केन्द्रीय सूचना आयोग और सूचना का अधिकार कानून: विवाद के साये में
1. केन्द्रीय सूचना आयोग से सम्बंधित विवाद:
a. सूचना आयोग का महत्व
b. वर्तमान स्थिति
c. राज्य सूचना आयोग का वर्तमान परिदृश्य
d. आयोग की स्वायत्तता को सीमित करने की
कोशिश
e. आयोग पर सरकार का बढ़ता दबाव
2. प्रस्तावित सूचना का
अधिकार (संशोधन) विधेयक,2018:
a. सूचना आयोग का महत्व
b. बदलाव की पृष्ठभूमि
c. प्रस्तावित संशोधन
d. सरकार का तर्क
e. बदलाव का औचित्य
f.
विश्लेषण
सूचना आयोग का महत्व:
सूचना का अधिकार कानून के तहत् सूचना आयोग सूचना हासिल करने की दृष्टि से सर्वोच्च संस्थान है, यद्यपि
उसके फैसले को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत् आवेदक सबसे
पहले तत्संबंधित सरकारी विभाग के लोक सूचना अधिकारी(PIO) के पास आवेदन करता है। अगर 30 दिनों में उसे वहाँ से जवाब
नहीं मिलता है, तो वह प्रथम अपीलीय अधिकारी के पास अपना आवेदन भेजता है और अगर
वहाँ से भी उसे 45 दिनों के भीतर जवाब नहीं मिलता है, तो वह राज्य सूचना आयोग और केंद्रीय
सूचना आयोग की शरण लेता है। सतर्क नागरिक संगठन
की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल लगभग (60-80) लाख
लोग सूचना का अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए जानकारी के लिए आवेदन करते हैं।
वर्तमान स्थिति:
सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर कितनी
गंभीर है और इससे सम्बंधित संस्थाओं को मज़बूती प्रदान करने की कितनी गंभीर कोशिश
कर रही है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि मई,2014 से शासन संभालने
के बावजूद वर्तमान सरकार ने दिसम्बर,2018 तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के तमाम दबावों के बावजूद
किसी-न-किसी बहाने सरकार इस नियुक्ति को फरवरी,2019 तक टालती रही। यह कोई अपवाद
नहीं है, वरन् यह ट्रेंड है। इतना
ही नहीं, हाल में उन संस्थानों और उन कानूनों पर हमले लगातार बढ़े हैं जिन पर
पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी है। भ्रष्टाचार और अनियमितता उजागर करने के कारण आरटीआई कार्यकर्ताओं और
ह्विसिल ब्लोअरों पर लगातार हमले हो रहे हैं, फिर भी न तो ह्विसिल ब्लोअर सुरक्षा
अधिनियम को लागू किया गया और न ही लोकपाल की नियुक्ति की गई। यह स्थिति तब है जब नवम्बर,2012 में नमित शर्मा मामले में सुप्रीम
कोर्ट ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि रिक्तियाँ
सृजित होने के कम-से-कम तीन महीने पहले सूचना आयुक्तों की नियुक्ति-प्रक्रिया शुरू
हो जानी चाहिए। यहाँ तक कि इस सरकार के कार्यकाल
के दौरान 24 नवम्बर को मुख्य सूचना आयुक्त आर. के. माथुर के सेवानिवृत्त होने के
बाद केन्द्रीय सूचना आयोग तीसरी बार बिना मुख्य
सूचना आयुक्त के काम कर रहा है। कोर्ट के हस्तक्षेप के बिना मई,2014 से अबतक के
अपने कार्यकाल के दौरान इस सरकार ने एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है और हालत यहाँ तक
पहुँच चुके हैं कि सन् 2016 से अबतक केंद्र सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोगों में रिक्तियों
के बावजूद एक भी सूचना आयुक्त की नियुक्ति नहीं की है और दिसम्बर,2018 के पहले
सप्ताह के उत्तरार्द्ध से ग्यारह सदस्यीय केंद्रीय
सूचना आयोग महज़ तीन सूचना आयुक्तों के भरोसे चल रहा है। मतलब यह कि केन्द्रीय सूचना आयोग में रिक्तियों
की संख्या आठ तक पहुँच चुकी है और सरकार इसका जवाब देने के लिए तैयार नहीं है,
शायद इसलिए कि पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने
निर्देशों के जरिये केंद्र सरकार को लगातार मुश्किलों में डाला है और इसके कारण उसकी किरकिरी हुई है।
राज्य सूचना आयोग का वर्तमान परिदृश्य:
ऐसा नहीं कि सूचना आयोग के सन्दर्भ में यह स्थिति केन्द्रीय सूचना
आयोग तक सीमित है। दरअसल किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो,
सूचनाओं और सूचना आयोग के प्रति उसका रवैया लगभग मिलता-जुलता है। जहाँ आंध्र प्रदेश का
