गुजरा हुआ
ज़माना आता नहीं दोबारा!
(गुरुदेव स्वर्गीय लड्डू लाल चौधरी
की स्मृति में)
ज़िंदगी की गति इतनी तेज़ हो चुकी है, या फिर ऐसी
ज़िंदगी चुन ली है मैनें कि यह आपको सुकून के वो पल उपलब्ध करा पाने में असमर्थ है
जिसमें आप अपने अतीत में झाँक सकें, और उसे फिर से दोबारा जीने की जहमत मोल सकें। कभी-कभी खीझ-सी उत्पन्न होती है इस ज़िंदगी पर।
कल अर्थात् 12 जुलाई ऐसा ही दिन था मेरे लिए। परसों ही सूचना मिली कि मेरे मित्र प्रभात
के पिताजी और हम सबके गुरुदेव एवं अभिभावक-तुल्य लड्डू लाल चौधरी जी इन्द्रप्रस्थ अपोलो
में हॉस्पिटलाइज्ड हैं। परसों क्लास के बाद उनसे मिलने जाने का प्लान बनाया, पर
क्लास से निकलने के पश्चात् एक मीटिंग अटेंड करता हुआ घर की और चल पड़ा। सर से
मिलने अपोलो जाने का ख्याल तब आया जब आधी दूरी तय कर चुका था। फिर अपने मन को
समझाया कि कोई बात नहीं, कल मिल लेंगे; पर उनकी हालत गंभीर थी और आशंकित था कि पता
नहीं कल क्या हो! इन्हीं आशंकाओं के बीच कल क्लास के लिए निकलते वक़्त प्रभात को
मेसेज किया कि मित्र, आज शाम में 9 बजे के आस-पास आऊँगा, पर कहाँ पता था कि वह शाम
कभी नहीं आयेगी। थोड़ी ही देर में प्रभात का मैसेज आया कि बाबू जी नहीं रहे। और,
फिर शुरू हुआ द्वंद्व एवं पश्चाताप का सिलसिला। इच्छा हुई कि अगर जीते जी सर के
दर्शन न हो सके, तो कम-से-कम पार्थिव शरीर का तो दर्शन कर लूँ। पर, इसके लिए क्लास
को ऑफ करना होता, जो संभव नहीं था क्योंकि कल से ही बैच की शुरुआत हो रही थी। आलम
यह था कि न क्लास ऑफ कर सकता था और न ले सकता था। खैर, क्लास ऑफ करने के बाद किसी
तरह भाग-भाग कर अपोलो पहुँचा और बड़ी मुश्किल से सर के पार्थिव शरीर के दर्शन हुए।
जिस समय उनकी मौत का समाचार मिला, तब से लेकर उनके दर्शन और उसके बाद
तक ‘मिस्ड ऑपरचुनिटी’ और ‘अवसरों को भुना पाने’ की बात दिमाग में चलती रही। लगातार
खुद को इस बात के लिए कोसता रहा कि क्यों नहीं परसों ही मैं वहाँ गया और जाकर उनसे
मिला? इसी द्वंद्व में लगभग सवा छह पीछे चला गया, और पिताजी की मौत की बात रह-रह
कर मानस-पटल पर कौंधने लगी। यह स्वाभाविक ही था क्योंकि लड्डू बाबू पिताजी के
अच्छे मित्र भी थे और हमारे बड़े ही घरेलू सम्बन्ध थे। इतना ही नहीं, संयोग से
दोनों हिन्दी साहित्य के शिक्षक भी थे, और आज मैं जो कुछ भी हूँ, उस होने में
दोनों का योगदान था। इसलिए अतीत की स्मृतियों का बार-बार कौंधना अस्वाभाविक नहीं,
वो भी तब जब पिछले कुछ वर्षों से पापा से जुड़े एवं उनके हम-उम्र हर शख्सियत में
मुझे उनका अक्स नज़र आता है। इसीलिए सर से मिलना मेरे लिए एक भावुक पल था, जिसने
पापा की याद दिला दी; उनके पार्थिव शरीर ने पापा के पार्थिव शरीर की, और फिर, उनका
जाने ने पापा के जाने की। मेरी आँखों के सामने छः मार्च का वह पल तैर गया जब मैंने
दरवाज़े पर पापा के पार्थिव शरीर को अपने सामने पाया, और शायद सेकंड भर से अधिक समय
के लिए उनके दर्शन की हिम्मत नहीं जुटा पाया था।
फिर, स्कूली दिनों में खो गया। सन् 1986 का वर्ष रहा होगा, जब मेरा
दाखिला सी. एच. स्कूल, दलसिंह सराय में सातवीं कक्षा में हुआ। लड्डू बाबू हिन्दी
पढ़ाया करते थे। लम्बी और छरहरी काया थी। धोती-कुर्ता पहनते थे, और उनकी आँखों पर
चश्मा हमेशा विद्यमान रहता था। अनुशासन के मामले में उतने ही सख्त और समय के उतने
