Sunday, 18 October 2020

भारत, पाकिस्तान और सऊदी अरब: कश्मीर

 

भारत, पाकिस्तान और सऊदी अरब: कश्मीर

प्रमुख आयाम

1.  पुनर्परिभाषित होता मध्य-पूर्व का समीकरण

2.  पाकिस्तान-सऊदी अरब सम्बंध

3.  कश्मीर मसले पर समर्थन जुटाने की पाकिस्तानी कोशिश

4.  पाकिस्तानी विदेश-मंत्री की चेतावनी

5.  इस्लामिक सहयोग संगठन को समझने में पाकिस्तान असफल

6.  कुआलालम्पुर सम्मिट, दिसम्बर,2019

7.  पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति पर असर

8.  कुआलालम्पुर सम्मिट के प्रति सऊदी प्रतिक्रिया

9.  सऊदी अरब का बदला हुआ रुख: प्रमुख कारण

10.         सऊदी-प्रतिक्रिया

11.         इस्लामिक सहयोग संगठन और कश्मीर

12.         पाकिस्तान को मध्य-पूर्व की बदलती भू-राजनीति को समझने की ज़रुरत

13.         वैश्विक बदलावों का हिस्सा है मध्य-पूर्व का बदलाव

भारत, पाकिस्तान और सऊदी अरब: कश्मीर

पुनर्परिभाषित होता मध्य-पूर्व का समीकरण:

हाल के वर्षों में शेल तेल एवं गैस की खोज ने अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दुनिया के देशों की मध्य-पूर्व पर निर्भरता कम की है। साथ ही, पिछले करीब एक दशक से वैश्विक अर्थव्यवस्था के अवमंदन के कारण ऊर्जा-माँगों में भी गिरावट आयी है। इन सबके परिणामस्वरूप हाल के वर्षों में तेल की कीमतों में तीव्र गिरावट का रुझान मिलता है जिसने तेल पर आधारित सऊदी अरब सहित मध्य पूर्व के देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती उत्पन्न की है। इसकी पृष्ठभूमि में शिया-सुन्नी के सांप्रदायिक लाइन पर विभाजित मध्य-पूर्व के देशों की आपसी प्रतिस्पर्धा और उनके पारस्परिक हितों की टकराहट ने न केवल अरब राष्ट्रवाद को छिन्न-भिन्न कर दिया है, वरन् गल्फ़ को-ऑपरेशन काउंसिल(GCC) से सम्बद्ध खाड़ी देशों को भी विभाजित कर रखा है। बचा-खुचा काम ईरान के उभार की पृष्ठभूमि में यमन एवं क़तर से सऊदी अरब के तनाव ने कर दिया है। आन्तरिक एवं बाह्य चुनौतियों का एक साथ सामना करते मध्य-पूर्व के देशों की ये रक्षा-ज़रूरतें हैं जो एक-एक कर खाड़ी देशों को फ़िलिस्तीन-मसले और इस पर तमाम मतभेदों की अनदेखी करते हुए इजराइल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए विवश कर रही हैं। खाड़ी देशों की यह कोशिश मध्य-पूर्व के सामरिक समीकरणों को पुनर्परिभाषित करने का काम कर रही है और इस क्रम में सऊदी अरब एवं पाकिस्तान के सम्बन्ध भी पुनर्परिभाषित हो रहे हैं। 

पाकिस्तान-सऊदी अरब सम्बंध:

पाकिस्तान और सऊदी अरब के ऐतिहासिक-पारम्परिक सम्बंध कूटनीतिक दृष्टि से काफी मज़बूत रहे हैं। अपने गठन के समय से ही पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है, और इससे बाहर निकलने के लिए अक्सर पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ सऊदी अरब की ओर टकटकी लगाए देखते रहे हैं। इसलिए पाकिस्तान की राजनीति में सऊदी अरब की भूमिका संकटमोचक की रही है, और उसकी यह भूमिका राजनीति तक ही सीमित नहीं है। सऊदी अरब आर्थिक बदहाली से जूझते पाकिस्तान के लिए भी संकटमोचक की भूमिका निभाता रहा है। सन् 2019 में जब सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने पाकिस्तान का दौरा किया, तो इस दौरे पर मुश्किल में घिरी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए 20 अरब डॉलर के समझौतों पर दस्तख़त के साथ द्विपक्षीय सम्बंध को नया आयाम मिला। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह सम्बंध एकतरफा नहीं है। अबतक पाकिस्तान सऊदी अरब के लिए विश्वस्त रक्षा-सहयोगी भी रहा है। यमन से लेकर सीरिया तक प्रोक्सी वॉर में उलझे सऊदी अरब के लिए पाकिस्तान की रक्षा-सहायता बहुत महत्वपूर्ण है। सऊदी सरकार की ओर से गठित सैन्य-गठबंधन के कमांडर के रूप में पूर्व पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ़ की नियुक्ति इस रक्षा-निर्भरता और विश्वास का एक बड़ा उदाहरण है। लेकिन, महज दो साल होते-होते भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की समाप्ति और जम्मू- कश्मीर राज्य के पुनर्गठन की दिशा में की गयी पहल के प्रति सऊदी रुख ने द्विपक्षीय संबंधों में ऐसे अंतराल सृजित किए जिन्हें आने वाले समय भर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन, द्विपक्षीय संबंधों में उत्पन्न हालिया तनावों की व्याख्या को इसके दायरे में सीमित करना इसकी सतही व्याख्या होगी।

