Friday, 12 July 2019

अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी


अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी
प्रमुख आयाम
1.  अफगानिस्तान का बदलता परिदृश्य
2.     अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा
3.     अमेरिकी निर्णय और तालिबान
4.     वापसी के पक्ष में अमेरिकी तर्क
5.     अफगानिस्तान की प्रतिक्रिया
6.     अफगानिस्तान पर असर
7.     सीरिया की स्थिति अफगानिस्तान से बहुत अलग नहीं
8.     भारत पर असर
9.     भारत की प्रतिक्रिया
10.                        चीनी की प्रतिक्रिया
11.                        भारत और चीन की रणनीति
12.                        विश्लेषण
अफगानिस्तान का बदलता परिदृश्य:
अपनी विशिष्ट भू-सामरिक अवस्थिति के कारण अफगानिस्तान पिछली दो शताब्दियों से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में रहा है अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों में सबसे पहले ब्रिटेन ने 19वीं शताब्दी में अफगानिस्तान में रूचि प्रदर्शित की। फिर 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन के साथ-साथ अमेरिका ने पश्चिम एशिया की ऊर्जा-संभावनाओं के मद्देनज़र अफगानिस्तान में रूचि लेते हुए अपनी कूटनीतिक सफलता को सुनिश्चित करने की कोशिश की। बाद में सन् 1979 में सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया और उसे मुँहकी कहानी पड़ी, और सन् 2001 में वॉर ऑन टेरर के साथ अमेरिका ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, लेकिन कबायली जनजातियों की लड़ाकू प्रकृति और कबायली स्वच्छंदता की भावना के कारण इन सबकी फजीहत हुई है लेकिन, पिछले दशक के दौरान हाँ के हालात काफी बदले हैं, और इन बदले हालातों में अफगानिस्तान का परिदृश्य कहीं अधिक जटिल हुआ है अपने रणनीतिक हितों के प्रति पाकिस्तान की सक्रियता, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उभरते चीन की कूटनीतिक महत्वाकांक्षा एवं इसके परिप्रेक्ष्य में अफगानिस्तान का सामरिक महत्व और अफगानिस्तान के सीमावर्ती देश  ईरान सहित मध्य एशियाई देशों के साथ-साथ भारत के लिए अफगानिस्तान के सामरिक महत्व ने क्षेत्रीय समीकरणों को बदलने में अहम् भूमिका निभाई है। इसी के परिप्रेक्ष्य में अफगानिस्तान के बदले हुए परिदृश्य को समझने की ज़रुरत है।

https://www.geourdu.fr/wp-content/uploads/2015/07/Afghanistan2.jpg
Image Courtsey: geourdu.fr
अब अरब सागर और दक्षिण हिंद महासागर तक पहुँच बनाने की लड़ाई और इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को सुनिश्चित करने का मसला अहम् है। जहाँ चाबहार (ईरान) और ग्वादर (पकिस्तान) जैसे बंदरगाह अरब सागर से जुड़े हैं, वहीं हिंद महासागर में स्थित श्रीलंका, मालदीव, सेशेल्स और मॉरीशस जैसे द्वीपों में चीन की आर्थिक एवं सैन्य पकड़ मजबूत होती जा रही है। ऐसी स्थिति में अमेरिका के लिए अफगानिस्तान एवं पश्चिम एशिया तक सिमटे रहना और चीनी उभार एवं कूटनीतिक सक्रियता की अनदेखी मुश्किल है। इसीलिए अमेरिका की इच्छा थी कि भारत उसके रणनीतिक साझीदार के रूप में अफगानिस्तान में अपनी सैन्य-उपस्थिति सुनिश्चित करे, ताकि अमेरिका अपना ध्यान दक्षिण हिंद महासागर साउथ चाइना सी पर केन्द्रित कर सके। अमेरिका की भारत से यह भी अपेक्षा है कि वह दक्षिणी हिन्द महासागर