राज्य सूचना-आयोग अब भी एक अदद सूचना-आयुक्त की प्रतीक्षा कर रहा है, वहीं गुजरात, महाराष्ट्र
और नागालैंड जैसे राज्यों में राज्य सूचना-आयोग को अब भी मुख्य सूचना-आयुक्त की
प्रतीक्षा है और उन्हें उनके बिना ही काम चलाना पड़ रहा है। एक ओर सूचना-आयोगों के पास आवेदनों की भरमार है
जिनके समयबद्ध निपटारे की अपेक्षा उनसे है, दूसरी ओर केरल, तेलंगाना एवं पश्चिम
बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों में राज्य सूचना-आयोग क्रमशः 1, 2 और 3 सूचना-आयुक्तों
के भरोसे चल रहे हैं। महाराष्ट्र एवं
कर्नाटक सहित अन्य राज्यों में भी स्थिति बेहतर नहीं है और वहाँ पर सूचना-आयोग को
भारी मात्रा में रिक्तियों की चुनौती से जूझना पड़ रहा है। सूचना-आयुक्तों की
नियुक्ति नहीं होने की वजह से सूचना आयोगों में लंबित अपीलों और शिकायतों की
संख्या बढ़ती जा रही है।
आयोग की स्वायत्तता को
सीमित करने की कोशिश:
इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने अब
केन्द्रीय सूचना आयोग की स्वायत्तता को भी अपने तरीके से सीमित करने की दिशा में
पहल की, ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके और उसके निर्णयों को प्रभावित किया जा सके।
इसके लिए उसने मानसून-सत्र,2018 में सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 में संशोधन करते
हुए सूचना आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं पदावधि की शक्ति अपने हाथों में लेने की
दिशा में पहल की, जिसने नए सिरे से विवाद को जन्म दिया। व्यापक विरोध के मद्देनज़र उस
समय सरकार को इसमें संशोधन का अपना इरादा बदलना पड़ा, लेकिन सत्ता में दोबारा वापस
आते ही इसने जुलाई,2019 में इन संशोधनों को संसद के दोनों सदनों से पारित करने में
सफलता हासिल की। यह सूचना के अधिकार एवं पारदर्शिता को लेकर सरकार के रवैये और मकसद
का संकेत तो दे ही देता है।
आयोग पर सरकार का बढ़ता दबाव:
दिसम्बर,2018 में पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त एम. श्रीधर आचार्युलू ने
राष्ट्रपति का ध्यान केंद्र सरकार की ओर से उत्पन्न उन चुनौतियों की ओर आकृष्ट
किया है जिसका सामना केन्द्रीय सूचना आयोग को करना पड़ रहा है। उन्होंने उस उभरते ट्रेंड की ओर इशारा किया जिसके तहत् सरकारी
संस्थान सूचना के अधिकार कानून के तहत् सूचना माँग रहे नागरिकों और इसके मद्देनज़र
सूचनाओं को उपलब्ध करवाने से सम्बंधित निर्देश जारी करने वाले केन्द्रीय सूचना आयोग(CIC) के खिलाफ रिट याचिकाएँ दायर कर रहे हैं और इसके
जरिये उन्हें डराने-धमकाने के साथ-साथ उन पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। केन्द्रीय सूचना
आयोग के खिलाफ ऐसी ही लगभग 1,700 रिट याचिकाएँ दायर की गई है, जिनमें
से ज्यादातर, सरकार और आरबीआई आदि जैसे उसके संस्थानों
द्वारा दायर की गई हैं। इन याचिकाओं के
जरिये भारत संघ या इससे सम्बद्ध संस्थान केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेशों को यह
कहते हुए चुनौती देता है कि एक सरकारी कर्मचारी की शैक्षणिक योग्यता, उनकी निजी
जानकारी और उसका खुलासा करना उनकी गोपनीयता का अनुचित अतिक्रमण है; इसीलिए आयोग का
यह निर्देश अवैधानिक है और इसे रद्द किया जाय। सूचना आयोग ने जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों के नामों का खुलासा
करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करने को लेकर रिजर्व बैंक को आदेश दिया
था जिसके विरुद्ध रिज़र्व बैंक ने न्यायलय की शरण ली और बाद में न्यायालय ने सूचना
आयोग के उस आदेश को बरक़रार रखा। उन्होंने ‘सार्वजनिक भागीदारी के खिलाफ रणनीतिक मुकदमें’ (SLAAP)
की वैश्विक प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हुए कहा कि ऐसे
मुकदमें का मकसद जीतना नहीं, बल्कि किसी संगठन या एक व्यक्ति के खिलाफ बोलने वाले
लोगों एवं संस्थाओं को प्रताड़ित और भयभीत करना है ताकि उसे ऐसा करने से रोका जा
सके।
सूचना का
अधिकार (संशोधन) विधेयक,2019