कश्मीर मसले पर समर्थन जुटाने की पाकिस्तानी कोशिश:

सऊदी अरब खाड़ी देशों का एक तरह से अगुआ है और इस रूप में यह कश्मीर के मसले पर भारत पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव और विशेष रूप से इस्लामिक देशों के दबाव को बढ़ाने या घटाने में सहायक भी है। अबतक पाकिस्तान को कश्मीर-मसले के अंतर्राष्ट्रीयकरण में और इसके ज़रिये भारत पर दबाव को निर्मित करने में सऊदी अरब का समर्थन भी मिलता रहा। लेकिन, पाकिस्तान मध्य-पूर्व के सामरिक समीकरणों में आने वाले बदलावों को नोटिस में ले पाने में असफल रहा। जब अगस्त,2019 में भारत में कश्मीर के मसले पर प्रगति हुई, तो पाकिस्तान ने भारत के इस कदम का अंतराष्ट्रीय मंचों पर खासा विरोध किया। लेकिन, उसने पारम्परिक तरीके से ही इस मसले को हैंडल करने की कोशिश की, जबकि ज़मीनी समीकरण बदल चुके थे। लम्बे समय से नजदीकी दोस्त रहे सऊदी अरब और इसके सहयोगी देशों तक ने कश्मीर मसले पर पाकिस्तान से दूरी बना ली। परिणामतः सऊदी अरब से निराशा हाथ लगी, जिससे उपजी हुई प्रतिक्रिया को वह सम्भाल नहीं पाया। उसने कश्मीर-मसले पर समर्थन जुटाने के लिए सऊदी अरब की परवाह किए बिना अन्य अरब देशों के साथ-साथ मलेशिया, क़तर, ईरान और तुर्की जैसे देशों से संपर्क साधने की कोशिश की। उसे तुर्की, मलेशिया जैसे देशों का सक्रिय समर्थन मिला और ये देश पाकिस्तान के पक्ष में खुल कर सामने तो आए, पर उसे गिने-चुने मुस्लिम देशों का ही समर्थन मिल पाया और सऊदी नाराज़गी के कारण स्थिति सँभलने के बजाय बिगड़ती चली गयी।

पाकिस्तानी विदेश-मंत्री की चेतावनी:

पहली बार मध्य-पूर्व के प्रमुख इस्लामिक राष्ट्रों के साथ रिश्तों में संतुलन साधने में पकिस्तान को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। चूँकि ओआईसी का मुख्यालय सऊदी अरब के शहर जेद्दाह में है और उसका नेतृत्व उसी के पास है, इसलिए पाकिस्तानी विदेश-मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कश्मीर मामले में ओआईसी की निष्क्रियता के लिए सऊदी गद्दी के उत्तराधिकारी शहजादा मोहम्मद बिन सुलेमान को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, “मेरा  देश कश्मीर के मुद्दे पर काफी दिनों से ओआईसी के विदेश-मंत्रियों की बैठक चाह रहा है, मगर सऊदी शहजादे की बेरुखी से संभव नहीं हो पा रही है।” उन्होंने कश्मीर-मसले पर ओआइसी के रुख को लेकर नाराजगी जताते हुए यहाँ तक कह दिया कि अगर ओआइसी कश्मीर पर बैठक नहीं बुलाएगा, तो पाकिस्तान खुद कश्मीर मसले पर उन इस्लामिक देशों की बैठक बुला सकता है जो पाकिस्तान के साथ हैं। दरअसल पाकिस्तान सऊदी अरब से इस बात के लिए नाराज़ हुआ कि पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद सऊदी अरब कश्मीर-मसले पर न तो खुलकर पाकिस्तान के पक्ष में आया, और न ही इस मसले पर ओआईसी की मंत्री-स्तरीय बैठक बुलाने को राजी हुआ किसी को भी पाकिस्तान से इस दुस्साहस की अपेक्षा नहीं थी। इससे पाकिस्तान और खाड़ी देशों के बीच के संबंधों में दरारें उत्पन्न हुई हैं और समय के साथ यह दरार चौड़ी होती जा रही है।