में मुख्य जिम्मेदारी का निर्वाह करे, क्योंकि जिबूती में जापानी बेस के बावजूद अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की इस क्षेत्र में अपेक्षित मौजूदगी नहीं है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अमेरिका ने पहले एशिया-पेसिफिक और पिछले साल उसकी जगह पर इंडो-पेसिफिक नीति की घोषणा करते हुए उसमें भारत को विशिष्ट स्थान प्रदान किया। बिना अफगानिस्तान और सीरिया से फौजों की वापसी के अमेरिका के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं था।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा:
दिसम्बर,2018 में अमेरिका ने सीरिया के बाद अफगानिस्तान में भी मौजूद अपनी आधी फौज अर्थात् 7,000 अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के संकेत दिए हैं यह 17 साल से अफगानिस्तान में चल रहे ‘आतंक के विरुद्ध युद्ध’ (War on Terror) को समाप्त करने की अमेरिकी मुहिम का हिस्सा है, यद्यपि जुलाई,2019 में अमेरिकी अधिकारी ने इस बात से इनकार किया कि वॉशिंगटन ने अफगानिस्तान से अपने 14,000 सैनिकों की वापसी के लिए समय-सीमा निर्धारित करने की माँग पर बल दिया है। दोहा में अमेरिकी वार्ताकार दल ने बताया कि अमेरिका ने शांति-समझौते के तहत् 18 महीने में वापसी के लिए पेशकश नहीं की है ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान में मौजूद 14,000 अमेरिकी सैनिकों का काम अफगानी फौज को ट्रेनिंग देने से लेकर इस्लामिक स्टेट्स  और अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों के ख़िलाफ़ अफगानिस्तान के अभियान में उन्हें सलाह देने का है
अमेरिकी निर्णय और तालिबान:
अमेरिका के द्वारा जिस तरीके से एकतरफा घोषणा की गयी, उससे इस आशंका को बल मिलता है कि कहीं अमेरिका तालिबान के साथ आपसी समझ बनाकर काम तो नहीं कर रहा है, अन्यथा ऐसे समय में ऐसी पहल का क्या औचित्य है जब शांति-वार्ता प्रक्रिया चल रही है। यह पहल तालिबान के मनोबल को बढ़ने वाला साबित होगा, और शांति-प्रक्रिया में तालिबान के लिए अपनी शर्तों पर समझौते को सुनिश्चित कर पाना संभव हो पायेगा। स्पष्ट है कि अमेरिका की इस घोषणा ने तालिबान को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि वह अफगान शांति-प्रक्रिया से दूर रहते हुए अमेरिकी सैनिकों की वापसी की प्रतीक्षा करे, और इसका अवसर के रूप में इस्तेमाल करते हुए अफगानिस्तान में अपने प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार पर ध्यान केन्द्रित करे  
वापसी के पक्ष में अमेरिकी तर्क:
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि सीरिया में वर्षों से आतंकवादी समूह इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ रही अमेरिकी सेना को अब घर वापस बुलाने का वक्त आ गया है। व्हाइट हाउस का कहना है कि सीरिया से सैनिकों को वापस बुलाने का ट्रंप का फैसला उनकी नीतियों के अनुरूप है क्योंकि युद्ध से जर्जर देश में अमेरिकी सैनिकों का मुख्य कार्य आईएस को हराना था, न कि वहाँ के गृहयुद्ध की समस्या का समाधान। इसी आलोक में आईएस जिहादियों की हार की घोषणा करते हुए ट्रंप ने अपनी जीत का दावा किया।
अफगानिस्तान की प्रतिक्रिया:
अफगानिस्तान सरकार ने अमेरिकी निर्णय के प्रति अपनी आधिकारिक प्रतिक्रिया में कहा है, ‘‘अगर वे अफगानिस्तान से जाएँगे, तो इससे अफगानिस्तान के सुरक्षा-परिदृश्य पर असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि पिछले साढ़े चार साल में अफगानों का पूरा नियंत्रण हो गया है।’’ उनका तर्क है कि अफगान की सेना ने सन् 2014 में एक लाख नाटो सैनिकों की वापसी के बावजूद अफगानिस्तान की परिस्थितियों को बखूबी सम्भाला मतलब यह कि अफगानिस्तान का यह मानना है कि वहाँ से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से इस युद्ध-ग्रस्त देश की सुरक्षा पर असर नहीं पड़ेगा।
अफगानिस्तान पर असर:
भले ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से वापसी का संकेत दिया हो, परंतु स्थिति अभी ऐसी नहीं बनी है कि अफगानी सैनिक तालिबान का सामना कर सकें आँकड़े भी न तो अमेरिकी दावों की पुष्टि करते हैं और न ही अफगानिस्तान सरकार के दावों की कारण यह कि अमेरिकी फौज ने सन् 2014 में सीधे तौर पर सैन्य-अभियानों में हिस्सा लेना बंद कर दिया, और इसके बाद से अबतक 25,000 अफगानी जवानों को अपनी जानें गँवानी पड़ी है यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव उससे कहीं अधिक है, जितना वर्तमान में दिख रहा है कारण यह कि अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी रणनीति बदल ली है और अब वह सरकार के नियंत्रण वाले शहरी क्षेत्रों में सीधी टकराहट और राज्य-शक्ति के प्रतीक संस्थानों पर हमले से बचते हुए संसाधनों (कर-संग्रह, स्कूलों को फिर से खोलना, सख्ती से त्वरित न्याय को सुनिश्चित करना) पर नियंत्रण को प्राथमिकता दे रहा है, और इन संसाधनों का अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी की स्थिति में इस्लामिक स्टेट्स, अलकायदा और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के ख़िलाफ़ अफगान की फौज कितनी कारगर साबित होगी? ऐसे में अमेरिकी सेना की वापसी अफगानिस्तान के लिए नयी चुनौती खड़ी कर देगा इसके कारण अफगानिस्तान के सामने मुख्य रूप से तीन चुनौतियाँ उत्पन्न होंगी: 
1.  अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान का मनोबल ऊँचा होगा और अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार पर तालिबान की ओर से दबाव बढ़ता चला जाएगा जिसका सामना करना उसके लिए बहुत ही मुश्किल होगा।
2.  बदलती परिस्थिति में तालिबान के जरिये पाकिस्तान अफगानिस्तान को पने प्रभाव में लेता हुआ वहाँ के शासन-प्रशासन पर अपना दबदबा कायम करने की कोशिश करेगा।
3.  इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि इराक एवं सीरिया से इस्लामिक स्टेट्स के बचे-खुचे आतंकियों के लिए अफगानिस्तान एक सुरक्षित पनाहगाह बन जाए।
जहाँ तक अफगानिस्तान पर अमेरिका के इस कदम के असर का प्रश्न है, तो यह बहुत हद तक वापसी की प्रक्रिया और वापसी की प्रकृति पर निर्भर करेगा अगर अमेरिका की वायु-सैनिक सहायता पूर्ववत जारी रहती है और अमेरिका उन सैनिकों को वापस बुलाने की दिशा में पहल करता है जो अफगानी सैनिकों के प्रशिक्षण एवं क्षमता-निर्माण की प्रक्रिया में लगे हैं, तो वापसी का असर अपेक्षाकृत कम और क्रमिक होगा। लेकिन, यदि अमेरिकी फौजों की वापसी में अमेरिकी वायु-सैनिकों को प्राथमिकता दी जाती है, तो यह अफगानिस्तान की शांति एवं स्थिरता को तात्कालिक एवं दीर्घकालिक, दोनों ही स्तरों पर प्रभावित करेगा और इस समस्या का अविलम्ब हल ढूँढना होगा। दूसरी बात यह कि अमेरिकी समर्थन की वापसी का फंडिंग अंतरालों पर क्या असर होगा? इन दोनों स्तरों पर भारत ईरान, रूस एवं जापान जैसे क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित कर सकता है कि अफगान सैन्य-बालों को संसाधनों की किल्लत का सामना नहीं करना पड़े।   
