कृषि-सुधार के मिथ: बिहार के अनुभव
प्रमुख
आयाम
1. पार्ट वन: बिहार: कृषि-मण्डियाँ
और कृषि-बाज़ार सुधार
a. बिहार में कृषि-मण्डियाँ भंग,2006
b. रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों को खारिज करने के
तर्काधार
2. पार्ट टू:
बिहार के सन्दर्भ में अबतक के अनुभव:
a. अनुभव उत्साहवर्द्धक नहीं
b. केरल
से तुलना
c. एमएसपी व्यवस्था को अंगूठा
दिखाती बिहार-सरकार
d. कृषि-मण्डियों के न रहने पर निगरानी-तंत्र
ध्वस्त
e. बिहार के किसानों के हालात
f.
पैक्स की
व्यवस्था अप्रभावी
g. एनसीएईआर की रिपोर्ट,2019
h. निवेश और
बाज़ार-अवसंरचना के हालात
3. पार्ट थ्री:
परिणामों को लेकर मतभेद:
a. अरविंद पनगढ़िया का
विश्लेषण
b. पनगढ़िया के विश्लेषण की सीमाएँ
c. कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का विश्लेषण
d. कौशिक बसु का नजरिया
e. कॉर्पोरेट्स बनाम् किसान
f.
कृषि-आय और सरकारी कर्मचारियों की आय का बढ़ता अन्तराल
g. अमेरिकी अनुभव
h. विश्लेषण
4. पार्ट 4: कृषि-सुधारों के प्रति बिहार के किसानों
की उदासीनता
बिहार: कृषि-मण्डियाँ और कृषि-बाज़ार सुधार
किसानों के लिए आय-सुरक्षा
को सुनिश्चित करने में एपीएमसी और एमएसपी
व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन आर्थिक नवउदारवाद के पैरोकारों ने आम
लोगों के साथ-साथ किसानों को भी यह अहसास करवाया कि इसी के कारण वे अपने उत्पादों
को खुले बाज़ारों में नहीं बेच पाते हैं जिसके कारण उन्हें उनके उत्पादों की उचित
एवं लाभकारी कीमतें नहीं मिल पाती है। एक एजेंडे के तहत् इस भ्रम के सृजन के ज़रिए
ये किसानों को बाज़ार के हवाले करना चाहते हैं और वर्तमान में ये अपनी कोशिश में
बहुत हद तक सफल भी हैं। प्रमाण हैं बिहार जैसे राज्य में कृषि-मण्डियों को भंग
किया जाना, रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों सहित कृषि-बाज़ार सुधारों की दिशा में चल रही
कोशिश और कृषि-सुधारों की दिशा में केन्द्र सरकार की हालिया पहल।
बिहार में कृषि-मण्डियाँ भंग,2006:
सन् 2006 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नवगठित बिहार सरकार
ने एपीएमसी अधिनियम को रद्द करते हुए रेगुलेटेड कृषि मण्डियों को भंग करने की
घोषणा की, ताकि बिहार में प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार का सृजन किया जा सके,
किसानों के लिए उनके कृषि-उत्पादों की बेहतर कीमत सुनिश्चित किया जा सके और कृषि-क्षेत्र
में निजी निवेश को आकर्षित किया जा सके। इसके मद्देनज़र बिहार
सरकार ने बिहार राज्य कृषि विपणन परिषद् को भंग करते हुए उससे सम्बद्ध कर्मचारियों
का समंजन कृषि-विभाग में किया और तत्संबंधित सब-डिविजनल
कार्यालयों को बाजार का प्रभार दिया गया। इसके
लिए बाजार-समितियों में आढ़तियों एवं कारोबारियों
के बीच कार्टेलाइजेशन, इनमें व्याप्त भ्रष्टाचार, इनके द्वारा की जाने वाली अवैध
वसूलियों और इनके द्वारा किसानों के दोहन का हवाला दिया गया। इस प्रकार
बिहार रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों को भंग करने वाला देश
का पहला राज्य बना। एपीएमसी एक्ट ख़त्म
होने के बाद बिहार में 8,463 पैक्स (प्राथमिक कृषि साख एवं
सहयोग समिति) और 521 व्यापार-मंडलों (सन् 2017 तक के आँकड़ों के अनुसार) के
ज़रिए अनाज की ख़रीदारी के काम को अंजाम दिया जा रहा है।
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों
को खारिज करने के तर्काधार:
उस समय यह कहा गया कि:
1. इससे निजी निवेश
बढ़ेगा।
2. इससे निजी मण्डियों
का विकास होगा जो सरकारी हस्तक्षेप एवं सरकारी नियंत्रण से मुक्त होंगी।
3. इससे किसानों को
खरीददारों के विकल्प मिलेंगे जो प्रतिस्पर्धात्मक कृषि बाज़ार के विकास को सम्भव
बनाता हुआ उनके फसलों ई वाज़िब एवं लाभकारी कीमत को सुनिश्चित करेगा।
4. इससे बेहतर
कृषि-अवसंरचना और बेहतर मण्डी-अवसंरचनाओं का भी विकास होगा।
5. बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना की उपलब्धता फसलों की उस बर्बादी पर अंकुश लगाएगी जो इसके अभाव में
होती है। साथ ही, यह उच्च स्तर की बर्बादी पर अंकुश लगा पाने, उसकी बेहतर गुणवत्ता
को सुनिश्चित कर पाने, उसकी उत्पादन-लागत को कम कर पाने और उसकी उपलब्धता एवं
आपूर्ति को बढ़ा पाने में समर्थ होगा।
6. इससे किसानों को
उनकी फसल की अच्छी कीमत भी मिलेगी और उनका प्रॉफिट-मार्जिन भी बढेगा।
कमोबेश
देखा जाए, तो ये सारे तर्क आज भी फार्म बिल के पक्ष में दिए जा रहे हैं, लेकिन आज
बिहार में कृषि-विपणन किस मोड़ पर खड़ा है, उसके आलोक में इन तर्कों के औचित्य का
विश्लेषण आसानी से किया जा सकता है।
पार्ट टू: बिहार के सन्दर्भ में
अबतक के अनुभव
अनुभव उत्साहवर्द्धक नहीं:
भले ही उस समय इसे सकारात्मक पहल के रूप
में देखते हुए यह उम्मीद की गयी कि इससे बिहार के किसानों की हालत सुधरेगी, लेकिन इस
पहल के लगभग डेढ़ दशक बीत चुकने के बाद अब भी बिहार के किसानों को उन आश्वासनों के
पूरा होने का इंतज़ार है जो उस समय उन्हें दिए गए थे। सच तो यह है कि पिछले डेढ़ दशकों के दौरान किसानों
की हालात सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गयी और उनके लिए अपने उत्पादों की वाजिब कीमत हासिल