 

 

इस्लामिक सहयोग संगठन को समझने में पाकिस्तान असफल:

दरअसल, इस्लामिक सहयोग संगठन से पाकिस्तान की यह अपेक्षा ठीक नहीं है क्योंकि भले ही यह सत्तावन इस्लामिक देशों को एक मंच प्रदान करता हो, पर यह कोई समान हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला समरूप संगठन नहीं है। इसके सदस्य-देश साम्प्रदायिक एवं अन्स्लीय आधार पर विभिन्न गुटों में विभाजित हैं और कई मसलों पर उनके आर्थिक-सामरिक हित परस्पर टकराते हैं। शिया-सुन्नी टकराव और विभाजन से लेकर फ़िलिस्तीन के मसले तक इसे देखा जा सकता है:

a.  सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन जैसे देशों का एक कट्टर अमेरिका-समर्थक है।

b.  तुर्की और कतर का अलग गुट बना हुआ है तथा इन्होंने ईरान से भी अपने संबंधों को ठीक किया है। ईरान के प्रति इनका रुख नरम है।

c. उधर, ईरान, सीरिया और लेबनान के हिजबुल्लाह का अलग गुट है।

स्पष्ट है कि इसके सदस्य देशों के बीच ही लम्बे समय से टकराव है और ये इस्लामिक देश विभिन्न गुटों में बँटे हुए हैं, फिर भी इस बात की सम्भावना प्रबल है कि तुर्की, ईरान, कतर या पाकिस्तान जैसे कुछ देशों को छोड़कर बाकी उसके सदस्य या तो सऊदी खेमे में होंगे, या फिर तटस्थ रहेंगे।

अब पाकिस्तान के साथ समस्या यह है कि वह यह तो अपेक्षा करता है कि संगठन और इसमें शामिल देश कश्मीर के मसले पर उसका साथ दें, पर उसने खुद चीन में उगयुर मुसलमानों के दमन के मसले पर चुप्पी साध रखी है। सन् 2006 में अजरबैजान में हुई ओआइसी की बैठक में उगयुरों के दमन पर चर्चा की औपचारिकता भर पूरी की गयी और सदस्य-देशों ने इस मसले पर चीन से बातचीत का सुझाव दिया। इसके बाद अगले साल यानी 2007 में इस्लामाबाद बैठक में फिर से इन्हीं बातों को दोहराया गया। दरअसल, ओआइसी के मंच से इस्लामिक देश चीन के खिलाफ सख्त भाषा इस्तेमाल करने से परहेज़ करते रहे हैं, क्योंकि चीन वैश्विक आर्थिक ताकत है जो उनके उत्पादों के लिए बड़े बाज़ार का काम करता है और उसके लिए निवेश का स्रोत भी है। साथ ही, वह सुरक्षा-परिषद में स्थायी सदस्य भी है। चूँकि कई इस्लामिक देश चीन के निवेश और बाजार को खोना नहीं चाहते, इसलिए ओआइसी ने इस मसले पर चुप्पी साध रखी है, या फिर अपने विरोध-प्रदर्शन को औपचारिकता के निर्वाह तक सीमित रखा है। स्पष्ट है कि इस संगठन के सदस्य-देश अपने सामरिक हितों से परिचालित हैं और उसी के अनुरूप किसी मसले पर स्टैंड लेते हैं। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन(OIC) की बैठक में पाकिस्तान के न चाहने के बाद भी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की पहल पर भारत को स्पेशल ऑब्जर्वर के तौर पर बुलाया गया। ऐसा माना जा रहा है कि भारतीय पायलट अभिनंदन की रिहाई में भी सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात की अहम् भूमिका रही।

कुआलालम्पुर सम्मिट, दिसम्बर,2019:

भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के मामले में तुर्की और मलेशिया दो ऐसे देश थे, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए भारत को कश्मीर मामले में घेरा था इसी क्रम में तुर्की और मलेशिया के राष्ट्र-प्रमुखों से मुलाक़ात के दौरान इमरान ख़ान ने ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के विकल्प के तौर पर एक इस्लामिक ब्लॉक बनाने का विचार प्रस्तुत किया, और मलेशियाई प्रधानमन्त्री महातिर मोहम्मद एवं तुर्की-राष्ट्रपति रेचेपा तैय्यप अर्दोआन ने इमरान ख़ान के प्रस्ताव पर सहमति जताई ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के बारे में इन देशों का मानना था कि यह निष्क्रिय हो गया है, इसलिए मुस्लिम देशों को एक नए मंच की ज़रूरत है दिसम्बर,2019 में आयोजित इस सम्मलेन में तुर्की, इंडोनेशिया, क़तर और पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों के नेताओं को बुलाया गया था और ऐसा लग रहा था कि ओआईसी से हट कर एक विचार रखने वाले मुस्लिम देशों का एक नया मंच उभर रहा है, जिसमें सऊदी अरब का केंद्रीय स्थान नहीं होगा। ध्यातव्य है कि सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इस संगठन के कर्ता-धर्ता हैं, और इसीलिए यह सम्मलेन सीधे-सीधे इस्लामिक दुनिया में सऊदी बादशाहत को चुनौती था