सीरिया की स्थिति अफगानिस्तान से बहुत अलग नहीं:
अमेरिकी निर्णय के बाद अफगानिस्तान की वही स्थिति है जो स्थिति सीरिया की है दोनों ही जगहों से वहाँ की समस्या के समाधान के बिना ही अमेरिका ने अपनी फौज को वापस बुलाने का निर्णय लिया अमेरिकी सैनिकों की मदद से सीरियन कुर्दों ने बहुत हद तक इस्लामिक स्टेट्स का सफाया करते हुए उत्तर-पूर्वी सीरिया पर अपने प्रभुत्व को पुनर्स्थापित तो किया है, पर सीरिया की समस्या का अंतिम समाधान अभी बाकी है। सीरिया के सन्दर्भ में अमेरिका का तर्क यह है कि टर्की के राष्ट्रपति इर्दोगन ने इस्लामिक स्टेट्स के बचे हुए लड़कों के सफाए का वादा किया है। मतलब यह कि बड़ी चालाकी से अमेरिका ने अपना सिरदर्द टर्की के हवाले कर दिया।
अब समस्या यह है कि इराक़, ईरान और टर्की में से किसी के लिए भी अर्द्ध-स्वतंत्र कुर्द एन्क्लेव स्वीकार्य होगा, इसमें सन्देह है क्योंकि इससे इन देशों की कुर्दिश आबादी में अलगाववादी भावनाओं को बल मिलेगा। इसलिए सीरियाई राष्ट्रपति असद और टर्की नहीं चाहेंगे कि उन दोनों के बीच स्वायत्त कुर्द एन्क्लेव का सृजन हो, जबकि कुर्द इसी लोभ में अमेरिका का समर्थन कर रहे थे और उनके पक्ष में खड़े थे। इस प्रकार जिस तरह अमेरिका ने सीरिया में स्थानीय खतरों का सामना करने के लिए सीरियन कुर्दों का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें भाग्य के भरोसे छोड़ दिया, उसी तरह अफगानिस्तान में भारत और अफगान सरकार को भी बीच मंझधार में छोड़ दिया यह एक प्रकार से इराक़ के घटनाक्रमों की पुनरावृति है जहाँ अमेरिका ने सद्दाम के विरुद्ध कुर्दों का इस्तेमाल किया, और फिर उनसे पल्ला झाड़ते हुए चल पड़ा 
इसके अतिरिक्त, सुन्नी आबादी और शेष बचे विद्रोही एवं जेहादी समूहों का संघर्ष इद्लिब में जारी है, और इनके विरुद्ध संघर्ष में राष्ट्रपति असद को रूस, ईरान एवं टर्की का साथ मिल रहा है। ऐसी स्थिति में अमेरिका के इस कदम का मतलब सीरिया के भविष्य को इनके भरोसे छोड़ना होगा। उधर, इजराइल हिजबुल्लाह के खतरों के मद्देनज़र किसी भी स्थिति में सीरिया की भावी राजनीतिक व्यवस्था में ईरान के प्रभाव को न्यूनतम स्तर पर सुनिश्चित करना चाहेगा।  
भारत पर असर:
ऐसी संभावना जताई जा रही है कि अमेरिकी फौज की वापसी के कारण अफगानिस्तान में एक ऐसा राजनीतिक शून्य सृजित होगा जिसे भरने के लिए क्षेत्रीय शक्तियों: भारत, पाकिस्तान, ईरान, चीन एवं रूस की सक्रियता बढ़ेगी। अब समस्या यह है कि पाकिस्तान और चीन की रणनीतिक जुगलबंदी भारत के लिए पहले से ही परेशानी का सबब रही है, और अब चीन पाकिस्तान के माध्यम से अफगानिस्तान में भी अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए अमेरिकी सैनिकों की वापसी द्वारा सृजित शून्य को भरना चाहेगा। ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की भूमिका रंभ से ही पाकिस्तान एवं चीन को खटकती रही है, और अब बदले हुए परिदृश्य में अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में पाकिस्तान का साझेदार बनकर चीन अपने आर्थिक एवं सामरिक हितों को साधने की कोशिश करेगा। चीन की इस आकांक्षा की पूर्ति में मददगार साबित होगा तालिबान, जिसके पाकिस्तान और यहाँ तक कि चीन के साथ भी अच्छे ताल्लुकात हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि अमेरिकी फौज की वापसी अफगानिस्तान के वर्तमान नेतृत्व की रणनीतिक स्थिति को कमजोर करेगी, और इसकी पृष्ठभूमि में तालिबान को अपने प्रभाव के विस्तार का मौक़ा मिलेगा। इस बात की पूरी संभावना है कि अमेरिकी पहल के कारण उसके लिए आने वाले समय में स्थितियाँ आसान होंगी और वह अपने खोये हुए प्रभुत्व की पुनर्स्थापना करेगा। इससे भारत के लिए अफगानिस्तान के सीमावर्ती इलाके से पाकिस्तान और उसके द्वारा समर्थित कट्टरपन्थी आतंकी समूहों पर दबाव बनाये रख पाना मुश्किल होगा।  इतना ही नहीं, अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से कश्मीर घाटी में सक्रिय जेहादी-तत्वों को बल मिलेगा और उन्हें सीमा-पार से सहयोग की संभावना भी बढ़ जाएगी। इसके कारण कश्मीर-घाटी में भी भारत की सामरिक मुश्किलें बढेंगी और यह कश्मीर के परिदृश्य को और अधिक जटिल बनाएगा। स्पष्ट है कि अमेरिका का यह निर्णय भारत के लिए चुनौती है क्योंकि अमेरिकी वापसी अफगान-प्रशासन में तालिबान एवं पाकिस्तान के प्रभाव के विस्तार का मार्ग प्रशस्त करेगी जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल होगा।
समस्या सिर्फ इतनी नहीं है। समस्या यह भी है कि अमेरिका-ईरान टकराव का असर भारत-ईरान सम्बन्ध पर भी पड़ रहा है और अमेरिका की ओर से भारत पर इस बात का दबाव है कि वह ईरान से तेल का आयात बन्द करे। इसलिए भारत के ईरान के साथ संबंधों में भी तनाव के लक्षण दिख रहे हैं, जबकि ईरान भारत के लिए भू-सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह न केवल अफगानिस्तान के मामले में एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय खिलाड़ी है, वरन् भारत की ऊर्जा-सुरक्षा के साथ-साथ   अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया तक पहुँचने और अफगानिस्तान में पाकिस्तानी प्रभाव में वृद्धि की संभावनाओं को प्रति-संतुलित करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है
इसीलिए भारत के लिहाज से अफगानिस्तान की स्थिति काफी चिंतित करने वाली है, क्योंकि उसकी चिंताओं पर न तो रूस, जिसे उसने खुद ही हाशिये पर धकेला है, ध्यान दे रहा है और न ही अमेरिका। भले ही अभी भी साढ़े सात हजार से अधिक अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात रहेंगे, लेकिन अमेरिका जिन हालात में यहाँ से कदम पीछे खींच रहा है, उससे कुछ अहम सवाल खड़े होते हैं। अमेरिकी फौज की वापसी और अमेरिकी भूमिका में कमी के साथ क्षेत्रीय भू-राजनीति केंद्र में आ जाएगी, और अफगानिस्तान के खेल में कुछ नए खिलाड़ी उभरेंगे
भारत की प्रतिक्रिया:
अमेरिका की इस घोषणा से भारत खुद को ठगा महसूस का रहा है, क्योंकि सन् 2001 में तालिबान-शासन के अंत के बाद एक साझेदार के रूप में अमेरिका एवं भारत ने अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित कर स्थिर सरकार कायम करने की कवायद शुरू की थी, और उसे मजबूती प्रदान करने के लिए अफगानिस्तान के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पुनर्निर्माण हेतु साझा प्रोजेक्ट की दिशा में पहल की। लेकिन, अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी इस एकतरफा घोषणा के जरिये भारत को उसी मोड़ पर पहुँचा दिया जहाँ ईरान के साथ न्यूक्लियर डील को ख़ारिज करते हुए पी-5 देशों को। उन्होंने इतना महत्वपूर्ण निर्णय लेने के पहले अपने साझीदार भारत से औपचारिक विचार-विमर्श की ज़रुरत भी नहीं महसूस की।  