बदलाव की पृष्ठभूमि:
सन् 2005 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने ‘सूचना
का अधिकार अधिनियम’ को अंतिम रूप दिया था, जो शासन-तंत्र
और प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित कराने के मामले में विश्व में सबसे अधिक
इस्तेमाल किया जाने वाले कानून के रूप में उभर कर सामने आया है। लोगों के द्वारा
इसका इस्तेमाल तमाम मसलों पर सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा
है। लेकिन, लगातार प्रकाश में आते भ्रष्टाचार के
मामले ने जो दबाव निर्मित किया, जिस तरीके से इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत्
तमाम जानकारियाँ हासिल करने की कोशिश की गयी और इन जानकारियों के कारण सरकार एवं प्रशासन विभिन्न मोर्चों पर जिस तरह घिरते दिखे,
उसके कारण अधिकारियों में भय का माहौल
सृजित हुआ जिससे निर्णय-प्रक्रिया बाधित
हुई।
इस क्रम
में कई बार आरटीआई के प्रावधानों का दुरूपयोग
करते हुए इसका इस्तेमाल अधिकारियों को परेशान करने के लिए किया जाने लगा। इसने एक
ऐसे माहौल को सृजित किया जिसमें आरटीआई को विकास-अवरोध के रूप में देखा जाने लगा
और यूपीए सरकार के समय ही इसमें संशोधन की बात की जाने लगी। यही वह पृष्ठभूमि है
जिसमें वर्तमान में आरटीआई अधिनियम में केंद्र सरकार के द्वारा सूचना-आयुक्तों के
वेतन-भत्तों एवं कार्यकाल में प्रस्तावित बदलावों को देखा जाना चाहिए।
प्रस्तावित संशोधन:
सन्
2018 में संसद के मानसून सत्र में सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक,2018
राज्यसभा में पेश किया गया और इसके जरिये सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 में
संशोधन कर केंद्रीय सूचना-आयुक्तों और राज्य सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्ते और
कार्यकाल से सम्बंधित प्रावधानों में परिवर्तन की पहल की गयी। बाद में इस
प्रस्ताव के चौतरफा विरोध के मद्देनज़र संशोधन-प्रस्ताव को ठण्डे बस्ते में डाल
दिया गया, लेकिन सत्रहवीं लोकसभा-चुनाव में पुनर्निर्वाचन से उत्साहित सत्तारूढ़ दल
ने जुलाई,2019 में संशोधन प्रस्ताव पेश करने के लिए राज्यसभा की बजाय लोकसभा को
चुना और तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए यह सुनिश्चित किया कि संशोधन-प्रस्ताव
दोनों सदनों से पारित हो। अब इसका कानून बनना तय है, बशर्ते राष्ट्रपति इन संशोधनों
को अनुमति दे दें, और राष्ट्रपति की ओर से अनुमति न मिलने की संभावना नगण्य
है।
प्रस्तावित
संशोधनों को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. सूचना-आयुक्तों
के कार्यकाल का निर्धारण सरकार के जिम्मे: सरकार सूचना
आयुक्तों के कार्यकाल में भी बदलाव करने की तैयारी में है। इस अधिनियम के अनु. 13 और अनु. 16 में लिखा है कि कोई भी सूचना-आयुक्त पाँच साल के लिए नियुक्त होगा और वह 65
साल की उम्र तक पद पर रहेगा। मतलब यह है कि सूचना-आयुक्त का कार्यकाल 5 साल का होगा और अधिकतम उम्र-सीमा 65 साल होगी। इसमें जो भी पहले पूरा होगा, वहीं सेवा
समाप्त होगी। लेकिन, संशोधन बिल
में ये प्रावधान है कि अब से केंद्र सरकार यह तय करेगी कि केंद्रीय सूचना-आयुक्त(CIC)
और राज्य सूचना आयुक्त(SIC) कितने साल के लिए पद पर रहेंगे। मतलब यह कि अब सरकार को अपनी सुविधा के अनुसार सूचना-आयुक्तों को
नियुक्त करने एवं हटाने की छूट मिल जायेगी, और इस छूट के कारण सरकार के लिए
सूचना-आयोग एवं सूचना-आयुक्तों पर राजनीतिक दबाव बना पाना आसान होगा।
2. वेतन
एवं भत्तों का निर्धारण सरकार के द्वारा: आरटीआई एक्ट की धारा
13 एवं धारा 15 में केंद्रीय सूचना-आयुक्त और राज्य सूचना-आयुक्तों का वेतन,
भत्ता और अन्य सुविधाएँ निर्धारित करने की व्यवस्था दी गई है। इसके अनुसार:
a. मुख्य सूचना-आयुक्त को
मुख्य चुनाव-आयुक्त के समान वेतन, भत्ता
और अन्य सुविधायें दी जायेंगी।
b. इसी तरह केंद्रीय
सूचना आयोग के सूचना-आयुक्तों और राज्य सूचना-आयुक्तों का वेतन चुनाव-आयुक्तों को दिए जाने वाले वेतन के समान
होंगे।
