह अमेरिका मध्य-पूर्व
में उलझता चला गया।
शान्ति की पुनर्बहाली की
दिशा में पहल:
दिसंबर,2001 में तालिबान को
अफगानिस्तान की राजनीतिक सत्ता से अपदस्थ करने के बाद, अमेरिका के
सहयोग से हामिद करज़ई को अफगानिस्तान का अंतरिम
प्रशासनिक प्रमुख बनाया गया। अक्तूबर, 2004 में नए अफगानी संविधान के प्रावधानों के तहत्
लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए राष्ट्रपति का चुनाव सम्पन्न हुआ जिसे
शान्ति-पुनर्बहाली की दिशा में महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया। सन् 2005-2006
के दौरान तालिबान और अलकायदा द्वारा संयुक्त रूप से किये गए आतंकी
हमलों से अफगानिस्तान में शांति-बहाली की प्रक्रिया अवरुद्ध हुई। सन् 2009
में बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अफगानिस्तान में
शांति-बहाली की प्रक्रिया को पुनः प्रारंभ करने
के लिए अधिक संख्या में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की गई। उनके कार्यकाल में भी
शांति-स्थापना और सैनिकों की वापसी के तमाम प्रयास किये गए और यहाँ तक कि ओबामा ने
अमेरिका की तालिबान-नीति में भी बदलाव किया था, परंतु उस समय
किये गए प्रयास सफल नहीं हो पाए थे। मई,2011 में पाकिस्तान के एबटाबाद में 9/11
हमलों के मास्टरमाइंड ओसामा-बिन-लादेन को अमेरिकी सेनाओं द्वारा मार
गिराया गया। जून,2011 में
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की सीमित संख्या में वापसी का रोडमैप
प्रस्तुत किया। जून,2013 में अफगान-सेना को सुरक्षा का
उत्तरदायित्व सौंपते हुए अमेरिकी सेना ने खुद को
सहयोगी की भूमिका तक सीमित कर लिया। जनवरी,2017 में
डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी अफगान-नीति का जोर
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी पर होता चला गया।
वर्तमान
राजनीतिक परिदृश्य: राष्ट्रपति चुनाव-विवाद:
ध्यातव्य
है कि व्हाइट हाउस और अपने गुप्त ठिकाने से तालिबान
द्वारा शान्ति-समझौते को सराहे जाने से एक सप्ताह पहले अफ़ग़ान संसद शूरा-ए-मिल्ली
के सितंबर,2019 में हुए चुनावों के नतीजों में चुनाव में पड़े कुल एक करोड़ वोटों में से लगभग 10 लाख वोट हासिल करने वाले 71 वर्षीय मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को विजेता घोषित किया। इसका विरोध करते हुए उनके
निकट प्रतिद्वंद्वी पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला
अब्दुल्ला ने एक समानांतर सरकार के गठन की घोषणा कर दी। हालाँकि, उसके बाद से
दोनों ने अस्थायी संघर्ष-विराम की घोषणा की है, लेकिन इसके लंबे समय तक चलने की संभावना नहीं है। इस क्रम में देखें, तो
अमेरिकी दोहरापन भी समाने आता है। सन् 2002 में जिस अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में
संवैधानिक मैकेनिज्म के विकास में अहम् भूमिका निभायी और चुनाव में आगे रहने वाले को सारी ताकत सौंपने की व्यवस्था को शामिल कराया,
आज वही अमेरिका परोक्षतः अपने सामरिक हितों के मद्देनज़र न केवल इस संवैधानिक
मैकेनिज्म को दरकिनार करता दिख रहा है, वरन् राष्ट्रपति-चुनाव,2019 को रद्द कराने की कोशिशों के ज़रिये अफ़ग़ानी संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने का सुनियोजित प्रयास कर रहा
है।
अमेरिका-तालिबान
शान्ति-समझौता,2020
शान्ति-वार्ता की दिशा में पहल:
सन् 2016 में रिपब्लिकन उम्मीदवार के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प ने जिन
मुद्दों पर राष्ट्रपति-चुनाव लड़ा, उनमें से एक मुद्दा था अफगानिस्तान सहित
मध्य-पूर्व से अमेरिकी सैनिकों की वापसी। इसी
आलोक में सन् 2018 में दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच
शान्ति-वार्ता की शुरुआत हुई, और अन्ततः अनेक उतार-चढ़ावों के बीच नौ राउंड की
वार्ता फरवरी,2020 में जाकर तार्किक परिणति तक पहुँची। इस गतिरोध को दूर करने और
शान्ति-वार्ता सम्पन्न करवाने में अमेरिका के मुख्य वार्ताकार ज़लमय खलीलज़ाद, जो अफ़ग़ानिस्तान
में अमेरिका के पूर्व राजदूत रह चुके हैं, की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 29 फरवरी को क़तर की राजधानी दोहा में तालिबान के
शीर्ष नेता मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर और अफगानिस्तान में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि
ज़लमय खलीलज़ाद ने अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौते पर हस्ताक्षर किया। यह समझौता अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ की देख-रेख में सम्पन्न
हुआ। उन्होंने तालिबान को अलकायदा से संबंध समाप्त करने की प्रतिबद्धता भी याद
दिलाई। नाटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टनबर्ग ने समझौते को ‘स्थाई
शांति की दिशा में पहला कदम’ करार दिया। इस समझौते पर दस्तखत
करते वक़्त भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे क़तर में भारत के राजदूत पी. कुमारन वहाँ पर
मौजूद थे। मुल्ला बिरादर ने अफगानिस्तान में शांति-प्रक्रिया में सहयोग के लिए
पाकिस्तान के साथ चीन, ईरान और रूस का जिक्र तो किया, लेकिन
भारत के जिक्र से परहेज़ किया। अमेरिका का दावा है कि 18 साल
की जंग के बाद सम्पन्न इस ऐतिहासिक समझौते से अफगानिस्तान में शान्ति एवं व्यवस्था
की पुनर्बहाली होगी।
समझौते के प्रमुख प्रावधान:
अफगानिस्तान में शान्ति के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच कतर में सम्पन्न
इस समझौते में अमेरिकी सैनिकों की वापसी, कैद अमेरिकी सैनिकों एवं तालिबानी लड़ाकों
की रिहाई, तालिबान पर आरोपित अमेरिकी एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों की समाप्ति, तालिबान
द्वारा अलकायदा सहित इस्लामिक चरमपन्थी आतंकी संगठनों को अफगानिस्तान की धरती से
दूर रखना और युद्ध-विराम जैसे मुद्दे शामिल हैं। साथ ही, समझौते में
जल्द ही अफगान सरकार और तालिबान के बीच राजनीतिक बातचीत शुरू करने की बात भी कही
गयी है। इस समझौते के प्रावधानों को निम्न सन्दर्भों में
देखा जा सकता है:
1. अफगानिस्तान
से पश्चिमी सैनिकों की वापसी: इस समझौते के तहत् अमेरिका 135 दिनों
के भीतर अपने सैनिकों की संख्या को कम कर 8600 सैनिकों के
स्तर पर ले आएगा। वर्तमान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या करीब 13,000 है। साथ ही, इस
अवधि में नाटो को भी अपने सैनिकों की वापसी सुनिश्चित करनी होगी। इसके अलावा,
अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो देशों को यह सुनिश्चित करना होगा कि अगले 14 महीनों के भीतर अफगानिस्तान से उनके सभी सैनिकों की पूर्ण वापसी हो।
2. कैदियों
की रिहाई: अमेरिका और तालिबान सैद्धांतिक रूप से कैदियों की रिहाई के प्रश्न
पर भी एक दूसरे से सहमत हुए, अब यह बात अलग है कि कैदियों की रिहाई के प्रश्न पर न
तो अंतिम तिथि का निर्धारण ही संभव हो सका और न ही रिहा किये जाने वाले कैदियों की
संख्या पर कोई सहमति बनी। ध्यातव्य है कि तकरीबन 1000 अमेरिकी सैनिकों को तालिबान
ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है। उधर, वर्तमान में तालिबान के करीब 15,000 लड़ाके अफगान सरकार की कैद में हैं, जिनमें से 5,000 तालिबानी लड़ाकों को 10 मार्च तक रिहा किया जाना थी