चूँकि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी की संभावना प्रबल है, इसीलिए वहाँ भारत के लिए गुंजाइश घटेगी। इसीलिए भारत ने अमेरिका से कहा है कि अफगानिस्तान में शासन के लिए निर्वाचित राजनीतिक ढाँचा स्थापित होने के पहले उसे वहाँ से अपने सैनिकों को वापस नहीं बुलाना चाहिए। भारत का कहना है कि जब अमेरिका युद्ध-ग्रस्त देश से अपने सैनिकों को हटाता है तो भारत की प्राथमिकता काबुल में एक निर्वाचित सरकार का गठन है न कि कोई अंतरिम व्यवस्था। इसलिए भारत इस बात के लिए अमेरिका पर दबाव बनाने की की कोशिश में लगा है कि वह अफगानिस्तान से सेना की वापसी के मसले पर जल्दबाजी न करते हुए पुनर्विचार करे, यद्यपि इस बात की संभावना कम है कि अमेरिका ऐसा करेगा।
चीनी की प्रतिक्रिया:
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की जल्द वापसी के बारे में चिंता प्रकट करते हुए चीन ने कहा है, अमेरिकी अफगानिस्तान में 17 वर्षों से हैं। यदि वे अफगानिस्तान को छोड़कर जा रहे हैं, तो उन्हें यह कदम क्रमिक रूप से और पूरी जिम्मेदारी से उठाना चाहिए। उसने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि अगर अमेरिका के अफगानिस्तान से हटते ही वहाँ गृह-युद्ध भड़क गया, तो सबसे पहले प्रभावित होने वाले देशों में पाकिस्तान, चीन और उसके बिल्कुल करीबी पड़ोसी शामिल होंगे। अब समस्या यह है कि भारत की जो चिंता कश्मीर के सन्दर्भ में है, वही चिंता चीन की शिनजियांग प्रान्त के सन्दर्भ है ध्यातव्य है कि अफगानिस्तान की सीमा पर पश्चिमोत्तर चीन में स्थित और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण शिनजिंयांग प्रांत में तुर्की भाषी जातीय अल्पसंख्यक समुदाय उइगुर का वर्चस्व है।
इतना ही नहीं, चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव(BRI) के तहत् इस क्षेत्र में जो निवेश कर रखा है, उस निवेश की सुरक्षा को लेकर चीन चिंतित है। अपनी इन्हीं सामरिक एवं आर्थिक चिंताओं के कारण चीन ने सन् 2000 में चीन ने उइगुर विद्रोहियों को तालिबान की ओर से मिलने वाली सहायता बंद करवाने के लिए तालिबान के साथ समझौता किया, तो फरवरी,2018 में चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर(CPEC) की सुरक्षा के मद्देनज़र बलूच आतंकवादी गुट के साथलेकिन, अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वह दबाव समाप्त होगा जिसके कारण इन आतंकी संगठनों ने चीन के प्रति नरम रुख अपनाते हुए उसके साथ समझौता किया था इतना ही नहीं, अगर इन तत्वों पर प्रभावी तरीके से अंकुश नहीं लगाया गया, तो इससे इस क्षेत्र में इस्लामिक कट्टरपंथ के उभार को भी बल मिलेगा जिसका असर चीन के शेनजियांग प्रान्त और वहाँ चलने वाले इस्लामिक पुनरोत्थानवादी आन्दोलन तक दिखेगा इसके अलावा, सीरिया से 10,000 से ज्यादा उइगुरों की वापसी के बाद चीन अल-कायदा की मदद से शिनजियांग प्रान्त में उनके दाखिले को लेकर आशंकित है। ऐसे में कोई भी अमेरिका-तालिबान संधि ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट(ETIM) को पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर बनाएगी। यह गुट, अमेरिका-तालिबान संघर्ष-विराम और अमेरिकी वापसी का अपने हित में इस्तेमाल करते हुए मध्य एशिया, अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र तथा तुर्की और सीरिया के बीच के सीमावर्ती क्षेत्रों में पुनर्गठित हो रहे आतंकवादियों का रुख चीन के खिलाफ कर सकता है और उन्हें शिनजियांग प्रान्त की ओर मोड़ सकता है। इसीलिए चीन को आशंका है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में ऐसे आतंकवादी गुट फिर से सिर उठाने लगेंगे।
हालाँकि, तालिबान ने अमेरिका को इस बात के लिए आश्वस्त किया है कि वह न तो अल-कायदा से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखेगा और न ही उन्हें किसी भी प्रकार से समर्थन उपलब्ध करवाएगा। साथ ही, वह किसी को भी अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल अमेरिका और उसके दूतावासों के खिलाफ नहीं करने देगा। लेकिन, उस पर भरोसा करना किसी के लिए भी खतरे से खाली नहीं है। चीन की चिंता इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में चीन-विरोधी आतंकवादियों का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान किस हद तक संघर्ष करेगा। चीन के लिए बेहतर यही होगा कि वह अपनी आर्थिक और सुरक्षा-चिंताओं के लिए सामान्य तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ और खास तौर पर भारत के साथ मिलकर कार्य करे, ताकि आतंकवाद की बुराई से दक्षिण एशिया की रक्षा की जा सके।
भारत और चीन की रणनीति:
भारत और चीन, दोनों ही अपने-अपने तरीके से अफगानिस्तान के बदलते हुए परिदृश्य के साथ तालमेल बैठाने और अपने स्मारिक हितों को साधने की कोशिश में लगे हैं। जहाँ चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे(CPEC) चीन के शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के जरिए अरब सागर से जोड़ता है, वहीं भारत के द्वारा विकसित नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर(NSTC) ईरान को अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया से जोड़ता है और चारों ओर स्थलीय सीमा से घिरे मध्य एशियाई देशों को चाबहार बंदरगाह के रास्ते अरब सागर से। लेकिन, भारत के नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर को अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व की दरकार है। लेकिन, समस्या यह है कि इस क्षेत्र में भारत ही तालिबान का सबसे मुखर विरोधी है, और इस मामले में उसके हित कुछ हद तक ईरानी हितों से जुड़ते हैं। अगर अफगानिस्तान में तालिबान का प्रभाव-क्षेत्र एक बार फिर से कायम होता है, तो भारत की मुश्किलें बढेंगी और वहाँ पर भारत के लिए सीमित होती गुंजाइश के कारण बुनियादी ढाँचे के विकास का काम भी प्रभावित होगा।
इसके विपरीत, चीन और पाकिस्तान अपने रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिए तालिबान को सत्ता में लाना चाहेंगे और अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को सीमित करना चाहेंगे क्योंकि इससे चीन के लिए भारत की आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना भी आसान हो जाएगा। रूस इस मामले में चीन की राह चल रहा है, मगर उसकी समस्या यूरोप को लेकर है। लेकिन, रूस और चीन के लिए राहें इतनी आसान भी नहीं हैं क्योंकि रूस स्वयं चेचेन्या प्रान्त में और चीन शिनजियांग प्रान्त में इस्लामिक कट्टरपंथी अलगाववाद की चुनौती से उसी प्रकार जूझ रहा है जिस प्रकार भारत कश्मीर में।
