कृषि-सुधार और
किसान-आन्दोलन: बिहार के अनुभव
प्रमुख
आयाम
1.
पार्ट वन: आर्थिक नव-उदारवादी एजेंडा: कृषि-सुधार:
a.
कृषि-बाज़ार सुधार की वैचारिक पृष्ठभूमि
b. बाज़ार के सच को झुठलाना
2. पार्ट वन: बिहार:
कृषि-मण्डियाँ और कृषि-बाज़ार सुधार
a. बिहार में कृषि-मण्डियाँ भंग,2006
b. रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों को खारिज करने के
तर्काधार
a. अनुभव
उत्साहवर्द्धक नहीं
b. केरल
से तुलना
c. एमएसपी व्यवस्था को अंगूठा
दिखाती बिहार-सरकार
d. कृषि-मण्डियों के न रहने पर
निगरानी-तंत्र ध्वस्त
e. बिहार के किसानों के हालात
f.
पैक्स की
व्यवस्था अप्रभावी
g. एनसीएईआर की रिपोर्ट,2019
h. निवेश और
बाज़ार-अवसंरचना के हालात
i. विश्लेषण
j. बढ़ती गरीबी द्वारा इसकी पुष्टि
3. पार्ट थ्री: किसान-आन्दोलन और उदासीन बिहार:
a. किसान-आन्दोलन के
प्रति बिहार की उदासीनता
b. कृषि-आय की दृष्टि
से असमानता
c. जोत का औसत आकार
d. छोटे एवं सीमान्त किसानों की बहुतायत
e. कृषि-संगणना,2015-16
f.
भूमिहीन
खेतिहर मजदूरों का उच्च अनुपात
g. जीवन-निर्वाह कृषि का प्रचलन
h. एमएसपी और रेगुलेटेड मण्डियों की सीमित पहुँच
i.
किसानों
में जागरूकता और एकता का अभाव
j.
किसान
आंदोलनों और कृषक नेतृत्व का अभाव
k. कृषि-मण्डियों के भंग होने के परिणाम
उत्साहवर्द्धक नहीं
l. कृषक अर्थव्यवस्था की मूल प्रकृति की भिन्नता
पार्ट वन: आर्थिक नव-उदारवादी एजेंडा: कृषि-सुधार
मण्डियों को
भंग किए जाने की वैचारिक पृष्ठभूमि:
किसानों के लिए आय-सुरक्षा
को सुनिश्चित करने में एपीएमसी और एमएसपी
व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की
प्रक्रिया के शुरू होने के साथ ही बाज़ार-अर्थव्यवस्था के समर्थक नव-आर्थिक
उदारवादियों ने खेती और किसानी की हर समस्या का हल भी बाज़ार में तलाशना शुरू किया।
एक एजेंडे के तहत् उन्होंने जनमानस में इस सोच को प्रतिष्ठित करना शुरू किया कि
भारत में किसानों की दुरावस्था का एकमात्र कारण है भारतीय कृषि-अर्थव्यवस्था का
नियंत्रित स्वरुप और कृषि बाज़ार में सरकार का उच्च स्टार पर हस्तक्षेप। कैसी विडम्बना
है कि इन्होने एक ओर कृषि-सब्सिडी के खिलाफ माहौल निर्मित करते हुए उसमें कटौती
हेतु दबाव निर्मित करना शुरू किया, दूसरी ओर बीज, खाद, कीटनाशक एवं रसायन सहित
इनपुट मार्किट में अपने प्रभावी हस्तक्षेप को सुनिश्चित करते हुए किसानों की कीमत
पर कॉर्पोरेट हितों को साधना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप कृषि-इनपुट लागत में
तेजी से वृद्धि हुई और किसानों पर बाज़ार का शिकंजा कसता चला गया। इसके फलस्वरूप
खेती और किसानी की लाभदायकता कम होती चली गयी। पर, इस बात के लिए आर्थिक नव-उदारवाद के पैरोकारों की तारीफ़ करनी
होगी कि उन्होंने आम लोगों के साथ-साथ किसानों को भी यह अहसास करवाया कि इसी के
कारण वे अपने उत्पादों को खुले बाज़ारों में नहीं बेच पाते हैं जिसके कारण उन्हें
उनके उत्पादों की उचित एवं लाभकारी कीमतें नहीं मिल पाती है। इसके लिए इन्होंने ’वन
नेशन, वन मार्किट’ की बात करनी शुरू की और रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों को इसमें बाधक
के रूप में प्रस्तुत करना शुरू किया। उनके इस एजेंडे का आरंभिक शिकार बना बिहार,
जिसने सन् 2006 में रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों को भंग करते हुए अपने किसानों को
बाज़ार के हवाले कर दिया। तबसे उनकी यह कोशिश कभी मॉडल एपीएमसी अधिनियम, कभी ई-नाम
और कभी निजी कृषि मंडियों के सृजन के रूप में प्रकट होती रही। और, अब कृषि-सुधारों
से सम्बंधित हालिया पहलों के रूप में आर्थिक नव-उदारवादी कोशिश अपनी सफल तार्किक
परिणति की ओर अग्रसर है।
बाज़ार के सच को झुठलाना:
अब, यह बात अलग है कि आर्थिक नव-उदारवादी एजेंडे के समक्ष अब यह वास्तविकता झुठलाई जा रही है कि अगर किसानों की समस्या का हल बाज़ार होता, तो पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान 425 बिलियन अमेरिकी डॉलर के डोमेस्टिक सपोर्ट के बावजूद अमेरिकी किसान आज इतनी ही रही के क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुए नहीं होते और 91 प्रतिशत अमेरिकी किसान दिवालियेपन की स्थिति में एवं 87 प्रतिशत किसान किसानी छोड़ने की स्थिति में नहीं होते। इतना ही नहीं, अगर बाज़ार किसानी की समस्या का हल होता, तो दक्षिण भारत एवं पश्चिम भारत, जहाँ किसान बाज़ार से जुड़े हुए हैं और बाज़ार के लिए खेती करते हैं, में किसानों की आत्महत्या की दरें उत्तर भारत एवं पूर्वी भारत के उन राज्यों की तुलना में इतनी अधिक नहीं होतीं, जहाँ की कृषि अभी उस तरह से बाज़ार से नहीं जुड़ पायी है और जहाँ के किसान अपेक्षाकृत गरीब हैं।
पार्ट टू: बिहार: कृषि-मण्डियाँ और कृषि-बाज़ार सुधार
बिहार में कृषि-मण्डियाँ भंग,2006:
सन् 2006 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नवगठित बिहार
सरकार ने एपीएमसी अधिनियम को रद्द करते हुए रेगुलेटेड कृषि मण्डियों को भंग करने
की घोषणा की, ताकि बिहार में प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार का सृजन किया जा सके,