स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब पर दबाव बनाने के लिए मलेशिया, तुर्की और ईरान के साथ मिल कर नया इस्लामिक गुट बनाने की कोशिश की। पाकिस्तान की पहल पर ही इस नए गुट की बैठक पिछले साल दिसंबर में क्वालालंपुर में आयोजित की गई, लेकिन सऊदी दबाव के कारण उसे इस सम्मलेन में भागीदारी से परहेज़ करना पड़ा।

पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति पर असर:

पाकिस्तान में विपक्षी राजनीतिक दलों ने शाह महमूद कुरैशी के बयान की निंदा करते हुए कहा है कि अगर पाकिस्तान के सऊदी अरब से रिश्ते बिगड़े, तो इसका खामियाजा पाकिस्तानी नेताओं और सैन्य अधिकारियों को भुगतना पड़ सकता है। पाकिस्तानी नेताओं और सैन्य अधिकारियों से लेकर पाकिस्तान में सक्रिय कट्टरपंथी संगठनों ने भी अरब देशों में भारी निवेश कर रखा है। इसके अलावा, सऊदी अरब पर अपनी अति-निर्भरता के कारण ओआइसी और कश्मीर को लेकर पाकिस्तान सऊदी अरब को झुका पाने की स्थिति में नहीं है।

कुआलालम्पुर सम्मिट के प्रति सऊदी प्रतिक्रिया:

सऊदी अरब इस सम्मिट को लेकर सहज नहीं था स्वाभाविक था कि पाकिस्तान का यह कदम सऊदी अरब को नागवार लगता क्योंकि तुर्की एवं मलेशिया से सऊदी अरब के सम्बंध अच्छे नहीं हैं और पिछले कुछ वर्षों से टर्की इस्लामिक दुनिया पर सऊदी अरब की बादशाहत को चुनौती देता हुआ उसके लिए खतरा बन रहा है ऐसे में इसकी छाया अब पाकिस्तान की मलेशिया और तुर्की से दोस्ती पर भी पड़ती दिख रही है इसलिए सऊदी अरब ने इस मसले पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, और तमाम कोशिशों के बावजूद इमरान ख़ान सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को आश्वस्त करने में असफल रहे कि उनके सम्मिट में जाने से सऊदी के हितों से समझौता नहीं होगा लेकिन, सऊदी अरब नहीं चाहता था कि पाकिस्तान जैसा महत्वपूर्ण मुस्लिम देश अपने राजनीतिक, राजनयिक और सैन्य-ताक़त किसी और संगठन के पीछे लगाए, जो भविष्य में उसके प्रभुत्व वाले इस्लामिक सहयोग संगठन(OIC) का विकल्प बन सकता है और इस्लामिक दुनिया में उसके प्रभुत्व के लिए चुनौती बन सकता है। अन्ततः इसका परिणाम यह रहा कि कुआलालम्पुर सम्मिट में शरीक होने से पाकिस्तान को इस सम्मिट से पीछे हटना पड़ा, लेकिन उसका यह निर्णय भी दोनों देशों के बीच के अन्तराल को पाट पाने में असफल रहा  

सऊदी अरब का बदला हुआ रुख: प्रमुख कारण:

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सऊदी अरब ने इतना बड़ा जोखिम क्यों लिया? आखिर वे कौन-से कारक हैं जिसने सऊदी अरब को पकिस्तान को डंप करने के लिए उत्प्रेरित किया?