और इसी तारीख़ से अफगान-तालिबान शान्ति-वार्ता की शुरुआत होनी थी। दूसरे शब्दों
में कहें, तो अमेरिका ने वार्ता शुरू होने की शर्त के रूप में तालिबानी लड़कों की
रिहाई सुनिश्चित किये जाने का आश्वासन दिया।
3. बंदिशों
का हटाया जाना: यह समझौता तालिबान पर आरोपित अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों को भी हटाये
जाने की बात करता है। समझौते की शर्तों के मुताबिक, अगले 3 महीनों
के दौरान तालिबान पर संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा आरोपित प्रतिबन्ध हटा लिए
जायेंगे, जबकि अमरीकी प्रतिबंधों को 27 अगस्त तक हटा लिया
जाएगा। साथ ही, समझौता इस दिशा में भी संकेत करता है कि यदि तालिबान-अफ़ग़ान शान्ति-वार्ता
में प्रगति और दोनों के संबंधों में सुधार संतोषजनक रहा, तो इसके मद्देनज़र इन
प्रतिबंधों को समय से पहले भी हटाया जा सकता है।
4. युद्ध-विराम: इस समझौते में युद्ध-विराम
की भी चर्चा है। इसके तहत् अफगानिस्तान सरकार के साथ तालिबान की शांति-वार्ता की
दिशा में पहल के संकेत दिए गए हैं। बात-चीत शुरू होने पर आंशिक रूप से युद्ध-विराम
की घोषणा की जायेगी और दोनों पक्षों के बीच समझौते के बाद युद्ध-विराम को पूरी तरह
से लागू किया जाएगा। मतलब यह कि एजेंडा में होने के बावजूद युद्ध-विराम पूरी तरह
से तभी लागू होगा, जब अफ़ग़ान राजनैतिक समझौते पर मुहर लगेगी।
5. आतंकी
गतिविधियों पर अंकुश लगाने पर तालिबान सहमत: इस समझौते में
अमेरिका के लिए राहत की बात यह रही कि आतंकी गतिविधियों को बंद करने के प्रश्न पर सहमति
जताते हुए तालिबान ने अमेरिका को यह आश्वस्त किया कि
वह या अल क़ायदा सहित उसका कोई भी सहयोगी अफगानी सरजमीं का इस्तेमाल
अमेरिका और उसके सहयोगियों की सेना को डराने-धमकाने के लिए नहीं करेगा। तालिबान का
यह आश्वासन अमेरिका को अपना चेहरा छुपाने का अवसर उपलब्ध करवाता है जिसके आधार पर
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस समझौते को अपनी उपलब्धि के रूप में
प्रचारित-प्रसारित करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव में उसका लाभ उठाने की कोशिश
कर सकते हैं और यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने सन् 2016 के राष्ट्रपति-चुनाव में
अमेरिकी सैनिकों की वापसी का जो दावा किया, उसे पूरा किया। इसी आलोक में अमरीका के
विशेष अफ़-पाक प्रतिनिधि रह चुके लॉरेल मिलर ने कहा कि इस समझौते में अल क़ायदा का ज़िक्र
किया जाना बेहद अहम् है।
6. अफगानिस्तान में क्षमता-निर्माण: अमेरिका अपनी ओर से अफगानिस्तान के सैन्य-बलों
को सैन्य साजो-सामान देने के साथ प्रशिक्षित भी करेगा, ताकि वह भविष्य में आंतरिक और बाहरी हमलों से खुद के
बचाव में पूरी तरह से सक्षम हो सकें।
समझौते की खामियाँ:
समस्या यह है कि इस समझौते में किसी
भी मसले पर विस्तार से चर्चा नहीं की गयी है। उदाहरण के लिए:
1. यह समझौता संघर्ष-विराम की चर्चा तो करता है, पर उसकी मोडलिटीज अर्थात् कैसे उसे ज़मीन पर उतारा जाएगा और
सफल बनाया जाएगा, पर चर्चा नहीं करता है। आवश्यकता इस बात की थी कि 18
वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद संघर्ष-विराम के प्रश्न पर बनी सहमति के आलोक में सेना
में नयी भर्ती, हथियारों का सौंपने की प्रक्रिया और युद्ध-विराम के उल्लंघन
की स्थिति में की जाने वाली कार्यवाही सहित तमाम मसलों पर चर्चा की जाती है।
2. दूसरी बात यह कि यह
समझौता इस बात की चर्चा तो करता है कि जल्द ही अफगान-सरकार
और तालिबान के बीच बातचीत शुरू की जाएगी, पर यह बातचीत की प्रक्रिया और उसके एजेंडे पर मौन है।
वास्तविकता यह है कि न केवल तालिबान और अफगान सरकार के समीकरण, वरन् अफगानी सेना
की मज़बूत स्थिति एवं तालिबान के साथ उसका छत्तीस का आँकड़ा भी बातचीत की इस
प्रक्रिया को मुश्किल बनाता है। अब तो इसके संकेत भी मिलने लगे हैं।
3. दरअसल, तालिबान और
अफगान सरकार के बीच वैचारिक मतभेद सारी समस्याओं की जड़ में हैं। सरकार चलाने के तौर-तरीके, मानवाधिकार, शरणार्थियों के मुद्दे, महिलाओं और अल्पसंख्यकों की आजादी सहित तमाम मुद्दों
पर दोनों के नजरियों में इतनी भिन्नता है कि दोनों के बीच सहमति की बहुत गुंजाइश
नहीं बचती है।
4. शान्ति-प्रक्रिया में
अफगान-सरकार और तालिबान-विरोधी अफगान-गुट शामिल नहीं: इस
शान्ति-समझौते की विडंबना यह है कि अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणतंत्र की निर्वाचित
सरकार 18 सालों से चले आ रहे आतंक खिलाफ
युद्ध को समाप्त करने के लिए 18 महीनों तक चली इस शान्ति-वार्ता
में तालिबान को केन्द्रीय अहमियत देते हुए अफ़ग़ानिस्तान की निर्वाचित सरकार को
शामिल करने की ज़रुरत महसूस नहीं की गयी, जबकि वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर
थी।
5. अन्य अल्पसंख्यक अफगानी
जनजातीय समूह समझौते की प्रक्रिया में शामिल नहीं: इतना ही नहीं, तालिबान के दूसरे विरोधी अल्पसंख्यक
अफगान-गुटों को शामिल नहीं किया गया। यही कारण है कि अफगान सरकार में मौजूद ताजिक एवं
उज़बेक कबीले के प्रतिनिधि अफगान, तालिबान कमांडरों और पाकिस्तान के बीच हो रही
बातचीत को शक के नज़रिए से देख रहे हैं, वैसे भी ताजिक एवं उज़बेक कबीले के
लोग पाकिस्तान को पसंद नहीं करते हैं।
अफगानिस्तान
के सन्दर्भ में समझौते के निहितार्थ
पिछले 41-42 साल से अफगानिस्तान हिंसा, अव्यवस्था और अराजकता से जूझ रहा। ऐसा नहीं कि
इस दौरान उसे वित्तीय सहायता नहीं मिली, पर उसका अधिकांश हिस्सा राजनीतिक
भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया जिसका परिणाम यह है कि आज भी यहाँ के लोग बुनियादी
सुविधाओं को हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन, आज ये तमाम प्रश्न गौण
हो चुके हैं। आज अफगानिस्तान में अहम् ज़रूरत है शान्ति
एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली की। एक बार यह पुनर्बहाली संभव हो पायेगी,
तो विकास अपने आप होगा। वर्तमान अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौता इसी दिशा में उठाया
गया कदम है, यद्यपि यह ज़रूरी नहीं है कि यह अफगानिस्तान में शान्ति एवं व्यवस्था
की पुनर्बहाली सुनिश्चित करे ही; पर जब भी शान्ति एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली
सम्भव होगी, वह इसी रास्ते से संभव है, अन्य किसी रास्ते से नहीं। अब इस शान्ति-समझौते
को इसमें सफलता मिलेगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि अगले चरण की
वार्ता, जो तालिबान एवं अफगान सरकार के बीच होनी है, उसकी दिशा क्या होती है और इस
क्रम में दोनों पक्षों के साथ-साथ बाहरी शक्तियाँ कितना ईमानदार रहते हुए कोशिश
करती हैं।
अबतक के अनुभव:
अगर अबतक के अनुभवों के आलोक में देखें, तो अफगानिस्तान में शान्ति एवं
व्यवस्था की पुनर्स्थापना की कोशिशें अब तक इसलिए असफल रहीं कि ये समझौते न केवल
विभिन्न अफगानी गुटों के बीच आपसी वैर-भाव को साध पाने के तात्कालिक लक्ष्य को
हासिल कर पाने में असमर्थ रहे, वरन् प्रभावी एवं कारगर समावेशी संवैधानिक व्यवस्था
के निर्माण और उसे बनाये रखने में भी उन्हें असफलता मिली। मतलब यह कि ये समझौते न तो अफगानिस्तान की तात्कालिक चिंताओं का समाधान
दे पाए और न ही दीर्घकालिक चिंताओं का समाधान। और, इसका कारण यह रहा कि एक तो