किसानों के लिए उनके कृषि-उत्पादों की बेहतर कीमत सुनिश्चित किया जा सके और
कृषि-क्षेत्र में निजी निवेश को आकर्षित किया जा सके। इसके
मद्देनज़र बिहार सरकार ने बिहार राज्य कृषि विपणन परिषद् को भंग करते हुए
उससे सम्बद्ध कर्मचारियों का समंजन कृषि-विभाग में किया और तत्संबंधित सब-डिविजनल कार्यालयों को बाजार का प्रभार
दिया गया। इसके लिए बाजार-समितियों में आढ़तियों एवं कारोबारियों के बीच कार्टेलाइजेशन, इनमें
व्याप्त भ्रष्टाचार, इनके द्वारा की जाने वाली अवैध वसूलियों और इनके द्वारा
किसानों के दोहन का हवाला दिया गया। इस प्रकार बिहार रेगुलेटेड
कृषि-मण्डियों को भंग करने वाला देश का पहला
राज्य बना। एपीएमसी एक्ट ख़त्म होने के
बाद बिहार में 8,463 पैक्स (प्राथमिक कृषि साख एवं
सहयोग समिति) और 521 व्यापार-मंडलों (सन् 2017 तक के आँकड़ों के अनुसार) के
ज़रिए अनाज की ख़रीदारी के काम को अंजाम दिया जा रहा है।
रेगुलेटेड
कृषि-मण्डियों को खारिज करने के तर्काधार:
उस समय यह कहा गया कि:
1. इससे निजी निवेश
बढ़ेगा।
2. इससे निजी मण्डियों
का विकास होगा जो सरकारी हस्तक्षेप एवं सरकारी नियंत्रण से मुक्त होंगी।
3. इससे किसानों को
खरीददारों के विकल्प मिलेंगे जो प्रतिस्पर्धात्मक कृषि बाज़ार के विकास को सम्भव
बनाता हुआ उनके फसलों ई वाज़िब एवं लाभकारी कीमत को सुनिश्चित करेगा।
4. इससे बेहतर
कृषि-अवसंरचना और बेहतर मण्डी-अवसंरचनाओं का भी विकास होगा।
5. बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना की उपलब्धता फसलों की उस बर्बादी पर अंकुश लगाएगी जो इसके अभाव में
होती है। साथ ही, यह उच्च स्तर की बर्बादी पर अंकुश लगा पाने, उसकी बेहतर गुणवत्ता
को सुनिश्चित कर पाने, उसकी उत्पादन-लागत को कम कर पाने और उसकी उपलब्धता एवं
आपूर्ति को बढ़ा पाने में समर्थ होगा।
6. इससे किसानों को
उनकी फसल की अच्छी कीमत भी मिलेगी और उनका प्रॉफिट-मार्जिन भी बढेगा।
कमोबेश
देखा जाए, तो ये सारे तर्क आज भी फार्म बिल के पक्ष में दिए जा रहे हैं, लेकिन आज
बिहार में कृषि-विपणन किस मोड़ पर खड़ा है, उसके आलोक में इन तर्कों के औचित्य का
विश्लेषण आसानी से किया जा सकता है।
अनुभव उत्साहवर्द्धक नहीं:
भले ही उस समय इसे सकारात्मक पहल के रूप
में देखते हुए यह उम्मीद की गयी कि इससे बिहार के किसानों की हालत सुधरेगी, लेकिन
इस पहल के लगभग डेढ़ दशक बीत चुकने के बाद अब भी बिहार के किसानों को उन आश्वासनों
के पूरा होने का इंतज़ार है जो उस समय उन्हें दिए गए थे। सच तो यह है कि पिछले डेढ़ दशकों के दौरान
किसानों की हालात सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गयी और उनके लिए अपने उत्पादों की
वाजिब कीमत हासिल करना और भी मुश्किल होता चला गया क्योंकि वाजिब कीमत हासिल करने
के उनके पास जो भी सीमित विकल्प थे, वे भी उनसे छिन गए। इस बात को सन् 2017 में
तत्कालीन केन्द्रीय कृषि-मंत्री राधामोहन सिंह ने भी स्वीकार किया कि बाजार-समिति
भंग होने के बाद किसानों को फसल की उचित कीमत नहीं मिल पा रही है।
केरल से तुलना:
ऐसा
नहीं कि बिहार देश का अकेला ऐसा राज्य है जहाँ कृषि मण्डियाँ नहीं हैं। बिहार की तरह ही केरल में भी न तो
मण्डियों की व्यवस्था है और न ही कोई एपीएमसी यार्ड। लेकिन, वहाँ किसानों की स्थिति बिहार की तुलना में कहीं बेहतर है। इसका कारण यह है कि केरल एक उपभोक्ता राज्य है
क्योंकि यहाँ का कुल चावल-उत्पादन महज यहाँ की 20 प्रतिशत ज़रूरतों को पूरा कर पाता
है। इसलिए वहाँ पर राज्य-सरकार के द्वारा न्यूनतम
समर्थन मूल्य (MSP), जो केन्द्र सरकार के द्वारा निर्धारित दर से अधिक
होता है, पर सीधे किसानों से मोटे तौर पर धान की ख़रीद की जाती है। यहाँ किसानों को भारतीय खाद्य निगम (FCI) के
हाथों अपनी फसल बेचने की छूट है, लेकिन अधिकांश खाद्यान्न राज्य खाद्य और नागरिक
आपूर्ति निगम को ही बेचे जाते हैं। अन्य
कृषि-उत्पादों: रबर, मसाले, कॉफ़ी और चाय के सन्दर्भ में केरल में भी देश के अन्य हिस्सों
की तरह निगमीकरण किया गया है। इसके
विपरीत, बिहार सरकार कृषि उत्पादों के विपणन को लेकर उदासीन है, उसमें इसके प्रति
गंभीरता का अभाव है।
एमएसपी व्यवस्था को अंगूठा दिखाती
बिहार-सरकार:
द वायर के द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत् हासिल जानकारी के मुताबिक,
विपणन-वर्ष(2020-21) में केन्द्रीय एवं राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों के
द्वारा 61 लाख मीट्रिक टन गेहूँ (बिहार में कुल उत्पादन) में महज 5,000 टन अर्थात्
0.081 प्रतिशत गेहूँ (रबी) की खरीद की गयी, जिसका लाभ महज 1,002 किसानों को मिले। यह आँकड़ा उपभोक्ता मामलों, खाद्यान्न और सार्वजनिक
वितरण के केन्द्रीय मंत्रालय के द्वारा उपलब्ध करवाया गया है। यह बिहार सरकार के द्वारा निर्धारित 7 लाख टन गेहूँ
खरीद के लक्ष्य का भी महज 0.71 प्रतिशत है। आरम्भ में यह लक्ष्य 2 लाख टन
की खरीद का था, पर वर्तमान बिहार सरकार ने कोरोना-संकट के कारण विप्नना में आने
वाली मुश्किलों के मद्देनज़र 7 लाख टन का संशोधित लक्ष्य निर्धारित किया। विपणन-वर्ष 2019-20 में भी महज 2,815 टन की खरीद की गयी थी। इसके