करना और भी मुश्किल होता चला गया क्योंकि वाजिब कीमत हासिल करने के उनके पास जो भी
सीमित विकल्प थे, वे भी उनसे छिन गए। इस बात को सन् 2017 में
तत्कालीन केन्द्रीय कृषि-मंत्री राधामोहन सिंह ने भी स्वीकार किया कि बाजार-समिति
भंग होने के बाद किसानों को फसल की उचित कीमत नहीं मिल पा रही है।
केरल से तुलना:
ऐसा
नहीं कि बिहार देश का अकेला ऐसा राज्य है जहाँ कृषि मण्डियाँ नहीं हैं। बिहार की तरह ही केरल में भी न तो मण्डियों
की व्यवस्था है और न ही कोई एपीएमसी यार्ड। लेकिन, वहाँ
किसानों की स्थिति बिहार की तुलना में कहीं बेहतर है। इसका कारण यह है कि केरल एक उपभोक्ता राज्य है क्योंकि यहाँ का कुल
चावल-उत्पादन महज यहाँ की 20 प्रतिशत ज़रूरतों को पूरा कर पाता है। इसलिए वहाँ पर राज्य-सरकार के द्वारा न्यूनतम
समर्थन मूल्य (MSP), जो केन्द्र सरकार के द्वारा निर्धारित दर से अधिक
होता है, पर सीधे किसानों से मोटे तौर पर धान की ख़रीद की जाती है। यहाँ किसानों को भारतीय खाद्य निगम (FCI) के
हाथों अपनी फसल बेचने की छूट है, लेकिन अधिकांश खाद्यान्न राज्य खाद्य और नागरिक
आपूर्ति निगम को ही बेचे जाते हैं। अन्य
कृषि-उत्पादों: रबर, मसाले, कॉफ़ी और चाय के सन्दर्भ में केरल में भी देश के अन्य हिस्सों
की तरह निगमीकरण किया गया है। इसके
विपरीत, बिहार सरकार कृषि उत्पादों के विपणन को लेकर उदासीन है, उसमें इसके प्रति
गंभीरता का अभाव है।
एमएसपी व्यवस्था को अंगूठा दिखाती बिहार-सरकार:
द वायर के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत् हासिल जानकारी के मुताबिक,
विपणन-वर्ष(2020-21) में केन्द्रीय एवं राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों के
द्वारा 61 लाख मीट्रिक टन गेहूँ (बिहार में कुल उत्पादन) में महज 5,000 टन अर्थात्
0.081 प्रतिशत गेहूँ (रबी) की खरीद की गयी, जिसका लाभ महज 1,002 किसानों को मिले। यह आँकड़ा उपभोक्ता मामलों, खाद्यान्न और सार्वजनिक
वितरण के केन्द्रीय मंत्रालय के द्वारा उपलब्ध करवाया गया है। यह बिहार सरकार के द्वारा निर्धारित 7 लाख टन गेहूँ
खरीद के लक्ष्य का भी महज 0.71 प्रतिशत है। आरम्भ में यह लक्ष्य 2 लाख टन
की खरीद का था, पर वर्तमान बिहार सरकार ने कोरोना-संकट के कारण विप्नना में आने
वाली मुश्किलों के मद्देनज़र 7 लाख टन का संशोधित लक्ष्य निर्धारित किया। विपणन-वर्ष 2019-20 में भी महज 2,815 टन की खरीद की गयी थी। इसके
पहले स्थिति थोड़ी-सी बेहतर थी। विपणन-वर्ष
2018-19 में वास्तविक खरीद 17,504
टन थी और विपणन-वर्ष 2017-18 में
20,000 टन, जो कुल गेहूँ-उत्पादन के महज 1 प्रतिशत से भी कम है।
संक्षेप में
कहें, तो पहले बिहार में न्यूनतम मूल्य-व्यवस्था के तहत् अच्छी-खासी खरीद
होती थी, पर पिछले 5-6 वर्षों के दौरान बिहार में गेहूँ की खरीद नगण्य
अर्थात् कुल उत्पादन के 1 प्रतिशत से भी कम के स्तर पर पहुँच चुका है और इस दौरान
बिहार अपनी 80 प्रतिशत खाद्यान्न-ज़रूरतें राज्य के बाहर की गयी खरीद से पूरी करता
है। इसका महत्वपूर्ण कारण पिछले कुछ वर्षों के दौरान बिहार में
खरीद-केन्द्रों की संख्या में तीव्र गिरावट है जो वित्त-वर्ष 2015-16 के 9,000 से कम होकर वित्त-वर्ष 2019-20 में
1,619 रह गया है। इसके परिणामस्वरूप
एमएसपी व्यवस्था तक किसानों की पहुँच अत्यंत सीमित है। इस बार तो लॉकडाउन के कारण निजी फ्लोर मिल एवं
बिस्कुट-उत्पादकों ने भी खरीद से परहेज किया।
कृषि-मण्डियों
के न रहने पर निगरानी-तंत्र ध्वस्त:
जबतक
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियाँ थीं, तबतक इसमें होने वाली खरीद-बिक्री, कारोबार एवं शुल्क-वसूली के नियमन,
निगरानी एवं पर्यवेक्षण के लिए मार्केटिंग बोर्ड होता था जिसमें किसानों, आढ़तियों एवं सरकार के प्रतिनिधि
शामिल होते थे और अनुमण्डलाधिकरी उसके कार्यपालक अधिकारी होते थे। इस बोर्ड में किसानों की स्थिति कमजोर होती थी, फिर भी उनका
प्रतिनिधित्व उन्हें अपने हितों के संरक्षण में कुछ हद तक सक्षम बनाता था। लेकिन,
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों के भंग होने के बाद किसानों पर बाज़ार का शिकंजा कसता चला
गया और इनकी निगरानी सुनिश्चित करने वाला तंत्र ध्वस्त हो गया।
बिहार के किसानों के हालात:
अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि कृषि-मण्डियों को भंग किये जाने के बाद
बिहार में किसानों को उनकी उपज का जो औसत मूल्य मिला है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)
से कम है। यही कारण है कि सन् 2020 के सीजन में खरीददार औए कीमत न मिलने के कारण बिहार
के किसानों को अपना मक्का (900-1000) रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ा, जबकि मक्के का न्यूनतम एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल था। और, यह अपवाद नहीं है। पिछले कई वर्षों से देखा
जाए, तो बिहार सरकार और बिहार प्रशासन न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर खरीद से
परहेज़ करती है और इस क्रम में जान-बूझकर सार्वजनिक खरीद की प्रक्रिया को विलंबित
करती है। मजबूरन किसानों को अपनी फसल खुले बाज़ार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से
(2-3) रुपये प्रति किलो कम की दर पर बेचनी पड़ती है। हालात यहाँ तक पहुँच चुके हैं