समस्या के समाधान की प्रक्रिया में घरेलू सम्बद्ध हित-समूहों को शामिल करने एवं
उनकी चिंताओं का समाधान प्रस्तुत करने के बजाय बाहरी शक्तियों ने अपने हितों एवं
अपनी चिंताओं को तरजीह देते हुए समाधान निकलने की कोशिश की और उस समाधान को
अफगानिस्तान के ऊपर थोप दिया। इसकी सफलता की संभावना भी नहीं थीं क्योंकि बाह्य
शक्तियों के परस्पर-विरोधी हितों के कारण इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी।
उदाहरण के लिए बॉन-सम्मेलन,2001 को लिया जा सकता है जिसमें अंतर-अफ़ग़ान
बैठक में लिए गए सामूहिक निर्णय की अवहेलना करते हुए पाकिस्तान की
इच्छा के अनुरूप पश्तून समाज के उदारवादी तबके से आनेवाले हामिद करज़़ई को अफगानिस्तान का राजनीतिक
नेतृत्व सौंपा गया।
समझौते का भविष्य:
इस आलोक में यदि हालिया समझौते पर विचार किया जाए, तो यह बहुत कुछ अबतक के
समझौतों की पुनरावृत्ति ही है। संयुक्त राष्ट्र
की सूची में सक्रिय आतंकवादी समूह के रूप में शामिल तालिबान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा-परिषद के स्थायी
सदस्य अमेरिका के बीच सम्पन्न यह समझौता अनिवार्य
रूप से वाशिंगटन की तात्कालिक और दीर्घकालिक ज़रूरतों को पूरा करने पर लक्षित
है। साथ ही, यह समझौता तालिबान के हितों के
संरक्षण को भी सुनिश्चित करता है।
यह समझौता संयुक्त राष्ट्र की विधिक व्यवस्था का स्पष्ट उल्लंघन है क्योंकि यह अफ़ग़ान
सरकार की वैधता को भी कम करता है और इसके अल-क़ायदा जैसे अन्य प्रतिबंधित संगठनों
के साथ समझौतों के लिए एक मिसाल साबित होने का भी खतरा है।
इस आशंका की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस समझौते के महज एक सप्ताह के
भीतर जब तालिबान ने ‘अपनी
ज़मीन’ को विदेशी कब्ज़े से मुक्त कराने के नाम पर एएनडीएसएफ
की चौकी पर हमला किया, तो अमेरिका को हेलमंद में अफ़ग़ान
सुरक्षा-बलों के खिलाफ हमलावर तालिबान लड़ाकों के खिलाफ हवाई-हमले करने पड़े। यह अफ़ग़ानिस्तान में लगभग दो दशकों से
जारी युद्ध को खत्म कराने के लिए दोहा में सम्पन्न शांति-समझौते के हश्र की ओर
इशारा करता है।
अमेरिका-तालिबान
शान्ति-वार्ता और अफगान-सरकार:
अफगान सरकार की इसमें कोई प्राथमिक भूमिका नहीं थी। उसकी भूमिका इस समझौते के बाद शुरू होनी है। यह स्थिति तालिबान को अफगान सरकार की बराबरी में
भी नहीं, वरन् उसे बढ़त की स्थिति प्रदान करती है। अफगान-सरकार इस बात को समझती है और शायद यही कारण है कि
अफगान-सरकार आरम्भ से ही अमेरिका-तालिबान
शांति-वार्ता के खिलाफ थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी
ने कहा भी था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले
समूह से शांति-समझौता निरर्थक है। अमेरिका-तालिबान शान्ति-वार्ता
के पहले चरण से अलग रखे जाने के कारण अशरफ गनी शुरुआत से ही इस डील को लेकर सशंकित
और नाराज़ रहे हैं। ध्यातव्य है कि म्यूनिख
सिक्यॉरिटी कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने कहा था
कि उन्हें इस
डील के दूसरे चरण, यानी अफगान-सरकार और तालिबान की वार्ता
पर बहुत भरोसा नहीं है। यही वजह है कि दोहा में जब इस डील पर हस्ताक्षर
हो रहा था, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी नहीं पहुँचे। उन्हें आशंका है कि भले ही अमेरिका
और उसके नाटो-सहयोगी अभी आश्वासन दे रहे हैं कि जब तक तालिबान और अफगान सरकार के
बीच समझौता नहीं होता, वो नहीं जाएँगे; लेकिन इस बात की क्या गारन्टी है कि
वे भविष्य में अपने वादे पर खरे ही उतरें। इसलिए अफगान-सरकार इस बात को लेकर सशंकित
है कि अगर तालिबान-अफगान सरकार के बीच कोई आम राय नहीं बन पाई और अमेरिका वापस चला
गया, तो फिर तालिबान शायद काबुल पर और फिर सम्पूर्ण अफगानिस्तान पर अपना राजनीतिक
नियंत्रण कायम करने की कोशिश करे। वर्तमान में तालिबान का करीब आधे अफगानिस्तान पर
कब्ज़ा है। तालिबान को पाकिस्तान से परोक्ष रूप से
मिलने वाला सैन्य-समर्थन आरम्भ से अफगान सरकार के लिये चिन्ता का विषय रहा है, और
अब इस शान्ति-समझौते के द्वारा उसकी मैन-स्ट्रीमिंग ने उसके सामने अपने अस्तित्व
को बचाए रखने की चुनौती उत्पन्न कर दी है। इसलिए भी कि अमेरिका द्वारा अपने
सैनिकों को वापस बुलाने से तालिबान को फिर से अपनी जड़ें मज़बूत करने से रोकने के
लिये कोई बड़ी ताकत मौजूद नहीं होगी।
अफगान सरकार की मुश्किल यह भी है कि सितंबर,2019 में
सम्पन्न अफगान राष्ट्रपति-चुनाव की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को मौजूद शंकाएँ अशरफ़
ग़नी की सरकार को लोकतान्त्रिक वैधता पर प्रश्न खड़ी करती हुई उनकी स्थिति को कमज़ोर
करती है। और, इस हालात में तालिबान के साथ सीधी
डील करके अमेरिका ने उसकी कमजोरी को और अधिक उद्घाटित कर दिया है। ऐसी स्थिति में
जिस तरह की होड़ तालिबान एवं इस्लामिक स्टेट के बीच चल रही है, वह इस आशंका को जन्म
देती है कि कहीं अफगान सरकार इन दोनों के बीच पिस तो नहीं रह जाएगी? यहाँ पर इस
बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अफगान सरकार पूरी तरह से अमेरिका और उसके
सहयोगियों की आर्थिक एवं सैन्य-सहायता पर निर्भर है, और अमेरिकी फौज की वापसी के
बाद इस सन्दर्भ में क्या स्थिति होगी, यह बहुत स्पष्ट नहीं है।
सत्ता-संघर्ष तेज होने की सम्भावना:
अफ़ग़ानिस्तान
से विदेशी सैनिकों हटने के बाद तालिबान के चरमपंथी विद्रोह का सबसे बड़ा कारण
समाप्त हो जाएगा क्योंकि उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी
मंज़ूर नहीं है। इनसे उन क्षेत्रीय ताक़तों को भी राहत महसूस होगी जो
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन की पक्षधर तो नहीं हैं,
पर जिन्हें अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना की मौजूदगी से अधिक
परेशानी है। अमेरिकी सेना की वापसी के बाद उन्हें
तालिबान को सत्ता में आने से रोकने के लिए रणनीति बनानी होगी। हालाँकि, अभी तो परिस्थितियाँ तालिबान के पक्ष में ही हैं और इसीलिए
आनेवाले समय में तालिबान को उन लोगों का भी समर्थन हासिल होगा जो तालिबान को तो पसंद
नहीं करते हैं, पर खुद को बचाए रखने के लिए सत्ता के समीकरण
में बने रहना चाहते हैं। उधर, चूँकि तालिबान का रवैया बहुत भरोसा नहीं जगाता है
क्योंकि इसके नेता अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार और उसके नेतृत्व को अहमियत देने
से भी इनकार करते रहे हैं, इसलिए अफगानिस्तान की जनता भी उनसे संशकित है। अफ़ग़ानिस्तान में
ऐसे भी बहुत से लोग हैं जिन्हें तालिबान के सत्ता में आने से अपने अस्तित्व पर
ख़तरा नज़र आता है। इनमें शक्तिशाली
सिपहसालार, क़बीलों
के प्रमुख, कई जातीय समूह, राजनेता,
सैनिक और अधिकारी शामिल हैं। यह स्थिति
गृह-युद्ध की आशंका को जन्म देती है।
अब समस्या यह है कि तालिबान अपना रुख नरम करने के लिए तैयार नहीं है, और अपनी
तमाम सीमाओं के बावजूद तालिबान-विरोधी शक्तियाँ इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि उन्हें
खारिज किया जा सके। समस्या यह भी है कि:
1. न्यूनतम आर्थिक और सैन्य-समर्थन की शर्त नहीं: सवाल
यह भी उठता है कि इस समझौते में अपनी सेनाएँ वापस बुलाने के साथ-साथ अमेरिका ने काबुल की मौजूदा सरकार के लिए न्यूनतम आर्थिक
और सैन्य-समर्थन की शर्त क्यों नहीं शामिल की?