ही पाबंद। वो हमारे स्कूल के उन चन्द शिक्षकों में थे जिन्हें घंटी बजाते ही क्लास
में मौजूद पाया जा सकता था, बस उतनी ही देर जितनी दूसरे क्लास से इस क्लास की दूरी
तय करने में लगे। उनकी क्लास में सबके लिए खरही की कलम से लिखना लिखकर लाना
अनिवार्य था। यह उनके हैण्डराइटिंग-सुधारो अभियान का हिस्सा था। जिनके लेखन में
वर्तनी-संबंधी अशुद्धियाँ होतीं, या जो लिखकर नहीं लाते उनके लिए सज़ा का प्रावधान
था। सज़ा के रूप में दो अँगुलियों के बीच कलम रखकर तबतक दबाया जाता था जबतक कि
हमलोग बाप-बाप नहीं करने लगते या आँखों से आँसू नहीं झरने लगते। कभी-कभी इसकी
वैकल्पिक सज़ा भी दी जाती थी और वह कहीं अधिक क्रूर थी। अक्सर तित-भाँयट का इस्तेमाल
छड़ी के रूप में किया जाता था, जो बड़ी पतली होती थी और जहाँ लगती थी, ददरा उखड़ आता था।
और, विडम्बना यह कि वो छड़ी भी हमें खुद लानी होती थी जिससे हमारी पिटाई होती थी। आज
भी उनके द्वारा दी गयी सज़ा याद आती है, तो रूह काँप जाती है। और, हम जैसे टीचर-वार्ड
के लिए तो सज़ा दोहरी होती थी। खुद भी पिटाई करते थे, और पिताजी से भी शिकायत करते
थे: “राम बली बाबू, सर्वेशवा कै बदमाशी बैढ़ रहलअ हन। आजकल काम न करै छअ।” और,
पिताजी का जवाब होता: “कैश कै लगाहो न! केवल हाँथ-पैर नय टूटै।” ऐसी स्थिति में तो
पूरा दिन ही ख़राब हो जाता था। लेकिन, उन्हीं के सानिध्य में हिन्दी साहित्य की ओर
रुझान विकसित हुआ। उन्होंने ही अलग से एक छोटी नोटबुक रखने के लिए प्रोत्साहित किया
जिसमें हम अक्सर उन उद्धरणों को लिखा करते थे जो वे क्लास में बोला करते थे। अक्सर
क्लास में उनसे उन उद्धरणों को हमलोग दोबारा बोलवाया करते थे। जब भी उनके घर पर
जाना होता था, बड़े प्रेम से बात करते थे, और बिना खाना खाए अपने घर से आने नहीं
देते थे। ऐसे थे हमारे लड्डू बाबू, ऊपर से जितने सख्त, अन्दर से उतने ही मुलायम।
अंतिम बार उनसे तब बात हुई थी जब पिताजी गुजरे थे जिसमें वे अस्वस्थता
के कारण नहीं आ पाए थे, और इसका उन्हें अफ़सोस भी था। बीच में एक बार उनका दिल्ली
आना हुआ, लेकिन मैं उसी दिन दिल्ली से बाहर निकल रहा था जिसके कारण चाह कर भी उनसे
नहीं मिल पाया। जब मिला, तब तक तो वे स्थूल हो चुके थे, निष्प्राण। जिनको आपने
चलते-फिरते, हँसते-बोलते देखा और सुना है, उसका निष्प्राण होना अन्दर तक हिला
डालता है। कुछ वैसा ही हिला हुआ महसूस कर रहा हूँ मैं। बस कषक इस बात की है कि जब
सर पापा से मिलेंगे और पापा पूछेंगे कि ‘मुकेश से मुलाक़ात हुई थी’, तो पता नहीं कि
सर क्या जवाब देंगे? ‘प्लीज, सर, पापा से ये नहीं कहिएगा कि नहीं आया था!”
आपने जो कुछ दिया, उसके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द
नहीं हैं:
जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे,
ऊपर से नीचे तक भर दिया मुझे,
ये स्वर सकुचाते हैं, लेकिन
आपने अपने तक ही सीमित कर दिया
मुझे!
बस इतना ही!
अलविदा गुरुदेव!
गुरुदेव को शत शत नमन।सर्वेश भाई आपने पुरानी यादें ताजा कर दी
ReplyDeleteMissing Laddubabu and also missing all those golden days with great friends and great teachers. Had a chance to play host for sir at Ahmedabad. Dear Prabhat, have courage and may god give courage to we all.
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