कि बिहार के जो किसान सक्षम हैं, वे अपनी उपज लेकर
पंजाब और हरियाणा की मण्डियों तक पहुँच रहे हैं।
और, यह बात केवल बिहार के सन्दर्भ में ही लागू नहीं होती है, वरन् उन
सारे राज्यों एवं क्षेत्रों के सन्दर्भ में लागू होती है जहाँ कृषि मण्डी-व्यवस्था
के प्रभावी तरीके से काम न करने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था
अप्रभावी है। यह बतलाता है कि अगर गैर-सरकारी
कृषि-बाज़ारों का नियमन नहीं किया गया, तो आने वाले समय में इसकी बड़ी
कीमत किसानों को उसी तरह चुकानी होगी, जिस तरह आज एमएसपी पाने के दर-दर भटक रहे बिहार
के किसान चुका रहे हैं। यह बतलाता है कि सरकार किसानों के हितों को दाँव पर लगा
रही है, या तो जान-बूझकर या फिर अनजाने ही। यही कारण है कि तमाम कमियों के बावजूद
किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को बनाये
रखने के लिए एपीएमसी मण्डियों को अनिवार्य मानते हैं। न्यूनतम समर्थन
मूल्य पर आधारित सार्वजनिक खरीद व्यवस्था तभी तक प्रभावी तरीके से काम कर पायेगी,
जब कृषि-उत्पादों के बाज़ार को रेगुलेट करते हुए उसकी प्रभावशीलता सुनिश्चित की जाए।
पैक्स की व्यवस्था
अप्रभावी:
कृषि-मण्डियों के भंग होने के बाद किसानों से न्यूनतम समर्थन
मूल्य के आधार पर कृषि-उत्पादों की खरीद के लिए राज्य के द्वारा प्राथमिक कृषि-साख
समितियों (PACS) का सृजन किया गया। शुरुआती दौर में तो पैक्स से फ़ायदा था, लेकिन अब
पैक्स की स्थिति नाजुक है क्योंकि न तो सरकारी ख़रीद-लक्ष्य से आगे जाकर पैक्स के द्वारा
धान की ख़रीद की जा सकती है और न ही उसके द्वारा सारे किसानों से धान की ख़रीद की
जाती है। इतना ही नहीं, पैक्स भी बिचौलियों की
गिरफ्त में है और समय के साथ बिचौलिए इस पर भी हावी होते जा रहे हैं। फलतः किसानों को धान की सही कीमत नहीं मिल पा
रही है और जो कीमत भी मिल रही है, उसका भी समय पर भुगतान नहीं हो पा रहा है।
नेशनल काउंसिल फ़ॉर एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के
द्वारा करवाए गए अध्ययन में कहा गया है कि जिस अपेक्षा के साथ पैक्स का
गठन किया गया था, वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई। पैक्स प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाया क्योंकि खरीद-प्रक्रिया का
सञ्चालन सीमित समय के लिए होता था और इसके तहत् सीमित मात्रा में खरीद की जाती थी।
ये प्रतिबन्ध मनमाने तरीके से आरोपित किये जाते थे। समस्या यह है कि सरकार पैक्स
को खरीद का लक्ष्य तो देती है, पर इसके लिए पर्याप्त फण्ड नहीं उपलब्ध करवाए जाते
हैं। अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि पैक्स में भी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य
नहीं मिल पाता है और समय पर भुगतान भी नहीं हो पाता है। इतना ही नहीं, यहाँ तक
छोटे एवं सीमांत किसानों की पहुँच भी नहीं है और एपीएमसी मंडियों की तरह यह भी
भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है। अक्सर पैक्स और एफसीआई ने ज्यादातर नमी का हवाला देते हुए किसानों से धान खरीदने से इनकार कर
देती है, लेकिन चूँकि किसानों को तत्काल पैसे की जरूरत होती है,
इसलिए वे अपनी फसल स्थानीय व्यापारियों को कम कीमतों पर बेचने के
लिए विवश होते हैं।
यह कहा जा रहा है कि व्यापार-मंडल के माध्यम से
अपनी फसलें बेचने के कारण किसानों को फसल की उचित कीमत मिली, लेकिन ऐसा कुछ
किसानों के साथ ही हो पाया। आर्थिक मामलों के जानकार अब्दुल कादिर ने कहा, “एपीएमसी अधिनियम को खत्म करने से पहले किसान अपनी
उपज को बाजार-समितियों को बेचते थे, जहाँ न्यूनतम मूल्य की
गारंटी थी। लेकिन, इस प्रणाली के निरस्त होने के बाद समुचित, पर्याप्त एवं
गुणवत्तापूर्ण भंडारण-सुविधा नहीं होने के कारण किसानों को अपनी फसल औने-पौने
दामों में बेचनी पड़ी।”
एनसीएईआर की रिपोर्ट,2019:
सन् 2019 में नेशनल
काउंसिल फ़ॉर एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के द्वारा करवाए गए अध्ययन में यह बात
सामने आयी है कि बिहार में एपीएमसी मंडियों को भंग किये जाने के बाद खाद्यान्न
कीमतों में अस्थिरता आयी है और इस क्रम में निजी भण्डार-गृह की ओर रुख करने के
कारण भण्डारण-लागत में भी तेजी से वृद्धि हुई है। इसी आलोक में यह रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचती है
कि एपीएमसी मण्डियों वाले राज्यों की तुलना में बिहार में किसानों को उनके
कृषि-उत्पादों की अपेक्षाकृत कम कीमत मिली है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि किसानों को अपने 90 प्रतिशत से अधिक कृषि-उत्पादों को तत्काल नकदी की
ज़रुरत के कारण अपने गाँव में ही स्थानीय कारोबारियों और बिचौलियों के हाथों
औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है।
निवेश और बाज़ार-अवसंरचना के हालात:
बिहार सरकार के द्वारा इन बाज़ार-समितियों को भंग करने के बाद आरम्भ में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मोड पर इन बाजार-समितियों
को विकसित करने की योजना बनाई गयी और इसके लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB)
से करीब 500 करोड़ रुपये के वित्तीयन का प्रस्ताव लाया गया। इसके