पहले स्थिति थोड़ी-सी बेहतर थी। विपणन-वर्ष
2018-19 में वास्तविक खरीद 17,504
टन थी और विपणन-वर्ष 2017-18 में
20,000 टन, जो कुल गेहूँ-उत्पादन के महज 1 प्रतिशत से भी कम है।
संक्षेप में
कहें, तो पहले बिहार में न्यूनतम मूल्य-व्यवस्था के तहत् अच्छी-खासी खरीद
होती थी, पर पिछले 5-6 वर्षों के दौरान बिहार में गेहूँ की खरीद नगण्य
अर्थात् कुल उत्पादन के 1 प्रतिशत से भी कम के स्तर पर पहुँच चुका है और इस दौरान
बिहार अपनी 80 प्रतिशत खाद्यान्न-ज़रूरतें राज्य के बाहर की गयी खरीद से पूरी करता
है। इसका महत्वपूर्ण कारण पिछले कुछ वर्षों के दौरान बिहार में
खरीद-केन्द्रों की संख्या में तीव्र गिरावट है जो वित्त-वर्ष 2015-16 के 9,000 से कम होकर वित्त-वर्ष 2019-20 में
1,619 रह गया है। इसके परिणामस्वरूप
एमएसपी व्यवस्था तक किसानों की पहुँच अत्यंत सीमित है। इस बार तो लॉकडाउन के कारण निजी फ्लोर मिल एवं
बिस्कुट-उत्पादकों ने भी खरीद से परहेज किया।
कृषि-मण्डियों
के न रहने पर निगरानी-तंत्र ध्वस्त:
जबतक
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियाँ थीं, तबतक इसमें होने वाली खरीद-बिक्री, कारोबार एवं शुल्क-वसूली के नियमन,
निगरानी एवं पर्यवेक्षण के लिए मार्केटिंग बोर्ड होता था जिसमें किसानों, आढ़तियों एवं सरकार के प्रतिनिधि
शामिल होते थे और अनुमण्डलाधिकरी उसके कार्यपालक अधिकारी होते थे। इस बोर्ड में किसानों की स्थिति कमजोर होती थी, फिर भी उनका
प्रतिनिधित्व उन्हें अपने हितों के संरक्षण में कुछ हद तक सक्षम बनाता था। लेकिन,
रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों के भंग होने के बाद किसानों पर बाज़ार का शिकंजा कसता चला
गया और इनकी निगरानी सुनिश्चित करने वाला तंत्र ध्वस्त हो गया।
बिहार के किसानों के हालात:
अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि कृषि-मण्डियों को भंग किये जाने के बाद
बिहार में किसानों को उनकी उपज का जो औसत मूल्य मिला है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य
(MSP) से कम है। यही कारण है कि सन् 2020 के सीजन में खरीददार औए कीमत न मिलने के
कारण बिहार के किसानों को अपना मक्का (900-1000) रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ा, जबकि मक्के का न्यूनतम एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल था। और, यह अपवाद नहीं है। पिछले कई वर्षों से देखा
जाए, तो बिहार सरकार और बिहार प्रशासन न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर खरीद से
परहेज़ करती है और इस क्रम में जान-बूझकर सार्वजनिक खरीद की प्रक्रिया को विलंबित
करती है। मजबूरन किसानों को अपनी फसल खुले बाज़ार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से
(2-3) रुपये प्रति किलो कम की दर पर बेचनी पड़ती है। हालात यहाँ तक पहुँच चुके हैं
कि बिहार के जो किसान सक्षम हैं, वे अपनी उपज लेकर
पंजाब और हरियाणा की मण्डियों तक पहुँच रहे हैं।
और, यह बात केवल बिहार के सन्दर्भ में ही लागू नहीं होती है, वरन् उन
सारे राज्यों एवं क्षेत्रों के सन्दर्भ में लागू होती है जहाँ कृषि मण्डी-व्यवस्था
के प्रभावी तरीके से काम न करने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था
अप्रभावी है। यह बतलाता है कि अगर गैर-सरकारी
कृषि-बाज़ारों का नियमन नहीं किया गया, तो आने वाले समय में इसकी बड़ी
कीमत किसानों को उसी तरह चुकानी होगी, जिस तरह आज एमएसपी पाने के दर-दर भटक रहे
बिहार के किसान चुका रहे हैं। यह बतलाता है कि सरकार किसानों के हितों को दाँव पर
लगा रही है, या तो जान-बूझकर या फिर अनजाने ही। यही कारण है कि तमाम कमियों के
बावजूद किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को
बनाये रखने के लिए एपीएमसी मण्डियों को अनिवार्य मानते हैं। न्यूनतम
समर्थन मूल्य पर आधारित सार्वजनिक खरीद व्यवस्था तभी तक प्रभावी तरीके से काम कर
पायेगी, जब कृषि-उत्पादों के बाज़ार को रेगुलेट करते हुए उसकी प्रभावशीलता
सुनिश्चित की जाए।
पैक्स की व्यवस्था
अप्रभावी:
कृषि-मण्डियों के भंग होने के बाद किसानों से न्यूनतम समर्थन
मूल्य के आधार पर कृषि-उत्पादों की खरीद के लिए राज्य के द्वारा प्राथमिक कृषि-साख
समितियों (PACS) का सृजन किया गया। शुरुआती दौर में तो पैक्स से फ़ायदा था, लेकिन अब
पैक्स की स्थिति नाजुक है क्योंकि न तो सरकारी ख़रीद-लक्ष्य से आगे जाकर पैक्स के
द्वारा धान की ख़रीद की जा सकती है और न ही उसके द्वारा सारे किसानों से धान की
ख़रीद की जाती है। इतना ही नहीं, पैक्स भी बिचौलियों की
गिरफ्त में है और समय के साथ बिचौलिए इस पर भी हावी होते जा रहे हैं। फलतः किसानों को धान की सही कीमत नहीं मिल पा
रही है और जो कीमत भी मिल रही है, उसका भी समय पर भुगतान नहीं हो पा रहा है।
नेशनल काउंसिल फ़ॉर एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के
द्वारा करवाए गए अध्ययन में कहा गया है कि जिस अपेक्षा के साथ पैक्स का
गठन किया गया था, वे अपेक्षाएँ पूरी नहीं हुई। पैक्स प्रभावी तरीके से काम नहीं कर पाया क्योंकि खरीद-प्रक्रिया का