चूँकि मुख्य चुनाव-आयुक्त और चुनाव-आयुक्त का
वेतन सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होता है, इसीलिए संसद द्वारा निर्धारित के
अनुरूप मुख्य सूचना-आयुक्त, सूचना-आयुक्त और राज्य सूचना-आयुक्त वेतन, भत्ता एवं अन्य सुविधाओं के मामले में सुप्रीम
कोर्ट के न्यायाधीश के बराबर हो जाते हैं। लेकिन, प्रस्तावित संशोधन इस व्यवस्था में बदलाव की दिशा में पहल
करता है और सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्तों के निर्धारण का अधिकार केंद्र सरकार को
प्रदान करता है।
3. निजता
वाले प्रावधान में परिवर्तन: जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा समिति ने आरटीआई कानून के निजता वाले प्रावधान में
परिवर्तन का सुझाव दिया है और इन्हीं सुझावों के आलोक में निजी डाटा
संरक्षण विधेयक, 2018 का मसौदा तैयार किया गया है। मसौदा विधेयक आरटीआई
कानून की धारा 8(1) (J) में संशोधन की बात करता है। सूचना
का अधिकार(RTI) अधिनियम की धारा 8(1J) ऐसी सूचना के खुलासे से छूट देता है जो:
a. निजी सूचना से
संबंधित है, और
b. जिसके खुलासे से
किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित का कोई संबंध नहीं है, या
c. जिससे व्यक्ति की
निजता का अवांछित उल्लंघन होगा।
इसमें कहा गया है कि जबतक केंद्रीय लोक सूचना
अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकार जैसा भी मामला हो, इससे
संतुष्ट न हो कि ऐसी सूचना के खुलासे में व्यापक जनहित है, तबतक इस तरह की किसी भी
जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
सरकार का तर्क:
केंद्र सरकार का यह कहना है कि सूचना का अधिकार कानून को कमज़ोर करने का सवाल ही
पैदा नहीं होता है। अगर ऐसा होता, तो
सरकार इस कानून में संशोधन कर सूचना-आयुक्तों की नियुक्ति हेतु गठित कॉलेजियम में
विपक्षी दल के नेता की जगह सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता से सम्बंधित प्रावधान नहीं
करती। सरकार ने प्रस्तावित संशोधनों को जस्टिफाई
करते हुए कहा कि सन् 2005 में सूचना का अधिकार कानून जल्दबाजी में लाया गया
था और इसीलिए यह दोषपूर्ण है। उसके द्वारा की गयी वर्तमान पहल इस कानून की मौजूदा विसंगतियों
एवं गड़बड़ियों को दुरुस्त करेगी। इन विसंगतियों की और इशारा करते हुए सरकार ने कहा
कि:
1. चुनाव-आयोग से सूचना आयोग की भिन्नता: प्रस्तावित बिल
के ‘स्टेटमेंट ऑफ ऑब्जेक्ट्स एंड रीजन्स’ सेक्शन में यह बताया गया है कि भारतीय चुनाव आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग
की कार्यप्रणालियाँ एकदम भिन्न हैं। जहाँ चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324
की धारा (1) के तहत
एक संवैधानिक संस्था है, वहीं सूचना-आयोग सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के तहत्
स्थापित एक कानूनी निकाय है। चूँकि भारतीय चुनाव आयोग, केंद्रीय
सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं, लिहाजा उनके पद और
सेवा शर्तों को तार्किक बनाए जाने की जरूरत है। इसी आलोक में सरकार सूचना-आयुक्तों
के वेतन एवं भत्तों से सम्बंधित प्रावधान में संशोधन कर इसके निर्धारण की
जिम्मेवारी अपने हाथों में लेना चाहती है।
2. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के समकक्ष लाना:
सरकार का यह कहना है कि इस संशोधन
के जरिए सरकार आरटीआई कानून में मौजूदा ख़ामियों को दूर करने की दिशा में
प्रयत्नशील है, ताकि सूचना आयोग को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के समकक्ष लाया जा
सके। लेकिन, हाईकोर्ट एवं
सुप्रीम कोर्ट से सूचना आयोग के फर्क को समझा जाना चाहिए क्योंकि जहाँ हाई कोर्ट
और सुप्रीम कोर्ट में सरकार के फैसलों को चुनौती दी जा सकती है, वहीं सूचना आयोग
में नहीं।
3. सूचना
हासिल करना आसान: सरकार का यह कहना है कि पूर्ववर्ती सरकार में आरटीआई
आवेदन कार्यालय-समय में ही दाखिल किया जा सकता था, लेकिन अब आरटीआई कभी भी और कहीं
से भी दायर किया जा सकता है।
4.