लिए तीन साल तक प्रोजेक्ट-रिपोर्ट तैयार किया गया और इस पर कृषि-विभाग ने करीब 6
करोड़ रुपये की राशि भी खर्च की। आरंभ में पीपीपी मोड पर बाजार-समिति
की सरकारी जमीन पर निजी एजेंसियों के माध्यम से भवन-निर्माण किया जाना था। साथ ही,
सरकार के द्वारा निजी जमीन पर इसके विकास के लिए प्रोत्साहन देना था, ताकि बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना के विकास को सुनिश्चित किया जा सके।
फिर, इसे ख़ारिज करते हुए सरकार ने खुद 1575 एकड़
से ज्यादा जमीन पर सभी 54 बाजार-समितियों को विकसित करने की
बात की। सरकार का कहना है कि पहले चरण में मुजफ्फरपुर, गुलाबबाग (पूर्णिया) और दरभंगा बाजार समिति को विकसित किया जाएगा, और फिर
चरणबद्ध तरीके से सभी बाजार समितियों को विकसित किया जाएगा। इन बाज़ार-समितियों में
कोल्ड स्टोरेज एवं क्वालिटी टेस्ट लैब सहित आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएँगी।
पार्ट थ्री: परिणामों को लेकर
मतभेद
हाल में केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित
कृषि-सुधारों को लेकर जो विवाद उभरा है, उसने अर्थशास्त्रियों के बीच के मतभेदों
को भी गहराने का काम किया है। इस क्रम में बिहार
में रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों की व्यवस्था की समाप्ति के परिणामों का हवाला देते कृषि-सुधारों
का समर्थन किया है। लेकिन, उनके विश्लेषण की विसंगतियों का
उद्घाटन करते हुए अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चौधरी ने पनगढ़िया के विश्लेषण से
असहमति प्रदर्शित की। इस क्रम में उनके आरोपों को खारिज करते हुए अर्थशास्त्री
कौशिक बसु, प्रोफ़ेसर डी. एम. दिवाकर और आर्थिक
मामलों के जानकार अंशुमान तिवारी ने जो बातें कही
हैं, वे बातें बिहार के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक हैं। इसलिए इन तमाम पहलुओं पर विस्तार से विचार करने की ज़रुरत है।
अरविंद
पनगढ़िया का विश्लेषण:
नीति-आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके अरविंद पनगढ़िया
ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा मॉडल एपीएमसी एक्ट, 2003 की दिशा में की गयी पहलों का हवाला देते हुए कहा, “आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात और मध्य प्रदेश ने मॉडल एक्ट को अपनाया
और इसका नतीजा कृषि वृद्धि-दर में भी देखने को मिला। सन् (2006-07) और सन् (2018-19) के बीच
इन राज्यों में औसत कृषि वृद्धि दर क्रमशः 7.1 प्रतिशत,
5.3 प्रतिशत, 3.9 प्रतिशत और 6.8 प्रतिशत रही, जबकि पंजाब में वृद्धि-दर महज़ 1.8
प्रतिशत रही।” उनका यह भी कहना है
कि बिहारी किसानों की ग़रीबी और पंजाबी किसानों की अमीरी के लिए एपीएमसी एक्ट को
ज़िम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। उनकी
दृष्टि में, “कृषि में उच्च वृद्धि-दर के
बावजूद बिहारी किसान पंजाबी किसानों की तुलना में इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि बिहारी
किसान पहले से ही बहुत ग़रीब थे और उन्होंने अपनी शुरुआत बहुत निचले स्तर से की है।” उनका यह भी कहना है कि बिहारी किसान इसलिए ग़रीब
हुए क्योंकि बिहार-सरकार ने एपीएमसी एक्ट से ख़ुद को अलग कर लिया। अपने पक्ष में वे यह तर्क भी देते हैं, “सन् 1992-93 तक पंजाब सकल घरेलू उत्पाद में भारत के सभी राज्यों में दूसरे नंबर था जो सन्
(2018-19) में दसवें नंबर पर आ गया।” लेकिन,
बिहार के अनुभव उनके दावे को पुष्ट नहीं करते हैं।
पनगढ़िया के विश्लेषण की सीमाएँ:
सवाल यह
उठता है कि कृषि-क्षेत्र में होने वाली इस वृद्धि का कितना लाभ किसानों तक पहुँचा
है और कितना लाभ बिचौलियों और कॉर्पोरेट्स तक। साथ ही, इस वृद्धि
के लिए किस हद तक रेगुलेटेड एपीएमसी मण्डियों में सुधार की दिशा में की गयी पहलें
जिम्मेवार हैं और कितनी जिम्मेवारी अन्य कारकों की बनती है। जहाँ तक पंजाब की जीडीपी का प्रश्न है, तो इसके लिए पंजाब की कृषक
अर्थव्यवस्था जिम्मेवार है, या फिर अर्थव्यवस्था के गैर-कृषि क्षेत्रों का
प्रदर्शन। इतना ही नहीं, पंजाब के कृषि-विकास दर की अन्य
राज्यों से तुलना करते हुए इस बात की कैसे अनदेखी की जा सकती है कि पंजाब में
कृषि-अर्थव्यवस्था का विकास लगभग संतुष्टि के स्तर (Saturation Point) पर पहुँच
चुका है क्योंकि हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब भारत के उन चंद
राज्यों में रहा है जिन्होंने 1960 के दशक के मध्य में देश में हरित क्रान्ति लाने
में अहम् भूमिका निभायी। इसके विपरीत, अन्य
राज्यों में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत देर से शुरू हुई और कई राज्यों में तो
हाल-फिलहाल।
अरविंद पनगढ़िया के उपरोक्त तर्कों को सिरे से
ख़ारिज करते हुए डी. एम. दिवाकर कहते
हैं कि कृषि वृद्धि-दर में वृद्धि का मतलब यह क़तई नहीं है कि उसका फ़ायदा किसानों
को मिला। उनका यह भी कहना है कि तुलनात्मक अध्ययन के
सन्दर्भ में ग्रोथ का बेस ईयर भी मायने रखता है और जिन अर्थव्यवस्थाओं की तुलना की
जा रही है, उनका आकार भी। उनका कहना है, “जहाँ
ज़ीरो से शुरुआत होगी, वहाँ बेस इफ़ेक्ट का असर होगा और इसके कारण प्रतिशत में विकास
का आँकड़ा बड़ा दिखेगा।”
अर्थशास्त्री प्रो.