1.  सऊदी अरब के लिए भारत का सामरिक महत्व: वैश्वीकरण के दौर में आर्थिक हित महत्वपूर्ण हो गए हैं और सऊदी अरब की नज़रें तक़रीबन 2.94 ट्रिलियन(2019) के आकार वाली दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई है जो न केवल इसके लिए बड़ा तेल-बाज़ार है, वरन् सऊदी निवेश का एक आकर्षक गंतव्य भी है। इसी आलोक में सन् 2008 में उसने अपनी लुक ईस्ट नीति की रूपरेखा प्रस्तुत की और इसी नीति के तहत् भारत के साथ द्विपक्षीय सम्बंध उसकी प्राथमिकता सूची में शीर्ष पर आए।

सऊदी अरब के लिए भारत की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह 33.08 बिलियन अमेरिकी डॉलर(2019-20) के द्विपक्षीय व्यापार के साथ चीन, अमेरिका और जापान के बाद भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार (4.23 प्रतिशत) है और द्विपक्षीय व्यापार-संतुलन 20.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अधिशेष के साथ सऊदी अरब के पक्ष में है। सऊदी अरब से भारत का 18 प्रतिशत तेल और 30 प्रतिशत एलपीजी आता है और वित्त-वर्ष 2019-20 में भारत ने सऊदी अरब से 26.84 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आयात एवं 6.24 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात किया है। स्पष्ट है कि सऊदी अरब की तेल-आधारित अर्थव्यवस्था को भारत के साथ होने वाले द्विपक्षीय व्यापार के कारण खासी मजबूती मिली है, और इस कारण सऊदी अरब भारतीय तेल बाजार को कभी नहीं खोना चाहेगा। इसके अतिरिक्त, लगभग 15 लाख अप्रवासी भारतीय सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे रहे हैं जिनसे भारत को भी विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत, पाकिस्तान-सऊदी अरब द्विपक्षीय कारोबार 3.6 अरब डॉलर का है जिसके कारण कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान का समर्थन करके सऊदी अरब भारत के साथ अपने व्यापारिक हितों को प्रभावित नहीं करना चाहता है इतना ही नहीं, सऊदी अरब की तेल कंपनी एरामको भारत की रिलांयस इंडस्ट्री में अपनी हिस्सेदारी खरीदने की तैयारी में है। इसके अलावा भारत में ऊर्जा, पर्यटन, कृषि और विनिर्माण क्षेत्र में सऊदी अरब निवेश करने का इच्छुक है।

2.  सउदी अरब की बढ़ती मुश्किलें: तेल की माँग में आई गिरावट की वजह से सऊदी अरब सहित खाड़ी के राजतंत्र मुश्किल माली हालत का सामना कर रहे हैं। हालिया कोरोना-संकट ने तो इन मुश्किलों को और भी बढ़ा दिया है। सऊदी अरब को अपने बजट को संतुलित रखने के लिए प्रति बैरल न्यूनतम 80-84 अमेरिकी डॉलर की कीमत की जरूरत है, जबकि अभी तेल की कीमत 45 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। इससे चीन और भारत का महत्व बढ़ गया है, जो सऊदी तेल के प्रमुख खरीदार हैं। सऊदी अरब इस लाभ को खोने की स्थिति में नहीं है क्योंकि सऊदी अर्थव्यवस्था भी इस समय सुस्ती की शिकार है, और निकट भविष्य में इसके उस सुस्ती से बाहर निकलने की सम्भावना नहीं के बराबर है। ऐसी स्थिति में यमन में सऊदी सैन्य-संलिप्तता वित्तीय बोझ को बढ़ाने वाला साबित हो रही है। ऐसी स्थिति में सऊदी को भारत जैसे आकर्षक बाज़ार की तलाश है जहाँ उत्पादक और सुरक्षित निवेश संभव हो सके। सऊदी अरब भारत में 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश को इच्छुक है। ध्यातव्य है कि अपनी उर्जा-सुरक्षा के मददेनज़र भारत रणनीतिक तौर पर लगभग तीन महीने की ऊर्जा-ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तेल-रिज़र्व बना रहा है, ताकि आपात-स्थिति या ऑयल-इन्फ्लेशन के द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का प्रभावी तरीके से सामना किया जा सके। इस परियोजना में सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात काफ़ी मददगार हो सकते हैं। दक्षिण भारत में ऐसा एक तेल-रिज़र्व वह पहले ही विकसित कर चुका है। वर्तमान में भारत सऊदी अरब और यूनाइटेड अरब अमीरात के सहयोग से मध्य प्रदेश में पेट्रोकेमिकल कॉम्प्लेक्स का निर्माण कर रहा है।

3.  पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय रणनीति: पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति भारत के पड़ोसी देशों के सन्दर्भ में भले ही सफल होती नहीं दिख रही हो, पर कश्मीर के मसले पर भारत आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इस्लामिक कन्ट्रीज(OIC) और मध्य-पूर्व में पाकिस्तान को अलग-थलग करने में कामयाब प्रतीत हो रहा है; यद्यपि मध्य-पूर्व में भी पाकिस्तान ईरान, तुर्की एवं क़तर के साथ नए समीकरणों को गढ़ने और भारतीय रणनीति को विफल करने की कोशिशों में लगा हुआ है।