निजता वाले प्रावधान में परिवर्तन जस्टिस बी. एन.
श्रीकृष्णा समिति के सुझावों के अनुरूप: जहाँ तक निजी डाटा
संरक्षण विधेयक,2018 के मसौदे और इसके सूचना
का अधिकार अधिनियम पर प्रभाव की बात है, तो सरकार निजता के अधिकार और सूचना के
अधिकार अधिनियम में संशोधन से सम्बंधित जस्टिस बी. एन.
श्रीकृष्णा समिति के सुझाव का हवाला
देती हुई इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रही है।
स्पष्ट है कि सरकार की
नज़रों में संशोधन का मकसद आरटीआई अधिनियम को संस्थागत स्वरूप प्रदान करने के
साथ-साथ उसे अधिक व्यवस्थित एवं परिणामोन्मुख बनाना है।
बदलाव का औचित्य:
प्रस्तावित संशोधन-विधेयक से वर्तमान सूचना-आयुक्तों पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ेगा क्योंकि कानूनन उनकी पदावधि
के दौरान वेतन, भत्तों और सेवा-शर्तों में किसी भी प्रकार का अलाभकारी परिवर्तन
नहीं किया जा सकता है। लेकिन, प्रस्तावित
संशोधन केंद्रीय एवं राज्य सूचना-आयोग की स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता के लिए खतरा उत्पन्न
करेगा। फलस्वरूप सूचना-आयोग एक
कमजोर संस्था में तब्दील होकर रह जायेगी और उसके लिए केंद्र सरकार पर दबाव बना
पाना मुश्किल होगा। इसके परिणामस्वरूप शासन-तंत्र एवं प्रशासन में
पारदर्शिता में कमी आयेगी। इसीलिए यह विधेयक
वास्तव में आरटीआई को समाप्त करने वाला विधेयक है क्योंकि संशोधन के पश्चात् सरकार
की ओर से सूचना आयोगों पर राजनीतिक दबाव बढ़ता चला जाएगा।
इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉर्मेशन (NCPRI) ने इन संशोधनों को पारदर्शी और जवाबदेह शासन-प्रणाली
से प्रस्थान बतलाया, वरन् लोकतांत्रिक और प्रगतिशील भारत के लिए प्रतिगामी करार
दिया। एनसीपीआरआई ने अपना विरोध
दर्ज कराते हुए स्वतंत्र और शक्तिशाली सूचना-आयोग की माँग करते हुए कहा,
‘सूचना के अधिकार कानून में कोई संशोधन नहीं होना चाहिए।’ इसीलिए प्रस्तावित संशोधन
केंद्रीय और राज्य सूचना-आयोग की स्वतंत्रता को प्रभावित करेंगे, जिससे ये संशोधन
आरटीआई एक्ट,2005 के मूल उद्देश्य को ही खत्म कर देंगे।
अब अगर इन बदलावों के औचित्य पर विचार
करें, तो इन्हें निम्न सन्दर्भों में प्रश्नांकित किया जाता है:
1. सरकार
के विभिन्न अंगों के संदर्भ में नियंत्रण एवं संतुलन की संवैधानिक अवधारणा के
प्रतिकूल: इस संशोधन-विधेयक के जरिए कार्यपालिका संसद और राज्य
विधानमंडल से सूचना-आयुक्तों के वेतन-भत्ते एवं पदावधि
के निर्धारण के अधिकार को भी छीनना चाहती है जो नियंत्रण एवं संतुलन की संवैधानिक
अवधारणा को भी कमजोर करेगा।
2. संसदीय परम्पराओं एवं प्रक्रियाओं की अनदेखी: प्रस्तावित बदलावों
को लेकर सरकार की मंशा भी संदेह को जन्म देती है क्योंकि केंद्र सरकार ने न तो इस
बात को सार्वजनिक किया है कि वो आख़िर आरटीआई क़ानून में क्या संशोधन करने जा रही
है और न ही इस मसले पर सम्बद्ध हित-समूहों से विचार-विमर्श की आवश्यकता ही समझी, जबकि पूर्व-विधायी
परामर्श नीति (Pre-Legislative
Consultation Policy) से सम्बंधित नियमों
के मुताबिक विधेयक या संशोधन विधेयक लाये जाने की स्थिति उसे संबंधित मंत्रालय या
डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है, उसे अखबारों में भी प्रकाशित
करवाया जाता है और उस पर आम जनता की राय माँगी जाती है। इसलिए सरकार की व्यापक स्तर पर आलोचना हुई जिसने उस पर दबाव निर्मित