सञ्चालन सीमित समय के लिए होता था और इसके तहत् सीमित मात्रा में खरीद की जाती थी।
ये प्रतिबन्ध मनमाने तरीके से आरोपित किये जाते थे। समस्या यह है कि सरकार पैक्स
को खरीद का लक्ष्य तो देती है, पर इसके लिए पर्याप्त फण्ड नहीं उपलब्ध करवाए जाते
हैं। अबतक का अनुभव यह बतलाता है कि पैक्स में भी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य
नहीं मिल पाता है और समय पर भुगतान भी नहीं हो पाता है। इतना ही नहीं, यहाँ तक
छोटे एवं सीमांत किसानों की पहुँच भी नहीं है और एपीएमसी मंडियों की तरह यह भी
भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है। अक्सर पैक्स और एफसीआई ने ज्यादातर नमी का हवाला देते हुए किसानों से धान खरीदने से इनकार कर
देती है, लेकिन चूँकि किसानों को तत्काल पैसे की जरूरत होती है,
इसलिए वे अपनी फसल स्थानीय व्यापारियों को कम कीमतों पर बेचने के
लिए विवश होते हैं।
यह कहा जा रहा है कि व्यापार-मंडल के माध्यम से
अपनी फसलें बेचने के कारण किसानों को फसल की उचित कीमत मिली, लेकिन ऐसा कुछ
किसानों के साथ ही हो पाया। आर्थिक मामलों के जानकार अब्दुल कादिर ने कहा, “एपीएमसी अधिनियम को खत्म करने से पहले किसान अपनी
उपज को बाजार-समितियों को बेचते थे, जहाँ न्यूनतम मूल्य की
गारंटी थी। लेकिन, इस प्रणाली के निरस्त होने के बाद समुचित, पर्याप्त एवं
गुणवत्तापूर्ण भंडारण-सुविधा नहीं होने के कारण किसानों को अपनी फसल औने-पौने
दामों में बेचनी पड़ी।”
एनसीएईआर की रिपोर्ट,2019:
सन् 2019 में
नेशनल काउंसिल फ़ॉर एप्लाइड इकॉनोमिक रिसर्च के द्वारा करवाए गए अध्ययन में
यह बात सामने आयी है कि बिहार में एपीएमसी मंडियों को भंग किये जाने के बाद
खाद्यान्न कीमतों में अस्थिरता आयी है और इस क्रम में निजी भण्डार-गृह की ओर रुख
करने के कारण भण्डारण-लागत में भी तेजी से वृद्धि हुई है। इसी आलोक में यह रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचती है
कि एपीएमसी मण्डियों वाले राज्यों की तुलना में बिहार में किसानों को उनके
कृषि-उत्पादों की अपेक्षाकृत कम कीमत मिली है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि किसानों को अपने 90 प्रतिशत से अधिक कृषि-उत्पादों को तत्काल नकदी की
ज़रुरत के कारण अपने गाँव में ही स्थानीय कारोबारियों और बिचौलियों के हाथों
औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है।
निवेश और बाज़ार-अवसंरचना के हालात:
बिहार सरकार के द्वारा इन बाज़ार-समितियों को भंग करने के बाद आरम्भ में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मोड पर इन
बाजार-समितियों को विकसित करने की योजना बनाई गयी और इसके लिए एशियन
डेवलपमेंट बैंक (ADB) से करीब 500 करोड़ रुपये के वित्तीयन का प्रस्ताव लाया गया। इसके
लिए तीन साल तक प्रोजेक्ट-रिपोर्ट तैयार किया गया और इस पर कृषि-विभाग ने करीब 6
करोड़ रुपये की राशि भी खर्च की। आरंभ में पीपीपी मोड पर बाजार-समिति
की सरकारी जमीन पर निजी एजेंसियों के माध्यम से भवन-निर्माण किया जाना था। साथ ही,
सरकार के द्वारा निजी जमीन पर इसके विकास के लिए प्रोत्साहन देना था, ताकि बेहतर
बाज़ार-अवसंरचना के विकास को सुनिश्चित किया जा सके।
फिर, इसे ख़ारिज करते हुए सरकार ने खुद 1575 एकड़
से ज्यादा जमीन पर सभी 54 बाजार-समितियों को विकसित करने की
बात की। सरकार का कहना है कि पहले चरण में मुजफ्फरपुर, गुलाबबाग (पूर्णिया) और दरभंगा बाजार समिति को विकसित किया जाएगा, और फिर
चरणबद्ध तरीके से सभी बाजार समितियों को विकसित किया जाएगा। इन बाज़ार-समितियों में
कोल्ड स्टोरेज एवं क्वालिटी टेस्ट लैब सहित आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाएँगी।
विश्लेषण:
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जाय,
तो बिहार के अबतक के अनुभव यह बतलाते हैं कि बिहार में न तो निवेश आया और न ही
निजी कृषि मण्डियों का विकास संभव हुआ, न तो बेहतर बाज़ार अवसंरचना का विकास संभव
हो सका और न ही प्रतिस्पर्धात्मक कृषि-बाज़ार का विकास संभव हुआ। इतना ही नहीं,
कृषि-मण्डियों के भंग होने के कारण बिहार को उस मण्डी-शुल्क, जिनका इस्तेमाल
मण्डियों में बाज़ार-अवसंरचना के विकास के साथ-साथ ग्रामीण अवसंरचना के विकास के
लिए किया जाता रहा है ताकि किसानों की बाज़ार तक आसान पहुँच को सुनिश्चित किया जा
सके, से भी वंचित रह जाना पड़ा, और धीरे-धीरे उन मण्डियों की बाज़ार-अवसंरचनाओं के
क्षरण की प्रक्रिया भी जारी है जो उस समय विद्यमान थी। इससे
जरूरी मार्केटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी हो गई क्योंकि उचित रख-रखाव न होने के
कारण मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर नष्ट हो गया।
इतना ही नहीं, इसने निजी अन-रेगुलेटेड फार्मिंग मार्केट के तेजी
से विस्तार को संभव बनाया जो किसानों और कारोबारियों, दोनों से विभिन्न प्रकार के
शुल्क वसूलते हैं और वह भी बिना किसी अवसंरचनात्मक सुविधा के। अन्य राज्यों में
भी, जहाँ डीरेगुलेशन के ज़रिये निजी कारोबारियों को अनुमति दी गयी है, न तो निवेश