4.  यमन-संकट में पाकिस्तानी असहयोग, 2014: दरअसल, पाकिस्तान और खाड़ी देशों में तनातनी 2014 में शुरू हुई, जब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने पाकिस्तान से यह गुजारिश की थी कि वह अपनी सैन्य टुकड़ी यमन की जंग में उनकी मदद के लिए भेजे। पाकिस्तान की हुकूमत ने संसद की मंजूरी के बाद ही ऐसा करने की बात कही। लिहाजा, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने जल्द ही समझ लिया कि ईरान के साथ विवाद में पाकिस्तान उनका साथ देने के लिए तैयार नहीं है और संसद की अनुमति केवल बहाना है, जबकि अतीत में पाकिस्तान की हुकूमत विदेश नीति से जुडे़ प्रमुख फैसले बिना संसद की सहमति से लेती रही थी।

सऊदी अरब के लिए तो यह स्थिति और भी असहनीय है, विशेष कर तब जब सीरिया से लेकर क़तर और यमन तक पूरे मध्य-पूर्व में बुरी तरह से उलझा हुआ सऊदी अरब हर जगह ईरान को अपने सामने खड़ा पाता है। ऐसी स्थिति में सऊदी अरब पाकिस्तान से अपने सामरिक हितों के प्रति संवेदनशीलता की अपेक्षा करता है। सऊदी की अपेक्षा थी कि ईरान के साथ तनाव में पाकिस्तान खुलकर उसका साथ देगा और यमन के युद्ध में बड़ी भूमिका निभाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

लेकिन, इन मतभेदों और यमन-मसले पर पाकिस्तान से निराशा के बावजूद इमरान खान के सत्ता सँभालने के बाद सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात उसकी मदद के लिए आगे आए। सन् 2018 में सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के पाकिस्तान-दौरे के दौरान सऊदी अरब ने स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान को 3 अरब अमेरिकी डॉलर देने का भी फैसला किया, क्योंकि तब मुल्क का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया था। इसके अलावा, उसने तेल-ख़रीद के लिए पाकिस्तान को 3.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का क्रेडिट-लाइन भी उपलब्ध करवाया। लेकिन, पाकिस्तान के रवैये ने उसे अपने कदम वापस खींचने के लिए विवश किया।

5.  चाबहार परियोजना को लेकर मतभेद: समस्या सिर्फ कश्मीर को लेकर सऊदी नजरिया ही नहीं है, समस्या ईरान के चाबहार बंदरगाह को चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) का हिस्सा बनवाने में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भी है। पहले चाबहार रेलवे परियोजना का निर्माण भारत के सहयोग से किया जा रहा था, लेकिन अब ईरान ने रक्षा और आर्थिक महत्व रखने वाली इस परियोजना से भारत को अलग करते हुए इसे चीन के हवाले किया है। इस रेलवे प्रोजेक्ट में चीनी भागीदारी और चीनी निवेश को पाकिस्तान अपने कूटनीतिक-सामरिक हितों के अनुरूप मानता है। लेकिन, ईरान-सऊदी अरब के बीच वैचारिक विरोध और सीरिया से लेकर क़तर और यमन तक दोनों देशों के बीच चल रहे प्रॉक्सी वॉर के मद्देनज़र चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर(CPEC) से ईरान के जुड़ाव और चाबहार बंदरगाह को इसके दायरे में लाए जाने को लेकर सऊदी नाराज़गी स्वाभाविक है।

6.  अमेरिका की भूमिका: अबतक की चर्चा से यह स्पष्ट है कि यह सऊदी अरब का सामरिक-आर्थिक हित है जिसने कश्मीर-मसले पर सऊदी अरब और ख़ास तौर से मोहम्मद बिन सलमान के रुख के निर्धारण में अहम् भूमिका निभायी। इसके अलावा, इस मसले पर अमेरिकी रूख ने भी सऊदी के नज़रिए को प्रभावित किया, इसलिए भी कि मोहम्मद बिन सलमान के शासन में अमरीका के साथ सऊदी अरब के रिश्ते और उसके व्यापारिक हित उनकी विदेश-नीति के प्रमुख स्तंभ हैं। एक सहयोगी देश होने के नाते सऊदी अरब पर भी अमेरिकी दबाव अस्वाभाविक नहीं है। इसके अलावा, पाकिस्तान, टर्की, क़तर, ईरान, चीन और मलेशिया के बीच जो समीकरण निर्मित हो रहे थे, वे अमेरिकी सामरिक हित के भी अनुकूल नहीं थे। अमरीका ने न केवल ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं, वरन् उसका अपने मित्र, सहयोगी एवं अन्य देशों पर इस बात का दबाव है कि वे इन प्रतिबंधों का कड़ाई से पालन करें। ऐसी स्थिति में ऐसी कोई भी परियोजना, जो ईरान के लिए आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद हो या जो चीन की 'वन बेल्ट वन रोड' परियोजना को व्यावहारिक रूप प्रदान करने और मज़बूती प्रदान करने में सक्षम हो, अमेरिका को नागवार लगेगी।