अब अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़े के संघर्ष की तस्वीर
पूरी तरह बदल सकती है, जबकि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा राजनीतिक हालात के
बावजूद अभी काफ़ी बेहतर स्थिति में है।
2. अफगानिस्तान और
तालिबान के बीच विश्वास की पुनर्बहाली नहीं: अमेरिका इस समझौते की जल्दी में था और इसीलिए
अफगानिस्तान एवं तालिबान के विश्वास की पुनर्बहाली उसकी प्राथमिकता नहीं रही।
3. तमाम सीमाओं के बावजूद संवैधानिक
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का जड़ें ज़माना: अपनी तमाम कमियों के बावजूद सन् 2001 में अपनाए गए संवैधानिक मैकेनिज्म ने अफ़ग़ान-शासन व्यवस्था
के भीतर अपनी जड़ें कहीं गहरी जमा ली हैं। इसकी पुष्टि हाल के सर्वेक्षण से भी होती है जिसके अनुसार, अफ़ग़ानिस्तान के लोग
लोकतांत्रिक-गणतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था का बढ़-चढ़कर समर्थन करते हैं।
4. अफगानिस्तान का उदारवादी राजनीतिक नेतृत्व और तालिबान:
पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ गनी तक पश्तून समाज के
इसी उदार धरे का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन समस्या यह है कि अफगानिस्तान का
उदारवादी राजनीतिक तंत्र भ्रष्ट, अक्षम एवं अलोकप्रिय है। इसकी यही अक्षमता एवं
अलोकप्रियता तालिबान के लिए स्पेस क्रिएट करती है और अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं
मानवाधिकारों के अनुरूप न होने के बावजूद तालिबान और उसके शरिया लॉ की स्वीकार्यता
की समभावना सृजित होती है, तो इसलिए कि यह आसानी से ‘त्वरित न्याय’ को सुनिश्चित
करता है, जो ‘न्याय’ हो अथवा नहीं, पर ‘न्याय का भ्रम’ सृजित करने में अवश्य समर्थ
है। शायद यही कारण है कि अफगानिस्तान के पश्तूनों के बीच, विशेष रूप से ग्रामीण
इलाकों में तालिबान का व्यापक जनाधार है जिसके कारण अफगान-सरकार और उसकी सहयोगी
पश्चिमी सैनिकों के तमाम विरोध के बावजूद तालिबान अफगानी सामाजिक संरचना और अफगान
जातीय संस्कारों से अभिन्न बने रहे। बिना इसके तालिबान के लिए अपनी खोई हुई ज़मीन
को हासिल करना और करीब-करीब अफगानिस्तान के आधे से अधिक क्षेत्र पर अपने प्रभुत्व
की पुनर्स्थापना, जिसने अमेरिका सहित पश्चिमी देशों को अफगानिस्तान के समक्ष झुकने
और उसकी शर्तों को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया, सम्भव नहीं हो पाती।
इतना
ही नहीं, पिछले कुछ वर्षों के दौरान उदारवादी राजनीतिक तंत्र की विफलता और उससे
मोहभंग की पृष्ठभूमि में दक्षिणपन्थी राष्ट्रवाद के उभार, नृजातीय संघर्ष के दौरान
उत्पीड़ित राष्ट्रवादी समूह को बाहरी शक्तियों के समर्थन (पश्तून के सन्दर्भ में
पाकिस्तानी समर्थन और पश्तून शरणार्थियों को पाकिस्तानी शरण) और राष्ट्र-हित को
साधने के लिए अंध-राष्ट्रवाद का सहारा, नृजातीय अल्पसंख्यक अफगान-समुदायों के
द्वारा पाकिस्तान पर भरोसा न करते हुए उसकी कोशिशों के प्रति उदासीनता: इन सबने
मिलकर ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित की जो कहीं-न-कहीं अफगान सरकार के मुकाबले तालिबान
को बढ़त प्रदान करती हैं और उसकी स्थिति को मजबूती प्रदान करती हैं।
5. अफगानी सुरक्षा-बलों की मज़बूत स्थिति: अफ़ग़ान
राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों (ANDSF) ने तालिबान को कोई रणनीतिक बढ़त लेने का मौका नहीं दिया है। राजनीतिक
दावेदारियों के बावजूद क्षेत्रीय
और वैश्विक ताकतें काबुल के मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को बनाये रखने के पक्ष में हैं
क्योंकि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के ध्वस्त होने और तालिबान की वापसी की स्थिति
में अफगानिस्तान अराजकता एवं
गृह-युद्ध की ओर बढ़ सकता है। यह स्थिति मध्य-पूर्व में इस्लामिक चरमपंथ की स्थिति को मज़बूत कर सकती है। इतना ही नहीं, जिस तरह तालिबान लड़कों के हाथों अफगान
सेना के लाखों सैनिक मारे गए, उसे भुला पाना अफगान सेना के लिए आसान नहीं होगा।
6. अफगानी समाज का जातीय
एवं नस्लीय विभाजन: अफगानिस्तान
की जनांकिकीय संरचना में 42 प्रतिशत आबादी पश्तूनों की है, तो क्रमशः 27 प्रतिशत
ताज़िक, (9-9) प्रतिशत हजारा एवं उज़बेक की। इसके अलावा, यहाँ 4 प्रतिशत ऐमक, 3
प्रतिशत तुर्कमान, 2 प्रतिशत बलोच और 4 प्रतिशत अन्य जनजातियाँ हैं। ताज़िक, उज़बेक एवं हजारा जनजातियों के साथ
पश्तूनों का लम्बे समय से संघर्ष चल रहा है, और इसके मूल में है संसाधनों पर
अधिकार एवं सत्ता में भागीदारी की चाह। इस प्रकार अफगानी समाज जातीय एवं नस्लीय
आधारों पर आन्तरिक विभाजन का शिकार है और कबीलाई स्वतंत्रता की भावना एवं लड़ाकू
प्रवृत्ति के कारण इनके बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष की स्थिति देखने को मिलती है।
इस पृष्ठभूमि में इनको समाधान-प्रक्रिया का हिस्सा बनाये बिना और इनकी चिंताओं के
समाधान के बिना कोई भी समझौता टिकाऊ हो पायेगा, इसमें सन्देह है।
उपरोक्त परिदृश्य में यदि इस समझौते पर विचार किया जाए, तो अफगानिस्तान
में मौजूद जातीय एवं नस्लीय विभाजन की समाप्ति न तो उनकी प्राथमिकता थी और न ही अफगानी
प्रतिनिधियों सहित वार्ता में शामिल विविध पक्षों के पास इस विभाजन की समाप्ति का
कोई विज़न ही मौजूद था।
7. पश्तून समाज का आतंरिक विभाजन: विविधताओं से भरे
अफगानी समाज में इन टकरावों का प्रबंधन कैसे हो, इसको
लेकर पश्तूनों में भी विभाजन है। पश्तून समाज का उदारवादी समूह एक ऐसे अफगानिस्तान
की परिकल्पना करता है जहाँ सत्ता में ताज़िक, उज़बेक एवं हजारा जनजातियों की
समुचित एवं पर्याप्त भागीदारी हो और संसाधनों पर भी उनका अधिकार हो।
पश्तून समाज का यह हिस्सा अफगानिस्तान की परिकल्पना ऐसे उदार लोकतंत्र के रूप में
करता है जो धार्मिक रूप से सहिष्णु हो, जो मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील हो और जहाँ महिलाओं के
अधिकार सुरक्षित हों एवं उन्हें समाज में न्यायोचित स्थान मिल सके।
लेकिन, पश्तून समाज का कट्टरपंथी समूह इसके लिए तैयार नहीं है। वह अफगानिस्तान को
अफगानी इस्लामिक अमीरात के रूप में देखना चाहता है और सत्ता में पश्तूनों की पूर्ण
भागीदारी और संसाधनों पर उनके पूर्ण नियंत्रण की हिमायत करता है।
8. तालिबान का गुटीय
विभाजन: तालिबान का
गुटीय विभाजन भी एक बड़ी समस्या है: जहाँ हक्कानी नेटवर्क के पाकिस्तान एवं आईएसआई
से बेहतर सम्बन्ध एवं समझ हैं, वहीं अफगानी तालिबान का एक गुट पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट
एवं आईएसआई का घोर विरोधी है। तालिबान के कमांडर का नेतृत्व करता हुआ मुल्ला
अब्दुल गनी बरादर पाकिस्तान के हुक्मरानों के साथ तालिबान-अफगान बातचीत के एजेंडे
के प्रश्न पर विचार-विमर्श हेतु पाकिस्तान पहुँच चुका है, जबकि पश्तून जनजाति के पोपलजई कबीले
से सम्बंधित बरादर दिल से पाकिस्तानी हुक्मरानों को नापसन्द करता है और उसी
बिरादरी से आने वाले हामिद करजई के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध हैं जिसके कारण उसे
लम्बे समय तक पाकिस्तान के जेलों में बन्द भी रखा गया था।
9. तालिबान का असमंजस: अमेरिका
और तालिबान के बीच हुए शान्ति-समझौते से अफग़ानिस्तान के राजनीतिक भविष्य को लेकर
ही प्रश्न नहीं उठे हैं, बल्कि तालिबान को लेकर बदलती सोच पर भी सवाल उठ रहे हैं।
अब तक इस सोच को सही साबित करने वाले कोई साक्ष्य सामने नहीं आए हैं। अबतक यह
अस्पष्ट है कि अफगान-तालिबान शान्ति-वार्ता के क्रम में अफगानिस्तान की जो
राजनीतिक तस्वीर उभरेगी, वह कैसी होगी, क्योंकि अबतक तालिबान ने यह स्पष्ट नहीं
किया है कि अफगानिस्तान की वर्तमान संवैधानिक राजनैतिक व्यवस्था उसके लिए कहाँ तक
स्वीकार्य होगी, या स्वीकार्य होगी भी या नहीं।
इसके
उलट, तालिबान ने इस बात की ओर इशारा
कर दिया है कि:
a.
भविष्य में तालिबान के अमीर हैबतुल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति
अफ़ग़ानिस्तान का वैधानिक शासक नहीं होगा।
मतलब यह कि तालिबान के नेतृत्व वाला अफगानिस्तान लोकतंत्र और राजनीतिक बहुलतावाद
को तिलांजलि दे देगा।
b.
इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि तालिबानी लड़ाके महिलाओं के
साथ-साथ धार्मिक, जातीय और सांप्रदायिक
अल्पसंख्यकों के प्रति अपने रुख़ में कोई परिवर्तन करेंगे।
c.