की स्थिति दिखाई पड़ती है और न ही मण्डियों के बाहर किसानों को बेहतर कीमत मिलती
दिखाई पड़ती है।
बढ़ती गरीबी द्वारा इसकी
पुष्टि:
उपभोक्ता-व्यय सर्वेक्षण,2016-17 से सम्बंधित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय(NSO) की लीक रिपोर्ट गरीबी-उन्मूलन के सन्दर्भ में इस ओर इशारा करती है कि हाल के वर्षों में गरीबी-उन्मूलन की प्रक्रिया न केवल अवरुद्ध हुई है, वरन् इसकी दिशा भी परिवर्तित हुई है। जहाँ वर्ष (2011-12) में भारत की 21.90 प्रतिशत आबादी गरीबी-रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही थी, वहीं वर्ष (2017-18) तक आते-आते यह 22.8 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गयी। बिहार के विशेष सन्दर्भ में देखा जाए, तो विवेच्य अवधि के दौरान बीपीएल आबादी का अनुपात 16.7 प्रतिशत की वृद्धि के साथ लगभग 50.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच चुका है। मतलब यह है कि बिहार में हर 2 में से 1 व्यक्ति गरीबी-रेखा से नीचे जीवन जीने को अभिशप्त है। स्पष्ट है कि बिहार की इस बदहाली के मूल में कहीं-न-कहीं किसान और किसानी की बदहाली मौजूद है जिसे एपीएमसी मंडियों के भंग होने और वैकल्पिक एवं प्रभावी विपणन ढाँचे को उपलब्ध करवाने में बिहार सरकार की विफलता के कारण उचित कीमत न मिल पाने की समस्या से सम्बद्ध करके देखा जाना चाहिए।
पार्ट थ्री: किसान-आन्दोलन
और उदासीन बिहार
किसान-आन्दोलन के प्रति बिहार की
उदासीनता:
वर्तमान में नए कृषि-कानून के
विरोध में चल रहे आंदोलनों के आलोक में अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि यह आन्दोलन
मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का आन्दोलन है, न
कि पूरे देश के किसानों का आन्दोलन। जिस तरह से यह आन्दोलन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र
दिल्ली और इसके आसपास के इलाकों में केन्द्रित है और वहाँ पर इसकी तीव्रता अधिक
है, उसे देखकर प्रथमदृष्ट्या इन बातों में सच्चाई भी दिखती है, लेकिन यह इसका एक
पक्ष है, एकमात्र पक्ष नहीं। इसी क्रम में यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि आखिर
बिहार के किसान अपनी दुरावस्था के बावजूद कृषि-सुधारों से बेखबर क्यों हैं और क्या
उनकी चुप्पी की व्याख्या नए कृषि-कानून के प्रति उनके समर्थन के परिप्रेक्ष्य में
की जानी चाहिए?
कृषि-आय की दृष्टि से असमानता:
एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड के स्थिति-आकलन
सर्वेक्षण(Situation Assesment Survey), जनवरी-दिसम्बर 2013 के अनुसार बिहार में
कृषक-परिवार औसतन 42,684 रुपये सालाना आय अर्जित करता है जो प्रति माह करीब 3,557 रुपये
प्रति माह है। इसके विपरीत, पंजाब और हरियाणा में कृषक परिवार की सालाना आय औसतन 2,16,708
रुपये अर्थात् 18,059 रुपये (देश में सर्वाधिक) और 1,73,208 रुपये अर्थात् 14,434
रुपये (क्रमशः) है। पंजाब और हरियाणा के किसान औसत कृषि-आय के मामले में देश में पहले
एवं दूसरे स्थान पर हैं, वहीं बिहार के किसान अंतिम पायदान पर। विशेषज्ञों ने इसके
लिए बिहार की जीवन-निर्वाह कृषि और उचित कीमत सुनिश्चित करने वाले मैकेनिज्म के
अभाव को जिम्मेवार ठहराया है। उनका कहना है कि रेगुलेटेड कृषि मण्डियों के भंग
होने के करीब 14 साल बाद भी आखिर बिहार के किसानों
को अपनी उपज को बेचने के लिए अनुकूल बाजार नहीं मिल
पाया है और किसान अपनी उपज औने-पौने दामों पर निजी व्यापारियों को बेच
रहे हैं। इन सबके बावजूद अगर बिहार के किसान सड़कों पर नहीं हैं, तो इसे
व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रुरत है। यह आलेख उन्हीं कारणों का
विश्लेषण करता है।
जोत
का औसत आकार:
कृषि-संगणना,2015-16
के अनुसार, भारत में जोत का औसत 1.08 हेक्टेयर है।
अगर किसान-आन्दोलन के केन्द्र में मौजूद राज्यों के आलोक में देखें, तो पंजाब में
जोतों का औसत 3.62 हेक्टेयर है, जबकि हरियाणा में 2.22 हेक्टेयर। दिल्ली में यह
1.39 हेक्टेयर है, तो उत्तर प्रदेश जैसे अत्यधिक जनसंख्या के दबाव वाले राज्यों
में भी 0.72 हेक्टेयर। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जोतों के औसत का अंदाज़ा
लगाया जा सकता है जहाँ जनसंख्या का दबाव पूर्वी उत्तर प्रदेश की तुलना में
अपेक्षाकृत कम है और जहाँ के किसान इस आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भागीदारी कर रहे हैं।
इसके सापेक्ष अगर बिहार में जोतों के औसत को देखा जाए, तो यह 0.39 हेक्टेयर है। इसका
कारण कुछ तो बिहार पर जनसंख्या का अत्यधिक दबाव है और कुछ संयुक्त परिवार के विघटन
की प्रक्रिया का तेज होते चला जाना। ऐसी स्थिति में अधिशेष उत्पादन की सम्भावना
मुश्किल है। मतलब यह कि बिहार की तुलना में
पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड के पास जोत-भूमि की
उपलब्धता कहीं अधिक है, और इसीलिए नए कृषि-कानून में उनके हित कहीं अधिक दाँव पर
लगे हुए है।
छोटे एवं सीमान्त
किसानों की बहुतायत:
इसकी पुष्टि आर्थिक सर्वेक्षण (2018-19) से भी होती है, जिसके अनुसार बिहार में