सऊदी-प्रतिक्रिया:

दरअसल, पाकिस्तान की दुविधा यह है कि सऊदी अरब का साथ देने को तो पाकिस्तान तैयार नहीं है, लेकिन वह चाहता है कि सऊदी उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद करे। वह भारत के खिलाफ इस्लामी देशों के संगठन का भी इस्तेमाल करना चाहता है, और ऐसा न होने पर सऊदी अरब को धमकी देने से भी उसे परहेज़ नहीं हुआ। द्विपक्षीय संबंधों में आए तनाव के मद्देनज़र पाकिस्तानी राजनयिक हुसैन हक़्क़ानी ने लिखा, “पाकिस्तान को सऊदी पर हमलावर होने से पहले उससे ली गई मदद के बारे में सोचना चाहिए।” उसे इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए था कि लगभग 27 लाख पाकिस्तानी सऊदी अरब में काम करते हैं और वहाँ से आने वाली विदेशी मुद्रा का पाकिस्तान के फॉरेक्स में बड़ा योगदान है

लेकिन, पाकिस्तान की प्रतिक्रिया यह बतलाती है कि उसने इन तमाम तथ्यों की अनदेखी करते हुए भावनात्मक प्रतिक्रिया दी और उसकी कीमत उसे चुकानी पड़ी। यही वजह है कि सऊदी अरब ने न केवल पाकिस्तान को क़र्ज़ चुकाने और डिफ़ॉल्टर होने से बचाने के लिए जो 6.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की कर्ज-डील किया गया था, उसे रद्द कर दिया गया। साथ ही, पहले से जारी कर्ज को लौटाने तक तेल की सप्लाई बंद करने का निर्णय लिया गया। सऊदी अरब ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए दिए गए तीन अरब डॉलर के ऋण की भी समय से पहले वापसी की माँग की, और सऊदी दबाव के आगे झुकते हुए पाकिस्तान ने चीन की सहायता से लगभग एक अरब डॉलर की राशि वापस की। मई,2020 में सऊदी अरब ने पाकिस्तान की तेल-ख़रीद के लिए 3.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर क्रेडिट-लाइन सुविधा के नवीनीकरण से भी इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, जब विद्यमान तनाव को दूर करने के लिए पाकिस्तान के सेना-प्रमुख कमर जावेद बाजवा विशेष रूप से सऊदी दौरे पर गए, तो सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने पाकिस्तानी सेना-प्रमुख से मिलने से ही इनकार कर दिया। साथ ही, रियाद द्वारा उन्हें सम्मानित किए जाने के पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम भी रद्द कर दिया गया।

मतलब यह कि पाकिस्तानी असंयम ने भारत के काम को आसान कर दिया, और कम-से-कम कश्मीर-मसले पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय कूटनीति काफी हद तक सफल होती नजर आ रही है।

इस्लामिक सहयोग संगठन और कश्मीर:

जून,2020 में ओआईसी के कॉन्टैक्ट ग्रुप के विदेश-मंत्रियों की आपातकालीन बैठक में अगस्त, 2019 के बाद भारत-प्रशासित जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और वहाँ के हालात पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा गया कि अगस्त,2019 में लिया गया भारतीय निर्णय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा-परिषद के प्रस्ताव और चौथे जिनेवा-कन्वेंशन सहित अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है। लेकिन, जब इस्लामिक सहयोग संगठन की बैठक में पाकिस्तान ने जब जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में अनु. 370 हटाए जाने को लेकर सवाल उठाए, तो सऊदी अरब ने इसे ‘भारत का आंतरिक मामला’ बतलाते हुए खारिज कर दिया।

पाकिस्तान को मध्य-पूर्व की बदलती भू-राजनीति को समझने की ज़रुरत:

इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तान अपने पड़ोसी ईरान, जो शिया-बहुल देश है, के बजाए सुन्नी-बहुल सऊदी अरब के काफी करीब रहा है। सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य सहयोग के प्रगाढ़ संबंध रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान को बदलती हुई भू-राजनीतिक परिस्थितियों को समझना होगा। उसे यह समझना होगा कि तेल की कीमतों में निरन्तर गिरावट ने मध्य-पूर्व में जिस आर्थिक बदहाली को जन्म दिया है, उसमें यहाँ की भू-राजनीति में आर्थिक-सामरिक हित सबसे महत्वपूर्ण हैं और कोई भी देश इसकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकता है।