किया और अंततः जुलाई,2018 के मध्य में केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार (संशोधन)
विधेयक, 2018 के मसौदे को सार्वजनिक कर दिया। बाद में, इन संशोधनों के व्यापक स्तर पर विरोध
को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस मसले पर अपने कदम पीछे खींच लिए। लेकिन, सत्रहवीं
लोकसभा-चुनाव में भारी सफलता से उत्साहित सरकार ने इसे एक बार फिर से अपना एजेंडा
बनाया और जुलाई,2019 में फिर से संसदीय परपराओं की अनदेखी करते हुए न केवल इसे
संसद में पेश किया, वरन् संसद के दोनों सदनों से इसे पारित भी करवाया।
यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रुरत
है कि 15वीं लोकसभा में 71 प्रतिशत
विधेयक समितियों को भेजे गए थे, जबकि 16वीं लोकसभा में केवल 26
प्रतिशत विधेयकों को संसदीय समितियों को भेजा गया। सत्रहवीं लोकसभा में अभी तक एक भी विधेयक किसी
संसदीय समिति को नहीं भेजा गया है और कई संसदीय समितियों का अभी गठन तक भी नहीं
हुआ है।
3.
सम्बद्ध हित-समूहों
से सलाह-मशविरा नहीं: सरकार सूचना-आयुक्तों के
वेतन-भत्तों के साथ-साथ उसकी पदावधि-संबंधी प्रावधानों में संशोधन करना चाह रही है,
लेकिन इस क्रम में न तो सूचना-आयुक्तों से कोई विचार-विमर्श किया गया है और न ही विशेषज्ञों
एवं आम जनता की राय जानने की कोशिश की गयी।
4. सूचना-आयोग इस तरह की व्यवस्था से युक्त एकमात्र संस्था नहीं: ऐसा
नहीं कि यह दर्ज़ा केवल सूचना-आयोग को मिला है। सूचना
आयोग के अलावा लोकपाल और केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी यही दर्जा प्रदान किया गया
है। ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकार आने वाले समय में केंद्रीय
सतर्कता आयोग और लोकपाल जैसी संस्थाओं के लिए भी इसी प्रकार के संशोधन की दिशा में
पहल करेगी क्योंकि सूचना आयोग की तरह ही इस प्रकार की व्यवस्था केंद्रीय सतर्कता
आयोग और लोकपाल जैसी संस्थाओं में स्वतंत्र कामकाज सुनिश्चित करने के लिए की गयी
है, जहाँ संस्थाएँ तो वैधानिक हैं, लेकिन उनके
पदाधिकारियों के कार्यकाल और अन्य सेवा-शर्तें सांविधानिक संस्थाओं के समान।
5. संघवाद
की भावना के प्रतिकूल: सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में राज्यों की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए उन्हें राज्य मुख्य सूचना-आयुक्तों
की नियुक्ति के लिए अधिकृत किया गया है। इतना ही
नहीं, अब तक सभी राज्यों के सूचना आयुक्तों को राज्य द्वारा वेतन दिया जाता था जिस
पर केंद्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता था, लेकिन नए विधेयक में इस व्यवस्था
को खत्म कर दिया गया है। प्रस्तावित संशोधन-विधेयक
में कहा गया है कि केंद्र राज्य सूचना-आयुक्तों की वेतन-भत्तों और कार्यकाल का निर्धारण
करेगा। इसलिए केंद्र-राज्य के बीच शक्तियों के संतुलित वितरण की अनदेखी के कारण प्रस्तावित संशोधन संघवाद की
भावनाओं के भी प्रतिकूल हैं। इतना ही नहीं,
यह सूचना-आयोग को मिली स्वायत्तता के साथ छेड़छाड़ है, और इसकी पुष्टि
इस बात से होती है कि संशोधन-विधेयक के जरिए केंद्र सरकार सारी शक्तियाँ अपने पास
रखना चाहती है जिससे भारत का लोकतान्त्रिक संघीय ढाँचा कमजोर होगा।
6. संस्थाओं