तालिबान ने भले इस समझौते
में ये वादा किया हो कि वो अफ़ग़ानिस्तान की धरती को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों
के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं होने देगा, लेकिन इस बात
की नहीं के बराबर संभावना है कि तालिबान अल क़ायदा और अन्य जिहादी
संगठनों के साथ अपने संबंध समाप्त करेगा। अमेरिका
के रक्षा-मंत्री मार्क एस्पर ने कहा कि अगर तालिबान सुरक्षा गांरटी से इनकार
करता है और अफगानिस्तान की सरकार के साथ वार्ता की प्रतिबद्धता से पीछे हटता है,
तो अमेरिका उसके साथ ऐतिहासिक समझौते को खत्म कर देगा। इसकी पुष्टि तालिबान
की दुविधा से भी होती है। इस समझौते ने तालिबान की भी
मुश्किलें बढ़ायी है और उसके अंतर्विरोधों को भी खुलकर सामने आने का मौका दिया है।
एक ओर तालिबान ज़ेहाद के अपने मूल लक्ष्य से समझौता करने के लिए तैयार नहीं है,
दूसरी ओर वह अफगनिस्तान में शान्ति हेतु सहमति पर बल दे रहा है ताकि वह अपनी घरेलू
एवं अन्तर्रष्ट्रीय जिम्मेदारियों को निभाये।
अफ़ग़ानिस्तान की आर्थिक मुश्किलें:
अगर अफगानिस्तान को सरकार
चलाने और सैनिकों को वेतन देने के लिए वित्तीय सहयोग की ज़रूरत है, तो शान्ति एवं
व्यवस्था की पुनर्बहाली के लिए सैन्य-सहयोग की। अफ़ग़ानिस्तान
की सरकार का बजट लगभग 6-8 बिलियन डॉलर है। अफ़ग़ान-सरकार के कुल ख़र्च का 75 प्रतिशत हिस्सा अंतरराष्ट्रीय सहायता से प्राप्त होता है,
और इसमें सर्वाधिक योगदान अमेरिका
का होता है। अमेरिका और उसके यूरोपीय
सहयोगी देशों के लिए यह रक़म बहुत बड़ी नहीं है, विशेषकर तब जब वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान
में अपनी सेनाएँ बनाये रखने के लिए इन्हें जितना धन ख़र्च करना पड़ रहा है, फिर भी
वर्तमान आर्थिक हालत में इसे उपलब्ध करवा पाना आसान नहीं होने जा रहा है। जिस तरह अमेरिका अफगान-मामले से हाथ खींचता दिखाई पर रहा
है, उसमें यह उम्मीद बेमानी होगी कि वह अफ़ग़ानिस्तान को आगे भी उदारतापूर्वक वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाता रहेगा।
ऐसे में आने वाले समय में अमेरिकी मदद में किसी भी प्रकार की कमी अफगानिस्तान में
चल रही पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को अवरुद्ध करेगी, जिसकी भरपाई मुश्किल होगी। यह अफ़ग़ानिस्तान
की सरकार को असहाय बना देगा और उसके लिए अपने लोक-दायित्वों का निर्वाह मुश्किल हो
जाएगा। ध्यातव्य है कि सोवियत संघ के विघटन के
बाद उसके आर्थिक और सैन्य सहयोग के प्रवाह के अवरुद्ध होने के कारण डॉक्टर
नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली सरकार चली गई थी क्योंकि नजीबुल्लाह सरकार के सैनिकों
ने उनका साथ छोड़ते हुए दुश्मनों का पाला थाम लिया और वहाँ नई सरकार की स्थापना हुई।
शान्ति-समझौता
और तालिबान
तालिबानी
रुख में बदलाव की पृष्ठभूमि:
यह बात तो समझ में आती है कि अमेरिका ने
किन परिस्थितियों में इस समझौते की दिशा में पहल की, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि
किन परिस्थितियों में तालिबान के रुख में बदलाव आया और वह इस समझौते के लिए तैयार
हुआ। दरअसल तालिबान को इस्लामिक स्टेट की चुनौती
का सामना करना पड़ रहा है, और यहाँ तक कि उसे अफगानिस्तान में भी इस्लामिक स्टेट
के उभार से जूझना पड़ रहा है। अफगानिस्तान
में भी इस्लामिक स्टेट तालिबान और अमेरिका-समर्थित अफगान सरकार, दोनों से एकसाथ टकरा
रहा है। ऐसी स्थिति में तालिबान को एक ओर अफगान सरकार और पश्चिमी देशों
की सम्मिलित सेना से लड़ना पड़ रहा है, दूसरी ओर इस्लामिक स्टेट से। फलतः फोकस एवं
ऊर्जा, दोनों के बँटने के कारण तालिबान को मुश्किलातों का सामना करना पड़ रहा है।
तालिबान का आकलन है कि शान्ति-समझौते के कारण उसकी स्थिति मज़बूत होगी और वह अपनी
पूरी ऊर्जा का इस्तेमाल इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध कर सकेगा।
दूसरी बात यह कि तालिबान को बातचीत की मेज पर लाने में पाकिस्तान की भी अहम्
भूमिका रही और इसके लिए इसने अपने गुडविल का पूरा-पूरा इस्तेमाल किया
है। दरअसल पाकिस्तान अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य-बलों की अतिशीघ्र वापसी चाहता
है ताकि तालिबान अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार को प्रतिस्थापित करते हुए अपनी
स्थिति मज़बूत कर सके क्योंकि अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार के साथ पाकिस्तान के
संबंध अच्छे नहीं हैं। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि महज कुछ माह पहले अमेरिका-तालिबान-वार्ता
में शामिल होने के लिये तालिबान के उप-संस्थापक मुल्ला बारादर को पाकिस्तानी जेल
से रिहा किया गया था।
तीसरी बात यह कि तालिबान ने वार्ता में शामिल होने के पहले इस बात को
सुनिश्चित किया कि अमेरिका उसकी सारी शर्तों को स्वीकार करे। तालिबान शान्ति-वार्ता
की प्रक्रिया में आरम्भ से अफगान सरकार
की भागीदारी के विरुद्ध रहा है और उसकी
हमेशा से यह माँग रही है कि डीलिंग उसके और अमेरिका के बीच हो, न कि इसे अफ़गान सरकार,
तालिबान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय वार्ता का रूप दिया जाए। दोहा में सम्पन्न
शान्ति-वार्ता के प्रथम चरण से अफगानिस्तान और वहाँ की सरकार को दूर रखते हुए
अमेरिका ने तालिबान की इस माँग को स्वीकार किया जो यह बतलाता है कि पूरी
शांति-वार्ता के दौरान अमेरिका तालिबान के दबाव में रहा है और इसी दबाव में
शान्ति-समझौते की शर्तें भी निर्धारित हुई हैं जिसका विस्तार से उल्लेख इस आलेख
में किया गया है।
चौथी बात, तालिबान के नेतृत्व की प्रकृति तो बदली है, पर उसके
सहयोगी अब भी चरमपंथ के प्रति आग्रहशील हैं और उनका दबाव तालिबान पर बना हुआ है। ऐसी स्थिति में तालिबान
संवैधानिक तरीके से निर्वाचित उस सरकार का स्थान लेगा जो अफगानिस्तान में कानून के
शासन और अमन-चैन कायम करने के साथ-साथ उसके पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है।
फिर, तालिबान के नेतृत्व में अफगानिस्तान में
एकबार फिर से सदियों से चली आ रही महिला-विरोधी पुरातनपंथी इस्लामी व्यवस्था पुनर्बहाल होगी जो उदारवादी लोकतान्त्रिक राजनीतिक
संवैधानिक व्यवस्था को प्रतिस्थापित करेगी और जो व्यवस्था आधुनिक लोकतंत्र से
पूर्णतया असंगत होगी।
तालिबान बढ़त की स्थिति में:
इस समझौते की शर्तें इस ओर इशारा करती हैं कि अमेरिका ने उन सारी
शर्तों को स्वीकार किया जिसकी माँग एक लम्बे समय से तालिबान के द्वारा की जा रही
थी: अब वो चाहे अफगानिस्तान से पश्चिमी देशों के सैनिकों की पूर्ण वापसी का प्रश्न
हो, या तालिबानी लड़ाकों की अफगानी कैद से रिहाई का, या फिर संयुक्त राष्ट्र एवं
अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के द्वारा आरोपित प्रतिबंधों का। इतना ही नहीं, इस
समझौते के ज़रिये अमेरिका ने न केवल तालिबान को औपचारिक रूप से वैधानिकता प्रदान
की, वरन् तालिबान की जिद के आगे झुकते हुए शान्ति-वार्ता प्रक्रिया के आरंभिक चरण
से अफगानिस्तान को बाहर रखा और इस तरह से अफगान सरकार पर तालिबान की आरंभिक बढ़त
स्वीकार की।
इसकी पुष्टि समझौते के बाद के घटनाक्रमों से भी होती है। समझौते के
बावजूद तालिबान ने आतंकी हमलों और हिंसा का सिलसिला तबतक जारी रखा, जब तक कि अफगान
सरकार तालिबानी लड़कों की रिहाई के मसले पर राजी नहीं हुई। इतना ही नहीं,
अफगान-सरकार के साथ शान्ति-वार्ता शुरू करने के प्रश्न पर तालिबान तबतक राजी नहीं
हुआ, जबतक कि अफगान सरकार ने कैद तालिबानी लड़ाकों को रिहा नहीं कर दिया। इस रिहाई
में अमेरिकी दबाव ने अहम् भूमिका निभाई और इस क्रम में अमेरिका ने अफगान सरकार के
साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया एवं फ्रांस जैसे सहयोगी दलों की चिन्ताओं एवं आपत्तियों को भी
दरकिनार किया।
ध्यातव्य है कि
तालिबान शान्ति-वार्ता के पूर्व ही अपने लड़ाकों की बिना शर्त रिहाई चाहता था,
लेकिन अफगान सरकार बिना शर्त शान्ति-वार्ता चाहती थी और इस प्रश्न पर तालिबान के
साथ उसके मतभेद बने हुए थे। तालिबान की मंशाओं को लेकर सन्देह के साथ-साथ अफगानी
सिविल सोसाइटी और अफगानी सेना के दबाव के कारण अशरफ गनी सरकार इस मसले पर तालिबान
को आसानी से राहत देगी, इसको लेकर सन्देह व्यक्त किया जा रहा था। आरम्भ में ऐसे
किसी शर्त को स्वीकार करने से इनकार करते हुए अफगान
राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा था, “वार्ता शुरू करने के लिए ये शर्त
नहीं रखी जा सकती। तालिबानी कैदियों को कब रिहा किया जाएगा, ये
हम तय करेंगे, अमेरिका नहीं।” लेकिन, अफगानिस्तान
सरकार की अमेरिका पर निर्भरता ने अन्ततः उसे झुकते हुए तालिबानी लड़ाकों को रिहाई
के लिए विवश किया। स्पष्ट है कि मौलवी
हिबतुल्ला अखुंदज़ादा के नेतृत्व में तालिबान ने प्रभावी मीडिया मैनेजमेंट के
ज़रिये अपनी छवि को दुरुस्त करने की जो कोशिश की,
तालिबान को उसका लाभ मिलता दिख रहा है। यह समझौता उसी कोशिश का परिणाम है, लेकिन समस्या यह है कि
तालिबान का रवैया इस बात के लिए आश्वस्त करता नहीं दिखाई पड़ता है कि वह अफगानिस्तान
के शासन के संचालन की जिम्मेवारी लेने के लिए प्रस्तुत एवं सक्षम है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही उठता है कि इस शान्ति-समझौते से
अमेरिका को क्या मिला?