नवल किशोर चौधरी बिहार के किसानों की ख़राब हालत के लिए केवल रेगुलेटेड
एपीएमसी मंडियों को भंग किये जाने को जिम्मेवार नहीं मानते हैं। उनका मानना है, “इसकी वजह सिर्फ़ मंडी-व्यवस्था
का ख़त्म हो जाना ही नहीं है। बिहार में अधिकतर किसान सीमांत है और यहाँ तकनीक, सिंचाई की व्यवस्था, भूमि का अधिकार कई ऐसे कारक हैं
जिसका इस बड़ी आबादी के किसानों के साथ सीधा रिश्ता है। इसलिए राज्य में
किसानी पर बात करते वक्त इन सारे कारकों पर भी बात होनी चाहिए, उसे
सिर्फ़ मण्डियों तक ही सीमित मत कर दीजिए।” लेकिन, वे अरविन्द पनगढ़िया के उपरोक्त तर्कों से असहमति प्रदर्शित
करते हुए बिहार के किसानों की समस्या को पंजाब और हरियाणा के किसानों की समस्या से
अलगाकर देखते हैं, “अरविन्द पनगढ़िया कोलंबिया यूनिवर्सिटी से बिहार के
किसानों के संकट को नहीं समझ सकते। बिहार और पंजाब के किसानों में जम़ीन आसमान का फ़र्क़ है। बाज़ार
पर नियंत्रण बेचने वालों का होगा या फिर ख़रीदार का, पंजाब के किसान इस
बात की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके विपरीत, बिहार
के किसान तो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।” उनका कहना है कि कृषि-सुधारों की दिशा में मोदी सरकार की
वर्तमान विधायी पहल बाज़ार पर बड़े खरीददारों के नियंत्रण को सुनिश्चित करेगी और
न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था बिना मारे मर जाएगी।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कृषक
अर्थव्यवस्था से बिहार की भिन्नता को रेखांकित करते हुए अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चौधरी कहते हैं, “बिहार में खेती-किसानी की समस्या पंजाब
से बिल्कुल अलग है। पंजाब की खेती पूँजीवादी है, जबकि
बिहारी की खेती-किसानी अर्द्ध-सामंती है। पंजाब में
उत्पादन का एकमात्र लक्ष्य है मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़े के लालच का असर वहाँ की मिट्टी और भूजल
स्तर पर भी पड़ा है। बिहार में खेती की
असली समस्या भूमि का स्वामित्व, सिंचाई, तकनीक, श्रम, बाढ़ और सूखा है। बिहार की खेती वहाँ
के किसानों के लिए घाटे का सौदा इसलिए है क्योंकि यहाँ बुनियादी खेती करने वालों
के पास ज़मीन नहीं है, सिंचाई की
व्यवस्था नहीं है और बाढ़-सूखा को लेकर कोई तैयारी नहीं है।” उनका
कहना है कि बिहार की खेती-किसानी अर्द्ध-सामंती इसलिए है कि यहाँ भूमि पर
मालिकाना हक़, श्रम को नियंत्रित करने की शक्ति और आर्थिक क्षमता एक
ही वर्ग के पास है।
उनकी इस बात से सहमत पटना स्थित ए. एन. सिन्हा
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज से सम्बद्ध अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डी. एम. दिवाकर भी कहते हैं, “बिहार की
खेती-किसानी की असली समस्या ये नहीं है कि उनके लिए बाज़ार नहीं है, बल्कि समस्या
ये है कि यहाँ के किसानों के पास भूस्वामित्व नहीं है, बाढ़
और सूखा को लेकर सरकार की कोई योजना नहीं है और सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं
है।”
कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का विश्लेषण:
कृषि-अर्थशास्त्री
देविन्दर शर्मा का यह कहना है कि सन् 2006 में बिहार में कृषि-इन्फ्रास्ट्रक्चर
में निजी क्षेत्र के निवेश को आकर्षित करने के लिए एपीएमसी अधिनियम की वापसी ने
वहाँ के किसानों को लाभान्वित नहीं किया, जबकि कहा यह जा रहा था कि इससे प्रभावी
एवं दक्ष विपणन व्यवस्था के विकास के कारण किसानों को उनके उत्पादों की बेहतर कीमत
मिल सकेगी। लेकिन, अन्य
राज्यों के विपरीत बिहार ने न तो अपनी खरीद-मशीनरी को दुरुस्त बनाने की कोशिश की
और न ही सहकारिता, जो राज्य में खरीद के लिए प्राथमिक रूप से उत्तरदायी है, के
विकास की दिशा में गंभीर कोशिश की। इसके
विपरीत, जहाँ पंजाब ने 127 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की खरीद की, वहीँ मध्यप्रदेश ने 129
लाख मीट्रिक टन गेहूँ की खरीद। सन् 2020-21 में मध्यप्रदेश, पंजाब और हरियाणा में देश में कुल
खरीद के 87 प्रतिशत गेहूँ की खरीद हुई, वहीँ गेहूँ के सबसे बड़े उत्पादक उत्तर
प्रदेश में वहाँ के कुल गेहूँ-उत्पादन के महज 10 प्रतिशत गेहूँ की खरीद की गयी। अब हालात यह है कि बिचौलिए बिहार के किसानों
से औने-पौने दामों पर फसलों की खरीद करते हैं, और उन्हें अवैध रूप से
पंजाब-हरियाणा ले जाकर एमएसपी की दर पर बेचते हैं। एक
आकलन के अनुसार, बिहार में (1,000-1,100) रुपये प्रति क्विंटल की दर पर करीब एक मिलियन टन धान (कॉमन ग्रेड) की
खरीद की जाती है और उसे पंजाब ले जाकर 1,868 रुपये प्रति
क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचा जाता है। इस तरह बिहार
में भी किसान बदहाल हैं, और बिचौलिए मालामाल।
यह सच है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य मैकेनिज्म की
पहुँच महज 6 प्रतिशत किसानों तक है और शेष 94 प्रतिशत किसानों को अपने
कृषि-उत्पादों को खुले बाज़ार में औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है, जिसकी पुष्टि
भारतीय खाद्य निगम की पुनर्संरचना से सम्बंधित शान्ता कुमार पैनल की रिपोर्ट से भी होती है। इतना ही नहीं, सन् 2016 में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर
नीति आयोग की रिपोर्ट में यह कहा गया कि 81 प्रतिशत किसानों को सरकार द्वारा दी
जाने वाली एमएसपी की जानकारी है, लेकिन बोवाई से पहले महज 10 प्रतिशत किसानों को
इस बात की जानकारी है कि उनको मिलने वाली उचित कीमत क्या है। पर, इन सीमाओं के बावजूद एमएसपी व्यवस्था की अपनी