लगभग 91.2 फ़ीसद कृषक परिवार सीमांत हैं जिनके पास एक
हेक्टेयर से भी कम जोत हैं। अगर इसके साथ छोटे
किसानों को भी मिला दें, तो पंजाब और हरियाणा के विपरीत बिहार
में 97 प्रतिशत किसान छोटे और सीमान्त किसानों की श्रेणी में आते हैं जिनमें से अधिकांश के पास बेचने के लिए अधिशेष नहीं
होता है, जिनकी मंडियों तक पहुँच नहीं होती और जिन्हें न्यूनतम समर्थन
मूल्य-व्यवस्था का कवरेज नहीं मिलता है। इसलिए एमएसपी व्यवस्था रहे या जाए, रेगुलेटेड कृषि मण्डियाँ रहे जाए,
प्रत्यक्षतः उन्हें विशेष फर्क नहीं पड़ता है। और, थोड़ा-बहुत फर्क पड़ता भी है, तो उनके अधिशेष की
मात्रा इतनी कम होती है की वे इसे इग्नोर कर देते हैं। इसीलिए प्रो. चौधरी ने कहा
कि बिहार के किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनसे बाज़ार पर
वर्चस्व को बनाये रखने की लड़ाई लड़ने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
कृषि-संगणना,2015-16
राज्य |
सीमान्त किसान |
लघु किसान |
लघु-मध्यम श्रेणी के किसान (2-4 हेक्टेयर) |
मध्यम श्रेणी के किसान (4-10 हेक्टेयर) |
बड़े किसान (10 हेक्टेयर से अधिक) |
बिहार |
91.21 |
5.75 |
2.52 |
0.5 |
0.02 |
उत्तर प्रदेश |
80.18 |
12.63 |
5.51 |
1.58 |
0.01 |
हरियाणा |
49.29 |
19.28 |
17.07 |
11.81 |
2.54 |
पंजाब |
14.13 |
18.98 |
33.67 |
27.93 |
5.68 |
समग्र |
68.45 |
17.62 |
9.55 |
3.80 |
0.57 |
उपरोक्त
आँकड़ों को यदि कृषि-संगणना,2010-11 के सापेक्ष देखा जाए, तो जहाँ बिहार में
सीमान्त किसानों का प्रतिशत 91.06 से बढ़कर 91.21 हो गया और उत्तर प्रदेश में 79.45
प्रतिशत से बढ़कर 80.18 प्रतिशत, वहीं समग्र भारत के सन्दर्भ में सीमान्त किसानों
का प्रतिशत 67.10 से बढ़कर 68.45। जहाँ पंजाब और हरियाणा में क्रमशः
67.28 प्रतिशत और 31.42 प्रतिशत किसान माध्यम या बड़े किसानों की श्रेणी में आते
हैं। इसके विपरीत बिहार के करीब 96.96 प्रतिशत किसान छोटे एवं सीमान्त किसान की
श्रेणी में आते हैं।
भूमिहीन खेतिहर मजदूरों का उच्च
अनुपात:
सामाजिक, आर्थिक एवं जाति जनगणना,
2011 के मुताबिक, बिहार के कुल ग्रामीण परिवारों में से 65 प्रतिशत भूमिहीन हैं, और करीब 70.59 प्रतिशत दिहाड़ी
मजदूर। इसके सापेक्ष अखिल भारतीय स्तर पर यह आँकड़ा क्रमशः
56 प्रतिशत और 51.14 प्रतिशत है। इतना ही नहीं,
बिहार में 54.33 फीसदी भूमिहीन परिवार
अनियमित रूप से मजदूरी करते हैं। जहाँ देश
में 30.10 प्रतिशत ग्रामीण परिवार
जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं, जबकि बिहार में महज 18.42
प्रतिशत ग्रामीण परिवार; और बिहार की ये हालत तब है जब बिहार मूल
रूप से कृषि-प्रधान राज्य है।
जीवन-निर्वाह कृषि का
प्रचलन:
यद्यपि पिछले कुछ दशकों के दौरान
बिहार में भूस्वामित्व की प्रकृति में परिवर्तन आया है और इसका हस्तांतरण अगड़ी
जातियों से मध्यवर्ती जातियों की ओर हुआ है, पर इससे बिहार की खेती-किसानी की मूल
प्र्रकृति में कोई बदलाव नहीं आया है क्योंकि नए भूस्वामी समूह की सोच भी पुराने
भूस्वामी समूहों की तरह ही सामन्ती है। इसीलिए
बिहार की कृषि आज भी जीवन-निर्वाह कृषि ही है। न तो यहाँ की कृषि बाज़ार से जुड़ पाई
है और न ही उसका आधुनिकीकरण एवं तकनीकी उन्नयन सम्भव हो पाया है। बिहार के किसानों
के पास न तो इतनी ज़मीनें हैं कि वे अधिशेष उत्पादन के बारे में सोच सकें और न ही
इतने संसाधन उपलब्ध हैं कि वे इससे सम्बंधित अपनी सोच को ज़मीन पर उतार सकें। और,
इससे भी महत्वपूर्ण यह कि ‘अनुपस्थित भूस्वामित्व’ (Absentee Landlordism) ने बचत
की तमाम संभावनाओं को हतोत्साहित करते हुए बिहार की खेती की जीवन-निर्वाह वाली
प्रकृति को बनाये रखने में मदद की है।
एमएसपी और रेगुलेटेड मण्डियों की
सीमित पहुँच:
जबसे एमएसपी और रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों की व्यवस्था शुरू हुई है,
तबसे फसलों में गेहूँ एवं धान को खरीद में अहमियत मिली है और राज्यों में पंजाब,
हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश को। गेहूँ और धान की खरीद में इन राज्यों का
वर्चस्व हाल-हाल तक बना रहा है, और अगर पिछले डेढ़ दशकों के दौरान इस वर्चस्व को
छत्तीसगढ़, ओडीशा और मध्यप्रदेश की ओर से चुनौती भी मिली है, तब भी इनकी प्रमुखता
बनी हुई है। सरकारी खरीद एजेंसियों के हाथों धान बेचने वाले 9 प्रतिशत हाउसहोल्ड पंजाब से और
7 प्रतिशत हाउसहोल्ड हरियाणा से आते हैं। गेहूँ के सन्दर्भ में 33 प्रतिशत
एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड मध्यप्रदेश से, 22 प्रतिशत पंजाब से और 18 प्रतिशत हरियाणा
से आते हैं। उपभोक्ता मामलों, खाद्यान्न और जन-वितरण से सम्बद्ध मंत्रालय के आँकड़ों
के अनुसार, विपणन-वर्ष 2019-20 में पंजाब ने कुल उत्पादित धान के 88 प्रतिशत धान
और कुल उत्पादित गेहूँ के 71 प्रतिशत गेहूँ की खरीद की। इसी प्रकार हरियाणा सरकार
ने किसानों के द्वारा उत्पादित 87 प्रतिशत धान और 74 प्रतिशत गेहूँ की खरीद की। इसके
विपरीत, बिहार में न तो प्रोक्योरमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित हो पाया है और न ही