अफगानिस्तान में शान्ति की पुनर्बहाली प्राथमिकता नहीं:
अफ़ग़ान
शान्ति-प्रक्रिया की सफलता के लिए जरूरी है कि वार्ता-स्थल से लेकर बातचीत के एजेंडे तक यह सचमुच में
अफ़ग़ान-नियंत्रित प्रयास हो, लेकिन
ऐसा है नहीं, जो शान्ति-संस्थापकों की मंशाओं को लेकर सन्देह को जन्म देता है। यहाँ पर इस बात को
भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तालिबान ने अब तक न तो शान्ति के प्रति अपनी कोई
प्रतिबद्धता जताई है और न ही अफगानिस्तान के संवैधानिक मैकेनिज्म को स्वीकार किया है।
यहाँ तक कि हिंसा में कमी की शर्त पर रिहाई की अफगान-सरकार की माँग को भी तालिबान
ने एक सिरे से नकार दिया।
शान्ति-वार्ता
शुरू होने से पहले सैनिकों की वापसी शुरू:
अंतरराष्ट्रीय
मामलों के विशेषज्ञ माधव जोशी के अनुसार, “शान्ति-समझौते में शान्ति स्थापित
करने की प्रक्रिया की बात से पहले अमेरिकी फ़ौज को अफगानिस्तान से वापसी की
प्रक्रिया पर चर्चा की गयी है।” यह स्थिति चिन्ताजनक है। इसका सीधा मतलब यह
निकलता है कि अमेरिका के लिए अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी कहीं अधिक
महत्वपूर्ण है, न कि अफगानिस्तान में शान्ति एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली। ये संकेत
कम-से-कम अफगानिस्तान के लिए अच्छे नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि इसके कारण अफगान सरकार की मोल-भाव करने की क्षमता कमजोर
होगी और उसके लिए तालिबान के साथ डील करना कहीं
अधिक मुश्किल होगा। इसकी जगह अगर अमेरिका ने सैनिकों की वापसी के लिए तालिबान
और अफगान सरकार के बीच होने वाली बातचीत के सफल होने का इंतज़ार किया होता, तो शायद
बेहतर होता।
शान्ति-समझौता और अमेरिका
भले ही अमेरिका इस समझौते को आधार बनाकर
अफगानिस्तान में शान्ति एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली का दावा करे, लेकिन इसका मकसद अफगानिस्तान में शान्ति लाने से
ज्यादा अमेरिका के तात्कालिक हितों को साधना और
अमेरिकी राष्ट्रपति-चुनाव में वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड
ट्रम्प की स्थिति को मज़बूत करना है।
इसीलिए अमेरिकी दावे से इतर, इस समझौते से अफगानिस्तान में संघर्ष खत्म होने की
उम्मीद कम ही नजर आती है।
अमेरिकी पराजय के संकेत:
9/11 की घटना के बाद 20 सितंबर, 2000
को अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ‘वॉर अगेंस्ट टेरर’ का
ऐलान किया:
“अल-कायदा की लीडरशिप का अफगानिस्तान में बहुत प्रभाव है। वहाँ के
ज़्यादातर हिस्सों पर नियंत्रण बनाने के लिए ये तालिबान की सत्ता का समर्थन करता
है। आतंकवाद के विरुद्ध हमारे जंग की शुरुआत अल-क़ायदा से शुरू होती है, मगर
ये उस पर ख़त्म नहीं होगी। ये तब तक ख़त्म नहीं होगी, जब
तक कि हर एक अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूह को खोज, रोक और हरा
नहीं लिया जाता।”
इस
आलोक में अगर इस शान्ति-समझौते पर विचार करें, तो इसकी शर्तें उस युद्ध में अमेरिकी पराजय की ओर इशारा करती हैं जो अमेरिकी
इतिहास में वियतनाम युद्ध के बाद शायद दूसरा सबसे लंबा संघर्ष है और जिसने वैश्विक
महाशक्ति के रूप में अमेरिका के रुतबे को गंभीर झटका दिया है।
जहाँ वियतनाम युद्ध ने पाँच-पाँच राष्ट्रपतियों के कार्यकाल को देखा था, वहीं
अफगान-युद्ध ने तीन-तीन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल को।
अब प्रश्न यह उठता
है कि वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जिन्होंने अमेरिका को तालिबान के प्रति अपने रुख
को नरम करने और अफगानिस्तान सरकार की अनदेखी करते हुए उसकी शर्तों पर शांति-समझौता
करने के लिए विवश किया?
वित्तीय बोझ बनता अफगानिस्तान:
सितंबर,2019 में अमेरिकी रक्षा-मंत्रालय ने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के ख़र्च पर ‘कॉस्ट
ऑफ़ वार’ के नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार,
अमेरिका ने अब तक अफ़ग़ानिस्तान में 776 अरब
डॉलर ख़र्च किए हैं और इसमें से महज़ 16 प्रतिशत रक़म को
अफ़ग़ानिस्तान में पुनर्निर्माण के कार्यों में खर्च किया गया। अफग़ानिस्तान के अधिकारियों को सुरक्षा, प्रशासन एवं विकास, मानवीय मदद और निगरानी एवं
अभियान के मद में व्यय के लिए अमेरिका ने अब तक 137 अरब डॉलर
दिए हैं। इसलिए सेनाओं की वापसी के बाद अमेरिका
को अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध के लिए हर साल 100 अरब डॉलर नहीं
व्यय करने होंगे।
अमेरिका के समक्ष मौजूद
वैश्विक चुनौतियाँ:
यह समझौता ऐसे समय में सम्पन्न हुआ है जब अमेरिका
अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है: एक ओर मुश्किल होते आर्थिक एवं वित्तीय
हालात, जिसे चीन के साथ ट्रेड-वॉर और अधिक मुश्किल बना रहा है; दूसरी ओर चीनी उभार
और उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाएँ, जो अमेरिकी बादशाहत को चुनौती देती हुई
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के नाभि-केन्द्र को मध्य-पूर्व से इन्डो-पेसेफिक की ओर
शिफ्ट कर रही हैं। ऐसी स्थिति में अमेरिका के लिए अफगानिस्तान से बाहर निकलते हुए
इंडो-पेसिफिक पर ध्यान केन्द्रित करना और वहाँ उत्पन्न हो रही चुनौतियों, जो
वैश्विक महाशक्ति के रूप में उसके वर्चस्व के लिए खतरा बनती जा रही थीं, को
रेस्पोंड करना अत्यन्त आवश्यक था। पर अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ इस बात की इज़ाज़त
नहीं दे रही थीं, और उनमें बदलाव के बिना उसके लिए ऐसा कर पाना मुश्किल था।
अफ़गानिस्तान की उलझन:
अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसा दलदल रहा है जिसमें जिसने
भी उतरने की कोशिश की है, वह लगातार फँसता चला गया है, अब वो चाहे ब्रिटेन हो या
सोवियत संघ या फिर अमेरिका।
अमेरिका ताजा शिकार है जो सन् 2002 में 9/11 की पृष्ठभूमि में ‘वार ऑन टेरर’ लम्बे
समय से इराक़ और सीरिया के साथ अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति अमेरिका
के लिए न केवल आर्थिक मुश्किलें खड़ी कर रही है, वरन् इसके कारण अमेरिका के सामने
सामरिक मुश्किलें भी बढ़ रही हैं और प्रशासन के बँटते ध्यान के कारण अमेरिका के लिए
अन्य बड़ी चुनौतियों से निबटना भी मुश्किल हो रहा है।
यह भी सही है कि बिना अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया
के दुष्चक्र से मुक्त हुए अमेरिका के लिए इंडो-पैसेफिक पर ध्यान दे पाना और चीनी
चुनौती से मुकाबला कर पाना मुश्किल है; फिर भी इस मसले पर जिस मनमाने
तरीके से भारत सहित अपने सहयोगियों को विश्वास में लिए बिना अमेरिका ने यह निर्णय
लिया है, वह चिन्तित करने वाला है।
अमेरिका
में शांति-वार्ता के प्रश्न पर मतभेद:
अमेरिका में डेमोक्रैटिक
पार्टी ने भी सेक्रटरी ऑफ स्टेट माइक
पॉम्पिओ पर उन्हें गुमराह करने का आरोप लगाया
क्योंकि माइक पॉम्पिओ के द्वारा उन्हें यह बताया गया था कि कैदियों को रिहा करने
वाली बात अमेरिका-तालिबान डील का हिस्सा नहीं होगी।
ध्यातव्य है कि तालिबान के साथ बातचीत
पर अमेरिका में आम सहमति नहीं थी क्योंकि एक धड़े का यह मानना था कि
तालिबान के साथ टेबल पर बैठना अमेरिकी उसूलों के खिलाफ है। इसको लेकर मतभेद इस कदर
बढ़े कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन
बॉल्टन ने इसी मसले पर मतभेद के कारण अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
समझौते के निहितार्थ: बाहरी शक्तियों का संदर्भ
यह सच है कि अमेरिका में रिपब्लिकन या डेमोक्रेट, कोई
भी अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के विरुद्ध नहीं है, पश्चिम एशिया से अमेरिकी
सैनिकों की वापसी के प्रश्न पर उनमें सहमति है। लेकिन, अफगान शान्ति-प्रक्रिया की
सफलता या विफलता बड़ी शक्तियों: चीन एवं रूस और क्षेत्रीय शक्तियों: पाकिस्तान,