अहमियत है, जैसा कि कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का कहना है कि यद्यपि एमएसपी सभी फसलों के लिए
उत्पादन-लागत को कवर नहीं करता और न ही सभी किसानों तक इसकी पहुँच है, फिर भी यह
प्राइस डिस्कवरी में अहम् भूमिका निभाता है।
कौशिक बसु का नजरिया:
अरविंद पनगढ़िया ने मनमोहन सिंह सरकार में मुख्य
आर्थिक सलाहकार रहे कौशिक बसु और रिज़र्व बैंक के पूर्व अध्यक्ष रघुराम राजन पर
सवाल उठाते हुए कहा कि सरकार में रहते हुए इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने नए कृषि
क़ानून की वकालत की थी।
उनके आरोपों का प्रतिवाद करते हुए अर्थशास्त्री कौशिक बासु ने भारतीय कृषि में
सुधार की आवश्यकता पर बल तो दिया, पर यह स्पष्ट किया कि यह छोटे किसानों की
आजीविका की क़ीमत पर नहीं होना चाहिए। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि नए सिरे से व्यापक
पैमाने पर विचार-विमर्श के पश्चात् कृषि-सुधार कानूनों को अंतिम रूप दिया जाना
चाहिए। उन्होंने स्वीकार
किया, “ये सही बात है कि मैंने और रघुराम राजन ने कहा था कि
भारत के कृषि-क़ानून पुराने पड़ गए हैं और एपीएमसी एक्ट में सुधार की ज़रूरत है। किसानों को विकल्प
देने की ज़रूरत है, लेकिन उससे पहले हमें ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि छोटे
किसानों को शोषण से बचाया जा सके।” उनका कहना है, “मुक्त बाज़ार में छोटे किसानों की जो मुश्किलें हैं,
उनको गंभीरता से देखने की ज़रूरत है। लेकिन, सरकार ने इसकी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं की है जिससे किसानों
के शोषण को रोका जा सके।”
उनका यह भी कहना है, “एपीएमसी एक्ट में वर्तमान संशोधन बहुत प्रभावी नहीं है। इस सुधार में बड़े
कॉर्पोरेट घरानों को व्यापक पैमाने पर स्टोर करने की अऩुमति दे दी गई है। इससे बड़े
कॉर्पोरेट घराने सामने आएँगे और स्टोर व्यापक पैमाने पर करेंगे। इसके मार्केट पर
इनका नियंत्रण बढ़ेगा। अगर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग
में किसानों के साथ किसी भी तरह का कोई विवाद होता है, तो उनके मसले को सुलझाने के
लिए कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है।”
कॉर्पोरेट्स बनाम् किसान:
अरविन्द पनगढ़िया
ने यह तर्क भी दिया है, “रमेश चाँद और अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्रियों ने बताया कि
नेस्ले जैसी कम्पनियाँ सालों से सरकारी सहकारी संगठनों के साथ मिलकर छोटे दूध-उत्पादकों
से दूध ख़रीद रही हैं। इन्होंने दूध-उत्पादकों
का शोषण करने के बजाय उनके दूध की माँग बढ़ाने और मार्केट को बड़ा बनाने में मदद
की।” लेकिन, उनसे असहमत आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमान तिवारी का
कहना है, “भारत में जिन पशुपालकों से दूध ख़रीदे जा रहे हैं,
उन्हें कोई अच्छी क़ीमत नहीं मिल रही है।
लेकिन, नेस्ले जैसी कम्पनियाँ अपने डेयरी-उत्पादों को मोटी क़ीमत पर बेच रही हैं। भारत में पैक्ड दूध विदेशों की तुलना में मँहगा है। मतलब दूध के बाज़ार के विस्तार का फ़ायदा न तो दुग्ध-उत्पादकों
को मिल रहा है और न ही उपभोक्ताओं को। फ़ायदा
बड़े कॉर्पोरेट घराने ले रहे हैं और यही डर इस कृषि-क़ानून से भी है।” इस आशंका को शांता
कुमार के नेतृत्व वाले उच्च स्तरीय पैनल की
रिपोर्ट से भी बल मिलता है जिसने फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इण्डिया(FCI) को
विभाजित करते हुए उसके फोकस को खाद्यान्न निर्यात एवं कमोडिटी ट्रेडिंग की ओर
शिफ्ट करने की अनुशंसा की, और
प्रतिस्पर्धी बाज़ार के सृजन के नाम पर एपीएमसी विनियमित बाज़ार में निजी
कारोबारियों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया।
अंशुमान तिवारी की इस आशंका की पुष्टि अमेरिकी अनुभव से भी होती है।
कृषि-आय और सरकारी कर्मचारियों की आय
का बढ़ता अन्तराल:
कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का यह कहना है कि सन् 1970 में
गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति क्विंटल था जो 2015 तक बढ़कर 1450
रुपये प्रति क्विंटल हो गया। इस तरह इन 45 वर्षों के दौरान गेहूँ के न्यूनतम
समर्थन मूल्य में 19 गुनी वृद्धि हुई, लेकिन इसी अवधि के दौरान एक सरकारी कर्मचारी
की आय (120-150) गुनी बढ़ी, एक प्रोफेसर की आय (150-170) गुनी बढ़ी और स्कूल के
शिक्षकों की आय (280-320) गुनी बढ़ी। कृषि-आय से
सम्बंधित राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन(NSO) का हालिया सर्वेक्षण यह
बतलाता है कि सन् 2016 में देश के 17 राज्यों में किसान-परिवारों की वार्षिक आय
औसतन 20,000 रुपये से कम थी। इक्रियर-ऑर्गेनाइजेशन
फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ICRIER-OECD) के अध्ययन के अनुसार, सन् (2000-16) के
दौरान कृषि-उत्पादों की उचित कीमत न मिल पाने के कारण भारतीय किसानों को करीब 45
लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है, जो सालाना करीब 2.64 लाख करोड़ रुपये का नुकसान है। इसके परिणामों का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से
लगाया जा सकता है कि सन् 1995 से अबतक पिछले 25 वर्षों के दौरान करीब साढ़े तीन लाख
किसानों एवं खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की है, और ग्रामीण
क्षेत्रों में आत्महत्या की दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में 45 प्रतिशत अधिक
है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि वर्ष (1986-88) के सापेक्ष देखें, तो सन्
2013 तक जहाँ कृषि-क्षेत्र में इनपुट-लागत में 480 प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं
गेहूँ-चावल की कीमतों में करीब 300 प्रतिशत की वृद्धि। मतलब यह कि इनपुट-लगत में वृद्धि की तुलना में आउटपुट में वृद्धि की दर
धीमी रही जिसने कृषि की लाभदायकता को प्रतिकूलतः प्रभावित किया। साथ
ही, मजदूरी-लागत और रहन-सहन की लागत में जो तीव्र
वृद्धि हुई, वह अलग से। इन सबने मिलकर किसानी को मुश्किल बनाया है।
अमेरिकी अनुभव:
अगर खुले
और प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार व्यवस्था से ही किसानों की समस्या का हल मिलना था,
तो अमेरिकी किसान आज अस्तित्व को बचने के लिए संघर्षरत नहीं होते। कमोडिटी
ट्रेडिंग और मल्टी-ब्राण्ड रिटेल के प्रभुत्व के बावजूद सन् 2019 में अमेरिकी
फार्म ब्यूरो फेडरेशन ने यह कहा कि 91 प्रतिशत अमेरिकी किसान दिवालिया हो चुके हैं
और 87 प्रतिशत किसानों के पास किसानी छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं रह
गया है। अमेरिकी
कृषि-विभाग के अनुसार, सन् 2018 में खाद्यान्न मदों में उपभोक्ताओं के द्वारा खर्च
किये गए 1 अमेरिकी डॉलर में महज 8 प्रतिशत किसानों तक पहुँच पाता है। इसके सापेक्ष
यदि डेयरी-उद्योग के क्षेत्र में भारतीय सहकारी अमूल मॉडल को देखा जाए, तो दूध मद
में भारतीय उपभोक्ताओं के द्वारा किए गए खर्च में भारतीय किसानों की हिस्सेदारी
करीब (70-80) प्रतिशत है।
अमेरिकी बाज़ार और किसानों से सम्बंधित अध्ययन यह बतलाते हैं कि
रिटेल कारोबार में बड़ी कम्पनियों के प्रवेश के बाद से फ़ूड-डॉलर में किसानों की
हिस्सेदारी लगातार घटी है। अमेरिकी
कृषि-विभाग के मुख्य अर्थशास्त्री के अनुसार, 1960 के दशक से वास्तविक कृषि-आय में
निरंतर गिरावट की प्रक्रिया जारी है, और इस गिरावट के बावजूद अगर अमेरिकी किसान
बचे हुए हैं, तो इसका श्रेय अमेरिकी सरकार के द्वारा किसानों को भारी मात्रा में
दिए जाने वाले घरेलू समर्थन को जाता है। गैर-लाभकारी पर्यावरण कार्यदल (Environment Working Group) के अनुसार, सन् 1995 में अमेरिका ने विभिन्न मदों में 425 बिलियन अमेरिकी
डॉलर की कृषि सब्सिडी घरेलू सहायता के रूप में फसल-बीमा, आपदा-प्रबन्धन और
संरक्षण-प्रोग्राम के तहत् दी है, इसके बावजूद अमेरिकी किसानों पर करीब 425 बिलियन
अमेरिकी डॉलर का क़र्ज़ है और वे इस क़र्ज़ के साये तले दबे हुए हैं। इस क़र्ज़ की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा
सकता है कि दुनिया में कृषि-कारोबार का आकार ही 5 ट्रिलियन डॉलर का है। यहाँ पर इस
बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत है कि सन् 2007 में जब दुनिया खाद्यान्न
संकट से जूझ रही थी, 37 देशों में खाद्यान्नों को लेकर दंगे हुए और कई विशेषज्ञों
ने कमोडिटी ट्रेडिंग को इस संकट के लिए जिम्मेवार माना। भारत अगर इस संकट से बचा
रहा, तो इसलिए कि इसने कृषि में कमोडिटी ट्रेडिंग को अनुमति नहीं दी है और एपीएमसी
के कारण इसके पास पर्याप्त फ़ूड स्टॉक मौजूद थे। यही बातें लॉकडाउन के सन्दर्भ में
भी कही जा सकती हैं।
विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जाय,
तो बिहार के अबतक के अनुभव यह बतलाते हैं कि बिहार में न तो निवेश आया और न ही
निजी कृषि मण्डियों का विकास संभव हुआ, न तो बेहतर बाज़ार अवसंरचना का विकास संभव
हो सका और न ही प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार का विकास संभव हुआ। इतना ही नहीं,
कृषि-मण्डियों के भंग होने के कारण बिहार को उस मण्डी-शुल्क, जिनका इस्तेमाल
मण्डियों में बाज़ार-अवसंरचना के विकास के साथ-साथ ग्रामीण अवसंरचना के विकास के
लिए किया जाता रहा है ताकि किसानों की बाज़ार तक आसान पहुँच को सुनिश्चित किया जा
सके, से भी वंचित रह जाना पड़ा, और धीरे-धीरे उन मण्डियों की बाज़ार-अवसंरचनाओं के
क्षरण की प्रक्रिया भी जारी है जो उस समय विद्यमान थी। इससे
जरूरी मार्केटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी हो गई क्योंकि उचित रख-रखाव न होने के
कारण मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर नष्ट हो गया।
इतना ही नहीं, इसने निजी अन-रेगुलेटेड फार्मिंग मार्केट के तेजी
से विस्तार को संभव बनाया जो किसानों और कारोबारियों, दोनों से विभिन्न प्रकार के
शुल्क वसूलते हैं और वह भी बिना किसी अवसंरचनात्मक सुविधा के। अन्य राज्यों में
भी, जहाँ डीरेगुलेशन के ज़रिये निजी कारोबारियों को अनुमति दी गयी है, न तो निवेश
की स्थिति दिखाई पड़ती है और न ही मण्डियों के बाहर किसानों को बेहतर कीमत मिलती
दिखाई पड़ती है।
पार्ट 4: कृषि-सुधारों
के प्रति बिहार के किसानों की उदासीनता
किसान-आन्दोलन के प्रति बिहार की
उदासीनता:
विशेषज्ञों का कहना है कि इतने साल
बाद भी किसानों को अपनी उपज को बेचने के लिए अनुकूल बाजार नहीं मिल
पाया है और किसान अपनी उपज औने-पौने दामों पर निजी व्यापारियों को बेच
रहे हैं। फिर भी, अगर बिहार के किसान सड़क पर नहीं हैं, तो इसका कारण है:
1. जोतों का छोटा आकार: कृषि-गणना 2015-16
के मुताबिक़, बिहार में औसत जोत का
आकार महज़ 0.39 हेक्टेयर है। इसका कारण कुछ तो बिहार पर जनसंख्या
का अत्यधिक दबाव है और कुछ संयुक्त परिवार के विघटन की प्रक्रिया का तेज होते चला
जाना। ऐसी स्थिति में अधिशेष उत्पादन की सम्भावना मुश्किल है, या फिर यूँ कह लें
की मुश्किल है।
2. छोटे एवं सीमान्त किसानों की बहुतायत: इसकी पुष्टि आर्थिक सर्वेक्षण (2018-19) से भी होती है, जिसके अनुसार बिहार में
लगभग 91.2 फ़ीसद कृषक परिवार सीमांत हैं जिनके पास एक
हेक्टेयर से भी कम जोत हैं। अगर इसके साथ