प्रभावी प्रोक्योरमेंट मैकेनिज्म। इसलिए एमएसपी के नाम पर यहाँ महज खानापूर्ति
होती है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि बिहार में बड़ी मुश्किल से 3 प्रतिशत
किसान ऐसे हैं जिन्हें मध्यम और बड़ी श्रेणी के किसानों के अन्तर्गत रखा जा सकता
है और जो अधिशेष उत्पादन की स्थिति में हैं। यही
वह समूह है जो एमएसपी व्यवस्था एवं रेगुलेटेड मण्डियों से लाभान्वित हुआ, और इसी
समूह का इन मण्डियों पर वर्चस्व भी था। सन् 2006 में रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों के
भंग होने के बाद इसका व्यापार-मण्डल और पैक्स पर इसी का वर्चस्व स्थापित हुआ। यही
कारण है कि एपीएमसी अधिनियम का व्यापक रूप से बिहार के किसानों पर विशेष असर नहीं
पड़ा।
किसानों में जागरूकता
और एकता का अभाव:
बिहार के किसानों में जागरूकता का
अभाव है और संगठन एवं एकता की कमी है। कृषक-समुदाय
वर्ण, जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर विभाजित है, और इस विभाजन ने किसान के रूप में उनकी पहचान को गौण
कर दिया है। इसी के कारण न तो इनसे सम्बद्ध मसले कभी चुनावी एजेंडा का
हिस्सा बन पाते हैं और न ही ये कभी अपने मसलों पर वोटिंग करते हैं। जब भी ये चुनाव
में जाते हैं, तो ये मूल मसले की बजाय जाति, धर्म और सम्प्रदाय के मसले पर ही
वोटिंग करते हैं।
किसान आंदोलनों और कृषक
नेतृत्व का अभाव:
पिछले 70 वर्षों का अनुभव यह बतलाता
है कि आज़ादी के बाद बिहार किसान-आन्दोलन की दृष्टि से कमजोर रहा है, और यहाँ
किसानों के नेतृत्व का अभाव रहा है। इसके विपरीत, हरित-क्रांति ने पंजाब, हरियाणा
और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कृषक अर्थव्यवस्था को न केवल लाभान्वित किए है, वरन्
वहाँ धनी एवं समृद्ध किसानों के ऐसे समूह को जन्म भी दिया है जो स्थानीय स्तर की
राजनीति में अत्यंत प्रभावशाली हैं और इन्होने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल
अपने आर्थिक हितों को संरक्षित करने के लिए किया है। इसीलिए यहाँ न केवल
कृषि-उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा बोनस देने की परिपाटी लम्बे समय
तक रही है, वरन् उसे व्यावहारिक रूप देते हुए ज़मीनी धरातल पर उतारने के लिए खरीद-अवसंरचना
(Procurement Infrastructure) और
खरीद-मैकेनिज्म विकसित करते हुए उसे खरीद-नीति का समर्थन भी दिया। यही कारण है कि
यहाँ के किसान एमएसपी मैकेनिज्म और रेगुलेटेड कृषि-मंडियों से विशेष रूप से लाभान्वित
हुए। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें इन क्षेत्रों में किसान आंदोलनों की लम्बी
परम्परा रही है और आज़ादी के बाद के सात दशकों के दौरान दक्षिण भारत के साथ-साथ इस
क्षेत्र ने देश को सशक्त कृषक नेतृत्व भी प्रदान किया है। चौधरी चरण सिंह और
महेन्द्र सिंह टिकैत से लेकर देवीलाल, बंसी लाल और भजन लाल तक लम्बी परम्परा रही
है। यही कारण है कि यहाँ के किसान अपने हितों की रक्षा के प्रति कहीं अधिक जागरूक
हैं और आग्रहशील भी। साथ ही, उनमें संगठन और एकता भी कहीं अधिक है।
यही कारण है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य
(MSP) और रेगुलेटेड कृषि-मण्डियों की माँग को लेकर पंजाब-हरियाणा सहित कई राज्यों
के किसान आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन बिहार के किसान सड़क पर
नहीं उतरे हैं।
कृषि-मण्डियों के भंग होने के परिणाम उत्साहवर्द्धक नहीं:
कृषि-अर्थशास्त्री
देविन्दर शर्मा का यह कहना है कि सन् 2006 में बिहार में कृषि-इन्फ्रास्ट्रक्चर
में निजी क्षेत्र के निवेश को आकर्षित करने के लिए एपीएमसी अधिनियम की वापसी ने
वहाँ के किसानों को लाभान्वित नहीं किया, जबकि कहा यह जा रहा था कि इससे प्रभावी
एवं दक्ष विपणन व्यवस्था के विकास के कारण किसानों को उनके उत्पादों की बेहतर कीमत
मिल सकेगी। लेकिन, अन्य
राज्यों के विपरीत बिहार ने न तो अपनी खरीद-मशीनरी को दुरुस्त बनाने की कोशिश की
और न ही सहकारिता, जो राज्य में खरीद के लिए प्राथमिक रूप से उत्तरदायी है, के
विकास की दिशा में गंभीर कोशिश की। इसके
विपरीत, जहाँ पंजाब ने 127 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की खरीद की, वहीँ मध्यप्रदेश ने
129 लाख मीट्रिक टन गेहूँ की खरीद। सन् 2020-21 में मध्यप्रदेश, पंजाब और हरियाणा में देश में कुल
खरीद के 87 प्रतिशत गेहूँ की खरीद हुई, वहीँ गेहूँ के सबसे बड़े उत्पादक उत्तर
प्रदेश में वहाँ के कुल गेहूँ-उत्पादन के महज 10 प्रतिशत गेहूँ की खरीद की गयी। अब हालात यह है कि बिचौलिए बिहार के किसानों
से औने-पौने दामों पर फसलों की खरीद करते हैं, और उन्हें अवैध रूप से
पंजाब-हरियाणा ले जाकर एमएसपी की दर पर बेचते हैं। एक
आकलन के अनुसार, बिहार में (1,000-1,100) रुपये प्रति क्विंटल की दर पर करीब एक मिलियन टन धान (कॉमन ग्रेड) की
खरीद की जाती है और उसे पंजाब ले जाकर 1,868 रुपये प्रति
क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचा जाता है। इस तरह बिहार
में भी किसान बदहाल हैं, और बिचौलिए मालामाल।
कृषक
अर्थव्यवस्था की मूल प्रकृति की भिन्नता:
अर्थशास्त्री प्रो.