जहाँ तक सऊदी-विरोधी खेमे का प्रश्न है, तो उसका अंतर्विरोध यह है कि शिया-सुन्नी विभाजन की पृष्ठभूमि में शिया ईरान सुन्नी तुर्की का लम्बे समय तक साथ दे पाएगा, या फिर आर्थिक बदहाली का शिकार और अपनी ज़रूरतों के लिए सऊदी अरब पर निर्भर पाकिस्तान सऊदी-विरोध में खड़ा रह पाएगा, और चीन एवं रूस अपने आर्थिक-सामरिक हितों की उपेक्षा करते हुए इस नए ब्लॉक के साथ खड़े रह पाएँगे, इन तमाम प्रश्नों का उत्तर भविष्य में अपेक्षित होगा और यह मध्य-पूर्व के सामरिक समीकरणों को निर्धारित करने में अहम् भूमिका निभाएगा।

यद्यपि ऐसे ही मतभेद भारत और सऊदी अरब के बीच में भी हैं, पर उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में अमेरिका, इजराइल और भारत से सऊदी अरब की बढ़ती हुई निकटता के कारण सऊदी अरब के रुख में बदलाव आए। ध्यातव्य है कि अफ़ग़ानिस्तान तालिबान से सऊदी अरब के बहुत क़रीबी संबंध हैं, और पाकिस्तान की तरह ही सऊदी अरब भी यह चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता आए, जबकि भारत चाहता है कि वहाँ एक सेक्युलर सरकार बने। तालिबान को लेकर भारत और सऊदी अरब का अलग-अलग नज़रिया है।

वैश्विक बदलावों का हिस्सा है मध्य-पूर्व का बदलाव:

सऊदी अरब के रवैए में आए इस बदलाव को वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों के सापेक्ष रखकर देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, “सऊदी अरब परंपरागत रूप से अमरीका का सहयोगी रहा है और सऊदी अरब का इस्लामी दुनिया में एक तरह से दबदबा हैअब इस वक़्त जब अमरीका और चीन के बीच एक नए शीत-युद्ध की स्थिति बनी हुई है, तो चीन अपनी पैठ एशियाई देशों में बनाने की कोशिश में लगा हुआ है और इसके लिए नए समीकरण बना रहा है ध्यातव्य है कि चीन अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अलग-थलग पड़ते ईरान का सहारा बनने की कोशिश में हैवह पाकिस्तान के सहयोग से ईरान को चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरिडॉर (CPEC), चाबहार रेल-प्रोजेक्ट, एवं बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव(BRI) के दायरे में लाने की कोशिश में है और इसके मद्देनज़र भारी मात्रा में निवेश को इच्छुक है, ताकि सामरिक एवं भू-राजनीतिक सन्दर्भों में ईरान के करीब पहुँचा जाए

वास्तव में, चीन इस्लामी दुनिया में सऊदी अरब का विकल्प खड़ा करना चाहता है और इसके लिए ईरान बेहतर विकल्प हो सकता है यही कारण है कि इन बदलते समीकरणों में एक ओर भारत, अमरीका और संयुक्त अरब अमीरात, तो दूसरी ओर चीन, पाकिस्तान, टर्की और ईरान स्वाभाविक पार्टनर बनते जा रहे हैं, यद्यपि इस समीकरण की भी अपनी जटिलताएँ हैं जहाँ भारत ईरान के सामरिक महत्व के मद्देनज़र उसकी अनदेखी करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता, वहीं चीन और सउदी अरब अपनी ऊर्जा-सुरक्षा एवं अपनी आर्थिक ज़रूरतों के मद्देनज़र एक-दूसरे को इग्नोर करने की स्थिति में नहीं है

लेकिन, मौजूदा समीकरणों में इन बदलावों की व्याख्या इजराइल और ईरान के परिप्रेक्ष्य में भी की जा सकती है सैन्य-दृष्टि से कमजोर राजशाही एक ओर इजराइल और ईरान की चुनौती का सामना करने के लिए, दूसरी ओर शिया-सुन्नी द्वंद्व और जजतीय स्वतंत्रता की भावना के द्वारा उत्प्रेरित स्थानीय स्तर पर बग़ावत के आसन्न ख़तरे को निरस्त करने के लिए बाह्य शक्तियों पर निर्भर है चूँकि सऊदी अरब के लिए अब पाकिस्तान विश्वस्त सहयोगी नहीं रह गया है और अमेरिका से सऊदी अरब के सम्बंध अच्छे हैं, इसीलिए ईरान के विरुद्ध इजराइल के विकल्प को आजमाना सऊदी अरब के लिए सहज है

 

 

 

 

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