छोटे किसानों को भी मिला दें, तो पंजाब और हरियाणा के विपरीत बिहार
में 97 प्रतिशत किसान छोटे और सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं जिनमें से अधिकांश के पास बेचने के लिए अधिशेष नहीं
होता है, जिनकी मंडियों तक पहुँच नहीं होती और जिन्हें न्यूनतम समर्थन
मूल्य-व्यवस्था का कवरेज नहीं मिलता है। इसलिए एमएसपी व्यवस्था रहे या जाए, रेगुलेटेड
कृषि मण्डियाँ रहे जाए, प्रत्यक्षतः उन्हें विशेष फर्क नहीं पड़ता है। और,
थोड़ा-बहुत फर्क पड़ता भी है, तो
उनके अधिशेष की मात्रा इतनी कम होती है की वे इसे इग्नोर कर देते हैं। इसीलिए प्रो. चौधरी ने कहा कि बिहार के
किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनसे बाज़ार पर वर्चस्व को बनाये
रखने की लड़ाई लड़ने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
3. जीवन-निर्वाह कृषि का प्रचलन: बिहार
में जीवन-निर्वाह कृषि का प्रचलन है। न तो यहाँ की कृषि बाज़ार से जुड़ पाई है और न
ही उसका आधुनिकीकरण एवं तकनीकी उन्नयन सम्भव हो पाया है।
4. एमएसपी व्यवस्था और रेगुलेटेड मण्डियों की सीमित पहुँच: बिहार में बड़ी मुश्किल से (3-4) प्रतिशत किसान ऐसे
हैं जिन्हें मध्यम और बड़ी श्रेणी के किसानों के अन्तर्गत रखा जा सकता है और जो
अधिशेष उत्पादन की स्थिति में हैं। यही
वह समूह है जो एमएसपी व्यवस्था एवं रेगुलेटेड मण्डियों से लाभान्वित हुआ, और इसी
समूह का इन मण्डियों पर वर्चस्व भी था। सन् 2006 में रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों के
भंग होने के बाद इसका व्यापार-मण्डल और पैक्स पर इसी का वर्चस्व स्थापित हुआ। यही
कारण है कि एपीएमसी अधिनियम का व्यापक रूप से बिहार के किसानों पर विशेष असर नहीं
पड़ा।
5. बिहार के किसानों में जागरूकता, संगठन, एकता और नेतृत्व का अभाव: पिछले
70 वर्षों का अनुभव यह बतलाता है की आज़ादी के बाद बिहार किसान-आन्दोलन की दृष्टि
से कमजोर रहा है, और यहाँ किसानों के नेतृत्व का अभाव रहा है। इसलिए बिहार के
किसानों में जागरूकता का अभाव है और संगठन एवं एकता की कमी है। कृषक-समुदाय वर्ण, जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर
विभाजित है, और इस विभाजन ने किसान के
रूप में उनकी पहचान को गौण कर दिया है। इसी के कारण न तो इनसे सम्बद्ध मसले
कभी चुनावी एजेंडा का हिस्सा बन पाते हैं और न ही ये कभी अपने मसलों पर वोटिंग
करते हैं। जब भी ये चुनाव में जाते हैं, तो ये मूल मसले की बजाय जाति, धर्म और
सम्प्रदाय के मसले पर ही वोटिंग करते हैं।
6. पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलनों और कृषक
नेतृत्व की लम्बी परम्परा: इसके विपरीत, हरित-क्रांति ने पंजाब,
हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कृषक अर्थव्यवस्था को न केवल लाभान्वित किए
है, वरन् वहाँ धनी एवं समृद्ध किसानों के ऐसे समूह को जन्म भी दिया है जो स्थानीय स्तर
की राजनीति में अत्यंत प्रभावशाली हैं और इन्होने अपने राजनीतिक प्रभाव का
इस्तेमाल अपने आर्थिक हितों को संरक्षित करने के लिए किया है। इसीलिए यहाँ न केवल कृषि-उत्पादों
पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा बोनस देने की परिपाटी लम्बे समय तक रही है, वरन्
उसे व्यावहारिक रूप देते हुए ज़मीनी धरातल पर उतारने के लिए खरीद-अवसंरचना (Procurement
Infrastructure) और खरीद-मैकेनिज्म विकसित
करते हुए उसे खरीद-नीति का समर्थन भी दिया। यही कारण है कि यहाँ के किसान एमएसपी
मैकेनिज्म और रेगुलेटेड कृषि-मंडियों से विशेष रूप से लाभान्वित हुए। यही वह
पृष्ठभूमि है जिसमें इन क्षेत्रों में किसान आंदोलनों की लम्बी परम्परा रही है और आज़ादी
के बाद के सात दशकों के दौरान दक्षिण भारत के साथ-साथ इस क्षेत्र ने देश को सशक्त कृषक
नेतृत्व भी प्रदान किया है। चौधरी चरण सिंह और महेन्द्र सिंह टिकैत से लेकर
देवीलाल, बंसी लाल और भजन लाल तक लम्बी परम्परा रही है। यही कारण है कि यहाँ के
किसान अपने हितों की रक्षा के प्रति कहीं अधिक जागरूक हैं और आग्रहशील भी। साथ ही,
उनमें संगठन और एकता भी कहीं अधिक है।
यही कारण है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों की माँग को लेकर पंजाब-हरियाणा सहित कई राज्यों के किसान
आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन बिहार के किसान सड़क पर नहीं उतरे हैं।
स्रोत-सामग्री:
1. बिहार: कृषि मंडियों
को भंग करने के अनुभव, सी. के. मनोज, 7 दिसम्बर,2020
2. बिहारी किसान क्या APMC पर
नीतीश कुमार के फ़ैसले से ग़रीब हुए: रजनीश कुमार: बीबीसी, 12 दिसम्बर,2020
3. कृषि से ही होकर जाता है आत्मनिर्भर भारत का रास्ता: देविन्दर
शर्मा, पंजाब केसरी, 18 अक्टूबर,2020
4. बिहार में 14 साल पहले ख़त्म किया
गया था एपीएमसी एक्ट, किसानों को क्या मिला: सी. के. मनोज, डाउन टू अर्थ, 7 दिसम्बर, 2020
5. The APMC Conundrum: Rolling Back This Reform Will Encourage Vested Interest To
Strike Down All Reform: Arvind Panagariya, TOI, 9th December,2020
6. Corporates Can Help Expand Market Rather Than Driving Out
Mandis: Arvind Panagariya, TOI, 18th December,2020
7. Agriculture Law Need Reform, But Not At The Cost of Small Farmers:
Kaushik Basu-Nirvikar Singh, TOI, 18th
December,2020
8. Bihar
Did Not Meet Even 1% of its Wheat Procurement Target: Dheeraj Mishra and Kabir Agarwal, 15th September, 2020
9. Diluting the APMC, MSP regimes isn’t a good idea, Devinder
Sharma, May 11, 2020
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