नवल किशोर चौधरी बिहार के किसानों की ख़राब हालत के लिए केवल रेगुलेटेड
एपीएमसी मंडियों को भंग किये जाने को जिम्मेवार नहीं मानते हैं। उनका मानना है, “इसकी वजह सिर्फ़ मंडी-व्यवस्था
का ख़त्म हो जाना ही नहीं है। बिहार में अधिकतर किसान सीमांत है और यहाँ तकनीक, सिंचाई की व्यवस्था, भूमि का अधिकार कई ऐसे कारक हैं
जिसका इस बड़ी आबादी के किसानों के साथ सीधा रिश्ता है। इसलिए राज्य में
किसानी पर बात करते वक्त इन सारे कारकों पर भी बात होनी चाहिए, उसे
सिर्फ़ मण्डियों तक ही सीमित मत कर दीजिए।”
प्रो. चौधरी अरविन्द पनगढ़िया के इस तर्क से असहमत
हैं कि कृषि मण्डियों को भंग किए जाने के कारण बिहार की कृषि-विकास दर में तेजी
आयी हैं और इसका लाभ बिहार के किसानों को मिला है। उन्होंने बिहार के किसानों की समस्या
को पंजाब और हरियाणा के किसानों की समस्या से अलगाकर देखते हुए कहा,
“अरविन्द पनगढ़िया कोलंबिया यूनिवर्सिटी से बिहार के किसानों के संकट को नहीं समझ
सकते। बिहार और पंजाब के किसानों में जम़ीन आसमान का
फ़र्क़ है।” उस फर्क की दिशा में संकेत करते हुए वे
कहते हैं कि:
1. पूँजीवादी
खेती बनाम् अर्द्ध-सामन्ती खेती: बिहार में खेती-किसानी की समस्या पंजाब से
बिल्कुल अलग है। पंजाब की खेती पूँजीवादी है, जबकि बिहारी की खेती-किसानी
अर्द्ध-सामंती है। पंजाब में उत्पादन का एकमात्र लक्ष्य है मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़े के लालच का असर वहाँ की मिट्टी और भूजल
स्तर पर भी पड़ा है। बिहार में खेती की
असली समस्या भूमि का स्वामित्व, सिंचाई, तकनीक, श्रम, बाढ़ और सूखा है। बिहार की खेती
वहाँ के किसानों के लिए घाटे का सौदा इसलिए है क्योंकि यहाँ बुनियादी
खेती करने वालों के पास ज़मीन नहीं है, सिंचाई की व्यवस्था नहीं है और
बाढ़-सूखा को लेकर कोई तैयारी नहीं है।
2. अस्तित्व
की लड़ाई बनाम् बाज़ार पर वर्चस्व की लड़ाई: जहाँ बिहार के किसान
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं पंजाब के किसान इस बात की लड़ाई लड़ रहे
हैं कि कृषि-उत्पादों के बाज़ार पर नियंत्रण बेचने वालों का होगा या फिर ख़रीदार का।
उनका
कहना है कि बिहार की खेती-किसानी अर्द्ध-सामंती इसलिए है कि यहाँ भूमि पर
मालिकाना हक़, श्रम को नियंत्रित करने की शक्ति और आर्थिक क्षमता एक
ही वर्ग के पास है। उनका यह भी कहना है कि कृषि-सुधारों की दिशा में मोदी सरकार की
वर्तमान विधायी पहल बाज़ार पर बड़े खरीददारों के नियंत्रण को सुनिश्चित करेगी और
न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था बिना मारे मर जाएगी। उनकी इस बात से सहमत पटना स्थित ए. एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल
स्टडीज से सम्बद्ध अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डी.
एम. दिवाकर भी कहते हैं, “बिहार की खेती-किसानी की असली
समस्या ये नहीं है कि उनके लिए बाज़ार नहीं है, बल्कि समस्या ये है कि यहाँ के
किसानों के पास भूस्वामित्व नहीं है, बाढ़ और सूखा को लेकर
सरकार की कोई योजना नहीं है और सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है।”
स्रोत-सामग्री:
1. बिहार: कृषि मंडियों
को भंग करने के अनुभव, सी. के. मनोज, 7 दिसम्बर,2020
2. बिहारी किसान क्या APMC पर
नीतीश कुमार के फ़ैसले से ग़रीब हुए: रजनीश कुमार: बीबीसी, 12 दिसम्बर,2020
3. कृषि से ही होकर जाता है आत्मनिर्भर भारत का रास्ता: देविन्दर
शर्मा, पंजाब केसरी, 18 अक्टूबर,2020
4. बिहार में 14 साल पहले ख़त्म किया
गया था एपीएमसी एक्ट, किसानों को क्या मिला: सी. के. मनोज, डाउन टू अर्थ, 7 दिसम्बर, 2020
5. The APMC Conundrum: Rolling Back This Reform Will Encourage Vested Interest To
Strike Down All Reform: Arvind Panagariya, TOI, 9th December,2020
6. Corporates Can Help Expand Market Rather Than Driving Out
Mandis: Arvind Panagariya, TOI, 18th December,2020
7. Agriculture Law Need Reform, But Not At The Cost of Small Farmers:
Kaushik Basu-Nirvikar Singh, TOI, 18th
December,2020
8. Bihar
Did Not Meet Even 1% of its Wheat Procurement Target: Dheeraj Mishra and Kabir Agarwal, 15th September, 2020
9. Diluting the APMC, MSP regimes isn’t a good idea, Devinder
Sharma, May 11, 2020
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