ईरान और भारत की भूमिका पर भी निर्भर करती हैं।
बाहरी शक्तियों
की दुविधा:
दरअसल, अफगानिस्तान को लेकर
बाहरी शक्तियों की दुविधा यह है कि वर्तमान में वैश्विक या क्षेत्रीय शक्तियों:
चाहे वह अमेरिका हो या रूस, ईरान हो या चीन या फिर भारत ही, में से कोई न तो यह चाहता है कि अमेरिकी सैनिक अचानक से अफ़ग़ानिस्तान
से निकल जाएँ और
न ही यह चाहता है कि अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान
में आगे भी मौजूद रहें।
अगर अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी आगे भी बनी रहती है, तो
अफगानिस्तान में शान्ति की पुनर्बहाली और इनके लिए अपने सामरिक हितों को साध पाना
मुश्किल होगा। लेकिन, अमेरिका अगर हड़बड़ी में अपने सैनिकों
को वापस बुलाता है, तो अफ़ग़ानिस्तान में गृह-युद्ध
जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। इसके कारण लंबे
समय के लिए उत्पन्न क्षेत्रीय अस्थिरता
का सीधा लाभ इस्लामिक चरमपंथी संगठनों अर्थात् तालिबान को होगा, जबकि ये नहीं चाहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान पर पूरी तरह से
तालिबान का नियंत्रण हो। लेकिन,
परिस्थितियाँ अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण की संभावनाओं की ओर इशारा कर रही
हैं। दरअसल अफगानिस्तान में अन्तर्निहित
सम्भावनाओं का दोहन तो सब करना चाहते हैं, पर उसकी कीमत कोई नहीं चुकाना चाहता है।
अफगानिस्तान और पाकिस्तान:
पाकिस्तान
और ईरान, अफगानिस्तान के सबसे
महत्वपूर्ण पड़ोसी हैं और ये किसी भी अन्य देश की तुलना में अफगानिस्तान को कहीं
अधिक प्रभावित करने की स्थिति में हैं। इसमें भी अफगानिस्तान पर पाकिस्तान का असर
सबसे ज्यादा है, लेकिन समस्या यह है कि एक ओर पाकिस्तान अफगानी शरणार्थियों को शरण
देकर उन्हें उपकृत करता है और अफगानियों के बीच गुडविल बनाने की कोशिश करता है,
दूसरी ओर अफगानिस्तान में आतंकवाद के मसले पर ढुल-मुल रवैया अपनाते हुए उन्हें
प्रोत्साहित करने में लगा हुआ है जिसके कारण अधिकांश अफगानी न तो पाकिस्तानी सरकार
एवं सेना पर भरोसा करते हैं और न ही यह मानने के लिए तैयार हैं कि पाकिस्तान
अफगानिस्तान में शांति एवं व्यवस्था को पुनर्बहाल होते हुए देखना चाहता है। इसीलिए,
यद्यपि पाकिस्तान ने इस समझौते का स्वागत करते हुए अफगानिस्तान में शान्ति की
पुनर्बहाली के प्रयासों के साथ-साथ शान्ति-पूर्ण, स्थिर,
एकीकृत, लोकतांत्रिक और समृद्ध अफगानिस्तान के
लिए समर्थन जारी रखने का संकेत दिया, तथापि पाकिस्तान की मंशा को लेकर सन्देह
व्यक्त किया जा रहा है। अफ़ग़ान सरकार ने तो शान्ति-वार्ता में पाकिस्तान की
भूमिका को लेकर आपत्ति तक दर्ज करवाई थी। अफगानिस्तान को इस बात का अंदेशा है कि चूँकि
पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपने हिसाब से संचालित होते हुए देखना चाहता है, इसलिए पाकिस्तान तालिबान का इस्तेमाल अपने संकीर्ण इरादों को पूरा
करने के लिए कर सकता है। यदि पाकिस्तान तालिबान के जरिये अफगानिस्तान
में मनमानी करने में सक्षम होता है, तो इससे पूरे क्षेत्र के लिए नए सिरे से खतरा
पैदा हो सकता है। पाकिस्तान की विडंबना यह है कि वह पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपने पाँचवें प्रान्त
के रूप में देखता है और उसके राजनीतिक
परिदृश्य को अपने हिसाब से संचालित करना चाहता है, पर इसके वित्तीय बोझ को उठाने
की अपेक्षा अमेरिका एवं उसके सहयोगी देशों से करता है। स्पष्ट है कि अफगानिस्तान में शान्ति बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती
है कि पाकिस्तान तालिबान और आतंकवाद के मसले पर किस प्रकार का रुख अपनाता है।
ध्यातव्य है कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच मुख्य मुद्दा डूरंड
लाइन को लेकर है जिसे अफ़ग़ानिस्तान तो शुरू से ही सीमा-रेखा को मानने से इनकार
करता रहा है, लेकिन जो पाकिस्तान की नज़रों में अंतरराष्ट्रीय सीमा है। अब समस्या यह है कि डूरंड रेखा के दोनों
ओर मौजूद चरमपंथी सीमा-पार कर एक-दूसरे के इलाक़ों में हमले करते हैं। आगे
चलकर अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध शुरू होने के बाद और विशेष रूप से अफ़ग़ानिस्तान
से तालिबान के बेदखल होने के बाद स्थिति बिगड़ती चली गई। ऐसा माना जाता है कि इसने दोनों देशों के एक दूसरे के भरोसे को कम किया
जिसे पुनर्बहाल करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ और आलम यह है कि आज भी अफ़गानिस्तान
में घटने वाली हर घटना के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराया जाता है।
अमेरिका-तालिबान
समझौता और भारत
भारत की सधी
प्रतिक्रिया:
भारत अफगान-हित में अफगान-नेतृत्व वाली शान्ति की पहल का पक्षधर हैं,
लेकिन इसमें अफगानी-नेतृत्व की इच्छाओं का सम्मान और क्षेत्रीय सुरक्षा का पूरा
ख्याल होना चाहिए। अमेरिका-तालिबान
शान्ति-समझौते पर प्रतिक्रिया देते हुए उसने कहा कि उसकी अफगानिस्तान-नीति उन सभी
अवसरों का समर्थन करती है जो हिंसा एवं आतंकवाद के उन्मूलन को सुनिश्चित करते हुए
अफगानिस्तान में शान्ति, सुरक्षा एवं स्थिरता ला
सके। साथ ही, भारत समझौते को अपने हितों के अनुरूप ही तवज्जो देगा। उसने यह भी स्पष्ट किया कि वह अफगान के स्वामित्व
वाली और अफगान-नियंत्रित प्रक्रिया के जरिये एक दीर्घकालिक राजनीतिक समाधान के
पक्ष में है। भारत ने यह भी आश्वस्त किया कि एक निकटतम पड़ोसी के तौर पर भारत
अफगानिस्तान सरकार और वहाँ के लोगों को एक शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक एवं समृद्ध भविष्य के लिए उनकी
आकांक्षाओं को साकार करने के लिए सभी तरह की सहायता देना जारी रखेगा जिसमें अफगान
समाज के सभी वर्गों के हित संरक्षित हों।
भारत ने
अफगान-नेतृत्व को भी इस बात के लिए आश्वस्त किया कि भारत आगे भी आत्मनिर्भर, संप्रभु, लोकतांत्रिक, बहुलवादी और समावेशी अफगानिस्तान के लिए समर्थन देता रहेगा, ताकि समाज के सभी
वर्गों के अधिकार और हित सुरक्षित रह सकें। भारत ने पाक-प्रायोजित आतंकवाद को लक्षित करते हुए कहा, “अफगानिस्तान
में स्थायी शान्ति के लिए बाह्य रूप से प्रायोजित आतंकवाद को खत्म करने की जरूरत
है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी प्रक्रिया से ऐसा कोई ‘अनियंत्रित क्षेत्र’ उत्पन्न
नहीं होना चाहिए जहाँ आतंकवादियों और उनके समर्थकों को फिर से स्थापित होने का
मौका मिले।” इस समझौते के पहले
भी भारत ने अमेरिका से कहा था कि हालाँकि अफगानिस्तान में शान्ति के लिए
इस्लामाबाद का सहयोग महत्वपूर्ण है, लेकिन पाकिस्तान पर इसको लेकर दबाव बनाया जाना
चाहिए कि वह अपनी धरती से संचालित होने वाले आतंकी नेटवर्कों पर शिकंजा कसे। भारत
का मानना है कि तालिबान से कोई भी समझौता अधूरा नहीं होना चाहिए, इसमें समग्रता
होनी चाहिए और इसका अक्षरश: पालन होना चाहिए।
भारत की चिन्ताएँ:
अमेरिका-तालिबान शान्ति-समझौता भारत के सामरिक हितों को प्रतिकूलतः
प्रभावित करेगा। अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण
पश्चिम एशिया में अपनी पैठ बनाने की कोशिश में लगे भारत के लिए बड़ा झटका साबित
होगा। कारण यह कि अफगानिस्तान में न केवल भारत के आर्थिक हित एवं उसके द्वारा किये
गए निवेश, बल्कि उसके सामरिक एवं सुरक्षा हित भी दाँव पर लगे हुए हैं। भारत अफगानिस्तान
में चल रहीं विकासात्मक एवं पुनर्निर्माण परियोजनाओं पर पड़ने वाले असर और उनके
भविष्य को लेकर चिंतित है। ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेश
किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान,
मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों के साथ
व्यापार और संबंधों को मज़बूती दी जा सके। साथ ही, वह तापी