विश्लेषण:
भले ही, अमेरिका का घोषित उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अफगानिस्तान अपनी ख़ुद की फ़ौज पर ज़्यादा निर्भर हो सके और पश्चिमी सहयोग पर उसकी निर्भरता कम हो; पर उसके इस निर्णय ने अफगान-समस्या को और अधिक उलझा दिया है। दरअसल, अमेरिका पश्चिम एशिया में बुरी तरह से उलझ चुका है, प्रश्न चाहे इराक़ का हो, सीरिया का हो, या फिर अफगानिस्तान का। इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है, और समय के साथ आर्थिक दबाव बढ़ता चला जा रहा है। और, अपनी सारी ऊर्जा झोंकने के बावजूद अमेरिका इस संघर्ष को तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा पा रहा है। उधर, हिन्द महासागर और दक्षिणी चीन सागर में चीन की बढ़ती हुई सक्रियता ने अमेरिका को अपनी सामरिक रणनीति पर पुनर्विचार के लिए विवश किया है। इसी आलोक में अमेरिका ने एशिया-पेसिफिक नीति की घोषणा की और यह संकेत देने का प्रयास किया कि वह अब वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में आने वाले बदलावों के आलोक में अपनी रणनीति में परिवर्तन कर रहा है और पश्चिम एशिया तक सिमटे रहने की बजाय वह एशिया के साथ-साथ पेसिफिक क्षेत्र में भी अपनी मज़बूत एवं प्रभावी उपस्थिति सुनिश्चित करना चाहता है। अब तो एशिया-पेसिफिक की जगह इंडो-पेसिफिक की बात हो रही है, जो इस बात की ओर इशारा करती है कि अब अमेरिका की नज़रों में चीन सबसे बड़ी चुनौती है और इस चुनौती से निबटने के लिए वह अपना ध्यान इंडो-पेसिफिक पर केन्द्रित करने जा रहा है जिसमें भारत की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण होने जा रही है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि सीरिया एवं अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी अमेरिका की इंडो-पेसिफिक रणनीति की तार्किक परिणति है।       
जहाँ तक भारत के रुख का प्रश्न है, तो आज भले ही भारत की भौगोलिक सीमा अफगानिस्तान से न लगती हो, किंतु अफगानिस्तान के विकास में उसका अहम योगदान बना हुआ है, और अफगानिस्तान में पाकिस्तान एवं चीन का बढ़ता प्रभाव उसके लिए चिंता का सबब हैआवश्यकता इस बात की है कि भारत अफगानिस्तान के बदले हालात को गंभीरता से ले और आनेवाली चुनौतियों को अवसर के रूप में बदलने के लिए कूटनीतिक सक्रियता दिखलाए। साथ ही, भारत को इस बात को समझना होगा कि अफगानिस्तान में तालिबान की मजबूती से चीन एवं रूस, और यहाँ तक कि पाकिस्तान को भी उतना ही खतरा है जितना भारत को, क्योंकि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के कारण सारे सम्बन्ध पुनर्परिभाषित होंगे। इसलिए भारत को ईरान, रूस एवं चीन के साथ विचार-विमर्श की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए और तालिबान के प्रति अपना नजरिया बदलते हुए उसे भी इंगेज करने की कोशिश करनी चाहिए। भारत का बदला हुआ नजरिया न केवल भारत के समक्ष उपस्थित होनेवाली सामरिक मुश्किलों को कम करेगा, वरन् अफगान सरकार और तालिबान के बीच सामंजस्य स्थापित करता इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता की बहाली में भी सहायक होगा। लेकिन, किसी भी स्थिति में भारत को सैन्य-हस्तक्षेप से परहेज़ करना चाहिए। 



No comments:

Post a Comment