की स्वतंत्रता, निष्पक्षता एवं स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव: जब इस अधिनियम को
अंतिम रूप दिया जा रहा था, तो इसे विचार-विमर्श के लिए संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया था। स्थायी समिति ने सूचना आयुक्तों के वेतन के
मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए कहा था कि “सूचना आयोग इस अधिनियम का महत्वपूर्ण
अंश है और उस पर अधिनियम के विधायी प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेवारी है,
इसीलिए जरूरी है कि सूचना आयोग अत्यंत स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करे।” इसी आलोक में लिए
समिति के इस सुझाव को संसद ने स्वीकार किया कि “सूचना आयोग की स्वतंत्रता एवं
निष्पक्षता को ध्यान में रखते हुए सूचना आयुक्तों का कद मुख्य चुनाव आयुक्त और
चुनाव आयुक्त के बराबर होना चाहिए।” इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में
सूचना-आयुक्तों की हैसियत सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर है, लेकिन प्रस्तावित
संशोधन उसे उसकी इस हैसियत से वंचित करते हैं और इसके कारण सरकार में उच्च पदों पर
बैठे लोगों को निर्देश जारी करने का उनका अधिकार भी कम हो जाएगा।
7. केन्द्रीय
सूचना आयोग को चुनाव-आयोग से कम महत्वपूर्ण मानना सूचना की अहमियत की अनदेखी: सरकार एवं प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करने के
लिए बड़े घोटाले और लोकसेवकों की संपत्ति से लेकर मानवाधिकार उल्लंघन तक से जुड़ी
सूचनाएँ हासिल करने और उच्च पदों पर आसीन लोगों तक से जवाब माँगने के लिए इस कानून
का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इतना ही नहीं, इसके जरिये लोकतांत्रिक ढाँचे में सत्ता में भागीदारी को सुनिश्चित
करने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी कारण इसकी
अहमियत को समझते हुए सूचना-आयोग और सूचना-आयुक्तों को व्यापक अधिकार दिए गए हैं
जिसके अंतर्गत सार्वजनिक प्राधिकरणों को सूचना देने के लिए निर्देश देना, दोषी अधिकारियों को दंडित करना और सिविल कोर्ट की तरह
व्यक्ति की उपस्थिति सुनिश्चित करने, सुबूत या शपथ-पत्र
दाखिल करने और गवाहों या दस्तावेजों की जाँच के लिए समन जारी करना शामिल है। और, इसी
वजह से सूचना-आयोग के कार्यकाल का निर्धारण किया गया है और चुनाव-आयुक्तों के समान
वेतन-भत्ते एवं सेवा-शर्तों का निर्धारण किया गया है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान
में रखा जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने भी जानने के अधिकार को वोट
देने के अधिकार के समकक्ष माना है और इसे मौलिक अधिकार का दर्ज़ा दिया है। इस अधिनियम के अंतर्गत सूचनाओं तक आम नागरिकों
की पहुँच सुनिश्चित करने की एक व्यावहारिक व्यवस्था है और लोगों को सूचना के
मूलभूत अधिकार की सुरक्षा और सुविधा प्रदान कराने के लिए अंतिम अपीलीय प्राधिकरण के
रूप में सूचना आयोग को अधिकार-संपन्न बनाया गया है।
स्पष्ट
है कि सूचना-आयोग पर भारतीय संविधान के अनु. 19(1a) को
लागू करवाने की जिम्मेवारी होती है, और यही कारण है कि ताकतवर लोगों द्वारा इसे कमजोर करने की लगातार
कोशिशें होती रही हैं। ऐसी स्थिति में इसे चुनाव आयोग से अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मानना
किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
8.