परियोजना पर भी काम कर रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है,
तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे अफगानिस्तान के
रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुँच बाधित होगी। इसके अलावा, भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण एवं क्षमता-निर्माण से
सम्बंधित सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर करीब 4 बिलियन
अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है
और वर्तमान में 31 अफगान-प्रांतों में
शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा,
खेल-अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना से सम्बंधित 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इनमें अफगान संसद-भवन,
सलमा बाँध, जेराँग-डेलाराम सड़क परियोजना, बामियान से
बन्दर-ए-अब्बास तक सड़क-निर्माण, गारलैंड राज-मार्ग और काबुल क्रिकेट-स्टेडियम बाँध
से सम्बंधित परियोजनाएँ शामिल हैं। इन परियोजनाओं के ज़रिये भारत ने आम अफ़ग़ानी नागरिकों, खासकर पश्तूनी नागरिकों में अपनी अच्छी
छवि बना ली है।
उसकी चिन्ता का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि समझौते के बाद
तालिबानी आतंकियों के पाकिस्तान की सीमा के जरिये भारत में घुसपैठ करने की आशंका
जताई जा चुकी हैं। सुरक्षा सलाहकार पी. के. मिश्रा
का कहना है, “शान्ति-समझौते के बाद अगर सभी अमेरिकी सैनिकों की
वापसी हो जाती है, तो इसका फायदा उठाकर तालिबान अफगानिस्तान
में फिर अपना वर्चस्व कायम कर सकता है। इससे क्षेत्रीय सुरक्षा को खतरा होगा,
इससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत होगा।” इसलिए
तालिबान-पाकिस्तान की निकटता और सरकार में आने की तालिबानी कोशिश को
पाकिस्तानी समर्थन के मद्देनज़र भारत को इस बात की आशंका है कि अफग़ानिस्तान में तालिबान की इस्लामी अमीरात और
काबुल सरकार की टकराहट उसे दुबारा गृह-युद्ध के
दुष्चक्र में उलझा दे, और तालिबान के मजबूत होते ही तहरीक-ए-तालिबान (पाकिस्तान) अधिक आक्रामक
रास्ते पर चलने और एक बड़े वैश्विक आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा बनने को प्रेरित हो
सकता है। इससे भारत के
सामरिक हित प्रभावित हो सकते हैं और सुरक्षा-चिन्ताएँ बढ़ सकती हैं। भारत की चिन्ता यह भी है कि अगर अमेरिका अपनी
सेना को अफगानिस्तान से हटा लेता है, पाकिस्तान अपने यहाँ उत्पन्न हो रहे आतंकवाद
के लिये तालिबान और अफगानिस्तान को ज़िम्मेदार ठहरा सकता है। यह भारत के लिए गंभीर सुरक्षा-चुनौतियों का कारण बन
सकता है, विशेष
रूप से केंद्र-शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में। इसलिए यह भारत के लिए भी परेशानी का सबब है जो
पाकिस्तान-समर्थित आतंकी तत्वों को अपनी सीमा से दूर रखने के लिए लंबे समय से
अफ़ग़ानिस्तान में कूटनीति के साथ-साथ वित्तीय निवेश भी करता रहा है।
सैन्य-हस्तक्षेप
का विकल्प:
कुछ लोगों का सुझाव
यह है कि अमेरिकी फौज़ों की वापसी के बाद भारत को
सैन्य-दखल के ज़रिए उस शून्य को भरने की कोशिश करनी चाहिए जो अमेरिकी
फौजों की वापसी के कारण सृजित होगा। लेकिन ऐसी सलाह वही लोग दे सकते हैं जो
अफगानिस्तान के इतिहास से अपरिचित होंगे। जब वैश्विक महाशक्तियाँ अफगानिस्तान में
नहीं टिक सकीं, तो भारत की क्या बिसात है। इसीलिए न तो भारत कभी ऐसा करेगा और न ही
उसे कभी ऐसा करना चाहिए। ध्यातव्य है कि जनवरी,1981 में भारत ने अफगान प्रधानमंत्री बबरक कारमल अफगान मामले में सैन्य-हस्तक्षेप
के अनौपचारिक प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
भारत और तालिबान के तल्ख़ रिश्ते:
ऐसी स्थिति में
आवश्यकता इस बात की है कि भारत बदली हुई परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठाने की
कोशिश करे और अपने सामरिक हितों के रक्षार्थ तालिबान के साथ संवाद स्थापित करने की
कोशिश करे, लेकिन भारत और तालिबान, दोनों का एक दूसरे के प्रति नजरिया इसमें बाधक
है क्योंकि भारत और तालिबान के रिश्ते हमेशा से तल्ख़ रहे हैं। इसीलिए यह कहा जा रहा है कि भारत के लिए भी आगे
की राह आसान नहीं है। भारत ने राजनैतिक और आधिकारिक तौर पर कभी भी तालिबान को
तवज्जो नहीं दी, तब भी नहीं, जब सन् (1996-2001) के दौरान तालिबान सत्ता
पर काबिज़ था। सन् 1999 में विमान-अपहरण के बाद भारत को
मौलाना मसूद अज़हर समेत कई आतंकियों को रिहा करना पड़ा
था जिसकी कड़वी यादें आज भी भारत के ज़ेहन में ताज़ा हैं। आतंकी संगठन
जैशे मोहम्मद का सरगना और संसद-हमले, पठानकोट-हमले एवं
पुलवामाँ हमले का भी मास्टरमाइंड माना जाता है। तालिबान भारत को एक दुश्मन मुल्क
के तौर पर देखता है जिसकी वजह भारत द्वारा 1990 के दशक में
तालिबान-विरोधी ताकतों का किया गया समर्थन है। यही कारण है कि तालिबानी नेता
मुल्ला बरादर ने अपने वक्तव्य में चीन, रूस एवं ईरान और विशेष रूप पाकिस्तान की
ख़ास तौर पर उसके कामों और मदद की तारीफ़ की, पर जान-बूझकर उन देशों के साथ भारत का
नाम लेने से परहेज़ किया, जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में अमन के लिए कोशिशें की।
तालिबान की उपेक्षा भारत की रणनीतिक भूल:
हालाँकि हाल के वर्षों में भारत वार्ता के सभी पक्षकारों के संपर्क
में था, लेकिन आधिकारिक तौर पर भारत कभी भी तालिबान के साथ सीधे वार्ता में नहीं
शामिल हुआ। अबतक उसने आधिकारिक रूप से
तालिबान का विरोध किया है। पिछले दिनों हुई मास्को में हुई वार्ता में भारत ने
अनाधिकारिक तौर पर अपने दो प्रतिनिधियों को भेजा था, लेकिन दोहा में इस समझौते पर
हस्ताक्षर के वक़्त पहली बार क़तर में भारतीय राजदूत पी. कुमारन आधिकारिक रूप से
मौजूद रहे। पिछले दिनों जब अमेरिका ने शान्ति-समझौते को लेकर प्रतिबद्धता जताई,
तो विदेश-मंत्री अमेरिका की ओर से वार्ता में शामिल दूत से मिले थे।
लेकिन, बदले हालात में भारत के लिए तालिबान से संपर्क-संवाद कायम करना कूटनीति का
तकाजा है, अन्यथा आने वाले समय में उसके लिए अफगानिस्तान में अपने सामरिक हितों को
साध पाना मुश्किल होगा।
भारत को लेकर तालिबान के रुख में नरमी:
तालिबान के साथ हुए समझौते में अमेरिका ने
अपने हितों की पूरी तरह से रक्षा की है, लेकिन न तो इसमें भारत के हितों का कोई जिक्र
ही है और न ही भारत में सक्रिय लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद आतंकी संगठनों का कोई
ज़िक्र ही। दरअसल, भारत, जो कि अमेरिका का सहयोगी
नहीं है, इस समझौते की ज़द से बाहर है। लेकिन, अमेरिका ने भारत को
तालिबान से वार्ता करने की सलाह दी, और इसी के ठीक बाद तालिबान ने राष्ट्रीय हित में
भारत सहित अपने तमाम पड़ोसी देशों के साथ के साथ सकारात्मक संबंध बनाने की इच्छा
प्रकट की। तालिबान का कहना है कि वह भारत के साथ सकारात्मक संबंध बनाने को इच्छुक
है और बेहतर भविष्य के लिए अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण एवं क्षमता-निर्माण में
भारत से सहयोग एवं योगदान की अपेक्षा करते हैं। भारत-सहित तमाम पड़ोसी देशों की
आशंकाओं का निवारण करते हुए तालिबान ने यह स्पष्ट किया कि उसका अभियान देश के भीतर
है और सीमा के बाहर उसकी किसी तरह की महत्वाकांक्षा नहीं है।
दरअसल अमेरिका, अफगानिस्तान और तालिबान: तीनों इस बात को समझ रहे हैं
कि अगर अफगानिस्तान में शान्ति एवं व्यवस्था की पुनर्बहाली सुनिश्चित करनी है, तो भारत
को इस प्रक्रिया में भागीदार बनाना होगा। अमेरिका को इस बात का डर है कि
अफगानिस्तान में अलग-अलग गुटों के बीच चल रही शांति-वार्ता कभी भी बाधित हो सकती
है, विशेषकर तब जब वहाँ विभिन्न कबीलाई जनजातियाँ आपस में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही
हैं।
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