निजी डेटा की प्रस्तावित परिभाषा
अस्पष्ट और असीमित: ऐसा माना जा रहा कि चूँकि निजी डेटा की प्रस्तावित परिभाषा बहुत
व्यापक, अस्पष्ट विस्तृत और असीमित है, इसीलिए प्रस्तावित
परिवर्तन से भ्रष्ट अधिकारियों को सार्वजनिक जाँच से बचने का मौका मिलेगा।
स्पष्ट है कि संशोधन-विधेयक के जरिए
केंद्र सरकार सारी शक्तियाँ अपने पास रखना चाहती है, और इसके माध्यम से सूचना-आयोग
पर अपने राजनीतिक प्रभाव कायम करना चाहती है। इससे आरटीआई एक्ट की ताकत भी खत्म हो
जाएगी, और यह संघवाद एवं लोकतंत्र की ताकत को भी कमजोर करने का काम करेगा। यहाँ पर
इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस अधिनियम के तहत् सूचना-आयुक्तों को
इसीलिए ऊँचा दर्जा और निर्धारित कार्यकाल दिया गया था, ताकि वे अपना काम स्वतंत्र होकर और बिना किसी भय एवं
पक्षपात के तो कर ही सकें, कानूनी प्रावधानों के तहत् बड़े
ओहदेदारों और उनके कार्यालयों को भी निर्देश दे सकें।
अधिनियम की कमियाँ:
ऐसा नहीं कि अपने वर्तमान स्वरुप में सूचना के अधिकार अधिनियम में
कमियाँ नहीं है और उन कमियों पर विचार करते हुए उन्हें दूर नहीं किया जाना चाहिए,
पर आवश्यकता इस बात की है कि इसकी समीक्षा के प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया
जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसा कोई भी संशोधन इसकी मूल
भावनाओं की अनदेखी न करे। एक तो इस कानून के दुरूपयोग को रोकने की दिशा में
अविलम्ब पहल की आवश्यकता है, दूसरे अलग-अलग राज्यों में आरटीआई के अलग-अलग की
व्यवस्था को समाप्त कर उसमें एकरूपता लाई जानी चाहिए। वर्तमान में केंद्र
में प्रथम और द्वितीय अपील को निःशुल्क रखा गया है, लेकिन राज्यों में दोनों
प्रक्रियाओं के लिए शुल्क अदा करना होता है और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग शुल्क
की व्यवस्था है। इसी तरह, अब तक का अनुभव यह बतलाता है कि सूचना-आयोग द्वारा पारित
हजारों आदेशों को मानने से सरकारें, सार्वजनिक प्राधिकरण एवं उनसे सम्बद्ध विभिन्न
विभाग इनकार करते रहे हैं, जिसके कारण सूचना हासिल करने के लिए बारम्बार आवेदन मजबूरी
बन जाती है। इससे आयोग की विश्वसनीयता भी प्रभावित होती है। इसी प्रकार अधिकारियों
की चिंताएँ भी वाज़िब हैं और उनका निराकरण भी अपेक्षित है ताकि वे अनावश्यक दबाव
एवं भय से मुक्त रहकर निर्णय ले सकें।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि स्वतंत्र रूप से निगरानी रखने वाली संस्थाओं की
स्वतंत्रता, निष्पक्षता एवं स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए उन्हें संवैधानिक
संस्थाओं के बराबर दर्जा दिया जाता है ताकि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष रहकर अपने
वैधानिक दायित्वों का निर्वहन कर सकें। सूचना-आयुक्तों के सन्दर्भ
में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके पास सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों
को भी अधिनियम के आदेशों के अनुपालन करने का आदेश देने का अधिकार होता है, लेकिन यदि
प्रस्तावित संशोधन लागू होता है, तो वे आदेश दे पाने और आदेशों का अनुपालन करवा
पाने की स्थिति में नहीं रह जायेंगे। उनके लिए केंद्र
सरकार के राजनीतिक दबावों को नकार पाना मुश्किल होगा और ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता
एवं निष्पक्षता के साथ अपने दयित्वों का निर्वहन भी मुश्किल।
ऐसा माना जा रहा है कि सरकार प्रधानमंत्री डिग्री विवाद, नोटबन्दी पर
रिज़र्व बैंक की बैठक से सम्बंधित जानकारियों के खुलासे, बैंकिंग फ्रॉड से सम्बंधित
रिज़र्व बैंक की सूची, अक्टूबर 2017 में विदेशों से लाये गए काले धन और फर्जी राशन कार्ड के बारे में जानकारी देने के
सन्दर्भ में केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्देशों के कारण इससे नाराज़ है और इसके
कारण सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। इसलिए वह इस संशोधन के जरिये यह सुनिश्चित करना चाहती है कि
आने वाले समय में सूचना आयोग उसके लिए परेशानियाँ न सृजित करे, और यह तभी संभव है
जब सूचना का अधिकार अधिनियम और इसको क्रियान्वित करने वाली एजेंसी केन्द्रीय/राज्य
सूचना आयोग को कमजोर बनाकर उसपर सरकार के प्रभाव को सुनिश्चित किया जाए। सरकार प्रस्तावित संशोधनों के पक्ष में जो तर्क दे रही है,
अबतक के अनुभव उसकी पुष्टि नहीं करते हैं। सन्
(2005-19), अर्थात् पिछले 14 वर्षों का अनुभव यह बतलाता है कि मूल कानून के तहत्
निर्धारित कार्यकाल और शक्तियाँ कानून के प्रभावी क्रियान्वयन में किसी भी तरह की मुश्किलें
नहीं पैदा कर रही हैं। इसके उलट, इसकी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता ने आमलोगों के
लिए नोटबंदी, बैंक-कर्ज न चुकानेवालों के नाम, प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा और उनकी शैक्षणिक योग्यता से जुड़ी जानकारियों
की उपलब्धता सुनिश्चित की है।
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